संस्कृत- शिक्षण- पाठशाला 1


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मंगलाचरण

ध्वनिवर्णाः पदं वाक्यमित्यास्पदचतुष्टयम्।
यस्याः सूक्ष्मादिभेदेन वाग्देवीं तामुपास्महे।। सरस्वतीकण्ठाभरणम् 1.1

अर्थ- जिस वाक्यरूपी वैखरी वाणी के सूक्ष्म आदि भेद से ध्वनि, वर्ण, पद तथा वाक्य ये चार आश्रय हैं, उस वाग्देवी की उपासना करता हूँ।

आादिक्षान्तविलासलालसतया तासां तुरीया तु या।

क्रीडाकृत्य जगत्त्रयं विजयते वेदादिविद्यामयी।


आत्म निवेदन/ कथ्य/ भूमिका

     किसी भी भाषा के दो स्वरूप होते हैं। 1. लिखित 2. बोलचाल / भाषिक या सम्पर्क भाषा। चुंकि मैं यहाँ आपसे लिखित रूप में सम्पर्क कर रहा हूँ, अतः इस पाठ के माध्यम से आप लिखित संस्कृत सीख सकेंगें। संस्कृत भाषा शिक्षण के लिए अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। अंग्रेजी तथा हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में अनुवाद विधि प्रचलित है। इसमें हिन्दी या अंग्रेजी के वाक्य को संस्कृत में अनुवाद करना सिखाया जाता है। आपको इस विधि से संस्कृत सिखाने का की अनेक पुस्तकें, विडियो तथा वेबसाइट मिल जाएँगें। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग में भी अन्य भाषा के वाक्य को संस्कृत में अनुवाद कराना ही सिखाते हैं। संस्कृत शिक्षण पाठशाला  में सीधे संस्कृत में वाक्य बनाना सिखाया गया है। इस विधि में अन्य भाषा  की न्यूनतम आवश्यकता होती है। इस विधि की विशेषता यह है कि आप संस्कृत में अनुवाद करना सीखने के साथ-साथ, किसी भी विषयको सीधे संस्कृत भाषा में लिखने में तथा संस्कृत में लिखी सभी प्रकार की पुस्तकों को पढ़कर समझने में समर्थ हो जाते हैं। अनुवाद विधि से संस्कृत सीखने पर यह सब संभव नहीं हो पाता है। संस्कृत शिक्षण पाठशाला को 1,2,3,4,5,6 में विभाजित किया गया है।

संस्कृत शिक्षण पाठशाला 1 में कुल 28 पाठ हैं।  इसमें वर्ण परिचय, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय, लिंग, वचन, पुरुष. उपसर्ग तथा संख्यावाचक शब्दों का सामान्य परिचय तथा उदाहरण दिया गया है। पाठशाला 1 में महत्वपूर्ण शब्दरूप, विभक्ति तथा सन्धि से भी परिचय कराया गया है।

संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 तथा 3 में क्रिया (धातु से तिङ् प्रत्यय)

संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 में कृदन्त प्रत्यय (धातु से कृत् प्रत्यय),

संस्कृत शिक्षण पाठशाला 5 में  तद्धित प्रत्यय तथा

संस्कृत शिक्षण पाठशाला 6 समास दिया गया हैं।

इस पाठ्यक्रम को सीखने के बाद आप संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि में लिखी संस्कृत की पुस्तकें पढ़कर आसानी से समझ सकेंगें। आप संस्कृत में अपना भाव या विचार लिख सकेगें। मेरे इस पाठशाला में अभ्यास हेतु स्थान- स्थान पर लिंक दिये गये हैं । आप किसी अन्य पुस्तक की सहायता भी ले सकते हैं।

         यहाँ पर अभी सतत् पाठ का विस्तार हो रहा है। अतः क्रम में परिवर्तन दिखेगा। कोई भी भाषा अध्ययन तथा अभ्यास से सीखी जा सकती है। केवल नियम या व्याकरण जान लेने से भाषा को सीख पाना संभव नहीं है। भाषा शिक्षण के  लिए सामान्य नियम/ व्याकरण बता दिये जाते हैं। कतिपय उदाहरण तथा अभ्यास दे दिये जाते हैं, परन्तु मेरा अनुभव कहता है कि जबतक उस भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ा जाय, जबतक उस भाषा को व्यवहार में/ प्रयोग में नहीं लाया जायतब तक किसी भी भाषा में दक्षता नहीं आ पाती है। अतः इन नियमों को जानने के बाद आप कोई एक संस्कृत की पत्रिका/ संस्कृत साहित्य को अवश्य पढ़ें। इस ब्लॉग में संस्कृतसर्जना पत्रिका के कतिपय अंक तथा संस्कृत के सैकड़ों पुस्तकों उपलब्ध हैं।


पाठ- 1
लिपि शिक्षण (वर्ण विचार)
संस्कृत भाषा को लिखने के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है। अतः संस्कृत सीखने से पहले हमें देवनागरी लिपि के वर्णमाला का ज्ञान होना आवश्यक हो जाता है। यहाँ मैं आपको सबसे पहले वर्णमाला से परिचय करा रहा हूँ।
 देवनागरी में तीन प्रकार के वर्ण होते हैं।
1. स्वर वर्ण   2. व्यंजन वर्ण  3. अयोगवाह वर्ण
स्वर वर्ण
अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ

विशेष ज्ञान

👉 ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त स्वर कहा जाता है, क्योंकि ये दो स्वर वर्णों के मेल से बनते हैं। संस्कृत में अ इ उ ऋ वर्णों का ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत ये तीन भेद होते हैं। अतः व्याकरण में अ (अवर्ण) का अर्थ आ भी होता है। इसी प्रकार इ उ ऋ को भी समझना चाहिए।

व्यंजन वर्ण
क्  ख्  ग्  घ्  ङ्  - कवर्ग
च्  छ्  ज्  झ्  ञ् -  चवर्ग
ट्  ठ्  ड्  ढ्   ण् -  टवर्ग
त्  थ्  द्  ध्   न् -  तवर्ग
प्  फ्  ब्  भ्  म् - पवर्ग
य्  र्  ल्  व् -  अन्तस्थ वर्ण
श्  ष्  स्  ह् - ऊष्म वर्ण

विशेष ज्ञान 👉

स्वर रहित व्यंजन वर्ण में ् लगाया जाता हैं। इसे हलन्त कहते हैं। जैसे- क्, ख्, ग्, घ्, ङ् । व्यंजन में स्वर वर्ण को जब मिलाया जाता है तब वह उच्चारण करने योग्य होता है। पाणिनि ने 14 माहेश्वर सूत्रों में इन वर्णों को कहा है। वहाँ पर वर्णों के क्रम में थोड़ा सा परिवर्तन है। संस्कृत सीखने के इच्छुक लोगों को चाहिए कि वे माहेश्वर सूत्र को याद कर लें, ताकि संस्कृत व्याकरण सीखना आसान हो सके ।

अयोगवाह - अनुस्वार तथा विसर्ग को अयोगवाह कहा जाता है। इसका प्रयोग ( लिखने तथा बोलने में ) केवल स्वर वर्णों के साथ ही होता है। जैसे - अं, अः । कं, कः आदि।
संयुक्त व्यंजन- दो व्यंजन वर्णों को आपस में मिलने पर एक संयुक्त व्यंजन का निर्माण होता है। 
जैसे- क् + ष् = क्ष् । त् + र् = त्र् । ज् + ञ् = ज्ञ् । श् + र् = श्र् । द् + व् = द्व् । द् + य् = द्य् ।
अभ्यास - 
1. व्यञ्जन वर्ण के साथ स्वर वर्ण जोड़ें। जैसे - त् + अ = त । ख् + इ = खि ।
2. व्यञ्जन वर्ण के साथ व्यञ्जन वर्ण जोड़कर संयुक्त व्यंजन बनायें। जैसे - क् + र् = क्र ।

व्यंजन वर्णों के संयोग के कारण इसके लिखावट (आकृति) में परिवर्तन
 
1. कहीं-कहीं दो व्यंजनों के मेल को पहचानना आसान होता है। जैसे स् + व् + अ = स्व । 
कभी- कभी व्यंजनों के मेल से बने अक्षर में इतना परिवर्तन हो जाता कि पहचानना कठिन हो जाता है। जैसे- क् + ष् + अ = क्ष  त् + र् + अ = त्र ज् + ञ् + अ =  ज्ञ  इत्यादि। 
जहाँ दो व्यंजन वर्णों के मेल से उसकी आकृति में बहुत अधिक अंतर आ जाता हैऐसे  श् + र् + अ =  श्र  घ् + न् + अ = घ्न  जैसे वर्ण को पहचानना चाहिए।
2. इस लिपि मे र एक ऐसा वर्ण हैजो किसी अन्य व्यंजन के साथ मिलने पर तीन तरह से परिवर्तित हो जाता है। कभी यह वर्ण के ऊपरकभी मध्य में कभी नीचे जुड़ता है। जैसे- वर्ण में ऊपर वाला र् को देखें-  व + र्  +   = वर्ण,  क्रम में मध्य वाला र् को देखें- क् + र + म = क्रम उष्ट्र में नीचे वाला र् को देखें-  + ष् +ट् + र = उष्ट्र । 
3. संस्कृत भाषा में कहीं कहीं तीन या इससे अधिक व्यंजन वर्ण भी आपस में जुड़ते हैं। जैसे- ओष्ठ्य । व्यंजन वर्णों के आकृति परिवर्तन को समझने के लिए देवनागरी यूनीकोड टाइपिंग (टंकन) अत्यधिक सहायता करता है।
प्रश्न- कूर्मांचल शब्द में क् + ऊ + र् + म् + आ + न् + च् + अ + ल्+ अ (न् को अनुस्वार पढ़ें) अक्षर हैं। यहाँ ऊ अक्षर के बाद र् आया है। इस र् अक्षर को मा अक्षर के ऊपर लिखते हैं, जबकि मान् का न् अक्षर (अनुस्वार को) मा के ही ऊपर क्यों लगाया जाता है? अर्थात् र् की ही तरह अनुस्वार को भी अगले वर्ण च पर क्यों नहीं लगाया जाता?
उत्तर- र् की तीन गति होती है । १. ट् + र = ट्र में नीचे की ओर जाना। २. व् + अ+ र् + ग = वर्ग में आगामी वर्ण के उपर जाना। ३. आम् + र = आम्र में बीच में ही रह जाना।

ध्यान से देखें तो किसी भी व्यंजन की दो गति होती है स्वरयुक्त और स्वररहित। जैसे – र् तथा र ।  स्वरयुक्त को पूरा तथा स्वरहीन को आधा कहते हैं। ट्र में र स्वरयुक्त है जबकि ट् स्वरहीन।  वर्ग में रेफ स्वर विहीन या स्वर रहित है। ऐसे ही ग्रन्थ में भी र स्वरयुक्त है।

र् के बाद यदि कोई स्वर वर्ण नहीं होकर व्यञ्जन होने पर र् अगले व्यञ्जन के ऊपर लगता है । इसे यों समझ सकते हैं स्वर विहीन अर्थात् पैर से लंगड़ा, किसी के कन्धे पर ही सवारी करता है। अतः कर् + ता में र् स्वर विहीन है। अतः यह ता अक्षर के कंधे पर सवारी करता है। अब बात रह गयी स्वर युक्त अर्थात् र् + अ = र की। यदि र् के पहले कोई व्यंजन वर्ण है तब र् नीचे या बीच में लगता है।  जैसे- आ + म् + र् + अ =आम्र । स् + अ + ह् + अ + स् + र् + अ = सहस्र । देवनागरी लिखने की एक प्रथा है, जिसे अभ्यास द्वारा सीखा जा सकता है।

अनुस्वार अर्धस्वर है । वह मात्रा है, इसलिए वह पूर्ववर्ती स्वर पर आश्रित रहता है, वह व्यंजन पर आश्रित नहीं हो सकता। रेफ शुद्ध व्यंजन है, मात्रा नहीं । इसलिए हमेशा परवर्ती स्वर पर (जैसे ट्र में रेफ अपने बाद वाले अ पर आश्रित है) या स्वरयुक्त व्यंजन पर (जैसे पर्व में व पर) आश्रित होता है

देवनागरी लिपि के वर्णविन्यास को देखने से ज्ञात होता है कि अक्षरों के संयोग से उत्पन्न नए शब्द विन्यास की सीमा बहुत अधिक हो जाती है।

अभ्यास
1. द्वद्धभ्रपर्णदुग्ध शब्द में व्यंजन तथा स्वर को अलग- अलग कर लिखें।
2. 10 ऐसे संयुक्त व्यंजन को लिखें,जो दो व्यंजन को मिलने पर भी आसानी से पहचाना जा सकता है। 
3. 10 ऐसे संयुक्त व्यंजन को लिखें,जो दो व्यंजन को मिलने पर स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। 
वर्ण संयोग
स्वर तथा व्यंजन के मेल से शब्द बनते हैं। जैसे- ज्+ अ+ य्+ ए+ श्+ अ  इन वर्णों के आपस में जुड़ने पर जयेश शब्द बनता है। र् + अ + थ् + अ = रथ । ग् + अ + ज् + अ = गज आदि। 
जब कोई स्वर व्यंजन में जोड़ा जाता है तो उसे मात्रा के रूप में दिखाया जाता है। क् में आ की मात्रा जुड़ने पर काक् में इ जुड़ने पर कि आदि शब्द बनते हैं। अ अक्षर की कोई भी मात्रा नहीं होती है। बल्कि यह हलन्त  चिह्न के हटने से पता चलता है।
वर्ण विच्छेद
जिस तरह से शब्दों का संयोग किया जाता है, उसी तरह शब्दों का अलग-अलग (विच्छेद) भी किया जा सकता है । नीचे दिये गये शब्दों को विच्छेद कर लिखें- 

जैसे - आशा = आ + श् + आ (आकारान्त) दुर्ग = द् + उ + र् + ग् + अ (अकारान्त)

प्रश्न- "राजन्" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - राजा = र् + आ + ज् + अ+ न् (नकारान्त)

प्रश्न- "लता" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - लता = ल् + अ + त् + आ ( आकारान्त )

प्रश्न- "कवि" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - कवि = क् + अ + व् + इ (इकारान्त)

प्रश्न- "मति" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - मति = म् + अ + त् + इ (इकारान्त)

प्रश्न- "नदी" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - नदी = न् + अ + द् + ई ( ईकारान्त )

प्रश्न- "पृथ्वी" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - पृथ्वी = प् + ऋ + थ् + व् + ई ( ईकारान्त )

प्रश्न- "दीपावली" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - दीपावली = द् + ई + प् + आ + व् + अ + ल् + ई ( ईकारान्त )

प्रश्न- "शिशु" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - शिशु = श् + इ + श् + उ ( उकारान्त )

प्रश्न- "मधु" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - मधु = म् + अ + ध् + उ ( उकारान्त )

प्रश्न- "गुरु" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - गुरु = ग् + उ + र् + उ ( उकारान्त )

प्रश्न- "वधू" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - वधू = व् + अ + ध् + ऊ ( ऊकारान्त )

प्रश्न- "मातृ" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - मातृ = म् + आ + त् + ऋ ( ऋकारान्त )

प्रश्न- "पितृ" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - पितृ = प् + इ + त् + ऋ

प्रश्न- "राजन्" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - राजन् = र् + आ + ज् + अ + न् (नकार )

प्रश्न- "वाच्" यह पद किन - किन वर्णों के मेल से बना है ?

उत्तर - वाच् = व् + आ + च्

प्रश्न- "आसन्द:" शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?

उत्तर – आसन्द:=  + स् +  + न् + द् + अ + विसर्ग

प्रश्न- "विद्यालयः" शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए।

प्रश्न- "उज्ज्वल" शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?

उत्तर ज् + ज् + व् +  + ल् + अ (अकारान्त)

प्रश्न- "कार्तिक" शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?

उत्तर – क् + आ र् + त् +  +  +अ (अकारान्त)

प्रश्न- "समृद्धि" शब्द का वर्ण विच्छेद कीजिए तथा अन्तिम वर्ण बताइए ?

उत्तर – स् +  + म् +  + द् + ध् +   (इकारान्त)

इसी प्रकार शब्दों का वर्ण विच्छेद करें-

पयः । जलम् । नीरम् । अवलेहः । शीतल । आढकी। आलुः । अमृती । एला । एवम् । अलाबुः । शाकम् । अभिनवः । तिलः ।  कफघ्नी । कलाकन्दः । संस्कृत । शब्द । सन्धि । स्वरूप । उच्चारण । जिह्वा । आदि। विशेष । प्रयत्न । देवभाषा । भाषा । व्याकरण । अत्यंत । परिमार्जित । वैज्ञानिक ।

विशेष ज्ञान

हम शब्दों को ढ़ूढ़ने के लिए शब्दकोश का प्रयोग करते है। यहाँ पर वर्ण क्रम से शब्द रखे होते हैं। यहाँ आरम्भिक अक्षर महत्वपूर्ण होता हैजो हमें शब्दों को खोजने में मदद करता है। संस्कृत या हिन्दी जैसी भाषा में शब्दों का अंतिम वर्ण लिंग (पुल्लिंगस्त्रीलिंगनपुंसक लिंग) को पहचानने में सहयोग करता है। संस्कृत में शब्दों का स्वरूप अधिकांश विभक्ति तथा वचन में  परिवर्तित हो जाते हैं। शब्दों  के अंतिम वर्ण तथा लिंग के कारण संस्कृत शब्दों के स्वरूप में परिवर्तन  देखा जाता है। क्रिया में भी बहुत कुछ ऐसा होता हैजिसकी चर्चा हम आगे यथास्थान करेंगें। 

दो शब्दों या पदों के मेल को सन्धि कहा जाता है। सन्धि का नियम आगे के पाठ में दिया गया है । वर्णों के संक्षेपीकरण को प्रत्याहार कहा जाता है। सन्धि आदि नियमों में प्रत्याहारों का उपयोग किया जाता है। प्रत्याहार बनाने के लिए माहेश्वर सूत्र का एक अक्षर तथा एक अंतिम (हलन्त) अक्षर लिया जाता है। प्रत्याहार से इन दोनों वर्णों के बीच में आने वाले वर्णों का बोध होता है। जैसे अक् प्रत्याहार कहने पर अ इ उ ऋ ऌ का बोध होता है। संस्कृत के सभी प्रकार के शब्दों से परिचय हो जाने के बाद ही आप उसका वाक्य बना सकते हैं। संस्कृत में वाक्य बनाने तक पहुँचने के लिए सलाह है कि आप अपने पास संस्कृत का एक शब्दकोश अवश्य रखेंजिसमें आगे कहे जाने वाले सभी प्रकार के शब्द हों। 

 
पाठ-2
संस्कृत के शब्दों से परिचय (शब्द विचार)
संस्कृत के वाक्य में संज्ञा, सर्वनामक्रिया, विशेषण तथा अव्यय इन पाँच प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं। इसके अतिरिक्त संस्कृत में प्र परा आदि प्रादि शब्दों का भी प्रयोग होता है। इसे निपात कहा जाता है।  क्रिया के साथ जुड़ने पर इन्हें उपसर्ग कहा जाता हैं। इन शब्दों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।


इस पाठ में संज्ञा आदि शब्दों से परिचय कराया जाएगा। इसके बाद स्वर तथा हल् वर्णान्त संज्ञावाची तथा सर्वनाम शब्दों के रूपों के बारे में चर्चा की जाएगी। वाक्य बनाने के लिए सबसे पहले संज्ञा शब्द के साथ वर्तमान काल की क्रिया का प्रयोग करेंगें। इसके आगे तीनों वचनों तथा पुरुषों का, पुनः तीनों लिंगों का प्रयोग करेंगें । इसी प्रकार  क्रमशः भूतकाल एवं भविष्यत् काल का प्रयोग करेंगें। 
संस्कृत भाषा के वाक्य में प्रयुक्त होने वाले पाँचों प्रकार के शब्दों का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है। यह संस्कृत भाषा सीखने का औजार हैं। इनका संग्रह करके ही संस्कृत में वाक्य बनाया जा सकता है। 
संज्ञा
किसी के नाम को संज्ञा कहते हैंजैसे – रामःहिमालयः, अश्वः, हरिःभानुः गंगा, मतिः आदि। इसके लिए प्रथमा  विभक्ति  का प्रयोग किया जाता है। कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। अधिकांश वाक्यों में क्रिया को करने वाला (कर्ता) कोई न कोई संज्ञावाची शब्द होता है। जैसे-  रामः पठति। अश्वः धावति । पवनः वहति।
संज्ञा शब्द के साथ वर्तमान काल की क्रिया
रामः पठति। इस वाक्य में रामः कर्ता है तथा पठति क्रिया। पढ़ने की क्रिया को राम कर रहा है अतः राम कर्ता (क्रिया को करने वाला) है। इसी तरह - नदी वहति । मृगः धावति । खगः कूजति। वायुः वहति ।
सर्वनाम
कई सर्वनामों का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर होता है। इसमें भी प्रथमा विभक्ति होती है। इसकी कुल संख्या 35 है। सर्वविश्वउभउभयडतरडतमअन्यअन्यतरइतरत्वत्त्वनेमसमसिम, (14) पूर्वपरअवरदक्षिणउत्तरअपरअधर, (7) स्वअन्तर, (2)  त्यद्, तद्, यद्एतद्इदम्अदस्एकद्वियुष्मद्अस्मद्भवत्किम् (12) ये सर्वनाम शब्द हैं।
विशेषण
जिस शब्द से विशेष्य (संज्ञा) के गुण, अवस्था, संख्या तथा परिमाण आदि का बोध होता हो, वह विशेषण कहलाता है। जैसे- लघुः, एकः, भद्रः, तुङ्गः, कोमलः, वाचालः, मूर्खः, दुर्बलः, धनिकः, उदीच्यः, दाक्षिणात्यः आदि। 

उदाहरण- बालकः सुन्दरः अस्ति। बालिका सुन्दरी अस्ति। पुष्पं सुन्दरम् अस्ति। बालकः लघुः अस्ति। बालिका लघ्वी अस्ति। बालकः सुन्दरः में बालक विशेष्य तथा सुन्दरः  विेशेषण है। सुन्दरः शब्द बालक की विशेषता बताता है अतः बालकः (पुल्लिंग) के समान ही सुन्दरः में पुल्लिंग का प्रयोग हुआ। 

  पाठ- 3  

क्रिया

जिन शब्दों से किसी काम का करना या होना जाना जाता हैउसे क्रिया कहते हैं। संस्कृत में  इसके लिए धातु शब्द का प्रयोग किया गया है।  
उदाहरण- पठ्, खाद्, चल्, लिख्, वद्, पा, हस्, कूज्, आदि।

1. संस्कृत में क्रियापद दो  प्रकार से बनते हैं ।  
(क) धातु से तिङ् प्रत्यय (विभक्ति) लगाकर तिङन्त क्रियापद बनाते हैं। 
जैसे- भव-ति,  भव-तः, भव-न्ति आदि में तिप्, तस् , झि आदि तिङ् प्रत्यय लगे हैं। पठ्, खाद्, चल्, लिख्, वद्, पा, हस्, कूज्, धातुओं के वर्तमान काल (लट् लकार) प्रथम पुरुष एकवचन में इस प्रकार रूप बनता है-  पठतिचलतिवदतिहसतिखादतिलिखतिपिबति, कूजति  
(ख) धातु से कृत् प्रत्यय लगाकर कृदन्त क्रियापद बनाते हैं। जैसे-  गम्+ क्त -गतः।
2. कार्य को करने या होने की स्थिति (समय) को हम मुख्यतः तीन भागों में बांटते हैं। वर्तमान कालभूतकाल और भविष्यत् काल । लकार समय का वाचक है। अतः काल या समय के लिए यहाँ लकार शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। 
क. वर्तमान काल (जिस समय कार्य होते रहता है) । इसे लट् लकार कहा जाता है। 
ख. भूत काल (जब कोई काम हो चुका होता है) । इसे लङ् लकार कहा जाता है। 
ग. भविष्यत् काल (जब कोई काम होने वाला हो)। इसे लृट् लकार कहा जाता है।
लट्, लङ्, लृट् आदि में  लकार लगा है अतः इसे लकार भी कहा जाता है।  
प्रादि/ उपसर्ग- 
संस्कृत में बाइस (22) उपसर्ग होते हैं।

प्र, परा, अप, सम्‌, अनु, अव, निस्‌, निर्‌, दुस्‌, दुर्‌, वि, आ (आङ्‌), नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति,परि, उप । इन उपसर्गों के एक से अधिक अर्थ होते हैं। ये उपसर्ग सुबन्त पदों (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) के साथ भी प्रयुक्त होते हैं। संस्कृत की पुस्तकों में विधास्यति, आगत्य, निस्सरति, प्राप्नोति, प्रतिपाद्यते जैसी उपसर्गयुक्त क्रियायें देखने को मिलती है। शब्द कोश में इन शब्दों का अर्थ ढ़ूढ़ने पर ये उपसर्ग युक्त क्रियावाचक शब्द नहीं मिलते हैं, क्योंकि धातु के साथ उपसर्ग को जोड़कर असंख्य क्रियावाची शब्द बनते हैं। इन्हें अभ्यास के द्वारा सीखा जा सकता है। इस ब्लॉग के  एक अलग लेख में उपसर्गों के अर्थों के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी दी गयी है।

विशेष ज्ञान 👉

संस्कृत के क्रिया वाची शब्दों को जानने के लिए उपसर्ग को जानना अति महत्वपूर्ण है। प्रादि का क्रिया (धातु) के साथ योग होने पर वह उपसर्ग कहा जाता है। मूल क्रिया (धातु) के साथ उपसर्ग का योग होने पर धातु के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है।  इस तरह अनन्त प्रकार की क्रियायें बनती है।   कुछ परस्मैपद की धातु के साथ उपसर्ग का योग होने पर वह आत्मनेपद की धातु तथा कुछ आत्मनेपद की धातु परस्मैपद में परिवर्तित हो जाती है। जैसे- क्रीड धातु परस्मैपद की धातु है। इसका रूप चलता है क्रीडति, क्रीडतः क्रीडन्ति। परन्तु क्रीड धातु के पूर्व अनु, परि तथा आ उपसर्ग लगने पर यह धातु आत्मनेपद की हो जाती है। इसका रूप अनुक्रीडते, परिक्रीडते, आक्रीडते  रूप बनता है।

पाठ- 4
अव्यय
जिन शब्दों का स्वरूप हमेशा एक ही तरह बना रहता हैअर्थात् जिनका सभी वचनोंलिंगों, विभक्तियों तथा वचनों में कोई परिवर्तन नहीं होता है, उसे अव्यय कहते हैं। आगे तालिका में अव्ययवाची शब्द तथा उसका हिन्दी में अर्थ दिया गया है।
सारांश

पाठ 2 में आपको संस्कृत के शब्दों तथा उसके भेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गयी। संज्ञा आदि शब्दों के पुरुष, वचन तथा लिंग होते है। आगे के पाठ में उससे क्रमशः परिचय कराया जा रहा। है। 

अब तक आप समझ चुके होंगें कि किसी वाक्य में कितने प्रकार के शब्द होते हैं। अब उन शब्दों का प्रयोग के साथ विस्तार पूर्वक जानकारी दी जा रही है। जब तक आप शब्दों तथा उसके समस्त रूप (शब्दरूप) के बारे में ठीक से जान नहीं लेते, तब तक संस्कृत में वाक्यों का निर्माण करने में कठिनाई आती रहेगी। संस्कृत में लिखे वाक्यों को समझने, उसका अर्थ लगाने में समर्थ नहीं हो पायेंगें। 

अव्यय शब्द को छोड़कर शेष सभी प्रकार के शब्द विकारी हैं । इनके मूल स्वरूप में परिवर्तन हो जाते हैं। आगे के पाठ में हम संस्कृत शब्दों के रूप (विकार) अर्थात् विभक्तियों  के बारे में विस्तार से पढ़कर समझेंगें। आगे आपको उदाहरण के रूप में सभी प्रकार के शब्दों से परिचय कराया जा रहा है। इन उदाहरणों को जानने के बाद आप शब्दकोश तथा संस्कृत पुस्तकों में आये शब्दों की सहायता से उसी प्रकार के अन्य शब्दों से परिचित होते चले जायेंगें।

शब्दों का अर्थ ज्ञान के लिए 8 साधन हैं। इन साधनों का वर्णन आचार्य जगदीश ने 'शब्दशक्ति-प्रकाशिका' में नामक पुस्तक में किया है।

शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान-कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च।

वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः॥

१. व्याकरण, २. उपमान, ३. कोश, ४. आप्तवाक्य, ५. व्यवहार, ६. वाक्यशेष (प्रकरण), ७. विवृति (विवरण, व्याख्या), ८. प्रसिद्ध पद का सान्निध्य। 

महाभारत के वनपर्व २-१६ शब्दों के अर्थ के ज्ञान के लिए विद्वानों की सेवा करना, सुनना, बोले गये वाक्य को ग्रहण करना तथा धारण करना इनकी आवश्यकता कही गयी है।

शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ।

ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः ॥

मेरे द्वारा लिखे गये इन पाठों में १. व्याकरण, २. कोश ३ तथा ४. व्यवहार द्वारा शिक्षा दी गयी है।  अब आप समझ चुके होंगे कि संस्कृत भाषा सीखने के लिए आपको यह पाठ पढ़ने के अतिरिक्त अन्य कौन- कौन साधन हो सकते हैं।                                                  

 पाठ- 5

वचन
जिस शब्द से एक व्यक्ति या वस्तु का ज्ञान होता है, उसे एकवचन कहते हैं।
जिस शब्द से दो व्यक्ति या वस्तु का ज्ञान होता है, उसे द्विवचन कहते हैं।
जिससे दो से अधिक व्यक्ति या वस्तु का ज्ञान होता है,उसे बहुवचन कहते है।

विशेष ज्ञान 

👉 एकवचनं त्वौत्सर्गिकं बहुवचनं चार्थबहुत्वापेक्ष्यम् नियम के अनुसार जहाँ वचन का निर्णय नहीं हो सके वहाँ एकवचन का ही प्रयोग करना चाहिए।

सामान्य नियम का अपवाद

कुछ शब्दों के वचन निश्चित होते हैं। जैसे- पुल्लिंग दार (पत्नी) अक्षत और लाज शब्द बहुवचन में ही प्रयोग किये जाते हैं। स्त्रीलिंग शब्द अप् (जल) सुमनस् (फूल) वर्षा, सिकता (रेत) शब्द सदा बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हैं। 

संस्कृत में तीन वचन होते है।
1.  एकवचन  2.  द्विवचन  3.  बहुवचन
बालक शब्द का तीनों वचनों में इस प्रकार रूप होता है।  बालक शब्द का सबसे  अंतिम अक्षर अ है। ब् + आ + ल् + अ + क् + अ = बालक। 
 एकवचन          द्विवचन         बहुवचन
   बालकः            बालकौ         बालकाः  
👉 याद रखे कि संस्कृत में अंतिम वर्ण या अक्षर तथा शब्द के लिंग के आधार पर शब्दरूप बनता हैं। अतएव अ वर्ण जिस पुल्लिं शब्द के अंत में होगा, उन सभी का रूप बालक की तरह ही चलेगा। 
जैसे - ओष्ठ, कपोत, मयूर, ऐरावत, काल, कुक्कुर, केश, दूत, दीपक, नृप, मेघ, पाठक, निर्धन, रक्षक, सैनिक, सहोदर, हंस, कृषक, अपूप, सप्ताह, श्लोक, श्वसुर, नर, छात्र आदि। 
मूल शब्द       एकवचन       द्विवचन      बहुवचन
कपोत       कपोतः      कपोतौ       कपोताः
ऐरावत         ऐरावतः        ऐरावतौ         ऐरावताः
वचन का अभ्यास
कपोल, मयूर, काल, निर्धन, रक्षक, सैनिक शब्द का एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन रूप लिखें । इनके शब्दरूप का उच्चरण करें।
क्रिया 

जिस शब्द से किसी कार्य के होने या किए जाने का बोध होता है, वह क्रिया शब्द कहलाता है। जैसे- पढ़ना, लिखना, चलना, हँसना आदि क्रिया है। संस्कृत में क्रिया के मूलरूप को धातु कहते हैं। जैसे- 'पठ्' (पढ़ना), लिख् (लिखना), 'खाद्' (खाना) 'धाव्' (दौ़ड़ना) 'वस्' (रहना) 'कथ्' (कहना) आदि धातु हैं और पठति (पढ़ता है), लिखति (लिखता है), खादति (खाता है), खेल् (खेलता है) धातुओं से बने रूप हैं। इसके तीनों वचनों में इस तरह का रूप बनता है-

            एकवचन     द्विवचन     बहुवचन
खेल् - खेलति         खेलतः        खेलन्ति
खाद् - खादति        खादतः        खादन्ति
रक्ष् -  रक्षति            रक्षतः        रक्षन्ति 
धाव् -  धावति          धावतः        धावन्ति 
वस् -  वसति          वसतः        वसन्ति 
अब हम कर्ताक्रिया और वचन को जोड़कर वाक्य बनाने के अभ्यास करेंगें। किसी कार्य को करने वाले को कर्ता कहा जाता है। यहाँ बालक कर्ता है, क्योंकि वह खेलति जैसे कार्य को कर रहा है। कर्ता में जो वचन होगा, वही वचन क्रिया में भी होगा। बालकः में एकवचन है अतः खेलति क्रिया भी एकवचन की है । इसी प्रकार द्विवचन के साथ द्विवचन की क्रिया तथा बहुवचन कर्ता के लिए बहुवचन की क्रिया होगी। सरल अभ्यास के लिए अधोलिखित वाक्य को देेंखें-
         एकवचन     द्विवचन         बहुवचन
कर्ता-   बालकः        बालकौ        बालकाः
क्रिया - खेलति         खेलतः        खेलन्ति 
क्रिया - अस्ति         स्तः              सन्ति
👉 वाक्य इस तरह बनेगा -  
बालकः खेलति ।
बालकौ खेलतः । 
बालकाः खेलन्ति । 
छात्रः अस्ति ।
छात्रौ स्तः । 
छात्राः सन्ति । 
इसी तरह कर्ताछात्र और क्रिया पठ् में एकवचन का वाक्य बनाने पर छात्रः पठति बनेगा।  बालक शब्द के अंत में अ है। जिस शब्द के अंत में अ अक्षर होता है, उसे अकारान्त शब्द कहते हैं। सभी अकारान्त शब्द बालक की तरह बनेंगें। जैसे- वीरः, वीरौ, वीराःदीपः, दीपौ, दीपाःकृषकः, कृषकौ, कृषकाः आदि। 
खेलति क्रिया शब्द की तरह ही वर्तमान काल के प्रथम पुरुष में  -
खाद् से खादति खादतः खादन्ति। 
लिख् से लिखति लिखतः लिखन्ति। 
अट् = (घूमना) से अटति, अटतः, अटन्ति आदि क्रिया के शब्द बनते हैं। 
इसी प्रकार पत् = गिरना, व्रज् = जाना, कूज् = चहकना, चर् = चरना, ज्वल् = जलना, खाद् = खाना, रक्ष् = रक्षा करना आदि का रूप बना लें।
अभ्यास

अब आप निम्नलिखित संज्ञा शब्दों के साथ क्रमशः सभी वचन की क्रिया को जोड़कर वाक्य बनायें।

संज्ञा शब्द- खग, बालक,  सेवक, गज,  रमेश, सुरेश, अध्यापक, उपग्रह, अश्व, अमात्य, कृषक।

क्रिया शब्द-  खेल्, कूज्,  हस्, धाव्, क्रीड्, पूज्, सेव्, क्रीड, चल्, पच्, दह् ,वद्, नम्, वह् ।

एक उदाहरण - खगः कूजति ।  खगौ कूजतः । खगाः कूजन्ति ।

कोष्ठक में दिए गए संज्ञा तथा क्रिया शब्दों का  वचन लिखें । जैसे- मकरौ = द्विवचन ।

नरः हसति । मालाकारौ गच्छतः । मालाकाराः गच्छन्ति । मकरौ खादतः । नृपाः रक्षन्ति ।

मालाकारः गच्छति । मकराः खादन्ति । मकरः खादति । कपोतौ पश्यतः । नृपः रक्षति। कपोताः पश्यन्ति । कुक्कुरः धावति । नरौ हसतः। छात्रः नमति । कपोतः पश्यति ।

नृपौ रक्षतः। वृक्षौ फलतः । वृक्षाः फलन्ति। शुकः कूजति । मृगौ धावतः । गजाः चलन्ति।


 पाठ- 6      

 पुरुष
पुरुष तीन होते हैं- 1. प्रथम पुरुष 2. मध्यम पुरुष तथा 3. उत्तम पुरुष
अभी हमलोग बालक, सुरेश, गज, खग आदि प्रथम पुरुष के शब्दों का अभ्यास कर रहे थे। 
खेलति, खेलतः, खेलन्ति । अस्ति, स्तः, सन्ति प्रथम पुरुष की क्रिया है। 
👉याद रखें-  युष्मद् (तुम) शब्द तथा अस्मद् (मैं) को छोड़ कर शेष सभी शब्दों के लिए प्रथम पुरुष का प्रयोग होता है। 

 👉 मध्यम पुरुष में युष्मद् (तुम) शब्द का प्रयोग होता है। 
👉 उत्तम पुरुष में अस्मद् (मैं) शब्द का प्रयोग होता है।
विशेष बात -
शिष्टाचार दिखाने या सम्मान प्रकट करने के लिए युष्मद् शब्द ( तुम) के स्थान पर संस्कृत में भवत् (आप) शब्द का प्रयोग होता है। प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों में अस्मद् (मैं) युष्मद् (तुम) तथा भवत् (आप) शब्द का रूप इस प्रकार है। इसके ठीक सामने क्रिया दिखायी जा रही है ।

कर्ता                                            

                एकवचन     द्विवचन    बहुवचन      

भवत् (आप) भवान्    भवन्तौ     भवन्तः    प्रथम पुरुष

युष्मद् (तुम) त्वम्        युवाम्       यूयम्       मध्यम पुरुष

अस्मद् (मैं) अहम्      आवाम्      वयम्      उत्तम पुरुष

क्रिया                                         पुरुष

एकवचन   द्विवचन    बहुवचन

पठति        पठतः        पठन्ति      प्रथम पुरुष

पठसि       पठथः         पठथ        मध्यम पुरुष

पठामि      पठावः        पठामः      उत्तम पुरुष   
 

इस तरह अबतक आपने जाना कि –

v  बालकः, सुरेशः, गजः, खगः, पर्वतः, वृक्षः, कर्गदः. ग्रन्थः, भवत् आदि प्रथम पुरुष के शब्द हैं।

v  युष्मद् (तुम) मध्यम पुरुष का शब्द है।

v  अस्मद् (मैं) उत्तम पुरुष का शब्द है।

v  पठति, पठतः, पठन्ति प्रथम पुरुष की क्रिया है।

v  पठसि, पठथः, पठथ मध्यम पुरुष की क्रिया है।

v  पठामि, पठावः, पठामः उत्तम पुरुष की क्रिया है।

v  युष्मद् (तुम) शब्द तथा अस्मद् (मैं) को छोड़ कर शेष सभी शब्दों के लिए प्रथम पुरुष का प्रयोग होता है।

 अकारान्त पुल्लिंग शब्द, युष्मद् (तुम) शब्द तथा अस्मद् (मैं)  के तीनों पुरुष एवं वचन तथा प्रथमा विभक्ति को पहचान चुके हैं। यह भी देख चुके हैं कि कर्ता जिस वचन तथा पुरुष का होता है, क्रिया भी उसी वचन तथा पुरुष की होगी। इस आधार पर अलग- अलग क्रिया पदों के साथ वाक्य बनाना सीखिये।
सर्वनाम
त्यद्, तद्, यद्एतद्इदम्अदस्एकद्वियुष्मद्अस्मद्भवत्किम् (12) इन सर्वनाम को त्यादादि सर्वनाम भी कहा जाता है, क्योकि इसके आदि (आरम्भ) में त्यद् शब्द आया है। वाक्यों में इन सर्वनाम का अधिक प्रयोग होता है। इनके तीनों लिंगों में रूप होते हैं। 
उदाहरण - जगदानन्दः खेलति । इस वाक्य में जगदानन्दः कर्ता (संज्ञा)  है तथा खेलति क्रिया है। इसमें कर्ता के लिए तद् सर्वनाम के सः (वह) का प्रयोग किया जाता है । वाक्य इस तरह बनेगा- सः जगदानन्दः खेलति। एकः सिंहः अस्ति। इसके बाद के वाक्य में सिंहः के स्थान पर सः सर्वनाम का प्रयोग होता है। जैसे- सः अशक्तः आसीत् । 
संज्ञा पद (नाम पद) के स्थान पर सर्वनाम शब्द का प्रयोग करके वाक्य बनायें-
शृगालः पशुः अस्ति ।  .... बहिः गच्छति।
लिंग-
संस्कृत में तीन लिङ्ग होते हैं- पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग । जिससे पुरुष शब्द का बोध होता हैउसे पुल्लिंग कहते है। जिससे स्त्री शब्द का बोध होता हैउसे स्त्रीलिंग तथा जिससे नपुंसक का बोध होता है. उसे नपुंसक लिंग कहते हैं।
1.पुल्लिंग    जैसे- बालकहरिभानुपितृलिह्सः आदि
2.स्त्रीलिंग      जैसे-  बालिकागौरीउज्जयिनीश्रीसा आदि
3.नपुंसकलिंग  जैसे- ज्ञानअक्षरअंगमौन,दधिधातृतत् आदि

विशेषः- संस्कृत में शब्दों का लिंग होता है । वस्तु के आधार पर लिंग नहीं होता है। जैसे- स्त्री का पर्यायवाची दार शब्द पुल्लिंग है। पुंसक लिंग में प्रयुक्त शरीर का पर्याय तनु शब्द स्त्रीलिंग है। एक ही वस्तु के लिए पुल्लिंगस्त्रीलिंगनपुंसक लिंग के शब्द का प्रयोग किया जाता है। 

    जैसे-जैसे आप शब्दकोश का प्रयोगसंस्कृत की पुस्तकों का अध्ययनवाक्यों का प्रयोग तथा शब्दों के प्रकृति तथा प्रत्यय से परिचित होते जाते हैंवैसे शब्दों के लिंग को जानना आसान हो जाता है।

 अधिक जानकारी के लिए लिंगानुशासन पर चटका लगायें।

बालिका शब्द (स्त्रीलिंग) –एकवचन  द्विवचन  बहुवचन

                  बालिका  बालिके  बालिकाः

 
स्त्रीलिंग बालिका शब्द का वाक्य में प्रयोग -

बालिका हसति । बालिके हसतः । बालिकाः हसन्ति । बालिका नृत्यति । बालिके नृत्यतः । बालिकाः नृत्यन्ति ।

👉 इसी तरह मक्षिका, राधिका, पिपीलिका, वृद्धा, गङ्गा, यमुना आदि आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द से वाक्य बनायें-

नदी शब्द (स्त्रीलिंग) –  एकवचन  द्विवचन  बहुवचन

                 नदी        नद्यौ         नद्यः

स्त्रीलिंग नदी शब्द का वाक्य में प्रयोग -
नदी वहति । नद्यौ धावतः । नद्याः धावन्ति । शशी उदयति । मही चलति ।  मृग्यः चरन्ति । काकल्यौ कूजतः।
👉 इसी तरह गोपी, भगिनी, मोहिनी, वाणी, रूपवती, काकली, काली, गृहिणी, गौरी, जगती, जननी, तन्त्री, देवी, लक्ष्मी, नागरी, नटी, नारी, पत्नी, पृथ्वी, पार्वती, युवती, राज्ञी, गार्गी, त्रिलोकी, रात्री, भवानी, शैली, श्री, सखी, स्त्री, सती आदि ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्द से वाक्य बनायें-
अब तक आप संस्कृत भाषा के वाक्य में आने वाले अवयव (पद या शब्द) संज्ञा , सर्वनाम, विशेषण, क्रिया तथा अव्यय से परिचित हो चुके हैं। अब इसे इस तरह समझते हैं-
  • संज्ञा तथा सर्वनाम विशेषण का लिंग, वचन तथा पुरुष होता है।
  • अव्यय का  वचन तथा पुरुष नहीं होता है।
  • क्रिया वचन तथा पुरुष होता है। 

संज्ञा (नाम) तथा सर्वनाम शब्द का लिंग एवं वचन

अब आगे हम संज्ञा (नाम) शब्द तथा सर्वनाम शब्द के लिंग के बारे में पढ़ेंगे। संज्ञा (नाम) शब्द जिस लिंग और वचन का होता है, उस नाम के स्थान पर आने वाले सर्वनाम शब्द उसी लिंग एवं वचन में किया जाता है।
जैसे - मोहनः खदति । यहाँ मोहनः के स्थान पर तद् सर्वनाम का प्रयोग होगा- सः खादति। मोहनः पुंलिंग का शब्द है अतः यहाँ पुंलिंग  सर्वनाम का प्रयोग होगा ।

       सर्वनाम तद् शब्द –   सः तौ ते-   पुल्लिँग

                  सा ते ताः-   स्त्रीलिंग

                      तत् ते तानि- नपुंसकलिंग

 सर्वनाम तद् शब्द का वाक्य में प्रयोग-
सः साधकः अस्ति । सः सेवकः अस्ति। सः भुजङ्गः अस्ति । सः मोहनः लिखति । तौ बालकौ पततः । ताः बालिकाः पतन्ति । (पत् = गिरना) कृष्णः व्रजति । श्यामे व्रजतः । ते श्यामे व्रजतः । (व्रज् = जाना) ताः पिपीलिकाः चलन्ति । तौ खगौ वसतः ।
👉 इसी तरह क्रीड्, पूज्, सेव्,  दह् ,वद् आदि क्रिया से वाक्य बनायें।

अभी तक आपने संज्ञा, सर्वनाम तथा क्रिया शब्दों को जोड़कर वाक्य बनाना सीख लिया है। अब हम प्रश्नवाचन सर्वनाम किम् शब्द का रूप जोड़कर वाक्य बनाना सीखेंगे।  

सर्वनाम किम् (कौन) शब्द-

एकवचन द्विवचन बहुवचन

 कः       कौ      के -   पुल्लिंग

 का       के      काः -  स्त्रीलिंग

 किम्     के      कानि –  नपुंसकलिंग

जब आपसे कोई पूछता है – कौन कुत्ता दौ़ड़ रहा है? सः कुक्कुरः धावति।

आइये अब किम् (सर्वनाम) शब्द जोड़कर संस्कृत में वाक्य बनाना सीखें-

प्रश्न                    उत्तर

का बालिका नृत्यति ?      सा बालिका नृत्यति ।     

काः बालिकाः हसन्ति ?

के बालिके नृत्यतः ?

के कपोताः पश्यन्ति ?

कः छात्रः नमति ?

कः साधकः अस्ति ? सः साधकः अस्ति

कौ बालकौ पततः ?  तौ बालकौ पततः ।

काः बालिकाः भ्रमन्ति ?

विशेष –

किं (क्या) अव्यय पद लगाकर वाक्य बनाने पर कर्ता के अनुसार किम् का रूप नहीं बदलेगा। अव्यय का रूप सभी लिंग, विभक्ति तथा वचन में एक समान होता है। सर्वनामवाचक किम् प्रश्न या जिज्ञासा के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि अव्यय वाला किम् शब्द आक्षेप पूर्वक जिज्ञासा के लिए प्रयोग किया जाता है। 

जैसे - किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ।

संस्कृते सकलं शास्त्रं संस्कृते सकला कला ।

संस्कृते सकलं ज्ञानं संस्कृते किं न विद्यते॥

किं करिष्यन्ति वक्तारः श्रोता यत्र न विद्यते।

नग्नक्षपणके देशे रजकः किं करिष्यति॥

न हि कश्चिद्विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्

लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥

क्षमावशी कृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ।

शान्तिखङ्‌गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः ॥

कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः ।

मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः ।

कृते प्रयत्ने किं न लभेत ।

बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ।

किम् शब्द का वाक्य में प्रयोग- 

क्या कुत्ता दौ़ड़ रहा है? किं कुक्कुरः धावति।

आप उत्तर देते हैं- हाँ, कुत्ता दौड़ रहा है । आम्, कुक्कुरः धावति ।

अथवा आपका उत्तर होता है- नहीं, कुत्ता नहीं दौड़ रहा है । , कुक्कुरः धावति ।


आगे आप इसी तरह कुत्र, कथम् आदि अन्य प्रश्न वाचक शब्दों से वाक्य बनाना सीखेंगें।

इनमें से सर्व, त्यद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक तथा द्वि शब्दों के प्रथमा विभक्ति की रूप देखकर अभ्यास पुस्तिका में लिखें तथा उसे याद कर लें।

सर्वनाम शब्दों के शब्दरूप के लिए संस्कृत अभ्यास पर चटका लगाकर एक अन्य कड़ी पर जायें । 
यहाँ पुनः एक साथ अकारान्त पुल्लिंग शब्द, युष्मद् (तुम) शब्द तथा अस्मद् (मैं)  के तीनों पुरुष एवं वचन तथा प्रथमा विभक्ति का तथा लिख् धातु (क्रिया) के वर्तमान काल (लट् लकार) तीनों पुरुष तथा तीनों वचनों का रूप दिया जा रहा है।
अकारान्त पुल्लिंग वेद शब्द का रूप।

विभक्ति एकवचनम्        द्विवचनम्           बहुवचनम्

प्रथमा     वेदः                  वेदौ                वेदाः

द्वितीया   वेदम्                 वेदौ                वेदान्

तृतीया   वेदेन                 वेदाभ्याम्        वेदैः

चतुर्थी    वेदाय                वेदाभ्याम्        वेदेभ्यः

पञ्चमी    वेदात् / वेदाद्     वेदाभ्याम्        वेदेभ्यः

षष्ठी       वेदस्य               वेदयोः             वेदानाम्

सप्तमी    वेदे                   वेदयोः             वेदेषु

सम्बोधन  वेद                 वेदौ                वेदाः












सर्वनाम युष्मद् शब्द का रूप। इसका तीनों लिंग में समान रूप चलता है।

विभक्ति एकवचनम्        द्विवचनम्     बहुवचनम्

प्रथमा     त्वम्                युवाम्               यूयम्

द्वितीया   त्वाम् / त्वा     युवाम् / वाम्      युष्मान् / वः

तृतीया   त्वया               युवाभ्याम्          युष्माभिः

चतुर्थी    तुभ्यम् / ते        युवाभ्याम् / वाम् युष्मभ्यम् / वः

पञ्चमी    त्वत् / त्वद्       युवाभ्याम्          युष्मत् / युष्मद्

षष्ठी       तव / ते            युवयोः / वाम्     युष्माकम् / वः

सप्तमी    त्वयि               युवयोः              युष्मासु

सर्वनाम अस्मद् शब्द का रूप। इसका तीनों लिंग में समान रूप चलता है। इसमें सम्बोधन नहीं होता है।

विभक्ति एकवचनम्        द्विवचनम्   बहुवचनम्

प्रथमा   अहम्                 आवाम्              वयम्

द्वितीया   माम् / मा           आवाम् / नौ    अस्मान् / नः

तृतीया मया                  आवाभ्याम्         अस्माभिः

चतुर्थी  मह्यम् / मे          आवाभ्याम् / नौ  अस्मभ्यम् / नः

पञ्चमी  मत् / मद्            आवाभ्याम्         अस्मत् / अस्मद्

षष्ठी     मम / मे              आवयोः / नौ      अस्माकम् / नः

सप्तमी  मयि               आवयोः             अस्मासु

तकारान्त पुल्लिंग सर्वनाम भवत् शब्द का रूप।

विभक्ति एकवचनम्        द्विवचनम्           बहुवचनम्

प्रथमा     भवान्             भवन्तौ              भवन्तः

द्वितीया  भवन्तम्           भवन्तौ              भवतः

तृतीया   भवता             भवद्भ्याम्           भवद्भिः

चतुर्थी    भवते               भवद्भ्याम्           भवद्भ्यः

पञ्चमी    भवतः             भवद्भ्याम्           भवद्भ्यः

षष्ठी       भवतः             भवतोः              भवताम्

सप्तमी    भवति             भवतोः              भवत्सु

सम्बोधन  भवन्             भवन्तौ              भवन्तः








लिख् धातु के लट् लकार का धातुरूप (कर्ता, परस्मैपद)

 पुरुष               एकवचनम्         द्विवचनम्           बहुवचनम्

प्रथम पुरुष         लिखति              लिखतः              लिखन्ति

मध्यम पुरुष       लिखसि             लिखथः             लिखथ

उत्तम पुरुष         लिखामि            लिखावः           लिखामः

                                            पाठ- 7 

इदम्,  एतद्अदस् तथा तद् सर्वनाम शब्द हैं। निकटवर्ती वस्तु का बोध कराने के लिए 'इदम्' शब्द का तथा अत्यन्त निकटवर्ती वस्तु के लिए 'एतत्' शब्द का का व्यवहार होता है। दूर की प्रत्यक्ष वस्तु के लिए 'अदस्' शब्द का, और परोक्ष (आँख से न दिखने वाली वस्तु) के लिए 'तद्' शब्द का व्यवहार होता है । इन शब्दों का तीनों लिंगों में शब्दरूप याद कर लें। यहाँ पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति का शब्दरूप दिया जा रहा है ताकि आप वाक्य बना सकें।

शब्द      एकवचन     द्विवचन     बहुवचन

इदम्      अयम्                इमौ            इमे

एतद्      एषः                  एतौ            एते

अदस्    असौ                अमू           अमी

संज्ञा के साथ क्रिया का प्रयोग

वेदः पठति। गजः गच्छति। मोहनः रोदति। बानरौ कूर्दतः। मयूराः नृत्यन्ति।  रामलक्ष्मणौ पठतः ।  रामश्यामौ गच्छतः ।  रामः वदति । मानवौ लिखतः। पतयः वसन्ति। शशकः कूर्दन्ति । बृकः चरति।


ऊपर के वाक्यों में हमने देखा कि 
संज्ञा के साथ  गच्छ, रोद, कूर्द, हस, पिब, चर आदि प्रथम पुरुष के क्रिया शब्द  का प्रयोग कर वाक्य बनाया गया हैं।

सर्वनाम के साथ क्रिया का प्रयोग


त्वं नृत्यसि। युवां हसथः। यूयं पिबथ।

अहं इच्छामि। अहं हसामि। अहं पिबामि। आवां कुर्वः। वयं कुर्मः। वयं खादामः ।
भवान् नृत्यति। भवन्तः खादन्ति।

ऊपर के वाक्यों में हमने देखा कि नृत्, हस, पिब आदि क्रिया मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष की तथा नृत्यति , खादन्ति प्रथम पुरुष की है। 

संज्ञा (नाम) सर्वनाम तथा क्रिया का प्रयोग।

त्वं शिक्षकः असि । त्वं युवकः असि । त्वं राजेन्द्रः असि । अहं दूतः अस्मि । अहं दासः अस्मि । अहं नृपः अस्मि। आवां मृगे स्वः अयं देवः अस्ति । इमौ देवौ स्तः । इमे देवाः सन्ति । एषः बालकः अस्ति । एतौ बालकौ स्तः । एते पथिकाः सन्ति । अयं गजः गच्छति। अमू पिबतः।

अधोलिखित क्रिया पदों के साथ  एक वाक्य बनायें-

गच्छतिश्रृणोमि, वदामि, पठामि, लिखसि, पिबावः, खादामः, पश्यामिनयावः, इच्छामि, चलसि, वसामि, जानामि, पृच्छामि, पचामि, उपविशानि, ददासि, कथयामि, हसथः स्मरसि, नृत्यतः, गायामि, तिष्ठन्ति, क्षिपति, अटन्ति, भ्रमामः, नमति, जीवामि, यच्छामि, धावामःरोदथ, क्रीड़ामि, क्रीणामि, तरामि, धारयामि, बिभेमि

अधोलिखित वाक्य को एकवचन में लिखें ।

जैसे- इमौ शिक्षकौ स्तःअयं शिक्षकः अस्ति । इमौ शुकौ गायतः। अयं शुकः गायति ।

इमे मनुष्याः सन्ति। इमे बालकाः गच्छन्ति । इमे साधकाः खादन्ति । इमे शिक्षका: हसन्ति। इमे रक्षकाः जल्पन्ति । इमे वीराः रक्षन्ति । इमे धीराः भ्रमन्ति ।

अधोलिखित वाक्य में अयम्, इमौ, इमे को रिक्त स्थान में भरें

....... शिक्षकः नमति । .......बान्धवाः खेलन्ति। ..... विद्यालयः अस्ति । .... सेवकः चलति । ....हस्तः अस्ति। । ..... कर्णः श्रृणोति । ..... केशाः पतन्ति । 

'इदम्' 'एतत्' 'अदस्' तथा 'तद्' शब्द के व्यवहार के लिए यह श्लोक याद कर लें।

इदमस्तु सन्निकृष्टं, समीपतरवर्ति चैतदोरूपम् ।

अदसस्तु विप्रकृष्टं तदिति परोक्षे विजानीयात् ।।

 आप जानते होंगें कि संस्कृत भाषा में किसी भी शब्द के साथ उसकी कारक (विभक्ति) साथ में ही जुड़ा रहता है, जबकि हिन्दी में हम विभक्ति को अलग से लिखते हैं। जब किसी शब्द के साथ विभक्ति जुड़ती है तो उसके स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। शब्दों के स्वरूप में परिवर्तन हो जाने का मुख्य कारण इन शब्दों का अंतिम वर्ण तथा लिंग होता है। इसलिए संस्कृत में अंतिम वर्ण अ, , ई आदि स्वर वर्ण तथा व्यंजन वर्ण के आधार पर इनके कई विभक्तियों में अलग- अलग शब्द रूप बनते हैं। अतः बालक शब्द की तरह हरि शब्द का रूप नहीं चलता है,क्योंकि बालक शब्द के अंतिम में अ अक्षर है, जबकि हरि में इ । अतः संस्कृत में हमें अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि पुल्लिंग शब्द, आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त आदि स्त्रीलिंग शब्द के रूप को जानना आवश्यक है। मैं यहाँ पर तीनों लिंग के अलग- अलग अंतिम स्वर तथा व्यंजन वाले शब्दों से परिचय करा रहा हूँ। आप इनका शब्द रूप देख लें।

