भारतीय
मांगलिक प्रतीकों का मूल स्रोत वेद है। मांगलिक प्रतीकों एवं प्रतीकों के भद्र रूप
की कल्पना वेद में निसर्गतः प्राप्त है। जीवन के स्वस्तिभाव के प्रतीक स्वरुप
स्वस्तिक की परिकल्पना की गयी। इसी प्रकार भद्रकलश (ऋग्वेद 3-52-15) पूर्ण कलश के रूप में धार्मिक अभिप्राय बना।देवताओं से
जुड़े रहने के कारण प्रतीकों का मांगलिक स्वरूप स्वतः सिद्ध है। प्राचीन भारत के
प्रमुख धर्मों यथा – ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध धर्म में मांगलिक प्रतीकों का
महत्वपूर्ण स्थान है। स्कंद पुराण,
ललितविस्तर एवं रायपसेणीय सुत्त आदि विभिन्न ग्रंथों में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर
इन शुभ चिह्नों का वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन भारतीय कला में मांगलिक
अभिप्रायों में लक्ष्मी का स्थान महत्वपूर्ण माना गया है। लक्ष्मी की कल्पना
प्राचीन महाकाव्य के युग में पूर्ण रुप से साकार हुई। व्यापार एवं वाणिज्य की
उन्नति एवं आर्थिक विकास तथा धन की बढ़ती हुई आवश्यकता और महत्व के फलस्वरूप
लक्ष्मी पूजा उत्तरोत्तर लोकप्रिय होती गई। उपयोगी चिह्नों या मांगलिक प्रतीकों
में गोधन (गोवंश)के कानों की सजावट में प्रयुक्त लक्ष्मांकन आते हैं। ऋग्वेद में गोरु
के कान पर 8 के अंक जैसा चिह्न, अथर्ववेद में स्त्री-पुरुष युग्म या अन्य लक्ष्मों के दागे
जाने का कथन महत्वपूर्ण है। मैत्रायणी संहिता के गोनामिका प्रकरण में गोधन के
कानों पर विविध जनसमूहों द्वारा पहचान के लिए प्रयुक्त लक्ष्मों का परिचय तथा उसके
बनाने का विधान मिलता है। गायों के लिए प्रचलित चिह्नों में स्थूणा (थूनी) कर्करी (वीणा
या घट) सास्नाकृति (ललड़ी) प्रछिन्द्या (कटी-फटी
रेखा) दात्र (दराँती) आदि विशिष्ट थे।
परिमंडल
जैमिनी ब्राह्मण
में दी गई व्याख्या के अनुसार परिमंडल (अर्थात् वृत्त, चक्राकार, परिधि, गोल आदि)
स्वरूप देवताओं एवं उनके दिव्य तथा अनंत गुणों का प्रतीक है –स एष प्रजापति
---- परिमंडलो भूत्वा अनन्ततो भूत्वा शये । ऋग्वेद में विष्णु से संबंधित
चक्र के वर्णन में उसके मंडल के भीतर कुल मिलाकर 90 -90 की चार नवतियों का कथन है, जिसकी समग्र संख्या 360 होती है। यहां वृत के साथ-साथ उसके भीतर छुपे हुए दिशा-
स्वस्तिक की चार भुजाओं का संकेत है। अथर्ववेद में किसी मंडलाकार कल्पना के
अंतर्गत पद्म के विकसित फुल्ले का स्वरूप “ पुंडरीक “ शब्द से कथित है।
स्वस्तिक
प्रदक्षिणा
ऋग्वेद में ही दाहिनी ओर कुंचित के सुंदर एवं
शुभ कहे गए हैं (दक्षिणतः कपर्द)। प्रदक्षिणा-क्रम में परिक्रमा या परि- गमन ने
आदरसूचक कृत्य के रूप में प्रदक्षिणा का सिद्धांत निर्धारित किया, जो सूर्य के उदय
अस्त क्रम के अनुसार सृष्टि मार्ग माना गया। भारतीय विचारधारा में दिशाओं का क्रम
सदैव इसी सिद्धांत पर वर्णित है- प्राची, दक्षिणा, प्रतीची एवं उदीची। दक्षिणा
शब्द यज्ञ में दी जाने वाली आहुति और दान आदि के लिए इसी दृष्टि से शुरू हुआ। इसके
अनुसार दक्षिण और वाम का शास्त्रीय निर्धारण समझा गया।
शूल एवं
त्रिशूल
षड्विंश ब्राह्मण में रुद्र को शूलपाणि बताया
गया है, जो ऋग्वेद में रुद्र के पुत्र मरूद् देवों का विशेष आयुध है। ऐतरेय ब्राह्मण
में रुद्र का इषु या बाण त्रिकांड है, जो परवर्ती त्रिशूल की प्राथमिक कल्पना का
परिचायक है।
लिंग
