लघुसिद्धान्तकौमुदी (केवलसमासः)


                                                       केवलसमासः 


 समासः पञ्चधा । तत्र समसनं समासः । स च विशेषसंज्ञा विनिर्मुक्तः केवलसमासः प्रथमः ।। १ ।। प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्‍ययीभावो द्वितीयः ।। २ ।। प्रायेणोत्तरपदार्थप्रधानस्‍तत्‍पुरुषस्‍तृतीयः ।। तत्‍पुरुषभेदः कर्मधारयः । कर्मधारयभेदो द्विगुः ।। ३ ।। प्रायेणान्‍यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिश्‍चतुर्थः ।। ४ ।। प्रायेणोभयपदार्थप्रधानो द्वन्‍द्वः पञ्चमः ।। ५ ।।

समास पाँच प्रकार के होते हैं – ( १ ) केवलसमास ( २ ) अव्ययीभाव, (३) तत्पुरुष [ कर्मधारय और द्विगु तत्पुरुष के उपभेद हैं ], ( ४ ) बहुव्रीहि और ( ५ ) द्वन्द्व'

( १ ) केवलसमास । जहाँ सुबन्त का समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है उसको केवलसमास या सुप्सुपा समास कहते हैं । जैसे- पूर्वम् उक्तः = पूर्वोक्तः, पूर्वम् भूतः = = भूतपूर्वः इत्यादि ।

नोट - 'पूर्व अम् उक्त स्' इसका समास करने पर प्रातिपदिक संज्ञा - करके विभक्ति का लुक् हो जाता है । तब फिर प्रातिपदिकसंज्ञा होती है और सुप् विभक्ति आती है। समास में सब जगह ऐसी प्रक्रिया होती है। 

९०७ समर्थः पदविधिः
पदसंबन्‍धी यो विधिः स समर्थाश्रितो बोध्‍यः ।।

सूत्रार्थ - पदसम्बन्धी जो कार्य वह समर्थाश्रित होता है।

अर्थात् ये पूर्वोक्त पदसम्बन्धी कार्य सामर्थ्य रहने पर ही होते हैं । सामर्थ्य दो तरह के होते हैं - व्यपेक्षारूप और एकार्थीभावरूप । स्वार्थपर्यवसायिनां पदानामाकाङ्क्षादिवशाद् यः परस्परान्वयस्तद्व्यपेक्षाभिधं सामर्थ्यम् ।' ‘विशिष्टा अपेक्षा व्यपेक्षा' तथा 'सम्बद्धार्थः समर्थः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने-अपने अर्थों में पर्यवसन्न पदों का आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि के कारण जो परस्परान्वय उसे व्यपेक्षारूप सामर्थ्य कहते हैं । जैसेराज्ञः पुरुषः आदि लौकिक विग्रह वाक्य में । 'प्रक्रिया-दशायां प्रत्येकमर्थवत्त्वेन पृथग्गृहीतानां पदानां समुदायशक्या विशिष्टैकार्थ-प्रतिपादकतारूपमेकार्थीभावलक्षणं सामर्थ्यम् । 'सङ्गतार्थः समर्थः’, ‘संसृष्टार्थ: समर्थ: । इन व्युत्पत्तियों से एकीभूतरूप अर्थ होता है। अर्थात् सार्थक पृथक् २ पदों का समुदाय शक्ति से जो एकीभूत विशिष्ट अर्थ उसके प्रतिपादक सामर्थ्य को एकार्थीभावरूप सामर्थ्य कहते हैं। इसी सामर्थ्य के रहने पर समास आदि पाँचों वृत्तियाँ होती हैं। यह सामर्थ्य 'राजपुरुष:' आदि वृत्तियों में ही रहता है। अलौकिक विग्रह वाक्य में उसकी कल्पना ही की जाती है । जहाँ यह सामर्थ्य नहीं है वहाँ 'ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः' ( धनी राजा का पुरुष ) इस तात्पर्य से 'ऋद्धस्य राजपुरुषः' ऐसा प्रयोग नहीं होता है क्योंकि राजन् शब्द ऋद्ध के साथ सापेक्ष होने से असमर्थ हो जाता है। 'सापेक्षमसमर्थवत् ।' 'सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः' 'देवदत्तस्य गुरोः कुलम्' इस अर्थ में 'देवदत्तस्य गुरुकुलम्' इत्यादि स्थलों में 'ऋद्धस्य राजपुरुष:' की तरह सापेक्ष होने से असमर्थ होने पर भी समास होता है । 'शिवस्य भगवतो भक्तः' इस अर्थ में 'शिवभागवतः' यह महाभाष्यकार के प्रयोग से कहीं पर सापेक्ष रहने पर भी समास होता है । अतः 'केषां शालीनाम् ओदनः' इस अर्थ में 'किमोदनः शालीनाम्' इत्यादि प्रयोग होता है। भर्तृहरि ने भी कहा है - "सम्बन्धिशब्दः सापेक्षो नित्यं सर्वः समस्यते ।" इत्यादि । अर्थात् सम्बन्धिवाचक शब्द जो नित्य सापेक्ष है उसका समास होता है। यहाँ एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए यदि समास का प्रधान शब्द सापेक्ष हो तो समास होता ही है । जैसे – 'राजपुरुष-सुन्दरः' । यहाँ पुरुष शब्द सापेक्ष होने पर भी प्रधान होने के कारण समास हो ही जाता है। समास का अप्रधान शब्द यदि सापेक्ष होता है तो 'देवदत्तस्य गुरुकुलम्' इत्यादि कुछ स्थलों को छोड़कर समास नहीं होता है । 

