मंगलाचरण
अर्थ- जिस वाक्यरूपी वैखरी वाणी के सूक्ष्म आदि भेद से ध्वनि, वर्ण, पद तथा
वाक्य ये चार आश्रय हैं, उस वाग्देवी की उपासना करता हूँ।
आादिक्षान्तविलासलालसतया
तासां तुरीया तु या।
क्रीडाकृत्य जगत्त्रयं
विजयते वेदादिविद्यामयी।
आत्म निवेदन/ कथ्य/ भूमिका किसी
भी भाषा के दो स्वरूप होते हैं। 1. लिखित 2. बोलचाल / भाषिक या सम्पर्क भाषा।
चुंकि मैं यहाँ आपसे लिखित रूप में सम्पर्क कर रहा हूँ, अतः इस पाठ के माध्यम से आप लिखित संस्कृत सीख
सकेंगें। संस्कृत भाषा शिक्षण के लिए अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। अंग्रेजी तथा
हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में अनुवाद विधि प्रचलित है। इसमें हिन्दी या
अंग्रेजी के वाक्य को संस्कृत में अनुवाद करना सिखाया जाता है। आपको इस विधि से
संस्कृत सिखाने का की अनेक पुस्तकें, विडियो तथा वेबसाइट
मिल जाएँगें। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग में भी अन्य भाषा
के वाक्य को संस्कृत में अनुवाद कराना ही सिखाते हैं। संस्कृत शिक्षण
पाठशाला में सीधे संस्कृत में वाक्य
बनाना सिखाया गया है। इस विधि में अन्य भाषा
की न्यूनतम आवश्यकता होती है। इस विधि की विशेषता यह है कि आप संस्कृत
में अनुवाद करना सीखने के साथ-साथ, किसी भी विषयको सीधे
संस्कृत भाषा में लिखने में तथा संस्कृत में लिखी सभी प्रकार की पुस्तकों को
पढ़कर समझने में समर्थ हो जाते हैं। अनुवाद विधि से संस्कृत सीखने पर यह सब संभव
नहीं हो पाता है। संस्कृत शिक्षण पाठशाला को 1,2,3,4,5,6 में विभाजित किया गया
है। संस्कृत शिक्षण पाठशाला 1 में कुल 28 पाठ हैं।
इसमें वर्ण परिचय, संज्ञा, सर्वनाम,
विशेषण, क्रिया, अव्यय,
लिंग, वचन, पुरुष.
उपसर्ग तथा संख्यावाचक शब्दों का सामान्य परिचय तथा उदाहरण दिया गया है। पाठशाला
1 में महत्वपूर्ण शब्दरूप, विभक्ति तथा सन्धि से भी परिचय
कराया गया है। संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 तथा 3 में क्रिया (धातु से तिङ्
प्रत्यय), संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 में कृदन्त प्रत्यय (धातु से
कृत् प्रत्यय), संस्कृत शिक्षण पाठशाला 5 में तद्धित प्रत्यय तथा संस्कृत शिक्षण पाठशाला 6 समास दिया गया हैं। इस पाठ्यक्रम को सीखने के बाद आप संस्कृत भाषा एवं
देवनागरी लिपि में लिखी संस्कृत की पुस्तकें पढ़कर आसानी से समझ सकेंगें। आप
संस्कृत में अपना भाव या विचार लिख सकेगें। मेरे इस पाठशाला में अभ्यास हेतु
स्थान- स्थान पर लिंक दिये गये हैं । आप किसी अन्य पुस्तक की सहायता भी ले सकते
हैं। यहाँ
पर अभी सतत् पाठ का विस्तार हो रहा है। अतः क्रम में परिवर्तन दिखेगा। कोई भी
भाषा अध्ययन तथा अभ्यास से सीखी जा सकती है। केवल नियम या व्याकरण जान लेने से
भाषा को सीख पाना संभव नहीं है। भाषा शिक्षण के
लिए सामान्य नियम/ व्याकरण बता दिये जाते हैं। कतिपय उदाहरण तथा अभ्यास
दे दिये जाते हैं, परन्तु मेरा अनुभव कहता है कि जबतक उस
भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ा जाय, जबतक उस भाषा को व्यवहार
में/ प्रयोग में नहीं लाया जाय, तब तक किसी भी भाषा में दक्षता नहीं आ पाती है। अतः इन नियमों को जानने
के बाद आप कोई एक संस्कृत की पत्रिका/ संस्कृत साहित्य को अवश्य पढ़ें। इस ब्लॉग
में संस्कृतसर्जना पत्रिका के कतिपय अंक तथा संस्कृत के सैकड़ों पुस्तकों उपलब्ध
हैं। |
पाठ- 1
विशेष ज्ञान 👉 ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त
स्वर कहा जाता है, क्योंकि ये दो स्वर वर्णों के मेल से
बनते हैं। संस्कृत में अ इ उ ऋ वर्णों का ह्रस्व, दीर्घ और
प्लुत ये तीन भेद होते हैं। अतः व्याकरण में अ (अवर्ण) का अर्थ आ भी होता है।
इसी प्रकार इ उ ऋ को भी समझना चाहिए। |
विशेष ज्ञान 👉 स्वर रहित व्यंजन वर्ण में ् लगाया जाता हैं।
इसे हलन्त कहते हैं। जैसे- क्, ख्, ग्, घ्, ङ् । व्यंजन में स्वर वर्ण को जब मिलाया जाता है तब वह उच्चारण करने
योग्य होता है। पाणिनि ने 14 माहेश्वर सूत्रों में इन वर्णों को कहा है। वहाँ पर
वर्णों के क्रम में थोड़ा सा परिवर्तन है। संस्कृत सीखने के इच्छुक लोगों को
चाहिए कि वे माहेश्वर सूत्र को याद कर लें, ताकि संस्कृत
व्याकरण सीखना आसान हो सके । |
व्यंजन वर्णों के संयोग के कारण इसके लिखावट (आकृति) में परिवर्तन
ध्यान से देखें तो किसी भी व्यंजन की दो गति होती है स्वरयुक्त और स्वररहित।
जैसे – र् तथा र । स्वरयुक्त को पूरा तथा
स्वरहीन को आधा कहते हैं। ट्र में र स्वरयुक्त है जबकि ट् स्वरहीन। वर्ग में रेफ स्वर विहीन या स्वर रहित है।
र् के बाद यदि कोई स्वर वर्ण नहीं होकर व्यञ्जन होने पर र् अगले व्यञ्जन के ऊपर लगता है । इसे यों समझ सकते हैं स्वर विहीन अर्थात् पैर से लंगड़ा, किसी के
कन्धे पर ही सवारी करता है। अतः कर् + ता में र् स्वर विहीन है। अतः यह ता अक्षर के
कंधे पर सवारी करता है। अब बात रह गयी स्वर युक्त अर्थात् र् + अ =
र की। यदि र् के पहले कोई व्यंजन वर्ण है तब र् नीचे या बीच में लगता है। जैसे- आ + म् + र् + अ =आम्र । स् + अ + ह् + अ
+ स् + र् + अ = सहस्र । देवनागरी लिखने की एक प्रथा है, जिसे अभ्यास द्वारा सीखा
जा सकता है।
अनुस्वार अर्धस्वर है । वह मात्रा है, इसलिए वह पूर्ववर्ती स्वर पर आश्रित
रहता है, वह व्यंजन पर
आश्रित नहीं हो सकता। रेफ शुद्ध व्यंजन है, मात्रा नहीं । इसलिए हमेशा परवर्ती
स्वर पर (जैसे ट्र में रेफ अपने बाद वाले अ पर आश्रित है) या स्वरयुक्त व्यंजन पर
(जैसे पर्व में व पर) आश्रित होता है
देवनागरी लिपि के वर्णविन्यास को देखने से ज्ञात होता है कि अक्षरों के संयोग
से उत्पन्न नए शब्द विन्यास की सीमा बहुत अधिक हो जाती है।
जैसे - आशा = आ + श् + आ (आकारान्त) दुर्ग
= द् + उ + र् + ग् + अ (अकारान्त)
प्रश्न- "राजन्" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - राजा = र् + आ + ज्
+ अ+ न् (नकारान्त)
प्रश्न- "लता" यह पद किन
- किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - लता = ल् + अ + त्
+ आ ( आकारान्त )
प्रश्न- "कवि" यह पद किन
- किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - कवि = क् + अ + व् +
इ (इकारान्त)
प्रश्न- "मति" यह पद किन
- किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - मति = म् + अ + त् +
इ (इकारान्त)
प्रश्न- "नदी" यह पद किन
- किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - नदी = न् + अ + द् +
ई ( ईकारान्त )
प्रश्न- "पृथ्वी" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - पृथ्वी = प् + ऋ +
थ् + व् + ई ( ईकारान्त )
प्रश्न- "दीपावली" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - दीपावली = द् + ई +
प् + आ + व् + अ + ल् + ई ( ईकारान्त )
प्रश्न- "शिशु" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - शिशु = श् + इ + श्
+ उ ( उकारान्त )
प्रश्न- "मधु" यह पद किन
- किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - मधु = म् + अ + ध् +
उ ( उकारान्त )
प्रश्न- "गुरु" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - गुरु = ग् + उ + र्
+ उ ( उकारान्त )
प्रश्न- "वधू" यह पद किन
- किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - वधू = व् + अ + ध् +
ऊ ( ऊकारान्त )
प्रश्न- "मातृ" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - मातृ = म् + आ + त्
+ ऋ ( ऋकारान्त )
प्रश्न- "पितृ" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - पितृ = प् + इ + त्
+ ऋ
प्रश्न- "राजन्" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - राजन् = र् + आ + ज्
+ अ + न् (नकार )
प्रश्न- "वाच्" यह पद
किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?
उत्तर - वाच् = व् + आ + च्
प्रश्न- "आसन्द:"
शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?
उत्तर – आसन्द:=आ + स् + अ + न् + द् + अ + विसर्ग
प्रश्न- "विद्यालयः"
शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए।
प्रश्न- "उज्ज्वल"
शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?
उत्तर –उ+ ज् + ज् + व् + अ + ल् + अ (अकारान्त)
प्रश्न- "कार्तिक"
शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?
उत्तर – क् + आ र् + त् + इ + क +अ (अकारान्त)
प्रश्न- "समृद्धि"
शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?
उत्तर – स् + अ + म् + ऋ + द् + ध् + इ (इकारान्त)
इसी प्रकार शब्दों का वर्ण विच्छेद करें-
पयः । जलम् । नीरम् । अवलेहः । शीतल । आढकी। आलुः । अमृती । एला । एवम् । अलाबुः । शाकम् । अभिनवः । तिलः । कफघ्नी । कलाकन्दः । संस्कृत । शब्द । सन्धि । स्वरूप । उच्चारण । जिह्वा । आदि। विशेष । प्रयत्न । देवभाषा । भाषा । व्याकरण । अत्यंत । परिमार्जित । वैज्ञानिक ।
विशेष
ज्ञान हम शब्दों को ढ़ूढ़ने के लिए शब्दकोश का प्रयोग करते है। यहाँ पर
वर्ण क्रम से शब्द रखे होते हैं। यहाँ आरम्भिक अक्षर महत्वपूर्ण होता है, जो हमें शब्दों को खोजने में मदद करता है।
संस्कृत या हिन्दी जैसी भाषा में शब्दों का अंतिम वर्ण लिंग (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग) को पहचानने में सहयोग करता है।
संस्कृत में शब्दों का स्वरूप
अधिकांश विभक्ति तथा वचन में परिवर्तित हो जाते हैं। शब्दों के अंतिम वर्ण तथा लिंग के कारण संस्कृत शब्दों
के स्वरूप में परिवर्तन देखा जाता है। क्रिया में भी बहुत कुछ ऐसा होता है, जिसकी चर्चा हम आगे यथास्थान करेंगें। दो शब्दों या पदों के मेल को सन्धि कहा जाता है। सन्धि का नियम आगे
के पाठ में दिया गया है । वर्णों के संक्षेपीकरण को प्रत्याहार कहा जाता है। सन्धि आदि नियमों में प्रत्याहारों का उपयोग किया
जाता है। प्रत्याहार बनाने के लिए माहेश्वर सूत्र का एक अक्षर तथा एक अंतिम (हलन्त) अक्षर लिया जाता है। प्रत्याहार से इन दोनों वर्णों के बीच में आने वाले वर्णों का
बोध होता है। जैसे
अक् प्रत्याहार कहने पर अ इ उ ऋ ऌ का बोध होता है। संस्कृत के सभी प्रकार के
शब्दों से परिचय हो जाने के बाद ही आप उसका वाक्य बना सकते हैं। संस्कृत में
वाक्य बनाने तक पहुँचने के लिए सलाह है कि आप अपने पास संस्कृत का एक शब्दकोश
अवश्य रखें, जिसमें
आगे कहे जाने वाले सभी प्रकार के शब्द हों। |
उदाहरण- बालकः सुन्दरः अस्ति। बालिका सुन्दरी अस्ति। पुष्पं सुन्दरम् अस्ति। बालकः लघुः अस्ति। बालिका लघ्वी अस्ति।
क्रिया
प्र,
परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आ (आङ्), नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति,परि, उप । इन उपसर्गों के एक से अधिक
अर्थ होते हैं। ये उपसर्ग सुबन्त पदों (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) के साथ भी
प्रयुक्त होते हैं। संस्कृत की पुस्तकों में विधास्यति, आगत्य, निस्सरति,
प्राप्नोति, प्रतिपाद्यते जैसी उपसर्गयुक्त क्रियायें देखने को मिलती है। शब्द कोश
में इन शब्दों का अर्थ ढ़ूढ़ने पर ये उपसर्ग युक्त क्रियावाचक शब्द नहीं मिलते
हैं, क्योंकि धातु के साथ उपसर्ग को जोड़कर असंख्य क्रियावाची शब्द बनते हैं।
इन्हें अभ्यास के द्वारा सीखा जा सकता है। इस ब्लॉग के
विशेष ज्ञान 👉 संस्कृत के क्रिया वाची शब्दों को जानने के लिए
उपसर्ग को जानना अति महत्वपूर्ण है। प्रादि का क्रिया (धातु) के साथ योग होने पर
वह उपसर्ग कहा जाता है। मूल क्रिया (धातु) के साथ उपसर्ग का योग होने पर धातु के
अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। इस तरह
अनन्त प्रकार की क्रियायें बनती है।
कुछ परस्मैपद की धातु के साथ उपसर्ग का योग होने पर वह आत्मनेपद की धातु
तथा कुछ आत्मनेपद की धातु परस्मैपद में परिवर्तित हो जाती है। जैसे- क्रीड धातु
परस्मैपद की धातु है। इसका रूप चलता है – क्रीडति, क्रीडतः क्रीडन्ति।
परन्तु क्रीड धातु के पूर्व अनु, परि तथा आ उपसर्ग लगने पर
