लघुसिद्धान्तकौमुदी (दिवादिप्रकरणम्)


अथ दिवादयः

दिवु क्रीडाविजिगीषाव्‍यवहारद्युतिस्‍तुतिमोदमदस्‍वप्‍नकान्‍तिगतिषु ।। १ ।।

सूत्रार्थ-  दिव् के अनेक अर्थ हैं- क्रीड़ा= खेलनाविजिगीषा= जीतने की इच्छा करनाव्यवहार= क्रय-विक्रय रूप व्यवहार करनाद्युति= चमकनास्तुति= स्तुति करनामोद= प्रसन्न होनामद=  मदमत्त होनास्वप्न= सोनाकान्ति= इच्छा करना और गति= चलना। 
६३२ दिवादिभ्‍यः श्‍यन्
शपोऽपवादः । हलि चेति दीर्घः । दीव्‍यति । दिदेव । देविता । देविष्‍यति । दीव्‍यतु । अदीव्‍यत् । दीव्‍येत् । दीव्‍यात् । अदेवीत् । अदेविष्‍यत् ।। एवं षिवु तन्‍तुसन्‍ताने ।। २ ।। नृती गात्रविक्षेपे ।। ३ ।। नृत्‍यति । ननर्त । नर्तिता ।।
सूत्रार्थ-  कर्तृवाची सार्वधातुक प्रत्यय के परे होने पर दिवादिगण के धातुओं से परे श्यन् प्रत्यय होता है।
यह सूत्र कर्तरि शप् का अपवाद है। श्यन् में शकार तथा नकार की इत्संज्ञा एवं लोप हो जाता है। य शेष रहता है।
दीव्यति। दिव् धातु से लट्तिप् सार्वधातुकसंज्ञाकर्तरि शप् से शप् प्राप्त हुआउसे बाधकर दिवादिभ्यः श्यन् से श्यन् हुआदिव् + श्यन् बना। श्यन् में शकार और नकार का लोपदिव् +  + ति बना। दिव् में इकार की अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा से उपधासंज्ञा हुई और उसको हलि च से दीर्घ हुआ, दीव् +  + ति बना। वर्णसम्मलेन हुआ- दीव्यति।
लट् के रूप- दीव्यतिदीव्यतःदीव्यन्तिदीव्यसिदीव्यथःदीव्यथदीव्यामिदीव्यावःदीव्यामः।
दिदेव। दिव् धातु से लिट् लकारलिट् के स्थान पर तिप् हुआ। दिव् + तिप्दिव् णल्दिव् अदिव् दिव् अदि दिव् अदि देव् अदिदेव। अपित् में गुण नहीं होगा- दिदिवतुःदिदिवुः आदि।  
विशेष-
दिव् धातु सेट् (इट् होने के योग्य) हैअतः वलादि आर्धधातुक के परे होने पर इट् आगम हो जाता है। पित् प्रत्ययों में लघूपधगुण होता है, किन्तु जो पित् नहीं होता वहाँ असंयोगाल्लिट् कित् से कित्व होने के कारण क्ङिति च से गुण का निषेध होता है।
दिदेव। लिट् के रूप- दिदेवदिदिवतुःदिदिवुः। दिदेविधदिदिवथुःदिदिव। दिदेवदिदिविवदिदिविम।
देविता । लुट् में दिव् लुट्दिव् तिदिव् तास् तिदिव् इ तास् तिदेव् इ तास् तिदेव् इ तास् तिदेव् इ तास् डादेव् इ त् आवर्णसम्मलेन देविता सिद्ध हुआ। हल् परे न होने के कारण हलि च से दीर्घ नहीं हुआ। इस तरह रूप बनते है- देवितादेवितारौदेवितारः। देवितासिदेवितास्थः देवितास्थ। देवितास्मिदेवितास्वः देवितास्मः।