९०८ प्राक्‍कडारात्‍समासः

कडाराः कर्मधारय इत्‍यतः प्राक् समास इत्‍यधिक्रियते ।।

९०९ सह सुपा

सुप् सुपा सह वा समस्‍यते ।। समासत्‍वात्‍प्रातिपदिकत्‍वेन सुपो लुक् । परार्थाभिधानं वृत्तिः । कृत्तद्धितसमासैकशेषसनाद्यन्‍तधातुरूपाः पञ्च वृत्तयः । वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्‍यं विग्रहः । सच लौकिकोऽलौकिकश्‍चेति द्विधा । तत्र पूर्वं भूत इति लौकिकः ‘पूर्व अम् भूत सु’ इत्‍यलौकिकः । भूतपूर्वः । भूतपूर्वे चरडिति निर्देशात्‍पूर्वनिपातः ।
सूत्रार्थ-  सुबन्त का समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है।

समास होने के बाद कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा और प्रातिपदिक के अवयव सुप् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् होता है।

परार्थाभिधानं वृत्तिः। समास आदि में जब पर अपने स्वार्थ को पूर्णतया या अंशतः छोड़कर एक विशिष्ट अर्थ (पदार्थ) को कहने लग जाते है, उसे वृत्ति कहा जाता है । अभिधीयते अनेन इत्यभिधानम् करणे ल्युट् । विग्रहवाक्यावयवपदार्थेभ्यः परः =अन्यः योऽयं विशिष्टेकार्थः, तत्प्रतिपादिका वृत्तिः, अर्थात् विग्रह वाक्य के अवयव जो पद उनके अर्थों से अतिरिक्त जो एक विशिष्ट समुदायार्थ उसके प्रतिपादक को वृत्ति कहते हैं। जैसे-पीतम् अम्बरं यस्य स पीताम्बरः' । यहाँ विग्रह वाक्य के पीत और अम्बर पदों के अर्थों से अतिरिक्त 'पीत अम्बर वाला पुरुष' यह एक विशिष्ट अर्थ समासरूप वृत्ति ही से ज्ञात होता है। इसलिए कहा गया है

'पाणिन्यादिभिराचार्यैः शब्दशास्त्र प्रवक्तृभिः ।

भणिता वृत्तयो या हि विशिष्ट कार्थ-बोधिकाः ॥

समासा एकशेषाश्च तद्धिताश्च कृतस्तथा ।

सनाद्यन्ता धातवश्च ता एव पञ्चधा मताः ॥" 

दूसरे अर्थ का ज्ञान कराने का नाम वृत्ति है। यह वृत्ति पाँच प्रकार की है- कृदन्तवृत्तितद्धितवृत्तिसमासवृत्तिएकशेषवृत्ति और सनाद्यन्तधातुवृत्ति। इन सभी वृत्तियों में पदार्थों से अतिरिक्त एक समुदायार्थ प्रतीत होता है। जैसे

( १ ) समासवृत्ति में 'राजपुरुष;' से 'राजसम्बन्धी पुरुष'

( २ ) एकशेषवृत्ति में 'पितरौ' से 'माता और पिता'

