अठारह निकायों में स्थविरवाद एक निकाय है। इनमें अभी दो ही निकाय प्रचलित हैं- स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद की विनय-परम्परा। स्थविरवाद की परम्परा श्रीलंका, म्यामांर, थाईलैण्ड, कम्बोडिया आदि दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में प्रभावी ढंग से प्रचलित है। उसका विस्तृत पालि साहित्य विद्यमान है और आज भी रचनाएं हो रही हैं। इस लेख में उसके परमार्थसत्य, शील, समाधि और प्रज्ञा का परिचय दिया गया है। शील, समाधि और प्रज्ञा ही मार्गसत्य है, जिससे निर्वाण (मोक्ष) जैसे परमार्थसत्य एवं परम पुरुषार्थ की प्राप्ति सम्भव है।
परमार्थ - जो अपने स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ता तथा जिसके स्वभाव से कभी
परिवर्तन नहीं होता ऐसा तत्त्व ‘परमार्थ’ कहा जाता है। जैसे - लोभ का स्वभाव (लक्षण) आसक्ति या लालच
है। यह चाहे मनुष्य में हो अथवा पशु में हो अपने आसक्ति या लालची स्वभाव को कभी भी
नहीं छोड़ता। भौतिक (रूप) वस्तुओं में भी पृथ्वी का स्वभाव ‘कठोर’ होना है। यह पृथ्व कहीं भी किसी भी अवस्था में अपने कठोर
स्वभाव को नहीं छोड़ती। इसलिए चित्त, स्पर्शवेदना आदि चैतसिक, पृथ्वी अप् आदि महाभूत और भौतिक वस्तु (रूप) तथा निर्वाण
परमार्थ कहे जाते हैं।
साधारण जन (पृथग्जन) इन परमार्थ धर्मों को नहीं जान सकते,
क्योंकि परमार्थ तत्त्व (धर्म) व्यवहारिक वस्तुओं से ढंका हुआ होता है। ज्ञान
(प्रज्ञा) के द्वारा देखने पर ही उसे जाना जा सकता है। जैसे- ‘व्यक्ति (पुद्गल) एक व्यावहारिक सत्य है,
किन्तु ज्ञान से देखने पर उस व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं
रह जाता है। उसमें पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु आदि भौतिक पदार्थ (रूप), आलम्बन को जानने वाला चित्त तथा आलम्बन केा स्पर्श करने
वाला (स्पर्श) एवं अनुभव करने वाली (वेदना) आदि चैतसिक ही विद्यमान रहते हैं।
व्यक्ति नष्ट हो जाता है, परमार्थ रह जाता है। वस्तु, द्रव्य आदि का भी अस्तित्व नहीं है,
केवल तत्त्वों (धर्मों) का ही अस्तित्व होता है। इन तत्वों
(धर्मों) को, जो अपने स्वभाव से विपरीत नहीं होते, विचलित नहीं होते ‘परमार्थ धर्म’ कहते हैं। यद्यपि परमार्थ चार कहे गये हैं,
यथा- चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण, तथापि इनमें से निर्वाण ही स्थायी है,
शेष तीन जब तक संसार रहते हैं,
तब तक क्षण क्षण में उत्पन्न होकर निवष्ट होते रहते हैं। इस
तरह धारावाहिक रूप में विद्यमान रहते हैं। फिर भी चूंकि वे जब तक हैं तब तक अपने
स्वभाव से कभी भी च्युत नहीं होते, इसलिए ‘परमार्थ’ कहे जाते हैं। अभिप्राय यह है-परमार्थ के स्वरूप के बारे
में बौद्ध दार्शनिकों में और अन्य भारतीय दार्शनिकों में मूलतः भेद है। जबकि अन्य
दार्शनिक यह समझते हैं कि परमार्थ धर्म वह है जो नित्य व चिरस्थायी हो,
जो नश्वर स्वभाव न हो।
इसके विपरीत वे (अन्य दार्शनिक) अपरमार्थ या व्यावहारिक धर्म उन्हें मानते
हैं जिनकी सत्ता कुछ काल के लिए होती है।
बौद्ध दार्शनिक परमार्थ उन्हें कहते हैं जिनकी सत्ता होती है,
जो अर्थ क्रियासमर्थ होते हैं। चाहे वे कुछ काल के लिए हों
या हमेशा विद्यमान रहते हों। उनके यहां चूंकि सभी धर्म (निर्वाण को छोड़कर) क्षणिक
होते हैं,
इसलिए परमार्थ के लिए नित्य होना आवश्यक नहीं होता। इसके
विपरीत अपरमार्थ या व्यावहारिक धर्म वे हैं, जिनकी किसी भी प्रकार से सत्ता नहीं रहती। उनकी स्थिति
मात्र कल्पनाजन्य होती है, दिमागी होती है, यथा व्यक्ति (पुद्गल। पांच स्कन्धों (परमार्थ धर्मों) से
भिन्न व्यक्ति की कुछ भी सत्ता नहीं है। व्यक्ति का अस्तित्व केवल दिमागी है। पाँच
स्कन्ध नित्य न होने पर भी परमार्थ है, क्येांकि उनका एक स्वभाव होता है और वे अपने स्वभाव से कभी
विचलित नहीं होते। क्षणिक अग्नि का भी दहन स्वभाव से कभी वियोग नहीं होता,