यह धातु आत्मनेपद की हो जाती है। इसका रूप अनुक्रीडते, परिक्रीडते,
आक्रीडते रूप बनता है। |
पाठ 2 में आपको संस्कृत के शब्दों तथा उसके भेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गयी। संज्ञा आदि शब्दों के पुरुष, वचन तथा लिंग होते है। आगे के पाठ में उससे क्रमशः परिचय कराया जा रहा। है।
अब तक आप समझ चुके होंगें कि किसी वाक्य में कितने प्रकार के शब्द होते हैं। अब उन शब्दों का प्रयोग के साथ विस्तार पूर्वक जानकारी दी जा रही है। जब तक आप शब्दों तथा उसके समस्त रूप (शब्दरूप) के बारे में ठीक से जान नहीं लेते, तब तक संस्कृत में वाक्यों का निर्माण करने में कठिनाई आती रहेगी। संस्कृत में लिखे वाक्यों को समझने, उसका अर्थ लगाने में समर्थ नहीं हो पायेंगें।
अव्यय शब्द को छोड़कर शेष सभी प्रकार के शब्द विकारी हैं । इनके मूल स्वरूप में परिवर्तन हो जाते हैं। आगे के पाठ में हम संस्कृत शब्दों के रूप (विकार) अर्थात् विभक्तियों के बारे में विस्तार से पढ़कर समझेंगें। आगे आपको उदाहरण के रूप में सभी प्रकार के शब्दों से परिचय कराया जा रहा है। इन उदाहरणों को जानने के बाद आप शब्दकोश तथा संस्कृत पुस्तकों में आये शब्दों की सहायता से उसी प्रकार के अन्य शब्दों से परिचित होते चले जायेंगें।
शब्दों का अर्थ ज्ञान के लिए 8 साधन हैं। इन साधनों का वर्णन आचार्य जगदीश ने 'शब्दशक्ति-प्रकाशिका' में नामक पुस्तक में किया है।
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान-कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च।
वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः॥
१. व्याकरण, २. उपमान, ३. कोश, ४. आप्तवाक्य, ५. व्यवहार, ६. वाक्यशेष (प्रकरण), ७. विवृति (विवरण, व्याख्या), ८. प्रसिद्ध पद का सान्निध्य।
महाभारत के वनपर्व २-१६ शब्दों के अर्थ के ज्ञान के लिए विद्वानों की सेवा
करना, सुनना, बोले गये वाक्य को ग्रहण करना तथा धारण करना इनकी आवश्यकता कही गयी
है।
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ।
ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥
मेरे द्वारा लिखे गये इन पाठों में १. व्याकरण, २. कोश ३ तथा ४. व्यवहार द्वारा शिक्षा दी गयी है। अब आप समझ चुके होंगे कि संस्कृत भाषा सीखने के लिए आपको यह पाठ पढ़ने के अतिरिक्त अन्य कौन- कौन साधन हो सकते हैं।
पाठ- 5
विशेष ज्ञान 👉 एकवचनं त्वौत्सर्गिकं बहुवचनं चार्थबहुत्वापेक्ष्यम् नियम के अनुसार जहाँ वचन का निर्णय नहीं हो सके वहाँ एकवचन का ही प्रयोग करना चाहिए। सामान्य नियम का अपवाद कुछ शब्दों के वचन निश्चित होते हैं। जैसे- पुल्लिंग दार (पत्नी) अक्षत और लाज शब्द बहुवचन में ही प्रयोग किये जाते हैं। स्त्रीलिंग शब्द अप् (जल) सुमनस् (फूल) वर्षा, सिकता (रेत) शब्द सदा बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हैं। |
जिस शब्द से किसी कार्य के होने या किए जाने का बोध होता है, वह क्रिया शब्द कहलाता है। जैसे- पढ़ना, लिखना, चलना, हँसना आदि क्रिया है। संस्कृत में क्रिया के मूलरूप को धातु कहते हैं। जैसे- 'पठ्' (पढ़ना), ‘लिख्’ (लिखना), 'खाद्' (खाना) 'धाव्' (दौ़ड़ना) 'वस्' (रहना) 'कथ्' (कहना) आदि धातु हैं और पठति (पढ़ता है), लिखति (लिखता है), खादति (खाता है), खेल् (खेलता है) धातुओं से बने रूप हैं। इसके तीनों वचनों में इस तरह का रूप बनता है-
अब आप निम्नलिखित
संज्ञा शब्दों के साथ क्रमशः सभी वचन की क्रिया को जोड़कर वाक्य बनायें।
संज्ञा शब्द- खग, बालक, सेवक, गज, रमेश, सुरेश, अध्यापक, उपग्रह, अश्व, अमात्य, कृषक।
क्रिया शब्द- खेल्, कूज्, हस्, धाव्, क्रीड्, पूज्, सेव्, क्रीड, चल्, पच्, दह् ,वद्, नम्, वह् ।
एक उदाहरण - खगः कूजति । खगौ कूजतः । खगाः कूजन्ति ।
कोष्ठक में दिए गए संज्ञा तथा क्रिया शब्दों का वचन लिखें । जैसे- मकरौ = द्विवचन ।
नरः हसति । मालाकारौ
गच्छतः । मालाकाराः गच्छन्ति । मकरौ खादतः । नृपाः
रक्षन्ति । मालाकारः गच्छति । मकराः
खादन्ति । मकरः खादति । कपोतौ पश्यतः । नृपः रक्षति। कपोताः पश्यन्ति ।
कुक्कुरः धावति । नरौ हसतः। छात्रः नमति । कपोतः पश्यति । नृपौ रक्षतः। वृक्षौ फलतः । वृक्षाः फलन्ति। शुकः कूजति । मृगौ धावतः । गजाः चलन्ति। |
पाठ- 6
कर्ता
एकवचन द्विवचन
बहुवचन
भवत् (आप) भवान् भवन्तौ
भवन्तः
युष्मद् (तुम) त्वम् युवाम्
यूयम्
अस्मद् (मैं) अहम् आवाम् वयम् उत्तम पुरुष
क्रिया पुरुष
एकवचन द्विवचन
बहुवचन
पठति पठतः पठन्ति प्रथम पुरुष
पठसि पठथः
पठथ मध्यम पुरुष
इस तरह अबतक आपने जाना कि – v बालकः, सुरेशः, गजः, खगः, पर्वतः, वृक्षः, कर्गदः. ग्रन्थः, भवत् आदि प्रथम
पुरुष के शब्द हैं। v युष्मद् (तुम) मध्यम पुरुष का शब्द है। v अस्मद् (मैं) उत्तम पुरुष का शब्द है। v पठति, पठतः,
पठन्ति प्रथम पुरुष की क्रिया है। v पठसि, पठथः, पठथ मध्यम पुरुष की क्रिया है। v पठामि,
पठावः, पठामः उत्तम पुरुष की क्रिया है। v युष्मद् (तुम) शब्द तथा अस्मद् (मैं) को छोड़ कर शेष सभी
शब्दों के लिए प्रथम पुरुष का प्रयोग होता है। |
विशेषः- संस्कृत में शब्दों का लिंग होता है । वस्तु के आधार पर लिंग नहीं होता है। जैसे- स्त्री का पर्यायवाची दार शब्द पुल्लिंग है। नपुंसक लिंग में प्रयुक्त शरीर का पर्याय तनु शब्द स्त्रीलिंग है। एक ही वस्तु के लिए पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग के शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे-जैसे आप शब्दकोश का प्रयोग, संस्कृत की पुस्तकों का अध्ययन, वाक्यों का प्रयोग तथा शब्दों के प्रकृति तथा प्रत्यय से परिचित होते जाते हैं, वैसे शब्दों के लिंग को जानना आसान हो जाता है। अधिक जानकारी के लिए लिंगानुशासन पर चटका लगायें। |
बालिका शब्द (स्त्रीलिंग) –एकवचन द्विवचन बहुवचन बालिका बालिके बालिकाः |
बालिका हसति । बालिके हसतः । बालिकाः हसन्ति ।
बालिका नृत्यति । बालिके नृत्यतः । बालिकाः नृत्यन्ति ।
👉 इसी तरह मक्षिका, राधिका, पिपीलिका, वृद्धा, गङ्गा, यमुना आदि आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द से वाक्य बनायें-
नदी शब्द (स्त्रीलिंग) – एकवचन द्विवचन बहुवचन नदी नद्यौ नद्यः |
- संज्ञा तथा सर्वनाम विशेषण का लिंग, वचन तथा पुरुष होता है।
- अव्यय का वचन तथा पुरुष नहीं होता है।
- क्रिया वचन तथा पुरुष होता है।
संज्ञा (नाम) तथा सर्वनाम शब्द का लिंग एवं वचन
सर्वनाम तद् शब्द –
सः तौ ते- पुल्लिँग सा ते ताः- स्त्रीलिंग तत् ते तानि- नपुंसकलिंग |
अभी तक आपने संज्ञा, सर्वनाम तथा क्रिया शब्दों को जोड़कर वाक्य बनाना सीख लिया है। अब हम प्रश्नवाचन सर्वनाम किम् शब्द का रूप जोड़कर वाक्य बनाना सीखेंगे।
सर्वनाम किम् (कौन) शब्द- एकवचन द्विवचन बहुवचन कः
कौ के - पुल्लिंग का
के काः -
स्त्रीलिंग किम्
के कानि – नपुंसकलिंग |
जब आपसे कोई पूछता है – कौन कुत्ता दौ़ड़ रहा
है? सः कुक्कुरः
धावति।
आइये अब किम् (सर्वनाम) शब्द जोड़कर संस्कृत में वाक्य बनाना सीखें-
प्रश्न उत्तर
का बालिका नृत्यति ? सा बालिका नृत्यति ।
काः बालिकाः हसन्ति ?
के बालिके नृत्यतः ?
के कपोताः पश्यन्ति ?
कः छात्रः नमति ?
कः साधकः अस्ति ? सः साधकः अस्ति
।
कौ बालकौ पततः ? तौ बालकौ पततः ।
काः बालिकाः भ्रमन्ति ?
विशेष –
किं (क्या) अव्यय पद लगाकर वाक्य बनाने पर कर्ता के अनुसार किम् का रूप नहीं बदलेगा। अव्यय का रूप सभी लिंग, विभक्ति तथा वचन में एक समान होता है। सर्वनामवाचक किम् प्रश्न या जिज्ञासा के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि अव्यय वाला किम् शब्द आक्षेप पूर्वक जिज्ञासा के लिए प्रयोग किया जाता है।
जैसे - किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ।
संस्कृते सकलं शास्त्रं
संस्कृते सकला कला ।
संस्कृते सकलं
ज्ञानं संस्कृते किं न विद्यते॥
किं करिष्यन्ति
वक्तारः श्रोता यत्र न विद्यते।
नग्नक्षपणके देशे
रजकः किं करिष्यति॥
न हि
कश्चिद्विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
यस्य नास्ति
स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां
विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥
क्षमावशी
कृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ।
शान्तिखङ्गः करे
यस्य किं करिष्यति दुर्जनः ॥
कवयः किं न पश्यन्ति किं न
कुर्वन्ति योषितः ।
मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न
खादन्ति वायसाः ।
कृते प्रयत्ने किं न लभेत ।
बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ।
किम् शब्द का वाक्य में प्रयोग-
क्या कुत्ता दौ़ड़ रहा है? किं कुक्कुरः
धावति।
आप उत्तर देते हैं- हाँ, कुत्ता दौड़ रहा है ।
आम्, कुक्कुरः धावति ।
अथवा आपका उत्तर होता है- नहीं, कुत्ता नहीं दौड़ रहा है । न, कुक्कुरः न धावति ।
आगे आप इसी तरह कुत्र, कथम् आदि अन्य प्रश्न वाचक शब्दों से वाक्य बनाना सीखेंगें।
इनमें से सर्व, त्यद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक तथा द्वि शब्दों के प्रथमा विभक्ति की रूप देखकर अभ्यास पुस्तिका में लिखें तथा उसे याद कर लें।
विभक्ति एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमा
वेदः वेदौ वेदाः
द्वितीया वेदम् वेदौ वेदान्
तृतीया
वेदेन वेदाभ्याम् वेदैः
चतुर्थी
वेदाय वेदाभ्याम् वेदेभ्यः
पञ्चमी
वेदात् / वेदाद् वेदाभ्याम् वेदेभ्यः
षष्ठी
वेदस्य वेदयोः वेदानाम्
सप्तमी
वेदे वेदयोः वेदेषु
सम्बोधन वेद वेदौ वेदाः
सर्वनाम युष्मद् शब्द का रूप। इसका तीनों लिंग में समान रूप चलता है।
विभक्ति एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमा त्वम् युवाम् यूयम्
द्वितीया त्वाम् / त्वा युवाम् / वाम् युष्मान् / वः
तृतीया त्वया युवाभ्याम् युष्माभिः
चतुर्थी तुभ्यम् / ते युवाभ्याम् / वाम् युष्मभ्यम् / वः
पञ्चमी त्वत् / त्वद् युवाभ्याम् युष्मत् / युष्मद्
षष्ठी तव / ते युवयोः / वाम् युष्माकम् / वः
सप्तमी त्वयि युवयोः युष्मासु
सर्वनाम अस्मद् शब्द का रूप। इसका तीनों लिंग में समान रूप चलता है। इसमें सम्बोधन नहीं होता है।
विभक्ति एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमा अहम् आवाम् वयम्
द्वितीया माम् / मा आवाम् / नौ अस्मान् / नः
तृतीया मया आवाभ्याम् अस्माभिः
चतुर्थी मह्यम् / मे आवाभ्याम् / नौ अस्मभ्यम् / नः
पञ्चमी मत् / मद् आवाभ्याम् अस्मत् / अस्मद्
षष्ठी मम / मे आवयोः / नौ अस्माकम् / नः
सप्तमी मयि आवयोः अस्मासु
विभक्ति एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमा
भवान् भवन्तौ भवन्तः
द्वितीया भवन्तम् भवन्तौ भवतः
तृतीया
भवता भवद्भ्याम् भवद्भिः
चतुर्थी
भवते भवद्भ्याम् भवद्भ्यः
पञ्चमी
भवतः भवद्भ्याम् भवद्भ्यः
षष्ठी
भवतः भवतोः भवताम्
सप्तमी
भवति भवतोः भवत्सु
सम्बोधन भवन् भवन्तौ भवन्तः
लिख् धातु के लट् लकार का धातुरूप (कर्ता, परस्मैपद)
पुरुष एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथम पुरुष लिखति लिखतः लिखन्ति
मध्यम पुरुष लिखसि लिखथः लिखथ
उत्तम पुरुष लिखामि लिखावः लिखामः
पाठ- 7
इदम्, एतद्, अदस् तथा तद् सर्वनाम शब्द हैं। निकटवर्ती वस्तु का बोध कराने के लिए 'इदम्' शब्द का तथा अत्यन्त निकटवर्ती वस्तु के लिए 'एतत्' शब्द का का व्यवहार होता है। दूर की प्रत्यक्ष वस्तु के लिए 'अदस्' शब्द का, और परोक्ष (आँख से न दिखने वाली वस्तु) के लिए 'तद्' शब्द का व्यवहार होता है । इन शब्दों का तीनों लिंगों में शब्दरूप याद कर लें। यहाँ पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति का शब्दरूप दिया जा रहा है ताकि आप वाक्य बना सकें।
शब्द एकवचन द्विवचन बहुवचन
इदम् अयम् इमौ इमे
एतद् एषः एतौ एते
अदस् असौ अमू अमी
संज्ञा के साथ क्रिया का प्रयोग
वेदः पठति। गजः गच्छति। मोहनः रोदति। बानरौ कूर्दतः। मयूराः नृत्यन्ति। रामलक्ष्मणौ पठतः । रामश्यामौ गच्छतः । रामः वदति । मानवौ लिखतः। पतयः वसन्ति। शशकः कूर्दन्ति । बृकः चरति।
