सूत्रार्थ- अदादि गणपठित धातुओं से पर‘शप्’का लुक् (लोप) हो।
अत्ति। अद धातु में अन्त अकार उदात्त स्वर वाला है । इसे उपदेशेऽजनुनासिक इत् से
इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप होकर अद् शेष बचता है। 'अद्' धातु से लट् लकार आया। लट् के स्थान पर 'तिप्' हुआ। अनुबन्धलोप, ति की तिङ्शित्सार्वधातुकम् से सार्वधातुकसंज्ञा,'कर्तरि शप्' से 'शप्' हुआ। शप् का 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः' से उसका लुक् हो गया। अद्+ति बना। 'खरि च' के द्वारा अद् के दकार को चर्त्व होकर तकार आदेश हुआ,
अत् + ति बना, वर्णसम्मेलन होकर अत्ति रूप सिद्ध हुआ ।
विशेष-
इस प्रकरण में शप् का अदिप्रभृतिभ्यः शपः से लुक् होता है। लुक् तथा लोप होने में
अन्तर यह है कि लोप होने पर स्थानिवद्भाव या प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् आदि से
शप् आदि मानकर अनेक कार्य हो सकते हैं किन्तु लुक् करने पर न लुमताङ्गस्य से निषेध
हो जाता है, जिसके फलस्वरूप प्रत्ययलक्षण नहीं होता।
अत्तः। अद् + तस् में सार्वधातुकसंज्ञा,'कर्तरि शप्' से 'शप्' , शप् का 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः' से लुक् होने बाद सकार को रुत्वविसर्ग करके अत्तः रूप सिद्ध
हुआ ।
अदन्ति। अद् + झि बहुवचन में 'झ्' के स्थान पर
झोऽन्तः से अन्त् आदेश करकेअद्+अन्त्+इ- 'अदन्ति' रूप सिद्ध हुआ ।
'अत्सि' अत्थः' 'अत्थ'
अद्+सिप् में खरि च से अद् के दकार को चर्त्व होकर 'अत्सि' बनता है। इसी तरह चर्त्व होकर 'थस्' में 'अत्थः' तथा 'थ' में अद् के दकार को खरि च से चर्त्व होकर 'अत्थ' रूप बनता है।
उत्तम पुरुष के मिप्, वस्, मस् में खर् परे न मिलने के कारण में 'खरि च' से चर्त्व नहीं होता है। अद्मि में पकार का लोप,
अद्वः, अद्मः में वस् एवं मस् के सकार को रुत्व तथा विसर्ग होता है।
५५५लिट्यन्यतरस्याम्
अदो घस्लृ वा स्याल्लिटि । जघास । उपधालोपः ।।
सूत्रार्थ- ‘अद्’को‘घस्लृ’आदेश हो, ‘लिट्’के परे, विकल्प से।
घस्लृ में लृकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत् से इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप
होकर घस् बचता है।
जघास ।'अद् + लिट्' में लिट् लकार, लिट्यन्यतरस्याम् सूत्र के द्वारा 'घस्' आदेश हो गया। लिट् के स्थान पर तिप् आदेश, घस् तिप् बना।'तिप्' को 'णल्' आदेश, अनुबन्धलोप, घस्+अ बना बना। लिटि धातोरनभ्यासस्य से घस् को द्वित्व होकरघस् घस्+अ बना, पूर्व घस् कोअभ्यास संज्ञा, हलादिशेष हुआ, घघस्+अ बना। कुहोश्चुः
से अभ्यास के घकार के स्थान पर चुत्व होकर झकार हुआ। झघस्+अ बना। अभ्यासे
चर्च से झकार को जश्त्व जकार होकर ज घस् अ बना। अब 'अत उपधायाः' के द्वारा उपधासंज्ञक