केवल निर्वाण नामक परमार्थ धर्म ही एक ऐसा है जो परमार्थ भी
है और स्थायी भी है। शेष चित्त, चेतसिक और रूप धर्म परमार्थ है,
किन्तु नित्य नहीं है, क्षणिक है।
चित्त-चैतसिक -
यद्यपि चित्त-चैतसिक पृथक्-पृथक् स्वभाव वाले होते हैं तथापि
वे दोनों एक विषय (आलम्बन) में एक साथ उत्पन्न होकर एक साथ निरुद्ध होते हैं।
इनमंे से वर्ण, शब्द आदि विषयों (आलम्बन) को सामान्यरूपेण जानना मात्र ‘चित्त’ है। यहाँ चित्त द्वारा आलम्बन का ग्रहण करना या प्राप्त
करना ही ‘जानना’ कहा जाता है। जानना, ग्रहण करना, प्राप्त करना, परिच्छेद (उद्ग्रहण) करना, ये पर्यायवाची हैं।
चित्त-चैतसिक दोनों के साथ-साथ उत्पन्न और निरुद्ध होने पर भी उनमें चित्त ही
प्रधान और पूर्वगामी होता है। क्येांकि कुछ चैतसिकों के न होने पर भी आलम्बन ग्रहण
हो सकता है, किन्तु चित्त के न होने पर आलम्बन का ग्रहण कथमपि नहीं हो सकता। यही चित्त की
प्रधानता है, अतः जिसके कारण चैतसिक आलम्बन का ग्रहण कर सकते हैं,
उसे ‘चित्त’ कहते हैं। स्पर्श, वेदना आदि चैतसिकों के द्वारा आलम्बन को ग्रहण करने के कारण
के रूप में भी चित्त को समझा जा सकता है। इस प्रकार चित्त की प्रधानता बनी रहती
है। जैसे- किसी राजा का आगमन उसके संरक्षक आदि के बिना नहीं होता,
तो भी वे सहवर्ती आदि प्रधान नहीं हो जाते,
इसलिए व्यवहार में ‘राजा आगतो’ के द्वारा राजा के आगमन का ही प्रधानतया उल्लेख होता है।
यह कहा गया है कि ‘आलम्बन’ केा ग्रहण करना मात्र, चित्त है। यह ठीक भी है, क्योंकि चित्त चैतसिकों का असली स्वभाव भावसाधनविग्रह
द्वारा ही भलीभाँति प्रकट होता है, जैसे- ‘चिन्तनं चित्तं’ स्पर्शनं स्पर्शः अर्थात् वे (चित्त-चैतसिक) क्रियामात्र ही
होते हैं। उनमें कोई द्रव्य, संस्थान या विग्रह उपलब्ध नहीं होता। वे कारणों में
प्रवृत्त होते हैं। वे न अपने बल से, अपने वश या शक्ति से उत्पन्न होते हैं तथा न तो दूसरों के
अधीन होते हैं। वस्तुतः वे क्षण मात्र ही रहते हैं अतः उनके सम्बन्ध में यह विभाजन
नहीं किया जा सकता, कि यह द्रव्य है यह संस्थान है या यह विग्रह है। यद्यपि
चित्त में कर्तृशक्ति एवं करणशक्ति नहीं होती, फिर भी आत्मवादियों की आत्मदृष्टि को हटाने के लिए चित्त
में कर्तृशक्ति और करणशक्ति का आरोप किया जाता है। जैसे आत्मवादी आत्मा को सिद्ध
करने के लिए उसमें कर्तृशक्ति मानते हैं, यथा- आत्मा जानता है। वे कहते हैं कि यदि आत्मा कर्ता न
होगा,
तो कौन जानेगा। इसी तरह वे उसमें करणशक्ति भी मानते हैं,
यथा- ‘आत्मा की वजह से इन्द्रियां विषयों को जानती हैं। यदि आत्मा
(करण) न होगा, तो इन्द्रियां विषयों को न जान सकेंगी।’
अनात्मवादी बौद्ध यद्यपि चित्त में कर्तृशक्ति और करणशक्ति नहीं मानते,
अपितु वे चित्त को ‘जानना मात्र’ मानते हैं, तथापि आत्मवादियों की आत्मदृष्टि को निरस्त करने के लिए वे
चित्त में कर्तृशक्ति एवं करणशक्ति का आरोप करते हैं। यथा- ‘चित्त जानता है, (कर्तृत्वारोप), ‘चित्त की वजह से चैतसिक विषयों में प्रवृत्त होते हैं
(करणत्वारोप) आदि।
वस्तुतः आलम्बन को जानना यही चित्त का स्वभाव है,
उसके अतिरिक्त अन्य कोई जानने वाला कर्ता (ज्ञाता) एवं
जानने का करण नहीं है।
आलम्बन को जानने के तीन प्रकार होते हैं। संज्ञा द्वारा जानना,
प्रज्ञा द्वारा जानना, चित्त द्वारा जानना। मिथ्या हो अथवा सत्य पूर्व में देखी
हुई वस्तु को ‘यह वही है’ इस प्रकार जानना संज्ञा के द्वारा जानना है। मिथ्या न होकर सत्य को ही यथार्थ
जानना प्रज्ञा के द्वारा जानना है। तथा किसी वर्ण, शब्द आदि आलम्बन मात्र को जानना चित्त के द्वारा जानना है।
यद्यपि संज्ञा प्रज्ञा तथा चित्त तीनों ही सामान्यतः जानना-क्रिया करते हैं- ऐसी
प्रतीति होती है, तथापि संज्ञा तथा प्रज्ञा के द्वारा जानना कृत्य से चित्त