ऊपर के वाक्यों में हमने देखा कि संज्ञा के साथ गच्छ, रोद, कूर्द, हस, पिब, चर आदि प्रथम पुरुष के क्रिया शब्द का प्रयोग कर वाक्य बनाया गया हैं।
सर्वनाम के साथ क्रिया का प्रयोग
त्वं नृत्यसि। युवां हसथः। यूयं पिबथ।
अहं इच्छामि। अहं हसामि। अहं पिबामि। आवां कुर्वः। वयं कुर्मः। वयं खादामः ।
ऊपर के वाक्यों में हमने देखा कि नृत्, हस, पिब आदि क्रिया मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष की तथा नृत्यति , खादन्ति प्रथम पुरुष की है।
संज्ञा (नाम) सर्वनाम तथा क्रिया का प्रयोग।
त्वं शिक्षकः असि । त्वं युवकः असि । त्वं राजेन्द्रः असि । अहं दूतः अस्मि । अहं दासः अस्मि । अहं नृपः अस्मि। आवां मृगे स्वः। अयं देवः अस्ति । इमौ देवौ स्तः । इमे देवाः सन्ति । एषः बालकः अस्ति । एतौ बालकौ स्तः । एते पथिकाः सन्ति । अयं गजः गच्छति। अमू पिबतः।
अधोलिखित क्रिया पदों के साथ एक वाक्य बनायें-
गच्छति, श्रृणोमि,
वदामि, पठामि, लिखसि, पिबावः, खादामः, पश्यामि, नयावः, इच्छामि, चलसि, वसामि, जानामि, पृच्छामि, पचामि, उपविशानि, ददासि, कथयामि,
हसथः स्मरसि, नृत्यतः, गायामि, तिष्ठन्ति, क्षिपति, अटन्ति,
भ्रमामः, नमति, जीवामि,
यच्छामि, धावामः, रोदथ, क्रीड़ामि, क्रीणामि, तरामि, धारयामि, बिभेमि । |
अधोलिखित वाक्य को एकवचन में लिखें ।
जैसे- इमौ शिक्षकौ स्तः– अयं शिक्षकः अस्ति । इमौ शुकौ गायतः। अयं शुकः गायति ।
इमे मनुष्याः सन्ति। इमे बालकाः गच्छन्ति । इमे साधकाः खादन्ति । इमे शिक्षका:
हसन्ति। इमे रक्षकाः जल्पन्ति । इमे वीराः रक्षन्ति । इमे धीराः भ्रमन्ति ।
अधोलिखित वाक्य में अयम्, इमौ, इमे को रिक्त स्थान में भरें—
....... शिक्षकः नमति । .......बान्धवाः खेलन्ति। ..... विद्यालयः अस्ति ।
.... सेवकः चलति । ....हस्तः अस्ति। । ..... कर्णः श्रृणोति । ..... केशाः पतन्ति ।
'इदम्' 'एतत्' 'अदस्' तथा 'तद्' शब्द के व्यवहार के लिए यह श्लोक याद कर लें।
इदमस्तु सन्निकृष्टं, समीपतरवर्ति चैतदोरूपम् ।
अदसस्तु विप्रकृष्टं तदिति परोक्षे विजानीयात् ।।
संख्या (गणनावाचक) शब्द
वचन से संख्या का भी बोध होता है। एकः, द्वौ शब्द सर्वनाम शब्द हैं। 1 से लेकर 18 तक संख्यावाची शब्द विशेषण में प्रयुक्त होते हैं। एकः, द्वौ, त्रयः, चत्वारः इन संख्यावाची शब्द के तीनों लिंगों में रूप होते हैं।
संस्कृत में संख्यावाची शब्द, उसका वचन, लिंग, शब्दरूप आदि के बारे में विस्तार से जानने के लिए संख्यावाची शब्द पर अवश्य क्लिक करें। इसके विना यह पाठ अधूरा रहेगा।
एकः बालकः पठति। एकः मयूरः नृत्यति। ध्रुवः एकः बालकः अस्ति। एकः शिशुः रोदति। द्वौ बालकौ खादतः । द्वौ वानरौ कूर्दतः । त्रयः छात्राः पठन्ति।
पुनः स्मरण
यहाँ तक आपने कर्ता, क्रिया, वचन तथा संख्यावाची शब्दों के योग से संस्कृत में वाक्य बनाना सीखा। इस तरह अन्य वाक्य बनाने का अभ्यास करें।
पाठ- 9
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सामान्य
नियम यह है कि इकारान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप मुनि शब्द के समान चलते हैं। इस
तरह के शब्दों में आगे दिए गए इकारन्त पुल्लिँग शब्द के रूप बनते है-
वह्नि (आग), अद्रि ( पहाड़ ), यति (तपस्वी ), विधि ( नियम या ब्रह्मा), विरंचि (ब्रह्मा), उदधि (समुद्र), जलधि (समुद्र), गिरि ( पहाड़ ), असि (तलवार), पाणि (हाथ), व्याधि ( रोग
), अहि ( सर्प ), उपाधि, अरि ( शत्रु ), नृपति (राजा), मणि,
निधि ( कोश ), रवि, अतिथि,
अराति ( शत्रु), अब्धि (समुद्र), वारिधि (समुद्र), आदि, पयोधि
(समुद्र), पवि (वज्र )।
याद
रखें कि संस्कृत में शब्द का रूप अंतिम अक्षर के आधार पर बनते हैं अतः पति के
पूर्व अधि जोड़कर अधिपति बने शब्द का रूप भी पति शब्द की तरह बी होगा। इसी तरह
कतिपय इकरान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप कवि के समान नहीं चलते हैं । यह अपवाद है जैसे- पति और सखि ।
शब्दरूप के लिए संस्कृत अभ्यास पर चटका लगाकर रवि, पति तथा सखि शब्द के रूप को में अंतर को देखें।
मैं यहाँ हरि शब्द का रूप लिख देता हूँ। इसी तरह आप कपि, ऋषि आदि इकारान्त पुल्लिंग के साथ क्रिया शब्द जोड़कर वाक्य बनाने का अभ्यास कीजिये।
विभक्ति एकवचन द्विवचन
वहुवचन
प्रथमा हरिः हरी
हरयः
इकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
व्यंजनान्त शब्द
संस्कृत के अधिकांश व्यञ्जनान्त शब्द धातुओं से बनते हैं अतः इन शब्दों का कर्ता
में बहुत कम प्रयोग देखने को मिलता है। धातु में प्रत्यय लगने के बाद बने व्यञ्जनान्त
शब्दों का प्रयोग विशेषण तथा अन्य रूप में होता है। कुछ संख्यावाची शब्द तथा कुछ
सर्वनाम शब्द व्यञ्जनान्त होते हैं। ऐसे व्यञ्जनान्त शब्द तथा उसके अर्थ यहाँ दिये
जा रहे हैं।
व्यञ्जनान्त पुल्लिंग शब्द -
लिह् = चाटने वाला, चतुर् = चार, किम् = कौन, क्या, इदम् = यह, तद् = वह, एतत् = यह, राजन् = राजा, पञ्चन् = पाँच, अस्मद् = मैं, युष्मद् = तुम, पयोमुच् = जल को छोड़ने वाला बादल, सुपात् = सुन्दर पैर वाला, भवत् = आप, चन्द्रमस् = चन्द्रमा, अदस् = वह (दूर का)
व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग शब्द
उपानह् = जूता, गिर् = वाणी, चतुर् =
चार, वाच् = वाणी, अप् = जल । किम् = क्या, सर्वनाम त्यद्, तद्, यद्, एतत्।
व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग शब्द
वार् = जल, अहन् = दिन, दण्डिन् =
दण्ड वाला, चतुर् = चार, किम् = क्या, इदम् = यह, एतत् = यह (पास का)
इस प्रकार आपके पास संस्कृत का बृहद् शब्दकोश जमा हो जाएगा।
शब्दों का लिंग का निर्धारण
संज्ञा (कर्ता) शब्दों के साथ क्रिया का प्रयोग-
एकः बालकः रोदति। हरिः ब्रवीति। पितरौ हसतः। अंगं अस्ति । बकः कुप्यति । चन्द्रः एति। सेवकाः अश्नन्ति। अध्यापकाः पाठयन्ति । पिकौ ईर्ष्यतः। पितरौ वसतः। धनम् अस्ति । स्वप्नः विद्यते। आनन्दः अपेक्षते।
संज्ञा तथा
सर्वनाम शब्दों के साथ क्रिया का प्रयोग-
सः भानुः ददाति। सः अमरः कूर्दति। सा बालिका चोरयति।
द्वे गौर्यौ कथयतः। एषा उज्जयिनी आपयति। तौ श्रमिकौ
अर्जयतः। सर्वे जानन्ति । सः अस्ति। भवान् पृच्छतु । भवती शक्नोति। सः चिकित्सकः
अस्ति। द्वे रूपे वर्तेते। बालिका त्रीणि अक्षराणि वेत्ति। ते नृत्यन्ति। अहम् अस्मि
। अहम् नमामि। अहम् तिष्ठमि। अहं बालकः अस्मि। अहं बालिका अस्मि। आवां स्वः । आवां
नयावः। वयं स्मः। वयं दण्डयामः। त्वं गच्छसि। त्वं पठसि। त्वं खादसि। यूवां वदथः।
यूयं ….। एते मानवाः सन्ति।
सर्वनाम तथा अव्यय से अनिश्चयवाचक शब्द
1. अनिश्चयवाचक शब्द बनाने के लिए प्रश्नवाचक विभक्तियुक्त “किम्" शब्द के परे 'चित्', 'चन' और 'अपि' शब्द लगाकर वाक्य बनाया जा सकता है । यह चित् और चन प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होता है और विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। “चित्” और “चन” प्रत्यय लगाने से पहले “किम्" शब्द में विशेष्य के अनुसार- लिङ्ग, वचन और विभक्ति लगा लें। इसके बाद उन रूपों के आगे “चित्" और चन" प्रत्यय लगा लें।
ये कौन, क्या, इत्यादि अर्थों के द्योतक होते हैं।
जैसे -
कोई आदमी - "कश्चित् मानवः एवं वदति" ।
"कश्चन पिता गृहं गच्छति" ।
किसी को "कश्चित् ( कञ्चन ) मानुषम्" ।
किसी वन में बिल्ली रहती है- "कस्मिंश्चित् गृहे बिडालः वसति"।
किसी जंगल में शेर रहता है- "कस्मिञ्चन वने सिंहः निवसति" ।
किसी बालिका का थैला है-“कस्याश्चिद् बालिकायाः स्यूतः अस्ति"।
कई बालिकायें जाती है - "काश्चन वालिकाः गच्छन्ति" ।
किसी बालिका के साथ वृद्धा का परिचय है- "कयाचिद् बालिकया सह वृद्धायाः परिचयः अस्ति" ।
किसी ग्राम की यह रीति है – “केषाश्चिद् ग्रामाणां इयं रीतिः ।
कश्चित् वदति । केचन जनाः आगतवन्तः । केचन जनाः में क्रिया को करने वाला जनाः है अतः प्रश्नवाचक किम् शब्द में भी वही लिंग तथा वचन होगा, जो कर्ता में है। अतः किम् पुल्लिंग शब्द के बहुवचन का रूप के + चन का प्रयोग किया गया।
2. आपने देखा कि अनिश्चयवाचक सर्वनाम 'किम्' शब्द से तीनों लिङ्गों में तथा सब विभक्तियों में चित्, चन, जोड़ने के बाद अनिश्चय वाचक सर्वनाम बनता है। इसी प्रकार अपि तथा स्वित् जोड़कर भी अनिश्चय वाचक सर्वनाम बनता है। जैसे पुँल्लिङ्ग में –कश्चित्, काचित्, किञ्चित्, कोऽपि, केचन, कयाचन, काश्चित् इत्यादि । इनके रूप निम्नलिखित होते हैं । कश्चित्, कौचित् , केचित्, कञ्चित्, काँश्चित्, केनचित्, काभ्याञ्चित्, कैश्चित्, कस्मैचित्, केभ्यश्चित् , कस्माच्चित्, कस्यचित्, कयोश्चित्, केषाञ्चित्, कस्मिंश्चित्, केषुचित् । ऐसे ही 'चन' लगाकर कश्चन आदि । अपि के साथ-कोऽपि, कावपि, केऽपि, कमपि, कानपि, केनापि, काभ्यामपि, कैरपि, कस्मा अपि, केभ्योऽपि २, कस्मादपि, कस्यापि, कयोरपि , केषामपि, केष्वपि । स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक में भी 'चित्', 'चन' 'अपि' आदि लगाकर काचित्, काचन, कापि, किञ्चित्, किञ्चन, किमपि आदि रूप होते हैं ।
पाठ- 12
वाक्य विचार
सर्वनाम शब्द को 6
भागो में विभाजित किया जाता है, यथा-
(1) पुरुषवाचक सर्वनाम
(2) संकेतवाचक सर्वनाम
(3) सम्बन्धवाचक सर्वनाम
(4) प्रश्नवाचक सर्वनाम
(5) अनिश्चयवाचक सर्वनाम
(6) निजवाचक सर्वनाम
प्रश्नवाचक सर्वनाम तथा अव्यय
1.प्रश्न तथा सम्बन्धवाचक सर्वनामों का अर्थ प्रकट करने के लिए संस्कृत में क्रमशः किम् ( पु० कः, स्त्री० का, नपुं० किम् ) तथा यत् (पुं० य; स्त्री० याः नपुं० यत् ) शब्दों का प्रयोग किया जाता है ।
जैसे - प्रश्नवाचक - त्वं किं पठसि ? युवां किं पठथः ? यूयं कि पठथ ? । त्वं कां नमसि ? युवां कां नमथः ? यूयं कां नमथ ? त्वं कः असि ? युवां कः स्थः ? यूयं के सन्ति ? भवान् कः अस्ति ? कः अश्वः अस्ति ? सः अश्वः अस्ति।
भवतः का प्रतिष्ठा ? कस्मिन् देशे भवान् कथं जातः ? केन कृतम् ? का ते माता ? कः ते पिता ? कथं शास्त्राणां परिचयः ?
तीनों कोष्ठक से एक-एक पद लेकर वाक्य
बनायें।
शिक्षकाः आवां युवां शिक्षिकाः यूयं वयं जनाः |
कुत्र किं कथं |
सन्ति कुरुथ गायावः लिखथः आगच्छन्ति विहरन्ति |
सापेक्षताबोधक सर्वनाम
2.कई बार विद्यार्थियों को “जो जो" कुछ ( Whatever ) इत्यादि भावों को प्रकट करने में बहुत कठिनता होती है। ऐसी अवस्था में 'यत्' शब्द का दो बार प्रयोग करने से अनुवाद सरलता से किया जा सकता है।
यत् ( जो-who, which ) शब्द का पुंल्लिङ्ग में यः, यौ, ये आदि, स्त्रीलिङ्ग में या, ये, याः आदि तथा नपुंसक में यत्, ये, यानि आदि के रूप 'तत्' शब्द के समान समझने चाहिए।
विशेषण के मुख्यतया चार प्रकार से विभाग किये जा सकते हैं ।
(1) गुणवाचक विशेषण । यथाः– “नीलं नभः”, “रक्तं उत्पलम्" इत्यादि ।
(2) अवस्थावाचक विशेषण । । यथाः– वाचालः बालकः।
(3) परिमाणवाचक विशेषण। यथा- "स्वल्पं तोयम्", "प्रभूतं धनम्" "प्रचुरं दुग्धम्" इत्यादि ।
सामान्य नियम के लिए एक श्लोक याद कर लें-
यल्लिङ्गं यद्वचनं या च विभक्तिः विशेष्यस्य।
प्रश्न- श्वेतः
अश्वः धावति में कौन विशेषण पद है ?
उत्तर - श्वेतः विशेषण पद है ।
प्रश्न- चतुरः
काकः जलं पिबति में कौन विशेष्य पद है ?
उत्तर - काकः विशेष्य पद है ।
प्रश्न- पुष्पं
सुन्दरं अस्ति इस वाक्य में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण पद है ?
उत्तर - पुष्पं
विशेष्य तथा सुन्दरं विशेषण पद है ।
प्रश्न- अहं
श्वेतम् अश्वं पश्यामि इस वाक्य
में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण
पद है ?
उत्तर - अश्वं विशेष्य तथा श्वेतम् विशेषण पद है ।
प्रश्न- एतत् जलं
पवित्रम् अस्ति इस वाक्य
में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण
पद है ?
उत्तर - जलं विशेष्य तथा पवित्रम् विशेषण पद है ।
प्रश्न- वीराणां
पुरुषाणां प्रशंसा सर्वत्र भवति इस वाक्य
में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण
पद है ?
उत्तर - पुरुषाणां विशेष्य तथा वीराणां विशेषण पद है ।
प्रश्न- रामः
भरतात् ज्येष्ठतरः आसीत् इस वाक्य में कौन विशेष्य
तथा कौन विशेषण पद है ?