 पाठ- 8 

संख्या (गणनावाचक) शब्द

वचन से संख्या का भी बोध होता है। एकः, द्वौ शब्द सर्वनाम शब्द हैं। 1 से लेकर 18 तक संख्यावाची शब्द विशेषण में प्रयुक्त होते हैं। एकः, द्वौ, त्रयः, चत्वारः इन संख्यावाची शब्द के तीनों लिंगों में रूप होते हैं।

संस्कृत में संख्यावाची शब्द, उसका वचन, लिंग, शब्दरूप आदि के बारे में विस्तार से जानने के लिए संख्यावाची शब्द पर अवश्य क्लिक करें। इसके विना यह पाठ अधूरा रहेगा। संख्यावाची विशेषण शब्द के साथ कर्ता के कतिपय उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। जहाँ कर्ता एकवचन का है, वहाँ संख्यावाची शब्द भी एकवचन का है। आगे आप स्त्रीलिंग तथा नपुंसक लिंग का भी उदाहरण देखेंगें। वहाँ भी कर्ता के लिंग तथा वचन के अनुसार संख्यावाची शब्द के लिंग तथा वचन में परिवर्तन होते हैं। जैसे -

एकः बालकः पठति। एकः मयूरः नृत्यति। ध्रुवः एकः बालकः अस्ति। एकः शिशुः रोदति। द्वौ बालकौ खादतः । द्वौ वानरौ कूर्दतः । त्रयः छात्राः पठन्ति। चत्वारः सिंहाः भ्रमन्ति। पञ्च जनाः वदन्ति। द्वौ पुरुषौ गच्छतः।

पुनः स्मरण

यहाँ तक आपने कर्ता, क्रिया, वचन तथा संख्यावाची शब्दों के योग से संस्कृत में वाक्य बनाना सीखा। इस तरह अन्य वाक्य बनाने का अभ्यास करें।

 पाठ- 9  

अकारान्त शब्द
जिस शब्द के अंत में अ अक्षर होता हैउसे अकारान्त कहते हैं। इसी प्रकार जिस शब्द के अंत में इ अक्षर होता हैउसे इकारान्त कहते हैं जैसे- रात्रि। किसी भी वर्ण के आगे कार लगाने का अर्थ वह अक्षर होता है। संस्कृत में तीनों लिंगों में शब्द होते है।
अकारान्त पुल्लिंग शब्द
बक                   छात्र                  हस्त                  ओष्ठ
हंस                   चन्द्र                  सेवक                  
अध्यापक            पिक                 श्रमिक
संस्कृत में बकःहंसःअध्यापकः आदि ः लगाकर शब्द बनायें।
अभ्यास-
1. शब्दकोश को देखकर पुल्लिंगवाची अकारान्त 10 शब्दों को लिखियेजो किसी का नाम हो।
2. पुल्लिंगवाची पाँच शरीर के अंग के नाम लिखिएजो अकारान्त हो।
3. पुल्लिंगवाची पाँच पक्षियों के नाम लिखिए।
4. प्रतिदिन उपयोग में आने वाली अकारान्त पुल्लिंगवाची 10 वस्तुऔं के नाम लिखिए।

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इकारान्त पुल्लिंग शब्द
हरिमुनि,  कपि,  अग्निगिरिनिधिविधिपतिसखिऋषिकवि आदि।

सामान्य नियम यह है कि इकारान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप मुनि शब्द के समान चलते हैं। इस तरह के शब्दों में आगे दिए गए इकारन्त पुल्लिँग शब्द के रूप बनते है-

वह्नि (आग), अद्रि ( पहाड़ ), यति (तपस्वी ), विधि ( नियम या ब्रह्मा), विरंचि (ब्रह्मा), उदधि (समुद्र), जलधि (समुद्र), गिरि ( पहाड़ ),  असि (तलवार), पाणि (हाथ), व्याधि ( रोग ), अहि ( सर्प ), उपाधि, अरि ( शत्रु ), नृपति (राजा), मणि, निधि ( कोश ), रवि, अतिथि, अराति ( शत्रु), अब्धि (समुद्र), वारिधि (समुद्र), आदि, पयोधि (समुद्र), पवि (वज्र )

याद रखें कि संस्कृत में शब्द का रूप अंतिम अक्षर के आधार पर बनते हैं अतः पति के पूर्व अधि जोड़कर अधिपति बने शब्द का रूप भी पति शब्द की तरह बी होगा। इसी तरह भूपतिनरपतिलोकपतिगणपति आदि को समझना चाहिए।

कतिपय इकरान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप कवि के समान नहीं चलते हैं । यह अपवाद है जैसे- पति और सखि ।

शब्दरूप के लिए संस्कृत अभ्यास पर चटका लगाकर रवि, पति तथा सखि शब्द के रूप को में अंतर को देखें। 

मैं यहाँ हरि शब्द का रूप लिख देता हूँ। इसी तरह आप कपि, ऋषि आदि इकारान्त पुल्लिंग के साथ क्रिया शब्द जोड़कर वाक्य बनाने का अभ्यास कीजिये।

विभक्ति             एकवचन      द्विवचन     वहुवचन

प्रथमा              हरिः             हरी         हरयः

ईकारान्त पुल्लिंग शब्द
संस्कृत में अधिकांश ईकारान्त शब्द स्त्रीलिंगवाची होते हैं। ईकारान्त पुल्लिंग शब्द बहुत कम हैं।
उदाहरण-  सुधीप्रधीग्रामणीनीयवक्रीसुधीसुखी । 
उकारान्त पुल्लिंग शब्द
ऋतु,  गुरुप्रभुशम्भुइक्षु,, तनु,लधुरेणुराहुबाहुविभुविष्णुभीरुभिक्षुशत्रुशम्भुकेतुपशुमनु,   शिशु, साधुविधु (चन्द्र), पशु, शम्भु, वेण (बाँस ) भृगु, रिपु ( शत्रु ), ऊरु ( जाँघ ), जन्तु, मृत्यु, ऋतु, हेतु ( कारण ), तरु ( वृक्ष ), ऋतु, इषु (बाण), अंशु (किरण), वाहु, सेतु (पुल), सूनु (पुत्र), कटु, विन्दु ( बूंद ) बन्धु, वेपथु ( कँपकँपी ) राहु आदि
ऊकारान्त पुल्लिंग शब्द
हूहूखलपूवर्षाभूआत्मभू आदि।
ऋकारान्त पुल्लिंग शब्द
वक्तृ, कर्तृ, पितृ, देवृ (देवर), भर्तृअध्येतृजेतृद्ष्टृपठितृ , स्तोतृहोतृ, नेतृ, नप्तृ, विधातृ, आदि।
यह शब्द किसी भी धातु से तृन और तृच् प्रत्यय लगाकर बनाया जाता हैइस प्रत्यय का सामान्य अर्थ होता है- वाला। सम्बन्ध वाचक नप्तृभातृजामातृदुहितृ  आदि का धातु के अर्थ के साथ वाला अर्थ नहीं लगेगा। सम्बन्ध वाचक ऋकारान्त शब्द का रूप पितृ शब्द के समान चलता है।
ओकारान्त पुल्लिंग शब्द
गो
ऐकारान्त पुल्लिंग शब्द
रै
औकारान्त पुल्लिंग शब्द
ग्लौ
पाठ- 10 
आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
सामान्यतः पुल्लिंग शब्द के अन्त में आ प्रत्यय (टाप्डाप् और चाप्) लगाने पर वह शब्द स्त्रीलिंग हो जाता है। कुछ शब्द केवल स्त्रीलिंगवाची ही होते हैं
जैसे- कथाउषाछायाआज्ञाआत्मजाइच्छाजिज्ञासाचिन्ताउमाउपमाजिह्वानिन्दा,भाषा आदि । एकोनविंशतिः 19 से लेकर नव नवतिः तक के सभी संख्यावाची शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। संस्कृत में सर्वनाम शब्द भी होते है। इसका भी स्त्रीलिंग होता है।
स्वर तथा व्यंजन वर्णान्त पुल्लिंगस्त्रीलिंग तथा नपुंसक शब्दों को विस्तार पूर्वक जानने तथा समझने के लिए लघुसिद्धान्तकौमुदी (अजन्तपुल्लिंगतः अजन्तनपुंसकलिंगपर्यन्तम्) पर क्लिक करें। यहाँ शब्द रूपों के  निर्माण के नियम बताये गये हैं तथा उपयोगी लिंक भी दिये गये हैं ।
इकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
बुद्धिगतिशुद्धि ,भक्ति, रुचिशक्तिश्रुतिरुचिस्मृतिशान्तिनीतिरात्रिजातिमति
ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
 गौरीजानकीपृथ्वीकौमुदीसावित्रीगायत्रीनलिनीलक्ष्मीश्रीस्त्रीनदी
उकारान्त स्त्रीलिंग शब्द 
तनु, (शरीर) रेनु, (धूल) हनु (ठुड्डी)
ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
चमू, (सेना)  रज्जूकर्कन्धू (बेर)
ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
मातृयातृ (देवरानी) दुहुतृ (लड़की)

अकारान्त नपुंसकलिंग शब्द
मित्रवनअरण्यमुखकमलकुसुमपुष्पनक्षत्रपत्रजलगगनशरीरपुस्तकज्ञान
इकारान्त नपुंसकलिंग शब्द
अस्थिअक्षि, (आँख) दधि को छोड़कर सभी इकारान्त नपुंसक लिंग के शब्द वारि के समान होते हैं।
उकारान्त नपुंसकलिंग शब्द
दारुजानु, (घुटना) तालुमधु
ऋकारान्त नपुंसकलिंग शब्द
कर्तृनेतृधातृ
 पाठ- 11 

 व्यंजनान्त शब्द

संस्कृत के अधिकांश व्यञ्जनान्त शब्द धातुओं से बनते हैं अतः इन शब्दों का कर्ता में बहुत कम प्रयोग देखने को मिलता है। धातु में प्रत्यय लगने के बाद बने व्यञ्जनान्त शब्दों का प्रयोग विशेषण तथा अन्य रूप में होता है। कुछ संख्यावाची शब्द तथा कुछ सर्वनाम शब्द व्यञ्जनान्त होते हैं। ऐसे व्यञ्जनान्त शब्द तथा उसके अर्थ यहाँ दिये जा रहे हैं।

व्यञ्जनान्त पुल्लिंग शब्द -

लिह् = चाटने वाला, चतुर् = चार, किम् = कौन, क्या, इदम् = यह, तद् वह, एतत् = यह, राजन् = राजा, पञ्चन् = पाँच, अस्मद् = मैं,  युष्मद् = तुम, पयोमुच् = जल को छोड़ने वाला बादल, सुपात् =  सुन्दर पैर वाला, भवत् =  आप, चन्द्रमस् = चन्द्रमा, अदस् = वह (दूर का)

व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग शब्द

उपानह् =  जूता, गिर् = वाणी, चतुर् = चार, वाच् = वाणी, अप् = जल । किम् = क्या, सर्वनाम त्यद्, तद्, यद्, एतत्।

व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग शब्द

वार् = जल, अहन् =  दिन, दण्डिन् = दण्ड वाला, चतुर् = चार, किम् = क्या, इदम् = यह, एतत् = यह (पास का)

हिन्दी में हम तद्भव तथा उर्दू शब्दों के प्रयोग कर लेते हैं। जिस दिन संस्कृत के तत्सम शब्द से हम परिचित होते जायेंगेंसंस्कृत सीखना आसान होता जाएगा। इसी प्रकार आप क्रमशः पुल्लिंगवाची,स्त्रीलिंगवाची,नपुंसक लिंगवाची हलन्त शब्द तथा तीनों लिंगों के स्वरान्त शब्दों को खोजें। 
यहां पर शब्दरूप देना संभव नहीं है। इसके लिए संस्कृत अभ्यास पर चटका लगाकर एक अन्य कड़ी पर जायें । इस लिंक पर सुबन्त के शब्दरूप एवं तिङन्त के धातुरूप दिये हैं। विस्तार के भय तथा अनावश्यक श्रम से बचने के लिए सर्वनाम शब्दों के रूप तथा प्रयोग यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं। इस ब्लॉग पर आये लोगों को चाहिए कि वे संस्कृत अभ्यास पर क्लिक करके सभी प्रकार का रूपों तथा प्रत्ययों का अभ्यास करें। 
इस प्रकार आपके पास संस्कृत का बृहद् शब्दकोश जमा हो जाएगा। 

शब्दों का लिंग का निर्धारण


प्रत्ययों के प्रयोग से शब्दों के लिंग का निर्धारण होता है। संस्कृत में शब्दों के लिंग को जानने के लिए प्रत्यय के बारे में जानना सहायक होता हैजिसे हम आगे के पाठ में पढ़ेंगें। अभी तक हम वचन, प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष तथा इसके लिए प्रयोग की जानी वाली क्रिया के बारे में जान चुके हैं। अलग- अलग शब्दों के लिंग के बारे में भी जान लिया। उसके शब्द रूपों को देखकर वर्तमान काल की क्रिया के साथ वाक्य बनाईये। कतिपय प्रयोग यहाँ दिये जा रहे हैं।

संज्ञा (कर्ता) शब्दों के साथ क्रिया का प्रयोग-

एकः बालकः रोदति। हरिः ब्रवीति। पितरौ हसतः। अंगं अस्ति । बकः कुप्यति । चन्द्रः  एति।  सेवकाः अश्नन्ति। अध्यापकाः पाठयन्ति । पिकौ ईर्ष्यतः। पितरौ वसतः। धनम् अस्ति । स्वप्नः विद्यते। आनन्दः अपेक्षते। 

संज्ञा तथा सर्वनाम शब्दों के साथ क्रिया का प्रयोग-

सः भानुः ददाति। सः अमरः कूर्दति। सा बालिका चोरयति। द्वे गौर्यौ कथयतः। एषा उज्जयिनी आपयति। तौ श्रमिकौ अर्जयतः। सर्वे जानन्ति । सः अस्ति। भवान् पृच्छतु । भवती शक्नोति। सः चिकित्सकः अस्ति। द्वे रूपे वर्तेते। बालिका त्रीणि अक्षराणि वेत्ति। ते नृत्यन्ति। अहम् अस्मि । अहम् नमामि। अहम् तिष्ठमि। अहं बालकः अस्मि। अहं बालिका अस्मि। आवां स्वः । आवां नयावः। वयं स्मः। वयं दण्डयामः। त्वं गच्छसि। त्वं पठसि। त्वं खादसि। यूवां वदथः। यूयं ….। एते मानवाः सन्ति।

सर्वनाम तथा अव्यय से अनिश्चयवाचक शब्द 

1. अनिश्चयवाचक शब्द बनाने के लिए प्रश्नवाचक विभक्तियुक्त किम्" शब्द के परे 'चित्', 'चनऔर 'अपिशब्द लगाकर वाक्य बनाया जा सकता है । यह चित् और चन प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होता है और विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। चित्” और चन” प्रत्यय लगाने से पहले किम्" शब्द में विशेष्य के अनुसार- लिङ्गवचन और विभक्ति लगा लें। इसके बाद उन रूपों के आगे चित्" और चन" प्रत्यय लगा लें।

 ये कौनक्याइत्यादि अर्थों के द्योतक होते हैं। 

जैसे - 

कोई आदमी - "कश्चित् मानवः एवं वदति" । 

"कश्चन पिता गृहं गच्छति" । 

किसी को "कश्चित् ( कञ्चन ) मानुषम्" । 

किसी वन में बिल्ली रहती है- "कस्मिंश्चित् गृहे बिडालः वसति"। 

किसी जंगल में शेर रहता है-  "कस्मिञ्चन वने सिंहः निवसति" । 

किसी बालिका का थैला है-कस्याश्चिद् बालिकायाः स्यूतः अस्ति"। 

कई बालिकायें जाती है - "काश्चन वालिकाः गच्छन्ति" । 

किसी बालिका के साथ वृद्धा का परिचय है- "कयाचिद् बालिकया सह वृद्धायाः परिचयः अस्ति" । 

किसी ग्राम की यह रीति है – “केषाश्चिद् ग्रामाणां इयं रीतिः । 

कश्चित् वदति । केचन जनाः आगतवन्तः । केचन जनाः में क्रिया को करने वाला जनाः है अतः प्रश्नवाचक किम् शब्द में भी वही लिंग तथा वचन होगा, जो कर्ता में है। अतः किम् पुल्लिंग शब्द के बहुवचन का रूप के + चन का प्रयोग किया गया।

2. आपने देखा कि अनिश्चयवाचक सर्वनाम 'किम्' शब्द से तीनों लिङ्गों में तथा सब विभक्तियों में चित्, चन, जोड़ने के बाद अनिश्चय वाचक सर्वनाम बनता है। इसी प्रकार अपि तथा स्वित् जोड़कर भी अनिश्चय वाचक सर्वनाम बनता है।  जैसे पुँल्लिङ्ग में कश्चित्, काचित्, किञ्चित्, कोऽपि, केचन, कयाचन, काश्चित् इत्यादि । इनके रूप निम्नलिखित होते हैं । कश्चित्, कौचित् , केचित्, कञ्चित्, काँश्चित्, केनचित्, काभ्याञ्चित्, कैश्चित्, कस्मैचित्, केभ्यश्चित् , कस्माच्चित्, कस्यचित्, कयोश्चित्, केषाञ्चित्, कस्मिंश्चित्, केषुचित् । ऐसे ही 'चन' लगाकर कश्चन आदि । अपि के साथ-कोऽपि, कावपि, केऽपि, कमपि, कानपि, केनापि, काभ्यामपि, कैरपि, कस्मा अपि, केभ्योऽपि २, कस्मादपि, कस्यापि, कयोरपि , केषामपि, केष्वपि । स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक में भी 'चित्', 'चन' 'अपि' आदि लगाकर काचित्, काचन, कापि, किञ्चित्, किञ्चन, किमपि आदि रूप होते हैं ।

पाठ- 12 

वाक्य विचार

पदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्वयवा न च।
वाक्यात् पदानामत्यन्त प्रविवेको न कश्चन। (वाक्यपदीयं ब्रह्मकाण्डम् -73)

अब तक हमारा संस्कृत के शब्दों से परिचय हो चुका है। हम संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय,संख्यावाची शब्द तथा प्रादि उपसर्ग के बारे में, शब्दों के लिंग (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक लिंग) तथा वचन (एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) के बारे में संक्षेप में जान चुके हैं। इनके कतिपय उदाहरण भी देख चुके हैं।
 इस पाठ में हम उक्त सभी का क्रमशः संस्कृत में वाक्य बनाना सीखेंगे। सबसे पहले संज्ञा शब्द के साथ वर्तमान काल की क्रिया का प्रयोग करेंगें। इसके आगे तीनों वचनों तथा पुरुषों कापुनः तीनों लिंगों का प्रयोग करेंगें । संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 में क्रमशः भूतकाल एवं भविष्यत् काल का प्रयोग करेंगें। 
सर्वनाम

सर्वनाम शब्द को 6 भागो में विभाजित किया जाता है, यथा-

(1) पुरुषवाचक सर्वनाम

(2) संकेतवाचक सर्वनाम

(3) सम्बन्धवाचक सर्वनाम

(4) प्रश्नवाचक सर्वनाम

(5) अनिश्चयवाचक सर्वनाम

(6) निजवाचक सर्वनाम 

प्रश्नवाचक सर्वनाम तथा अव्यय

1.प्रश्न तथा सम्बन्धवाचक सर्वनामों का अर्थ प्रकट करने के लिए संस्कृत में क्रमशः किम् ( पु० कःस्त्री० कानपुं० किम् ) तथा यत् (पुं० यस्त्री० याः नपुं० यत् ) शब्दों का प्रयोग किया जाता है ।

जैसे - प्रश्नवाचक - त्वं किं पठसि युवां किं पठथः यूयं कि पठथ । त्वं कां नमसि युवां कां नमथः यूयं कां नमथ त्वं कः असि युवां कः स्थः यूयं के सन्ति ? भवान् कः अस्ति ? कः अश्वः अस्ति ? सः अश्वः अस्ति।

भवतः का प्रतिष्ठा   कस्मिन् देशे भवान् कथं जातः केन कृतम् का ते माता कः ते पिता कथं शास्त्राणां परिचयः 

तीनों कोष्ठक से एक-एक पद लेकर वाक्य बनायें।

शिक्षकाः आवां युवां शिक्षिकाः यूयं वयं जनाः

कुत्र किं कथं

सन्ति कुरुथ गायावः लिखथः आगच्छन्ति विहरन्ति

सापेक्षताबोधक सर्वनाम 

2.कई बार विद्यार्थियों को जो जो" कुछ ( Whatever ) इत्यादि भावों को प्रकट करने में बहुत कठिनता होती है। ऐसी अवस्था में 'यत्शब्द का दो बार प्रयोग करने से अनुवाद सरलता से किया जा सकता है। 

यत् ( जो-who, which ) शब्द का पुंल्लिङ्ग में यःयौये आदिस्त्रीलिङ्ग में यायेयाः आदि तथा नपुंसक में यत्येयानि आदि के रूप 'तत्शब्द के समान समझने चाहिए।

जैसे - यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् इत्यादि ।
युष्मद् तथा अस्मद् में विकल्प से खञ्अण् तथा छ प्रत्यय लगते हैं । इससे मामकीनमामकीनात्वदीयत्वदीया आदि बनते हैं। सर्वनाम के बाद लगने वाले प्रत्ययों पर यथाप्रसंग विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगें।
इदम् एतद् तद्अदस्यद्किम् तथा अनिश्चयवाचक एवं निश्चयवाचक सर्वनाम का प्रयोग विशेषण अर्थ में भी होता है।  जैसे- सः पुरुषःसा स्त्री। एषः रामःएषा गीता । आगे के अध्याय में हम सर्वनाम के भेद तथा प्रयोग पर चर्चा करेंगें। एक रोचक श्लोक द्वारा समझें-
का लोकमाता किमु देहमुख्यं रते किमादौ कुरुते मनुष्यः ।
को दैत्यहन्ता वद वै क्रमेण गौरीमुखं चुम्बति वासुदेवः ।।
विशेषण
जिस शब्द से विशेष्य (संज्ञाके गुणअवस्थासंख्या तथा परिमाण आदि का बोध होता हो, वह विशेषण कहलाता है। जैसे- लघुः, एकः, भद्रः, तुङ्गः, कोमलः, वाचालः, मूर्खः, दुर्बलः, धनिकः, उदीच्यः, दाक्षिणात्यः आदि। 

विशेषण के मुख्यतया चार प्रकार से विभाग किये जा सकते हैं ।

(1गुणवाचक विशेषण । यथाः– “नीलं नभः, “रक्तं उत्पलम्" इत्यादि ।

(2अवस्थावाचक विशेषण । । यथाः– वाचालः बालकः।

(3परिमाणवाचक विशेषण। यथा- "स्वल्पं तोयम्", "प्रभूतं धनम्" "प्रचुरं दुग्धम्" इत्यादि ।

(4संख्यावाचक विशेषण । यह विशेषण दो प्रकार से विभक्त है। (कसंख्या बोधक। जैसे-एकद्वि, त्रिचतुरपञ्चन् इत्यादि । (ख) (पूरणवाचक) जैसे: - प्रथमः,द्वितीय:, तृतीयःइत्यादि ।
विशेषण के द्वारा जिसकी विशेषता बतायी जाती हैउसे विशेष्य कहते हैं। विशेषण विशेष्य के अनुसार ही गुणों वाला होता है। अर्थात् विशेष्य के लिए जिस लिंगवचन तथा विभक्ति का प्रयोग किया जाता हैविशेषण में भी वही लिंगवचन तथा विभक्ति का प्रयोग होता है। यह सामान्य नियम है। तद्धित तथा कृदन्त प्रत्यय के प्रकरण (संस्कृत के तद्धित प्रत्यय तथा संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4) में विशेष्य एवं विशेषण का एक ही लिंग नहीं होने का विशेष नियम बताये गये हैं।

सामान्य नियम के लिए एक श्लोक याद कर लें-

यल्लिङ्गं यद्वचनं या च विभक्तिः विशेष्यस्य।

तल्लिङ्गं तद्वचनं सा च विभक्तिः विशेषणस्य।। 
 समान लिंग का उदाहरण- बालकः सुन्दरः अस्ति। बालिका सुन्दरी अस्ति। पुष्पं सुन्दरम् अस्ति। बालकः लघुः अस्ति। बालिका लघ्वी अस्ति। बालकः सुन्दरः में बालक विशेष्य तथा सुन्दरः  विेशेषण है। सुन्दरः शब्द बालक की विशेषता बताता है अतः बालकः (पुल्लिंग) के समान ही सुन्दरः में पुल्लिंग का प्रयोग हुआ। 
संख्यावाचक विशेषण
1 से 10 तक संख्यावाची शब्द का प्रयोग तीनों लिंगों में होता है।  कुछ संख्यावाची विशेषण जैसे- शतविंशतित्रिंशत् आदि के नियत लिंग होते है। इनके वचन भी विशेष अर्थ में ही बदलते हैं। गुणवाची अन्य विशेषण शब्दों का प्रयोग तथा उदाहरण आगे के पाठों में भी देखेंगें।
 संख्यावाची शब्दों के बारे में अधिक जानने के लिए चटका लगायें।
 वाक्य में विशेष्य और विशेषण

प्रश्न- श्वेतः अश्वः धावति में कौन विशेषण पद है ?

उत्तर - श्वेतः विशेषण पद है ।

प्रश्न- चतुरः काकः जलं पिबति में कौन विशेष्य पद है ?

उत्तर - काकः विशेष्य पद है ।

प्रश्न-  पुष्पं सुन्दरं अस्ति इस वाक्य में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण पद है ?

उत्तर - पुष्पं विशेष्य तथा सुन्दरं विशेषण पद है ।

प्रश्न-  अहं श्वेतम् अश्वं पश्यामि इस वाक्य में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण पद है ?

उत्तर - अश्वं विशेष्य तथा श्वेतम् विशेषण पद है ।

प्रश्न-  एतत् जलं पवित्रम् अस्ति इस वाक्य में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण पद है ?

उत्तर - जलं विशेष्य तथा पवित्रम् विशेषण पद है ।

प्रश्न-  वीराणां पुरुषाणां प्रशंसा सर्वत्र भवति इस वाक्य में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण पद है ?

उत्तर - पुरुषाणां विशेष्य तथा वीराणां विशेषण पद है ।

प्रश्न-  रामः भरतात् ज्येष्ठतरः आसीत् इस वाक्य में कौन विशेष्य तथा कौन विशेषण पद है ?