की क्रिया विशिष्ट हैं। इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर चित्त को ‘विज्ञान’ भी कहते हैं।
चित्त, मन और विज्ञान एक ही अर्थ के वाचक हैं। जो संचय करता है (चिनोति),
वह चित्त है। यही मनस् है, क्योंकि यह मनन करता है (मनुते)। यही विज्ञान है,
क्यांेकि वह अपने आलम्बन को जानता है (आलम्बनं विजानाति)।
यद्यपि चित्त अपने ‘आलम्बनविजनानन’ इस लक्षण से एक प्रकार का है, किन्तु जाति, भूमि, सम्प्रयोग, संस्कार एवं वेदना आदि भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है।
चक्षुः,
श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा चित्त आलम्बन का ग्रहण करता
है। इन्द्रियां छह हैं, अतः इन्द्रियभेद से विज्ञान भी छह प्रकार के होते हैं-
चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घा्रणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान, कायविज्ञान और मनोविज्ञान। चक्षुर्विज्ञान से उत्पन्न होने
के लिए द्वार के रूप में चक्षुन्र्दि्रय, आलम्बन के रूप में वर्ण आवश्यक होता है। उसी प्रकार श्रोत्र
से शब्द का, नाम से गन्ध का, जिह्वा से रस का, काय से स्प्रष्टव्य का समागम होने पर उत्पन्न चित्त को
क्रमशः श्रोत्रविज्ञान, घ्राणविज्ञान जिह्वाविज्ञान और कायविज्ञान कहते हैं। चक्षुः
आदि विज्ञानों के उत्पन्न हो जाने के अनन्तर उसके द्वारा ग्रहण किये गये आलम्बन को
पुनः ग्रहण करने या मनन करने के लिए मनोद्वार (मन-इन्द्रिय) में जो विज्ञान
उत्पन्न होता है, उसे ‘मनोविज्ञान’ कहते हैं। चक्षुर्विज्ञान आदि के द्वारा आलम्बन का निश्चय
नहीं होता, उसके अनन्तर उत्पन्न मनोविज्ञान से ही आलम्बन का निश्चय होता है। इसलिए
चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घा्रण-विज्ञान, जिह्वाविज्ञान एवं कायविज्ञान निर्विकल्पज्ञान है तथा
इन्द्रिय विज्ञान के अनन्तर उत्पन्न होने वाला मनोविज्ञान सविकल्पकज्ञान होता है-
ऐसा कहना चाहिए। चक्षुर्विज्ञान आदि के
द्वारा विषय का ग्रहण मात्र होता है, तदनन्तर उत्पन्न मनोविज्ञान से ही विषय का निश्चय होता है,
क्यांेकि चक्षुर्विज्ञान आदि सर्वप्रथम उत्पन्न होकर क्षण
मात्र स्थिर रहकर निरुद्ध हो जाते हैं। इसलिए आलम्बन को व्यवहारोपयोगी रूप से पूरा
जानने में समर्थ नहीं होते। चक्षुरार्दिविज्ञानों के द्वारा गृहीत आलम्बन को पुनः
पूर्ण रूप से ग्रहण करने वाला मनोविज्ञान होता है। यह ज्ञान की सविकल्प अवस्था है।
चैतसिक-जब कोई चित्त उत्पन्न होता है, तब स्पर्श वेदना आदि चैतसिक भी उत्पन्न होते हैं। चित्त से
सम्बद्ध होकर उत्पन्न होने के कारण, चित्त में होने वाले उन स्पर्श वेदना आदि धर्मों को,
‘चैतसिक’
कहते हैं। यहाँ ‘चित्त’ आधार है तथा चैतसिक उसमें होने वाले आधेय हैं- ऐसा नहीं
समझना चाहिए। हाँ, यह ठीक है कि पूर्वगामी चित्त के अभाव में चैतसिक नहीं हो
सकते,
इस स्थिति में चित्त के न होने पर चैतसिकों के कृत्य नहीं
होंगे, चित्त से सम्बद्ध होने पर ही वे सम्भव हैं, अतः चित्त में होने वाले स्पर्श वेदना आदि
धर्म चैतसिक है- ऐसा भी कहा जाता है। यह ठीक भी है,
क्योंकि स्पर्श वेदना आदि सदा सर्वथा चित्त में सम्प्रयुक्त
होते हैं। चित्त के बिना चैतसिक अपने आलम्बनों को ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं।
इसीलिए चित्त-चैतसिकों का साथ-सा उत्पाद निरोध माना जाता है तथा साथ ही समान
आलम्बन का ग्रहण एवं समान वस्तु (इन्द्रिय) का आश्रय करना माना जाता है।
चित्त एवं चैतसिकों के साथ-साथ उत्पन्न एवं निरुद्ध होने पर भी उनके कृत्य
पृथक्-पृथक् होते हैं, क्योंकि वे भिन्न स्वभाव (लक्षण) वाले परमार्थ धर्म होते
हैं। यथा- जब चित्त आलम्बन का ग्रहण करता है तो उसके साथ होने वाले चैतसिकों में
से स्पर्श उस आलम्बन का स्पर्श करता है, वेदना आलम्बन के रस का अनुभव करती है,
संज्ञा आलम्बन का उसके नील, पीत आदि भेद से परिज्ञान (संज्ञान) करती है,