( ३ ) तद्धितवृत्ति में 'दाशरथि' से 'दशरथ का अपत्य पुरुष'

(४) कृद्वृत्ति में 'कुम्भकार:' से 'कुम्भ को बनाने वाला'

(५) सनाद्यन्तधातुवृत्ति में 'पुत्रीयति' से 'अपने पुत्र की इच्छा करने वाला' इत्यादि । 

वृत्यर्थावबोधकम्। वृति के अर्थ को अभिव्यक्त करने वाले  वाक्य को विग्रह कहते हैं। 'विग्रह वाक्य' के द्वारा ही वृत्ति में आये हुए पदों को अलग-अलग करके अर्थ प्रगट किया जाता है। वह लौकिक और अलौकिक दो प्रकार का होता है। जो विग्रह लोक में प्रयोग होता हैउसे लौकिक विग्रह कहते हैं। 'लोके प्रयोगार्हः लौकिकः' । यथा- 'राजपुरुषः' इस समासवृत्ति का अर्थावबोधक वाक्य 'राज्ञः पुरुषः' है  जो केवल व्याकरण में सूत्रादि शास्त्र की प्रवृत्ति के लिए विग्रह होता हैउसे अलौलिक विग्रह कहते है। जैसे- 'राजन् अस् पुरुष स्'

भूतपूर्वः। पूर्वं भूतः यह लौकिक विग्रह और पूर्व अम् भूत सु यह अलौकिक विग्रह है। अलौकिक विग्रह में विभक्ति के साथ तथा अलौकिक विग्रह में विभक्ति को अलग कर विग्रह किया जाता हैं। ।

पूर्व अम् भूत सु इस अलौकिक विग्रह में समास होता है। इसमें सुबन्त है- पूर्व अम् इसके साथ समर्थ सुबन्त है- भूत सु। इस सूत्र में पूर्व अम् भूत सु का समास हो गया अर्थात् यह पूरा समुदाय समाससंज्ञा को प्राप्त हो गया। समास करने के बाद ‘पूर्व अम् भूत सु’ इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा हो गई, ‘पूर्व अम् भूत सु’ यह पूरा समुदाय प्रातिपदिक कहलाया।  इसलिए इसमें लगे हुए प्रत्यय प्रातिपदिक के अवयव बन गये। भूतपूर्वे चरट् इस सूत्र के निर्देश के कारण भूत शब्द का पूर्व निपातन किया है।  अम् और सु इन दो प्रत्ययों का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। भूतपूर्व बना। पहले ‘पूर्व अम् भूत सु’ की प्रातिपदिकसंज्ञा की गई थी किन्तु वह सब बदल गयाभूतपूर्व बनाफिर भी वह प्रातिपदिक बना हुआ हैक्योंकि एक परिभाषा है- एकदेशविकृतमनन्यवत् एक भाग में कोई विकार आ जाय तो वह कोई दूसरा नहीं बन जातावह ही रहता है। इस परिभाषा के बल पर पहले के प्रातिपदिक में विकृति आने पर भी प्रातिपदिकत्व बना रहता है। अतः भूतपूर्व को प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति आईउसको रूत्व और विसर्ग हुआ- भूतपूर्वः। भूतपूर्वः = जो पहले हुआ हो।

(वार्तिक) इवेन समासो विभक्‍त्‍यलोपश्‍च । वागर्थौ इव वागर्थाविव ।।
वार्तिकार्थ-  इव शब्द के साथ सुबन्त का समास होता है तथा विभक्ति का लोप भी नहीं होता।

यह सूत्र समास करने के साथ साथ सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से प्राप्त विभक्ति के लुक् का निषेध भी करता है।

वागर्थाविव। वागर्थौ इव यह लौकिक विग्रह और वागर्थ औ इव यह अलौकिक विग्रह है। अलौकिक विग्रह में इवेन सह समासो विभक्त्यलोपश्च से समास होने के बाद वागर्थ और इव की प्रातिपदिकसंज्ञा हो गई और बीच में विद्यमान और विभक्ति का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से प्राप्त लुक् को इस वार्तिक के द्वारा अलुक् (लोप का निषेध) का विधान किया गया। वागर्थौ इव बना। औकार के स्थान पर एचोऽयवायावः से आव् आदेश होकर वागर्थाविव बन गया। वागर्थाविव = वाणी और अर्थ की तरह।

इति केवलसमासः ।। १ ।।
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