हम यहाँ विचार
करेंगे कि वर्तमान संस्कृत शिक्षा का उद्देश्य क्या है?
नौकरी के लायक संस्कृत
शिक्षा में सुधार करने के खतरे क्या है?
संस्कृत का सामाजिक योगदान या प्रासंगिकता क्या हैं ?
आज भी
संस्कृत विद्यालयों का पाठ्यक्रम ऐसा है कि जिसे पढ़कर शिक्षा क्षेत्र को छोड़कर
अन्य क्षेत्र में रोजगार पाना मुश्किल होता है। शिक्षा क्षेत्र में भी रोजगार के
बहुत ही कम अवसर उपलब्ध हैं। आज शिक्षा
का नाम लेते ही रोजगार उसके साथ स्वतः जुड़ जाता है। पहले बच्चों द्वारा गलत काम करने पर हर कोई टोकता था, कहता था तुम पढ़े लिखे
हो। परन्तु आज समाज में शिक्षा के प्रति वह सोच नहीं रहा। क्या मान लिया जाय कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य रोजगार ही है ? शिक्षा का उद्देश्य भौतिक विकास मात्र है ?
देश में पारंपरिक संस्कृत विद्यालयों तथा
विश्वविद्यालयों की स्थापना शास्त्र संरक्षण को ध्यान में रख कर की गई। हजारों
वर्षों से सिंचित ज्ञान संपदा को हम यूं ही भुला नहीं सकते। यह मानव सभ्यता के
विकास का सबसे प्रामाणिक लिखित साक्ष्य हैं। कोई भी देश केवल आर्थिक उन्नति से ही
महान नहीं होता, बल्कि जिसका गौरवमय अतीत हो, जिसके पास गर्व करने लायक संपदा उपलब्ध हो, वह महान कहलाता है। जिस प्रकार
हम अपने भौतिक धरोहरों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आचार -
व्यवहार, कला, सांस्कृतिक विकास आदि
ज्ञानरूपी धरोहर की सुरक्षा करने के लिए संस्कृत विद्यालयों की स्थापना की गई।
संस्कृत शिक्षा केवल भाषाबोध तक सीमित नहीं है, बल्कि यह
हमें भारतीय सामाजिक ताना-बाना, यहां की परंपरा, रिश्ते, आचार-व्यवहार को समझने में मदद करती है । यह अन्तर्मन के विकास की कुँजी है। अन्तःकरण या अन्तर्मन के विकास को समझना इतना कठिन भी नहीं है। संतुष्टि उसमें से एक तत्व है। मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रः ।
भारतीयों की जीवन पद्धति संस्कृत ग्रंथों की भित्ति पर ही खड़ी है। संस्कृत
ग्रंथों ने हमें सदियों से पाप- पुण्य की सीख देकर सद्मार्ग पर चलना सिखाया। यहाँ
व्यक्ति किसी राजदण्ड के भय से नहीं, अपितु अन्तरात्मा तक पैठ बना चुका पाप के भय
से नियंत्रित रहते हैं। यह विद्या उच्च नैतिक मानदंड के पालन हेतु प्रेरित करता
आया है, जिसके फलस्वरूप हमारे जीवन में पुलिस और न्यायालय का
हस्तक्षेप अत्यल्प रहा। संस्कृत के ग्रंथों ने ही सदियों से ललित कलाओं द्वारा मानव
को मनोरंजन का साधन भी उपलब्ध कराया। आरोग्य हो या विधि-व्यवस्था सभी क्षेत्र में
संस्कृत ग्रंथों का अतुलनीय योगदान रहा है। भाषा विज्ञान, ध्वनि
विज्ञान, तर्क पूर्वक निर्णायक स्थिति तक पहुंचाने में
संस्कृत ग्रंथ ने नींव का कार्य किया है, जिसके बलबूते हम आज
इस स्थिति तक पहुंच सके हैं।
मैंने उपशास्त्री कक्षा में मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय का अध्ययन किया । तब
इस ग्रन्थ में वर्णित भूगोल तथा सांस्कृतिक चेतना को ठीक से समझ नहीं सका था। अब
जब पुनः इसे पढ़ता हूँ तब इन ग्रन्थों की उपादेयता समझ में आती है, जो रोजी रोटी
से कहीं आगे तक का संदेश देता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए यह ग्रन्थ हमें
बार बार प्रेरित करता है कि एतान्द्विजातयो
देशान्संश्रयेरन्प्रयत्नतः । एक भूभाग की सीमा रेखा खींची गयी है और
कहा गया कि इस देश में प्रयत्न पूर्वक निवास करे। यह संदेश हममें जीवट उत्पन्न
करता है । इस भूभाग से बेदखल किये जाने के हरेक कुचक्र से सावधान रहने का
संदेश भी देता है। मनुस्मृति ग्रन्थ से सरस्वती नदी के विनशन अर्थात् उसके विनाश की