उत्तर - रामः विशेष्य तथा ज्येष्ठतरः विशेषण पद है
इसी प्रकार अधोलिखित
विशेष्य-विशेषण को समझें ।
कृष्णः पीतम् अम्बरं धरति।
(विशेष्य- अम्बरम्, विशेषण- पीतम्)
कृष्णः पीतम् अम्बरं धरति।
(विशेष्य- अम्बरम्, विशेषण- पीतम्)
भारवाहने अक्षमान् सैनिकान्
विलोकयन् अवदत्। (विशेष्य- सैनिकान् , विशेषण- अक्षमान्)
मनोहरः सत्यनिष्ठः आसीत्।
(विशेष्य- मनोहर:, विशेषण- सत्यनिष्ठ:)
तव शरीरं सुन्दरम् अस्ति।
(विशेष्य- शरीरम्, विशेषण- सुन्दरम्)
रामायणे मानवतापोषकानि
जीवनमूल्यानि वर्णितानि सन्ति। (विशेष्य- जीवनमूल्यानि, विशेषण- मानवपोषकाणि)
विश्पला वीराङ्गना आसीत्।
(विशेष्य- विश्पला, विशेषण- वीराङ्गना )
क्रिया
एक लकार के तीनों वचन तथा तीनों पुरुष मिलाकर नौ रूप होते है। किसी एक धातु के दस लकारों में नब्बे रूप बन जाते हैं। इस तरह प्रत्येक धातु के ९०-९० रूप बनते हैं। कुछ धातु परस्मैपदी होते हैं तो कुछ आत्मनेपदी। यदि कोई धातु उभयपदी अर्थात् परस्मैपदी और आत्मनेपदी दोनों हो तो रूप दो गुने हो जायेंगे। इस तरह परस्मैपदी के ९० रूप तथा आत्मेपदी के ९० रूप मिलाकर कुल १८० रूप होंगे। उसमें भी कई धातुओं में अनेक कार्यों में वैकल्पिक रूप बनते हैं। इस तरह रूपों की संख्या और बढ़ जाती हैं। फिर आगे णिजन्त में लगभग २००, सन्नन्त में लगभग २००, यडन्त में लगभग २०० यङ्लुङन्त में लगभग २०० करके एक धातु के हजार से भी ऊपर रूप बन जाते हैं। इसके बाद धातुओं से उपसर्ग भी लगते हैं। २२ उपसर्ग हैं, उनमें अधिकतर धातु के साथ जुड़ते हैं। कहीं एक ही उपसर्ग धातु से जुड़ता है तो कहीं एक से अधिक दो, तीन भी लगते हैं। कहीं वे ही उपसर्ग व्यत्यास अर्थात् आगे पीछे होकर लगते हैं। इस तरह एक धातु के लाखों भी रूप हो सकते हैं। एक धातु को अच्छी तरह से समझ लिया जाय तो हजारों, लाखों शब्दों को समझा जा सकता है। अतः मैने संस्कृत शिक्षण पाठशाला में धातु के लिए अलग से दो पोस्ट लिखा हूँ। इसके बाद आपको संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 तथा संस्कृत शिक्षण पाठशाला 3 अवश्य पढ़ना चाहिए।
आपने जाना कि धातु को क्रिया कहा जाता है। आगे संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 में आप कृदन्त प्रत्ययों के बारे में पढ़ेंगे। धातुओं के साथ कृत् प्रत्यय के योग करने पर संज्ञा, विशेषण या अव्यय पद बनते हैं।
1. साधारणतः कृत् प्रत्यय कर्ता (संज्ञा) अर्थ में होते हैं। 'तृच्', 'क्तिन्', 'ण्वुल्', 'ल्युट्' आदि प्रत्यय कर्ता में होते हैं।
2. 'शतृ', 'शानच्', 'तव्यत्' , 'अनीयर्', 'यत्' प्रत्यय का धातु के साथ योग होने पर विशेषणवाची पद बनते हैं।
3. धातुओं से 'क्त्वा', 'ल्यप्' , 'तुमुन्' प्रत्ययों के योग होने पर अव्ययवाची पद बनते हैं।
अब तक के अध्यायों में हम संस्कृत भाषा के वर्ण तथा शब्द के स्वरूप से भली भाँति परिचित हो गये। इसके बाद के अध्यायों में हम अधोलिखित वाक्य पर विचार करेंगें।
1. वाक्यों में क्रिया का कारक के साथ सम्बन्ध/ समन्वय के लिए कारक विभक्ति तथा उपपद विभक्ति।
2. विशेष्य और विशेषण पर विचार
3. सम्बन्धी और सम्बन्धवाची शब्दों पर विचार (षष्ठी विभक्ति)
4. अव्यय पर विचार
1. 'प्रातिपादिकार्थलिंगपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा' - शब्द के मूल रूप ( बिना विभक्ति के ) को प्रातिपादिक कहते हैं। मूल शब्द के अर्थ बोध में, लिंग ज्ञान के लिए, मात्रा जानने तथा वचन के अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है। जब तक हम किसी मूल शब्द में विभक्ति नहीं लगाते हैं तब तक उसका अर्थ ज्ञान नहीं हो पाता है। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अव्यय शब्दों के अर्थ ज्ञान के लिए मूल शब्द में प्रथमा विभक्ति लगाते हैं। किस शब्द का किस लिंग में प्रयोग होता है,यह जानकारी प्रथमा विभक्ति द्वारी होती है, जैसे केवल एक लिंग- मानवः, फलम्। अनेक लिंग की जानकारी के लिए- तटः तटी तटम्। मात्रा का उदाहरण- प्रस्थो ब्रीहिः- आधा सेर चावल। संख्या का उदाहरण- एकः द्वौ, बहवः ।
2. स्वतन्त्रः कर्ता- क्रिया के सम्पादन में जो स्वतन्त्र हो,
उसे कर्ता कारक कहते है। जैसे- हरिः पुस्तकं पठति । यहाँ
पढ़ने की क्रिया का सम्पादक 'हरि' है। अतः हरि में प्रथमा विभक्ति हुई ।
3. 'कर्त्तरि प्रथमा '
अथवा 'उक्ते कर्तरि प्रथमा'
– क्रिया के सम्पादक को
कर्ता कारक कहते हैं । कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है जैसे-
गोपालः गृहं गच्छति । यहाँ जाने की क्रिया को सम्पन्न करनेवाले कर्त्ताकारक 'गोपाल' में प्रथमा विभक्ति हुई है। कर्तृवाच्य की क्रिया में
कर्त्ता उक्त अर्थात् प्रधान रहता है। अतः कर्तृवाच्य के कर्त्ता में यहाँ प्रथमा
विभक्ति हुई ।
4. सम्बोधन
में प्रथमा- सम्बोधन को कारक के
अन्तर्गत नहीं मान जाता। इसके लिए प्रथमा विभक्ति का उपयोग किया जाता है। किसी
किसी शब्द का सम्बोधन में आंशिक रूप परिवर्तन हो जाता है। अतः शब्दरूप में सम्बोधन
का भी शब्दरूप लिखा जाता है।
6. संस्कृत में क्रिया अथवा व्यापार को ही मुख्य माना जाता है। इस भाषा में क्रिया के आधार पर ही कारक निश्चित होते हैं। क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्। इस नियम के कारण पचति, खेलति, पठति आदि में काल, पुरुष तथा वचन निश्चित हैं, अतः उसी के अनुसार कारक का प्रयोग होता है।
7. कर्तृवाच्य में क्रिया का सम्बन्ध कर्ता के
साथ होता है अतः कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है, जबकि
कर्म वाच्य में क्रिया के साथ कर्म का सम्बन्ध होता है अतः वहाँ पर कर्ता में
प्रथमा विभक्ति नहीं होती। यही स्थिति भाववाच्य की भी है। वाच्य के बारे में एक
अलग अध्याय में पृथक् से चर्चा की जाएगी।
8. 'उक्ते कर्मणि प्रथमा'- कर्म वाच्य में कर्म के उक्त (प्रधान/मुख्य)
रहने पर उसमें (उक्त या प्रमुख कर्म में ) प्रथमा विभक्ति होती है तथा क्रिया कर्म
के अनुरूप होती है। अर्थात् क्रिया में वही विभक्ति तथा वचन होंगें ,जो कि कर्म
में है। जैसे- मया चन्द्रः दृश्यते । रामेण रावणः हतः । यहाँ 'चन्द्र' और 'रावण' कर्मवाच्य के उक्त कर्म है। अतः इनमें प्रथमा विभक्ति हुई है।
9. अव्यययोगे प्रथमा / निपातेनाभिहिते प्रथमा – इति, नाम और अपि अव्ययों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे- अमुं नारद इति
अबोधि ( उनको नारद ऐसा जाना ) । जनको नाम राजा अभूत् ( जनक नाम के राजा हुए
) । तस्य कन्या सीता नाम आसीत् ( उनकी कन्या का नाम सीता था ) । विषवृक्षोऽपि
संवर्ध्य स्वयं छेत्तुम् असाम्प्रतम् ( विष के पेड़ को भी बढ़ाकर अपने आप काटना
उचित नहीं है ) ।
अभ्यास- 1
अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों
का प्रथम पुरुष की क्रियाओं का वर्तमान काल (लट्) के साथ प्रयोग देखें ।
पुल्लिंग
संज्ञा शब्द एकवचन का प्रयोग-
अश्वः
धावति । गजः धावति । अश्वः गजः च धावतः । अश्वः, गजः वृषभः च धावन्ति ।
अश्वः
खादति । गजः खादति । वृषभः खादति । अश्वः, गजः च खादतः । अश्वः, गजः वृषभः च खादन्ति ।
पुल्लिंग
संज्ञा शब्द द्विवचन का प्रयोग-
अश्वौ
धावतः । गजौ धावतः । वृषभौ धावतः ।
पुल्लिंग
संज्ञा शब्द बहुवचन का प्रयोग-
गजाः
धावन्ति । वृषभाः धावन्ति ।
सर्वनाम
शब्द एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन का प्रयोग-
सः
खादति । तौ खादतः । ते खादन्ति । । तौ धावतः । ते धावन्ति ।
अभ्यास- 2
रिक्त स्थान पर सः तौ ते में से किसी एक का चयन कर सही शब्द
लिखें।
. …….धावति । ……… खादन्ति। ……… खादतः
। …… लिखति।
अभ्यास- 3
निम्नलिखित संज्ञाओं या सर्वनामों के बाद 'धाव्' 'खाद्' 'लिख्' पिव्' धातुओं
की क्रिया को लिखें।
वृषभः
………। बालकौ ………। तौ ………। राम: ………। ते ………। सः ………। मनुष्याः ………। कृष्णः
………। ते ………।
अभ्यास- 4
निम्नलिखित क्रियाओं से पूर्व कर्ता चुनकर लगाइए। यह ध्यान
रहे कि कर्ता जिस वचन का है, क्रिया भी उसी वचन का हो। रिक्त स्थान पर एक बार एक शब्द का ही प्रयोग
कीजिए:
कर्ता-
मोहनः । वृषभौ । वृषभाः । गजः । बानरौ । गजाः। मयूरः । अश्वौ । अश्वाः ।
………
धावतः । ……… खादति। ……… धावन्ति
। ……… पिवन्ति । ……… वदतः । ………
धावन्ति । ……… खादतः । ……… धावति । ……… यच्छति ।
अभ्यास- 5
अकारान्त पुल्लिंग तथा नपुंसकलिंग शब्दों की प्रथमा विभक्ति
के तीनों वचनों का प्रथम पुरुष की क्रियाओं का वर्तमान काल (लट्) के साथ प्रयोग
देखें । पुल्लिंग में जिस अर्थ में 'सः, तौ, ते' का प्रयोग होता है, उसी अर्थ में नपुंसकलिंग के
शब्दों के लिए 'तत्, ते, तानि का प्रयोग होता है।
फलम्
पतति । फले पततः। फलानि पतन्ति ।
पत्रम्
पतति । पत्रे पततः । पत्राणि पतन्ति ।
तत्
फलम् पतति । तत् पत्रम् पतति ।
तानि
फलानि पतन्ति । तानि पत्राणि पतन्ति ।
सः
बालकः पतति । तौ बालकौ पततः । ते बालकाः पतन्ति ।
तत्र
पत्राणि फलानि च पतन्ति । सः अश्वः पतति । तौ अश्वौ पततः। ते अश्वाः पतन्ति । ते फले पततः । तत् चित्रम् पतति।
ते चित्रे पततः । तानि चित्राणि पतन्ति ।
ध्यान रखिए कि ह्रस्व अ से समाप्त होने वाले पुंलिंग शब्दों के रूप तो 'अश्व' या 'बालक' के समान चलेंगे और नपुंसकलिंग शब्दों के रूप 'फल' की तरह।
अभ्यास- 6
अकारान्त पुल्लिंग शब्द :- मनुष्य, पुरुष, अध्यापक, छात्र, सिंह, मयूर, शशक, वृक्ष, वानर और अकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों पुस्तक, गृह, चक्र, पुष्प, नेत्र, जल, दुग्ध, चित्र, आम्र शब्द के रूपों का तीन-तीन बार उच्चारण कीजिए। जैसे- मनुष्यः, मनुष्यौ, मनुष्याः । फलम्, फले, फलानि।
निम्न शब्दों से पूर्व लिंग और वचन देखकर सः तौ, ते। तत्, ते, तानि' में से ठीक शब्द भरिए
…………
बालकौ । ………… पत्राणि । ………… अश्वः । ………… बालकाः । ………… अश्वः
। ………… दुग्धम् । ………… गृहम् । …………
पत्राणि । ………… पत्रे । ……… तीर्थौ । ………… चक्रे। ………… पुष्पाणि।
अभ्यास- 7
आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों का प्रथम पुरुष की क्रियाओं का वर्तमान काल (लट्) के साथ प्रयोग देखें ।
पुल्लिंग में जिस अर्थ में 'सः, तौ, ते' का प्रयोग किया जाता हैं, उसी
अर्थ में स्त्रीलिंग में 'सा, ते, ताः' का प्रयोग होता है।
बालिकाः पठन्ति। बालिका पठति । सा बालिका सीता अस्ति । सा
तत्र पठति । ते रमा लीला च पठतः । ते तत्र पठतः । ते अत्र पठतः । रमा लीला च तत्र
पठतः । लता, ललिता, अर्चना, सुषमा च तत्र पठन्ति । ताः अत्र न पठन्ति । ताः
बालिकाः तत्र पठन्ति ।
गीता क्रीडति । शुभा सरिता च क्रीडतः । ताः बालिकाः सन्ति ।
ताः हसन्ति । सीता लिखति । सा लिखति । सीता गीता च लिखतः । ते लिखतः । रमा, उमा, शीला
च धावन्ति । ताः धावन्ति । ताः पठन्ति । ताः क्रीडन्ति । ताः हसन्ति ।
उपर्युक्त की तरह- लता (बेल),
अजा (बकरी), कलिका (कली),
कन्या, सरिता (नदी),
नौका, वाटिका, बाला, रमा, सीता, शीला, सुभद्रा, शोभा
शब्द से सभी वचनों में वाक्य बनायें।
याद रखें कि हिन्दी में कर्ता के अनुसार क्रिया का भी लिंग होता है परन्तु संस्कृत की क्रियाएँ सभी लिंगों में समान होती हैं। जैसे 'पठति' का अर्थ पढ़ता है और पढ़ती है, दोनों है।
प्रथमा विभक्ति, भूतकाल का उदाहरण-
शब्दकोश-
सा = वह एक (she) ते
= वे दो (those two ) ताः = वे सब (those)
पठ् = पढ़ना (to
read) हस् =
हँसना (to
laugh) लिख् = लिखना (to
write) क्रीड् = खेलना (to play) अस्ति = है (is) सन्ति
= हैं (are)
अभ्यास- 8
सर्वनाम का अभ्यास
नीचे दिए वाक्यों में रिक्त स्थानों पर लिंग और वचन को
देखकर "सः, तौ, ते; तत्, ते, तानि; सा, ते ताः" में से ठीक शब्द लिखें।
…….. बालकाः
क्रीडन्ति । …….. बालकौ हसतः । …….. शीला अस्ति । …….. कन्याः हसन्ति । …….. पत्राणि
पतन्ति । …….. बालिके लिखतः । …….. कृष्णः अस्ति । …….. फले पततः । …….. अश्वः
खादति । …….. तत्र क्रीडतः । …….. तत्र पठन्ति । …….. सुधा अस्ति। …….. कन्ये हसतः । …….. लिखति ।
पाठ- 16
2. कर्म कारक - द्वितीया विभक्ति
1. क्रिया के
द्वारा कर्ता का जो सबसे अधिक इच्छित होता है उसमें द्वितीया विभक्ति होती है। (सामान्य नियम) जैसे- राम सीता को
बुलाता है। रामः सीतां आह्वयति। यहाँ क्रिया के द्वारा कर्ता राम को इच्छित है
सीता को बुलाना। अतः सीता में द्वितीया विभक्ति होगी। सबसे इच्छित में द्वितीया विभक्ति का दूसरा उदाहरण- राम दूध के साथ भात खाता है। इसमें राम दूध तथा
भात दोनों खा रहा है, परन्तु इन दोनों में से इच्छित है- भात (ओदन) खाना। अतः इसमें द्वितीया विभक्ति होकर रामः पयसा
ओदनं खादति बनेगा।
सामान्य नियम
के अनुसार हिन्दी में "को" जिस शब्द के अंत में हो उसमें द्वितीया विभक्ति लगाना चाहिए।
4. क्रियाविशेषणे द्वितीया- जो क्रिया की विशेषता बताता है,
उसे क्रियाविशेषण कहते हैं और क्रियाविशेषण में द्वितीया
विभक्ति होती है। जैसे गीता मधुरं गायति । अर्धो घटः अधिकं शब्दायते ( अधजल गगरी
छलकत जाय ) । मन्दं मन्दं नुदति पवनः । कोकिल: मधुरं कूजति । यहाँ मधुरम्, अधिकम्
और मन्दं मन्दं क्रियाविशेषण हैं। अतः इनमें द्वितीया विभक्ति हुई है ।
5. 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे'-
अत्यन्त संयोग ( अतिशय लगाव, लगातार या व्याप्ति ) अर्थ रहने पर कालवाची और मार्गवाची
पदों में द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे—स मासमधीते व्याकरणम् ( बिना व्यवधान के वह महीने भर
व्याकरण पढ़ता है ) । क्रोशं कुटिला नदी ( नदी कोश भर तक टेढ़ी-मेढ़ी है ) । यहाँ
अत्यन्त संयोग में कालवाची 'मासम्' और मार्गवाची 'क्रोशम्' में द्वितीया हुई।
6. अव्यययोगे प्रथमा / निपातेनाभिहिते प्रथमा – इति, नाम और अपि अव्ययों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे- अमुं नारद इति अबोधि ( उनको नारद ऐसा जाना ) । जनको नाम राजा अभूत् ( जनक नाम के राजा हुए ) । तस्य कन्या सीता नाम आसीत् ( उनकी कन्या का नाम सीता था ) । विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुम् असाम्प्रतम् ( विष के पेड़ को भी बढ़ाकर अपने आप काटना उचित नहीं है ) ।
7. 'उक्ते कर्मणि प्रथमा'- कर्म वाच्य में कर्म के उक्त (प्रधान/मुख्य) रहने पर उसमें (उक्त या प्रमुख कर्म में ) प्रथमा विभक्ति होती है तथा क्रिया कर्म के अनुरूप होती है। अर्थात् क्रिया में वही विभक्ति तथा वचन होंगें ,जो कि कर्म में है। जैसे- मया चन्द्रः दृश्यते । रामेण रावणः हतः । यहाँ 'चन्द्र' और 'रावण' कर्मवाच्य के उक्त कर्म है। अतः इनमें प्रथमा विभक्ति हुई है। क्रिया प्रथम पुरुष एकवचन की हुई।
द्वितीया विभक्ति का उदाहरण-
विद्यालयं
परितः वृक्षाः सन्ति ।
कर्मवाच्य पर आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी।
3. करण कारक - तृतीया विभक्ति
कर्ता जिसकी सबसे अधिक सहायता से कार्य करता है उसे करण कहते हैं। जैसे- मोहनः लेखन्या लिखति। यहाँ पर मोहन लेखनी की सहायता से लिखता है,अतः लेखनी करण है। इसमें तृतीया विभक्ति होगी।वाच्य परिवर्तन के अध्याय में उक्त तथा अनुक्त कर्ता के बारे में विशेष चर्चा होगी। यहाँ उक्त तथा अनुक्त कर्ता के कतिपय उदाहरण दिया जा रहा है।
सः वामहस्तेन लिखति । त्वं केन हस्तेन लिखसि ? अहं दक्षिणहस्तेन लिखामि । सः वामपादेन चलति । त्वं केन पादेन चलसि ? अहं केन अपि पादेन न चलामि । त्वं कथं चलसि ? अहं पादाभ्यां चलामि। त्वं कथम् आकर्णयसि ? अहं कर्णाभ्याम् आकर्णयामि । त्वम् इक्षुदण्डं कथं चर्वसि ? अहं दन्तै: इक्षुदण्डं चर्वामि । त्वं केन सह खेलसि ? अहं कृष्णेन सह खेलामि।
इन वाक्यों का पुरुष तथा वचन परिवर्तन कर लिखें ।
सः वामहस्तेन लिखति । त्वं केन हस्तेन लिखसि ? अहं दक्षिणहस्तेन लिखामि । तौ वामहस्तेन लिखतः । युवां केन हस्तेन लिखथः ? आवां दक्षिणहस्तेत लिखावः । ते वामहस्तेन लिखन्ति । यूयं केन हस्तेन लिखथ ? वयं दक्षिणहस्तेन लिखामः ॥
4. सम्प्रदान कारक - चतुर्थी विभक्ति
अध्यापकः छात्रेभ्यः
मोदकानि यच्छति।
अध्यापकः जितेन्द्राय
मोदकं यच्छति ।
अध्यापकः गणेशाय
मोदके यच्छति।
अध्यापक: ज्येष्ठेभ्यः
बालकेभ्यः मोदकानि यच्छति ।
ब्राह्मणेभ्यः मधुरं प्रियम् । भगवते विष्णवे नमः । मोहनाय आम्राणि रोचन्ते । मह्यं पायसं स्वदते। विप्राय धनं ददाति । मह्यं संस्कृतं रोचते । मह्यं चत्वारि फलानि देहि ।
(5) श्लाघह्नुङ्स्थाशपां
ज्ञीप्स्यमानः
श्लाघृँ कत्थने - भ्वादिः ( प्रशंसा करना), ह्नुङ् अपनयने - अदादिः ( छिपाना), ष्ठा गतिनिवृत्तौ - भ्वादिः (ठहरना), तथा शपँ आक्रोशे - भ्वादिः ( उपालम्भ करना ) धातुओं के योग में जिसकी प्रशंसा आदि की जाय उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है। जैसे- गोपी कामात् कृष्णाय श्लाघते। नन्दिनी स्मरात् कृष्णाय श्लाघते, ह्रुते, तिष्ठते, शपते वा ।
अन्य नियमों की जानकारी के लिए व्याकरण की मूल पुस्तक अष्टाध्यायी या सिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन करें।
चतुर्थी विभक्ति का वाक्य में प्रयोग-
सः दरिद्राय धनं यच्छति । त्वं किं भिक्षुकाय भिक्षां यच्छसि? अहं तृषार्ताय जलं यच्छामि । माधवः क्षुधिताय भोजनं यच्छति ।
5. अपादान कारक - पञ्चमी विभक्ति
सामान्य नियमअपादाने पञ्चमी
6. अधिकरण कारक - सप्तमी विभक्ति
मम मनसि
सन्देहः वर्तते ।
सप्तमी विभक्ति का वाक्य में प्रयोग करें-
अहम् औषधालये वसामि । अहं भोजनालये खादामि । अहं विद्यालये पठामि । सः
कार्यालये तिष्ठति । सः तत्रैव खादति । सः आपणे न खादति । सः भाट्यावासे न वसति ।
संस्कृत में उत्तर लिखें- त्वं कुत्र वससि ? त्वं कुत्र खादसि ? त्वं कुत्र पठसि ? तिष्ठति ? सः कुत्र खादति ? सः कुत्र वसति ? सः दीननाथः कुत्र गच्छति ? पुलिनेषु कः विहसति
षष्ठी विभक्ति-
शेषे षष्ठी - कारक के अतिरिक्त स्व स्वामी आदि संबंधों में षष्ठी विभक्ति होती है।क्रिया के साथ साक्षात् सम्बन्ध नहीं होने के कारण षष्ठी विभक्ति को कारक नहीं माना जाता है। संबंधों दो के बीच में होता है ।यह विभक्ति प्रायशः एक संज्ञा शब्द का दूसरे संज्ञा शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित करता है। यह संबंध अनेक प्रकार का होता है जैसे पिता पुत्र के बीच जन्य जनक भाव संबंध, दो पदार्थों के बीच प्रकृति विकृति भाव संबंध, कार्य कारण भाव संबंध,स्व स्वामी भाव संबंध आदि।
मोहनः
उद्यानस्य शोभां पश्यति ।
कृष्णस्य वर्णः श्यामः अस्ति । मम देहस्य वर्णोऽपि श्यामः अस्ति । तस्य देहस्य
वर्ण: कः अस्ति ? — श्यामः वा गौर: वा ? अस्य देहस्य वर्णः ताम्रः अस्ति । तव केशस्य रङ्गः कृष्णः अस्ति । अस्माकं
विद्यालयस्य नाम संस्कृतशिक्षणपाठशाला अस्ति । युष्माकं विद्यालयस्य नाम किम् अस्ति
? तेषां विद्यालयस्य नाम किम् अस्ति ? एतेषां विद्यालयस्य नाम किम् अस्ति? युष्माकं संस्कृतशिक्षकस्य नाम किम् अस्ति ?