लृट् में- देविष्यतिदेविष्यतःदेविष्यन्ति। देविष्यसिदेविष्यथःदेविष्यथ। देविष्यामिदेविष्यावःदेविष्यामः।
लोट् में- लट् की तरह श्यन् हलि च से दीर्घ होकर - दीव्यतु-दीव्यतात्दीव्यताम् दीव्यन्तु। दीव्य-दीव्यतात्दीव्यतम्दीव्यत। दीव्यानिदीव्यावदीव्याम, सिद्ध होते है
लङ् में- अट् श्यन्दीर्घ करके इस प्रकार रूप बनते हैं - अदीव्यत्अदीव्यताम्अदीव्यन्। अदीव्यः अदीव्यतम्अदीव्यत। अदीव्यम्अदीव्यावअदीव्याम।
विधिलिङ् में- श्यन् होकर भ्वादिगण की तरह यासुट्लिङ्ः सलोपोऽनन्त्यस्य से प्राप्त सलोप को बाधकर अतो येयः से इय् आदेशयकारलोप आदि कार्य होते है। दीव्येत्दीव्येताम्दीव्येयुः। दीव्येःदीव्येतम्दीव्येत। दीव्येयम्दीव्येवदीव्येम।
आशीर्लिङ् में- यासुट् के कित् होने के कारण लघूपधगुण निषिद्ध हो जाता है। केवल हलि च से उपधादीर्घ होकर इस प्रकार रूप बनते हैं- दीव्यात्दीव्यास्ताम्दीव्यासुः। दीव्याः दीव्यास्तम्दीव्यास्त। दीव्यासम्दीव्यास्वदीव्यास्म।लुङ् में - अदेवीत्अदेविष्टाम्अदेविषुः। अदेवीः अदेविष्टम् अदेविष्ट। अदेविषम्अदेविष्वअदेविष्म। भ्वादिगणीय असेधीत् की तरह रूप बनता है-
लङ् में- अदेविष्यत् अदेविष्यताम्अदेविष्यन्। अदेविष्यः अदेविष्यतम्अदेविष्यत। अदेविष्यम्अदेविष्यावअदेविष्याम। 
इसी प्रकार षिवु धातु तन्तुसन्ताने = धागे का विस्तार करना (सिलाई करना) अर्थ में है। षिवु उकार की इत्संज्ञा और लोप होता है।। धात्वादेः षः सः से षकार के स्थान पर सकार आदेश होकर सिव् बन जाता है। इसके बाद की पूरी प्रक्रिया दिव् धातु की तरह ही होती है। यह धातु षोपदेशक हैं अतः तन्निमित्तक कार्य होंगें।
लट् के रूप- सीव्यतिसीव्यतः सीव्यन्ति। सीव्यसिसीव्यथःसीव्यथ। सीव्यामिसीव्यावःसीव्यामः।
लिट् में द्वित्व आदि करके सिसिव् अ के बाद द्वितीय सि के सकार को आदेशप्रत्यययोः से षत्व होता है। पित् में उपधागुण और अपित् में निषेध होकर निम्नलिखित रूप से सिद्ध होते है-
सिषेवसिषिवतुःसिषिवुः। सिषेविथसिषिवथुःसिषिव। सिषेवसिषिविवसिषिविम।
लुट् में- सेवितासेवितारौसेवितारः। सेवितासिसेवितास्थःसेवितास्थ। सेवितास्मिसेवितास्वःसेवितास्मः।
लृट् में- सेविष्यतिसेविष्यतःसेविष्यन्ति।
लोट् में- सीव्यतु-सीव्यतात्सीव्यताम्सीव्यन्तु।
लङ् में- असीव्यत्असीव्यताम्असीव्यन्।
विधिलिङ् में- सीव्येत्सीव्येताम्सीव्येयुः।
आशीर्लिङ् में- सीव्यात्सीव्यास्ताम्सीव्यासुः।
लुङ् में- असेवीत्असेविष्टाम्असेविषुः।
लृङ् में- असेविष्यत्असेविष्यताम्असेविष्यन्।
नृती गात्रविक्षेपे। नृती धातु गात्रविक्षेप अर्थात् नाचना अर्थ में है। ईकार की इत्संज्ञा होती है। नृत् शेष रहता है। गुण होने पर नर्त् और श्यन् होने पर नृत्य बन जाता है।
नृत् के लट् में पूर्ववत् क्रिया सम्पन्न करने पर- नृत्यतिनृत्यतः नृत्यन्ति। नृत्यसिनृत्यथःनृत्यथ। नृत्यामिनृत्यावःनृत्यामः रूप बनते हैं।
 लिट् लकार में- नृत तिप्उसके स्थान पर णल् आदेश करके अनुबन्धलोप करने पर नृत + अ बना। द्वित्व करने पर नृत् नृत् अ बना। नृ नृत् से उरत् से अर् होने पर नर् नृत अ बना। हलादिशेष होकर न नृत् अ बनने के बाद पुगन्तलघूपधस्य च से उपधाभूत नृ के ऋकार के स्थान पर रपर सहित गुण होकर न नर्त् अ बनावर्णसम्मलेन होकर ननर्त सिद्ध हुआ।
 यह गुण केवल तिप्सिप् और मिप् में होगा क्योंकि शेष में तो असंयोगाल्लिट् कित् से किद्वद्धाव होकर क्ङिति च से गुण का निषेध हो जाता है। इसलिए ननृत + अतुस् आदि में वर्णसम्मलेन होकर निम्नलिखित रूप से सिद्ध हो जाते हैं- ननर्तननृततुःननृतुः। ननर्तिथननृतथुः ननृत। ननर्तननृतिवननृतिम।
लुट् में- नर्तितानर्तितारौनर्तितारः। नर्तितासिनर्तितास्थः नर्तितास्थ। नर्तितास्मिनर्तितास्वःनर्तितास्मः। 

६३३ सेऽसिचि कृतचृतच्‍छृदतृदनृतः
एभ्‍यः परस्‍य सिज्‍भिन्नस्‍य सादेरार्धधातुकस्‍येड्वा । नर्तिष्‍यतिनर्त्‍स्‍यति । नृत्‍यतु । अनृत्‍यत् । नृत्‍येत् । नृत्‍यात् । अनर्तीत् । अनर्तिष्‍यत्अनर्त्‍स्‍यत् ।। त्रसी उद्वेगे ।। ४ ।। वा भ्राशेति श्‍यन्‍वा । त्रस्‍यतित्रसति । तत्रास ।।
सूत्रार्थ- कृत् (कृति = काटना)चृत् (चृति = खेलना या मारना)छृद् (छृदिर् = चमकना, खेलना)तृद् (तृदिर् = हिंसा करना, अनादर करना) और नृत् (नृती = नाचना) धातुओं से परे सिच् से भिन्न सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय को विकल्प से इट् आगम होता है।
नर्तिष्यतिनर्त्स्यति। नृत् धातु में से लृट् लकारनृत् स्य ति। आर्धधातुकं शेषः से स्य की आर्धधातुकसंज्ञा होती है। उसको सेऽसिचि कृतचृतच्छृदतृदनृतःसे वैकल्पिक इट् आगम हुआनृत् इस्य ति बना। पुगन्तलघूपधस्य च से उपधाभूत ऋकार को रपर सहित गुणनर्त् इस्य ति बना। इकार से परे सकार का आदेशप्रत्यययोः से षत्व हुआनर्तिष्यति बना गया। इट् आगम न होने के पक्ष में षत्व भी नहीं हुआगुण करके नर्त् स्य ति में वर्णसम्मलेन करके नर्त्स्यति रूप बना । 
नृत् धातु के लृट् में स्य, इट् आगम के पक्ष में गुण होकर- नर्तिष्यतिनर्तिष्यन्ति। इट् के अभाव में- नर्त्स्यतिनर्त्स्यतः नर्त्स्यन्ति ।
लोट् के रूप- नृत्यतु-नृत्यतात्नृत्यताम्नृत्यन्तु। नृत्य-नृत्यतात्नृत्यतम्नृत्यत।
लङ् में- अनृत्यत्अनृत्यताम्अनृत्यन्।
विधिलिङ् में- नृत्येत् नृत्येताम्नृत्येयुः।
आशीर्लिङ् में- नृत्यात्नृत्यास्ताम्नृत्यासुः।
लुङ् में- अनर्तीत्अनर्तिष्टाम्अनर्तिषुःअनर्तीःअनर्तिष्टम्अनर्तिष्टअनर्तिषम्अनर्तिष्वअनर्तिष्म।
लृङ् के इट् पक्ष में- अनर्तिष्यत्अनर्तिष्यताम्अनर्तिष्यन्।
इट् न होने के पक्ष में- अनर्त्स्यत्अनर्त्स्यताम्। अनर्त्स्यः, अनर्त्स्यतम्अनर्त्स्यतअनर्त्स्यम्अनर्त्स्यावअनर्त्स्याम। 
त्रसी उद्वेगे। त्रसी धातु उद्वेग अर्थात् डरना या घबराना अर्थ में है। ईकार की इत्संज्ञा होती हैत्रस् शेष रहता है। सेट् और परस्मैपदी है। चुरादि में इसके समान ही एक अन्य धातु है-  त्रस धारणे ग्रहण इत्येके वारण इत्यन्ये धारणग्रहणवारणेषु। इसका रूप पृथक् होता है। अध्ययनकर्ताओं को धातु के गण का ध्यान रखना चाहिए। 
 त्रस्यतित्रसति। त्रस् से लट्तिप्शप् को बाधकर नित्य से श्यन् प्राप्त थाउसे बाधकर वा भ्राशभ्लाशभ्रमुक्रमुक्लमुत्रसित्रुटिलषः से विकल्प से श्यन् हुआ। अनुबन्धलोप करके त्रस् + यति बना। वर्णसम्मलेन होकर त्रस्यति सिद्ध हुआ। श्यन् न होने के पक्ष में शप् होकर त्रसति बनता है। त्रस्यातित्रस्यतःत्रस्यन्ति एवं त्रसतित्रसतःत्रसन्ति आदि। 

तत्रास। लिट्तिप्णल्द्वित्वहलादिशेष करके तत्रस् + अ बना। अत उपधायाः से वृद्धि होकर तत्रास सिद्ध हुआ।
६३४ वा जॄभ्रमुत्रसाम्
एषां किति लिटि सेटि थलि च एत्‍वाभ्‍यासलोपौ वा । त्रेसतुःतत्रसतुः । त्रेसिथतत्रसिथ । त्रसिता ।। शो तनूकरणे ।। ५ ।।
सूत्रार्थ-  कित् लिट् या सेट् थल् के परे होने पर जृ (जीर्ण होना)भ्रम् (घूमना)त्रस् (घबराना) धातुओं को विकल्प से एत्व और अभ्यास का लोप होता है।
तिप्सिप् और मिप् के पित् होने के कारण असंयोगाल्लिट् कित् से कित् नहीं होता है। अतः इनमें एत्वाभ्यासलोप की प्राप्ति नहीं है। सिप् (थल्) में विशेष विधान होने के कारण हो जाता है।
त्रेसतुःतत्रसतुः। त्रस् धातु से लिट्, लिट् के तस् में त + त्रस् + अतुस् बनने के बाद अप्राप्त का वा जृभ्रमुत्रसाम् से विकल्प से एत्व के  अभ्यास का लोप हुआ अर्थात् त्रस् के अभ्यास त का लोप हुआ तथा त्रस् के अकार को एत्व होकर त्रेस् + अतुस् बना। वर्णसम्मलेन और सकार को रूत्वविसर्ग होकर त्रेसुतः बना। एत्व तथा अभ्यासलोप न होने के पक्ष में तत्रस् + अतुस्= तत्रसतुः बना। इसी प्रकार सेट् थल् में  त्रेसिथ तथा तत्रसिथ ये दो रूप बनेंगें।
