सांख्य शास्त्र के आदि आचार्य कपिल मुनि हैं। सांख्य शब्द ‘“संख्या" शब्द में अण् प्रत्यय करने से की निष्पन्न होता है । गणनार्थक ‘“संख्या” शब्द से निष्पन्न " साङ्ख्य" शब्द की निष्पति इस प्रकार है-
"संख्या"
शब्द की सम् उपसर्ग पूर्वक + चक्षिङ् धातु (ख्याञ्) दर्शने से अङ् प्रत्यय + टाप्
से बनता है। इसका अर्थ “सम्यक् ख्याति"
अर्थात् साधु दर्शन या सत्य ज्ञान है। सांख्यों की यह सम्यक् ख्याति, उनका यह सत्यज्ञान व्यक्ताव्यक्त रूप द्विविध अचित् तत्त्व से पुरुष रूप
चित् तत्व को पृथक् जान लेने में निहित है ।
महाभारत
में गणनार्थक संख्या शब्द से ही "सांख्य" की निष्पत्ति स्वीकार की गई
है। जिसमें तत्त्वों की संख्या का निर्धारण करने वाले शास्त्र की सांख्य संज्ञा
प्रदान की गई है।
सांख्यं
प्रकुरुते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते ।
तत्त्वानि
च चतुर्विंशत् परिसंख्याय तत्त्वतः ॥
सांख्य दर्शन
वैदिक दर्शन का संक्षिप्त सार है। सांख्य दर्शन के मूल भूत सिद्धान्त वेदों तथा
उपनिषदों से उपलब्ध होते हैं। सांख्य दर्शन में इन्हीं सिद्धान्तों को एक दर्शन
विशेष का रूप दिया गया है। इस संसार में प्रायः सभी पुरुष (आत्मा,
जीव, प्राणी) तीन प्रकार के दुःखों से दुःखित
देखे जाते हैं। उन तीनों प्रकार के दुःखों से निवृत्ति के लिये व्याकुल जीवात्मा
उपायों की खोज करता है। इन उपायों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है।
1.
लौकिक
2.
अलौकिक
अलौकिक
उपाय दो प्रकार के होते हैं-
(अ)
वैदिक
(आ)
शास्त्रीय
इनमें
से लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार के उपाय दुःखों से निश्चित रूप से निवृत्ति नहीं
करते हैं। केवल शास्त्रीय उपाय (ज्ञान) से ही इन दुःखों को सदा के लिये निवृत्त कर
पाते है। अतः इस सांख्यशास्त्र को पढ़कर, तत्व-ज्ञान
को प्राप्त कर, अपने त्रिविध दुःखों को दूर करना प्रत्येक
प्राणी का आवश्यक कर्त्तव्य है।
सांख्य
दर्शन के आचार्य कपिल
संस्कृत
वाङ्मय में अनेक कपिलों की उपलब्धि होती है। "सांख्यस्य
वक्ता कपिल:'' ।
पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेश: काल विप्लुतम् ।
प्रोवाचासुरये सांख्य तत्वग्रामविनिर्णयम्' । श्रीमद्भागवत्
उक्त
ग्रन्थ के अनुसार सांख्य के प्रथम आचार्य महामुनि कपिल माने जाते हैं। प्राचीन
संस्कृत साहित्य में महर्षि कपिल का अनेकशः उल्लेख हुआ है। सर्वप्रथम उल्लेख
श्वेताश्वर उपनिषद् का है । महाभारत के प्रसिद्ध अंश भगवद्गीता के दशम अध्याय में
कपिल मुनि का उद्धरण आया है ।
अश्वत्थः
सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां
चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनिः ।।
महाभारत के शान्ति
पर्व में महर्षि कपिल को ब्रह्मपुत्र तथा अग्नि के अवतार कहा गया है । सांख्यतत्त्वकौमुदी
की भूमिका में आचार्यों की वन्दना करते हुए पं. वाचस्पति मिश्र ने सांख्य दर्शन की
गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है।
कपिलाय
महामुनये मुनये शिष्याय तस्य चासुरये ।
पञ्चशिखाय
तथेश्वरकृष्णायैते नामात्मरूपः ॥
अय्यास्वामी
शास्त्री द्वारा किये गये परमार्थ के चीनी अनुवाद के संस्कृत रुपान्तर से भी
विस्तृत गुरु परम्परा का ज्ञान होता है।
इदं