उत्तर - रामः विशेष्य तथा ज्येष्ठतरः विशेषण पद है

इसी प्रकार अधोलिखित विशेष्य-विशेषण को समझें ।

कृष्णः पीतम् अम्बरं धरति। (विशेष्य- अम्बरम्, विशेषण- पीतम्)

कृष्णः पीतम् अम्बरं धरति। (विशेष्य- अम्बरम्विशेषण- पीतम्)

भारवाहने अक्षमान् सैनिकान् विलोकयन् अवदत्। (विशेष्य- सैनिकान् , विशेषण- अक्षमान्)

मनोहरः सत्यनिष्ठः आसीत्। (विशेष्य- मनोहर:विशेषण- सत्यनिष्ठ:)

तव शरीरं सुन्दरम् अस्ति। (विशेष्य- शरीरम्विशेषण- सुन्दरम्)

रामायणे मानवतापोषकानि जीवनमूल्यानि वर्णितानि सन्ति। (विशेष्य- जीवनमूल्यानिविशेषण- मानवपोषकाणि)

विश्पला वीराङ्गना आसीत्। (विशेष्य- विश्पलाविशेषण- वीराङ्गना )

क्रिया

जिन शब्दों से किसी काम का करना या होना जाना जाता हैउसे क्रिया कहते हैं। संस्कृत में  इसके लिए धातु शब्द का प्रयोग किया गया है।  
उदाहरण- पठ्, खाद्, चल्, लिख्, वद्, पा, हस्, कूज्, आदि।

1. क्रिया को विभाजित कर दिखाने के लिए लट्, लङ् आदि 10 लकार बनाये गये हैं। इसमें से 5 लकारों का प्रयोग मुख्य रूप से किया जाता है।  जैसे पठतिहसतिखेलतिअपठत्पठिष्यतिपठतु आदि। आपको अभी केवल 5 लकार का ही रूप समझना है। आज्ञा देनेपरामर्श करने, प्रश्न पूछनेआशीर्वाद देने आदि के लिए यहाँ तीन अलग-अलग लकारों का प्रयोग होता है। 
3. धातुएँ तीन प्रकार की होती है। परस्मैपदी, आत्मनेपद तथा उभयपदी । जो धातुएं परस्मैपदी हैं, वे कर्तृवाच्य में परस्मैपदी रहती हैंआत्मनेपदी धातुएं कर्तृवाच्य में आत्मनेपदी ही रहती हैंइसी प्रकार कर्तृवाच्य में उभयपदी (परस्मैपद तथा आत्मनेपदधातुओं के साथ दोनों पदों की विभक्तियों का प्रयोग होता है।
विशेष

एक लकार के तीनों वचन तथा तीनों पुरुष मिलाकर नौ रूप होते है। किसी एक धातु के दस लकारों में नब्बे रूप बन जाते हैं। इस तरह प्रत्येक धातु के ९०-९० रूप बनते हैं। कुछ धातु परस्मैपदी होते हैं तो कुछ आत्मनेपदी। यदि कोई धातु उभयपदी अर्थात् परस्मैपदी और आत्मनेपदी दोनों हो तो रूप दो गुने हो जायेंगे। इस तरह परस्मैपदी के ९० रूप तथा आत्मेपदी के ९० रूप मिलाकर कुल १८० रूप होंगे। उसमें भी कई धातुओं में अनेक कार्यों में वैकल्पिक रूप बनते हैं। इस तरह रूपों की संख्या और बढ़ जाती हैं। फिर आगे णिजन्त में लगभग २००सन्नन्त में लगभग २००यडन्त में लगभग २०० यङ्लुङन्त में लगभग २०० करके एक धातु के हजार से भी ऊपर रूप बन जाते हैं। इसके बाद धातुओं से उपसर्ग भी लगते हैं। २२ उपसर्ग हैंउनमें अधिकतर धातु के साथ जुड़ते हैं। कहीं एक ही उपसर्ग धातु से जुड़ता है तो कहीं एक से अधिक दोतीन भी लगते हैं। कहीं वे ही उपसर्ग व्यत्यास अर्थात् आगे पीछे होकर लगते हैं। इस तरह एक धातु के लाखों भी रूप हो सकते हैं। एक धातु को अच्छी तरह से समझ लिया जाय तो हजारोंलाखों शब्दों को समझा जा सकता है। अतः मैने संस्कृत शिक्षण पाठशाला में धातु के लिए अलग से दो पोस्ट लिखा हूँ।  इसके बाद आपको संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 तथा संस्कृत शिक्षण पाठशाला 3 अवश्य पढ़ना चाहिए।

आपने जाना कि धातु को क्रिया कहा जाता है। आगे संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 में आप कृदन्त प्रत्ययों के बारे में पढ़ेंगे। धातुओं के साथ कृत् प्रत्यय के योग करने पर संज्ञाविशेषण या अव्यय पद बनते हैं।

1. साधारणतः कृत् प्रत्यय कर्ता (संज्ञा) अर्थ में होते हैं। 'तृच्', 'क्तिन्', 'ण्वुल्', 'ल्युट्आदि प्रत्यय कर्ता में होते हैं।

2.  'शतृ', 'शानच्', 'तव्यत्' , 'अनीयर्', 'यत्प्रत्यय का धातु के साथ योग होने पर विशेषणवाची पद बनते हैं।

3.  धातुओं से 'क्त्वा', 'ल्यप्' , 'तुमुन्प्रत्ययों के योग होने पर अव्ययवाची पद बनते हैं।

                                                        पाठ- 14 
अब तक के अध्यायों में हम संस्कृत भाषा के वर्ण तथा शब्द के स्वरूप से भली भाँति परिचित हो गये। इसके बाद के अध्यायों में हम अधोलिखित वाक्य पर विचार  करेंगें।
1. वाक्यों में क्रिया का कारक के साथ सम्बन्ध/ समन्वय के लिए कारक विभक्ति तथा उपपद विभक्ति।
2. विशेष्य और विशेषण पर विचार
3. सम्बन्धी और सम्बन्धवाची शब्दों पर विचार (षष्ठी विभक्ति) 
4. अव्यय पर विचार

वाक्य विचार में पहले कारक (विभक्ति) की चर्चा करेंगें। उपपद विभक्ति कारक विभक्ति से अलग होती है। जब कोई अव्यय पद का योग संज्ञा पद के साथ होता है तब उसे उपपद विभक्ति कहते है। 
कारक (विभक्ति) पर विचार के बाद विशेष्य और विशेषण पर विचार तथा उसके बाद सम्बन्धी और सम्बन्धवाची शब्दों पर विचार करेंगें। विशेष्य और विशेषण लिए एक श्लोक है। यही नियम सम्बन्धी और सम्बन्धवाची शब्दों पर भी लागू होता है।
           
यल्लिंगं यद्वचनं या च विभक्तिर्विशेषस्य ।
तल्लिंगं तद्वचनं सैव विभक्तिर्विशेषणस्यापि ॥


    पाठ- 15     

कारक (विभक्ति)
अबतक हम संस्कृत के वर्णों तथा शब्दों के सभी स्वरूप से परिचित हो चुके हैं। हम उन शब्दों/ पदों के लिंग, अकारान्त, इकारान्त आदि स्वर और क्, ह् आदि व्यंजनान्त शब्दों के सभी लिंगों एवं विभक्तियों से परिचय पा चुके हैं। इस अध्याय में हम उन पदों से वाक्य बनाने पर विचार करेंगें। संस्कृत भाषा में वाक्य बनाना सीखेंगें। 
क्रिया के निष्पादन (जनकत्व) में कारण होने से सुबन्त पदों को कारक कहा जाता है। 
अथवा 
क्रिया की पूर्ति में जो सहायक होता हैउसे कारक कहते हैं। 
अथवा 
क्रिया के साथ जिसका सीधा सम्बन्ध होता है, उसे कारक कहते हैं। 
जैसे- बालकः पठति। इसमें पठति क्रिया का निष्पादन/ क्रिया की पूर्ति में सहायक/ क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध रा का हैइसीलिए राम कर्ता है।  संस्कृत में 6 कारक माने गए हैं।

कर्ता कर्म च करणं सम्‍प्रदानं तथैव च ।
अपादानाधिकरणमित्‍याहु: कारकाणि षट् ।। 
1.कर्ता 2.कर्म 3.करण 4.संप्रदान 5.अपादान 6.अधिकरण
सम्बन्ध तथा सम्बोधन का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होने से इसे कारक नहीं माना गया है। इसका शब्द रूप बनता है। प्रत्येक कारक के लिए विभक्ति नियत है। हम वाक्यों के प्रयोग में उस कारक के स्थान पर विभक्तियों का प्रयोग करते हैं। जैसे कर्ता कारक के लिए प्रथमा विभक्ति। आप इस विधि को अपनाकर कारकों की पहचान कर सकते हैं । क्रिया से किसका सीधा सम्बन्ध है, इसे जांचने के लिए एक एक कर क्रमशः वाक्य लें। जैसे-
       वाक्य                                          प्रश्न                 उत्तर
1. रमेशः पुस्तकं पठति।                       कः पठति।             रमेशः
2. मृगः तृणं अत्ति।                               कं अत्ति।              तृणम्
2. बालकः लेखिन्या पत्रं लिखति।         केन लिखति            लेखिन्या       
3. पिता पुत्राय धनं ददाति।                कस्मै ददाति             पुत्राय
 इस प्रकार  उपर्युक्त वाक्य में कःलगाकर प्रश्न करने से जो उत्तर आता है उसे कर्ता कारक कहते हैं। इसी प्रकार कस्मात्, कस्य, कस्मिन् आदि प्रश्न के द्वारा वाक्य में निहित कारक को समझा जा सकता है। आप इस तालिका को पूरा करें। आप प्रत्येक वचन, लिंग और विभक्ति वाला वाक्य का निर्माण करें। उसकी एक- एक तालिका बनाकर अभ्यास कर सकते हैं-          
           1. कर्ता कारक -    प्रथमा विभक्ति  

1. 'प्रातिपादिकार्थलिंगपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा' - शब्द के मूल रूप ( बिना विभक्ति के ) को प्रातिपादिक कहते हैं। मूल शब्द के अर्थ बोध में, लिंग ज्ञान के लिए, मात्रा जानने तथा वचन के अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है। जब तक हम किसी मूल शब्द में विभक्ति नहीं लगाते हैं तब तक उसका अर्थ ज्ञान नहीं हो पाता है। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अव्यय शब्दों के अर्थ ज्ञान के लिए मूल शब्द में प्रथमा विभक्ति लगाते हैं। किस शब्द का किस लिंग में प्रयोग होता है,यह जानकारी प्रथमा विभक्ति द्वारी होती है, जैसे केवल एक लिंग- मानवः, फलम्। अनेक लिंग की जानकारी के लिए- तटः तटी तटम्। मात्रा का उदाहरण- प्रस्थो ब्रीहिः- आधा सेर चावल। संख्या का उदाहरण- एकः द्वौ, बहवः ।

2. स्वतन्त्रः कर्ता- क्रिया के सम्पादन में जो स्वतन्त्र हो, उसे कर्ता कारक कहते है। जैसे- हरिः पुस्तकं पठति । यहाँ पढ़ने की क्रिया का सम्पादक 'हरि' है। अतः हरि में प्रथमा विभक्ति हुई ।

3. 'कर्त्तरि प्रथमा ' अथवा 'उक्ते कर्तरि प्रथमा'क्रिया के सम्पादक को कर्ता कारक कहते हैं । कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है जैसे- गोपालः गृहं गच्छति । यहाँ जाने की क्रिया को सम्पन्न करनेवाले कर्त्ताकारक 'गोपाल' में प्रथमा विभक्ति हुई है। कर्तृवाच्य की क्रिया में कर्त्ता उक्त अर्थात् प्रधान रहता है। अतः कर्तृवाच्य के कर्त्ता में यहाँ प्रथमा विभक्ति हुई । 

4. सम्बोधन में प्रथमा- सम्बोधन को कारक के अन्तर्गत नहीं मान जाता। इसके लिए प्रथमा विभक्ति का उपयोग किया जाता है। किसी किसी शब्द का सम्बोधन में आंशिक रूप परिवर्तन हो जाता है। अतः शब्दरूप में सम्बोधन का भी शब्दरूप लिखा जाता है।

6. संस्कृत में क्रिया अथवा व्यापार को ही मुख्य माना जाता है। इस भाषा में क्रिया के आधार पर ही कारक निश्चित होते हैं। क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्। इस नियम के कारण पचति, खेलति, पठति आदि में काल, पुरुष तथा वचन निश्चित हैं, अतः उसी के अनुसार कारक का प्रयोग होता है। 

7. कर्तृवाच्य में क्रिया का सम्बन्ध कर्ता के साथ होता है अतः कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है, जबकि कर्म वाच्य में क्रिया के साथ कर्म का सम्बन्ध होता है अतः वहाँ पर कर्ता में प्रथमा विभक्ति नहीं होती। यही स्थिति भाववाच्य की भी है। वाच्य के बारे में एक अलग अध्याय में पृथक् से चर्चा की जाएगी। 

8. 'उक्ते कर्मणि प्रथमा'- कर्म वाच्य में कर्म के उक्त (प्रधान/मुख्य) रहने पर उसमें (उक्त या प्रमुख कर्म में ) प्रथमा विभक्ति होती है तथा क्रिया कर्म के अनुरूप होती है। अर्थात् क्रिया में वही विभक्ति तथा वचन होंगें ,जो कि कर्म में है। जैसे- मया चन्द्रः दृश्यते । रामेण रावणः हतः । यहाँ 'चन्द्र' और 'रावण' कर्मवाच्य के उक्त कर्म है। अतः इनमें प्रथमा विभक्ति हुई है।

9. अव्यययोगे प्रथमा / निपातेनाभिहिते प्रथमा – इति, नाम और अपि अव्ययों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे- अमुं नारद इति अबोधि ( उनको नारद ऐसा जाना ) । जनको नाम राजा अभूत् ( जनक नाम के राजा हुए ) । तस्य कन्या सीता नाम आसीत् ( उनकी कन्या का नाम सीता था ) । विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुम् असाम्प्रतम्      ( विष के पेड़ को भी बढ़ाकर अपने आप काटना उचित नहीं है ) । 

 अभ्यास- 1

अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों का प्रथम पुरुष की क्रियाओं का वर्तमान काल (लट्) के साथ प्रयोग देखें ।

पुल्लिंग संज्ञा शब्द एकवचन का प्रयोग-

अश्वः धावति । गजः धावति । अश्वः गजः च धावतः । अश्वःगजः वृषभः च धावन्ति ।

अश्वः खादति । गजः खादति । वृषभः खादति । अश्वःगजः च खादतः । अश्वःगजः वृषभः च खादन्ति ।

पुल्लिंग संज्ञा शब्द द्विवचन का प्रयोग-

अश्वौ धावतः । गजौ धावतः । वृषभौ धावतः ।

पुल्लिंग संज्ञा शब्द बहुवचन का प्रयोग-

गजाः धावन्ति । वृषभाः धावन्ति । छात्राः प्रसन्नाः सन्ति।

सर्वनाम शब्द एकवचनद्विवचन तथा बहुवचन का प्रयोग-

सः खादति । तौ खादतः । ते खादन्ति । । तौ धावतः । ते धावन्ति । एते प्रसन्नाः सन्ति ।

अभ्यास- 2

रिक्त स्थान पर सः तौ ते में से किसी एक का चयन कर सही शब्द लिखें।

. …….धावति । ……… खादन्ति। ……… खादतः । …… लिखति।

अभ्यास- 3

निम्नलिखित संज्ञाओं या सर्वनामों के बाद 'धाव्' 'खाद्' 'लिख्पिव्'  धातुओं की क्रिया को लिखें।

वृषभः ………। बालकौ ………। तौ ………  राम: ………। ते ………  सः ………। मनुष्याः ………  कृष्णः ………। ते ………

अभ्यास- 4

निम्नलिखित क्रियाओं से पूर्व कर्ता चुनकर लगाइए। यह ध्यान रहे कि कर्ता जिस वचन का है, क्रिया भी उसी वचन का हो। रिक्त स्थान पर एक बार एक शब्द का ही प्रयोग कीजिए:

कर्ता- मोहनः  वृषभौ  वृषभाः  गजः  बानरौ  गजाः। मयूरः  अश्वौ  अश्वाः ।

……… धावतः । ……… खादति। ……… धावन्ति । ………  पिवन्ति । ……… वदतः । ……… धावन्ति । ……… खादतः । ……… धावति । ……… यच्छति ।

अभ्यास- 5

अकारान्त पुल्लिंग तथा नपुंसकलिंग शब्दों की प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों का प्रथम पुरुष की क्रियाओं का वर्तमान काल (लट्) के साथ प्रयोग देखें । पुल्लिंग में जिस अर्थ में 'सःतौतेका प्रयोग होता हैउसी अर्थ में नपुंसकलिंग के शब्दों के लिए 'तत्तेतानि का प्रयोग होता है।

फलम् पतति । फले पततः। फलानि पतन्ति ।

पत्रम् पतति । पत्रे पततः । पत्राणि पतन्ति ।

तत् फलम् पतति । तत् पत्रम् पतति ।

तानि फलानि पतन्ति । तानि पत्राणि पतन्ति ।

सः बालकः पतति । तौ बालकौ पततः । ते बालकाः पतन्ति ।

तत्र पत्राणि फलानि च पतन्ति । सः अश्वः पतति । तौ अश्वौ पततः। ते अश्वाः पतन्ति ।  ते फले पततः । तत् चित्रम् पतति। ते चित्रे पततः । तानि चित्राणि पतन्ति ।

ध्यान रखिए कि ह्रस्व अ से समाप्त होने वाले पुंलिंग शब्दों के रूप तो 'अश्वया 'बालकके समान चलेंगे और नपुंसकलिंग शब्दों के रूप 'फलकी तरह।

अभ्यास- 6

अकारान्त पुल्लिंग शब्द :- मनुष्यपुरुषअध्यापकछात्रसिंहमयूरशशकवृक्षवानर और अकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों पुस्तकगृहचक्रपुष्पनेत्रजलदुग्धचित्रआम्र शब्द के रूपों का तीन-तीन बार उच्चारण कीजिए। जैसे- मनुष्यः, मनुष्यौ, मनुष्याः । फलम्, फले, फलानि।

निम्न शब्दों से पूर्व लिंग और वचन देखकर सः तौते। तत्, तेतानिमें से ठीक शब्द भरिए

………… बालकौ । ………… पत्राणि । ………… अश्वः । ………… बालकाः । ………… अश्वः । ………… दुग्धम् । ………… गृहम् । ………… पत्राणि । ………… पत्रे । ……… तीर्थौ । ………… चक्रे।  ………… पुष्पाणि।

अभ्यास- 7

आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों का प्रथम पुरुष की क्रियाओं का वर्तमान काल (लट्) के साथ प्रयोग देखें । 

पुल्लिंग में जिस अर्थ में 'सः, तौ, ते' का प्रयोग किया जाता हैं, उसी अर्थ में स्त्रीलिंग में 'सा, ते, ताः' का प्रयोग होता है।

बालिकाः पठन्ति। बालिका पठति । सा बालिका सीता अस्ति । सा तत्र पठति । ते रमा लीला च पठतः । ते तत्र पठतः । ते अत्र पठतः । रमा लीला च तत्र पठतः । लता, ललिता, अर्चना, सुषमा च तत्र पठन्ति । ताः अत्र न पठन्ति । ताः बालिकाः तत्र पठन्ति ।

गीता क्रीडति । शुभा सरिता च क्रीडतः । ताः बालिकाः सन्ति । ताः हसन्ति । सीता लिखति । सा लिखति । सीता गीता च लिखतः । ते लिखतः । रमा, उमा, शीला च धावन्ति । ताः धावन्ति । ताः पठन्ति । ताः क्रीडन्ति । ताः हसन्ति ।

उपर्युक्त की तरह- लता (बेल), अजा (बकरी), कलिका (कली), कन्या, सरिता (नदी), नौका, वाटिका, बाला,  रमा, सीता, शीला, सुभद्रा, शोभा शब्द से सभी वचनों में वाक्य बनायें।

याद रखें कि हिन्दी में कर्ता के अनुसार क्रिया का भी लिंग होता है परन्तु संस्कृत की क्रियाएँ सभी लिंगों में समान होती हैं। जैसे 'पठति' का अर्थ पढ़ता है और पढ़ती है, दोनों है। 

प्रथमा विभक्ति, भूतकाल का उदाहरण-

अशोकः सम्राट् आसीत् । मदनमोहन-मालवीयः देशभक्तः आसीत् । 

शब्दकोश-

सा = वह एक (she)       ते = वे दो (those two ) ताः = वे सब (those)

पठ् = पढ़ना (to read)    हस् = हँसना (to laugh) लिख् = लिखना (to write)         क्रीड् = खेलना (to play) अस्ति = है (is)  सन्ति = हैं (are)

अभ्यास- 8

सर्वनाम का अभ्यास

नीचे दिए वाक्यों में रिक्त स्थानों पर लिंग और वचन को देखकर "सः, तौ, ते; तत्, ते, तानि; सा, ते ताः" में से ठीक शब्द लिखें।

……..  बालकाः क्रीडन्ति । …….. बालकौ हसतः । …….. शीला अस्ति । …….. कन्याः हसन्ति । …….. पत्राणि पतन्ति । …….. बालिके लिखतः । …….. कृष्णः अस्ति । …….. फले पततः । …….. अश्वः खादति । …….. तत्र क्रीडतः । …….. तत्र पठन्ति । ……..  सुधा अस्ति। …….. कन्ये हसतः । …….. लिखति । 

 पाठ- 16 

2. कर्म कारक -  द्वितीया  विभक्ति    

1. क्रिया के द्वारा कर्ता का जो सबसे अधिक इच्छित होता है उसमें द्वितीया विभक्ति होती है। (सामान्य नियम) जैसे- राम सीता को बुलाता है। रामः सीतां आह्वयति। यहाँ क्रिया के द्वारा कर्ता राम को इच्छित है सीता को बुलाना। अतः सीता में द्वितीया विभक्ति होगी। सबसे इच्छित में द्वितीया विभक्ति का दूसरा उदाहरण- राम दूध के साथ भात खाता है। इसमें राम दूध तथा भात दोनों खा रहा है, परन्तु इन दोनों में से इच्छित है- भात (ओदन) खाना। अतः इसमें द्वितीया विभक्ति होकर रामः पयसा ओदनं खादति बनेगा। 

सामान्य नियम के अनुसार हिन्दी में "को" जिस शब्द के अंत में हो उसमें  द्वितीया विभक्ति लगाना चाहिए।

2. उपसर्ग के साथ क्रिया का योग होने पर नियम में परिवर्तन हो जाता हैं-
शीङ् (शयन करना), स्था (बैठना) आस् (रहना) इन तीन धातुओं के पूर्व यदि अधि उपसर्ग लगा हो तो इन क्रियाओं का आधार कर्म कारक होता है। अर्थात् अधिकरण कारक के स्थान पर कर्म कारक होता है। जैसे- कुर्सी पर बैठता है = आसन्दं अधितिष्ठति। यहाँ कुर्सी आधार है। इससे द्वितीया विभक्ति होती है।
 3. अव्यय के साथ क्रिया का योग होने पर नियम में परिवर्तन हो जाता हैं-
उभयतः (दोनों ओर), सर्वतः (सभी ओर), धिक्(धिक्कार), उपर्युपरि (ठीक ऊपर), अधोधः (ठीक नीचे) तथा अध्यधि (ठीक ऊपर) शब्दों का जिससे संयोग हो उसमें द्वितीया विभक्ति होती है।
उभयतः विद्यालयं बालकाः सन्ति। आदि
अभितः (चारों ओर या सब ओर), परितः (सब ओर), समया (समीप), निकषा (समीप), हा (हाय), प्रति (ओर) शब्द के योग में भी द्वितीया विभक्ति होती है।
अन्तरा ( बीच में) तथा अन्तरेण (विषय में, बिना, छोड़कर) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।

4. क्रियाविशेषणे द्वितीया- जो क्रिया की विशेषता बताता है, उसे क्रियाविशेषण कहते हैं और क्रियाविशेषण में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे गीता मधुरं गायति । अर्धो घटः अधिकं शब्दायते ( अधजल गगरी छलकत जाय ) । मन्दं मन्दं नुदति पवनः । कोकिल: मधुरं कूजति । यहाँ मधुरम्, अधिकम् और मन्दं मन्दं क्रियाविशेषण हैं। अतः इनमें द्वितीया विभक्ति हुई है । 

5. 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे'- अत्यन्त संयोग ( अतिशय लगाव, लगातार या व्याप्ति ) अर्थ रहने पर कालवाची और मार्गवाची पदों में द्वितीया विभक्ति होती है । जैसेमासमधीते व्याकरणम् ( बिना व्यवधान के वह महीने भर व्याकरण पढ़ता है ) । क्रोशं कुटिला नदी ( नदी कोश भर तक टेढ़ी-मेढ़ी है ) । यहाँ अत्यन्त संयोग में कालवाची 'मासम्' और मार्गवाची 'क्रोशम्' में द्वितीया हुई।

6. अव्यययोगे प्रथमा / निपातेनाभिहिते प्रथमा – इति, नाम और अपि अव्ययों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे- अमुं नारद इति अबोधि ( उनको नारद ऐसा जाना ) । जनको नाम राजा अभूत् ( जनक नाम के राजा हुए ) । तस्य कन्या सीता नाम आसीत् ( उनकी कन्या का नाम सीता था ) । विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुम् असाम्प्रतम् ( विष के पेड़ को भी बढ़ाकर अपने आप काटना उचित नहीं है ) ।

7. 'उक्ते कर्मणि प्रथमा'- कर्म वाच्य में कर्म के उक्त (प्रधान/मुख्य) रहने पर उसमें (उक्त या प्रमुख कर्म में ) प्रथमा विभक्ति होती है तथा क्रिया कर्म के अनुरूप होती है। अर्थात् क्रिया में वही विभक्ति तथा वचन होंगें ,जो कि कर्म में है। जैसे- मया चन्द्रः दृश्यते । रामेण रावणः हतः । यहाँ 'चन्द्रऔर 'रावणकर्मवाच्य के उक्त कर्म है। अतः इनमें प्रथमा विभक्ति हुई है। क्रिया प्रथम पुरुष एकवचन की हुई।

द्वितीया विभक्ति का उदाहरण-

विद्यालयं परितः वृक्षाः सन्ति । विप्रः वेदान् पठति । व्याघ्रः मृगं हन्ति । श्वः शकुन्तला श्वसुरालयं गमिष्यति । रामः विद्यालयं गच्छति । मां प्रति तस्य कोपः वर्तते । रावणः सीतां अहरत् । अध्यापकः संस्कृतं पाठयति ।

कर्मवाच्य पर आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी। यहाँ कर्तृवाच्य का अभ्यास करें।


  अभ्यासः
अधोलिखित पदों के अनुसार वाक्य बनायें। 
पुल्लिङ्गम्       एकवचनम्      द्विवचनम्       बहुवचनम्
पाठः           सः पाठं पठति ।  सः पाठौ पठति । सः पाठान् पठति ।
श्लोकः                ----------- ------  -----------
मन्त्रः                 ----------- ------  -----------
प्रश्नः                  ----------- ------  -----------
ग्रन्थः                 ----------- ------  -----------
विषयः              ----------- ------  -----------
अध्यायः              ----------- ------  -----------
देवालयः        माता--------------गच्छति ।   माता देवालयं गच्छति ।  
ग्रामः                 ----------- ------  -----------
आपणः              ----------- ------  -----------
विदेशः              ----------- ------  -----------
प्रकोष्ठः              ----------- ------  -----------
विद्यालयः          ----------- ------  -----------
वित्तकोषः          ----------- ------  -----------
चिकित्सालयः     ----------- ------  -----------
महाविद्यालयः    ----------- ------  -----------
कार्यालयः          ----------- ------  -----------
                          स्त्रीलिङ्गम्      
एकवचनम्               द्विवचनम्       बहुवचनम्
पत्रिका            
छात्रः पत्रिकां पठति । छात्रः पत्रिके पठति । छात्रः पत्रिकाः पठति ।
वार्ता                 ----------- ------  ----------- ----------
कथा                  ----------- ------  ----------- ----------
गीता                 ----------- ------  ----------- ----------
कविता              ----------- ------  ----------- ----------
संहिता               ----------- ------  ----------- ----------
सूचना               ----------- ------  ----------- ----------
हास्यकणिका      ----------- ------  ----------- ----------
स्त्रीलिङ्गम्           एकवचनम्                  द्विवचनम्                       बहुवचनम्
अङ्कनी              छात्रा अङ्कनीं क्रीणाति ।  छात्रा अङ्कन्यौ क्रीणाति । छात्रा अङ्कनीः क्रीणाति ।
कूपी                  ----------- ------  -----------
घटी                  ----------- ------  -----------
लेखनी               ----------- ------  -----------
कर्तरी                ----------- ------  -----------
मार्जनी              ----------- ------  -----------
वेल्लनी              ----------- ------  -----------
दूरवाणी            ----------- ------  -----------
वर्णलेखनी          ----------- ------  -----------      
पुनःपूरणी          ----------- ------  -----------
नदी              बाला----------------तरति ।         
स्त्रीलिङ्गम्                 एकवचनम्                               
अष्टाध्यायी        छात्रा अष्टाध्यायीं पठति ।                        
सप्तदशी             -----------------   पुरी                              
सप्तशती             ----------- ------  नगरी                           
कादम्बरी           ----------- ------ देहली                           
अभ्यासदर्शिनी    ----------- ------ राजधानी                      
सिद्धान्तकौमुदी   ----------- ------ उज्जयिनी                      
कौशलबोधिनी    ----------- ------- वाराणसी                      
नपुंसकलिङ्गम्          तीनों वचनों में वाक्य बनायें                  
पुस्तकम्                   पिता पुस्तकं क्रीणाति ।                 
शास्त्रम्              सा---------------जानाति ।           
फलम्                ----------- ------  -----------
पर्णम्                 ----------- ------  -----------
पुष्पम्                ----------- ------  -----------
चित्रम्               ----------- ------  -----------
गृहम्                 ----------- ------  -----------
गीतम्                ----------- ------  -----------
काव्यम्              ----------- ------  -----------
राज्यम्              ----------- ------  -----------
मन्दिरम्            ----------- ------  -----------
नाटकम्             ----------- ------  -----------
फेनकम्              ----------- ------  -----------
कङ्कतम्           ----------- ------  -----------
करयानम्           ----------- ------  -----------
करवस्त्रम्           ----------- ------  -----------
कोष्ठक में दिये शब्द को द्वितीया विभक्ति  बनाकर रिक्त स्थान पूरा करें -
सेवकः ------------------ (आसन्दः) आनयति ।                     
मित्रं ------------------  (सन्देशः) प्रेषयति ।             
शोधार्थी ------------------  (लेखः) लिखति ।                       
अतिथिः ----------------- (पुष्पगुच्छः) स्वीकरोति ।             
वटुकः ------------------- (मन्त्रः) वदति ।                           
छात्रः ------------------ (सूचना) विस्मरति ।                       
निरीक्षकः ------------------ (कक्ष्या) आगच्छति ।                
गृहिणी ------------------  (कपाटिका) क्रीणाति ।                 
प्रमुखः------------------ (संस्था) सञ्चालयति ।                     
माता------------------ (पाकशाला) प्रविशति ।                    
सेविका------------------ (योजिनी) आनयति ।                    
शिशुः------------------- (अङ्गुली) स्पृशति ।                       
अधिकारी------------------ (दैनन्दिनी) उद्घाटयति । 
अग्रजः ------------------ (दूरवाणी) करोति ।                      
भ्राता ------------------ (घटी) क्रीणाति ।                            
विजेता ------------------ (पदकम्) धरति ।                     
अभिनेता------------------ (नाटकं) करोति ।            
भक्तः------------------ (पुष्पं) चिनोति ।                              
चित्रकारः ------------------  (चित्रं) रचयति ।                     
पण्डितः------------------- (शास्त्रं) जानाति ।                       
वैदेशिकः------------------  (देहली) आगच्छति ।                 
विदूषकः------------------ (हास्यकणिका) वदति ।               
ग्राहकः ------------------ (पत्रिका) क्रीणाति ।                     
पितामही ------------------ (कथा) श्रावयति ।                     
सा ------------------ (द्विचक्रिका) चालयति ।                      
नटी------------------ (शाटिका) धरति ।                             
विद्यार्थी------------------ (संहिता) पठति ।             
भवती ------------------ (शृङ्खला) आनयति ।                    
बालिका ------------------ (पाञ्चालिका) आनयति ।            
लुण्ठाकः ------------------ (छुरिका) प्रदर्शयति । 
 पाठ- 17                   