उपपद विभक्ति- नमः, स्वस्ति, प्रति, सह, विना आदि शब्द पद कहे जाते हैं। कारक प्रकरण में कुछ विभक्तियां पदों के कारण निर्धारित होती है। यथा नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। सह के योग में तृतीया विभक्ति होती है। यदि किसी विभक्ति में पद तथा कारक दोनों विभक्ति प्राप्त हो तो कारक विभक्ति होती है। पदमाश्रित्योत्पन्नाविभक्तिः उपपदविभक्तिः। क्रियामाश्रित्योत्पन्ना विभक्तिः कारकविभक्तिः। उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिः वलीयसी।
अभ्यास के लिए विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। कारक, सन्धि, तिङन्त, कृदन्त शब्दों का विश्लेषण, निर्माण पदों को आपस में मिलाने परिचय आदि विभिन्न कार्यों के लिए संसाधनी पर क्लिक करें। इसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय द्वारा तैयार किया गया।
विशेष्य और विशेषण पर विचार
विशेष्यस्य हि
यल्लिङ्गं विभक्तिर्वचनञ्च यत् ।
तानि सर्वाणि योज्यानि
विशेषणपदेष्वपि ।।
- जिसका क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध होता है वह प्रधान होता है। किसी भी वाक्य में विशेषण गौण या अप्रधान होता है और विशेष्य प्रधान। विशेषण का क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता है।
- विशेष्य और विशेषण में समानाधिकरण होता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि के शब्दों में न ह्युपाधेरुपाधिर्भवति, न विशेषणस्य विशेषणम् अर्थात् विशेषण का विशेषण नहीं होता।
- आपने पाठ 2 के विशेषण शीर्षक में संख्यावाची शब्दों के बारे में अधिक जानने के लिए चटका लगाकर पढ़ा होगा कि 1 से 18 तक की संख्या केवल विशेषण के रूप में, 20 से लेकर आगे की संख्या विशेष्य तथा विशेषण दोनों में प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार उनका लिंग और वचन भी जान लिया होगा।
- विशेषणों का रूप लगभग विशेष्य के अनुसार होते हैं, क्योंकि इनके लिंग में भी परिवर्तन हो जाता है। पाठ 2 सर्वनाम शीर्षक में आपने पढ़ा है कि इदम् , एतद् , तद्, अदस्, यद्, किम् सर्वनाम का प्रयोग विशेषण अर्थ में भी होता है।
- किम् शब्द में अपि, चित् एवं चन् प्रत्यय लगकर अनिश्चयवाचक सर्वनाम एवं किम् को छोड़कर शेष सर्वनाम में एव लगाकर निश्चयवाचक सर्वनाम बनाया जाता है। यह भी विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है।
- परिणाम वाची अल्प, अर्ध आदि शब्दों तथा अन्य सर्वनाम पदों में वतुप् आदि अनेक प्रकार के प्रत्यय लगते हैं। वे भी विशेषण होते हैं। उन विशेष शिक्षण सामग्री को अन्यत्र भी दी जाएगी।
- यदि किसी वाक्य में कोई विशेष्य पुंल्लिङ्ग हो और कोई स्त्रीलिङ्ग तो उनका साधारण विशेषण पुंल्लिङ्ग होगा और विशेष्य पदों की संख्या के अनुसार विशेषण का वचन होगा जैसे:– “सीता और राम सुन्दर हैं” – “सीता रामश्च सुन्दरौ । इस वाक्य में दो विशेष्य पद है। राम पुंल्लिङ्ग है और सीता स्त्रीलिङ्ग। इसलिए विशेषण पुंल्लिङ्ग का द्विवचन हुआ। इसी तरह “पिता-माता च आगतौ"। उसकी नासिका तथा कान देखने में सुन्दर हैं- "सुदृश्याः तस्य नासिका कर्णौ च" इत्यादि ।
- यदि वाक्यस्थ विशेष्य पदों में एक विशेष्य का लिङ्ग नपुंसक है तो इन विशेष्य पदों के विशेषण का लिङ्ग नपुंसक होगा और विशेष्य पदों के अनुसार उसका वचन अथवा एकवचन होगा।
- जैसेः -
- “सुन्दराणि (सुन्दरं वा) तस्य पिता माता कलत्रञ्च”।
- “नदी और जल सुन्दर हैं" - "सुन्दरे (सुन्दरं वा) नदी जलञ्च”।
- उसके हाथ और मन कोमल हैं” । “कोमलानि (कोमलं वा) तस्य हस्तौ मनश्च” ।
- भारतवर्ष में नदी, जंगल और सागर वर्तमान हैं- "भारतवर्षे वर्तमानानि (वर्तमानं वा) नदी वनं सागरश्च" । “तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता । एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन ॥”
- कभी कभी "क्रिया विशेषण" संस्कृत में अनुवाद - करते समय विशेष्य का विशेषण हो जाता है। जैसेः "उसने हाथ जोड़ कर निवेदन किया" - "स कृताञ्जलिपुटः निवेदयामास” । यहां पर “कृताञ्जलिपुटः” यह पद “सः" इस पद का विशेषण है न कि “निवेदयामास" इस क्रियापद का। इसी तरह उसने आश्चर्य से देखा - "सः सविस्मयः अपश्यत्” इत्यादि ।
- अव्यय पद का विशेषण एकवचनान्त और नपुंसक लिङ्ग होता है। जैसेः- “शोभनं प्रातः”। “मिथ्या न वक्तव्यम्” इत्यादि ।
- अधिक स्थानों में विशेषण निकटवर्ती विशेष्य के अनुसार लिंग, विभक्ति, तथा वचन वाला होता है। यथा- यस्य वीर्येण कृतिनो वयं च भुवनानि च।
अजहल्लिङ्ग विशेषण।
अर्थात् ये "अजहल्लिङ्ग विशेषण" हैं । जो शब्द समूह विशेषण रूप से प्रयुक्त होते हुए भी विशेष्य का समान लिङ्ग प्राप्त नहीं होता है उन्हें अजहल्लिङ्ग विशेषण कहते हैं ( न जहाति लिङ्गं यत्तद् अजहल्लिङ्गम् )
पद, भाजन प्रभृति कितने ही विशेष्य पद कहीं कहीं विशेषण भाव से प्रयुक्त होते हैं; इन्हें अजहल्लिङ्ग विशेषण कहते हैं। साधारणतया इस शब्द समुदाय के आगे “स्वरूप कौन”, ऐसा प्रश्न करने से उत्तर में जो विशेष्य पद आये, वही इस "अजहल्लिङ्ग विशेषण" का विशेष्य है। अधिकांश विशेष्य पद ही अजहल्लिङ्ग विशेषण भाव से व्यवहृत होते हैं। जैसे:- जैसेः-राम मेरा स्नेह-भाजन है, “रामो मे स्नेहभाजनम्” । यहां मेरा “स्नेह-भाजन स्वरूप कौन" ? ऐसा प्रश्न करने से "राम" यह विशेष्य पद उत्तर में आता है, इसलिए यहां राम विशेष्य तथा स्नेहभाजन अजहल्लिङ्ग विशेषण हुआ। इसने अपना लिङ्ग नहीं छोड़ा । इसका जो लिङ्ग था वही है। राम विशेष्य के अनुसार इसका लिङ्ग नहीं बदला, इसी तरह 'आस्पद' 'भाजन' प्रभृति अजहल्लिङ्ग विशेषण, वास्तविक 'विशेष्य' पद के लिङ्ग से भिन्न होते हुए भी, अपने लिङ्ग का परित्याग नहीं करते हैं । जैसेः- गुरुजनभक्ति भाजन- "गुरुजना: भक्तिभाजनम्" मेरी माता दया की आधार है; "दयाधारो मे जननी" । यह मुख एक दूसरा चन्द्र है- "मुखमिदं द्वितीयश्चन्द्रः" । राजा धृतराष्ट्र मूल है- "मूलं राजा धृतराष्ट्रः" । स्नेहास्पद सीता के दुःख से प्रत्येक दुःखी हुआ- "स्नेहास्पदस्य सीतायाः दुःखेन सर्वे दुःखिताः" ।
लिङ्ग का उदाहरण - सः इमां
स्त्रीं पश्यति ।
वचन का उदाहरण- "महान पुरुषः"; “महान्तौ पुरुषो”; "महान्तः पुरुषाः” ।
विभक्ति का उदाहरण -" "दुरात्मा राबणः”। “दुरात्मना रावणेन"। “दुरात्मनि रावणे" ।
सर्वनामवाची 'इदम् और 'एतद्' के लिए विशेष नियम।
जिसके विषय में एक बार कुछ कहा जा चुका है और अब फिर उसी के विषय में कुछ कहा जाये तो वह अन्वादेश (पुनरुक्ति ) कहलाता है । इस 'अन्वादेश' कहते हैं। में वर्तमान, 'इदम् और 'एतद्' शब्द के स्थान में द्वितीया विभक्ति के सब वचन, तृतीया के एकवचन और पष्ठी तथा सप्तमी के द्विवचन में विकल्प से 'एन' आदेश हो जाता है। जैसेः- "यह बालक बुद्धिमान है, इसे वेद पढ़ाओ; “एषः बालकः बुद्धिमान्, एनं वेदम् अध्यापय” ।
अव्यय पर विचार
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि जिसके स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता, उसे अव्यय कहते हैं। इसे अविकारी कहा जाता है, क्योंकि इसके मूल रूप में लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल इत्यादि के कारण कोई विकार उत्पत्र नहीं होता। च, वा, ह, एव अव्ययों का प्रयोग वाक्य के आरम्भ में नहीं होता है।
जो लोग कहते हैं कि संस्कृत में किसी पद को कहीं भी रखा जा सकता है अथवा रखने से अर्थ परिवर्तन नहीं होता है, उसे अव्यय प्रकरण को भली-भाँति पढ़ना चाहिए। उदाहरण के लिए अथ इस अव्यय को लें। इसे मंगल सूचक, उसके बाद और तब, प्रश्न पूछने, और तथा भी, सम्पूर्ण एवं सब अर्थ में, यदि ऐसा मानने पर, सन्देह, अनिश्चय, अथवा आदि अर्थ में प्रयुक्त होता है। अलग- अलग अर्थ में प्रयोग के लिए इसके स्थान का भी निर्धारण होता है कि यह वाक्य के आरम्भ में लगेगा या मध्य में अथवा किसी अन्य शब्द के साथ जुड़कर। और तथा भी अर्थ में प्रयुक्त अथ शब्द का प्रयोग देखें। संस्कृतमथ हिन्दीं पठामि। यदि इसे अथ संस्कृतं हिन्दीं पठामि बोला या लिखा जाय तो अर्थ परिवर्तित हो जाएगा। हम मिश्रित वाक्य के अध्याय में इस प्रकार के शब्दों पर विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगें।
अव्ययों की पहचान
अकस्मात् - अचानक
|
किञ्च - और
| ||
अग्रतः - आगे / सामने
|
किमिति- किस कारण से
|
इत्थम् - इस प्रकार
| |
अग्रे - पहले
|
किमुत - कहना ही क्या
|
परम् - परन्तु
|
किन्तु - लेकिन
|
अचिरम् - शीघ्र
|
किम् - क्यों / क्या
|
परश्वः - परसों
|
किल - सचमुच
|
अजस्रम् - निरन्तर
|
कु - बुरा
|
परितः – चारों ओर
|
क्वचित् - कहीं
|
अतः - इसलिए
|
कुतः - कहाँ से
|
पुनः - फिर
| अलम् –व्यर्थ, समर्थ
|
अत्र - यहां
|
कुत्र - कहां
|
पुरा - प्राचीन काल में
| इति- यह, क्योंकि
|
अथ – इसके बाद
|
क्व - कहाँ
|
बहुधा - बहुत प्रकार से
|
इत्थम् – इस प्रकार
|
अथवा - या
|
खलु – इस प्रकार, निश्चय से
|
पृथक् - अलग
| एव - ही |
अद्य - आज
|
च - और
|
प्रत्युत - के विपरीत
| एवम् – इस प्रकार |
अधः - नीचे
|
चिरम् - देर तक
|
प्रातः - सबेरे
|
उपरि – ऊपर
|
अधुना – अब
|
चिरात् – बहुत दिनों में
|
प्रायः - हमेशा
|
किल – वास्तव में, सम्भावना
|
अनिशम्- निरन्तर
|
जातु – कभी भी
|
भूयः – बार- बार
|
पुरा - पहले
|
अन्तरा - बीच में
|
झटिति - शीघ्र
|
मा - मत
| |
अन्तरेण - विना
|
तत्र - वहां
|
मुधा - व्यर्थ में
| |
अन्यत्र – दूसरी जगह
|
तथा - तैसे
|
यत्र - जहाँ
| |
अन्यथा- दूसरे प्रकार से
|
तथापि - फिर भी
|
यत्र - जहाँ
| |
अपरेद्युः – दूसरे दिन
|
तदा - तब
|
यथा - जैसे
| |
अपि - भी
|
तर्हि – तब, तो
|
यदा - जब
| |
अवश्यम् - जरूर/अवश्य
|
ततः – तब, इसके बाद
|
युगपत् - एक साथ
| |
आम् - हाँ (स्वीकारोक्ति)
|
तावत् – तब तक
|
वा - या / विकल्प
| |
इव - समान / सदृश
|
तिरः, तिर्यक् - तिरछे
|
विना - बिना /बगैर
| |
इह - यहाँ
|
वृथा - व्यर्थ
| ||
ईषत् - कुछ, थोड़ा
|
तु - लेकिन,तो
|
शनैः - धीरे
| |
उच्चैः - ऊँचा
|
तूष्णीम् - चुप
|
शीघ्रम् - जल्दी
| |
उत - अथवा
|
श्वः - आने वाला कल
| ||
उभयतः – दोनों ओर
|
धिक् - धिक्कार
|
सपदि - शीघ्र
| |
उषा - सुबह/ प्रातः
|
सम्प्रति - अब
| ||
ऋते - विना
|
न - नहीं
|
सह - के साथ
| |
एकत्र – एक जगह
|
नमः - नमस्कार
|
साकम्/सार्धम् - के साथ
| |
एकदा – एक बार
|
निकषा - निकट
|
साक्षात् - सामने
| |
ओम् - स्वीकार करना
|
नीचैः - नीचे
|
सु- अच्छा/अच्छी तरह
| |
कथम् - कैसे
|
नूनम् - अवश्य
|
सुष्ठु - अच्छा / ठीक
| |
कदा - कब
|
नो - नहीं
|
सदा - हमेशा
| |
कदापि - कभी भी
|
नोचेत् - यदि नहीं तो
|
1. दो शब्दों को जोड़कर वाक्य बनाने के लिए "और" "तथा”
इत्यादि संयोजक अव्ययों के स्थान पर 'च' अथवा 'आप' का प्रयोग किया जाता है। जैसे- "रामः श्यामश्च
तत्रागच्छताम्" ।
2. संस्कृत में च, तथा के योग से बनने वाले दोनों शब्दों की एक
ही विभक्ति होती है । इसलिए 'राम और श्याम का' इसकी संस्कृत होगी “रामस्य श्यामस्य च" ।
अनुवाद देखें-
" वह हरि के समान के पण्डित है";
"स हरिरिव पण्डितः”
। “वह राम के सदृश एक बालक को प्यार करता है";