चेतना अपने साथ उत्पन्न होने चित्त-चैतसिकों को आलम्बन में
युक्त (अभिसन्धि) करती है, प्रवृत्त करती है तथा उत्साहित करती है। एकाग्रता आलम्बन
में चित्त का सम या सम्यक् आधान करती है। जीवितेन्द्रिय अपने साथ उत्पन्न नाम-रूप
धर्मों को जीवित रहने के लिए अनुपालन करती है तथा मनसिकार (मनस्कार) आलम्बन का मनन
(आवर्जन) करता है। इसी प्रकार अन्य चैतसिकों के स्वभाव एवं लक्षणों को भी जानना
चाहिए।
यद्यपि चित्त और चैतसिकांे में चित्त प्रधान एवं पूर्वगामी होता है,
तथापि चित्त विषय का सामान्यरूपेण ग्रहणमात्र करता है
तथा चैतसिक उसका विशेषरूपेण ग्रहण करते
हैं। आलम्बन की विशेष अवस्थाओं को छोड़कर केवल आलम्बन के सामान्य आकारमात्र का
ग्रहण चित्त द्वारा होता है। आलम्बन की विशेष अवस्थाओं का जैसे आलम्बन नीलसंज्ञक
है,
पीतसंज्ञक है, दीर्घ है, Ðस्व है, उन्नत है, अवनत है, सुखदायक है, दुःखप्रद है, मनोज्ञ है, अमनोज्ञ हैं, प्रिय है अप्रिय है- इत्यादि का निश्चय संज्ञा आदि चैतसिकों
द्वारा होता है। इसलिए जब कोई चित्त उत्पन्न होता है तो उसके साथ उत्पन्न विशेष
चैतसिकों के
आधार पर उस चित्त का नामकरण किया जाता है। जब कोई चित्त उत्पन्न होता है तो
सभी चित्तों से सर्वदा साथ रहने वाली स्पर्श वेदना आदि चैतसिकों (सर्वचित्तसाधारण)
के अतिरिक्त लोभ, द्वेष, श्रद्धा, स्मृति आदि चैतसिक भी उत्पन्न होते हैं। लोभ,
द्वेष, आदि चैतसिकों को लक्ष्य करके उस चित्त को लोभचित्त या
द्वेषचित्त आदि कहते हैं तथा श्रद्धा आदि शोभन चैतसिक उत्पन्न होने पर उनके साथ
होने वाले चित्त ‘शोभन चित्त’ कहलाते हैं। इसी प्रकार कुशल (पुण्य) चित्त तथा अकुशल (पाप)
चित्तों को भी जानना चाहिए। इस प्रकार चित्त के प्रधान एवं पूर्वगामी होने पर भी
अपने साथ उत्पन्न चैतसिकों के अनुसार उस चित्त का नामकरण भी किया जाता है।
रूप - उपर्युक्त चित्त चैतसिक मनुष्य के चेतन (अभौतिक) पदार्थ (धर्म) हैं,
इन्हें बौद्ध परिभाषा में ‘अरूप धर्म’ या ‘नाम धर्म’ कहा जाता है। ये नाम धर्म यद्यपि भौतिक (रूप) धर्मों का
आश्रय करके ही उत्पन्न होते हैं। तथापि वे भौतिक (रूप) धर्मों का संचालन भी करते
रहते हैं। उसका अभिप्राय यह है कि यदि रूप धर्म नहीं होते हैं तो अरूप (नाम) धर्म
भी नहीं होते। यदि अरूप (नाम) धर्म नहीं है तो रूप धर्म निष्प्रयोजन हो जाते हैं।
यद्यपि भगवान् बुद्ध का प्रधान प्रतिपाद्य निर्वाण था और निर्वाण प्राप्ति के लिए
कुशल,
अकुशल अरूपधर्मों का विवेचन करना भी आवश्यक था,
तथापि रूप धर्मों के विवेचन के बिना अरूपद्दर्मों का विवेचन
सम्भव नहीं था, फलतः उन्होंने 28 प्रकर के भौतिक धर्मों का विवेचन किया। इस प्रकार मनुष्य
जीवन में यद्यपि अरूपधर्म प्रधान है, तथापि रूपधर्मों की भी अनिवार्यता है। अतः सभी अभिधर्मशास्त्र रूपों का भी विश्लेषण
करते हैं।
शीत,
उष्ण आदि कारणों से विकार को प्राप्त होने वाली पृथ्वी,
अप्, तेजस् आदि भौतिक धर्मोें को ‘रूप’ कहा गया है। ये रूप् धर्म मनुष्य में तथा बाह्य जगत् में
व्याप्त हैं। जिस प्रकार निरन्तर उत्पन्न एवं निरुद्ध होते हुए चित्त जलधारा की
तरह प्रवाह के रूप में प्रवृत्त होता रहता है, उसी प्रकार रूप का भी क्षण-क्षण में उत्पाद निरोध होता रहता
है,
इसे रूप प्रवाह (रूप सन्तति) कहते हैं। पूर्वपूर्व रूप से
भिन्न बाद बाद की रूप सन्तति का उत्पन्न होना ही ‘विकार’ कहलाता है। जैसे- गर्मी के समय उष्ण रूपसन्तति प्रवृत्त
होती रहती है, यदि उसी समय शीतलता हो जाने पर रूपसन्तति धीरे-धीरे उष्णारूपसन्तति से
शीतरूपसन्तति के रूप में बदल जाती है तो इस प्रकार पूर्व रूपसन्तति से भिन्न होकर
नयी रूपसन्तति के प्रवृत्त होने को ही ‘विकार’ कहते हें। इसी प्रकार शीतलरूपसन्तति से भिन्न उष्ण
रूपसन्तति के रूप में परिवर्तन होने को भी जानना चाहिए। शीत ऋतु में त्वचा का फटना