3. करण कारक -  तृतीया विभक्ति     

कर्ता जिसकी सबसे अधिक सहायता से कार्य करता है उसे करण कहते हैं। जैसे- मोहनः लेखन्या लिखति। यहाँ पर मोहन लेखनी की सहायता से लिखता है,अतः लेखनी करण है। इसमें तृतीया विभक्ति होगी। 
तृतीया विभक्ति दो स्थानों पर होती हैं। 1. जहाँ कर्ता अनुक्त (अप्रधान) हो उस कर्ता में तथा 2.  करण कारक में । 
वाच्य परिवर्तन के अध्याय में उक्त तथा अनुक्त कर्ता के बारे में विशेष चर्चा होगी। यहाँ  उक्त तथा अनुक्त कर्ता के कतिपय उदाहरण दिया जा रहा है।
जिस क्रिया में कर्ता की प्रधानता होती है वहाँ कर्ता उक्त होता है तथा जिस क्रिया में कर्ता गौण होता है उसे अनुक्त कर्ता कहते हैं।

रामः रावणं अहनत् -    इस वाक्य में कर्ता उक्त (प्रधान ) है, अतः कर्ता में प्रथमा विभक्ति हुई।

रामेण रावणः अहन्यत - इस वाक्य में कर्ता अनुक्त (अप्रधान ) है, अतः कर्ता में तृतीया विभक्ति हुई।

रामेण रावणः हतः - इस वाक्य में कर्ता अनुक्त (अप्रधान ) है, अतः कर्ता में तृतीया विभक्ति हुई।

करण में तृतीया विभक्ति का उदाहरण-

बालकः चषकेण जलं पिबति। सः उपनेत्रेण पश्यति।

विशेष नियम

कतिपय धातुओं के साथ साधकतम कारक (सबसे अधिक सहायक कारक) का योग होने पर में तृतीया विभक्ति के नियमों में परिवर्तन हो जाता है। कहीं पर कुछ विशेष शब्दों या अर्थों के कारण भी तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

1. दिवः कर्म च

दिव् (जुआ खेलना) धातु के साधकतम करण की विकल्प से कर्म और करण संज्ञा होती है। उदाहरण-

कृषकः अक्षैः दीव्यति। इसमें तृतीया विभक्ति हुई।

कृषकः अक्षान् दीव्यति। इसमें द्वितीया विभक्ति हुई।
2. सहयुक्तेऽप्रधाने
सह के योग में अप्रधान (प्रधान के सहायक) को तृतीया होती है। जैसे- अध्यापकेन सह शिष्यः आगतः। इसी प्रकार साकं समं और सार्धं के योग में भी तृतीया विभक्ति होती है।
3. पृथग्विनानानाभिस् तृतीया ऽन्यतरस्याम्
पृथक् , विना, नाना के योग में विकल्प से तृतीया होती है। वैकल्पिक पक्ष में द्वितीया अथवा पंचमी विभक्ति होगी। अहं दशदिनानि यावत् शुभ्रां शुभ्रेण शुभ्रात् पृथक् न निवसामि। इसी प्रकार विना, नाना के योग में तीनों विभक्तियाँ होगी।
4. येनाङ्गविकारः
जिस अंग विशेष में विकार हो उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे- मम नेता कर्णेन बधिरः अस्ति।
5. इत्थंभूतलक्ष्णे
जब कोई विशेष चिह्न से या जिस कारण से जाना जाय उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे- मम परिवेशी चतुःचक्रिकया धनिकः प्रतीयते।
6. हेतोः

जिस कारण से कोई कार्य होता है या किया जाता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे- अध्ययनेन धनं मिलति। धनं परिश्रमेण मिलति। इसमें अध्ययन तथा परिश्रम कारण (हेतु)  है।
नोट-   अध्ययनार्थियों को इसके अतिरिक्त अन्य नियमों की भी जानकारी करनी चाहिए। 

उदाहरण -

अश्वः  मोहनेन सह गच्छति । अश्वः अपि तेन सह धावति । सः मित्राभ्यां सह उपवने क्रीडति । मात्रा सह रामः गच्छति । मम सुखेन कालः याति । रामः पितुराज्ञया वनं अगच्छत् । 

सः वामहस्तेन लिखति । त्वं केन हस्तेन लिखसि ? अहं दक्षिणहस्तेन लिखामि । सः वामपादेन चलति । त्वं केन पादेन चलसि ? अहं केन अपि पादेन न चलामि । त्वं कथं चलसि ? अहं पादाभ्यां चलामि। त्वं कथम् आकर्णयसि ? अहं कर्णाभ्याम् आकर्णयामि । त्वम् इक्षुदण्डं कथं चर्वसि ? अहं दन्तै: इक्षुदण्डं चर्वामि । त्वं केन सह खेलसि ? अहं कृष्णेन सह खेलामि।

इन वाक्यों का पुरुष तथा वचन परिवर्तन कर लिखें ।

सः वामहस्तेन लिखति । त्वं केन हस्तेन लिखसि ? अहं दक्षिणहस्तेन लिखामि । तौ वामहस्तेन लिखतः । युवां केन हस्तेन लिखथः ? आवां दक्षिणहस्तेत लिखावः । ते वामहस्तेन लिखन्ति । यूयं केन हस्तेन लिखथ ? वयं दक्षिणहस्तेन लिखामः ॥


विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। यहाँ सभी विभक्तियों का अभ्यास दिया गया है। इसमें से तृतीया विभक्ति पर जाकर इसका अभ्यास करें। अधिक विस्तार के भय से यहाँ अभ्यास नहीं दिया जा रहा है।

 पाठ- 18    

4. सम्प्रदान कारक - चतुर्थी विभक्ति


जिसे संप्रदान संज्ञा होती होती उसे चतुर्थी विभक्ति होती है। इस पाठ में हम देखेंगें कि किसे-किसे सम्प्रदान सेज्ञा होती है। इसमें कुछ सामान्य नियम है और कुछ विशेष नियम।

सामान्य नियम-

1.कर्मणा यमभिप्रैति स सम्‍प्रदानम् ।

दान क्रिया के कर्म के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, वह सम्प्रदान कहलाता है।

2.क्रियया यमभिप्रैति सोऽपि सम्पादानम्।

किसी विशेष क्रिया के द्वारा जो इच्छित व्यक्ति या वस्तु हो उसकी भी सम्प्रदान संज्ञा हो।

चतुर्थीं सम्प्रदाने

सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है।

उदाहरण- बालकाय पुस्तकं ददाति। बालक के लिए पुस्तक देता है। इस वाक्य में देना दान कर्म है। इस कर्म के द्वारा कर्ता बालक को सन्तुष्ट करना चाहता है अतः कर्मणा यमभिप्रैति सूत्र के नियम के अनुसार बालक की सम्प्रदान संज्ञा हुई। चतुर्थीं सम्प्रदाने से सम्प्रदान संज्ञक बालक में चतुर्थी विभक्ति होकर बालकाय हुआ।

क्रिया के द्वारा अभिप्रेत का उदाहरण- श्रमिकः रोटिकाय नगरे वसति। रोटी के लिए नगर में निवास करता है। इसमें निवास करना क्रिया विशेष है। इस निवास करने का विशेष प्रयोजन है- रोटी। यदि कहीं और रोटी मिल जाय तो वह नगर में निवास नहीं करेगा। अतः क्रिया विशेष के द्वारा इच्छित रोटिका में चतुर्थीं विभक्ति होकर श्रमिकः रोटिकाय नगरे वसति प्रयोग होगा। इसी प्रकार छात्रः शिक्षायै विद्यालयं गच्छति आदि प्रयोग होंगें।

विशेष नियम
(1) रुच्यर्थानां प्रीयमाणः
रुच् धातु और उसके अर्थ वाली अन्य धातुओं के योग में प्रसन्न होने वाला सम्प्रदान कहलाता है ।
उदाहरण-  मल्लाय घृतं रोचते। पहलवान को घी अच्छा लगता है। इस वाक्य में प्रसन्न होने (रुचने) वाला मल्ल है। इसकी सम्प्रदान संज्ञा होकर चतुर्थी विभक्ति हुई। अन्य उदाहरण देखें-
 धनिकेभ्यः रजतं रोचते। धनिकों को चांदी अच्छी लगती है।
विडालेभ्यः मूषकं रोचते। बिल्लियों को चूहा अच्छा लगता है।
मह्यं भक्तिः न रोचते। मुझे भक्ति अच्छी नहीं लगती है।
 (2) नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगाच्च  
नमः, स्वस्ति (कल्याण), स्वाहा, स्वधा (कल्याण), अलम् (समर्थ), वषट् (स्वाहा) शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
भवते नमः- आपको नमस्कार है।
तुभ्यं स्वस्ति- आपका कल्याण हो।
रामाय स्वाहा- राम को यह अर्पण है।

ध्यातव्य बातें- उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिर्बलीयसी नियम के अनुसार पद को लेकर दो विभक्ति होती है उससे क्रिया के सम्बन्ध के कारण होने वाली विभक्ति बलवान होती है। अतः मुनित्रयं नमस्कृत्य जैसे स्थान पर नमः के साथ करोति आदि क्रिया पद के योग होने से पद को केन्द्र में रखकर होने वाली चतुर्थी विभक्ति नहीं होती। यहाँ द्वितीया विभक्ति हो जाती है।
(3) क्रुधद्रुहेर्ष्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः
क्रुध= क्रोध करना, द्रुह = द्रोह करना,ईर्ष्या = ईर्ष्या करना, असूया = दूसरे के गुण में दोष निकालना, जलन करना इन धातुओं तथा इन धातुओं के समान अर्थ रखने वाले धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है।
उदाहरण-
माता पुत्राय क्रुध्यति।  इस वाक्य में माता पुत्र के ऊपक क्रोध करती है,अतः पुत्र की सम्प्रदान संज्ञा एवं चतुर्थी सम्प्रदाने से चतुर्थी विभक्ति होती है। इसी प्रकार नेता जनताभ्यः द्रुह्यति। कर्मचारिणः मह्यं ईर्ष्यति। चौराः रक्षकाय असूयति। 

परन्तु जब क्रुध और द्रुह धातु उपसर्ग के साथ होता है तब जिसके प्रति क्रोध या द्रोह किया जाता है, उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे- अध्यापकः शिष्यं अभिक्रुध्यति। यहाँ क्रुध के साथ अभि उपसर्ग लगे होने के कारण शिष्य में चतुर्थी विभक्ति नहीं होकर द्वितीया विभक्ति हुई।
(4)तादर्थ्ये चतुर्थी वाच्या (वार्तिक)
जिस प्रयोजन के लिए कोई कोई कार्य किया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।

शिशुः पठनाय गच्छति । 
छात्रः छात्रवृत्तये यतति। इन वाक्यों में शिशु और छात्र का जो प्रयोजन है पढ़ना, छात्रवृत्ति पाना। अतः इसमें  चतुर्थी विभक्ति हुई।
कुछ अन्य उदाहरण देखें। यहाँ चतुर्थी विभक्ति को मोटे अक्षर में प्रदर्शित किया गया है-

अध्यापकः छात्रेभ्यः मोदकानि यच्छति।

अध्यापकः जितेन्द्राय मोदकं यच्छति ।

अध्यापकः गणेशाय मोदके यच्छति।

अध्यापक: ज्येष्ठेभ्यः बालकेभ्यः मोदकानि यच्छति ।

ब्राह्मणेभ्यः मधुरं प्रियम् । भगवते विष्णवे नमः । मोहनाय आम्राणि रोचन्ते । मह्यं पायसं स्वदते। विप्राय धनं ददाति । मह्यं संस्कृतं रोचते ।  मह्यं चत्वारि फलानि देहि ।

(5) श्लाघह्नुङ्स्थाशपां ज्ञीप्स्यमानः

श्लाघृँ कत्थने - भ्वादिः ( प्रशंसा करना), ह्नुङ् अपनयने - अदादिः ( छिपाना), ष्ठा गतिनिवृत्तौ - भ्वादिः (ठहरना), तथा शपँ आक्रोशे - भ्वादिः ( उपालम्भ करना ) धातुओं के योग में जिसकी प्रशंसा आदि की जाय उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है। जैसे- गोपी कामात् कृष्णाय श्लाघते। नन्दिनी स्मरात् कृष्णाय श्लाघते, ह्रुते, तिष्ठते, शपते वा ।

अन्य नियमों की जानकारी के लिए व्याकरण की मूल पुस्तक अष्टाध्यायी या सिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन करें।

चतुर्थी विभक्ति का वाक्य में प्रयोग-

सः दरिद्राय धनं यच्छति । त्वं किं भिक्षुकाय भिक्षां यच्छसि? अहं तृषार्ताय जलं यच्छामि । माधवः क्षुधिताय भोजनं यच्छति । 


नोट- विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। यहाँ सभी विभक्तियों का अभ्यास दिया गया है। इसमें से चतुर्थी विभक्ति पर जाकर इसका अभ्यास करें। अधिक विस्तार के भय से यहाँ अभ्यास नहीं दिया जा रहा है।

 पाठ- 19   

5. अपादान कारक - पञ्चमी विभक्ति

सामान्य नियम
 अपादाने पञ्चमी
अपादान में पञ्चमी होती है।

(मुरारिः) ग्रामाद् आयाति।  यहाँ मुरारिः कर्ता तथा आयाति क्रिया है । मुरारि का गाँव से अलगाव हो रहा है । गाँव से अलगाव होने के कारण गाँव ध्रुव (स्थिर) हैअतः ग्राम की ध्रुवमपायेऽपादानम् से अपादानसंज्ञा और अपादाने पञ्चमी से उसमें पञ्चमी विभक्ति हुई- मुरारिः ग्रामादायाति। ग्रामाद् आयाति = गांव से आता है।
(अश्वारोही) धावतः अश्वात् पतति। इस वाक्य में दौड़ता हुआ घोड़ा ध्रुव है। यहाँ दौड़ते  हुए घोड़े से अलगाव हो रहा हैअतः अश्व की अपादानसंज्ञा और पञ्चमी विभक्ति होकर अश्वात् हुआ। धावत् यह शतृ प्रत्ययान्त शब्द अश्वात् का विशेषण है अतः धावत् में भी पञ्चमी है। (अश्वारोही) धावतोऽश्वात् पतति = घुड़सवार दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है।
अपाय, विश्लेष, विलगाव, पृथक् होना, अलग होना समानार्थी हैं। जिस किसी सुनिश्चित व्यक्ति या स्थान से अलग हुआ जाता है, वह अपादान कहलाता है। जैसे- साइकिल से गिरता है। इसमें साइकिल अपादान है। जो अपादान होता है, उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। 
उदाहरण-
 बालकः द्विचक्रिकात् पतति। छात्राः कक्षेभ्यः बहिः आगच्छन्ति ।ते विद्यालयात् गृहं गच्छन्ति । वृक्षेभ्यः पत्राणि पतन्ति । आकाशात् जलम् पतति । सुदेशः भ्रमणाय गृहात् गच्छति ।

विशेष नियम

1. भीत्रार्थानां भयहेतुः

भयार्थक (जिससे डर मालूम हो) और त्राणार्थक (जिससे भय के कारण रक्षा करनी हो), उस कारक की अपादान संज्ञा होती है।

उदाहरण- बिडालात् विभेति। इसमें बिडाल से डरता है। 
2. आख्यतोपयोगे
जिनसे नियम पूर्वक विद्या ली जाती है, वह अपादान होता है।
जैसे-  विद्यालये गुरोः अधीते। 
नोट- विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। यहाँ सभी विभक्तियों का अभ्यास दिया गया है। इसमें से अपादान  विभक्ति पर जाकर इसका अभ्यास करें। अधिक विस्तार के भय से यहाँ अभ्यास नहीं दिया जा रहा है।

6. अधिकरण कारक - सप्तमी विभक्ति

सामान्य नियम
आधारोऽधिकरणम् । सप्तम्याधिकरणे च
क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। आधार तीन प्रकार के होते हैं।
1.    जिसके साथ आधेय का भौतिक सम्बन्ध बना हुआ हो, औपश्लेषिक आधार कहा जाता है।
2.   जिसके साथ आधेय का बौद्धिक सम्बन्ध बना हुआ हो, वैषयिक आधार कहा जाता है।
3.    जिसके साथ आधेय का व्याप्य- व्यापकभाव सम्बन्ध बना हुआ हो, अभिव्यापक आधार कहा जाता है।
उदाहरण-  
वानरः वृक्षे निवसति- औपश्लेषिक आधार का उदाहरण है। 
मम अध्ययने रूचिः अस्ति- यहाँ वैषयिक आधार है। 
पुस्तके अक्षराणि सन्ति - व्याप्य- व्यापकभाव रूपी आधार है।
उदाहरण-

मम मनसि सन्देहः वर्तते । नदीषु गङ्गा पवित्रतमा अस्ति । जीवने किमपि असाध्यं कार्यं नास्ति । भवत्सु कः कर्मवीरः वयं लोके निवसामः ।

सप्तमी विभक्ति का वाक्य में प्रयोग करें-

अहम् औषधालये वसामि । अहं भोजनालये खादामि । अहं विद्यालये पठामि । सः कार्यालये तिष्ठति । सः तत्रैव खादति । सः आपणे न खादति । सः भाट्यावासे न वसति । 

संस्कृत में उत्तर लिखें- त्वं कुत्र वससि ? त्वं कुत्र खादसि ? त्वं कुत्र पठसि ? तिष्ठति ? सः कुत्र खादति ? सः कुत्र वसति ? सः दीननाथः कुत्र गच्छति ? पुलिनेषु कः विहसति ?

नोट- विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। यहाँ सभी विभक्तियों का अभ्यास दिया गया है। इसमें से विभक्ति पर जाकर इसका अभ्यास करें। अधिक विस्तार के भय से यहाँ अभ्यास नहीं दिया जा रहा है।

 पाठ- 20   

षष्ठी विभक्ति- 

शेषे षष्ठी -  कारक के अतिरिक्त स्व स्वामी आदि संबंधों में षष्ठी विभक्ति होती है। 
क्रिया के साथ साक्षात् सम्बन्ध नहीं होने के कारण षष्ठी विभक्ति को कारक नहीं माना जाता है। संबंधों दो के बीच में होता है ।यह विभक्ति प्रायशः एक संज्ञा शब्द का दूसरे संज्ञा शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित करता है।  यह संबंध अनेक प्रकार का होता है जैसे पिता पुत्र के बीच जन्य जनक भाव संबंध,  दो पदार्थों के बीच प्रकृति विकृति भाव संबंध,  कार्य कारण भाव संबंध,स्व स्वामी भाव संबंध आदि। 
यह षष्ठी विभक्ति जिसका संबंध होगा, उसमें होती है जैसे देवदत्तस्य पुत्रः यज्ञदत्तः अस्ति। इस वाक्य में देवदत्त का सम्बन्ध यज्ञदत्त से है अतः देवदत्त में षष्ठी विभक्ति हुई।

उदाहरण- 

मोहनः उद्यानस्य शोभां पश्यति । उद्यानस्य वातावरणं सुगन्धमयं भवति । मोहनस्य द्वे मित्रे स्तः । एतेषां बालकानां गृहेषु गावः सन्ति । एषः मोहनस्य अश्वः अस्ति । एतस्य अश्वः श्वेतः अस्ति । महाराजस्य आज्ञा पालनीया । नेहा मम मित्रम् अस्ति । भवान् मम मित्रम् अस्ति । दशरथः रामस्य पिता आसीत् ।दशरथस्य चत्वारः पुत्राः आसन् । अभिज्ञानशाकुन्तलस्य लेखकः कालिदासः आसीत् । 

विशेष नियम

 जहां पर कर्म आदि कारकों की अविवक्षा तथा संबंध मात्र की विवक्षा हो वहां षष्ठी विभक्ति होती है। विवक्षा = बोलने की इच्छा । जैसे शतां गतं वाक्य में गम् धातु से नपुंसकत्व विशिष्ट भाव में क्त प्रत्यय हुआ । भाव में क्त होने से  तृतीया विभक्ति होकर शतेन गतम् वाक्य  होना चाहिए था परंतु इस वाक्य में तृतीया विभक्ति की अविवक्षा है और संबंध मात्र की विवक्षा होने से षष्ठी विभक्ति होती है। सम्बन्ध को विशेष रूप से प्रदर्शित करना चाहता है ।  इसे एक अन्य उदाहरण के द्वारा और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। मोहनः सर्पिषो जानीते में सर्पिषः में षष्ठी विभक्ति है। वाक्य होना चाहिए सर्पिषा जानीते / भुंक्ते ।  मोहन को भूख तो लगी है लेकिन वह खा नहीं रहा है। जब उसे घी देने की लालच दी जाती है तो वह खाने को तैयार हो जाता है।  मोहन को अन्य खाद्य पदार्थ से सम्बन्ध नहीं है बल्कि घी से संबंध है, जिसके कारण वह भोजन करने को तैयार हो गया ।अतः भी सर्पष् में षष्ठी विभक्ति हो जाती है।
कर्तृकर्मणोः कृतिः  सूत्र से ज्ञात होता है कि षष्ठी भी कारक है। कृदन्त के योग में कर्ता एवं  कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
इसके अतिरिक्त कृत्यानां कर्तरि वा, यतश्च निर्धारणे, नित्यपर्याय प्रयोगे सर्वासां विभक्तिदर्शनम् सूत्र को भी देखना चाहिए ।

षष्ठी विभक्ति का वाक्य में प्रयोग-

कृष्णस्य वर्णः श्यामः अस्ति । मम देहस्य वर्णोऽपि श्यामः अस्ति । तस्य देहस्य वर्ण: कः अस्ति ? — श्यामः वा गौर: वा ? अस्य देहस्य वर्णः ताम्रः अस्ति । तव केशस्य रङ्गः कृष्णः अस्ति । अस्माकं विद्यालयस्य नाम संस्कृतशिक्षणपाठशाला अस्ति । युष्माकं विद्यालयस्य नाम किम् अस्ति ? तेषां विद्यालयस्य नाम किम् अस्ति ? एतेषां विद्यालयस्य नाम किम्  अस्ति? युष्माकं संस्कृतशिक्षकस्य नाम किम् अस्ति ?


नोट- विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। यहाँ सभी विभक्तियों का अभ्यास दिया गया है। इसमें से चतुर्थी विभक्ति पर जाकर इसका अभ्यास करें। अधिक विस्तार के भय से यहाँ अभ्यास नहीं दिया जा रहा है।

 उपपद विभक्ति-  नमः, स्वस्ति, प्रति, सह, विना आदि शब्द पद कहे जाते हैं। कारक प्रकरण में कुछ विभक्तियां पदों के कारण निर्धारित होती है। यथा नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। सह के योग में तृतीया विभक्ति होती है। यदि किसी विभक्ति में पद तथा कारक दोनों विभक्ति प्राप्त हो तो कारक विभक्ति होती है। पदमाश्रित्योत्पन्नाविभक्तिः उपपदविभक्तिः। क्रियामाश्रित्योत्पन्ना विभक्तिः  कारकविभक्तिः। उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिः वलीयसी।

 अभ्यास के लिए  विभक्ति अभ्यास पर चटका लगायें। कारक, सन्धि, तिङन्त, कृदन्त शब्दों का विश्लेषण, निर्माण पदों को आपस में मिलाने परिचय आदि विभिन्न कार्यों के लिए संसाधनी पर क्लिक करें। इसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय द्वारा तैयार किया गया। 
  पाठ- 21    

विशेष्य और विशेषण पर विचार

यल्लिंगं यद्वचनं या च विभक्तिर्विशेषस्य ।
तल्लिंगं तद्वचनं सैव विभक्तिर्विशेषणस्यापि ॥

विशेष्यस्य हि यल्लिङ्गं विभक्तिर्वचनञ्च यत् ।

तानि सर्वाणि योज्यानि विशेषणपदेष्वपि ।। 


1. जो लिंग, वचन और विभक्ति विशेष्य में होती है, वही लिंग, वचन और विभक्ति विशेषण में भी होगा।
विशेषण की परिभाषा- जो विशेष्य की विशेषता बताता है, उसे विशेषण कहते हैं। अर्थात् जिसके द्वारा विशेष्य को दूसरे पदार्थ से अलग किया जाता है उसे विशेषण तथा जो अलग किया जाता है वह विशेष्य है।
  • जिसका क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध होता है वह प्रधान होता है। किसी भी वाक्य में विशेषण गौण या अप्रधान होता है और विशेष्य प्रधान। विशेषण का क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। 
  • विशेष्य और विशेषण में समानाधिकरण होता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि के शब्दों में न ह्युपाधेरुपाधिर्भवति, न विशेषणस्य विशेषणम् अर्थात् विशेषण का विशेषण नहीं होता। 
  • आपने पाठ 2 के विशेषण शीर्षक में संख्यावाची शब्दों के बारे में अधिक जानने के लिए चटका लगाकर पढ़ा होगा कि 1 से 18 तक की संख्या केवल विशेषण के रूप में, 20 से लेकर आगे की संख्या विशेष्य तथा विशेषण दोनों में प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार उनका लिंग और वचन भी जान लिया होगा।
  • विशेषणों का रूप लगभग विशेष्य के अनुसार होते हैं, क्योंकि इनके लिंग में भी परिवर्तन हो जाता है। पाठ 2 सर्वनाम शीर्षक में आपने पढ़ा है कि इदम् , एतद् , तद्, अदस्, यद्, किम् सर्वनाम का प्रयोग विशेषण अर्थ में भी होता है। 
  • किम् शब्द में अपि, चित् एवं चन् प्रत्यय लगकर अनिश्चयवाचक सर्वनाम  एवं किम् को छोड़कर शेष सर्वनाम में एव लगाकर निश्चयवाचक सर्वनाम बनाया जाता है। यह भी विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है।
  • परिणाम वाची अल्प, अर्ध आदि शब्दों तथा अन्य सर्वनाम पदों में वतुप् आदि अनेक प्रकार के प्रत्यय लगते हैं। वे भी विशेषण होते हैं। उन विशेष शिक्षण सामग्री को अन्यत्र भी दी जाएगी।
  • यदि किसी वाक्य में कोई विशेष्य पुंल्लिङ्ग हो और कोई स्त्रीलिङ्ग तो उनका साधारण विशेषण पुंल्लिङ्ग होगा और विशेष्य पदों की संख्या के अनुसार विशेषण का वचन होगा जैसे:– “सीता और राम सुन्दर हैं” – “सीता रामश्च सुन्दरौ । इस वाक्य में दो विशेष्य पद है। राम पुंल्लिङ्ग है और सीता स्त्रीलिङ्ग। इसलिए विशेषण पुंल्लिङ्ग का द्विवचन हुआ। इसी तरह पिता-माता च आगतौ"। उसकी नासिका तथा कान देखने में सुन्दर हैं- "सुदृश्याः तस्य नासिका कर्णौ च" इत्यादि ।
  • यदि वाक्यस्थ विशेष्य पदों में एक विशेष्य का लिङ्ग नपुंसक है तो इन विशेष्य पदों के विशेषण का लिङ्ग नपुंसक होगा और विशेष्य पदों के अनुसार उसका वचन अथवा एकवचन होगा। 
  • जैसेः - 
  1. सुन्दराणि (सुन्दरं वा) तस्य पिता माता कलत्रञ्च। 
  2. नदी और जल सुन्दर हैं" - "सुन्दरे (सुन्दरं वा) नदी जलञ्च। 
  3. उसके हाथ और मन कोमल हैं” । कोमलानि (कोमलं वा) तस्य हस्तौ मनश्च। 
  4. भारतवर्ष में नदी, जंगल और सागर वर्तमान हैं- "भारतवर्षे वर्तमानानि (वर्तमानं वा) नदी वनं सागरश्च" । तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता । एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन ॥” 

