साहित्यदर्पण में विश्वनाथ द्वारा दी गयी अल्प सूचना के अनुसार इनका ब्राह्म्ण कुल से सम्बन्ध था। उनके प्रपितामह,
नारायण उद्भट विद्वान् थे और अलंकार शास्त्र के प्रकांड पण्डित।
विश्वनाथ के काव्यप्रकाश दर्पण में इन्हें पितामह भी कहा गया है। विश्वनाथ के पिता
चन्द्रशेखर भी प्रसिद्ध कवि तथा विद्वान् थे। उन्होंने दो मौलिक कवियों पुष्पमाला
तथा ‘भाषागांव‘ की रचना की थी, उनके अनेक पद्य साहित्य दर्पण में उद्धृत हैं। साहित्यदर्पण से ही ज्ञात
होता है कि विश्वनाथ स्वंय तथा उनके पिता कलिंग सम्राट के दरबार में संधिविग्राहक
के पद पर नियुक्त रहे। इस तथ्य से उनके उड़ीसा प्रान्त से सम्बद्ध होने का प्रमाण
भी मिलता है। इसी की पुष्टि उड़ीया भाषा
के अनेक उद्धरणो से भी होती है। काव्यप्रकाश की टीका दीपिका के कर्ता चण्डीदास को
भी उनका सम्बन्धी माना जाता है। विश्वनाथ ने रूय्यक तथा मम्मट का यद्यपि नामोल्लेख नहीं किया तथापि वे इन
दोनों लेखकों के ग्रन्थों की सामग्री का पर्याप्त प्रयोग करते हैं। मम्मट की काव्य
परिभाषा का ही अधिकांश अनुकरण साहित्यादर्पण में दिखाई देता है। रूय्यक के
उपभेयोपमा और भान्तिमत् अलंकारो को भी मान्यता देते है। विश्वनाथ गीतगोविन्द के
रचयिता जयदेव तथा नैषधकार श्रीहर्ष का भी उल्लेख करते हैं। वे जयदेव के ‘प्रसन्न राघव’ से केदली कदली श्लोक को उद्धृत करते
है। इसके अतिरिक्त कल्हण की राजतरंगिणी के एक श्लोक को भी वे दशम अध्याय में उद्धत
करते हैं। इन सारे तथ्यों से इस बात का निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे 12 वीं शताब्दी के अन्तिम भाग अथवा 13 वीं शताब्दी के
प्रारम्भ में हुए थे।
विश्वनाथ तथा उनका साहित्यदर्पण
प्रसिद्ध ग्रन्थ
साहित्यदर्पण के अतिरिक्त विश्वनाथ ने अनेक ग्रन्थ लिखे है, साहित्यदर्पण में ही उन्होंने अपनी रचनाओं का उल्लेख किया हैः-
1. राधवविलास काव्य।
2. कुवलयाश्वचरित-यह प्राकृत
की रचना है।
3. प्रभावती परिगणय-इसका
उल्लेख साहित्यदर्पण तथा काव्य-प्रकाश पर विश्वनाथ की टीका काव्य-दर्पण दोनों में मिलता
है।
4. प्रशस्ति-रत्नावली-यह 16 भाषाओं में निबद्ध ‘करभक’ है।
5. चन्द्रकला नाटिका।
6. काव्य प्रकाश दर्पण-इसका
उल्लेख साहित्यदर्पण में नहीं, सम्भवतः यह साहित्यदर्पण के
अनन्तर रचा गया था।
7. नरसिंह काव्य-इसका उल्लेख
काव्य प्रकाश दर्पण में उपलब्घ है।
‘साहित्यदर्पण‘ यद्यपि मौलिक ग्रन्थ नहीं है,
फिर भी यह अत्यन्त लोक-प्रिय रहा है। ग्रन्थकार ने इसके दस अध्यायों
में नाट्यसहित काव्यशास्त्र के समस्त विषयों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
विषय सूची इस प्रकार है:
प्रथम परिच्छेद में
काव्य प्रयोजन, काव्य लक्षण दिए गए हैं। विश्वनाथ प्रायः सभी
पूर्ववर्ती प्रसिद्ध आचार्यों की काव्य परिभाषा की आलोचना के अनन्तर अपनी परिभाषा
देते है ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।
द्वितीय परिच्छेद में शब्द
और वाक्य की परिभाषा की अनन्तर शब्द शक्तियों का विवेचन है।
तृतीय परिच्छेद में रस,
भाव तथा रस सम्बन्धी अन्य सभी तत्वों की विशद व्याख्या है।
चतुर्थ
परिच्छेद में ध्वनि तथा गुणीभूत व्यंग्य का सांगोपांग विवचेन है।
पंचम परिच्छेद
में व्यन्जना विरोधियों की समस्त युक्तियों के खंडन के अनन्तर परिच्छेद की स्थापना
की गई है।
छठे परिच्छेद में नाट्य सम्बन्धी सभी महत्वपूर्ण विषयों की प्रस्तुति
है।
सप्तम परिच्छेद में काव्य-दोष वर्णित है।
अष्टम में त्रिगंराावाद की स्थापना,
दशगुण-वाद का खंडन तथा तीनों गुणों के लक्षण उपलब्ध है।
नवम
परिच्छेद में वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली
और लाटी राीतियां वर्णित हैं।
दशम परिच्छेद में शब्दालंकारों और अर्थालंकारो का
वर्णन है।
संस्कृत काव्यशास्त्र
के दिग्गजों की तुलना में विचार तत्व की न्यूनता के कारण विश्वनाथ बौने लगते है।
आनन्दवर्धन, अभिनव या मम्मट की तुलना में वे द्वितीय श्रेणी
के आलंकारिक प्रतीत होते हैं फिर भी उनके ग्रन्थ में कुछ एक ऐसी विशेषताएं है
जिनके कारण इसकी लोकप्रियता विशेषकर साहित्य शास्त्र के प्रारम्भिक छात्र के लिए
सर्वोपरि रही है। इसका सबसे बड़ा वैशिप्ट्य है कि इनमें अलंकार शास्त्र तथा नाट्य
सम्बन्धी प्रायः सभी सामग्री पाठक को एक ही स्थान पर मिल जाती है। दण्डी, मम्मट तथा जगन्नाथ प्रभृति अनेक ग्रन्थकारों ने प्रायः नाट्य सामग्री को
अपने ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया। ग्रन्थ की शैली सरल सुबोध एवं प्रवाहमयी है,
भाषा की कठिनता पाठक के लिए समस्या नहीं है जो कि मम्मट और पण्डितराज
जगन्नाथ दोनों में है। यद्यपि कहीं कहीं विश्वनाथ बाल की खाल उतारने की प्रवृति के
शिकार होते हैं तो भी उनकी विचारस्पष्टता सराहनीय है। परन्तु मौलिकता के अभाव में
उन्हें अधिक से अधिक एक संग्रहकर्ता की संज्ञा ही दी जा सकती है। अलंकार
सर्वस्व की उनकी ऋणता इसमें विशेष रूप से प्रतिपादित है। केवल लक्षण ही नहीं वे
उदाहरणों में से उन्होंने 85 सीधे ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश तथा ‘ अलंकार सर्वस्व से लिए हैं। अपनी
नूतनताएं प्रस्तुत करने के प्रयास में वे प्रायः भटके है।
विश्वनाथ टीकाकारों में विशेष
लोकप्रिय नही रहें। उनके ग्रन्थ पर दो तीन टीकाएं ही मुद्रित हुई है। सम्भवतः
ग्रन्थ की अतिसरलता ही इसका कारण रही। इसी कारण यह लोकप्रिय भी बना हुआ है।
जगदानन्द झा जी नमस्कार,
जवाब देंहटाएंसंस्कृत विषय में आपकी रुचि और विद्वता देखकर मन प्रफुल्लित हुआ।आपसे निवेदन कि आप साहित्यदर्पण के सभी दसों परिच्छेदों की व्याख्या वेबसाइट पर अपलोड कर दीजिए जिससे छात्रों का हित हो सके।
काव्यप्रकाश का कार्य पूरा हो गया है। आपने उत्साह दिलाया है। इसे भी पूरा करूँगा।
हटाएंकाव्यप्रकाश का कार्य पूरा हो गया है। आपने उत्साह दिलाया है। इसे भी पूरा करूँगा।
हटाएंSir Kavya Prakash darpan tika ke bare me btao...kha milegi
जवाब देंहटाएंसाहित्यदर्पण और काव्यप्रकाश में जैसे काव्यप्रयोजन,काव्यहेतु,लक्षण, अभिवृत्ति, आदि सभी का दोनो ही ग्रन्थो का साथ मे आप यहाँ लिखते तो हमें पुस्तक न भी होती तो आसानी से आपके ब्लॉग पे हम पढ़ सकते है,,,, अगर आप ऐसा करने का प्रयास करेंगे तो आपका आभार महोदय।।धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कार्य किया गया आपके द्वारा
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कार्य किया गया है आपके द्वारा
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