आदि शीत से होने वाले रूप के विकार हैं। गर्मी से रक्तवर्ण हो जाना आदि उष्ण से
होने वाले रूप के विकार हैं। पूर्व कर्म से कुरूप या सुन्दर रूप आदि होना कर्म से
होने वाले रूप के विकार हैं। प्रसन्न एवं क्रोध चित्त होने पर चेहरे पर प्रसन्नता,
मलिनता आदि होना चित्त से होने वाले रूप के विकार हैं तथा
अच्छे भोजन मिलने पर पुष्ट रूप आदि होना आहार से होने वाले रूप के विकार हैं। इस
प्रकार ऋतु, कर्म,
चित्त एवं आहार के रूप के विकार को जानना चाहिए।
पृथ्वी अप् आदि 28 रूपों में से पृथ्वी अप्, तेजस, वायु वर्ण, गन्घ, रस और ओजस् ये आठ रूप सदा एक साथ रहते हैं। परमाणु,
जो सूक्ष्म पदार्थ माना जाता है,
उसमें भी ये आठ रूप रहते हैं। इनमें से पृथ्वी,
अप् तेजस् और वायु को ‘महाभूत’ कहते हैं। क्येांकि इन चार रूपों का स्वभाव और द्रव्य अन्य
रूपों से महान् होते हैं तथा ये ही मूलभूत होते हैं। इन चार महाभूतों का आश्रय
लेकर ही वर्ण आदि अन्य रूपों की अभिव्यक्ति होती है। वर्ण,
गन्ध आदि रूपों का हमें तभी प्रत्यक्ष हो सकता है,
जबकि इनके मूल में संघातरूप महाभूत हों। जब महाभूतों का
संघात रहेगा तब वर्ण गन्ध आदि का भी प्रत्यक्ष हो सकेगा।
मनुष्य के शरीर में विद्यमान चार महाभूतों के स्वभाव को समझने के लिए मृत्तिका
से बनी हुई मूर्ति को उपमा से विचार किया जाता है। एक-एक रूप-समुदाय (कलाप) में
विद्यमान इन चार महाभूतों केा प्राकृत चक्षु द्वारा नहीं देखा जा सकता,
वे परमाणु नामक अत्यन्त सूक्ष्म रूप-समुदाय (कलाप) होते
हैं। अनेक रूपों (कलापों-रूप-समुदायों) का संघात होने पर ही उन्हें प्राकृत चक्षु
द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रकार अनेक रूप-समुदायों (कलापों) का संघात होने पर
मनुष्य का भौतिक शरीर बन जाता है।। भौतिक शरीर होने में मनुष्य के पूर्वकृत कर्म
(चेतना) मुख्य कारण होते हैं। रूप का विकार होने में कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार को कारण (प्रत्यय) माना जाता है। ये चार कारण
रूप के उत्पाद में भी कारण हैं। इन चार कारणों में से किसी एक या दो कारणों से
अथवा सभी चार कारणों से रूपों की उत्पत्ति होती है। मनुष्य जीवन भर अच्छे या बुरे
कर्म करता रहता है। वे कर्म उसके पुनर्जन्म (पुनर्भव) में उत्पन्न होने के लिए
कारण हो जाते हैं। जब तक वह जीवनमुक्त (अर्हत्) नहीं होता तब तक मनुष्य के द्वारा
किये गये सभी कर्म भावी (अनागत) जीवन के लिए कारण (फलदायक) होते हैं। किसी एक कर्म
के विपाक (फल) स्वरूप एवं नये जीवन में प्रवेश करते समय (माता के गर्भ में
सर्वप्रथम प्रवेश के समय (प्रतिसन्धिकाल में) सबसे पहले चित्त,
स्प्रष्टव्य रूप (काय), स्त्री या पुरुष का भाव (भावरूप) तथा आश्रयरूप (वस्तुरूप)
ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए रूप के उत्पाद में कर्म को एक कारण कहा है।
चित्त के प्रसन्न होने पर रूप भी प्रसन्न एवं स्वच्छ होता है तथा चित्त में
क्रोध होने पर रूप लाल होता है। मनुष्य के मुख एवं शरीर को देखकर भीतरी चित्त के
स्वभाव को जाना जा सकता है। इसलिए रूप के उत्पाद में चित्त को एक कारण कहा है। ऋतु
भी रूप के उत्पाद में एक कारण है। शीत, उष्ण ऋतुओं के रूपों में उत्पत्ति प्रसिद्ध है। अनुकूल तथा
प्रतिकूल भोजन मिलने से शरीर स्वस्थ तथा कृश हो जाता है,
अतः आहार भी रूप के उत्पाद में एक कारण होता है।
उपर्युक्त कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार के कारण उत्पन्न रूपों की कुल संख्या 28 होती है। यथा-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु ये चार महाभूत और इन चार महाभूतों को आश्रय करके
उत्पन्न 24 उपादानरूप हैं। यथा- चक्षुष, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं काय ये पांच प्रसाद रूप। सम्बद्ध आलम्बनों के
प्रतिभासित होने के लिए कुछ रूप कलापों में स्वच्छ धातु होती है,