  • कभी कभी "क्रिया विशेषण" संस्कृत में अनुवाद - करते समय विशेष्य का विशेषण हो जाता है। जैसेः "उसने हाथ जोड़ कर निवेदन किया" - "स कृताञ्जलिपुटः निवेदयामास। यहां पर कृताञ्जलिपुटःयह पद सः" इस पद का विशेषण है न कि निवेदयामास" इस क्रियापद का। इसी तरह उसने आश्चर्य से देखा - "सः सविस्मयः अपश्यत्इत्यादि ।
  • अव्यय पद का विशेषण एकवचनान्त और नपुंसक लिङ्ग होता है। जैसेः- शोभनं प्रातःमिथ्या न वक्तव्यम्इत्यादि ।
  • अधिक स्थानों में विशेषण निकटवर्ती विशेष्य के अनुसार लिंग, विभक्ति, तथा वचन वाला होता है। यथा- यस्य वीर्येण कृतिनो वयं च भुवनानि च।

अजहल्लिङ्ग विशेषण।

अर्थात् ये "अजहल्लिङ्ग विशेषण" हैं । जो शब्द समूह विशेषण रूप से प्रयुक्त होते हुए भी विशेष्य का समान लिङ्ग प्राप्त नहीं होता है उन्हें अजहल्लिङ्ग विशेषण कहते हैं ( न जहाति लिङ्गं यत्तद् अजहल्लिङ्गम् )

    पद, भाजन प्रभृति कितने ही विशेष्य पद कहीं कहीं विशेषण भाव से प्रयुक्त होते हैं; इन्हें अजहल्लिङ्ग विशेषण कहते हैं। साधारणतया इस शब्द समुदाय के आगे स्वरूप कौन”, ऐसा प्रश्न करने से उत्तर में जो विशेष्य पद आये, वही इस "अजहल्लिङ्ग विशेषण" का विशेष्य है। अधिकांश विशेष्य पद ही अजहल्लिङ्ग विशेषण भाव से व्यवहृत होते हैं। जैसे:-  जैसेः-राम मेरा स्नेह-भाजन है, “रामो मे स्नेहभाजनम्। यहां मेरा स्नेह-भाजन स्वरूप कौन" ? ऐसा प्रश्न करने से "राम" यह विशेष्य पद उत्तर में आता है, इसलिए यहां राम विशेष्य तथा स्नेहभाजन अजहल्लिङ्ग विशेषण हुआ। इसने अपना लिङ्ग नहीं छोड़ा । इसका जो लिङ्ग था वही है। राम विशेष्य के अनुसार इसका लिङ्ग नहीं बदला, इसी तरह 'आस्पद' 'भाजन' प्रभृति अजहल्लिङ्ग विशेषण, वास्तविक 'विशेष्य' पद के लिङ्ग से भिन्न होते हुए भी, अपने लिङ्ग का परित्याग नहीं करते हैं । जैसेः- गुरुजनभक्ति भाजन- "गुरुजना: भक्तिभाजनम्" मेरी माता दया की आधार है; "दयाधारो मे जननी" । यह मुख एक दूसरा चन्द्र है- "मुखमिदं द्वितीयश्चन्द्रः" । राजा धृतराष्ट्र मूल है- "मूलं राजा धृतराष्ट्रः" । स्नेहास्पद सीता के दुःख से प्रत्येक दुःखी हुआ- "स्नेहास्पदस्य सीतायाः दुःखेन सर्वे दुःखिताः" । 

विशेष्य विशेषण का उदाहरण-

लिङ्ग का उदाहरण - सः इमां स्त्रीं पश्यति । नदीषु गङ्गा पवित्रतमा अस्ति । तव गृहम् उत्तमम् अस्ति । इदं नगरम् अतिसुन्दरम् अस्ति । "बलवान सिंहः । "बलवती क्षुधा"। महद् दुःखम् । 

वचन का उदाहरण- "महान पुरुषः"; महान्तौ पुरुषो”; "महान्तः पुरुषाः। 

विभक्ति का उदाहरण -" "दुरात्मा राबणःदुरात्मना रावणेन"। दुरात्मनि रावणे" ।

 सर्वनामवाची 'इदम् और 'एतद्' के लिए विशेष नियम।

जिसके विषय में एक बार कुछ कहा जा चुका है और अब फिर उसी के विषय में कुछ कहा जाये तो वह अन्वादेश (पुनरुक्ति ) कहलाता है । इस 'अन्वादेश' कहते हैं। में वर्तमान, 'इदम् और 'एतद्' शब्द के स्थान में द्वितीया विभक्ति के सब वचन, तृतीया के एकवचन और पष्ठी तथा सप्तमी के द्विवचन में विकल्प से 'एन' आदेश हो जाता है। जैसेः- "यह बालक बुद्धिमान है, इसे वेद पढ़ाओ; “एषः बालकः बुद्धिमान्, एनं वेदम् अध्यापय


  पाठ- 22  

अव्यय पर विचार

अब तक आपने जाना कि शब्द दो प्रकार के होते हैं- विकारी तथा अविकारी। विकारी शब्दों में संज्ञा, सर्वनाम विशेषण तथा क्रिया आते हैं। अविकारी शब्दों में क्रिया विशेषण, उपसर्ग, निपात, संयोजक, विस्मय सूचक शब्द आते हैं। विकारी शब्द वे हैं जिनके रूप, लिंग, वचन आदि में विकार (परिवर्तन) होता रहता है। अविकारी अर्थात् दिसमें परिवर्तन नहीं होता है। वे अव्यय शब्द है। अव्यय शब्द तीनों लिंगों, तीनों वचनों, सभी व्यक्तियों में एक जैसे रहते हैं। अब आगे- 
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि जिसके स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता, उसे अव्यय कहते हैं। इसे अविकारी कहा जाता है, क्योंकि इसके मूल रूप में लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल इत्यादि के कारण कोई विकार उत्पत्र नहीं होता। च, वा, ह, एव अव्ययों का प्रयोग वाक्य के आरम्भ में नहीं होता है। 
          जो लोग कहते हैं कि संस्कृत में किसी पद को कहीं भी रखा जा सकता है अथवा रखने से अर्थ परिवर्तन नहीं होता है, उसे अव्यय प्रकरण को भली-भाँति पढ़ना चाहिए। उदाहरण के लिए अथ इस अव्यय को लें। इसे मंगल सूचक, उसके बाद और तब, प्रश्न पूछने, और तथा भी, सम्पूर्ण एवं सब अर्थ में, यदि ऐसा मानने पर, सन्देह, अनिश्चय, अथवा आदि अर्थ में प्रयुक्त होता है। अलग- अलग अर्थ में प्रयोग के लिए इसके स्थान का भी निर्धारण होता है कि यह वाक्य के आरम्भ में लगेगा या मध्य में अथवा किसी अन्य शब्द के साथ जुड़कर। और तथा भी अर्थ में प्रयुक्त अथ शब्द का प्रयोग देखें। संस्कृतमथ हिन्दीं पठामि। यदि इसे अथ संस्कृतं हिन्दीं पठामि बोला या लिखा जाय तो अर्थ परिवर्तित हो जाएगा। हम मिश्रित वाक्य के अध्याय में इस प्रकार के शब्दों पर विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगें। 

अव्ययों की पहचान

1. प्रादि गण में आये शब्द अव्यय होते हैं।
2. चादिगण में कहे गये शब्द अव्यय होते हैं । इसे निपात भी कहा जाता है। यदि ये चादि के शब्द असत्व =  द्रव्य/ वस्तु नहीं हो तो। जैसे- पशु के दो अर्थ होते हैं (क) चौपाया जानवर, (ख) अच्छी तरह । द्रव्य वाचक चौपाया जानवर अव्यय नहीं होगा। चादि को आकृति से भी पहचाना जा सकता है कि इसका प्रयोग अव्यय के रूप में हुआ है या नहीं। 
3. कृदन्त के मकारान्त तथा एजन्त प्रत्यय जिसके अंत में हो वह अव्यय होता है। कृदन्त में णमुल्, खमुञ्, तुमुन् तथा कमुल् ये चार प्रत्यय मान्त होते है। जैसे- णमुल् (अम्) से बना ध्यायं ध्यायं,  खमुञ् (अम्) से बना चोरङ्कारम् , तुमुन् (तुम्) से बना पठितुम् । कमुल् का प्रयोग वेद में होता है। एजन्त प्रत्ययों का भी प्रयोग वेद में ही होता है।
4. क्त्वा, तोसुन् और कसुन् प्रत्यय जिसके अंत में हो वह शब्द अव्यय होता है। लोक में केवल क्त्वा का प्रयोग होता है। उदाहरण- क्त्वा से कृत्वा आदि, तोसुन् से उदेतोः (उदय होने तक) आदि ।
5. अव्ययीभाव समास वाले शब्द अव्यय होते है।
6. चित् और चन ये दोनों निपात किम् शब्द के विभक्तियों अंत में में जुड़कर अनिश्चिचितता को प्रकट करते हैं।
7. स्वर आदि शब्द तथा निपात अव्यय होते है। इसके कुछ प्रचलित शब्द नीचे दिये गये हैं 
 इस  अव्यय का शाब्दिक अर्थ है- 'जो व्यय न हो।
              सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु ।
               वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥
इनके भेद सहित उदाहरण अधोलिखित हैं-
1. क्रिया विशेषण  -  दूरम्, दूरेण, अत्र, तत्र, परितः, चिरं, चिरेण आदि
2. उपसर्ग     -    प्र, परा, अप आदि 22 उपसर्ग, ये धातुओं से पहले जुड़कर धातु के अर्थ को बदल देते हैं।
3. निपात    -    खलु, नु, किल,किन्तु आदि। ये अर्थ पर बल देते हैं।       
4संयोजक -    च, वा, अथ जैसे अव्यय दो शब्दों को जोड़ने का काम करते हैं।                        
5. विस्मय सूचक- हा, हन्त, हे, भो, अहो आदि विस्मय या मन के विकार को सूचित करते हैं।         
6. प्रकीर्ण- उपर्युक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य अव्यय गति, समय, स्थान, अवस्था ,दिशा आदि का संकेत देते हैं। जैसे- अद्य, ऊच्चैः, यावत् आदि।


अकस्मात् - अचानक
किञ्च - और


अग्रतः - आगे / सामने
किमिति- किस कारण से

इत्थम् -  इस प्रकार
अग्रे  -   पहले
किमुत -  कहना ही क्या
परम् -  परन्तु
किन्तु -  लेकिन
अचिरम् - शीघ्र
किम् -  क्यों / क्या
परश्वः -  परसों
किल -  सचमुच
अजस्रम् -  निरन्तर
कु -  बुरा
परितः – चारों ओर
क्वचित् -  कहीं
अतः - इसलिए
कुतः -  कहाँ से
पुनः -  फिर
अलम् –व्यर्थ, समर्थ
अत्र -   यहां
कुत्र -  कहां
पुरा -  प्राचीन काल में
इति- यह, क्योंकि  
अथ इसके बाद
क्व - कहाँ
बहुधा -  बहुत प्रकार से
इत्थम् – इस प्रकार  
अथवा -  या
खलु इस प्रकार, निश्चय से
पृथक् -  अलग

एव - ही

अद्य - आज
च - और
प्रत्युत -  के विपरीत

एवम् – इस प्रकार

अधः - नीचे
चिरम् -  देर तक
प्रातः - सबेरे
उपरि – ऊपर 
अधुना अब
चिरात् बहुत दिनों में
प्रायः - हमेशा
किल – वास्तव में, सम्भावना
अनिशम्- निरन्तर
जातु कभी भी
भूयः बार- बार
पुरा - पहले
अन्तरा -  बीच में
झटिति -  शीघ्र
मा -  मत

अन्तरेण - विना
तत्र  -  वहां
मुधा -  व्यर्थ में

अन्यत्र दूसरी जगह
तथा -  तैसे
यत्र -  जहाँ

अन्यथा- दूसरे प्रकार से
तथापि - फिर भी
यत्र -  जहाँ

अपरेद्युः दूसरे दिन
तदा -  तब
यथा -  जैसे

अपि - भी
तर्हि तब, तो
यदा -  जब

अवश्यम् - जरूर/अवश्य
ततः – तब, इसके बाद
युगपत् - एक साथ

आम् - हाँ (स्वीकारोक्ति)
तावत् – तब तक
वा -   या / विकल्प

इव -  समान / सदृश
तिरः, तिर्यक् -  तिरछे
विना -  बिना /बगैर

इह -  यहाँ

वृथा -  व्यर्थ

ईषत् -  कुछ, थोड़ा
तु -  लेकिन,तो
शनैः -  धीरे

उच्चैः - ऊँचा
तूष्णीम् -  चुप
शीघ्रम् -  जल्दी

उत -  अथवा

श्वः - आने वाला कल

उभयतः दोनों ओर
धिक् -  धिक्कार
सपदि -  शीघ्र

उषा -  सुबह/ प्रातः

सम्प्रति - अब

ऋते - विना
न -  नहीं
सह -  के साथ

एकत्र एक जगह
नमः -  नमस्कार
साकम्/सार्धम् - के साथ

एकदा एक बार
निकषा - निकट
साक्षात् -  सामने

ओम् -  स्वीकार करना
नीचैः - नीचे
सु- अच्छा/अच्छी तरह

कथम् - कैसे
नूनम् - अवश्य
सुष्ठु -  अच्छा / ठीक

कदा -  कब
नो - नहीं
सदा -  हमेशा

कदापि -  कभी भी
नोचेत् - यदि नहीं तो



















































उदाहरण-
यदा मोहनः भ्रमणाय गृहात् गच्छति, तदा अश्वः अपि गच्छति । तत्र मोहनः धावति। यत्र ते गच्छन्ति, अश्वः अपि तत्र गच्छति। त्वं कुत्र गच्छसि? त्वं किं पठसि ? युवां कुत्र गच्छथः ?

1. दो शब्दों को जोड़कर वाक्य बनाने के लिए "और" "तथाइत्यादि संयोजक अव्ययों के स्थान पर '' अथवा 'आप' का प्रयोग किया जाता है। जैसे- "रामः श्यामश्च तत्रागच्छताम्" ।  

2. संस्कृत में च, तथा के योग से बनने वाले दोनों शब्दों की एक ही विभक्ति होती है । इसलिए 'राम और श्याम का' इसकी संस्कृत होगी रामस्य श्यामस्य च" ।

3. उपमा दिखाने के लिए यथा" "इव" इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 3. उपमा के दो अंश होते हैं, उपमान और उपमेय । जैसेः "चन्द्र इव मुखं” “पद्ममिव करः" । जिसके साथ तुलना की जाती है उसे उपमान कहते हैं, जैसे:- चन्द्र, पद्म इत्यादि । जिसकी तुलना की जाती है वह उपमेय होता है अर्थात् जिस शब्द के पीछे 'तरह' 'समान' इत्यादि पदों का प्रयोग किया जा सकता है वह उपमान होता है। जिसका सम्बन्ध क्रिया के साथ होता है पद की जो विभक्ति हो, वही विभक्ति उपमान पद की होती है। इसी प्रकार विशेषण के लिङ्ग विभक्ति तथा वचन उपमेय के लिङ्ग और विभक्ति तथा वचन के अनुसार होते हैं । जैसेःमुँह चन्द्रमा के समान सुन्दर है" । इस उदाहरण में 'मुख' और 'चन्द्र' इन दोनों पदों की विभक्ति प्रथमा है। इसी प्रकार 'मनोहर' इस विशेषण पद के लिङ्ग विभक्ति और वचन उपमेय मुखम्' के अनुसार हैं । इसलिए उसका अनुवाद है मुखं चन्द्र इव मनोहरम्

अनुवाद देखें- 

" वह हरि के समान के पण्डित है"; "स हरिरिव पण्डितःवह राम के सदृश एक बालक को प्यार करता है"; तरह स राममिव कश्चित् बालकमाद्रियतेमैं प्रतिदिन हरि के समान एक बालक के साथ घूमने जाता हूँ"; "अहं प्रत्यहं हरिणा इव केनचिद् बालकेन बालकेन सह भ्राम्यामि"। "शिक्षक मेरे समान एक दरिद्रबालक को पुस्तकें देता है”; “शिक्षकः मह्यमिव एकस्मै दरिद्राय बालकाय पुस्तकानि ददाति "राम पहाड़ के समान ऊँचे पेड़ से गिर पड़ा"; "रामः पर्वतात् इव उन्नतात् कुतश्चिद् वृक्षात् पतितः। तुम्हारे जैसे बालक की उन्नति नहीं होगी"; "तव इव बालकस्य उन्नतिर्न भविष्यति ।

अधोलिखित वाक्य का संस्कृत में अनुवाद करें

1. हरि का मन पत्थर जैसा है । 2. अतिथि को भगवान् की तरह समझो । 3.. श्याम की तरह लोगों ने यह किया । 4. उस जैसे शिष्ट बालक को राम प्रतिदिन चित्र देते हैं । 5. मैं शेर की तरह भानु से डरता हूं । 6. उसकी तरह मेरी उन्नति हो । 7. मैं पुत्र की तरह स्नेह करता हूँ । 

4. 'एव' निश्चयार्थक (अवधारणार्थक) अव्यय है । जिस के साथ इसका सम्बन्ध होता है; यह उसके अर्थ में निश्चय का ज्ञान कराता है । यह 'इव' की तरह उपमावाचक नहीं है । जैसेः– “राम ही दयालु है" "राम एव दयालुः" यहां "राम इव दयालुःयह नहीं हो सकता।

5. 'एव' और 'अपि' ये दोनों अव्यय विशेष के बाद और विशेष्य के पहले प्रयुक्त होते हैं। जैसे:- इसी नगर में राम रहता है" - "अस्मिन्नेव नगरे रामो वसति"आज कल प्रत्येक गांव में समाचारपत्र देखा जा सकता है" - "साम्प्रतं सर्वस्मिन्नेव ग्रामे संवादपत्रं दृश्यते" । "सोऽपि अमुना सह क्रोडति" ।यद्ययं केनाप्युपायेन म्रियते

6. यदि वाक्य के द्वारा प्रश्न पूछना हो तो वाक्य के आरम्भ में 'अपि' या 'किम्' लगाया जाता है। जैसे:- क्या वह देखा गया है ?" "अपि दृष्टोऽसौ ?" “क्या वह अब तक जीवित है ? " - "अपि स साम्प्रतमपि जीवति ?" 'क्या हमारे गुरुजन सकुशल हैं ?” “अपि कुशलिनः मे गुरुजनाः ?'  "ये ही क्या महात्मा विश्वामित्र हैं ?" “किमयं महात्मा विश्वामित्र: ?” "क्या तुम्हारी माता ही गृह के सम्पूर्ण कार्यों को देखती है ?” “अपि ते माता एव गृहस्य सर्वं कार्यं पश्यति ?"

अधोलिखित वाक्य को संस्कृत में अनुवाद करें-

1. वह क्या मुझ से स्नेह करता है ? 2. ये ही क्या भगवती वासंती है ! 2. इसी श्राश्रम में क्या महर्षि बाल्मीकि रहते हैं ? 3. ये ही क्या गोदावरी नदी है ? 4. इन्हीं का नाम क्या राजा दुष्यन्त है

इस प्रकरण में इस विषय पर विस्तारित सूची उपलब्ध कराने से विषय बोझिल हो जाएगा। अतः एक दूसरे पोस्ट में 
विस्तारपूर्वक लिखा जा रहा है। आप अव्ययों का अभ्यास पर चटका लगाकर वहाँ तक पहुँचें।

  पाठ- 23    

उपर्युक्त नियमों को जानने तथा अभ्यास करने के बाद अधोलिखित अशुद्ध तथा शुद्ध वाक्य को देखें। जिन कारणों से वाक्य को अशुद्ध कहा गया, उन कारणों को खोजें।

अशुद्ध वाक्य

शुद्ध वाक्य

अयम् तपस्या करोति ।

अयं तपस्यां करोति ।

अयं मम लेखनी सन्ति ।

इयं मम लेखनी अस्ति ।

अयं पुस्तक मम अस्ति ।

इदं पुस्तकं मम अस्ति ।

अलं विवादात् ।

अलं विवादेन ।

असौ कर्णात् वधिरः वर्तते ।

असौ कर्णेन वधिरः वर्तते ।


अहं गच्छति ।

अहं गच्छामि ।

अहम् अत्र स्थामि ।

अहम् अत्र तिष्ठामि ।

आकाशे चन्द्रम् शोभते ।

आकाशे चन्द्रः शोभते ।

आगच्छ भवान्।

आगच्छतु भवान् ।

आत्मा अमरा भवति ।

आत्मा अमरः भवति ।

सुदर्शनस्य नाम राजा आसीत्

सुदर्शनो नाम राजा आसीत् ।

एष पुस्तकम् अस्ति ।

एतत् पुस्तकम् अस्ति ।

ऐक्यः हि बलः ।

ऐक्यं हि बलम् ।

इदं वायुः वहति ।

अयं वायुः वहति ।

इदं विशाला नाम नगरम् ।

इयं विशाला नाम नगरी |

इदं समुद्रम् अस्ति ।

अयं समुद्रः अस्ति । 

इयम् पुस्तकम् अस्ति ।

इदं पुस्तकम् अस्ति । 

इयं वस्तु मम अस्ति ।

इदं वस्तु मम अस्ति ।

इयं शकुन्तला सीता च सन्ति ।

इयं शकुन्तला सीता च स्तः ।

एते तस्य पुस्तकाः अस्ति ।

एतानि तस्य पुस्तकानि सन्ति ।

एते विद्यालय: सन्ति ।

एषः विद्यालयः अस्ति ।

कण्टकात् एव कण्टकम् ।

कण्टकेनैव कण्टकम् ।

कृष्णस्य सर्वतः गोपाः सन्ति ।

कृष्णं सर्वतः गोपाः सन्ति ।

के आगच्छति

के आगच्छन्ति ?

को अर्थः कुपुत्रात् ।

कोऽर्थः कुपुत्रेण ?

गुरून् नमः ।

गुरवे नमः ।

गुरुः शिष्ये क्रुध्यति ।

गुरुः शिष्याय क्रुध्यति ।

ग्रामतः कियत् छात्राः आयातः ।

ग्रामतः कियन्तः छात्राः आयान्ति ।

ग्रामस्य उभयतः नदी वहति ।

ग्रामम् उभयतः नद्यो वहतः ।

ग्रामस्य निकषा नदी वहन्ति ।

ग्रामं निकषा नदी वहति ।

चत्वारः प्रश्नान् उत्तरं देहि ।

चतुर्णां प्रश्नानाम् उत्तरं देहि ।

चत्वारः स्त्रियः आगच्छन्ति

चतस्रः स्त्रियः आगच्छन्ति । 

चत्वारि बालिकाः गच्छन्ति ।

चतस्रः बालिकाः गच्छन्ति ।

छात्रौ आगच्छति ।

छात्रौ आगच्छतः ।

छात्राः शिक्षकेन संस्कृतं पठन्ति ।

छात्राः शिक्षकात् संस्कृतं पठन्ति ।

छात्रेभ्यः गुरुः नमस्करोति ।

छात्राः गुरुं नमस्कुर्वन्ति ।

ज्ञानस्य विना जीवनं विफलम् ।

ज्ञानं विना जीवनं विफलम् ।

ज्ञानस्य समं न हि कश्चित् !

ज्ञानेन समं न हि किञ्चित् । 

तत् अबला कुत्र गच्छति ।

सा अबला कुत्र गच्छति ?

ततः तपस्विनाः आयाति ।

ततः तपस्विनः आयान्ति ।

तम् पुस्तकं देहि ।

तस्मै पुस्तकं देहि ।

त्वाम् कुशलं भूयात् ।

तुभ्यं कुशलं भूयात् ।

तस्य पत्नी कर्कशः वर्तते ।

तस्य पत्नी कर्कशा वर्तते ।

तस्य पुत्री मेघावी असि ।

तस्य पुत्री मेधाविनी अस्ति ।

तस्य मने विकारम् नास्ति ।

तस्य मनसि विकारः नास्ति ।

तस्य हृदौ पापः अस्ति ।

तस्य हृदि पापम् अस्ति ।

तिस्रः पुस्तकानि मया पठितानि ।

त्रीणि पुस्तकानि मया पठितानि ।

तिस्रः बालकाः धावन्ते ।

त्रयः बालकाः धावन्ति ।

ते कथं न शृणोति ।

ते कथं न शृण्वन्ति ।

ते पाण्डिताः सन्ति ।

ते भोजनं कुर्वन्ति ।

ते भोजनः करन्ति ।

ते पण्डिताः सन्ति ।

तौ गृहं गच्छन्ति ।

तौ गृहं गच्छतः ।

त्वं कथं हसति ।

त्वं कथं हससि ?

त्वं किम् पठति ।

त्वं किं पठसि ?

