७०१ स्वतन्त्रः कर्ता
सूत्रार्थ - क्रिया में स्वतन्त्र रूप से विवक्षित कारक कर्तृकर्ता संज्ञक होता है।
क्रिया में स्वतंत्ररूप से विवक्षित कारक को इस प्रकार समझें। जैसे- पाचयति इस क्रिया में कर्ता विवक्षाधीन है। यहाँ अग्निः पाचयति। मोहनः पाचयति। विद्युत् पाचयति वाक्य में पाचयति का कर्ता विवक्षाधीन है। यहाँ प्रत्येक वाक्य में बोलने वाले की इच्छा के अनुसार कर्ता बदलते गया। अर्थात् वक्ता जिसे कर्ता कहना चाहें,वही कर्ता होता है। अतः क्रिया में स्वतन्त्र रूपेण विवक्षित कारक को कर्त्ता कहा जाता है।
७०२ तत्प्रयोजको हेतुश्च
सूत्रार्थ
- कर्त्ता के प्रयोजक (प्रेरक) की हेतु तथा कर्तृ
संज्ञाएँ होती हैं।
जैसे-
छात्र पढ़ता है। इस वाक्य में कार्य करने वाला छात्र है, अतः इसे कर्ता कहा जाता
है। इसकी कर्तृसंज्ञा होती है। 'अध्यापक छात्र
को पढ़ाता है'- इस वाक्य में पढ़ाने जैसे कार्य का प्रयोजक (प्रेरक)
अध्यापक को कर्तृ तथा हेतु संज्ञा होती है। अतः अध्यापक को कर्ता तथा हेतु कहा जाएगा।
प्रथम कर्ता 'छात्र' को प्रयोज्य
कर्त्ता तथा प्रेरणा के कर्ता 'अध्यापक' को प्रयोजक कर्त्ता कहा जायेगा।
७०३ हेतुमति च
भावयति
। 'भवन्तं
प्रेरयति'- इस विग्रह में 'भू' धातु से 'हेतुमति च' से 'णिच्' प्रत्यय हुआ। भू + णिच् हुआ। णिच्
में णकार की इत्संज्ञा चुटू से तथा चकार की इत्संज्ञा हलन्त्यम् से होकर तस्य लोपः
से लोप हुआ। णिच् में णकार की इत्संज्ञा होने के कारण 'अचो ञ्णिति'
से वृद्धि होकर भौ + इ हुआ।
एचोऽयवायावः से औ को आव् आदेश होकर भाव् इ, वर्ण संयोग करके भावि बना । अब 'सनाद्यन्ता धातवः' से भावि की धातुसंज्ञा हुई। लादेश,
तिप्, शप्, शप् में शकार तथा पकार का अनुबन्धलोप होकर भावि अ ति हुआ । सार्वधातुकार्धधातुकयोः
से गुण, अय् आदेश होकर 'भावयति' रूप सिद्ध हुआ ।
विशेष
अभी तक
आपने स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले से क्रिया का फल कर्ता को प्राप्त होने
पर आत्मनेपद अन्यथा परस्मैपद का विधान होते देखा। इस प्रकरण में क्रिया का फल कर्ता को प्राप्त
होने पर णिचश्च सूत्र से णिजन्त धातु से आत्मनेपद का विधान होता है । क्रिया का फल
कर्ता को प्राप्त नहीं होने पर परस्मैपद होता है। इस प्रकार णिजन्त प्रकरण में धातु
के णिजन्त होने से परस्मैपद और आत्मनेपद हो जाता है। फलतः धातुओं के
रूप परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों में चलते हैं।
सूत्रार्थ
– सन् प्रत्यय परे होने पर जो अङ्ग,
उसके अवयव अभ्यास के उकार के स्थान पर इकार आदेश हो जाता है,
यदि पवर्ग, यण् या जकार में से कोई परे हो और
इन से परे अकार हो ।
अबीभवत्
। भू धातु से 'हेतुमति च' से
'णिच्' प्रत्यय हुआ। भू + णिच्
हुआ। णिच् में णकार की इत्संज्ञा चुटू से
तथा चकार की इत्संज्ञा हलन्त्यम् से होकर तस्य लोपः से लोप हुआ। ण्यन्त 'भू' से लुङ् सूत्र से लुङ् लकार आया। लुङ्लङ्लुङ्क्ष्वडुदात्तः से अट् का आगम,
अट् में टकार का अनुबन्धलोप, टित् होने के
कारण भू का आदि अवयव बना। लकार के स्थान पर तिप् आदेश, ति के
इकार का इतश्च से लोप होकर अ भू इ + त् हुआ। तकार की तिङ्शित्सार्वधातुकम् से
सार्वधातुकसंज्ञा, कर्तरि शप् से शप् की प्राप्ति, उसको बाधकर च्लि लुङि से च्लि प्रत्यय, च्लि में
इकार उच्चारणार्थक है। च्लि में चकार की चुटू से इत्संज्ञा, तस्य
लोपः से लोप, ल् के स्थान पर च्लेः सिच् से सिच् आदेश प्राप्त
था, उसको बाधकर णिश्रिद्रुस्रुभ्यः कर्तरि चङ् से ण्यन्त
धातु मानकर चङ् आदेश हुआ। चकार और ङकार की इत्संज्ञा और लोप होने के बाद अ शेष