उसे ही प्रसादरूप कहते हैं। ये प्रसादरूप भी रूपकलाप होते हैं। रूप,
शब्द, गन्ध, रस तथा स्प्रष्टव्य ये पांच गोचर रूप हैं। चक्षुष् आदि
इन्द्रियाँ रूप, शब्द आदि विषयों में विचरण करती हैं। अतः रूप शब्द आदि को गोचररूप कहते हैं।
स्त्रीत्व और पुरुषत्व ये दो भाव रूप हैं, ये दो स्त्रीभाव और पुरुषभाव का प्रकाशन करते हैं,
अतः भावरूप कहलाते हैं। यह भावरूप भी कायप्रसाद की तरह
प्रतिसन्धिक्षण (माता के गर्भ में सर्वप्रथम प्रवेश काल) से ही शरीर में उत्पन्न
हो जाने के कारण काय प्रसाद की तरह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर विद्यमान रहने
वाला रूप है। जैसे- वृक्ष के अंकुर, पत्र, पुष्प एवं फल आदि अपने बीज के अनुसार उत्पन्न होते हैं,
उसी तरह प्रतिसन्धि के साथ उत्पन्न भावरूप के अनुसार ही
स्त्री एवं पुरुष शरीर में लिंग, निमित्त, आकार आदि उत्पन्न होते हैं। हृदयरूप,
जिस रूप द्वारा उन-उन अर्थों या अनर्थों को पूर्ण किया जाता
है,
उस हृदयवस्तु को ही ‘हृदयरूप’ कहते हैें। जीवितरूप जो सह उत्पन्न कर्मजरूपों (कर्म से
उत्पन्न रूपों) का अनुपालन करता है अर्थात् वह कर्मजरूपों की आयु है। आहाररूप,
जिस आहार का केवल (कौर) किया जाता है,
उसे कवलीकार आहार कहते हैं। यहाँ कवलीकार आहार को ही आहार
कहते हैं।
उपर्युक्त चार महाभूत, पाँच प्रसाद, चार गोचर, दो भावरूप, हृयरूप जीवित रूप एवं आहार- इन 18 रूपों को अपने स्वभाव से विद्यमान रहने के कारण स्वभावरूप,
सलक्षणरूप तथा निष्पन्नरूप कहते हैं। शेष आकाशधातु
(परिच्छेदरूप) कायविज्ञप्ति, वाग््विज्ञप्ति, रूप की लक्षुता, मृदुता, कर्मण्यता तथा रूप की उत्पत्ति (उपचय),
सन्तति, जरता एवं अनित्यता-इन दस रूपों को अनिष्पन्न रूप कहते हैं,
वे दस रूप अपने स्वभाव में विद्यमान नहीं हैं,
अपितु उपर्युक्त अठारह निष्पन्न रूपों के लक्षणमात्र होते
हैं। इन 28 रूपों को लोभ, द्वेष आदि हेतुओं से उत्पन्न न होने के कारण अहेतुक,
कर्म, चित्त ऋतु और आहार इन चार प्रतययों से उत्पन्न होने से
सत्प्रययरूप, लोभ,
दृष्टि और मान इन क्लेशों को आòव कहते हैं। रूप इन आòवों के साथ उत्पन्न होते हैं, अतः इन्हें साòव कहते हैं। ये रूप कर्म, ऋतु एवं आहार द्वारा अभिसंस्कृत किये गये हैं,
अतः इन्हें संस्कृत कहते हैं। ये रूप धर्म संसार (लोक) में
संगृहीत हेाते हैं, अतः इन्हें लोकिय कहते हैं। ये कामतृष्णा के आलम्बन होते
हैं,
अतः इन्हें कामावचर कहते हैं। ये किसी आलम्बन को ग्रहण नहीं
करते हैं,
अतः इन्हें अनालम्बन कहते हैं तथा ये (रूप) प्रहाण करने
योग्य नहीं हैं, अतः अप्रहातव्य कहते हैं।
निर्वाण:- उपर्युक्त चित्त, चैतसिक और रूप धर्मों का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर निर्वाण
का साक्षात्कार किया जा सकता है। यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति करने के लिए साधना
(विपश्यना) करना चाहि। साधना (विपश्यना) के द्वारा जो ज्ञान को प्राप्त करता है,
वह आर्यपुद्गल है, आर्यपुद्गल ही निर्वाण का साक्षात्कार कर सकते हैं। जिसके
दु5ख और दुःख के कारण (तृष्णा-समुदय) निवृत्त हो जाते हैं,
वही निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है,
अतः दुःख तथा तृष्णा से आत्यन्तिकी निवृत्ति ही ‘निर्वाण’ कहलाता है। यद्यपि निर्वाण दुःखों से आत्यन्तिकी निवृत्ति
मात्र का निरोध मात्र को कहते हैं, तथापि वह अभाव नहीं कहा जा सकता,
क्यांेंकि वह आर्यजनों के द्वारा साक्षात् करने योग्य है
अर्थात निर्वाण ज्ञानप्राप्त आर्यजनों का विषय (आलम्बन) होने से अभाव नहीं कहा जा
सकता। वस्तुतः वह अत्यन्त सूक्ष्म धर्म होने से साधारण जनों के द्वारा जानने एवं
कहने योग्य नहीं होने पर भी वह आर्यजनों का विषय होता है। इसलिए निर्वाण को एक
परमार्थ धर्म कहते हैं।