सूचना भी हमें मिलती है। हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं
यत्प्राग्विनशनादपि । विनशन का एक अन्य अर्थ नदी का वह मुहाना होता है,
जहाँ से डेल्टा क्षेत्र शुरू होता है। यहाँ जाकर नदी बिखर जाती हो, या किसी कारण
से समाप्त हो जाती है। सरस्वती का पूरा अवशेष आज भी मिलते हैं। ऋग्वेद से लेकर मनु
के समय तक सरस्वती और दृषद्वती नामक नदी का अस्तित्व रहा होगा। ऋग्वैदिक ऋषि इसकी स्तुति करते रहे- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु। इसका संगम परिणत
नामक स्थान पर होता है, जिसे वर्तमान में यह पहचान लिया गया है । वह सूरतगढ़ का मानक
थेड़ी स्थान है। सरस्वती के विनशन होने से इसी दूरी मापी जा चुकी
है। सम्पूर्ण श्लोक देखें-
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ॥ १७॥
सरस्वती और दृषद्वति इन दोनों नदियों के मध्यभाग को ब्रह्मावर्त देश कहा गया
है । देवनदी का अर्थ होता है देवता द्वारा निर्मित। यह द्व तथा निर्मित शब्द नदी तथा
देश प्राशस्त्य को कहता है ॥ १७ ॥
कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः।
एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः॥ १९ ॥
मत्स्यादि बहुवचनान्त शब्द देश विशेष वाचक
हैं । पञ्चाल कान्यकुब्ज देश को कहा गया है। शूरसेनक मथुरादेश को कहा गया है । यह
ब्रह्मर्षि देश ब्रह्मावर्त से थोड़ा छोटा है ॥ १९॥
हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि ।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः॥२१॥
उत्तर दिशा में अवस्थित हिमवान् (हिमालय) तथा दक्षिण दिशा में अवस्थित विन्ध्य
पर्वत है। इन दोनों के मध्य विनशन अर्थात् सरस्वती के अन्तर्धान होने वाले देश से जो
के पूर्व और प्रयाग से जो पश्चिम भूभाग है, वह मध्यदेश के नाम से देश कहा गया है ॥
२१ ॥
आ समुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ॥ २२ ॥
पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक हिमालय तथा विन्ध्य के मध्य को पण्डित
लोग आर्यावर्त देश जानते हैं । यहाँ आङ् उपसर्ग मर्यादा अर्थ में है। इसका अर्थ
हुआ कि समुद्र के मध्य द्वीपों में आर्यावर्तता नहीं है अपितु आर्य अत्र यहाँ रहे ।
बार बार उत्पन्न लेते रहे है। २२॥
कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः।
स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः ॥ २३ ॥
कृष्णसार मृग जहाँ स्वाभाविक रूप से रहते है। न कि बल पूर्वक कहीं से लाया
गया,जैसा कि चिड़ियाघर में आजकल लाया जाता है। वह यज्ञ करने योग्य देश जानना चाहिए । अन्य म्लेच्छदेश यज्ञ करने
योग्य नहीं हैं।॥ २३ ॥
एतान्द्विजातयो देशान्संश्रयेरन्प्रयत्नतः।
शूद्रस्तु यस्मिन्कस्मिन्वा निवसेद्वृत्तिकर्शितः ॥ २४ ॥
अन्यदेश में उत्पन्न हुआ द्विजाति भी यज्ञार्थ और पुण्य के लिए इस देश में
निवास करें। । शूद्र वृत्ति के लिए अन्य देश में भी निवास करें॥ २४ ॥
जिस दिन संस्कृत का अध्ययन और अध्यापन बंद होगा,
उसी दिन भारतीय देवी-देवता, तीर्थ आदि की
अस्मिता खतरे में पड़ जाएगी। हम अपनी भौगोलिक सीमा तथा सांकृतिक
चेतना को खो देंगें। यह एक ऐसी विद्या है, जो भले ही
उत्पादक न दिख रही हो, परंतु सामाजिक ताना बाना को बनाए रखने
और उसे सुदृढ़ करने में इसकी महती आवश्यकता है। यह भाषा धर्म (धैर्य, क्षमा,
अपरिग्रह , चोरी नहीं करना आदि सद्गुण) का मूल स्रोत है। इसके साहित्य अपनी
कथानकों, नायकों के चरितों के द्वारा समाज को शिक्षित करते रहा है। अब कालिदास के
रघुवंशम् ही एक उदाहरण लीजिये, जिसमें स्त्रियों का स्वतंत्र अभिज्ञान तथा उच्च
नैतिक मानदण्ड वर्णित है।
का त्वं
शुभे कस्य परिग्रहो वा किं वा मदभ्यागमकारणं ते ।
हे शुभे!
तुम कौन हो? तुम किसकी भार्या हो? मेरे निकट तुम्हारे आने का कारण क्या है?
आचक्ष्व
मत्वा वशिनां रघूणां मनः परस्त्रीविमुखप्रवृत्ति ।।
यह मानकर
बोलो कि इन्द्रिय निग्रही रघुवंशियों के मन की प्रवृत्ति दूसरे की स्त्री के प्रति
विमुख होता है। (रघुवंशम्)
विमर्श-
कस्य परिग्रहो के पूर्व वाक्य का त्वं शुभे से ज्ञात होता है कि स्त्रियों का
स्वतंत्र अभिज्ञान स्थापित था। इसमें असफल रहने पर ही पुरूष की पहचान से स्त्री
पहचानी जाती थी। अपनी इन्द्रियों पर पुरूष का इतना नियंत्रण होता था कि वे स्त्री
को देखकर चलायमान नहीं होता था। पुनः उस समय के समाज में बलात्कार,
स्त्री अधिकारों के हनन का प्रश्न ही नहीं था। कोई कानून शास्ता न
होकर व्यक्ति स्वयं होते थे। उच्च चारित्रिक आदर्श, स्त्रियों
की स्वतंत्रता, न्यूनतम कानून, न्यूनतम
पुलिस यदि चाहिए तो संस्कृत पढ़िए। महिलाओं को सच्चा सम्मान संस्कृत पढ़कर ही दिया
जा सकता है। महाभारत से लेकर भारवि का किरातार्जुनीयम्, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस हमें गुप्तचरी विद्या के पाठ पढ़ाते हैं। जो संस्कृत नहीं पढ़े होते वे स्त्री को स्वतंत्र देख पुरूष और स्त्री
के बीच के सम्बन्ध को चोर निगाह से देखते हैं।
संस्कृत साहित्य में प्रकृति वर्णन विपुल मात्रा
में हुआ है। इसके अध्ययन करने से अध्येता सहज रूप से प्रकृति प्रेमी हो जाता है।
वह जल, वायु, पृथ्वी, अंतरिक्ष को प्रदूषण मुक्त करने में अग्रेसर होता है। वह
द्यौः शान्तिः, अंतरिक्ष शान्तिः की बात करने लगाता है। इसी भाषा से अन्य भारतीय
भाषाओं की उत्पत्ति हुई है। यह क्षेत्रीय भाषा को भाषाई प्रदूषण से बचाती है। लोक
कला, लोक संस्कृति को सुरक्षा कवच देती है। प्राचीन साहित्यिक व सामाजिक विचारों
का इन भाषाओं पर व्यापक प्रभाव पड़ा। यही भाषा हमें एक राष्ट्र के रूप में जोड़ती
है। भाषा के बारे में लाखों सफाई दी जाय कि भाषा केवल ज्ञान का वहन करती है परन्तु
यह सच है कि यह किसी समुदाय विशेष के आचार-व्यवहार का भी वहन करती है। सनातनियों
के द्वारा जब कोई धार्मिक आयोजन किया जाता है तब समाचार पत्र उसे सर्वधर्म समभाव
लिखता है,जबकि मुस्लिमों के आयोजन को कौमी एकता। संस्कृत में तलाक शब्द या इसका
पर्यायवाची शब्द नहीं मिलता।
संस्कृत
शिक्षा प्रणाली में आधुनिक विषयों के समावेश के खतरे
पारंपरिक
संस्कृत विद्यालयों में विशेषतः शास्त्रों का शिक्षण होता है। यदि हम वर्तमान
प्रतियोगी परीक्षा पर आधारित पाठ्यक्रम को विद्यालयों में लागू करते हैं तो
शास्त्र शिक्षण का पक्ष गौण हो जाएगा। धीरे-धीरे इन विद्याओं का हस्तक्षेप बढ़ता
जाएगा। अंततः शास्त्रों की शिक्षा समाप्त हो जाएगी। ज्ञान आधारित शिक्षा को सूचना
आधारित शिक्षा में परिवर्तित होते देर नहीं लगेगी। ज्ञानार्जन के स्थान पर रोजगार
प्राप्ति मात्र लक्ष्य शेष बचेगा। उतना और वही अध्ययन लक्ष्य होगा,
जितने से रोजगार मिल जाय। इस प्रकार हम अपने पूर्वजों द्वारा संचित
और प्रवर्तित विशाल बौद्धिक संपदा से वंचित हो जाएंगे। किसी भी राष्ट्र के लिए यह
शुभ नहीं कहा जा सकता कि वह अपने गौरवमय अतीत को बोध कराने वाली, मानव मन में सौन्दर्य की सृष्टि करने वाली तथा अपनी दार्शनिक ज्ञान संपदा
को खो दे। कवितायें एक ओर मानव को सौन्दर्य बोध कराने का कार्य करती है तो दूसरी
ओर उसमें मानवोचित संवेदना को भी जागृत करती है। व्यावसायोन्मुखी शिक्षा के कारण
मानवीय संवेदना की कमी होती जा रही है, जो कि किसी भी सभ्य समाज के लिए खतरे की
घंटी है। आज मार्ग में चोटिल हुए, अभावग्रस्त, रोगग्रस्त मानव के लिए जो संवेदना
चाहिए, वह कम होती जा रही है। भ्रष्टाचार, अनैतिकता रोके नहीं रुक रही।
संस्कृत
भाषा में मानव को संस्कारित करने के लिए रामायण, महाभारत जैसे असंख्य ग्रन्थ लिखे
गये हैं। मंदिर, राजप्रासाद आदि लोकहितकारी कला के नमूने हैं, स्वास्थ्य रक्षण के लिए योग, आयुर्वेद जैसी असंख्य
विद्याएं हैं, जो हमारे अंतर्मन तथा वाह्य शरीर को विकसित करती ही है, साथ में जीवन को भी सुगम बनाती है।
वर्तमान
में ज्ञानार्जन और रोजगार के बीच समन्वय स्थापित करने हेतु किये जा रहे प्रयास
विगत कुछ
वर्षों में संस्कृत शिक्षा को सरल और रोजगारोन्मुख बनाने के उद्देश्य से कई
राज्यों में माध्यमिक संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन किया गया। इसके पाठ्यक्रम भी
निर्धारित किए गए। कक्षा 10 तक तीन प्रश्न
पत्र (संस्कृत व्याकरण, साहित्य आदि) विषयों के साथ गणित,
विज्ञान, अंग्रेजी आदि आधुनिक विषयों का
समावेश किया गया है, ताकि वहां से उत्तीर्ण छात्र विभिन्न
प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं में सम्मिलित होकर नौकरी पा सकें। उत्तर प्रदेश
माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद् का पाठ्यक्रम अत्यंत पुराना है। इसमें भी बदलाव
किए जा रहे हैं। इसमें मैं भी काफी प्रयास किया। सूचना के सहज प्रसार के लिए
वेबसाइट का निर्माण कराया। कोमल मति के बालक दृश्य श्रव्य उपकरणों के माध्यम से
संस्कृत सीख सकें, इसके भी अनेक प्रकार की पाठ्यचर्या निर्मित की जा रही है। इन
संस्थाओं को तकनीक से समुन्नत किया जा रहा है, ताकि छात्र
वेबसाइट के माध्यम से परीक्षा परिणाम को जान सकें। सूचनाओं का आदान प्रदान सुलभ हो
सके। उपाधि की समकक्षता, परीक्षा की मान्यता आदि की सूचना
रोजगार प्रदाता को आसानी से उपलब्ध हो ताकि रोजगार के अवसर अधिक से अधिक संस्थाओं
में उपलब्ध हो सकें। प्राविधिक संस्कृत शैक्षिक उपकरण निर्माण कार्यशाला कानपुर से
प्रेरणा लेकर देश की विभिन्न संस्थायें इस प्रकार का आयोजन करने लगी लगी है। कई
अणुशिक्षण का निर्माण हुआ है। संस्कृत व्याकरण के लिए अनेक संसाधन निर्मित किये
गये तथा किये जा रहे हैं। लघु चलचित्र, गीत संगीत द्वारा
संस्कृत भाषा को जन जन तक पहुँचाया जा रहा है।
क्या
हम बदलाव के लिए तैयार हैं?
कई बार हम
कार्य करने में असफल होते हैं फिर भी वह असफलता दूसरों के लिए मार्गदर्शिका होती
है। हमें शिक्षा सुधार तथा रोजगार के अवसर सृजित करने हेतु नित्य नये प्रयोग को
करते रहने की आवश्यकता है। हमें स्वयं के ज्ञान को अद्यतन रखना होगा। इस क्षेत्र
में कार्य करने वालों की संख्या अल्प है, जबकि
लक्ष्य विस्तृत। हमें अपने हितों की सुरक्षा के लिए सजग रहना होगा। अतः कुछ लोग
शिक्षण, कुछ लोग संगठन और कुछ लोग प्रबोधन का कार्य करें।
सभी लोगों में सामंजस्य हो। इससे परिणाम पाना सरल होगा। कई बार हम अंग्रेजी तथा
तकनीकी शिक्षा के बढ़ते दायरे को देखकर समय को कोसते हैं। हमें उनके सांगठनिक
स्वरूप तथा कार्य पद्धति से सीख लेने की आवश्यकता है। वे योजनाबद्ध तरीके से कार्य
करते हैं। वे बढ़ती नगरीय संस्कृति, गांव से शहर की ओर पलायन
को ध्यान में रखकर नई आवासीय कॉलोनियों के
इर्द-गिर्द अपने विद्यालय हेतु भूमि की व्यवस्था कर लेते हैं। उस क्षेत्र में अनेक
संगठन कार्यरत हैं। एक संगठन अपने विद्यालयों की शाखा का विस्तार अनेकों शहर में
करते हैं। वहां सामूहिक चेतना कार्य करती है। संस्कृत क्षेत्र में भी जिन शिक्षण
संस्थाओं का संचालन संगठन द्वारा किया जा रहा है, उनकी
स्थिति अच्छी है। जैसे आर्य समाज द्वारा संचालित विद्यालय। जब हम किसी समूह या
संगठन के तहत विद्यालयों का संचालन करते हैं तो उसकी एक भव्य रूपरेखा होती है,
भविष्य की चिंता होती है, जिसमें प्रचार,
शिक्षा सुधार, प्रतिस्पर्धा,पूंजी निवेश होते रहता है। संगठित संस्था द्वारा विद्यालयों की श्रृंखला
शुरु करने से दीर्घकालीन नीति बनाने, समसामयिक समस्या का हल
ढूंढने, सामाजिक परिवर्तन लाने में सुविधा होती है। कुल
मिलाकर केवल संस्कृत शिक्षा के पाठ्यक्रम मात्र में सुधार कर देने से रोजगार के अवसर नहीं बढ़ सकते।
संस्थाओं को सांगठनिक रूप देने, प्रतिस्पर्धी माहौल तैयार
करने एवं पूंजी निवेश के उपाय ढूंढने से काफी हद तक बदलाव देखा जा सकता है।
नोट- मेरा यह लेख संस्कृतसर्जना ई-पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है।
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जवाब देंहटाएंHeetam dhatu roop seedhi fast abhi
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉग में मेरा फोन नं. दिया है। आप मुझे फोन कर लें ताकि मैं आपकी जिज्ञासा को ठीक से समझ सकूँ।
हटाएंबहुत सुंदर सार्थक लेख महोदय सादर आभार।
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