त्वं तं वस्त्राणि ददातु ।

त्वं तस्मै वस्त्राणि देहि ।

त्रयः फलानि पतन्ति ।

त्रीणि फलानि पतन्ति ।

दीनस्य प्रति दयां कुरु ।

दीनान् प्रति दयां कुरु ।

धिक् कामुकाय ।

धिक् कामुकम् ।

धिक् तस्मै पापिने ।

धिक् तं पापिनम् ।

नमः देवी सरस्वती ।

नमः देव्यै सरस्वत्यै ।

नमो भगवन्तं वासुदेवम् ।

नमो भगवते वासुदेवाय ।

नारायणः सर्पेण बिभेति ।

नारायणः सर्पात् बिभेति ।

नास्ति मे मरणस्य भयः ।

नास्ति मे मरणात् भयम् ।

नेतारः पदं स्पृहयन्ति ।

नेतारः पदाय स्पृहयन्ति ।

पतिना सह सीता वनं गतवान् ।

पत्या सह सीता वनं गतवती ।

पुत्रस्य सह पिता गच्छति ।

पुत्रेण सह पिता गच्छति ।

पुत्रस्य समम् आगतः माता ।

पुत्रेण समम् आगता माता ।

पुस्तकेभ्यः छात्रः ज्ञायते ।

पुस्तकैः छात्रः ज्ञायते । 

प्राते भ्रमणं कुरु ।

प्रातः भ्रमणं कुरु ।

ब्राह्मणं धनं दद्यात् ।

ब्राह्मणेभ्यः धनं दद्यात् ।

इन वाक्यों को सही करें-

1. अहं रामस्य इव विद्वान् । 2. शिक्षकः त्वां पुत्रस्य इव पश्यति । 3. तव इव बालकाय पुस्तकं पारितोषिकं यच्छामि । 4. हरिः श्यामं व्याघ्रस्य इव भीतः । 5. बालक: मम इव जनेन सह याति । 6. रामस्य इव मे किमपि दुःखं नास्ति ।

  पाठ- 24   

युष्मद् , अस्मद् तथा सर्वनाम शब्दों का विशेष प्रयोग

आपने पूर्व के पाठ में संस्कृत मूल शब्दों जैसेः- मैं, हम 'अस्मत्' तू, तुम - 'युष्मद्' । वह- 'तद्' । जो -'यद्' । यह, ये-'इदम्' 'एतद्' । वह -'अदस् कौन, क्या- 'किम्' । सब  - 'सर्व' । आप - 'भवत्' । दो-- 'द्वि' । एक - 'एक' से परिचय पा लिया है। इन शब्दों के विविध प्रयोग से यहाँ परिचय कराया जा रहा है।

आपने यह भी जाना कि जिस विशेष्य पद के स्थान में सर्वनाम प्रयुक्त होता है वह उसी के लिङ्ग और वचन में प्रयुक्त होता है। यदि सर्वनाम किसी का विशेषण हो तो विशेष्य के लिङ्ग, विभक्ति और वचन सर्वनाम के भी होते हैं ।

जैसे:- राम के विरह से कौशल्या बड़ी दुःखी हुई ; “राज्ञी कौशल्या राम-विरहाद्दुःखमनुभवति स्म। 

वह स्वप्न में भी राम को - देखती थी; “सा स्वप्नेऽपि राममेव दृष्टवती' । 

यहाँ "वह" कौशल्या के लिए प्रयुक्त हुआ, अतः वह स्त्रीलिङ्ग है, उस सीता का दुःख, सीतायाः दुःखम्" । इसमें तस्याःपद सीतायाः" इस पद विशेषण है। इसलिए वह स्त्रीलिङ्ग और षष्ठी का एकवचन है।

नियम -1 सम्बन्धवाचक सार्वनामिक विशेषण

तद्, यद्, युष्मद्, अस्मद् अन्य प्रभृति त्यदादि सर्वनाम पदों के आगे ईय (छ) प्रत्यय लगाकर संस्कृत में उन्हें विशेषण की तरह प्रयुक्त किया जाता है। जैसे: - उसका बेटा; “तस्य पुत्रःइसके स्थान में तदीयः पुत्रः' । इसी तरह आपकी बुद्धि कभी नहीं चकराती; "भवतः ( भवदीया) बुद्धिः प्रतिहता न भवति"अस्माकं (अस्मदीया) बुद्धिः न प्रसरति"मम ( मदीया) प्रकृतिः”  "तव (त्वदीयानि) पुस्तकानि सुन्दराणि। "मदीयौ मातापितरौ “अस्मदीयः शिक्षकः" । सा हि युष्मदीया भगिनी" । भगवान् खलु अस्मदीयः पिता। "अन्यदीयं वस्त्रं न परिधेयम्" । युष्मद् और अस्मद् शब्दों से अण तथा ईन ( ख ) प्रत्यय लगाकर तावक, मामक, यौष्माक, आस्माक एवं यौष्माकीण, आस्माकीन आदि शब्द बनते हैं। ये ही सम्बन्धवाचक सार्वनामिक विशेषण कहलाते हैं ।

नियम -2 

यद्, अदस्, इदम्, एतद्, युष्मद्, अस्मद् प्रभृति सर्वनाम  के आगे तुल्य, समान आदि सादृश्यवाचक शब्द रहने पर दृश (दृश्+टक्) तथा दृक् (दृश्+क्किप्) शब्दों का योग करके उनके लिङ्ग, विभक्ति तथा वचन उपमेय के अनुसार करने चाहिए ।

जैसे:- आपके समान बालक- "भवादृशः बालकः। यहाँ भवत् से दृश् लगाकर भवादृश् बनाया गया है।  "वह तुम्हारे समान बुद्धिमान् है ; “स (युष्मादृक्) युष्मादृश बुद्धिमान्' यह तुम्हारे जितना बलवान् है"; "स (त्वादृक् ) त्वादृशः धनवान्"मेरे जैसा आलसी" ; - मादृशः अलसः । हमारे जैसा और बालक आया है"; "अस्मादृशः (अस्मादृक्) कश्चित् बालकः समायातः “मैं उस जैसी (वैसी ) एक पुस्तक लाया हूँ- "अहं तादृशं किमपि पुस्तकं आनीतवानस्मिआप जैसा रमणी को यह शोभा देता है- "भवादृश्याः रमण्याः एतत् शोभते। वह हमारे जैसा है";- "स हि अस्मादृशः । वह मेरे जैसा है"; "स खलु मादृशःराम तुम्हारे जैसा है'; -रामः युष्मादृशः। "बालक तुम्हारे जैसा है- "बालकः युष्मादृशः

नियम -3

इन, तुम और आप इत्यादि शब्दों के स्थान में अधिक सम्मान दिखाने के लिए, समीपस्थ के लिए अत्रभवत्" और दूरस्थित व्यक्ति के लिए 'तत्रभवत् शब्द का व्यवहार किया जाता है। जैसे:- "भवानेव जनाति देवीं विनोदयितुम् ' के स्थान पर "अत्रभवानेव जानाति देवीं विनोदयितुम् इस प्रकार कहना अधिक सम्मान दिखाने के लिए है । सा किल दुःखिता सती एवमुवाच" इसके स्थान पर "तत्रभवती दुःखिता एवमुवाच इत्यादि । तत्र भवान् पाणिनिः प्रोवाच।

  पाठ- 25   

निषेधवाचक वाक्य बनाने के लिए न अव्यय का प्रयोग

त्वम् स्थूलः न असि । युवाम् स्थूलौ न स्थः । यूयम् स्थूलाः न स्थ । त्वम्  निर्दयः न असि । युवाम् निर्दयौ न स्थः । यूयम् निर्दयाः न स्थ ।

प्रश्नवाचक सर्वनाम, विभक्ति प्रयोग तथा अव्यय

किम् ( कौन, क्या आदि who, which, what ) इसके पुंल्लिङ्ग में कः, कौ, के आदि, स्त्रीलिङ्ग में का, के, का: आदि एवं नपुंसक में किम्, के, कानि आदि प्रश्नवाचक सर्वनाम होते हैं। इसके रूप 'तत्' के समान ही होते हैं । 

सः वामहस्तेन लिखति । त्वं केन हस्तेन लिखसि ? अहं दक्षिणहस्तेन लिखामि । अहं केनापि पादेन न चलामि। त्वं कथं पठसि ? अहं पुस्तकेन चलामि । त्वं कथम् आकर्णयसि ? अहं कर्णाभ्याम् आकर्णयामि । त्वं केन सह खेलसि ? अहं कृष्णेन सह खेलामि ।

कः कं नमति ? कौ कं नमतः ? के कं नमन्ति ? कः कं रक्षति ? कः कौ रक्षति ? कः कान् रक्षति ? कः केन सह खेलति ? कः काभ्यां सह खेलति । कः कैः सह खेलति । देवः कस्मै आशीर्वादान् यच्छति ? देवः काभ्याम् आशीर्वादात् यच्छति ? देवः केभ्यः आशीर्वादान् यच्छति ? देवः कस्मात् सद्गुणान् इच्छति ? देवः काभ्यां सद्गुणान् इच्छति ? देवः केभ्यः सद्गुणान् इच्छति ? देवे कस्य भक्तिः अस्ति ? देवे कयोः भक्तिः अस्ति ? देवे केषां भक्तिः अस्ति ? कस्मिन् विनयः अस्ति ? कयोः बुद्धिः अस्ति ? केषु भक्तिः अस्ति ?

समय तथा स्थान सूचित करने में सर्वनाम शब्दों के साथ प्रत्ययों का प्रयोग

समय को सूचित करने के लिए सर्वनाम के सप्तमी विभक्ति के स्थान पर दा तथा र्हि का प्रयोग किया जाता है। स्थान अर्थ में सप्तमी के स्थान पर त्र और पंचमी के स्थान पर तस् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। समय सूचित करने का उदाहरण- हर समय खेलना शोभा नहीं देता-सर्वस्मिन् काले क्रीडा न शोभते' इस उदाहरण में 'सर्वस्मिन् काले" के स्थान पर सर्वदा का प्रयोग किया जा सकता है। इसी तरह "एक समय' – “एकदा"; "उस समय" तदा" । स्थानार्थ का उदाहरण - 'त्र' जैसे:-  "सब जगह श्री कृष्ण है"; "सर्वस्मिन् स्थाने श्रीकृष्णस्तिष्ठति" यहाँ "सर्वत्र श्रीकृष्णस्तिष्ठति" का प्रयोग किया जा सकता है। सर्व + स्मिन् के स्थान पर सर्व + त्र।  इसी तरह "यस्मिन् स्थाने" – “यत्र ", "उस स्थान में तत्र", "इस स्थान में" अत्र”, “किस स्थान में” “कुत्र" इत्यादि ।

प्रकार सूचित करने के लिए सर्वनाम शब्दों से थाच्' का प्रयोग किया जाता है और यह अव्यय होता है- "जिस प्रकार का बीज उस प्रकार फल"; "यथा बीजं तथा फलम्"। यद् + था = यथा, तद् + था = तथा।  जिस प्रकार जिस प्रकार की (जैसी) बात, उस प्रकार का ( वैसा) कार्य"- " यथा वाचस्तथा क्रियाः" । हेत्वर्थ में जैसे:-  "राम क्यों जाय": "कुतः रामः गच्छेत्। इसी तरह यतः ततः आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है।

संस्कृत शिक्षण पाठशाला के तद्धित प्रत्यय में इस प्रकार के अनेक प्रत्यय दिये गये हैं। यहाँ उनमें से कतिपय प्रयोग लिखे गये हैं। आप अधिक जानकारी आगे के पाठ में पा सकते हैं।

सर्वनाम शब्दों का समास में शब्दरूप में परिवर्तन हो जाता है

तृतीया आदि तत्पुरुष तथा द्वन्द्व समास में सर्वनाम शब्द गौण रूप से प्रयुक्त होते हैं। अर्थात् समास हो जाने के बाद इनके रूप सर्वनाम शब्दों के समान नहीं होते हैं । बहुव्रीहि समास का उदाहरण - प्रियः सर्वो यस्य तस्मै प्रियसर्वाय । यहाँ प्रिय शब्द मुख्य होकर सर्वाय हो गया। अतः प्रियसर्वस्मै नहीं हुआ । तृतीया-तत्पुरुष समास का उदाहरण -  मासेन पूर्वाय मासपूर्वाय (मासपूर्वस्मै नहीं हुआ ) । किन्तु द्वन्द्व समास के प्रथमा बहुवचन में विकल्प से सर्व शब्द की तरह रूप होते हैं । यथाःवर्णाश्रमेतराः, वर्णाश्रमेतरे इत्यादि । 

चित् तथा चन प्रत्ययों का पुनः अभ्यास-

जैसे - किसी ग्राम की यह रीति है – “केषाश्चिद् ग्रामाणां इयं रीतिः । आजकल किसी किसी शहर में हैजा होने लगता है—'केषुचित् नगरेषु अधुना विसूचिकायाः प्रादुर्भावः' । कोई दयालु स्त्री किसी दरिद्र बालक को कोई कपड़ा देती है—“काचित् दयावती स्त्री कस्मैचित् दरिद्राय बालकाय किश्चित् वस्त्रं ददाति" ।                                     

                                            पाठ- 26   

सन्धि  

दो वर्णों के मेल को सन्धि कहते हैं। उच्चारण और लेखन के समय जब दो वर्ण आपस में मिलते हैं तब कभी उसके बीच में 1. एक नया अक्षर आ जाता है 2. दो वर्णों के मेल से एक नया वर्ण बन जाता है 3. कभी एक वर्ण दूसरे के समान हो जाता है। यह सन्धि एक पद में, धातु और उपसर्ग के मध्य तथा समास में करना अनिवार्य है परन्तु दो पदों के बीच में अथवा वाक्य में सन्धि करना बोलने या लिखने वाले की इच्छा पर है कि वह चाहे तो सन्धि करे अथवा नहीं करे। इसके लिए एक प्रसिद्ध श्लोक है, जिसे याद कर लें-

संहितैकपदे नित्या नित्या  धातूपसर्गयोः ।
नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते ।।

आइये, इस पाठ में हम देखते हैं कि किसी पद में या पद के भीतर दो वर्णों के मिलने से किस-किस प्रकार का परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन या सन्धि को मुख्यतः 3 भागों में विभाजित किया जाता है। 1. स्वर सन्धि या अच् सन्धि 2. व्यञ्जन सन्धि या हल् सन्धि 3. विसर्ग संधि। स्वर सन्धि में ही हम पूर्वरूप और पररूप सन्धि के बारे में जानेंगें। इस संधि प्रकरण में प्रत्याहार (अनेक शब्द के लिए दो शब्द) शब्दों के प्रयोग किये गये हैं। अध्येताओं को सलाह दी जाती है कि वे इस पाठ के पूर्व प्रत्याहार के बारे में जान लें। स्वर सन्धि में  अधोलिखित प्रमुख नियम हैं। 
यण् सन्धि
इको यणचि 
इक् (इ उ ऋ लृ) के बाद यदि अच् (अ इ उ ऋ लृ ए ओ ए औ) का कोई असवर्ण स्वर हो तो इक् की जगह क्रम से य् व् र् तथा ल् हो जाते है। यहाँ हस्व स्वर से दीर्घ स्वर भी समझना चाहिए।
(क) यदि हस्व इ या दीर्घ ई के बाद इई को छोड़कर अन्य कोई स्वर वर्ण हो तो इ या ई की जगह य् होता है और वह ‘य्‘ आगे के स्वर से मिल जाता है।
उदाहरण-
                        इति + अत्र = इत्यत्र                           इ का य्
                        अति + आचारः = अत्याचारः
                        नदी + अत्र = नद्यत्र                        ई का य्
नदी + आवेगः = नद्यावेगः
 नदी + उद्धारः= नद्युद्धारः
(ख)  उ तथा ऊ के बाद उऊ को छोड़कर यदि कोई स्वर आगे रहे तो उऊ की
जगह व् हो जाता है।
अनु + अयः = अन्वयः                    उ का व्
सु + आगतम् = स्वागतम्
मधु़ +इदम् = मध्विदम्
मधु़ + ईशः= मध्वीशः
सरयू + अम्ब= सरय्वम्बु                 ऊ का व्
वधू़ + आसनम=वध्वासनम्
वधू़ + इच्छा= वध्विच्छा
   (ग) ऋ तथा   के बाद ऋऔर लृ को छोड़कर किसी स्वर में रहने पर ऋ,  के स्थान   
            में ‘र्‘ हो जाता है।
पितृ + अनुमतिः= पित्रनुमतिः       ऋ का र्
मातृ + आदेशः= मात्रादेशः
  (घ) लृ के बाद ऋऋ और लृ को छोड़कर कोई स्वर हो तो लृ का ‘ल्‘ हो जाता है।
        लृ़ + आकृतिः= लाकृतिः              लृ का ल्


अयादि सन्धि

एचोऽयवायावः
एच् के आगे यदि कोई स्वर वर्ण होता है तो ए ओ ऐ औ को क्रमशः अय् अव् आय् आव् आदेश होता है। जैसे-

उदाहरण-
सन्धि विच्छेद                     प्रक्रिया

ने + अयनम्         न् ए  अयनम् , न्  अय् अयनम् = नयनम् को अय्
भो + अवनम्        ओ को अव् = भवनम्
नै + अकः             ऐ  को आय् = नायकः
पौ + अकः            औ को आव् = पावकः

गुण सन्धि

आद् गुणः
1. अ या आ के बाद  इ या ई वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर  
2. अ या आ के बाद उ या ऊ वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर
3. अ या आ के बाद ऋ या ऋृ वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर अर्
4. अ या आ के बाद  वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर अल् हो जाता है। जैसे-
अ + इ = ए का उदाहरण,          मम + इव = ममेव ।
आ + इ = ए का उदाहरण,         गंगा + इव = गंगेव ।
अ + ई = ए का उदाहरण,          देव + ईश = देवेश ।
आ + ई = ए का उदाहरण,         रमा + ईश  रमेश ।
अ + उ = ओ का उदाहरण,          चन्द्र + उ=दय = चन्द्रोदय ।
अ + ऋ = अर् का उदाहरण,         राज + ऋषि = राजर्षि ।
अ +  = अल् का उदाहरण,          मम + ऌकार = ममल्कार ।
नोट- संस्कृत में अ इ उ ऋ वर्णों का ह्रस्व दीर्ध और प्लुत ये तीन भेद होते हैं। अतः व्याकरण में अ का अर्थ आ भी होता है। इसी प्रकार इ उ ऋ को भी समझना चाहिए।

दीर्घ सन्धि

अकः सवर्णे दीर्घः
 जब किसी ह्रस्व या दीर्घ अ, , , ऋ स्वर के बाद  ह्रस्व या दीर्घ अऋ स्वर आये तब दोनों स्वरों के
स्थान में एक दीर्घ स्वर हो जाता है-
उदाहरण-
  धन + अर्थः    = धनार्थ                  (अ + अ = आ)
  देव + आलयः = देवालयः               (अ + आ = आ)
  विद्या + अभ्यासः = विद्याभ्यासः      (आ + अ = आ)
  विद्या + आलयः = विद्यालयः           (आ + आ = आ)
  कवि + इन्द्रः = कवीन्द्रः                   (इ + इ = ई)
  कवि + ईश्वरः = कवीश्वरः                (इ + ई = ई)
  मही + इन्द्रः = महीन्द्रः                    (ई + इ = ई)
  लक्ष्मी + ईश्वरः = लक्ष्मीश्वरः             (ई + ई = ई)
  सु + उक्तिः    = सूक्तिः                     (उ + उ = ऊ)
  हिन्दू + उदयः = हिन्दूदयः                (ऊ + उ = ऊ)

  पितृ + ऋणम् = पितॄणम्                 (ऋ + ऋ = ऋ)

वृद्धि सन्धि

वृद्धिरेचि
अवर्ण (अ या आ) के बाद  ए या ऐ वर्ण हो तो दोनों के स्थान पर वृद्धि (ऐ,औ ) हो जाता है। 
उदाहरण-
अ + ए = ऐ का उदाहरण -          मम + एव = ममैव ।
 + ए = ऐ का उदाहरण  -        प्रिया + एव = प्रियैव ।
अ + ओ = औ का उदाहरण -      तव + ओघः = तवौघः।
अ + ऐ = ऐ का उदाहरण -          राम + ऐश्वर्य = रामैश्वर्य ।
आ औ = औ का उदाहरण  -      महा + औत्सुक्यम्= महौत्सुक्यम् 
नोट- आपने देखा कि अ या आ के साथ ए या ऐ मिलने पर ऐ ही होता है । इसी प्रकार अ या आ के साथ ओ या औ मिलने पर औ ही होता है। कारण यह है कि जब दो स्वर आपस में मिलते हैं, उसका बढ़ना (बृद्धि होना) स्वाभाविक है। ह्रस्व वर्ण या दीर्घ वर्ण  के साथ दीर्घ वर्ण को मिलाने र भी वह दीर्ध ही हो सकता है। ऐ औ पहले से ही दीर्घ है।

पूर्वरूप सन्धि

एङः पदान्तादति
यदि किसी पद के अंत में ए या ओ हो और उसके आगे ह्रस्व अकार हो तो पहले और बाद वाला वर्ण मिलकर पूर्वरूप (पहले वाले वर्ण के समान ए या ओ) हो जाता है। यह संधि अवग्रह द्वारा ( ) सूचित होती है। जैसे-
ए + अ = ए का उदाहरण -          हरे + अव  = हरेऽव ।
ओ + अ = ओ का उदाहरण -      साधो + अत्र  = साधोऽत्र ।
नोट- ऽ चिह्न केवल यह प्रदर्शित करने के लिए लगाया जाता है कि यहाँ पहले अ था।

पररूप सन्धि

एङि पररूपम्
अकारान्त उपसर्ग के बाद ए या ओ से प्रारंभ होने वाली धातु हो तो पहले  और बाद वाला वर्ण मिलकर पररूप (बाद वाले वर्ण के समान) हो जाता है।  जैसे-
 अ + ए = ए का उदाहरण -          प्र + एजते =  प्रेजते ।
अ + ओ = ओ का उदाहरण -       उप + ओषति = उपोषति ।


प्रकृतिभाव सन्धि

ईद्देद्द्विवचनं प्रगृह्यम् , प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्

द्विवचन में रहने वाले ईकारान्त, ऊकारान्त तथा एकारान्त शब्दों के बाद कोई स्वर आने पर यथावत् स्वरूप (प्रकृतिभाव) रह जाता है। अर्थात् इनमें संधि नहीं होती है।
उदाहरण-
हरी + इमौ = हरी इमौ
भानू + उमौ = भानू उमौ

यमुने + इति = यमुने इति


स्वर वर्णों में होने वाली प्रमुख सन्धियों की जानकारी देने के बाद व्यंञ्जन वर्णों के बीच होने वाली सन्धियों को बताया जा रहा है।

   पाठ- 27   

श्चुत्व सन्धि

स्तोः श्चुना श्चुः

सकार तथा तवर्ग का श् या चवर्ग से साथ योग होने पर सकार के स्थान पर शकार तथा तवर्ग के स्थान पर चवर्ग होता है। ध्यातव्य है कि सकार तथा तवर्ग का शकार तथा चवर्ग के साथ पूर्व या पर में कहीं भी योग होगा को स् को श् तथा तवर्ग के स्थान पर यथासंख्य चवर्ग आदेश होगा।
उदाहरण-
रामस् + चिनोति में स् को श् आदेश हुआ,    रामश्चिनोति बना।
सत् + जनः         में त् को ज् आदेश हुआ,    सज्जनः बना।
 शार्ङ्गिन् + जय   में न् को ञ् आदेश हुआ,     शार्ङ्गिञ्जय बना।

ष्टुत्व सन्धि

ष्‍टुना ष्‍टुः
सकार तथा तवर्ग का षकार तथा टवर्ग के साथ योग होने पर सकार के स्थान पर षकार तथा तवर्ग के स्थान पर  टवर्ग हो। 
इस सूत्र में भी सकार और तवर्ग का षकार और टवर्ग के साथ यथासंख्य योग होने पर यथासंख्य कार्य का नियम लागू नहीं होता है। अर्थात् सकार या तवर्ग का यदि षकार या टवर्ग के साथ (आगे या पीछे) योग हो तो स् के स्थान में ष् और तवर्ग के स्थान में टवर्ग हो जाता है।
रामस्+ षष्ठः में सकार तथा षकार का योग होने पर स् को ष् आदेश हुआ। रामष्षष्ठः रूप बना।
पेष् + ता      में तकार को टकार आदेश होकर = पेष्टा
तत् + टीका   में तकार को टकार आदेश होकर = तट्टीका
चक्रिन् + ढौकसे में नकार को णकार आदेश होकर = चक्रिण्ढौकसे रूप बनेगा।

जश्त्व सन्धि

झलां जशोऽन्‍ते
पदान्त में झल् के स्थान पर जश् हो जाता है । 
वाक् + ईशः में क् का जश्  ग्  हुआ । वाग् + ईशः = वागीशः रूप बना।
तत् रूपम् में तकार को दकार होकर तद्रूपम् बनेगा।

चर्त्व  सन्धि

खरि च
खर् वर्ण बाद में हो तो झल् को चर् हो। अर्थात् वर्गों के तृतीय वर्ण के बाद यदि वर्ग का प्रथम, द्वितीय वर्ण एवं श, , स हो तो वह तृतीय वर्ण अपने वर्ग का प्रथम वर्ण हो जाता है।
उदाहरण- दिग् + पालः = दिक्पालः
              विपद् + कालः = विपत्कालः

अनुस्वार सन्धि

मोऽनुस्वारः
किसी पद के अंत में म् हो तथा उसके बाद हल् (व्यंजन वर्ण) हो तो म् के स्थान में अनुसार हो जाता है।
उदाहरण- हरिम् + वन्दे = हरिं वन्दे
 किम् + वा = किं वा
सम् + गच्छध्वमे = संगच्छध्वम्
हरिम् + वन्दे = हरिवन्दे,
वशम् द: = वशं वदः,
शीघ्रम् + याति= शीघ्रयाति,
जलम्+वहति = जलं वहति,
दुःखम् + सहति = दुखं सहति,
गृहम् + गच्छति = गृहं गच्छति,

अयम् +चलति = अयं चलति आदि।
नियम-(2)  नश्चापदान्तस्य झलि
अपदान्त न् तथा म् के बाद यदि झल् वर्ण आता है तो न् के स्थान में अनुस्वार हो जाता है।
उदाहरण- 
यषान् + सि = यषांसि
पयान्+सि= पयांसि,
विद्वान् + सौ = विद्वांसौ,
हन्+सः = हंसः,
धनून् +षि = धनूंषि,

नम्+स्यति=नंस्यति । 

परसवर्ण सन्धि

अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः
अनुस्वार के बाद यय् प्रत्याहार का वर्ण हो तो अनुस्वार के स्थान में उसके आगे वाले वर्ण के वर्ग का पच्चम वर्ण हो जाता है।
उदाहरण-
अं + कितः = अङ्कितः
अं + चितः = अञ्चितः
कुं + ठितः = कुण्ठितः
शां + तः =  शान्तः

सं + तोषः = संतोषः 
(2) वा पदान्तस्य
यदि पदान्त म् के आगे कोई स्पर्श या अन्तस्थ वर्ण हो तो म् के स्थान में अनुस्वार होता है या जिस वर्ग का वर्ण आगे में रहे उसी वर्ग का पञ्चम वर्ण हो जाता है।
जैसे-
किम् + करोति= किं करोति, किङ्करोति,
नगरम् गच्छति-नगरं गच्छति, नगरङ्गच्छति,
शत्रुम् + जयति=शत्रु जयति, शत्रुञ्जयति,
नदीम् +तरति नदीं तरति, नदीन्तरति,
गुरुम् + नमति = गुरुं नमति, गुरुन्नमति,
फलम् + पतति - फलं पतति, फलम्पतति,
सत्यम् + ब्रूते सत्यं ब्रूते, सत्यम्ब्रूते इत्यादि ।
ऐसे ही सम् + यन्ता= संयन्ता इत्यादि ।

किन्तु सम्+ राट् =सम्राट् यहाँ म् ही रहता है। 

लत्व सन्धि

तोर्लि
नियम- तवर्ग के बाद ल् आए तो त वर्ग का ल् हो जाता है। स्थानेऽन्तरतमः के अनुसार अनुनासिक न् के बाद ल् के आने पर सानुनासिक लकार (ल्ँ) होता है। जैसे

यथा- तत्+लीनः = तल्लीनः           (त्+ल् = ल्ल्) 
यथा- कश्चिद्+लभते = कश्चिल्लभते (द्+ल् = ल्ल्)
यथा- महान्+लाभः = महाल्ँलाभः ( अनुनासिक न्+ल् = ल्ँल)
अनुनासिक सन्धि
यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा
यदि पद के अन्त में यर् अर्थात् हकार को छोड़ कर कोई व्यञ्जन वर्ण हो और उसके आगे अनुनासिक, अर्थात् वर्ग का पञ्चम ( म् ङ् ण् न् ) वर्ण रहे तो पूर्व वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पञ्चम वर्ण विकल्प से हो जाता है। जब पञ्चम वर्ण नहीं होता है तो वर्ग का तृतीय वर्ण हो जाता है।
जैसे -
दिक् + नागः= दिङ्नागः, प्राक्+मुखः =  प्राङ्मुखः, अच्+ नेदम् = अजनेदम्, उत्+नयनम् = उन्नयनम्, जगत् + नाथ:= जगन्नाथः मधुलिट् +नास्ति = मधुलिण् नास्ति, अप्+मयम् = अम्मयम् आदि । विकल्प में दिग्नागः, उद्नयनम् इत्यादि। 

तुगागम सन्धि
(1) "छे च" (पा० सू०)
ह्रस्व स्वर के बाद यदि छकार हो तो ह्रस्व के आगे और छकार से पूर्व च् चला आता है। जैसे -
शिव+ छत्रम् = शिवच्छत्रम्, परि+छेदः = परिच्छेदः, तरु+ छाया = तरुच्छाया, पितृ+छत्रम् = पितृच्छत्रम् आदि ।
(2) पद के अंत वाले दीर्घ स्वर के बाद भी छ परे रहने से बीच में च् होता है। यह विकल्प से होता है। जैसे- चे + छिद्यते = चेच्छिद्यते । लक्ष्मी+ छाया = लक्ष्मीच्छाया ।
(3) यदि ङकार और नकार के बाद सकार हो तो उस सकार के पहले एक 'त्' विकल्प से हो जाता है। जैसे-षट् + सन्तः = षट्त्सन्तः, षट्सन्तः, सन्+सः = सन्त्सः, सन्सः इत्यादि।
(4) पदान्त नकार के बाद तालव्य शकार के रहने पर न और श के बीच में विकल्प से 'त्' हो जाता है। जैसे-सन् + शम्भुः = सञ्च्छम्भुः, सञ् शम्भुः, '' के लोप करने पर सञ्छम्भुः इत्यादि।
ङमुडागम सन्धि-
"ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम्(पा० सू०)
यदि ह्रस्व स्वर के बाद ङ् ण् न् पद के अन्त में हों और उनके आगे कोई स्वर वर्ण हो तो ङ, ण् और न् का आगम हो जाता है। अर्थात् एक ङ्  के स्थान पर दो ङ्, एक ण् के स्थान पर दो ण्, और एक न् के स्थान पर दो न् हो जाते हैं। जैसे-  
प्रत्यङ्+आत्मा = प्रत्यङ्ङात्मा, सुगण् + ईशः = सुगणीशः, तस्मिन् + एव =तस्मिन्नेव, कस्मिन् + इति =कस्मिन्निति, सन्+अन्तः= सन्नन्तः।
रुत्व सन्धि
"नश्छव्यप्रशान्" ( पा० सू०)
प्रशान् को छोड़कर पदान्त नकार को रू (र्) हो जाता है यदि उसके आगे 'छव्' (, , , , , त ) वर्ण हो, किन्तु छव् से आगे केवल 'अम्' (स्वर, यण, ह तथा वर्ग का पञ्चम) ही वर्ण होना चाहिए।
जैसे -
चक्रिन् + त्रायस्व= चक्रिंस्त्रायस्व इत्यादि। 

   पाठ- 28   

विसर्गसन्धि

विसर्ग के साथ स्वर वर्णों या हल् वर्णों  की सन्धि को विसर्ग सन्धि कहते हैं।
(1) "विसर्जनीयस्य सः' (पा० सू०)
विसर्ग के बाद यदि खर् ( वर्ग के प्रथम, द्वितीय तथा श् ष् स् ) का कोई वर्ण हो तो विसर्ग के स्थान में स् हो जाता है ।
जैसे -
शिवः तथा = शिवस्तथा,
छिन्नः+तरुः  = छिन्नस्तरुः,