एक जीवन (भव) से दूसरे जीवन को जोड़ने में कारणभूत तृष्णा को ‘वान’ कहते हैं। उस वान (तृष्णा) से निर्गत होने के कारण वह
निर्वाण कहा जाता है। निर्वाण मार्गज्ञान द्वारा प्राप्तव्य मात्र है,
उत्पादनीय नहीं। वह उत्पाद, स्थिति एवं भंग लक्षणों से युक्त न होने से नित्य है। रूप
स्वरूप का अभाव होने से अरूप है, सर्व प्रपंचों से अतीत होने से निष्प्रपंच है,
राग, द्वेष एवं मोह के साथ नाम-रूप धर्मों से शून्य होने के कारण
शून्य है,
कोई आकार (संस्थान) न होने से अनियमित है तथा कर्म,
चित्त, ऋतु एवं आहार से असंस्कृत है।
निर्वाण शान्ति सुख लक्षण वाला है। यहाँ सुख दो प्रकार का होता है- शान्ति सुख
एवं वेदयितसुख। शान्तिसुख वेदयितसुख की तरह अनुभूतियोग्य सुख नहीं है। किसी एक
विशेष वस्तु का अनुभव न होकर वह उपशमसुख मात्र है। अर्थात् दुःखों से उपशम होना ही
है। निर्वाण के स्वरूप के विषय में आजकल नाना प्रकार की विप्रतिपत्तियाँ हैं। कुछ
लोग निर्वाण को रूप विशेष एवं नाम विशेष कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि
नाम-रूपात्मक स्कन्ध के भीतर अमृत की तरह एक नित्यधर्म विद्यमान है,
जो नामरूपों के निरुद्ध होने पर भी अवशिष्ट रहता है,
उस नित्य, अजर, अमर, अविनाशी के रूप में विद्यमान रहना ही निर्वाण है,
जैसे- अन्य भारतीय दार्शनिकों के मत में आत्मा। कुछ लोगों
का मत है कि निर्वाण की अवस्था में यदि नामरूप धर्म न रहेंगे तो उस अवस्था में सुख
का अनुभव भी कैसे होगा इत्यादि।
वस्तुतः निर्वाण चित्त, चैतसिक एवं रूप नामक परमार्थ धर्मों से पृथक एक परमार्थ
धर्म है,
अतः नाम-रूप संस्कारों से सर्वथा असम्बद्ध होने के कारण वह
नाम विशेष एवं रूप विशेष नहीं हो सकता। निर्वाण स्कन्ध (शरीर) के अन्तर्गत रहने
वाला अमृत की तरह कोई अविनाशी नित्यधर्म भी नहीं हो सकता। निर्वाण पुद्गल एवं
सत्त्व की तरह कोई वेदक धर्म भी नहीं है और न रूप, शब्द आदि आलम्बनों की तरह वेदयितव्य धर्म ही है। अतः
निर्वाण में वेदयितव्य सुख नहीं है, किन्तु उसमें उससे कोटिगुण अधिक शान्तिसुख एकान्त रूप से
होता है। दुःख से निवृत्त शान्तिसुख ही परमसुख है। जैसे किसी आलम्बन को प्राप्त
करने वाले किसी व्यक्ति को उस आलम्बन के विषय में यथाभूत ज्ञान होता है,
उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त ज्ञानी आर्य ही निर्वाण के
स्वरूप का यथाभूत ज्ञान कर सकते हैं तथा उसका प्रामाणिक रूप से प्रतिपादन कर सकते
हैं। सामान्य जन गम्भीर निर्वाण को यथार्थ रूप से नहीं जान सकते। वे अनुमान से ही
उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं इसलिए जगत् के दुःखों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त
करके उन दुःखों से अत्यन्त निवृत्त निर्वाण के शान्तिसुख के उपशमस्वभाव को जानना चाहिये।
बौद्ध दुःखमय जगत् से अच्छी तरह परिचित है। संसार दुःख ही है,
उसमें सुख लेशमात्र भी नहीं है दुःखों से छुटकारा पाने को
सुख कहते हैं, अतः तात्कालिक सुख की कामना करना व्यर्थ है, बल्कि दुःखों से निवृत्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए।
निर्वाण हो जाने पर आत्मा जैसी केाई अविनाशी वस्तु अवशिष्ट नहीं रहा करती है। जिस
प्रकार दीपक के जलने के लिए आवश्यक तेल आदि पदार्थ के अवशिष्ट न रहने पर दीपज्वाला
(लौ) अपने आप बुझ जाती है, उसी प्रकार निर्वाण की अवस्था में पुनः निर्वाण (निरोध) के
लिए कोई नाम रूप आदि अवशिष्ट नहीं रहते।
दुःखों के अभाव या क्लेशाभाव को जो निर्वाण कहा गया है,
वह परम निर्वाण नहीं है, अपितु व्यावहारिक (प्रज्ञप्ति) निर्वाण है। परमनिर्वाण एक
परमार्थ धर्म है, उस परमनिर्वाण को जानना सरल नहीं है। बुद्ध ने निर्वाण के
स्वरूप की विशेषतया व्याख्या नहीं की। शायद बुद्ध के समय में लोग निर्वाण के
स्वरूप को जानते होंगे, क्येांकि निर्वाण के स्वरूप के बारे में बुद्ध से प्रायः
प्रश्न नहीं किये गये,