तरह “स राममिव कश्चित् बालकमाद्रियते”
। “मैं प्रतिदिन हरि के समान एक बालक के साथ घूमने जाता
हूँ"; "अहं प्रत्यहं हरिणा इव केनचिद् बालकेन बालकेन सह भ्राम्यामि"। "शिक्षक मेरे समान एक दरिद्रबालक को पुस्तकें देता है”;
“शिक्षकः मह्यमिव एकस्मै
दरिद्राय बालकाय पुस्तकानि ददाति” । "राम पहाड़ के समान ऊँचे पेड़ से गिर पड़ा";
"रामः पर्वतात् इव उन्नतात्
कुतश्चिद् वृक्षात् पतितः” । तुम्हारे जैसे बालक की उन्नति नहीं होगी";
"तव इव बालकस्य उन्नतिर्न भविष्यति
।
अधोलिखित वाक्य का संस्कृत में अनुवाद करें
1. हरि का मन पत्थर जैसा है । 2. अतिथि को भगवान् की तरह समझो । 3.. श्याम की तरह लोगों ने
यह किया । 4. उस जैसे शिष्ट बालक को राम प्रतिदिन चित्र देते हैं । 5. मैं शेर की
तरह भानु से डरता हूं । 6. उसकी तरह मेरी उन्नति हो । 7. मैं पुत्र की तरह स्नेह
करता हूँ ।
4. 'एव' निश्चयार्थक (अवधारणार्थक) अव्यय है । जिस के साथ इसका
सम्बन्ध होता है; यह उसके अर्थ में निश्चय का ज्ञान कराता है । यह 'इव' की तरह उपमावाचक नहीं है । जैसेः–
“राम ही दयालु है"
"राम एव दयालुः" यहां "राम इव दयालुः”
यह नहीं हो सकता।
5. 'एव' और 'अपि' ये दोनों अव्यय विशेष के बाद और विशेष्य के पहले प्रयुक्त
होते हैं। जैसे:- “इसी नगर में राम रहता है" - "अस्मिन्नेव नगरे
रामो वसति” । "आज कल प्रत्येक गांव में समाचारपत्र देखा जा सकता है"
- "साम्प्रतं सर्वस्मिन्नेव ग्रामे संवादपत्रं दृश्यते" । "सोऽपि अमुना सह क्रोडति" ।
“यद्ययं केनाप्युपायेन
म्रियते”
।
6. यदि वाक्य के द्वारा प्रश्न पूछना हो तो वाक्य के आरम्भ में
'अपि' या 'किम्' लगाया जाता है। जैसे:- क्या वह देखा गया है ?"
"अपि दृष्टोऽसौ ?"
“क्या वह अब तक जीवित है ?
" - "अपि स
साम्प्रतमपि जीवति ?" 'क्या हमारे गुरुजन सकुशल हैं ?”
“अपि कुशलिनः मे गुरुजनाः ?' "ये ही क्या महात्मा विश्वामित्र हैं ?" “किमयं महात्मा विश्वामित्र: ?” "क्या तुम्हारी माता ही गृह के सम्पूर्ण कार्यों को देखती है
?”
“अपि ते माता एव गृहस्य
सर्वं कार्यं पश्यति ?" ।
अधोलिखित वाक्य को संस्कृत में अनुवाद करें-
1. वह क्या मुझ से स्नेह करता है ? 2. ये ही क्या भगवती वासंती है ! 2. इसी श्राश्रम में क्या
महर्षि बाल्मीकि रहते हैं ? 3. ये ही क्या गोदावरी नदी है ?
4. इन्हीं का नाम क्या राजा दुष्यन्त है ?
विस्तारपूर्वक लिखा जा रहा है। आप अव्ययों का अभ्यास पर चटका लगाकर वहाँ तक पहुँचें।
अशुद्ध वाक्य |
शुद्ध वाक्य |
अयम् तपस्या
करोति । |
अयं तपस्यां
करोति । |
अयं मम
लेखनी सन्ति । |
इयं मम
लेखनी अस्ति । |
अयं पुस्तक
मम अस्ति । |
इदं पुस्तकं
मम अस्ति । |
अलं
विवादात् । |
अलं विवादेन
। |
असौ कर्णात्
वधिरः वर्तते । |
असौ कर्णेन
वधिरः वर्तते । |
अहं गच्छति
। |
अहं गच्छामि
। |
अहम् अत्र
स्थामि । |
अहम् अत्र
तिष्ठामि । |
आकाशे
चन्द्रम् शोभते । |
आकाशे
चन्द्रः शोभते । |
आगच्छ
भवान्। |
आगच्छतु
भवान् । |
आत्मा अमरा
भवति । |
आत्मा अमरः
भवति । |
सुदर्शनस्य
नाम राजा आसीत् |
सुदर्शनो
नाम राजा आसीत् । |
एष पुस्तकम्
अस्ति । |
एतत्
पुस्तकम् अस्ति । |
ऐक्यः हि
बलः । |
ऐक्यं हि
बलम् । |
इदं वायुः
वहति । |
अयं वायुः
वहति । |
इदं विशाला
नाम नगरम् । |
इयं विशाला
नाम नगरी | |
इदं
समुद्रम् अस्ति । |
अयं समुद्रः
अस्ति । |
इयम्
पुस्तकम् अस्ति । |
इदं
पुस्तकम् अस्ति । |
इयं वस्तु
मम अस्ति । |
इदं वस्तु
मम अस्ति । |
इयं
शकुन्तला सीता च सन्ति । |
इयं
शकुन्तला सीता च स्तः । |
एते तस्य
पुस्तकाः अस्ति । |
एतानि तस्य
पुस्तकानि सन्ति । |
एते
विद्यालय: सन्ति । |
एषः
विद्यालयः अस्ति । |
कण्टकात् एव
कण्टकम् । |
कण्टकेनैव
कण्टकम् । |
कृष्णस्य
सर्वतः गोपाः सन्ति । |
कृष्णं
सर्वतः गोपाः सन्ति । |
के आगच्छति |
के आगच्छन्ति ? |
को अर्थः
कुपुत्रात् । |
कोऽर्थः
कुपुत्रेण ? |
गुरून् नमः
। |
गुरवे नमः ।
|
गुरुः
शिष्ये क्रुध्यति । |
गुरुः
शिष्याय क्रुध्यति । |
ग्रामतः
कियत् छात्राः आयातः । |
ग्रामतः
कियन्तः छात्राः आयान्ति । |
ग्रामस्य
उभयतः नदी वहति । |
ग्रामम्
उभयतः नद्यो वहतः । |
ग्रामस्य
निकषा नदी वहन्ति । |
ग्रामं
निकषा नदी वहति । |
चत्वारः
प्रश्नान् उत्तरं देहि । |
चतुर्णां
प्रश्नानाम् उत्तरं देहि । |
चत्वारः स्त्रियः
आगच्छन्ति |
चतस्रः
स्त्रियः आगच्छन्ति । |
चत्वारि
बालिकाः गच्छन्ति । |
चतस्रः
बालिकाः गच्छन्ति । |
छात्रौ
आगच्छति । |
छात्रौ
आगच्छतः । |
छात्राः
शिक्षकेन संस्कृतं पठन्ति । |
छात्राः
शिक्षकात् संस्कृतं पठन्ति । |
छात्रेभ्यः गुरुः
नमस्करोति । |
छात्राः
गुरुं नमस्कुर्वन्ति । |
ज्ञानस्य
विना जीवनं विफलम् । |
ज्ञानं विना
जीवनं विफलम् । |
ज्ञानस्य
समं न हि कश्चित् ! |
ज्ञानेन समं
न हि किञ्चित् । |
तत् अबला
कुत्र गच्छति । |
सा अबला
कुत्र गच्छति ? |
ततः
तपस्विनाः आयाति । |
ततः तपस्विनः आयान्ति । |
तम् पुस्तकं
देहि । |
तस्मै
पुस्तकं देहि । |
त्वाम्
कुशलं भूयात् । |
तुभ्यं
कुशलं भूयात् । |
तस्य पत्नी
कर्कशः वर्तते । |
तस्य पत्नी
कर्कशा वर्तते । |
तस्य पुत्री
मेघावी असि । |
तस्य पुत्री
मेधाविनी अस्ति । |
तस्य मने
विकारम् नास्ति । |
तस्य मनसि
विकारः नास्ति । |
तस्य हृदौ
पापः अस्ति । |
तस्य हृदि
पापम् अस्ति । |
तिस्रः
पुस्तकानि मया पठितानि । |
त्रीणि
पुस्तकानि मया पठितानि । |
तिस्रः
बालकाः धावन्ते । |
त्रयः
बालकाः धावन्ति । |
ते कथं न
शृणोति । |
ते कथं न
शृण्वन्ति । |
ते
पाण्डिताः सन्ति । |
ते भोजनं
कुर्वन्ति । |
ते भोजनः
करन्ति । |
ते पण्डिताः
सन्ति । |
तौ गृहं
गच्छन्ति । |
तौ गृहं
गच्छतः । |
त्वं कथं
हसति । |
त्वं कथं
हससि ? |
त्वं किम्
पठति । |
त्वं किं
पठसि ? |
त्वं तं वस्त्राणि
ददातु । |
त्वं तस्मै
वस्त्राणि देहि । |
त्रयः फलानि
पतन्ति । |
त्रीणि
फलानि पतन्ति । |
दीनस्य
प्रति दयां कुरु । |
दीनान्
प्रति दयां कुरु । |
धिक्
कामुकाय । |
धिक्
कामुकम् । |
धिक् तस्मै
पापिने । |
धिक् तं
पापिनम् । |
नमः देवी सरस्वती
। |
नमः देव्यै
सरस्वत्यै । |
नमो भगवन्तं
वासुदेवम् । |
नमो भगवते
वासुदेवाय । |
नारायणः
सर्पेण बिभेति । |
नारायणः
सर्पात् बिभेति । |
नास्ति मे
मरणस्य भयः । |
नास्ति मे
मरणात् भयम् । |
नेतारः पदं
स्पृहयन्ति । |
नेतारः पदाय
स्पृहयन्ति । |
पतिना सह
सीता वनं गतवान् । |
पत्या सह
सीता वनं गतवती । |
पुत्रस्य सह
पिता गच्छति । |
पुत्रेण सह
पिता गच्छति । |
पुत्रस्य
समम् आगतः माता । |
पुत्रेण
समम् आगता माता । |
पुस्तकेभ्यः
छात्रः ज्ञायते । |
पुस्तकैः छात्रः ज्ञायते । |
प्राते
भ्रमणं कुरु । |
प्रातः
भ्रमणं कुरु । |
ब्राह्मणं
धनं दद्यात् । |
ब्राह्मणेभ्यः
धनं दद्यात् । |
इन वाक्यों को सही करें-
1. अहं रामस्य इव विद्वान् । 2. शिक्षकः त्वां पुत्रस्य इव पश्यति । 3. तव इव
बालकाय पुस्तकं पारितोषिकं यच्छामि । 4. हरिः श्यामं व्याघ्रस्य इव भीतः । 5.
बालक: मम इव जनेन सह याति । 6. रामस्य इव मे किमपि दुःखं नास्ति ।
युष्मद् , अस्मद् तथा सर्वनाम शब्दों का विशेष प्रयोग
आपने पूर्व के पाठ में संस्कृत मूल शब्दों जैसेः- मैं,
हम 'अस्मत्' । तू, तुम - 'युष्मद्' । वह- 'तद्' । जो -'यद्' । यह, ये-'इदम्' 'एतद्' । वह -'अदस् कौन, क्या- 'किम्' । सब - 'सर्व'
। आप - 'भवत्' । दो-- 'द्वि' । एक - 'एक' से परिचय पा लिया है। इन शब्दों के विविध प्रयोग से यहाँ
परिचय कराया जा रहा है।
आपने यह भी जाना कि जिस विशेष्य पद के स्थान में सर्वनाम प्रयुक्त होता है वह
उसी के लिङ्ग और वचन में प्रयुक्त होता है। यदि सर्वनाम किसी का विशेषण हो तो
विशेष्य के लिङ्ग, विभक्ति और वचन सर्वनाम के भी होते हैं ।
जैसे:- – राम के विरह से कौशल्या बड़ी दुःखी हुई ; “राज्ञी कौशल्या राम-विरहाद्दुःखमनुभवति स्म” ।
वह स्वप्न में भी राम को - देखती थी; “सा स्वप्नेऽपि राममेव दृष्टवती' ।
यहाँ "वह" कौशल्या के लिए प्रयुक्त हुआ,
अतः वह स्त्रीलिङ्ग है, उस सीता का दुःख, सीतायाः दुःखम्" । इसमें “तस्याः” पद “सीतायाः" इस पद विशेषण है। इसलिए वह स्त्रीलिङ्ग और
षष्ठी का एकवचन है।
नियम -1 सम्बन्धवाचक
तद्, यद्, युष्मद्, अस्मद् अन्य प्रभृति त्यदादि सर्वनाम पदों के आगे ईय (छ) प्रत्यय लगाकर संस्कृत में उन्हें विशेषण की तरह प्रयुक्त किया जाता है। जैसे: - उसका बेटा; “तस्य पुत्रः” इसके स्थान में “तदीयः पुत्रः' । इसी तरह आपकी बुद्धि कभी नहीं चकराती; "भवतः ( भवदीया) बुद्धिः प्रतिहता न भवति” । "अस्माकं (अस्मदीया) बुद्धिः न प्रसरति” । "मम ( मदीया) प्रकृतिः” "तव (त्वदीयानि) पुस्तकानि सुन्दराणि” । "मदीयौ मातापितरौ” । “अस्मदीयः शिक्षकः" । “सा हि युष्मदीया भगिनी" । “भगवान् खलु अस्मदीयः पिता” । "अन्यदीयं वस्त्रं न परिधेयम्" । युष्मद् और अस्मद् शब्दों से अण तथा ईन ( ख ) प्रत्यय लगाकर तावक, मामक, यौष्माक, आस्माक एवं यौष्माकीण, आस्माकीन आदि शब्द बनते हैं। ये ही सम्बन्धवाचक सार्वनामिक विशेषण कहलाते हैं ।
नियम -2
यद्,
अदस्, इदम्, एतद्, युष्मद्, अस्मद् प्रभृति सर्वनाम के आगे तुल्य, समान आदि सादृश्यवाचक शब्द रहने पर दृश (दृश्+टक्) तथा दृक् (दृश्+क्किप्) शब्दों का योग करके उनके
लिङ्ग,
विभक्ति तथा वचन उपमेय के अनुसार करने चाहिए ।
जैसे:- “आपके समान बालक- "भवादृशः बालकः” । यहाँ भवत् से दृश् लगाकर भवादृश् बनाया गया है। "वह तुम्हारे समान बुद्धिमान् है ; “स (युष्मादृक्) युष्मादृश बुद्धिमान्' । “यह तुम्हारे जितना बलवान् है"; "स (त्वादृक् ) त्वादृशः धनवान्” । "मेरे जैसा आलसी" ; - मादृशः अलसः । “हमारे जैसा और बालक आया है"; "अस्मादृशः (अस्मादृक्) कश्चित् बालकः समायातः” । “मैं उस जैसी (वैसी ) एक पुस्तक लाया हूँ- "अहं तादृशं किमपि पुस्तकं आनीतवानस्मि” । “आप जैसा रमणी को यह शोभा देता है- "भवादृश्याः रमण्याः एतत् शोभते” । वह हमारे जैसा है";- "स हि अस्मादृशः । “वह मेरे जैसा है"; "स खलु मादृशः” । “राम तुम्हारे जैसा है'; -“रामः युष्मादृशः। "बालक तुम्हारे जैसा है- "बालकः युष्मादृशः” ।
इन,
तुम और आप इत्यादि शब्दों के स्थान में अधिक सम्मान दिखाने
के लिए,
समीपस्थ के लिए “अत्रभवत्" और दूरस्थित व्यक्ति के लिए 'तत्रभवत् शब्द का व्यवहार किया जाता है। जैसे:- "भवानेव जनाति देवीं विनोदयितुम् '
के स्थान पर "अत्रभवानेव जानाति देवीं विनोदयितुम् इस
प्रकार कहना अधिक सम्मान दिखाने के लिए है । सा किल दुःखिता सती एवमुवाच"
इसके स्थान पर "तत्रभवती दुःखिता एवमुवाच इत्यादि । तत्र भवान् पाणिनिः
प्रोवाच।
पाठ- 25
निषेधवाचक वाक्य बनाने के लिए न अव्यय का प्रयोग
प्रश्नवाचक सर्वनाम, विभक्ति प्रयोग तथा अव्यय
किम् ( कौन, क्या आदि who, which, what ) इसके पुंल्लिङ्ग में कः, कौ, के आदि, स्त्रीलिङ्ग में का, के, का: आदि एवं नपुंसक में किम्, के, कानि आदि प्रश्नवाचक सर्वनाम होते हैं। इसके रूप 'तत्' के समान ही होते हैं ।
सः वामहस्तेन लिखति । त्वं केन हस्तेन लिखसि ? अहं दक्षिणहस्तेन लिखामि । अहं केनापि पादेन न चलामि। त्वं
कथं पठसि ? अहं पुस्तकेन चलामि । त्वं कथम् आकर्णयसि ? अहं कर्णाभ्याम् आकर्णयामि । त्वं केन सह खेलसि ?