घकारोत्तरवर्ती अकार को उपधादीर्घ होकर 'जघास' रूप सिद्ध हुआ ।
सूत्रार्थ- इण् और कवर्ग से परे‘शास्’ ‘वस्’और‘घस्’धातु संबन्धी सकार को षकार आदेश हो।
जक्षतुः।'अद्' से लिट्, तस्के स्थान पर परस्मैपदानां से 'अतुस्' होने पर ' घस्लृ' आदेश, द्वित्व तथा अभ्यास कार्य हलादिशेष,
चुत्व और चर्त्व होकर जघस्+अतुस् बना। इस स्थिति में 'अतुस्' के कित् होने के कारण 'गमहनजन खन०' के द्वारा घकारोत्तरवर्ती अकार उपधा का लोप हो गया। जघ् स्
अतुस् हुआ। शासिवसिघसीनां च से 'घस्' के सकार को मूर्धन्य आदेश हो गया। यहाँ आदेश या प्रत्यय का
अवयव सकार न होने के कारण आदेशप्रत्यययोः से षत्व प्राप्त नहीं था। जघ् ष् अतुस्
हुआ। षकार के परे होने पर 'खरि च' के द्वारा घकार को ककार हुआ, क् और ष् का संयोग होने पर क्ष
होकर जक्ष् + अतुस्- जक्षतुः रूप सिद्ध हुआ । इसी प्रकार 'जक्षुः' बनता है।
लिट्यन्यतरस्याम् सूत्र लिट्
में घस्लृ आदेश विकल्प से करता है। अद् को 'घस्' आदेश न होने के पक्ष में अद् को द्वित्व, हलादिशशेष होने पर अअद्
बना। अत आदेः से दीर्घ और आ+अद् में सवर्णदीर्घ करके आद् बन जाता है और आगे
वर्णसम्मेलन होने पर निम्नलिखित रूप सिद्ध हो जाते हैं- आद, आदतुः, आदुः।
सूत्रार्थ- अद्, ऋ और व्येञ् धातुओं से परे थल् को नित्य इट् का आगम हो।
आदिथ । अद् धातु से लिट् लकार के मध्यमपुरुष
-एकवचन की विविक्षा में सिप् और उसके स्थान पर परस्मैपद थल्, होकर अद् + थ रूप बना । यहाँ
अद् धातु के थल् को धातु के उपदेश में अकारवान् होने से ऋतो भारद्वाजस्य से
वैकल्पिक इट् प्राप्त था, उसे बाधकर इडत्त्यर्तिव्ययतीनाम् सूत्र से नित्य इट् होकर अद् + इ + थ रूप बना।
पुनः अभ्यास-कार्य आदि होकर आदिथ रूप-सिद्ध होता है।
आदिथ, आदधुः, आद। आद, आदिव, आदिम।
विशेष –कृसृभृवृस्तुभद्रुस्रुश्रुवो लिटि सूत्र के नियम को क्रादि नियम तथा
ऋतो भारद्वाजस्यध सूत्र के नियम को भारद्वाज नियम कहा जाता है। इन दोनों सूत्रों
के नियम अदादि, दिवादि
आदि अनेक गण के धातुओं के प्रयोग सिद्धि के अवसर पर उपस्थित होते हैं।
अत्ता
। लुट्-लकार में अद् से तिप्, तासि, डा आदेश करके अद्-ता बना। दकार को चर्त्व
होकर अत्+ता बना, वर्णसम्मेलन होकर अत्ता बन जाता है। तासि
आदि प्रत्यय के परे होने पर इट् का अभाव होता है।
लुट्-लकार
का रूप - अत्ता, अत्तारौ, अत्तारः। अत्तासि, अत्तास्थः, अत्तास्थ।अत्तास्मि, अत्तास्वः, अत्तास्मः।
अत्स्यति । लृट्-लकार में अद्+स्य+ति, इट् का अभाव, दकार को चर्त्व करके -
अत्स्यति, अत्स्यतः, अत्स्यन्ति। अत्स्यसि, अत्स्यथः, अत्स्यथ। अत्स्यामि, अत्स्यावः, अत्स्यामः रूप बनते हैं।