ज्ञानं कपिलादासुरेरागतम् ।
आसुरिणा
पञ्चशिखस्योपदिष्टम्।।
पञ्चशिखेन
गार्ग्यस्योपदिष्टम् ।
गार्येणोलूकस्योपदिष्टम्
।
उलूकेन
वार्षगणस्य । वार्षगणेन ईश्वर कृष्णस्य ॥ एवं क्रमेण ईश्वर कृष्ण इदं ज्ञानमलभत ॥
स्वयं ईश्वर कृष्ण
ने सांख्य दर्शन के परमर्षि, आसुरि,
पञ्चशिख इन तीन आचार्यों नामक को स्मरण किया है। युक्तिदीपिकाकार
तथा तत्त्वकौमुदीकार ने परमर्षि का अर्थ महर्षि कपिल किया है। इस प्रकार परम्परा
से भगवान् कपिल ही सांख्य दर्शन के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस विषय में आचार्य
पञ्चशिश्व का कथन सर्वाधिक प्रमाणिक है।
आदि
विद्वान् निर्माणचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय
तन्त्रप्रोवाच ।
इनमें
से दार्शनिक क्षेत्र में केवल एक ही कपिल है और वे हैं-"सिद्ध कपिल'
किन्तु पुराणकारों के उर्वर मस्तिष्क ने यहाँ भी दो कपिलों की कल्पना
कर ली है । भगवान् शंकर ने भी वासुदेवावतार कपिल से भिन्न कपिल को सांख्यशास्त्र
का प्रर्वतक माना है । निम्बाचार्य ने भी अपने ब्रह्मसूत्र के व्याख्यान में 'वैदविरुद्ध स्मृतिकर्त्तापि कपिलनामकः कश्चिद्कणापादिवन्मुनिरेव' (वे० द०२ – १ – १) इस प्रकार
लिखकर सांख्यशास्त्रप्रर्वतक एक-दूसरे कपिल को माना है। अतः स्पष्ट है कि ये
सांख्य-शास्त्रकार 'सिद्ध कपिल' विष्णु
के अवतार कपिल से भिन्न हैं। कुछ विद्वान का विचार है कि कपिल नाम के चार ऋषि हुए
हैं। उनमें से (१) एक तो वे हैं ज कलियुग में हुए हैं, जो
गौतम ऋषि की सन्तान बताये जाते हैं तथा जिनके नाम प कपिलवस्तु नामक नगरी बसाई गई ।
(२) दूसरे कपिल वे हैं जो ब्रह्माजी के पू माने जाते हैं और जो आदि विद्वान् माने
जाते हैं । (३) तीसरे कपिल अग्नि के अवतार थे । (४) चौथे कपिल देवहूति और कर्दम
ऋषि के पुत्र थे । ब्रह्मा के पुत्र कपि देव ही आदि कपिल हैं और वे ही
सांख्यशास्त्र के रचयिता है। सांख्यकारिका आचार्य गौड़पाद ने ग्रन्थ के आरम्भ में
लिखा है -
इह
भगवान् ब्रह्मसुतः कपिलो नाम तद्यथा
सनकश्च
सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः ॥
आसुरिः
कपिलश्चैव वोढः पञ्चशिखस्तथा ।
इत्येते
ब्रह्मणः पुत्राः सप्त प्रोक्ता महर्षयः ।
वस्तुः कर्दम और
देवहूति का पुत्र कपिल, ब्रह्मा का
मानस-पुत्र कपिल एवं अग्नि-अवतार कपिल एक ही हैं और यही कपिल सांख्यशास्त्र के
प्रणेता हैं। इस प्रकार महर्षि कपिल कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं, अपितु यथार्थ रूप में सांख्य सिद्धान्त के प्रथम प्रवर्तक हैं।
इस सांख्य (ज्ञान)
शास्त्र का लोक में प्रसार पूर्व काल से भगवान आसुरि मुनि ने तथा उनके शिष्य
भगवान् पञ्चशिखाचार्य ने षष्टितन्त्र' नामक
ग्रन्थ लिखकर किया था। यह 'षष्टितन्त्र' – सांख्यशास्त्र का मूल ग्रन्य था और साठ हजार (६०,०००)
श्लोकों में यह था । परन्तु कालविपर्यय से इस ग्रन्थ के लुप्त हो जाने से अल्प
बुद्धि कलि के प्राणियों के लिये इसके दुरधिगम होने से ही इसका सारांश लेकर
संक्षिप्त रूप से ७० कारिकाओं में ही यह सांख्यकारिका प्रायः २००० वर्ष पूर्व ईसा
की १ शताब्दी में 'ईश्वरकृष्ण' ने
बनाई। ऐसा बहुत विद्वानों का मत है। सांख्य शास्त्र की सारभूत इस सांख्यकारिका का
दूसरा नाम 'कनकसप्तति' या 'स्वर्ण सप्तति ('सुवर्णसत्तरी') भी है। इसके लेखक – ईश्वरकृष्ण का यह कथन है कि