अहं कृष्णेन सह खेलामि ।
समय तथा स्थान सूचित करने में सर्वनाम शब्दों के साथ प्रत्ययों का प्रयोग
समय को सूचित करने के लिए सर्वनाम के सप्तमी विभक्ति के
स्थान पर दा तथा र्हि का प्रयोग किया जाता है। स्थान अर्थ में सप्तमी के स्थान पर त्र
और पंचमी के स्थान पर तस् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। समय सूचित करने का
उदाहरण- हर समय खेलना शोभा नहीं देता- “सर्वस्मिन् काले क्रीडा न शोभते'
इस उदाहरण में 'सर्वस्मिन् काले" के स्थान पर “सर्वदा का प्रयोग किया जा सकता है। इसी तरह "एक समय'
– “एकदा";
"उस समय" तदा" ।
स्थानार्थ का उदाहरण - 'त्र' जैसे:- "सब जगह श्री कृष्ण है"; "सर्वस्मिन् स्थाने श्रीकृष्णस्तिष्ठति" यहाँ
"सर्वत्र श्रीकृष्णस्तिष्ठति" का प्रयोग किया जा सकता है। सर्व + स्मिन्
के स्थान पर सर्व + त्र। इसी तरह
"यस्मिन् स्थाने" – “यत्र ", "उस स्थान में “तत्र", "इस स्थान में" “अत्र”, “किस स्थान में” “कुत्र" इत्यादि ।
प्रकार सूचित करने के लिए सर्वनाम शब्दों से “थाच्' का प्रयोग किया जाता है और यह अव्यय होता है-
"जिस प्रकार का बीज उस प्रकार फल";
"यथा बीजं तथा फलम्"।
यद् + था = यथा, तद् + था = तथा। जिस प्रकार जिस
प्रकार की (जैसी) बात, उस प्रकार का ( वैसा) कार्य"-
" यथा वाचस्तथा
क्रियाः" । हेत्वर्थ में जैसे:- "राम क्यों जाय": "कुतः रामः गच्छेत्” । इसी तरह यतः ततः आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है।
संस्कृत शिक्षण पाठशाला के तद्धित प्रत्यय में इस प्रकार के अनेक प्रत्यय दिये
गये हैं। यहाँ उनमें से कतिपय प्रयोग लिखे गये हैं। आप अधिक जानकारी आगे के पाठ
में पा सकते हैं।
सर्वनाम शब्दों का समास में शब्दरूप में परिवर्तन हो जाता है
तृतीया आदि तत्पुरुष तथा द्वन्द्व समास में सर्वनाम शब्द गौण रूप से प्रयुक्त
होते हैं। अर्थात् समास हो जाने के बाद इनके रूप सर्वनाम शब्दों के समान नहीं होते हैं । बहुव्रीहि
समास का उदाहरण - प्रियः सर्वो यस्य तस्मै प्रियसर्वाय । यहाँ
प्रिय शब्द मुख्य होकर सर्वाय हो गया। अतः प्रियसर्वस्मै
नहीं हुआ । तृतीया-तत्पुरुष समास का उदाहरण -
मासेन पूर्वाय
मासपूर्वाय (मासपूर्वस्मै नहीं हुआ ) । किन्तु द्वन्द्व समास के प्रथमा बहुवचन में विकल्प से सर्व
शब्द की तरह रूप होते हैं । यथाः— वर्णाश्रमेतराः, वर्णाश्रमेतरे इत्यादि ।
चित् तथा चन प्रत्ययों का पुनः अभ्यास-
पाठ- 26
सन्धि
अयादि सन्धि
एचोऽयवायावःएच् के आगे यदि कोई स्वर वर्ण होता है तो ए ओ ऐ औ को क्रमशः अय् अव् आय् आव् आदेश होता है। जैसे-
सन्धि विच्छेद प्रक्रिया
ने + अयनम् न् ए अयनम् , न् अय् अयनम् = नयनम् को अय्
भो + अवनम् ओ को अव् = भवनम्
नै + अकः ऐ को आय् = नायकः
पौ + अकः औ को आव् = पावकः
गुण सन्धि
आद् गुणः3. अ या आ के बाद ऋ या ऋृ वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर अर्
4. अ या आ के बाद ऌ वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर अल् हो जाता है। जैसे-
अ + इ = ए का उदाहरण, मम + इव = ममेव ।
आ + इ = ए का उदाहरण, गंगा + इव = गंगेव ।
अ + ई = ए का उदाहरण, देव + ईश = देवेश ।
आ + ई = ए का उदाहरण, रमा + ईश रमेश ।
अ + ऋ = अर् का उदाहरण, राज + ऋषि = राजर्षि ।
अ + ऌ = अल् का उदाहरण, मम + ऌकार = ममल्कार ।
नोट- संस्कृत में अ इ उ ऋ वर्णों का ह्रस्व दीर्ध और प्लुत ये तीन भेद होते हैं। अतः व्याकरण में अ का अर्थ आ भी होता है। इसी प्रकार इ उ ऋ को भी समझना चाहिए।
दीर्घ सन्धि
वृद्धि सन्धि
वृद्धिरेचि
अवर्ण (अ या आ) के बाद ए या ऐ वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर वृद्धि (ऐ,औ ) हो जाता है।
उदाहरण-
अ + ए = ऐ का उदाहरण - मम + एव = ममैव ।
आ + ए = ऐ का उदाहरण - प्रिया + एव = प्रियैव ।
अ + ओ = औ का उदाहरण - तव + ओघः = तवौघः।
अ + ऐ = ऐ का उदाहरण - राम + ऐश्वर्य = रामैश्वर्य ।
आ + औ = औ का उदाहरण - महा + औत्सुक्यम्= महौत्सुक्यम्
नोट- आपने देखा कि अ या आ के साथ ए या ऐ मिलने पर ऐ ही होता है । इसी प्रकार अ या आ के साथ ओ या औ मिलने पर औ ही होता है। कारण यह है कि जब दो स्वर आपस में मिलते हैं, उसका बढ़ना (बृद्धि होना) स्वाभाविक है। ह्रस्व वर्ण या दीर्घ वर्ण के साथ दीर्घ वर्ण को मिलाने र भी वह दीर्ध ही हो सकता है। ऐ औ पहले से ही दीर्घ है।
पूर्वरूप सन्धि
ए + अ = ए का उदाहरण - हरे + अव = हरेऽव ।
ओ + अ = ओ का उदाहरण - साधो + अत्र = साधोऽत्र ।
नोट- ऽ चिह्न केवल यह प्रदर्शित करने के लिए लगाया जाता है कि यहाँ पहले अ था।
पररूप सन्धि
अकारान्त उपसर्ग के बाद ए या ओ से प्रारंभ होने वाली धातु हो तो पहले और बाद वाला वर्ण मिलकर पररूप (बाद वाले वर्ण के समान) हो जाता है। जैसे-
अ + ए = ए का उदाहरण - प्र + एजते = प्रेजते ।
अ + ओ = ओ का उदाहरण - उप + ओषति = उपोषति ।
प्रकृतिभाव सन्धि
पाठ- 27
श्चुत्व सन्धि
ष्टुत्व सन्धि
ष्टुना ष्टुःरामस्+ षष्ठः में सकार तथा षकार का योग होने पर स् को ष् आदेश हुआ। रामष्षष्ठः रूप बना।
जश्त्व सन्धि
झलां जशोऽन्तेवाक् + ईशः में क् का जश् ग् हुआ । वाग् + ईशः = वागीशः रूप बना।
तत् + रूपम् में तकार को दकार होकर तद्रूपम् बनेगा।
चर्त्व सन्धि
अनुस्वार सन्धि
यषान् + सि = यषांसि
परसवर्ण सन्धि
लत्व सन्धि
दिक् + नागः= दिङ्नागः, प्राक्+मुखः = प्राङ्मुखः, अच्+ नेदम् = अजनेदम्, उत्+नयनम् = उन्नयनम्, जगत् + नाथ:= जगन्नाथः मधुलिट् +नास्ति = मधुलिण् नास्ति, अप्+मयम् = अम्मयम् आदि । विकल्प में दिग्नागः, उद्नयनम् इत्यादि।
श्लाघनीयं कार्यमिदं संस्कृतभाषाभिवर्धनार्थं निश्चप्रचं सिद्धिप्रदायकं भविष्यतीति।
जवाब देंहटाएंआप के प्रयास सराहनीय है महोदय बहुत सुन्दर कार्य का आरंभ किया है आपने आपका चिंतन संस्कृत के लिए अद्भुत है जो आपको सभी से विशेष दर्शाता है। संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए यह कदम अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा.
जवाब देंहटाएंजयतु संस्कृतं जयतु भारतं
संस्कृत कठीण भाषा है,और सिर्फ पंडित बाणानेके लिए है,ऐसा बचपन से हि मन में डर पैदा कर देते है।
हटाएंआपका प्रयास सराहनीय है।
विगत 100 - 200 वर्षों में देश और विदेश के विद्वानों ने ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध किया है कि संस्कृत केवल भारत या इसके किसी एक भूभाग की भाषा नहीं रहा है। इसका पुष्ट प्रमाण हमें साहित्यिक तथा दार्शनिक स्रोतो से भी मिलता है। इस भाषा में भारत में और भारत के बाहर रहने वाले तमाम जातियों, सम्प्रदायों के लोगों ने अपना योगदान दिया है। इस भाषा में पाकिस्तान, ईरान, ईराक, अरब, मिस्र, श्रीलंका, दावा, सुमात्रा बाली, चीन के कुछ भूभाग की सभ्यता, ज्ञान विज्ञान, इतिहास को अपने शब्दों में व्यक्त किया। ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ खेटकौतुकम् को कौन नहीं जानता। दुर्भाग्य है कि आज की जनता ब्राह्मणों द्वारा कराये जाने वाले कर्मकाण्ड मात्र से से परिचित है। इसमें गणित, रसायन, भूगर्भ, आदि वे तमाम विषय उपलब्ध है, जिसे हम अध्ययन करते हैं। मैं पूछता हूँ क्या यह देश विना किसी कानून के, व्यापारिक नियमों के, चिकित्सा के हजारों वर्षों तक रहा? यहाँ भी किसी राजा का राज्य था। वहाँ विधि व्यवस्था थी। व्यापार होते थे। राजा कर लेता था। चिकित्सा व्यवस्था थी। यातायात के साधन थे। विशाल भवन बनते थे। उसकी तकनीक थी। वह सब कुछ था, जो आज हम देख रहे हैं। जीवन को सरल और सुखमय बनाने के लिए हजारों वर्ष पूर्व भी लोग अनुसंधान में लगे थे। 300 वर्षों में एकाएक बमने शून्य से शिखर तक की यात्रा नहीं कर ली। आधारभूत ज्ञान वही थे। इसी संस्कृत भाषा में लिखे गये थे। आज हमने उसी में और थोड़ा सा परिष्कार कर लिया है। चाहे वह कृषि, वानिकी, अंतरिक्ष, औषध या अन्य कोई क्षेत्र हौ। हजारों वर्षों तक इस ज्ञान विज्ञान को तिरस्थायी बनाने में संस्कृत भाषा का योगदान अतुलनीय है। यदि कोई संस्कृत को किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा कहता है तो प्रथम दृष्ट्या वह अज्ञानी है। वह भारतीय मनीषियों को अपमानित करने का काम तो कर ही रहा है साथ ही अल मामून से लेकर अलबैरूनी तक को अपमानित करता है।
हटाएंपदों में वचन तथा विभक्ति बताना
जवाब देंहटाएंअपना प्रश्न स्पष्ट करें। आप कोई पद लिख दें। मैं उसका वचन और विभक्ति बता दूँगा। आप कोई भी शब्दरूप देखें, शब्दरूप के ऊपर एकवचन, द्विवचन और बहुवचन लिखा रहता है। शब्दरूप के वायीं ओर उसकी विभक्ति लिखी रहती है। जैसे-
हटाएंएकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथमा बालकः बालकौ बालकाः
द्वितीया बालकम् बालकौ बालकान्
तृतीया बालकेन बालकाभ्याम् बालकैः
चतुर्थी बालकाय बालकाभ्याम् बालकेभ्यः
पञ्चमी बालकात् बालकाभ्याम् बालकेभ्यः
षष्ठी बालकस्य बालकयोः बालकानाम्
सप्तमी बालके बालकयोः बालकेषु
संबोधन हे बालक हे बालकौ हे बालकाः
Kridakam shabd ka teeno vachan kya hoga
जवाब देंहटाएंपहले आप देखेॆ कि कृत् प्रत्यय से बना शब्द स्वरान्त है या हलन्त। कृदन्त से बने शब्द प्रायः तीनों लिंगों (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग) में होते हैं। जैसे कृ धातु से ण्वुल् प्रत्यय करने पर कारक बनता है। इसके अनन्तर आप प्रसंगानुकूल कारकः, कारिका या कारकम् इन तीनों लिंगों में से किसी एक लिंग में इसका प्रयोग करते हैं। एक और उदाहरण देखें- प्रियंवद और प्रियंवदा शब्द कृदन्तीय खच् प्रत्यय से बना है। अब आप जान चुके होंगें कि जबतक हमें उसकी लिंग और अंतिम अक्षर के बाद में जानकारी नहीं होती है तब तक हम किसी भी शब्द का रूप नहीं चला सकते। आप अपने प्रश्न को स्पष्ट करें तथा सम्पूर्ण लेख को सावधानी से पुनः पढ़ें । इसमें स्थान- स्थान पर सम्बन्धित प्रकरण पर लिंक लगा है। जैसे लिंगानुशासन का लिंक लगा हुआ है। उस लिंक तक जायें।
हटाएंअपने आप में संस्कृत में कौन सा पुरुष होगा
जवाब देंहटाएंअपने आप के लिए अहम् शब्द का प्रयोग होता है, अपने आप के लिए उत्तम पुरुष का प्रयोग होगा। अपने आप शब्द का संस्कृत में अनुवाद स्वयं होता है। यह किसी भी पुरुष के साथ प्रयोग किया जाता है। जैसे सीता स्वयं वदति। त्वं स्वयं पठसि। अहं स्वयं पठामि।
हटाएंअपने आप के लिए संस्कृत में अस्मद् शब्द का प्रयोग होता है। इसमें उत्तम पुरुष होगा। इसका रूप इस प्रकार चलता है-
जवाब देंहटाएंएकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथमा अहम् आवाम् वयम्
द्वितीया माम् / मा आवाम् / नौ अस्मान् / नः
तृतीया मया आवाभ्याम् अस्माभिः
चतुर्थी मह्यम् / मे आवाभ्याम् / नौ अस्मभ्यम् / नः
पञ्चमी मत् / मद् आवाभ्याम् अस्मत् / अस्मद्
षष्ठी मम / मे आवयोः / नौ अस्माकम् / नः
सप्तमी मयि आवयोः अस्मासु
शोभनम् संस्कृतं शिक्षितुं सम्यक् प्रयासः।
जवाब देंहटाएंSir kya app kahi padhate v hai ?