लिट् लकार का दोनों पक्ष में रूप- - तत्रासत्रेसतुः -     तत्रसतुः,                         त्रेसुः - तत्रसुः,
त्रेसिथ - तत्रसिथ,    त्रेसथुः तत्रसथुः,               त्रेस तत्रस,
तत्रास-तत्रस,          त्रेसिव- तत्रसिव                त्रेसिम- तत्रसिम ।
लुट् में - त्रसितात्रसितारौत्रसितारः आदि।
लृट्- त्रसिष्यतित्रसिष्यतःत्रसिष्यन्ति आदि।
लोट्- (श्यन्पक्षे) त्रस्यतु-त्रस्यतात् त्रस्यताम् त्रस्यन्तु। (शप्पक्षे) त्रसतु-त्रसतात्त्रसताम्त्रसन्तु।
लङ्- श्यन् होने पर अत्रस्यत् और शप् होने पर- अत्रसत्।
विधिलिङ्-  त्रस्येत् / त्रस्येद् / त्रसेत् / त्रसेद्             त्रस्येताम् / त्रसेताम्         त्रस्येयुः / त्रसेयुः आदि
लुङ् मे- वदव्रजहलन्त... से प्राप्त वृद्धि का नेटि से निषेध होने के बाद पुनः अतो हलादेर्लघोः से वैकल्पिक वृद्धि होती है। वृद्धिपक्ष के रूप- अत्रासीत्अत्रासिष्टामअत्रासिषुः अत्रासीः,
वृद्धि के अभाव में- अत्रसीत्अत्रसिष्टाम्अत्रसिषुः आदि। लृङ्-अत्रसिष्यत् अत्रसिष्यताम् आदि।

शो तनूकरणे। शो का अर्थ है- पतला करनाछीलना। शो में ओकार की अनुनासिक न होनेे से इत्संज्ञा भी नहीं होती है। 
६३५ ओतः श्‍यनि
लोपः स्‍यात् । श्‍यति । श्‍यतः । श्‍यन्‍ति । शशौ । शशतुः । शाता । शास्‍यति ।।
सूत्रार्थ-  श्यन् के परे होने पर धातु के ओकार का लोप हो।
श्यति। शो धातु से लट्तिप्दिवादिभ्यः श्यन् से श्यन् हुआ। शो + यति बना। ओतः श्यनि से ओकार का लोप होने पर श् + यति बना। परस्पर वर्ण सम्मलेन होने पर श्यति सिद्ध हुआ। इस प्रकार लट् लकार के रूप बनते हैं- श्यतिश्यतः श्यन्ति। श्यसिश्यथः श्यथ। श्यामिश्यावः श्यामः
शशौ। शो धातु से लिट्तिप्णल्अ होने के बाद शो + अ बना। यहाँ पर श्यन् न होने के कारण शित् नहीं है और शो धातु उपदेश अवस्था में एजन्त है। अतः आदेच उपदेशेऽशिति से आत्व हुआशा + अ बना। आत औ णलः से अकार के स्थान पर औकार आदेशशा + औ बना। शा को द्वित्वशाशा + अभ्याससंज्ञा करके हृस्व से प्रथम शा के आकार को हृस्व होकर शशा + औ बना। शशा + औ में वृद्धिरेचि से वृद्धि हुई- शशौ।
            णल् के परे होने पर शशौ और शेष तस् आदि रूप में द्वित्व आदि करने के बाद आतो लोप इटि च से आकार का लोप और वर्णसम्मलेन करके बनते है- शशतुःशशुः। शशिथ-शशाथशशथुः शश। शशौशशिवशशिम।  
६३६ विभाषा घ्राधेट्शाच्‍छासः
