vइस प्रकरण में तुद् धातु आदि में है अतःइसे तुदादिप्रकरण
कहा जाता है।
vयह 'शप्' का अपवाद है। यहाँ श प्रत्यय होता है। श में शकार की लशक्वतद्धिते से
इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप होकर केवल अ बचता है। श में शकार की इत्संज्ञा होने
के कारण अ शित् है। अतः उसकी तिङ्शित्सार्वधातुकम् से सार्वधातुकसंज्ञा होती है
किन्तु सार्वधातुक होते हुए भी वह अपित् है, अत: इसको सार्वधातुकमपित् से ङिद्वद्भाव हो जाता है। ङित् होने से इसके
पूर्व इक् को प्राप्त गुण और वृद्धि का क्ङिति च से निषेध होता है। इसलिए श के परे
होने पर पूर्व को गुण और वृद्धि दोनों ही नहीं होते।
vतुद में स्वरित अकार की इत्संज्ञा होने के कारण
स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले से यह उभयपदी धातु है। यहाँ एकाच
उपदेशेऽनुदात्तात् से इट् का निषेध हो जाता है अतः यह अनिट् है, किन्तु लिट् में
इट् हो जाता है।
तुद व्यथने ।। १ ।।
'तुद' का
अर्थ है- पीड़ा पँहुचाना, दुःख देना, सताना, चुभोना आदि।
सूत्रार्थ- (कर्ता अर्थ में हुए सार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते) तुदादिगण की
धातुओं से श प्रत्यय हो ।
तुदति। तुद् धातु से लट् लकार, ल के
स्थान पर तिप्, तिप् की सार्वधातुकसंज्ञा हुई। यहाँ कर्तरि शप् से शप्
प्राप्त हुआ, उसे बाधकर तुदादिभ्यः शः से श हो गया। श में शकार शकार
की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप होने पर केवल अ शेष बचा। तुद्+अ+ति
बना। श पित् नहीं है। श वाला अ अ-पित् सार्वधातुक है, अतः सार्वधातुकमपित् से ङिद्वद्भाव हो गया। ङिद्वद्भाव होने के कारण पुगन्तलघूपधस्य
च से तुद् के उकार के स्थान पर प्राप्त लघूपधगुण का क्ङिति च से निषेध हुआ। तुद्+अ
में वर्णसम्मेलन होकर तुदति रूप सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार लट् लकार के परस्मैपद में- तुदति, तुदतः, तुदन्ति । तुदसि, तुदथः, तुदथ । तुदामि, तुदावः
तुदामः रूप सिद्ध करें।
तुदते । तुद्
से कर्ता अर्थ में लट् के स्थान पर आत्मनेपदसंज्ञक 'त' प्रत्यय
आया। तिङ्शित्सार्वधातुकम् के द्वारा 'त' की
सार्वधातुक संज्ञा हुई। यहाँ कर्तरि शप् से शप् प्राप्त हुआ, उसे
बाधकर तुदादिभ्यः शः से श हो गया। श में शकार शकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा
और तस्य लोपः से लोप होने पर केवल अ शेष बचा। तुद्+अ+त बना। श पित् नहीं है। श
वाला अ अ-पित् सार्वधातुक है, अतः
सार्वधातुकमपित् से ङिद्वद्भाव हो गया। ङिद्वद्भाव होने के कारण पुगन्तलघूपधस्य च
से तुद् के उकार के स्थान पर प्राप्त लघूपधगुण का क्ङिति च से निषेध हुआ। वर्णसम्मेलन
करने पर तुदत हुआ। तुदत में तकारोत्तरवर्ती अन्त्य अच् अकार की अचोऽन्त्यादि टि से
टिसंज्ञा हुई और टित आत्मनेपदानां टेरे से उसके स्थान पर एकार आदेश होकर तुदते रूप
सिद्ध हुआ।
यह उभयपदी धातु है। इसके आत्मनेपद में- तुदते, तुदेते, तुदन्ते । तुदसे, तुदेथे, तुदध्वे । तुदे, तुदावहे, तुदामहे रूप बनेंगें।
तुतोद। तुद् धातु से कर्ता अर्थ में परोक्ष, अनद्यतन, भूत अर्थ में परोक्षे लिट् से लिट् लकार हुआ, लिट् में इकार टकार का अनुबन्धलोप, ल् शेष रहा। ल् के स्थान पर तिप् आदि आदेश प्राप्त हुए। तिप् आदि आदेश की
परस्मैपद संज्ञा, तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः से तिप् की
प्रथमपुरुषसंज्ञा, प्रथमपुरुष का एकवचन तिप् आया। अनुबन्धलोप होकर तुद् + ति
बना। यहाँ ति की सार्वधातुकसंज्ञा नहीं होती है, क्योंकि अग्रिमसूत्र लिट् च से
सार्वधातुकसंज्ञा को बाधकर लिट् लकार की आर्धधातुकसंज्ञा हो जाती है। अत: तुदादिभ्यः
शः से श भी नहीं हुआ। ति के स्थान पर परस्मैपदानां णलतुसुस्- थलथुस-णल्वमाः से
णल् आदेश हुआ। णल् में लकार को हलन्त्यम् से इत्संज्ञा और णकार को चुटू से
इत्संज्ञा तथा दोनों का तस्य लोपः से लोप होकर केवल अ शेष बचा। तुद् + अ बना। लिटि
धातोरनभ्यासस्य से तुद् को द्वित्व होकर, तुद् + तुद्
+ अ बना। पूर्वोऽभ्यासः से पहले वाले तुद् की अभ्यास संज्ञा और हलादि शेष: से
अभ्याससंज्ञक तुद् में जो आदि हल् तकार हैं, वह शेष रहा तथा अन्य हल् दकार का लोप हो गया। तु + तुद्
+ अ बना। पुगन्तलघूपधस्य च आर्धधातुक अ परे होने से तुद् के उकार को गुण ओकार
होकर तुतोद् + अ हुआ। वर्णसम्मेलन होकर तुतोद
रूप सिद्ध हुआ।
तुतोदिथ। 'तुद्' धातु से लिट् के स्थान पर मध्यम पुरुष एकवचन की विवक्षा में 'सिप्' प्रत्यय हुआ । 'परस्मैपदानां णलतुसुस्थलथुसणल्वमा:' के द्वारा सिप् के स्थान पर 'थल्' आदेश हुआ। 'थल्' में लकार
का अनुबन्ध लोप हो गया। भू + थ हुआ। 'लिट् च' सूत्र के द्वारा 'थ' की आर्धधातुक संज्ञा हुई । तिङ् के स्थान पर 'थ' होने के कारण स्थानिवद्भाव से थल् में 'तिङ्' का गुण धर्म आया। तुद् + थ'-यहाँ 'थ' वलादि आर्धधातुक है। अतः इट् का आगम हो गया । इट् का
टकार की इत्संज्ञा लोप होकर 'तुद् इ थ' बन गया। 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' के द्वारा प्रथम एकाच् को द्वित्व हो गया। तुद् तुद् इ थ। 'पूर्वोऽभ्यासः' के द्वारा पूर्व तुद् की अभ्यास संज्ञा तथा 'हलादिः शेषः' से अभ्यास के दकार का लोप हो गया। तु तुद् इ थ हुआ। पुगन्तलघूपधस्य
च आर्धधातुक थ परे होने से तुद् के उकार को गुण ओकार होकर तुतोद् + इ थ हुआ। परस्पर वर्ण सम्मेलन करने पर तुतोदिथ रूप सिद्ध
हो गया।
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