सूत्रार्थ- इस सूत्र 6.4.22 से लेकर षष्ठाध्याय के चतुर्थ पाद की समाप्ति पर्यन्त से विहित कार्य आभीय कहलाता है। समानाश्रय ‘आभीय’ कार्य के विषय में पूर्व कृत समानाश्रय (आभीय) कार्य असिद्ध हो।
सूत्रार्थ- सार्वधातुक कित्-ङित् परे रहते उ प्रत्ययान्त कृञ् धातु के अकार को ‘उत्’ आदेश हो।
५७६दश्च
धातोर्दस्य पदान्तस्य सिपि रुर्वा । अवेः, अवेत् । विद्यात् । विद्याताम् । विद्युः । विद्यात् । विद्यास्ताम् । अवेदीत् । अवेदिष्यत् ।। अस् भुवि ।। १७ ।। अस्ति ।। सूत्रार्थ- सिप् के परे रहते, धातु के पदान्त दकार को ‘रूत्व’ हो, विकल्प से।
५७७श्नसोरल्लोपः
श्नस्यास्तेश्चातो लोपः सार्वधातुके क्ङिति । स्तः । सन्ति । असि । स्थः । स्थ । अस्मि । स्वः । स्मः । सूत्रार्थ- सार्वधातुक कित्- ङित् के परे रहते‘श्नम्’ प्रत्यय और ‘अस्’ धातु के अकार का लोप हो।
अस भुवि। अस धातु (सत्ता, होना)। अस में सकार के अकार की इसे उपदेशेऽजनुनासिक इत् से इत्संज्ञा
और तस्य लोपः से लोप होकर अस् शेष रहता है।
अस्ति।
अस् धातु लट् लकार आया। लट् के स्थान पर 'तिप्' हुआ। तिप् में पकार का
अनुबन्धलोप, ति की
तिङ्शित्सार्वधातुकम् से सार्वधातुकसंज्ञा, 'कर्तरि शप्' से 'शप्' हुआ। शप् का 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः' से उसका लुक् हो गया। अस् +
ति बना।वर्णसम्मेलन होकर अस्ति
रूप सिद्ध हुआ ।
स्तः। अस्
धातु से लट् लकार, लकार के स्थान पर प्रथमपुरुष का द्विवचन का तस् प्रत्यय आया। अस् + तस् बना। तस् की सार्वधातुकसंज्ञा, सार्वधातुक तस् प्रत्यय बाद में होने
के कारण 'कर्तरि
शप्' से
अद् धातु से 'शप्' विकरण हुआ ।शप् का 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः' से लुक् होने बाद सार्वधातुकमपित् से
ङिद्वद्भाव करके श्नसोरल्लोपः से अस् के अकार का लोप हुआ, स् + तस् बना, वर्णसम्मेलन होकरस्तस् बना, सकार को रुत्व और विसर्ग होकर स्तः रूप
सिद्ध हुआ।
सन्ति। अस्
धातु से लट् लकार, लकार के स्थान पर प्रथमपुरुष का बहुवचन का झि प्रत्यय आया। झि की
सार्वधातुकसंज्ञा, सार्वधातुक झि प्रत्यय बाद में होने के कारण 'कर्तरि शप्' से 'शप्' विकरण हुआ । शप् का 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः' से लुक् होने बाद सार्वधातुकमपित् से
ङिद्वद्भाव करके श्नसोरल्लोपः से अस् के अकार का लोप हुआ, स् + झि बना, झि में झकार को झोऽन्तः से अन्त् आदेश
हुआ स्+अन्ति बना । वर्णसम्मेलन होकर सन्ति रूप सिद्ध हुआ।
अस् धातु के लट् लकार का रूप -
एकवचन द्विवचन बहुवचन
अस्तिस्तःसन्ति
असिस्थःस्थ
अस्मिस्वःस्मः
विशेष-
हमने देखा कि अस् धातु के तिप्, सिप् तथा मिप् प्रत्यय वाले धातुरूप में अस् का
अकार दिखाई देता है, जबकि इन तीन प्रत्यय को छोड़कर शेष स्तः, सन्ति आदि में अस्
का अकार दिखाई नहीं दे रहा है । ऐसा क्यों ?
इसे समझने के लिए आपको पहले यह देखना चाहिए कि
किस नियम व शर्तों के कारण अकार का लोप होता है। सीधी सी बात है कि नियम व शर्त पूरा
नहीं होने पर अकार का लोप भी नहीं होगा।
स्तः, सन्ति आदि स्थान पर श्नसोरल्लोपः से अस्
के अकार का लोप होता है। यह अकार का लोप तभी करेगा जब धातु का प्रत्यय ङित् के
समान (ङिद्वद्भाव) हो। जिस सार्वधातुक प्रत्यय में पकार की इत्संज्ञा नहीं हुई
हो, वह ङित् के समान (ङिद्वद्भाव) होता है।
देखें सूत्र- सार्वधातुकमपित् ।
सारांश यह हुआ कि
(क)जिस प्रत्यय के पकार की इत्संज्ञा हुई हो, वह पित् है।
(ख)जिस प्रत्यय के पकार की इत्संज्ञा नहीं हुई हो, वह ङित् के समान है।
चुँकि तिप्, सिप् तथामिप् में पकार की इत्संज्ञा होती है, अतः ये
तीनों पित् है। पित् होने के कारण यह ङित् नहीं है। श्नसोरल्लोपः ङित् प्रत्यय
वाले अस् के अकार का लोप करता है। स्पष्ट है कि तिप्, सिप् तथा मिप् प्रत्यय श्नसोरल्लोपः के शर्तों
पर खड़ा नहीं उतर रहा है अत: अस् के अ का लोप नहीं होता है। शेष में ङिद्वद्भाव
हो जाने के कारण अकार का लोप हो जाता है।
५७८उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः
उपसर्गेणः प्रादुसश्चास्तेः सस्य षो यकारेऽचि च परे । निष्यात् । प्रनिषन्ति, प्रादुः षन्ति । यच्परः किम् ? । अभिस्तः ।। सूत्रार्थ- यकार और अच् के परे रहते उपसर्ग सम्बन्धी ‘इण्’ से परे और ‘प्रादुस्’ (सान्त अव्यय) से परे ‘अस्’ धातु के सकार को षकार हो।
५७९अस्तेर्भूः
आर्धधातुके । बभूव । भविता । भविष्यति । अस्तु, स्तात् । स्ताम् । सन्तु ।। सूत्रार्थ- ‘अस्’ धातु को ‘भू’ आदेश हो, आर्धधातुक की विवक्षा में।
बभूव। अस् धातु से परोक्ष, अनद्यतन, भूत अर्थ में परोक्षे लिट् से लिट् लकार हुआ, लिट् में इकार टकार का अनुबन्धलोप, ल् शेष रहा। ल् के स्थान पर तिप् हुआ। अनुबन्धलोप
होकर अस् + ति बना। यहाँ ति की सार्वधातुकसंज्ञा नहीं होती है क्योंकि अग्रिमसूत्र
लिट् च से सार्वधातुकसंज्ञा को बाधकर लिट् लकार की आर्धधातुकसंज्ञा हो जाती है।
अत: कर्तरि शप् से शप् भी नहीं हुआ। ति के स्थान पर परस्मैपदानां
णलतुसुस्-थलथुस-णल्वमाः से णल् आदेश हुआ। णल् में लकार को हलन्त्यम्
से इत्संज्ञा और णकार को चुटू से इत्संज्ञा तथा दोनों का तस्य लोपः से लोप
होकर केवल अ शेष बचा। अस् + अ बना। अस्तेर्भूः से अस् के स्थान पर भू आदेश
करने पर भू+अ बना। भुवो वुग् लुङ्लिटोः से वुक् का आगम हुआ, अनुबन्धलोप होकर व् शेष बचा। वुक् कित् है अतः भू के अन्त्य का अवयव होगा।
भूव् + अ बना। लिटि धातोरनभ्यासस्य से भूव् को द्वित्व होकर, भूव् + भूव् + अ बना। पूर्वोऽभ्यासः से पहले वाले भूव् की अभ्यास
संज्ञा और हलादि शेष: से अभ्याससंज्ञक भूव् में जो आदि हल् भकार हैं, वह शेष रहा तथा अन्य हल् वकार का लोप हो गया। भू +
भूव् + अ बना। ह्रस्वः से अभ्याससंज्ञक भू के ऊकार को ह्रस्व होकर भु हुआ, भु + भुव + अ बना। भवतेरः से भु के उकार के स्थान पर अकार आदेश हुआ, भ + भूव् + अ बना। अभ्यासे चर्च से झश् भकार के स्थान पर जश् बकार आदेश
होकर बभूव् + अ हुआ। वर्णसम्मेलन होकर बभूव रूप सिद्ध हुआ।
बभूवतुः, बभूवुः। बभूविथ, बभूवथुः, बभूव। बभूव, बभूविव, बभूविम रूप की सिद्धि के लिए अस् को भू आदेश कर लें। जहाँ-जहाँ अस् को भू आदेश होता है उसकी रूप सिद्धि के लिए भ्वादिप्रकरणमें भू धातु पर क्लिक करें।
भविता । लुट् लकार में ति की तिङ्शित्सार्वधातुकम्
से सार्वधातुकसंज्ञा, कर्तरि शप् से प्राप्त शप् को बाधकर स्यतासी लृलुटोः से तासि
प्रत्यय होता है। तासि धातु से विहित है, तिङ् और शित् से भिन्न भी है। अत: इसकी
आर्धधातुकं शेष: से आर्धधातुकसंज्ञा हो जाती है। अतः आर्धधातुक की विवक्षा
में अस्तेर्भूः से अस् को भू आदेश होकर भू धातु की प्रक्रिया के अनुसार ही
रूप बनते हैं।
अस् धातु लुट् लकार का रूप
भविता भवितारौ
भवितारः
भवितासि भवितास्थः
भवितास्थ
भवितास्मि भवितास्वः भवितास्मः
भविष्यति
। अस् + लृट्, लृट् के
स्थान पर तिप् हुआ। स्यतासी लृलुटोः से स्य प्रत्यय, अस् + स्य + ति बना। स्य की आर्धधातुकं शेषः से
आर्धधातुकसंज्ञा,अस्तेर्भूः से अस् को भू आदेश करके भविष्यति बना लें। इसी तरहभविष्यतः, भविष्यन्ति । भविष्यसि, भविष्यथः, भविष्यथ। भविष्यामि, भविष्यावः, भविष्यामः रूप बनते हैं।
अस्तु-स्तात्। अस् धातु से लोट्, शप्, उसका लुक् होने पर अस् + ति बना।एरुः से ति के इकार को उत्व करके अस्तु
रूप सिद्ध हुआ। अब तुह्योस्तातङ्ङाशिष्यन्यतरस्याम् से अस्तु के तु के
स्थान पर आशीर्वाद अर्थ में विकल्प से तातङ् आदेश हुआ। तातङ् में अकार तथा ङकार का
अनुबन्धलोप होकर तात् शेष बचा। अस्तात् रूप बना।
तातङ् में ङकार की इत्संज्ञा होने के कारण यह ङित् है
अतः श्नसोरल्लोपः से अस्तात् के अकार का लोप होकर स्तात् रूप सिद्ध हुआ । जिस पक्ष
में तातङ् आदेश नहीं होगा वहाँश्नसोरल्लोपः से अकार का लोप भी नहीं होगा। अस्तु रूप
ही रहेगा।
स्ताम् और सन्तु । अस् धातु से लोट् लकार, प्रथम पुरुष में लकार के स्थान पर तस् एवं झि लाकर पूर्ववत् अकार का लोप करकेस्ताम्
और सन्तु रूप सिद्ध होता है।
५८०घ्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च
घोरस्तेश्च एत्त्वं स्याद्धौ परे अभ्यासलोपश्च । एत्त्वस्यासिद्धत्वाद्धेर्धिः । श्नसोरित्यल्लोपः । तातङ्पक्षे एत्त्वं न, परेण तातङा बाधात् । एधि, स्तात् । स्तम् । स्त । असानि । असाव । असाम । आसीत् । आस्ताम् । आसन् । स्यात् । स्याताम् । स्युः । भूयात् । अभूत् । अभविष्यत् ।। इण् गतौ ।। १८ ।। एति । इतः ।। सूत्रार्थ- घुसंज्ञक धातु और ‘अस्’ धातु को ‘एत्व’ और अभ्यास का लोप हो, ‘हि’ के परे।
एधि,
स्तात्। अस्
धातु से लोट् लकार, अनुबन्धलोप, लकार के स्थान पर मध्यमपुरुष का एकवचन सिप् हुआ।अस् + सि
बना।शप्, उसका लुक्, सेर्ह्यपिच्च से सि
के स्थान पर हि आदेश, अस् + हि बना । घ्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च से अस् के स्थान पर ए हुआ। ए +
