ध्वनि सम्प्रदाय

    संस्कृत के अलंकारशास्त्र में ध्वनि का प्रवर्तन आचार्य आनन्दवर्द्धन द्वारा हुआ है परन्तु आनन्दवर्धन स्वयं इसे कोई नितान्त नूतन सिद्धान्त नहीं मानते। वे इसे अपने ग्रन्थ की पहली ही कारिका में समानात् पूर्व की संज्ञा देते है। इसी शब्द की वृत्ति में व्याख्या की गई है परम्परया समाम्न्ताद् म्नातः प्रकटितः‘‘। इससे ऐसा लगता है कि सम्भवतः आनन्दवर्द्धन अपने से पूर्व की किसी ऐसी परम्परा का संकेत करते है। जो इस सिद्धान्त के विषय में प्रचलित ही नही परिपक्व भी थी। परन्तु उपलब्ध साहित्य में न तो आनन्दवर्द्धन के पूर्व यह सिद्धान्त किसी ग्रन्थ में निबद्ध मिलता है और न ही कोई आचार्य इसका इस नाम से प्रत्यक्ष रूप से अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख करते है। इससे अनुमानतः दो निष्कर्ष निकाले जा सकते है, पहला यह है कि सम्भवतः यह सिद्धान्त पहले मौलिक परम्परा से चलता रहा हो, दूसरा यह की ध्वनि सिद्धान्त का मूल विचार ही ग्रन्थकार ने किसी अन्य शास्त्र से ग्रहण किया हो। द्वितीय निष्कर्ष की पुष्टि स्वयं आचार्य आनन्दवर्द्धन करते है।
     उनका कथन है कि साहित्यिक क्षेत्र में प्रथम विद्वान् वैयाकरण व्याकरणमूलत्वात् सर्वविद्यानाम्। ते च श्रूयमाणेषु वर्णेषु ध्वनिरिति व्याहरन्ति‘‘। स्पष्ट है कि वैयाकरणों से आनन्दवर्द्धन को इस सिद्धान्त की प्रेरणा मिली होगी। यह प्रेरणा भी और कही से नही, अपितु उनके स्फोट सिद्धान्त से मिली होगी। लोचनकार अभिनवगुप्त ने इस प्रसंग को और स्पष्ट किया है। उन्होेंने वैयाकरणों का पूर्णतः सामजस्य स्थापित करते हुए तद्विषयक पुष्ट आधार की सागोंपांग व्याख्या की है। ध्वनि के पांच रूपों व्यंजक शब्द, व्यंजक अर्थ, व्यंग्यार्थ, व्यंजना व्यापार तथा व्यंग्य काव्य सभी के लिए व्याकरण में स्पष्ट निश्चित संकेत है। भर्तृहरि वाक्यपदीयमें स्फोट सिद्वान्त की स्थापना करते समय इसके लिए आधार प्रस्तुत कर गए  हैं।
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