सूत्रार्थ - णिजन्त धातुओं से आत्मनेपद का विधान होता है, क्रिया का फल यदि कर्ता को प्राप्त हो रहा हो तो।
विशेष
अभी तक आपने स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले से क्रिया का फल कर्ता को प्राप्त होने पर आत्मनेपद अन्यथा परस्मैपद का विधान होते देखा। क्रिया का फल कर्ता को प्राप्त होने पर णिचश्च सूत्र से णिजन्त धातु से आत्मनेपद का विधान होता है । क्रिया का फल कर्ता को प्राप्त नहीं होने पर परस्मैपद होता है। इस प्रकार णिजन्त प्रकरण में धातु के णिजन्त होने के बाद णिचश्च से परस्मैपद और आत्मनेपद हो जाता है। फलतः धातुओं के रूप परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों में चलता है।
चोरयते। चुर् धातु से सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्ण चुरादिभ्यो णिच् से णिच् प्रत्यय हुआ। चुर् + णिच् हुआ। णिच् में णकार की इत्संज्ञा चुटू से तथा चकार की इत्संज्ञा हलन्त्यम् से होकर तस्य लोपः से लोप हुआ। चुर् + इ में आर्धधातुक णिच् का इकार परे रहते 'पुगन्तलघूपधस्य च' से उपधा उकार को गुण होकर चोरि बना। इससे लट् आया। लट् के स्थान पर णिचश्च से आत्मनेपद का विधान हुआ। कर्ता अर्थ में लट् के स्थान पर आत्मनेपदसंज्ञक 'त' प्रत्यय आया। तिङ् शित् सार्वधातुकम् से त की सार्वधातुकसंज्ञा, कर्त्रर्थक सार्वधातुक परे होने पर कर्तरि शप् से शप्, अनुबन्धलोप करके चोरि + अ + त बना। सार्वधातुकार्धधातुकयोः से सार्वधातुक शप् का अकार परे रहते चोरि के इकार को गुण करके चोरे + अत बना। एचोऽयवायावः से चौरे के एकार को अय् आदेश होने पर चोर् + अय् + अत बना। वर्णसम्मेलन होने पर चोरयत बना। चोरयत में तकारोत्तरवर्ती अन्त्य अच् अकार की अचोऽन्त्यादि टि से टिसंज्ञा हुई और टित त के अकार को टित आत्मनेपदानां टेरे से एत्व होकर चोरयते रूप सिद्ध हुआ।
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