हि बना। घ्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च से अस् के स्थान पर हुए एत्व को असिद्ध
मानकर हुझल्भ्यो हेर्धिः से हि के स्थान पर धि आदेश हुआ। वर्णसंयोग करके एधि
रूप सिद्ध हुआ। एक पक्ष में तुह्योस्तातङ्ङाशिष्यन्यतरस्याम् से हि के
स्थान पर तातङ् आदेश होगा । इस पक्ष में श्नसोरल्लोपः से अस् के अकार का लोप भी होकर
स्तात् रूप बनेगा।
घ्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च सूत्र पर विशेष-
घ्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च सूत्र के द्वारा किये
गये एत्व कार्य हुझल्भ्यो हेर्धिः की दृष्टि में असिद्ध है। क्योंकि हुझल्भ्यो
हेर्धिः झलन्त के बाद वाले हि को धि करता है। यदि अस् को एकार कर दिया जाय तो धि
करने के लिए झलन्त नहीं मिलेगा। फलस्वरूप धि आदेश नहीं हो पाएगा। अतः एत्व कार्य
हुझल्भ्यो हेर्धिः की दृष्टि में असिद्ध है। ऐसा होने पर एत्व असिद्ध होकर हि को
धि हो जाता है
५८१इणो यण्
अजादौ प्रत्यये परे । यन्ति ।। इणो-इण् धातु को यण् हो, अजादि प्रत्यय के परे।
५८२अभ्यासस्यासवर्णे
सूत्रार्थ- अभ्यासस्य इवर्णोवर्णयोरियङुवङौ स्तोऽसवर्णेऽचि । इयाय ।। अभ्यास सम्बन्धी इवर्ण-उवर्ण को इयङ्-उवङ् आदेश हो, असवर्ण ‘अच्’ के परे।
५८३दीर्घ इणः किति
इणोऽभ्यासस्य दीर्घः स्यात् किति लिटि । ईयतुः । ईयुः । इययिथ, इयेथ । एता । एष्यति । एतु । ऐत् । ऐताम् । आयन् । इयात् ।। सूत्रार्थ- कित् लिट् के परेरहते ‘इण् धातु के अभ्यास को दीर्घ हो ।
५८४एतेर्लिङि
उपसर्गात्परस्य इणोऽणो ह्रस्व आर्धधातुके किति लिङि । निरियात् । उभयत आश्रयणे नान्तादिवत् । अभीयात् । अणः किम् ? समेयात् ।। सूत्रार्थ- उपसर्ग से परे ‘इण्’ धातु के ‘अण्’ को ह्रस्व हो, आर्धधातुक कित् लिट् के परे। उभयत- उभयतः आश्रयण में अन्तादिवद्धाव नहीं हो।
५८५इणो गा लुङि
गातिस्थेति सिचो लुक् । अगात् । ऐष्यत् ।। शीङ् स्वप्ने ।। १९ ।। सूत्रार्थ- इङ् को ‘गा’ आदेश हो लुङ् के विषय में।
५८६शीडः सार्वधातुके गुणः
क्ङिति चेत्यस्यापवादः । शेते । शयाते ।। सूत्रार्थ- ‘शीङ्’ धातु को गुण हो, सार्वधातुक के परे।
इङो गाङ् वा स्यात् ।। सूत्रार्थ- लुङ् लङ् के विषय में‘इङ्’ को ‘गाङ्’ आदेश हो, विकल्प से।
५९०गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित्
गाङादेशात्कुटादिभ्यश्च परेऽञ्णितः प्रत्यया ङितः स्युः ।। सूत्रार्थ- ‘गाङ्’ और कुट आदि धातुओं से परे से परे ञित्, णित्, से भिन्न प्रत्यय ‘ङित्’ हो।
इक्समीपाद्धलः परौ झलादी लिङि्सचौ कितौ स्तस्तङि । धुक्षीष्ट ।। सूत्रार्थ- इक् समीप हल् से परे झलादि लिङ् और झलादि सिच्, कित् हो आत्मनेपदे में
५९३शल इगुपधादनिटः क्सः
इगुपधो यः शलन्तस्तस्मादनिटश्च्लेः क्सादेशः स्यात् । अधुक्षत् ।। सूत्रार्थ- इगुपध, शलन्त धातुसे परे अनिट् ‘च्लि’ को ‘क्स’ आदेश हो।
५९४लुग्वा दुह-दिह-लिह-गुहामात्मनेपदे दन्त्ये