लिंग पूजा अनादिकाल से प्रचलित लोक परंपरा रही
है, जिसके साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता से भी स्पष्ट ज्ञात है। ऋग्वेद में शिश्नदेवाः
अर्थात लिंग को देवता मानने वाले लोगों का उल्लेख रोचक है। मूरदेवाः के रुप में भी
संभवतः इसी पूजा पद्धति का संकेत है।
गोष्पद, गोशफ
अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय संहिता के
अनुसार गोधन के विशेष महत्व एवं धार्मिक महात्म्य की दृष्टि से गाय के खुर का चिह्न
या छाप इस प्रतीक का मौलिक विचार था, जो प्रतीकात्मक भाषा में पशुधन का प्रतिनिधि
माना गया।
स्कम्भ
सृष्टि-भवन के आधारभूत तत्व या टेक के रुप में स्कम्भ
या ब्रह्म स्तंभ की कल्पना अत्यंत प्राचीन थी। ऋग्वेद में द्यावा पृथ्वी अथवा भुवनों
को सहारा देने वाले सिद्धांत के लिए स्तंभ का उल्लेख कई बार हुआ है। इसी संदर्भ
में इंद्र को सर्वोत्तम स्तंभ का स्वामी कहा गया है। अथर्ववेद में स्कम्भ को
सर्वाधार कहा गया है, जिसके अंग-अंग में सृष्टि के विविध नियम, प्राकृतिक तत्व,
लोक, देवता, काल, वेदादि की प्रतिष्ठा है।
गरुत्मान् सुपर्ण
वेदों में गरुत्मान्, सुपर्णश्येन आदि नामों से
यह अभिप्राय विशेष प्रसिद्ध दिखाई देता है। उसे सर्वोच्च सत्ता, प्रजापति, संवत्सर,
सूर्य आदि का प्रतीक समझा गया।
इन्द्रमह
इंद्र की ध्वजयष्टि के स्थापन का उत्सव कौशिक
सूत्र में इंद्रमह नाम से वर्णित है। कला में उसका प्रतिनिधित्व इंद्रयष्टि या वैजयंती
के मांगलिक प्रतीक द्वारा मिलता है।
यूप
यज्ञमय कर्मकांड में यूप स्थापना महत्वपूर्ण थी।
जैमिनी ब्राह्मण में तो वीणा और यूप के विभिन्न भागों को क्रमशः समान गुणों या
विशेषताओं वाला बताया गया है। तैत्तरीय ब्राह्मण में यूप को आदित्य का प्रतीक कहा
गया है।
स्तूप
आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार स्तूप की
कल्पना ऋग्वेद में पाई जाती है। वहां अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया
है। जैन और बौद्ध संप्रदायों ने स्तूप- समाधि एवं उसकी पूजा को व्यापक रूप में
अपनाया।
पूर्ण कुंभ
सर्व समृद्धि मंगल एवं पूर्णता के प्रतीक रूप
में पूर्णकुम्भ ,वसुधानकोष, पूर्ण कलश, भद्रघट, मंगलकलश आदि नामों से अभिहित यह
विलक्षण कल्पना भारतीय जीवन एवं कला का अभिन्न अंग है। ऋग्वेद में आ-पूर्ण कलश की
स्थापना जीवन में उपलब्ध देवी समृद्धि और मांगलिक वैभव की सूचक ज्ञात होती है।
अन्यत्र उसे सोम से भरा पात्र कहा गया है।
यक्ष
ऋग्वेद में यक्ष और उसके सद्म का उल्लेख है। यक्ष पूजा को वरुण, मित्र आदि की
पूजा से भिन्न एवं एवं नीचा कहा गया है। अग्नि तो यक्षों के भी अध्यक्ष कहे गए हैं
।भारद्वाज गृह्यसूत्र में विद्यार्थी को यक्ष के समान सुंदर होने का आशीर्वाद देने
के साथ-साथ उसे महाराज कुबेर की सुरक्षा में दिया जाता था।
गण एवं गणपति
गण, व्रात या
समूह में बहुसंख्यक देवताओं की कल्पना ऋग्वेद से ही बद्धमूल दिखाई देती है। रुद्र,
आदित्य, बसु तथा अश्विनीद्वय नामक देवों के चार प्रसिद्ध गण या वर्गों को मिलाकर 33
देवों का मंडल बनता है। मानव गृह्यसूत्र में 4
विनायकों के समूह या गण की शांति पूजा का विस्तृत संदर्भ विघ्नकारी
गणों की मान्यता का सूचक है, जो विघ्नेश विनायक अर्थात् गणपति में समाहित हुई।
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