हमारी बनाई हुई यह ग्रह 'कनकसप्तति' (सांख्यकारिका)
सांख्यशास्त्र 'पष्टितन्त्र' का
संक्षिप्त रूप है, इसमें सांख्यशास्त्र के सभी विषय
पूरे-पूरे आ गये हैं। अतः भी 'सांख्यशास्त्र' कहलाने का अधिकारी है। क्योंकि ईस्ट लिखते हैं 'सप्तत्यां
किल येऽर्यास्तेऽर्थाः कृत्स्नस्य षष्टितरस्य । आख्यायिकाविरहिताः, परवावविवजिताश्चाऽपि ' यह 'सांख्यकारिका'
('कनकसप्तति') ज्ञानशास्त्र सांख्य-दर्शन का
पूर्ण तया प्रतिपादन करने वाला एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसलिये इस सांख्यकारिका का
प्राची विद्वानों ने भी बहुत आदर किया। प्राय: ५०० ई० सन् के निकट चीनी सिद्धान् 'परमार्थ' ने इस सांख्यकारिका का चीनी भाषा में
अनुवाद किया। इससे भी इस ग्रन्थ का उस समय (आज से प्रायः १५०० वर्ष पूर्व)
विद्वत्-समाज में कितना आदर था-यह स्पष्ट हो जाता है । आदि शंकराचार्य ने भी (७५०
ई० के निकट) 'ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य में ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका' का स्थान-स्थान पर उद्धरण दिया है।
इससे भी इसका गौरव स्पष्ट हो जाता है। सुप्रसिद्ध बौद्ध दर्शानिक शान्तरक्षित
(प्रायः ७५० ई० के निकट) ने भी तत्वसंग्रह नामक अपने तर्क ग्रन्थ में
सांख्य-विवेचन के प्रकरण में इस सांख्यकारिका की बीसों कारिकाओं का अविकल उद्धरण
देकर उन पर अपना विवेचन लिखा है और अन्यान्य बौद्ध आचार्यों ने भी इस सांख्यकारिका
के खण्डन में 'परमार्थसप्तति' आदि अनेक
ग्रन्थ ४०० ई० से ८०० ई० तक में समय-समय पर लिखे हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि
प्रायः डेढ़ हजार या दो हजार वर्षों से यह 'सांख्यकारिका'
सभी दार्शनिक विद्वानों के (चाहे वे आस्तिक हों, या नास्तिक) आदर का पात्र रही है। इस सांख्यकारिका की वैक्रम ८५० संवत
"के निकटवर्ती महाविद्वान् वाचस्पति मिश्र ने 'सांख्यतत्वकौमुदी'
नामक सुप्रसिद्ध टीका लिखी जिसका आजकल भी विद्वत्समाज में बहुत ही
आदर है और यही 'सांख्यतत्व कौमुदी' इस
समय 'सांख्यकारिका' की अत्युत्तम एवं
प्रामाणिक टीका है। इस 'सांख्यकारिका' पर
हैं जिसमें 'माठरवृत्ति' अति प्राचीन
है। इसका समय प्रायः १०० ई० सन् के निकट या उससे भी पहिले माना जाता है। क्योंकि 'अनुयोगद्वार सूत्र नामक ईसवी प्रथम शताब्दी में लिखे गये जैनसूत्र ग्रन्थ
में सम्भवतः 'माढर' (माठर) इस नाम से
इस माठरवृत्ति का ही उल्लेख किया गया है और उस 'अनुयोग सूत्र'
में 'कनकसत्तरी 'कनकसप्तति'
नाम से इस 'सांख्यसप्तति' का भी उल्लेख किया है। इससे तो 'सांख्यकारिका'
की प्राचीनता और भी बढ़ जाती है। क्योंकि ईसवी प्रथम शताब्दी में
लिखे गये ग्रन्थों में जब इस सांख्यकारिका का उल्लेख है, तब
तो यह उससे भी प्रायः २०० वर्ष और भी प्राचीन होनी चाहिये। सब प्रमाणों से इस
सांख्यकारिका का निर्माण काल २००० वर्ष से भी कुछ पूर्व ही ठहरता है। कुछ
विद्वानों का तो यह भी मत है कि ईसाइयों के धर्माचार्य ईशू खीष्ट ही यह ईश्वरकृष्ण
हैं। क्योंकि ईश्वरकृष्ण अपने को 'आयंमति' (आयंजाति का न होकर भी, आयं बुद्धि (धार्मिक बुद्धि
वाला) लिखता है। इससे भी यह मत कुछ-कुछ पुष्ट होता है। कुछ विद्वानों का मत है कि