जवाब देंहटाएंमैं किसी विद्यालय में नहीं पढ़ाता हूँ। अधिकांश समय ऑनलाइन संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने में लगाता हूँ, क्योंकि इसकी पहुँच किसी स्कूल से कहीं अधिक है।
हटाएंबहुशोभनोऽयं प्रयासो भवता विहित:।
हटाएंVery nice sir
जवाब देंहटाएंVachan tatha purush mein antar spasht kijiye
जवाब देंहटाएंजगदानंद जी, नमश्कार। बहुत अच्छा है। आपका ईमेल एड्रेस बतादिगिएगा। कियोटो जापानी से। धन्यवाद्।
जवाब देंहटाएंमेरा ईमेल- jagd.jha@gmail.com
हटाएंआप इस मेल पर मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। आपसे फोन पर बात कर खुशी हुई। आप संस्कृत भाषा तथा माध्यमिक (शून्यवाद) दर्शन के प्रतिष्ठापक, महायान बौद्ध दर्शन के प्रमुख आचार्य नागार्जुन विरचित माध्यमिका कारिका के अध्ययन के लिए संस्कृत सीखना चाहते हैं। इनकी अन्य कृतियों में विग्रहव्यावर्तिनी प्रमुख है।
न सन् नासन् न सदसत् न चाप्यनुभयात्मकम्।
चतुष्कोटिर्विनिर्मुक्त तेत्वं माध्यमिका विदु:॥
नमस्कार
नमन। 🙏
जवाब देंहटाएंअवसर शब्द का अर्थ पुस्तकों में यह भी मिलता है और वह भी। सही अर्थ क्या है?
जवाब देंहटाएंइसे ऐसे भी पूछ सकते हैं कि अदस् शब्दरूप एतत् शब्द का पर्याय है या तंत्र शब्द का?
उत्तर की प्रतीक्षा में ...
मैं अपने इस लेख में सर्वनाम शब्दों पर विस्तार पूर्वक नहीं लिख पाया अतः आपको लेख से समाधान नहीं मिला होगा। आपके प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-
जवाब देंहटाएंआपका प्रश्न है- अवसर शब्द का अर्थ--- । मैं इसे अदस् शब्द का अर्थ मानकर उत्तर दे रहा हूँ । अदस् शब्द का हिन्दी में अर्थ होता है - वह । यह त्यद् तथा तद् शब्द का पर्याय है। इस पर्याय को आगो मैं श्लोक से स्पष्ट कर रहा हूँ। एतद् शब्द का अर्थ होता है- वह । यह त्यदादि गण का है। अन्य सर्वनाम संज्ञक शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं- त्यद् (वह), तद् (वह), यद्(जो), एतद् (वह), इदम् (यह), अदस् (वह), युष्मद् (तुम), अस्मद् (मैं), भवत् (आप)
इनमें से इदम्, एतद्, अदस् तथा तद् शब्द के अर्थ को स्पष्ट रूप से समझने के लिए इस श्लोक को याद कर लें-
इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।
अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥
इदम् = (यह), निकटवर्ती व्यक्ति या पदार्थ के लिए
एतद् = (वह), अत्यन्त पास वाली पदार्थ के लिए
अदस् = (वह), दूर में स्थित पदार्थ के लिए
तद् = (वह), परोक्ष पदार्थ के लिए
कृपया एक लेख सर्वनाम पर भी प्रकाशित करें।
हटाएंसर्वनाम पर अब काफी मात्रा में सामग्री उपलब्ध करा दी गई है। यह सामग्री एक साथ नहीं दी जा सकती। इससे सीखने में असुविधा होती है। सरल से कठिन की ओर ले जाने के लिए आरम्भ में सर्वनाम से परिचय कराया गया। इसके बाद युष्मद्, अस्मद् तथा भवत् शब्द से वाक्य बनाने की सामग्री दी गयी। संख्यावाची एक तथा द्वि शब्द के बाद एतद्, तद् आदि सर्वनाम दिये गये। प्रश्नवाची सर्वनाम किम्, यत् के नियम व प्रयोग क्रमशः आगे दिया गया। युष्मद् अस्मद् के विभक्ति में होने वाले ते, मे आदि नियम को भी यथा स्थान समाहित किया गया है। कुल मिलाकर सर्वनामवाची शब्दों के बारे में थोड़ा-थोड़ा कर कई स्थानों पर लिखा गया है।
हटाएंPriya Shri jha ,I have a small query.Please reply ,I shall be grateful to you.Please tell me why in the Sanskrit dictionaries the sequence of letters (vowels and consonants) is not according toMaheshwar sutras which is the most logical order ?
जवाब देंहटाएंशब्दकोश में वर्णों के क्रम का आधार वर्णमातृका है जबकि माहेश्वर सूत्र के वर्णसमाम्नाय का प्रयोजन भिन्न होने से वर्णसमाम्नाय तथा वर्णमातृका के क्रम तथा संख्या में भौतिक अंतर है। प्रत्याहार के प्रयोजन से उपदिष्ट वर्णसमाम्नाय से वर्णमातृका अधिक प्राचीन है। ऋक् प्रातिशाख्य, वाजसनेय प्रातिशाख्य में वर्णमातृका के उपदेश प्राप्त होते हैं। प्रातिशाख्यों में पदों के अनुवृत्ति का क्रम तो मिलता है,परन्तु यहाँ प्रत्याहार का अभाव है। पाणिनि के वर्णसमाम्नाय, जिसे माहेश्वर सूत्र कहा जाता है,इसके प्रयोजन पर महाभाष्य में चर्चा की गयी है। उक्त से स्पष्ट है कि वर्णमातृका ही अक्षर क्रम के लिए सर्वथा उपयुक्त है, न कि प्रत्याहार की सिद्धि के लिए उपदिष्ट माहेश्वर सूत्र।
हटाएंवर्णों की संख्या का विस्तृत विवेचन टिप्पणी अनुच्छेद में किया जाना सम्भव नहीं है फिर भी स्रोत पर जाकर आधिक खोजा जा सकता है-
वर्णमातृका
वर्णमातृका वर्णसमाम्नाय से प्राचीन है, यह बात पतञ्जलि के महाभाष्य में किमर्थो वर्णानामुपदेशः? इस प्रश्न के द्वारा प्रत्याहार-प्रयोजन में पहले सिद्ध हो चुकी है। आप सोच रहे होंगे कि वर्णमातृका और वर्णसमाम्नाय में क्या अन्तर है? सामान्यतः वर्णमातृका में वर्ण दो प्रकार के होते हैं- स्वर और व्यञ्जन, जिन्हें वर्णसमाम्नाय में अच् और हल् - इन दो प्रत्याहारों से समझा जाता है। वर्णमातृका में इक्यावन वर्ण हैं, जिनमें अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ए ऐ ओ औ अं अः - ये सोलह स्वर और पैंतीस व्यजन हैं। व्यजनों में सात वर्ग हैं, जिनमें कवर्ग से लेकर पवर्ग तक पाँच-पाँच वर्गों के पाँच वर्ग स्पर्श-संज्ञक हैं।
वृत्तिसमवायार्थ उपदेश:
वृत्तिसमवायार्थों वर्णानामुपदेशः । किमिदं वृत्तिसमवायार्थ इति।
वृत्तये समवायो वृत्तिसमवायः । वृत्त्यर्थो वा समवायो वृत्तिसमवायः ।
वृत्तिप्रयोजनो वा समवायो वृत्तिसमबायः | का पुनर्वृत्तिः। शास्त्रप्रवृत्तिः ।
अथ कः समवायः। वर्णानामानुपूर्व्येण संनिवेशः। अथ क उपदेशः ।
उच्चारणम्। कुत एतत्। दिशिरुच्चारणक्रियः | उच्चार्य हि वर्णानाह-उपदिष्टा इमे वर्णा इति |
अनुबन्धकरणार्थश्च
अनुबन्धकरणार्थश्च वर्णानामुपदेशः अनुवन्धानासङ्ख्यामीति । न ह्यनुपदिश्य वर्णाननुबन्धाः शक्या आसक्तुम् । स एष वर्णानामामुपदेशो वृत्तिसमवायार्थश्चानुबन्धकरणार्थश्च । वृत्तिसमवायश्चानुवन्धकरणं प्रत्याहारार्थम् । प्रत्याहारो वृत्त्यर्थः।।
इष्टबुद्धयर्थश्च
इष्टबुद्धयर्थश्च वर्णानामुपदेशः-इष्टान्वर्णान्भोत्स्यामहे' इति । न ह्यनुपदिश्य वर्णानिष्टा वर्णाः शक्या विज्ञातुम् । इष्टबुद्धयर्थश्चेति चेदुदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्घप्लुतानामप्युपदेशः
इष्टबुद्धयर्थश्चेति चेदुदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्घप्लुतानामुप्यपदेशः कर्तव्यः । एवं गुणा अपि हि वर्णा इष्यन्ते ।
(वा०) वृत्ति समवाय के लिये वर्णों का उपदेश है।
बृत्ति समवाय क्या चीज है ?
बृत्ति के लिये समवाय वृत्तिसमवाय है, वृत्ति का उपकारक समयाय वृत्ति समवाय है अथवा वृत्ति का प्रयोजक समवाय वृत्तिसमवाय है।
वृत्ति क्या चीज हैं ? शास्त्र की प्रवृत्ति ।
समवाय क्या पदार्थ है ?
वर्णों का क्रम से रखना ।
उपदेश क्याक है ?
उच्चारण ।
यह कैसे ?
दिश् धातु उच्चारणार्थक है । उच्चारण करके ही तो कहता है इन वर्णों का उपदेश हो गया ।
आपने लिखा है कि सर्वनाम की संख्या ३५ है परंतु इसकी सूची लिखते समय शक्यता तद् सर्वनाम लिखना रह गया है। देखकर जो सही लगे वह सुधार करने की कृपा करें।
जवाब देंहटाएंआभार। सुधार कर दिया गया है। इसकी संख्या को अलग- अलग प्रदर्शित करके लिख दिया गया।
हटाएंSir ji starting se sanskrit sheekhne kliye kya karen
जवाब देंहटाएंमैं नियमित रूप से गीता पढ़ता हूं. और गीता के 6 अध्यायों को कंठस्त कर लिया है. वर्तमान में मैं 7 वें अध्याय को याद कर रहा हूं. गीता के श्लोकों को स्वयं के उद्योग से व्याख्या कर के समझने की परम हार्दिक लालसा है. तत्पश्चात ईश्वर की कृपा हुई तो सभी भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ने की कोशिश होगी. मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तक आप संस्कृत नहीं सीखते, आप अपने अतीत को समझ नहीं सकते. इन दिनों लोग व्हाट्सएप मैसेज के जरिए बेतुके दावे करते हैं और जो इन संदेशों को पढ़ते हैं न केवल इन संदेशों पर विश्वास करते है, बल्कि उनकी प्रामाणिकता की पुष्टि किए बिना उन्हें फैलाते भी है जिसके कारण हमारा सनातन धर्म समाज कट्टरता,उजड्डता,मूढ़ता,अवैज्ञानिक स्वभाव का शिकार हो रहा है. मैं उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता. इसलिए मैं अपने अतीत को अपने प्रयासों से समझना चाहता हूं और हमारे समाज में व्याप्त मूढ़ता का मुकाबला करना चाहता हूं. अतः आशा है आप संस्कृत सीखने मे मेरा मार्गदर्शन करेंगे. सधन्यवाद kamleshagrawal73@yahoo.com
जवाब देंहटाएंश्रीमद्भगवद्गीता हो या वाल्मीकि रामायण, पुराण हो या संस्कृत साहित्य का कोई भी ग्रंथ, इनके अर्थों को समझने के लिए व्याकरण के नियम और शब्दकोश की आवश्यकता होती है। संस्कृत शिक्षण पाठशाला में उन सारे तत्वों को समाहित किया गया है, जिससे आप संस्कृत में लिखे धार्मिक साहित्य ग्रंथों को समझ सकते हैं। इसका एक लाभ और होगा। वह यह कि दर्शन, कृषि, चिकित्सा, राजनीति, ललित कला, इतिहास आदि विषयों पर लिखित संस्कृत साहित्य को भी आप समझ सकते हैं।
हटाएंVery Nice Sir
जवाब देंहटाएंअगर इसका पीडीएफ है तो कृप्या लिंक भेजने का कष्ट करें 🙏
जवाब देंहटाएंइस पाठ का PDF अभी नहीं बना है। मेरे जीवित रहने तक या ब्लॉग रहने तक इसका PDF नहीं बना सकता। एक बार PDF बन जाने के बाद उसमें विस्तार या संशोधन का अवसर समाप्त हो जाता है। PDF बनाना ही होता तो ब्लॉग पर न लिखकर पुस्तक लिखा होता। इस पाठ को पढ़ने वाले यहाँ प्रश्न पूछ सकते हैं। उसका समाधान पा सकते हैं। पाठ में भी समाधान लिखा दिया जाता है, जबकि PDF में वह सुविधा समाप्त हो जाती है। कुल मिलाकर किसी अध्यापक से सीधे सम्वाद स्थापित करने पढ़ने तथा अध्यापक के मृत्यु होने के कारण उसके लिखे को पढ़ने में जो अन्तर है, वही अन्तर यहाँ आकर पढ़ने तथा PDF को पढ़ने में है।
हटाएंकितना महत्वपूर्ण है आपका यह उद्यम ! संस्कृत जितना संरचित भाषा है ! प्रणाम ! प्रणाम ! प्रणाम !
हटाएंkwachit; kadachit; kechana; kaschana; kwachit; kinchana; kasminchit;kamschan; ityadayaha pada prayogam katham bhavet iti ahm na janami mahoday. bhavan krupaya pada prayogam krutwa pathayamaha, iti mama prarthana. Dhanyavadaha Mahodaya
जवाब देंहटाएंचित्, चन आदि प्रत्यय लगाकर बनने वाले शब्द तथा उसके प्रयोग को लिख दिया हूं। आप पुनः ब्लॉग पर पधार कर देख ले।
हटाएंShree man ji se nivedan hai ki hame jitane bhi संस्कृत के नपुंसक लिंग के जितने भी शब्द है वो भी अपलोड करें और हमे gmail pr sent karne ki कृपा करें ।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत मासूम सी बात लिख दी है। जब आप डिजिटल रूप में अध्ययन करने आते हैं, तब पुस्तक वाला संस्कार हटाकर आना चाहिए। यहाँ संस्कृत अभ्यास का लिंक दिया गया है। इसके माध्यम से आप मनचाहा शब्दरूप पा सकते हैं।
हटाएंबहु सम्यक् रीत्या कृतमस्ति, धन्यवादाः महोदय I
जवाब देंहटाएंसर इसका pdf लिंक provide कीजिए plz🙏
जवाब देंहटाएंऔर सर कृदंत प्रकरण भी समझा दिजिए ही🙏
Pdf नही है क्या
जवाब देंहटाएंइस पाठ का PDF अभी नहीं बना है। मेरे जीवित रहने तक या ब्लॉग रहने तक इसका PDF नहीं बना सकता। एक बार PDF बन जाने के बाद उसमें विस्तार या संशोधन का अवसर समाप्त हो जाता है। PDF बनाना ही होता तो ब्लॉग पर न लिखकर पुस्तक लिखा होता। इस पाठ को पढ़ने वाले यहाँ प्रश्न पूछ सकते हैं। उसका समाधान पा सकते हैं। पाठ में भी समाधान लिखा दिया जाता है, जबकि PDF में वह सुविधा समाप्त हो जाती है। कुल मिलाकर किसी अध्यापक से सीधे सम्वाद स्थापित करने पढ़ने तथा अध्यापक के मृत्यु होने के कारण उसके लिखे को पढ़ने में जो अन्तर है, वही अन्तर यहाँ आकर पढ़ने तथा PDF को पढ़ने में है।
हटाएंपरिश्रमेण में कौन सी विभक्ति और कौन सा वचन है।
जवाब देंहटाएंपरिश्रम शब्द के तृतीया विभक्ति एकवचन में परिश्रमेण रूप बनताा है।
हटाएंअदन्ति में कौन सा धातु है?
जवाब देंहटाएंअद् धातु है। परस्मैपद, लट् लकार प्रथम पुरूष, बहुवचन में अदन्ति रूप बनता है। इसका प्रयोग कर्तृ वाच्य में होगा।
हटाएंलता गृहस्य गच्छति correct the error in sanskrit
जवाब देंहटाएंAnswer please sir
यह वाक्य सही है। आप क्या कहना चाहते हैं? लता गृहस्य गच्छति वाक्य का हिन्दी में अनुवाद इस प्रकार होगा- घर की लता (किसी महिला का नाम) जाती है।
हटाएंbahut achha sir ji
जवाब देंहटाएं