पयः+तत् = पयस्तत् । 
स्वादिसन्धि
'सु' आदि प्रत्यय सम्बन्धी सन्धि को स्वादि सन्धि कहते हैं।
ससजुषो रुः
पद के अन्तवाले सकार के तथा पदान्त सजुस् के सकार के स्थान में रु (र्) हो जाता है।
 जैसे -
कविस्+अयम् = कविरयम्,
रविस् + एव = रविरेव,
भानुस्+ अपि = भानुरपि,
अग्निस् + इति अग्निरिति ।
उत्व सन्धि
अतो रोरप्लुतादप्लुते" (पा० सू०)
दो ह्रस्व अकारों के बीच में (सकार स्थानीय ) र् हो तो अ र् अ इन तीनों के स्थान पर '' हो जाता है और ओ के बाद (ऽ) यह चिह्न भी रख सकते हैं। जैसे -
रामः+अयम् = रामोऽयम्,
कृष्णः+अयम् =कृष्णोऽयम्,
श्यामः+ अयम् =श्यामोऽयम् ।
 "हशि च" 
यदि ह्रस्व अकार के बाद विसर्ग हो ( या यों कहिए कि सकार स्थानीय र् हो ) और उसके बाद हश् ( वर्ग के तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम तथा ह य व र् ल् ) वर्ण हो तो विसर्ग या र् के स्थान में '' होता है। और पूर्व अकार के साथ गुण होने से '' हो जाता है । जैसे -
बाल:+ हसति बालोहसति,           कृष्णः + वन्द्यः = कृष्णोवन्द्यः,
मनः +रथः=मनोरथः,                  मनः+मोदते = मनोमोदते,
छात्रः+याति = छात्रोयाति,           पयः+ लभते = पयोलभते,
सुन्दरः+भवति = सुन्दरोभवति,     प्रखरः + धर्मः = प्रखरोधर्मः,
कर्तव्यः+धर्मः = कर्तव्योधर्मः,        शिष्टः + जनः= शिष्टोजनः,
माननीयः + नायकः = माननीयोनायकः, सुन्दरः+ डमरू: सुन्दरोडमरू:,
बाल:+ गच्छति बालोगच्छति,      पयः+दीयते = पयोदीयते इत्यादि ।
नोट-यदि रेफ या विसर्ग यहाँ भी सकार स्थानीय नहीं है तो ओ नहीं होगा। जैसेपुनः+ वन्द्यः पुनर्वन्द्यः, न कि पुनोवन्द्यः ।

भो-भगो-अघो-अपूर्वस्य योऽशि
भो, भगो, अघो तथा अ, आ से परे विसर्ग को यकार आदेश होता है, यदि उसके आगे अश् ( कोई स्वर वर्ण या वर्ग के तृतीयचतुर्थपञ्चम तथा हय व र् ल् ) वर्ण हो। इसके बाद इस यकार को हलि सर्वेषाम् से लोप हो जाता है 
जैसे –
भोः+मित्र = भो मित्रः,     भगोः+ नमस्ते= भगो नमस्ते,                    अघोः+ याहि = अघो याहि
देवा+इह =देवा इह,        नराः+ आगच्छन्ति= नरा आगच्छन्ति,        अश्वाः-इमे = अश्वा इमे,
जनाः+एकत्र= जना एकत्र,           देवाः + वन्द्याः = देवा वन्द्याः,      नराः+यान्ति =नरा यान्ति,
"वा शरि" 
विसर्ग के आगे यदि शर् (श् ष् स् ) वर्ण हो तो विकल्प से विसर्ग का विसर्ग ही रह जाता है । अर्थात् विसर्ग भी रहता है और श् के साथ श्, ष् के साथ ष् और स् के साथ स् भी पूर्व नियमों से हो जाते हैं। जैसे
हरिः+शेते = हरिः शेते, हरिश्शेते, विष्णोः+शयनम् = विष्णोः शयनम्, विष्णोश्शयनम्,
मत्तः+ षट्पदः=मत्तः षट्पदः, मत्तष्षट्पदः, रामः + षष्ठः = रामः षष्ठः, रामष्षष्ठः,
साधुः+सेव्यः = साधुः सेव्यः, साधुस्सेव्यः,    कृष्णः+ सेव्यते = कृष्णः सेव्यते, कृष्णस्सेव्यते ।
नोट-विसर्ग के बाद शर् हो और उसके बाद खर् हो तो विसर्ग का लोप भी हो जाता है।
जैसे-रामः+स्थाता-रामस्थाता, बाहुः+ स्फुरति बाहुस्फुरति आदि। 

कृत्यसारसमुच्चय में आये हुए संधियुक्त पद
चातीत्य - च + अतीत्य- दीर्घ सन्धि । इसी तरह अन्य पदों का का संधि विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम लिखें-
मासालोपे, वचनाच्चैत्रादि, मलमास इति, सङ्कर एव, कार्त्तिककृष्णमार्गशुक्लपक्षयो रविकृतत्वमेव, प्रायो माघस्य, क्षयाख्योभवति, दन्तानाङ्काष्ठसंयोगो, दहत्यासप्तमङ्कुलम्, अन्यच्च, याचितन्निष्फलम्, क्रयक्रीतन्तु, नित्यपूजायान्तु,  पदाज्जलादि, क्षालितञ्च, पुष्पञ्चिन्वन्ति, 

इतनी ही सन्धियों का मुख्य रूप से प्रयोग होता है । सन्धि के बारे में अधिक जानने के लिए इसी ब्लॉग के लघुसिद्धान्तकौमुदी सन्धि प्रकरण पर क्लिक करें। विस्तार के भय से अन्य नियम नहीं दिये जा रहे हैं। 
एक अनुरोध- 
इतने पाठ पढ़ लेने के बाद आगे के पाठ के लिए संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 पर चटका लगाकर उस लिंक को खोलें।



50 टिप्‍पणियां:

  1. श्लाघनीयं कार्यमिदं संस्कृतभाषाभिवर्धनार्थं निश्चप्रचं सिद्धिप्रदायकं भविष्यतीति।

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  2. आप के प्रयास सराहनीय है महोदय बहुत सुन्दर कार्य का आरंभ किया है आपने आपका चिंतन संस्कृत के लिए अद्भुत है जो आपको सभी से विशेष दर्शाता है। संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए यह कदम अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा.
    जयतु संस्कृतं जयतु भारतं

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    उत्तर
    1. संस्कृत कठीण भाषा है,और सिर्फ पंडित बाणानेके लिए है,ऐसा बचपन से हि मन में डर पैदा कर देते है।
      आपका प्रयास सराहनीय है।

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    2. विगत 100 - 200 वर्षों में देश और विदेश के विद्वानों ने ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध किया है कि संस्कृत केवल भारत या इसके किसी एक भूभाग की भाषा नहीं रहा है। इसका पुष्ट प्रमाण हमें साहित्यिक तथा दार्शनिक स्रोतो से भी मिलता है। इस भाषा में भारत में और भारत के बाहर रहने वाले तमाम जातियों, सम्प्रदायों के लोगों ने अपना योगदान दिया है। इस भाषा में पाकिस्तान, ईरान, ईराक, अरब, मिस्र, श्रीलंका, दावा, सुमात्रा बाली, चीन के कुछ भूभाग की सभ्यता, ज्ञान विज्ञान, इतिहास को अपने शब्दों में व्यक्त किया। ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ खेटकौतुकम् को कौन नहीं जानता। दुर्भाग्य है कि आज की जनता ब्राह्मणों द्वारा कराये जाने वाले कर्मकाण्ड मात्र से से परिचित है। इसमें गणित, रसायन, भूगर्भ, आदि वे तमाम विषय उपलब्ध है, जिसे हम अध्ययन करते हैं। मैं पूछता हूँ क्या यह देश विना किसी कानून के, व्यापारिक नियमों के, चिकित्सा के हजारों वर्षों तक रहा? यहाँ भी किसी राजा का राज्य था। वहाँ विधि व्यवस्था थी। व्यापार होते थे। राजा कर लेता था। चिकित्सा व्यवस्था थी। यातायात के साधन थे। विशाल भवन बनते थे। उसकी तकनीक थी। वह सब कुछ था, जो आज हम देख रहे हैं। जीवन को सरल और सुखमय बनाने के लिए हजारों वर्ष पूर्व भी लोग अनुसंधान में लगे थे। 300 वर्षों में एकाएक बमने शून्य से शिखर तक की यात्रा नहीं कर ली। आधारभूत ज्ञान वही थे। इसी संस्कृत भाषा में लिखे गये थे। आज हमने उसी में और थोड़ा सा परिष्कार कर लिया है। चाहे वह कृषि, वानिकी, अंतरिक्ष, औषध या अन्य कोई क्षेत्र हौ। हजारों वर्षों तक इस ज्ञान विज्ञान को तिरस्थायी बनाने में संस्कृत भाषा का योगदान अतुलनीय है। यदि कोई संस्कृत को किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा कहता है तो प्रथम दृष्ट्या वह अज्ञानी है। वह भारतीय मनीषियों को अपमानित करने का काम तो कर ही रहा है साथ ही अल मामून से लेकर अलबैरूनी तक को अपमानित करता है।

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  3. पदों में वचन तथा विभक्ति बताना

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    उत्तर
    1. अपना प्रश्न स्पष्ट करें। आप कोई पद लिख दें। मैं उसका वचन और विभक्ति बता दूँगा। आप कोई भी शब्दरूप देखें, शब्दरूप के ऊपर एकवचन, द्विवचन और बहुवचन लिखा रहता है। शब्दरूप के वायीं ओर उसकी विभक्ति लिखी रहती है। जैसे-
      एकवचन द्विवचन बहुवचन
      प्रथमा बालकः बालकौ बालकाः
      द्वितीया बालकम् बालकौ बालकान्
      तृतीया बालकेन बालकाभ्याम् बालकैः
      चतुर्थी बालकाय बालकाभ्याम् बालकेभ्यः
      पञ्चमी बालकात् बालकाभ्याम् बालकेभ्यः
      षष्ठी बालकस्य बालकयोः बालकानाम्
      सप्तमी बालके बालकयोः बालकेषु
      संबोधन हे बालक हे बालकौ हे बालकाः

      हटाएं
  4. उत्तर
    1. पहले आप देखेॆ कि कृत् प्रत्यय से बना शब्द स्वरान्त है या हलन्त। कृदन्त से बने शब्द प्रायः तीनों लिंगों (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग) में होते हैं। जैसे कृ धातु से ण्वुल् प्रत्यय करने पर कारक बनता है। इसके अनन्तर आप प्रसंगानुकूल कारकः, कारिका या कारकम् इन तीनों लिंगों में से किसी एक लिंग में इसका प्रयोग करते हैं। एक और उदाहरण देखें- प्रियंवद और प्रियंवदा शब्द कृदन्तीय खच् प्रत्यय से बना है। अब आप जान चुके होंगें कि जबतक हमें उसकी लिंग और अंतिम अक्षर के बाद में जानकारी नहीं होती है तब तक हम किसी भी शब्द का रूप नहीं चला सकते। आप अपने प्रश्न को स्पष्ट करें तथा सम्पूर्ण लेख को सावधानी से पुनः पढ़ें । इसमें स्थान- स्थान पर सम्बन्धित प्रकरण पर लिंक लगा है। जैसे लिंगानुशासन का लिंक लगा हुआ है। उस लिंक तक जायें।

      हटाएं
  5. अपने आप में संस्कृत में कौन सा पुरुष होगा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अपने आप के लिए अहम् शब्द का प्रयोग होता है, अपने आप के लिए उत्तम पुरुष का प्रयोग होगा। अपने आप शब्द का संस्कृत में अनुवाद स्वयं होता है। यह किसी भी पुरुष के साथ प्रयोग किया जाता है। जैसे सीता स्वयं वदति। त्वं स्वयं पठसि। अहं स्वयं पठामि।

      हटाएं
  6. अपने आप के लिए संस्कृत में अस्मद् शब्द का प्रयोग होता है। इसमें उत्तम पुरुष होगा। इसका रूप इस प्रकार चलता है-
    एकवचन द्विवचन बहुवचन
    प्रथमा अहम् आवाम् वयम्
    द्वितीया माम् / मा आवाम् / नौ अस्मान् / नः
    तृतीया मया आवाभ्याम् अस्माभिः
    चतुर्थी मह्यम् / मे आवाभ्याम् / नौ अस्मभ्यम् / नः
    पञ्चमी मत् / मद् आवाभ्याम् अस्मत् / अस्मद्
    षष्ठी मम / मे आवयोः / नौ अस्माकम् / नः
    सप्तमी मयि आवयोः अस्मासु

    जवाब देंहटाएं
  7. शोभनम् संस्कृतं शिक्षितुं सम्यक् प्रयासः।

    जवाब देंहटाएं
  8. उत्तर
    1. मैं किसी विद्यालय में नहीं पढ़ाता हूँ। अधिकांश समय ऑनलाइन संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने में लगाता हूँ, क्योंकि इसकी पहुँच किसी स्कूल से कहीं अधिक है।

      हटाएं
    2. बहुशोभनोऽयं प्रयासो भवता विहित:।

      हटाएं
  9. जगदानंद जी, नमश्कार। बहुत अच्छा है। आपका ईमेल एड्रेस बतादिगिएगा। कियोटो जापानी से। धन्यवाद्।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरा ईमेल- jagd.jha@gmail.com
      आप इस मेल पर मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। आपसे फोन पर बात कर खुशी हुई। आप संस्कृत भाषा तथा माध्यमिक (शून्यवाद) दर्शन के प्रतिष्ठापक, महायान बौद्ध दर्शन के प्रमुख आचार्य नागार्जुन विरचित माध्यमिका कारिका के अध्ययन के लिए संस्कृत सीखना चाहते हैं। इनकी अन्य कृतियों में विग्रहव्यावर्तिनी प्रमुख है।
      न सन् नासन् न सदसत् न चाप्यनुभयात्मकम्।
      चतुष्कोटिर्विनिर्मुक्त तेत्वं माध्यमिका विदु:॥
      नमस्कार

      हटाएं
  10. अवसर शब्द का अर्थ पुस्तकों में यह भी मिलता है और वह भी। सही अर्थ क्या है?
    इसे ऐसे भी पूछ सकते हैं कि अदस् शब्दरूप एतत् शब्द का पर्याय है या तंत्र शब्द का?
    उत्तर की प्रतीक्षा में ...

    जवाब देंहटाएं
  11. मैं अपने इस लेख में सर्वनाम शब्दों पर विस्तार पूर्वक नहीं लिख पाया अतः आपको लेख से समाधान नहीं मिला होगा। आपके प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-
    आपका प्रश्न है- अवसर शब्द का अर्थ--- । मैं इसे अदस् शब्द का अर्थ मानकर उत्तर दे रहा हूँ । अदस् शब्द का हिन्दी में अर्थ होता है - वह । यह त्यद् तथा तद् शब्द का पर्याय है। इस पर्याय को आगो मैं श्लोक से स्पष्ट कर रहा हूँ। एतद् शब्द का अर्थ होता है- वह । यह त्यदादि गण का है। अन्य सर्वनाम संज्ञक शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं- त्यद् (वह), तद् (वह), यद्(जो), एतद् (वह), इदम् (यह), अदस् (वह), युष्मद् (तुम), अस्मद् (मैं), भवत् (आप)
    इनमें से इदम्, एतद्, अदस् तथा तद् शब्द के अर्थ को स्पष्ट रूप से समझने के लिए इस श्लोक को याद कर लें-
    इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।
    अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥
    इदम् = (यह), निकटवर्ती व्यक्ति या पदार्थ के लिए
    एतद् = (वह), अत्यन्त पास वाली पदार्थ के लिए
    अदस् = (वह), दूर में स्थित पदार्थ के लिए
    तद् = (वह), परोक्ष पदार्थ के लिए

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कृपया एक लेख सर्वनाम पर भी प्रकाशित करें।

      हटाएं
    2. सर्वनाम पर अब काफी मात्रा में सामग्री उपलब्ध करा दी गई है। यह सामग्री एक साथ नहीं दी जा सकती। इससे सीखने में असुविधा होती है। सरल से कठिन की ओर ले जाने के लिए आरम्भ में सर्वनाम से परिचय कराया गया। इसके बाद युष्मद्, अस्मद् तथा भवत् शब्द से वाक्य बनाने की सामग्री दी गयी। संख्यावाची एक तथा द्वि शब्द के बाद एतद्, तद् आदि सर्वनाम दिये गये। प्रश्नवाची सर्वनाम किम्, यत् के नियम व प्रयोग क्रमशः आगे दिया गया। युष्मद् अस्मद् के विभक्ति में होने वाले ते, मे आदि नियम को भी यथा स्थान समाहित किया गया है। कुल मिलाकर सर्वनामवाची शब्दों के बारे में थोड़ा-थोड़ा कर कई स्थानों पर लिखा गया है।

      हटाएं
  12. Priya Shri jha ,I have a small query.Please reply ,I shall be grateful to you.Please tell me why in the Sanskrit dictionaries the sequence of letters (vowels and consonants) is not according toMaheshwar sutras which is the most logical order ?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शब्दकोश में वर्णों के क्रम का आधार वर्णमातृका है जबकि माहेश्वर सूत्र के वर्णसमाम्नाय का प्रयोजन भिन्न होने से वर्णसमाम्नाय तथा वर्णमातृका के क्रम तथा संख्या में भौतिक अंतर है। प्रत्याहार के प्रयोजन से उपदिष्ट वर्णसमाम्नाय से वर्णमातृका अधिक प्राचीन है। ऋक् प्रातिशाख्य, वाजसनेय प्रातिशाख्य में वर्णमातृका के उपदेश प्राप्त होते हैं। प्रातिशाख्यों में पदों के अनुवृत्ति का क्रम तो मिलता है,परन्तु यहाँ प्रत्याहार का अभाव है। पाणिनि के वर्णसमाम्नाय, जिसे माहेश्वर सूत्र कहा जाता है,इसके प्रयोजन पर महाभाष्य में चर्चा की गयी है। उक्त से स्पष्ट है कि वर्णमातृका ही अक्षर क्रम के लिए सर्वथा उपयुक्त है, न कि प्रत्याहार की सिद्धि के लिए उपदिष्ट माहेश्वर सूत्र।
      वर्णों की संख्या का विस्तृत विवेचन टिप्पणी अनुच्छेद में किया जाना सम्भव नहीं है फिर भी स्रोत पर जाकर आधिक खोजा जा सकता है-
      वर्णमातृका
      वर्णमातृका वर्णसमाम्नाय से प्राचीन है, यह बात पतञ्जलि के महाभाष्य में किमर्थो वर्णानामुपदेशः? इस प्रश्न के द्वारा प्रत्याहार-प्रयोजन में पहले सिद्ध हो चुकी है। आप सोच रहे होंगे कि वर्णमातृका और वर्णसमाम्नाय में क्या अन्तर है? सामान्यतः वर्णमातृका में वर्ण दो प्रकार के होते हैं- स्वर और व्यञ्जन, जिन्हें वर्णसमाम्नाय में अच् और हल् - इन दो प्रत्याहारों से समझा जाता है। वर्णमातृका में इक्यावन वर्ण हैं, जिनमें अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ए ऐ ओ औ अं अः - ये सोलह स्वर और पैंतीस व्यजन हैं। व्यजनों में सात वर्ग हैं, जिनमें कवर्ग से लेकर पवर्ग तक पाँच-पाँच वर्गों के पाँच वर्ग स्पर्श-संज्ञक हैं।

      वृत्तिसमवायार्थ उपदेश:
      वृत्तिसमवायार्थों वर्णानामुपदेशः । किमिदं वृत्तिसमवायार्थ इति।
      वृत्तये समवायो वृत्तिसमवायः । वृत्त्यर्थो वा समवायो वृत्तिसमवायः ।
      वृत्तिप्रयोजनो वा समवायो वृत्तिसमबायः | का पुनर्वृत्तिः। शास्त्रप्रवृत्तिः ।
      अथ कः समवायः। वर्णानामानुपूर्व्येण संनिवेशः। अथ क उपदेशः ।
      उच्चारणम्‌। कुत एतत्‌। दिशिरुच्चारणक्रियः | उच्चार्य हि वर्णानाह-उपदिष्टा इमे वर्णा इति |
      अनुबन्धकरणार्थश्च
      अनुबन्धकरणार्थश्च वर्णानामुपदेशः अनुवन्धानासङ्ख्यामीति । न ह्यनुपदिश्य वर्णाननुबन्धाः शक्या आसक्तुम् । स एष वर्णानामामुपदेशो वृत्तिसमवायार्थश्चानुबन्धकरणार्थश्च । वृत्तिसमवायश्चानुवन्धकरणं प्रत्याहारार्थम् । प्रत्याहारो वृत्त्यर्थः।।
      इष्टबुद्धयर्थश्च
      इष्टबुद्धयर्थश्च वर्णानामुपदेशः-इष्टान्वर्णान्भोत्स्यामहे' इति । न ह्यनुपदिश्य वर्णानिष्टा वर्णाः शक्या विज्ञातुम् । इष्टबुद्धयर्थश्चेति चेदुदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्घप्लुतानामप्युपदेशः
      इष्टबुद्धयर्थश्चेति चेदुदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्घप्लुतानामुप्यपदेशः कर्तव्यः । एवं गुणा अपि हि वर्णा इष्यन्ते ।
      (वा०) वृत्ति समवाय के लिये वर्णों का उपदेश है।
      बृत्ति समवाय क्या चीज है ?
      बृत्ति के लिये समवाय वृत्तिसमवाय है, वृत्ति का उपकारक समयाय वृत्ति समवाय है अथवा वृत्ति का प्रयोजक समवाय वृत्तिसमवाय है।
      वृत्ति क्या चीज हैं ? शास्त्र की प्रवृत्ति ।
      समवाय क्या पदार्थ है ?
      वर्णों का क्रम से रखना ।
      उपदेश क्याक है ?
      उच्चारण ।
      यह कैसे ?
      दिश् धातु उच्चारणार्थक है । उच्चारण करके ही तो कहता है इन वर्णों का उपदेश हो गया ।

      हटाएं
  13. आपने लिखा है कि सर्वनाम की संख्या ३५ है परंतु इसकी सूची लिखते समय शक्यता तद् सर्वनाम लिखना रह गया है। देखकर जो सही लगे वह सुधार करने की कृपा करें।

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    उत्तर
    1. आभार। सुधार कर दिया गया है। इसकी संख्या को अलग- अलग प्रदर्शित करके लिख दिया गया।

      हटाएं
  14. मैं नियमित रूप से गीता पढ़ता हूं. और गीता के 6 अध्यायों को कंठस्त कर लिया है. वर्तमान में मैं 7 वें अध्याय को याद कर रहा हूं. गीता के श्लोकों को स्वयं के उद्योग से व्याख्या कर के समझने की परम हार्दिक लालसा है. तत्पश्चात ईश्वर की कृपा हुई तो सभी भारतीय संस्कृत ग्रंथों को पढ़ने की कोशिश होगी. मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तक आप संस्कृत नहीं सीखते, आप अपने अतीत को समझ नहीं सकते. इन दिनों लोग व्हाट्सएप मैसेज के जरिए बेतुके दावे करते हैं और जो इन संदेशों को पढ़ते हैं न केवल इन संदेशों पर विश्वास करते है, बल्कि उनकी प्रामाणिकता की पुष्टि किए बिना उन्हें फैलाते भी है जिसके कारण हमारा सनातन धर्म समाज कट्टरता,उजड्डता,मूढ़ता,अवैज्ञानिक स्वभाव का शिकार हो रहा है. मैं उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता. इसलिए मैं अपने अतीत को अपने प्रयासों से समझना चाहता हूं और हमारे समाज में व्याप्त मूढ़ता का मुकाबला करना चाहता हूं. अतः आशा है आप संस्कृत सीखने मे मेरा मार्गदर्शन करेंगे. सधन्यवाद kamleshagrawal73@yahoo.com

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    उत्तर
    1. श्रीमद्भगवद्गीता हो या वाल्मीकि रामायण, पुराण हो या संस्कृत साहित्य का कोई भी ग्रंथ, इनके अर्थों को समझने के लिए व्याकरण के नियम और शब्दकोश की आवश्यकता होती है। संस्कृत शिक्षण पाठशाला में उन सारे तत्वों को समाहित किया गया है, जिससे आप संस्कृत में लिखे धार्मिक साहित्य ग्रंथों को समझ सकते हैं। इसका एक लाभ और होगा। वह यह कि दर्शन, कृषि, चिकित्सा, राजनीति, ललित कला, इतिहास आदि विषयों पर लिखित संस्कृत साहित्य को भी आप समझ सकते हैं।

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  15. अगर इसका पीडीएफ है तो कृप्या लिंक भेजने का कष्ट करें 🙏

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    उत्तर
    1. इस पाठ का PDF अभी नहीं बना है। मेरे जीवित रहने तक या ब्लॉग रहने तक इसका PDF नहीं बना सकता। एक बार PDF बन जाने के बाद उसमें विस्तार या संशोधन का अवसर समाप्त हो जाता है। PDF बनाना ही होता तो ब्लॉग पर न लिखकर पुस्तक लिखा होता। इस पाठ को पढ़ने वाले यहाँ प्रश्न पूछ सकते हैं। उसका समाधान पा सकते हैं। पाठ में भी समाधान लिखा दिया जाता है, जबकि PDF में वह सुविधा समाप्त हो जाती है। कुल मिलाकर किसी अध्यापक से सीधे सम्वाद स्थापित करने पढ़ने तथा अध्यापक के मृत्यु होने के कारण उसके लिखे को पढ़ने में जो अन्तर है, वही अन्तर यहाँ आकर पढ़ने तथा PDF को पढ़ने में है।

      हटाएं
    2. कितना महत्वपूर्ण है आपका यह उद्यम ! संस्कृत जितना संरचित भाषा है ! प्रणाम ! प्रणाम ! प्रणाम !

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  16. kwachit; kadachit; kechana; kaschana; kwachit; kinchana; kasminchit;kamschan; ityadayaha pada prayogam katham bhavet iti ahm na janami mahoday. bhavan krupaya pada prayogam krutwa pathayamaha, iti mama prarthana. Dhanyavadaha Mahodaya

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    उत्तर
    1. चित्, चन आदि प्रत्यय लगाकर बनने वाले शब्द तथा उसके प्रयोग को लिख दिया हूं। आप पुनः ब्लॉग पर पधार कर देख ले।

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  17. Shree man ji se nivedan hai ki hame jitane bhi संस्कृत के नपुंसक लिंग के जितने भी शब्द है वो भी अपलोड करें और हमे gmail pr sent karne ki कृपा करें ।

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    उत्तर
    1. आपने बहुत मासूम सी बात लिख दी है। जब आप डिजिटल रूप में अध्ययन करने आते हैं, तब पुस्तक वाला संस्कार हटाकर आना चाहिए। यहाँ संस्कृत अभ्यास का लिंक दिया गया है। इसके माध्यम से आप मनचाहा शब्दरूप पा सकते हैं।

      हटाएं
  18. बहु सम्यक् रीत्या कृतमस्ति, धन्यवादाः महोदय I

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  19. सर इसका pdf लिंक provide कीजिए plz🙏
    और सर कृदंत प्रकरण भी समझा दिजिए ही🙏

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  20. उत्तर
    1. इस पाठ का PDF अभी नहीं बना है। मेरे जीवित रहने तक या ब्लॉग रहने तक इसका PDF नहीं बना सकता। एक बार PDF बन जाने के बाद उसमें विस्तार या संशोधन का अवसर समाप्त हो जाता है। PDF बनाना ही होता तो ब्लॉग पर न लिखकर पुस्तक लिखा होता। इस पाठ को पढ़ने वाले यहाँ प्रश्न पूछ सकते हैं। उसका समाधान पा सकते हैं। पाठ में भी समाधान लिखा दिया जाता है, जबकि PDF में वह सुविधा समाप्त हो जाती है। कुल मिलाकर किसी अध्यापक से सीधे सम्वाद स्थापित करने पढ़ने तथा अध्यापक के मृत्यु होने के कारण उसके लिखे को पढ़ने में जो अन्तर है, वही अन्तर यहाँ आकर पढ़ने तथा PDF को पढ़ने में है।

      हटाएं
  21. परिश्रमेण में कौन सी विभक्ति और कौन सा वचन है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. परिश्रम शब्द के तृतीया विभक्ति एकवचन में परिश्रमेण रूप बनताा है।

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  22. अदन्ति में कौन सा धातु है?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अद् धातु है। परस्मैपद, लट् लकार प्रथम पुरूष, बहुवचन में अदन्ति रूप बनता है। इसका प्रयोग कर्तृ वाच्य में होगा।

      हटाएं
  23. लता गृहस्य गच्छति correct the error in sanskrit
    Answer please sir

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यह वाक्य सही है। आप क्या कहना चाहते हैं? लता गृहस्य गच्छति वाक्य का हिन्दी में अनुवाद इस प्रकार होगा- घर की लता (किसी महिला का नाम) जाती है।

      हटाएं

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