बचा। अभू + इ + अ + त् बना। णित्वात् वृद्धि की प्राप्ति हुई। णिच्यचादेशो न
द्वित्वे कर्तव्ये इस परिभाषा के अनुसार पहले चङि सूत्र से भू को द्वित्व हुआ,
उसकी अभ्याससंज्ञा ह्रस्वः से प्रथम भू को ह्रस्व हुआ और अभ्यासे
चर्च से जश्त्व होकर बु हुआ, अबु + भू + इ + अत् बना। अचो ञ्णिति
से भू क ऊकार की वृद्धि औकार होकर अबु + भौ + इ + अत् बना। । औ को आव् आदेश, अबु + भाव् + इ + अत् बना। अब
णौ चड्युपधाया ह्रस्वः से उपधाभूत भाव के आकार को ह्रस्व होकर अबु+भव्+इ+अत् बना।
णेरनिटि से णिच् वाले इकार का लोप हुआ। अबु+भव्+अत् बना। सन्वल्लघुनि
चङ्परेऽनग्लोपे से अभ्यास बु के लिए सन्वद्भाव अर्थात् सन् के परे होने पर जो
कार्य हो सकते हैं, वे कार्य हो जायें ऐसा अतिदेश कर दिया।
सन्वद्भाव होने के बाद अभ्यास बु को ओः पुयण्ज्यपरे से इत् अर्थात् ह्रस्व इकार
आदेश हुआ अबि भव्+अत् बना। दीर्घो लघो: से बि के इकार को दीर्घ हुआ, अबी+भव्+अत्, वर्णसम्मेलन करके अबीभवत् रूप सिद्ध हुआ।
ष्ठा गतिनिवृत्तौ इति । ‘ष्ठा'
का अर्थ 'गति' तथा 'निवृत्ति' है। यह षोपदेश है। 'धात्वादेः
षः सः' से षकार को सकार आदेश हो जाता है। 'पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्दृश्यर्त्तिसर्त्तिशदसदां
पिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यर्च्छधौशीयसीदाः' से स्था को 'तिष्ठ' आदेश हो जाता है।
सूत्रार्थ
–
ॠ,
ह्वी, व्ली, री, क्नूयी, क्ष्मायी और आकारान्त धातुओं को 'पुक्' आगम हो णिच् परे रहते।
पुक् के
उकार तथा ककार इत्संज्ञक हैं।
स्थापयति
। 'स्था
णिच्' इस अवस्था में अर्ति-ह्वी-व्ली-री-क्नूयी-क्ष्माय्यातां
पुङ् णौ से 'पुक्' का आगम होकर स्थापि
बनता है। पुनः तिप्, शप्, गुण आदि होकर 'भावयति' की तरह कार्य होकर 'स्थापयति' रूप
बना।
सूत्रार्थ
–
स्था धातु की उपधा को इकार आदेश होता है, चङ् परक णिच् परे रहते ।
अतिष्ठिपत्
। स्था धातु से 'हेतुमति च' से
'णिच्' प्रत्यय हुआ। स्था +
णिच् हुआ। णिच् में णकार की इत्संज्ञा
चुटू से तथा चकार की इत्संज्ञा हलन्त्यम् से होकर तस्य लोपः से लोप हुआ। अर्ति-ह्वी-व्ली-री-क्नूयी-क्ष्माय्यातां
पुङ् णौ से 'पुक्' का आगम होकर स्थापि बना। ण्यन्त 'स्थापि' से लुङ् सूत्र से लुङ् लकार आया। लुङ्लङ्लुङ्क्ष्वडुदात्तः से अट् का आगम,
अट् में टकार का अनुबन्धलोप, टित् होने के
कारण स्थापि का आदि अवयव बना। लकार के स्थान पर तिप् आदेश, ति
के इकार का इतश्च से लोप होकर अ स्थापि + त् हुआ। तकार की तिङ्शित्सार्वधातुकम् से
सार्वधातुकसंज्ञा, कर्तरि शप् से शप् की प्राप्ति, उसको बाधकर च्लि लुङि से च्लि प्रत्यय, च्लि में
इकार उच्चारणार्थक है। च्लि में चकार की चुटू से इत्संज्ञा, तस्य
लोपः से लोप, ल् के स्थान पर च्लेः सिच् से सिच् आदेश
प्राप्त था, उसको बाधकर णिश्रिद्रुस्रुभ्यः कर्तरि चङ् से
ण्यन्त धातु मानकर चङ् आदेश हुआ। चकार और ङकार की इत्संज्ञा और लोप होने के बाद अ
शेष बचा। अ स्थाप् इ + अ + त् बना। तिष्ठतेरित्
से स्था के आकार को इकार हुआ। अ स्थिप् इ + अ + त् बना। चङि से स्थिप् को द्वित्व
होकर अस्थिप् स्थिप् इ अत् बना। शर्पूर्वाः खयः से पूर्व स्थिप् के सकार का लोप
अथि स्थिप् इ अत् हुआ । णेरनिटि से णिच् वाले इकार का लोप हुआ। अभ्यासे चर्च से
अभ्यास के थकार को चर् तकार हुआ । अति स्थिप् इ अत् हुआ । आदेशप्रत्यययोः से सकार
को षकार, अतिष्थिपत् तथा ष्टुना ष्टुः से थकार को ष्टुत्व ठकार होकर अतिष्ठिपत्
रूप सिद्ध हुआ।
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