महर्षि व्यास एक परिचय
महर्षि कृष्ण द्वैपायन बादरायण
व्यास का आविर्भाव द्वापर युग में हुआ। उनका बहुत सा समय काशी में व्यतीत हुआ।
पुराणों के अनुसार व्यास ऋषि पराशर और सत्यवती के पुत्र थे। सर्वप्रथम उन्होंने
वेद का प्रतिभाग करके श्रौतयज्ञ की आवश्यकता के अनुसार चार वेदों में सम्पादित
किया, इसलिए वे 'वेदव्यास'
कहलाते
हैं। पुराणों के द्वारा वेद का उपबृंहण या व्याख्यात्मक विस्तार करने का कारण
उन्हें व्यास कहा गया। वे 18 पुराणों
और श्रीमद्भगवद्गीता के सहित महाभारत, ब्रह्मसूत्र
(जो भारतीय दर्शन की वेदान्त धारा के सीमान्त प्रस्थानों का शाश्वत स्रोत है) और
पतंजलि कृत सूत्रों पर व्यासभाष्य के भी प्रणेता माने जाते है। वेदों के परमार्थ को, जो
उपनिषदों में प्रतिष्ठित है, सूत्रबद्ध
कर 'ब्रह्मसूत्र' की
रचना करके उन्होंने भारतीय दार्शनिक चिन्तन का आधार प्रस्तुत कर दिया,
जिसकी
शताब्दियों तक विभिन्न दार्शनिक प्रस्थान अपनी-अपनी तरह से व्याख्या करते रहे। 'व्यास-स्मृति'
के
प्रणेता के रूप में वे स्मृतिकार हैं। उनका सच्चे अर्थों में चमत्कारिक व्यक्तित्व
है।
महाभारत ऐसा धार्मिक ग्रन्थ है, जिससे सभी प्रकार के मनुष्य अपने जीवन को सुधारने के लिए सामग्री प्राप्त कर
सकते है। राजनीति का तो वह सर्वस्व ही है। राजा और प्रजा के अलग-अलग कर्तव्यों तथा
अधिकारों का समुचित वर्णन महाभारत की बहुत बड़ी विशेषता हैं।
महाभारत ग्रन्थ के मध्य
में विराजमान श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म, ज्ञान
और भक्ति का जैसा सुन्दर समन्वय किया गया है, वैसा
अन्यत्र दुर्लभ है। आज संसार का मानव यदि केवल गीता के उपदेशों को सही ढंग से
आत्मसात् कर ले तो अनेक समस्याओं का
समाधान स्वतः हो जायेगा। व्यास कर्मवादी आचार्य हैं। कर्म ही मनुष्य का पक्का
लक्षण है। कर्म से पराड्मुख मानव, मानव की
पदवी से सदा वंचित रहता है। इसलिए उन्होंने अपना संदेश मनुष्यों के लिए देते हुए
कहा है कि ''यदि मनुष्य सच का अभिलाषी है तो
उसका श्रेष्ठ कर्त्तव्य धर्म का सेवन ही है।
अतएव यह भव्य भारत वर्ष
कर्मभूमि है। इस विशाल ब्रह्माण्ड में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ प्राणी है,
जिसके
कल्याण के लिए विविध पदार्थों की सृष्टि होती है तथा समाज की व्यवस्था की जाती है।
व्यास की राष्ट्रभावना
बड़ी उदात्त है, उनका मानना है कि राजा ही राष्ट्र
का केन्द्र होता है और वह प्रजा का सब प्रकार से हितचिन्तक,
मंगलसाधक
तथा संरक्षक होता है। धर्म की व्यवस्था तथा संचालन का दायित्व एकमात्र राजा के ऊपर रहता है। यदि राजा प्रजा का पालन न करें, तो
प्रजा ही एक दूसरे को विनाश कर देगी। वेद-व्यास का योगदान भारतीय संस्कृति के
विकास में इतना महत्वपूर्ण था कि हमारे पूर्वजों ने उन्हें भगवान के विशेषण से
अलंकृत किया है। उन्होंने अपने जीवन में श्रुति परम्परा से प्राप्त अपौरूषेय वेदों का ऋक्, यजु, साम,
अथर्व
इन चार भागों में विभाजन किया। 18 पुराणों
की रचना की। जिनके माध्यम से आज हम सबको
अपनी संस्कृति और इतिहास के विभिन्न पक्षों की जानकारी होती है। इसके अलावा सबसे
महत्वपूर्ण ग्रन्थ श्रीमद् भागवत पुराण तथा महाभारत की रचना की। यह प्रसिद्ध है
कि महाभारत को लेखनीबद्ध करने के लिए स्वयं श्री गणेश जी आये थे और यह शर्त
रखी थी कि व्यास को एक श्लोक के बाद दूसरे श्लोक को सोचने के लिए समय नहीं दिया
जायेगा, जहां सोचने के लिए रूके वहीं लेखन
बन्द हो जायेगा। व्यास ने बिना रूके हुए एक लाख श्लोकों की रचना की। आज
महाभारत उसी स्वरूप में हमारे सामने मौजूद है।
महाभारत राजनीति का तो सर्वस्व ही है। राजा और प्रजा के
अलग-अलग कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का समुचित वर्णन महाभारत की बहुत बड़ी विशेषता
है। महर्षि व्यास ने महाभारत में भारत की अर्थनीति, राजनीति
तथा अध्यात्मशास्त्र के सिद्धान्तों का सारांश इतनी सुन्दरता से प्रतुस्त किया है,
कि
यह ग्रन्थरत्न वास्तव में भारत के धर्म एवं तत्वज्ञान का विश्वकोष है।
महर्षि व्यासजी ने महाभारत
में भारत की अर्थनीति, राजनीति तथा अध्यात्मशास्त्र
के सिद्धान्तों का सारांश इतनी सुन्दरता से प्रस्तुत किया है,
कि
यह ग्रन्थरत्न वास्तव में भारत के धर्म एवं तत्वज्ञान का विश्वकोष है। वस्तुतः महर्षि
व्यासजी ने महाभारत लिखकर केवल युद्धों का वर्णन नहीं किया हैं,
बल्कि
उनका अभिप्राय था, इस भौतिक जीवन की निःसारता
दिखलाकर मानवों को मोक्ष के लिए जागरूक एवं उत्सुक करना।
भारतीय संस्कृति का प्राण
धर्म ही है, जिसकी उपेक्षा आज हो रही है। उनका
स्पष्ट मत है कि अधर्म से देश का नाश होता है और धर्म से राष्ट्र का अभ्युत्थान
होता है। वे कहते हैं, कि धर्म का परित्याग किसी
भी स्थिति में, भय से या लोभ से,
कभी
नहीं करना चाहिए।
क्या आप पूरी तरह आशवस्त है की पुराण व्यास जी ने ही लिखे हैं
जवाब देंहटाएंबेद ब्यास जी ने वेदों को संकलित किया और पुराणों को पूर्ण किया।
हटाएंमैं पूरी तरह से आश्वस्त हूँ कि पुराणों की रचना व्यास ने किया। यही नहीं उपपुराणों की भी रचना व्यास ने ही किया। यह अलग बात है कि शंकराचार्य की तरह ही परवर्ती काल में व्यास एक पदवी थी। जो भी व्यास (वेदों का उपबृंहण / विस्तार करने वाले) हुए उन्होंने पुराणों / उपपुराणों की रचना की।
ब्यास उसी तरह गुरु शिष्य का उपनाम लगातार चलता रहा ।
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