केवल मुक्त व्यक्ति के मरने के बाद होने वाली दशा के बारे
में हो वे प्रश्न पूछते थे। बाद में बौद्धों के लिए निर्वाण एक रहस्यमय विषय बन गया। जितने आचार्य हुए हैं,
उतने ही निर्वाण के भिन्न-भिन्न स्वरूप हो गये हैं। यहाँ पर
स्थविरवादी दृष्टि से निर्वाण के स्वरूप
का संक्षिप्त विचार प्रस्तुत है।
असंस्कृत परमनिर्वाण सभी दुःखों से अशेष निरोध (निरोध-निर्वाण) मात्र नहीं है,
वह तो व्यावहारिक (प्रज्ञप्ति) निर्वाण है। तथागत और अर्हत्
(मुक्त व्यक्ति) की सन्तान में उत्पन्न अर्हत्-मार्गचित्त के निर्वाण का आलम्बन
करके उत्पन्न होते समय अविद्या और तृष्णा नामक क्लेश समूल नष्ट या निरुद्ध हो जाते
हैं। अनादिकाल से चित्त के साथ संयुक्त रहने वाले क्लेशों के समूल निरुद्ध हो जाने
पर उनसे कार्य-कारण भाव से सम्बद्ध कर्म-विपाक भी नष्ट हो जाते हैं। संसारी
सामान्यजनों की सन्तान में निरन्तर उत्पन्न होने वाले पाँच स्कन्ध (नाम-रूप) भी
तथागत और अर्हतों में पुनः उत्पन्न नहीं होते। वे अशेष निरुद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार
का निरोध (निरोध निर्वाण) परमनिर्वाण नहीं, अपितु परमनिर्वाण का फल (विपाक) मात्र है। उसी प्रकार का
विपाक निर्वाण (निरोध निर्वाण) तो क्लेशाभाव का प्रदर्शन करने वाला व्यावहारिक
(प्रज्ञप्त) अर्थमात्र है अर्थात् अभावार्थमात्र है।
यदि सभी दुःखों के अशेष निरोध केा परमनिर्वाण कहेंगे तो वह बुद्ध के वचनों केे
विरुद्ध हो जायेगा। बुद्ध ने परमनिर्वाण को नित्य, ध्रुव, निपुण, शाश्वत्, अनुत्तर, अद्भुत आदि कहा है। जिस प्रकार दीपक (दिया) नहीं है,
प्रकाश अन्धकार को हटाता है, उस अन्घकार का अभाव प्रकाश नहीं है,
उसी प्रकार निरोध मात्र परमनिर्वाण नहीं है,
उसे दुःखों का अभाव कहना तो व्यावहारिक अर्थमात्र है।
परमनिर्वाण तो उन सबसे परे तथागत और अर्हतों के द्वारा साक्षात् करणीय होने से वह
एक परमार्थ धर्म है।
निर्वाण द्विविध है- सोपधिशेष (सउपादिसेस), और अनुपधिशेष (अनुपादिसेस)। इनमें तथागत और अर्हतों की
सन्तान में निर्वाण का आलम्बन करके अर्हत्-मार्गचित्त उत्पन्न होते समय सभी
सांक्लेशिक धर्म अशेष निरुद्ध हो जाते हैं, केवल क्लेशों का निरोद्दमात्र होता है,
इसे सोपधिशेष निर्वाण कहते हैं।
तथागत और अर्हत् के मरते समय (परिनिर्वाण करते समय) उनके पाँच स्कन्ध नये भव
में पुनः उत्पन्न होकर अशेष निरुद्ध या उपशान्त हो जाते हैं,
उन पाँच स्कन्धों के अशेष निरोध या उपशम को अनुपधिशेष
निर्वाण कहते हैं। उपर्युक्त दोनों निर्वाण भी परमनिर्वाण नहीं हैं। परमनिर्वाण तो
पांच स्कन्धों के अशेषनिरोध के अनन्तर उत्पन्न निर्वाण कहना भ्ीा ठीक नहीं है,
क्योंकि निर्वाण उत्पन्न होने वाला धर्म नहीं है,
यदि उत्पन्न होने वाला हो तो उनकी स्थिति और भंग भी सम्भव
होगा। उत्पाद, स्थिति और भंग होने पर निर्वाण त्रैकालिक हो जायेगा। बुद्ध ने भी कहा था कि
निर्वाण,
अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है। वस्तुतः अज्ञात (अनुत्पन्न) होने पर
भी वह अभाव नहीं है। परमार्थतः उसकी सत्ता है, उसकी सत्ता होने पर भी वह चित्त,
चैतसिक और रूप परमार्थों की तरह किसी एक कारण (हेतु) से
उत्पन्न होन वाला नहीं है। वह नित्य ध्रुव है। नित्य धु्रव होने से वह कब से उत्पन्न
है-ऐसा भी कहा नहीं जा सकता, उत्पन्न स्वभाव नहीं होने से इसका स्थिति और भंग स्वभाव भी
नहीं है,
इसलिए इस परमनिर्वाण को अज्ञात,
अभूत, अकृत और असंस्कृत कहा गया है। परम निर्वाण नित्य,
धु्रव, शाश्वत है। अतः उत्पाद निरोध से परे नित्य निर्वाण में कैसे
‘निरोध’ होगा तथा कैसे वह क्लेशक्षय मात्र होगा ?
निरोधस्वभाव और क्षयस्वभाव आदि परमनिर्वाण में कथमपि नहीं
हो सकते। तथागत और अर्हत् ही उस परमनिर्वाण के स्वभाव को यथार्थ जानते हैं,
वह सामान्यजनों का विषय नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें