धारा 497 तथा संस्कृत भाषा

जब सरकार बलात्कार को रोकने और अदालत न्याय देने में विफल होने लगी तो एक नया मार्ग ढ़ूँढ़ा गया। वह था-  दो वयस्कों को आपसी सहमति से साथ रहने का अधिकार देना। फिर भी बलात्कार नहीं रुका। इसका क्षेत्रफल और आगे बढ़कर संवासिनी गृह तक फैलने लगा। अनाथ बच्चियां हबस की शिकार बनने लगी। इधर सरकार रोजगार के अवसर बढ़ाने में विफल थी। नोट  बन्दी तथा अन्य अदूरदर्शी निर्णय से उद्योग धंधा चौपट हो चुका था। जनसंख्या वृद्धि तथा जनसंख्या असंतुलन के कारण समाज पर इसका विपरीत प्रभाव ये दोंनों सरकार के लिए सिरदर्द हो चुका है। यह सभी विकास कार्यों को निगल जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण, बलात्कार को रोकने तथा नये क्षेत्र में रोजगार सृजन के लिए अदालत में एक अर्जी के माध्यम से नया फैसला दिलवाया  गया। वह था- समलैंगिक सहवास की स्वीकृति। जब कोई अप्राकृतिक संबन्ध बनायेगा तो इंफेक्शन से बचाव के लिए उपकरण लगाने होंगें। इसके लिए नये उद्योग लगेंगें। वस्तुओं का विक्रय होगा।  जनसंख्या वृद्धि भी रुकेगी। बलात्कार भी रुकेगा। फैसला देने वालों को आशा थी कि इतना कुछ करने के बाद देश आगे चल निकलेगा। अपराध कम हो जायेंगें।
लेकिन न्यायालय उस भारतीय महिलाओं के कलह / आचरण से परेशान रहा होगा,जिसकी शिकायतें प्रतिदिन बढ़ती जा रही होगी। ढ़ेरों शिकायतें रही होगी। कोई अन्य पुरुष दूसरे की पत्नी के साथ उसके पुरुष की सम्मति या मौनानुकूलता के बिना मैथुन करना। यह मैथुन चुंकि स्त्री की इच्छा से होता है अतः इसपर बलात्संग के अपराध का अभियोग नहीं चल सकता था। स्त्री का पति परपुरूष पर जारकर्म के अपराध का परिवाद दायर करता था। इसमें पांच वर्ष तक का कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किये जाने का नियम था । अब भारतीय दण्ड विधान संहिता की धारा 497 (Adultery) । इसके रहते आर्थिक रूप से स्वाबलम्वी महिलायें पति की वर्जना से परेशान थी। लोकलाज तथा लम्बी कानूनी लड़ाई के कारण पति को किनारे करना आसान नहीं था। इस चक्कर में आये दिन पुलिस,न्यायालय और सरकारें राहत भरी सांस लेना चाह रही थी। उसने पति से महिलाओं के दुश्चरित्र होने शिकायत करने वाला झंझट खत्म करना उचित समझा।
मुझे नहीं लगता कि पुरूष को संतुष्ट करने के लिए सभी तरह की सुविधा या व्यवस्था दे देने के बाद भी यह पुरूष संतुष्ट हो जाय, सम्भावना कम है। देश में रोजगार मिलने लगे,यह भी संभावना शून्य है। अलवत्ता अब बाहर निकलकर काम करने वाली लड़की, विवाहिता स्त्री के प्रति अलग भाल जग सकता हैं। यह सुनिश्चित होने के बाद अब इसका पति मेरा कुछ भी नहीं विगाड़ सकता चलो इसे पटाया जाय। यदि पट गयी तो जीवन भर मौज। घरेलू महिलाओं को डर सताने लगेगा। मेरा पुरुष पता नहीं कब किसी विवाहिता को रखैल बना ले।
 सारांश में समाज, सरकारें तथा न्यायपालिका को महाभारत का यह उपदेश याद रखना चाहिए-
 न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
 हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
काम, कामनाओं के उपभोग से  कभी शांत नहीं होती, प्रत्युत जैसे घी की आहुति डालने पर आग और भड़क उठती है, ऐसे ही भोग-वासना भी भोगों के भोगने से और अधिक बढ़ जाती है।
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।। श्रीमद् भगवद्गीता
हे कुन्तीनन्दन इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढका हुआ है।
कामं कामयमानस्य यदा कामः समृध्यते।
अथैनमपरः काम इष्टो विध्यति बाणवत्।। महाभारत
जारकर्म को मान्य कर देने, समलैंगिक सहवास को सहा ठहरा देने भर से सामाजिक प्रगति नहीं हो सकती। बल्कि समाज को सही शिक्षा तथा सही आचरण से सुधारा जा सकता है। प्रश्न उठता है कि क्या इनका निर्णय स्त्रियों को पूजा कराने के लिए दिया गया? अरे! स्त्रियों को भी पति की शिकायत करने का अधिकार दे देते, परन्तु अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए व्यभिचार को प्रोत्साहित करने वाला निर्णय दिया।
संस्कृत शिक्षा, जो संस्कारों के लिए जानी जाती है, इसका प्रसार किया जाता। अन्यथा इस पुरूष का भूख तब भी शांत नहीं हुआ था, जब एक व्यक्ति को सैकड़ों पत्नियाँ तथा दासियां रखने का अधिकार था। भारत को भोग की भूमि नहीं अपितु योग की भूमि बनाने की आवश्यकता थी। समानता का अधिकार देते के लिए सुधारात्मक कदम की आवश्यकता थी। इससे अब आपसी कलह बढ़ेंगें । अविश्वास पैदा होगा। तलाक के मामले बढ़ सकते हैं। अनाथालय बनवाने होंगें। जारकर्म से उत्पन्न बच्चे असामाजिक गतिविधि कर सकते हैं। उनके पालन- पोषण की नई समस्या उठ खड़ी होगी। शिशुओं पर गलत प्रभाव पड़ेगा। उनका लालन पालन प्रभावित हो सकता है।


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1 टिप्पणी:

  1. महान विभूतियां संस्कृत के बारे में क्या बोले हैं।
    जैसे विवेकानंद गांधीजी अंबेडकर इनके संस्कृत के प्रति सोच को अगर कोटेशन के रूप में प्रकाशित करें तो लाभदायक होगा

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