एषां क्सस्य लुग्वा स्याद्दन्त्ये तङि । अदुग्ध, अधुक्षत ।। सूत्रार्थ- दुह्, दिह्,लिह् तथा गुह् धातु से परे ‘क्स’ का ‘लुक्’ हो, दन्त्य त ङ्के परे विकल्प से।
ब्रुवो लटस्तिबादीनां पञ्चानां णलादयः पञ्च वा स्युर्ब्रुवश्चाहादेशः । आह । आहतुः । आहुः ।। सूत्रार्थ- ‘ब्रू’ धातु से परे लट् लकार स्थानिक तिप् आदि पाँचों प्रत्ययों को णल आदि आदेश हो, विकल्प से और ‘ब्रू’ को ‘आह’ आदेश भी हो।
५९७आहस्थः
झलि परे । चर्त्वम् । आत्थ । आहथुः ।। सूत्रार्थ- ‘झल्’ के परे रहते ‘आह्’ को थकारान्त आदेश हो।
५९८ब्रुव ईट्
ब्रुवः परस्य हलादेः पित ईट् स्यात् । ब्रवीति । ब्रूतः । ब्रुवन्ति । ब्रूते । ब्रुवाते । ब्रुवते ।। सूत्रार्थ- ‘ब्रू’ धातु से परे हलादि ‘पित्’ को ‘ईट्’ का आगम हो।
एभ्यश्चलेरङ् स्यात् ।। सूत्रार्थ- अस् और ख्या धातुओं से परे च्लि को अङ् आदेश हो।
६०१वच उम्
अङि परे । अवोचत्, अवोचत । अवक्ष्यत्, अवक्ष्यत । सूत्रार्थ- आङ् प्रत्यय के परे रहते वच् को उम् का आगम हो। (ग. सू) चर्करीतं च । चर्करीतमिति यङ्लुगन्तस्य संज्ञा, तददादौ बोध्यम् ।। ऊर्णुञ् आच्छादने ।। २५ ।। सूत्रार्थ- ‘चर्करीतम्’ यङ्लुगन्त को कहते हैं। उसे अदादि गण में समझना चाहिए।
६०२ऊर्णोतेर्विभाषा
वा वृद्धिः स्याद्धलादौ पिति सार्वधातुके । ऊर्णौति, ऊर्णोति । ऊर्णुतः । ऊर्णुवन्ति । ऊर्णुते । ऊर्णुवाते । ऊर्णुवते । सूत्रार्थ- ‘ऊर्णु’ धातु को वृद्धि हो, हलादि पित् सार्वधातुक के परे, विकल्प से। (ऊर्णोतेराम्नेति वाच्यम्) ।। सूत्रार्थ- ऊर्णु धातु को ‘आम्’ नहीं हो ‘लिट्’ के परे।
६०३न न्द्राः संयोगादयः
अचः पराः संयोगादयो नदरा द्विर्न भवन्ति । नुशब्दस्य द्वित्वम् । ऊर्णुनाव । ऊर्णुनुवतुः । ऊर्णुनुवुः ।। सूत्रार्थ- ‘अच्‘ से परे संयोग के आदि नकार, दकार और रेफ को द्वित्व नहीं हो।
६०४विभाषोर्णोः
इडादिप्रत्ययो वा ङित्स्यात् । ऊर्णुनुविथ, ऊर्णुनविथ । ऊर्णुविता, ऊर्णविता । ऊर्णुविष्यति, ऊर्णविष्यति । ऊर्णौतु, ऊर्णोतु । ऊर्णवानि । ऊर्णवै ।। सूत्रार्थ- ‘ऊर्णु’ धातु से परे इङादि प्रत्यय ‘ङित्’ हो, विकल्प से।
६०५गुणोऽपृक्ते
ऊर्णोतेर्गुणोऽपृक्ते हलादौ पिति सार्वधातुके । वृद्ध्यपवादः । और्णोतु । और्णोः । ऊर्णुयात् । ऊर्णुयाः । ऊर्णुवीत । ऊर्णूयात् । ऊर्णुविषीष्ट, ऊर्णविषीष्ट ।। सूत्रार्थ- ‘ऊर्णु’ धातु को गुण हो, अपृत्कसंज्ञक हलादि ‘पित्’ सार्वधातुक के परे।
६०६ऊर्णोतेर्विभाषा
इडादौ सिचि वा वृद्धिः परस्मैपदे परे । पक्षे गुणः । और्णावीत्, और्णुवीत्, और्णवीत् । और्णाविष्टाम्, और्णुविष्टाम्, और्णविष्टाम् । और्णुविष्ट, और्णविष्ट । और्णुविष्यत्, और्णविष्यत् । और्णुविष्यत, और्णविष्यत ।। सूत्रार्थ- इडादि परस्मैपद पद सिच् प्रत्यय के परे रहते ऊर्णु धातु कोविकल्प से वृद्धि हो ।
संस्कृत को अन्तर्जाल के माध्यम से प्रत्येक लाभार्थी तक पहुँचाने तथा संस्कृत विद्या में महती अभिरुचि के कारण ब्लॉग तक चला आया। संस्कृत पुस्तकों की ई- अध्ययन सामग्री निर्माण, आधुनिक
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