भगवान् श्रीकृष्ण ही ये ईश्वरकृष्ण हैं। अस्तु कुछ भी हो-यह 'सांख्यकारिका' अत्यन्त प्रामाणिक और आदरणीय तथा
प्राचीन सांख्यशास्त्र का बहुमूल्य रत्न है - यह स्पष्ट है। इस सांख्यशास्त्र के
सिद्धान्तों का उपनिषदों में, महाभारत में, तथा १८ पुराणों में स्थान स्थान पर उल्लेख आता है। भगवान् श्री कृष्ण ने
भी श्री गीताजी में जगह-जगह सांख्य (ज्ञानशास्त्र ) का उल्लेख किया है यथा-
'यत्सांख्यैः
प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।'
'एकं सांख्यं च
योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
'सांख्य-योगो
पृथग्वालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।'
सांख्य शब्द का
अर्थ
सांख्य
शब्द का अर्थ है सम्यक् प्रकार से ज्ञान, तत्त्वविवेक
अर्थात् व्यक्त ( कार्य ) अव्यक्त ( कारण प्रकृति और पुरुष चैतन्य) इन २५ तत्वों
का ठीक-ठीक स्वरूप- परिचय । अर्थात् पुरुष का प्रकृति और उसके कार्यों से
पृथकत्वज्ञान । यह सांख्यशास्त्रीय ज्ञान (प्रकृति पुरुष-विवेक) ही जीवों के लिये
सांसारिक विविध दुःखों से सदा के लिये छुटकारा पाने का अमोघ साधन है। क्योंकि
ज्ञान के बिना आत्यान्तिक दुःखनिवृत्ति' और मोक्ष (कैवल्य)
नहीं हो सकता है। मोक्ष के बिना इस अनादि संसार में जन्म-मरण आदि क्लेशों से छूटना
प्राणियों के लिये सर्वथा असम्भव है । अतः जीवमात्र को अपने कल्याण के लिये इस
आत्मसाक्षात्कार (ज्ञान) के साधन सांख्यशास्त्रीय आत्मतत्त्व विवेक को जानना
चाहिये और इसका निरन्तर अभ्यास भी करना चाहिये । श्रुतियों में भी लिखा है 'आत्मा वा अरे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यादि।
सांख्य-शास्त्र के भेद
इस
सांख्य-शास्त्र के दो भेद है । जैसा कि 'षट्दर्शन-
समुच्चय' के कर्ता हरिभद्र ने कहा है कि
"सांख्य-निरीश्वरा: केचित् केचिदीश्वरदेवताः ॥" उपनिषदों में सांख्य का
जो रूप उपलब्ध होता है, वह सेश्वर ही प्रतीत होता है।
उपनिषदों में प्रकृति और पुरुष के ऊपर ब्रह्म की सत्ता मानी गई है। पुरुषों को
ब्रह्म का अंशमूल स्वीकार किया गया है। महाभारत, भागवत,
भगवद्गीता और मनुस्मृति में सेश्वर सांख्य का हा प्रतिपादन किया गया
है। यह बात उन ग्रन्थों के आलोचन से स्पष्ट होती है । सांख्यकारिका द्वारा
प्रतिपादित ईश्वरकृष्ण का सांख्य निरीश्वर इसमें सन्देह नहीं । सांख्य-प्रवचन
भाष्य के कर्त्ता विज्ञान- भिक्षु का सांख्य सेश्वर है। वे ईश्वरीय सत्ता मानते
हैं । निरीश्वरवादियों का मत है कि ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रकृति ही सब
कार्य करती है उसकी प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं हैं। जैसे कुछ विद्वानों का तो
यह मत है कि यह सांख्यदर्शन (सांख्यकारिका) और योगदर्शन आठों सिद्धियों (जो चाहे
सो कर सकने की शक्तियों) के गुप्त खजाने की छिपी हुई कुब्जियाँ हैं । इस निधि के
भीतर - आकाशगति, देहपरिवर्त्तन, कालवञ्चन,
अनन्त धन का आकर्षण आदि दुर्लभ सिद्धियों का स्पष्ट सच्चा मार्ग
लिखा हुआ है परन्तु लोग इन का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जान सकने के कारण इनसे सच्चा लाभ
नहीं उठा पाते हैं। यह सांख्यकारिका (सांख्यदर्शन) शान्ति और सुख का एक सच्चा
मार्ग है ।
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