एभ्‍यस्‍सिचो लुग्‍वा स्‍यात्‍परस्‍मैपदे परे । अशात् । अशाताम् । अशुः । इट्सकौ । अशासीत् । अशासिष्‍टाम् ।। छो छेदने ।। ६ ।। छ्यति ।। षोऽन्‍तकर्मणि ।। ७ ।। स्‍यति । ससौ ।। दोऽवखण्‍डने ।। ८ ।। द्यति । ददौ । देयात् । अदात् ।। व्‍यध ताडने ।। ९ ।।
सूत्रार्थ-  परस्मैपद परे रहते घ्रा (सूंघना), धेट् (पीना)शो (पतला करना), छो (काटना), और षो (नाश करना) धातु से परे सिच् का विकल्प से लुक् होता है।
अशात्। शो धातु से लुङ्तिप्अट्च्लिसिच्और आत्व करके अ + शा + स् + त् बना। पा पाने धातु से अपात् की तरह यहाँ पर भी विभाषा घ्राधेटशाच्छासः से सिच् का वैकल्पिक लुक् होकर अशात् बना। सिच् विद्यमान न होने के कारण अस्तिसिचोऽपृक्ते से इट् आगम और यमरमनमातां सक् च से सक् और इट् भी नहीं होते है। इस तरह लुङ् के रूप बने- अशात्अशाताम् । झि को आतः से जुस् आदेश होने पर अशा + उस् हुआ। उस्यपदान्तात् से पररूप होकर अशुः रूप बना।
सिच् के लोप का अभाव पक्ष में अस्तिसिचोऽपृक्ते से इट् आगम और यमरमनमातां सक् च से सक् करके अशास् + इत् = अशासीत्  सिद्ध हुआ। इसका रूप होगा- अशासीत्अशासिष्टाम्अशासिषुः।
लृङ् में- अशास्यत्अशास्यताम्,
छो छेदने। छो धातु काटने के अर्थ में है। इस में शित् के परे होने पर ओकार का लोप और अशित् के परे रहने पर आत्व करके शो धातु की तरह की रूप सिद्ध होते है। विशेषता यह है कि लङ्लुङ् और लृङ् लकारों में अट् आगम होने के बाद छे च से अ को तुक् आगम और तकार को छकार के परे होने के कारण स्तोः श्चुना श्चुः से चुत्व होकर चकार आदेश होता हैजिससे अच्छान्त आदि रूप बनते है।
छो धातु के लट् के रूप- छयतिछयतः छयन्ति।
लिट् में छे च से तुक् आगम और स्तोः श्चुना श्चुः से चुत्व होने पर- चच्छौचच्छतुःचच्छुः।
लुट्- छाताछातारौछातारः।
लृट्- छास्यतिछास्यतः छास्यन्ति।
लोट्- छयतु-छयतात्छयताम्छयन्तु।
लङ्- अच्छयत्अच्छयताम्अच्छायन्त।
विधिलिङ्- छयेत्छयेताम्छयेयुः।
आशीर्लिङ्- छायात्छायास्ताम्छायासुः।
लुङ् में- सिच् के लुक् पक्ष में- अच्छात्अच्छाताम्,
लुक् ने होने के पक्ष में- अच्छासीत् अच्छासिष्टाम्अच्छासिषुः।
छो, सो, तथा दो (काटना) धातुओं के पूर्ववत् रूप बनेंगें। लोट् के सिप् को हि आदेश होने पर हि का लोप होने पर छ्य,स्य तथा द्य रूप बनेंगें।
आशीर्लिङ् में घुसंज्ञक दो को एकारादेश होकर देयात् रूप बनेगा। लुङ् में गातिस्ता. से सिच् का लोप होकर अदात् रूप बनेगा।
षोऽन्तकर्मणि। षो धातु को धात्वादेः षः सः से षकार के स्थान पर दन्त्य सकार आदेश होता है। अन्त्य ओकार की इत्संज्ञा नहीं होती है। अतः सो शेष रहता है। यह भी धातु पूर्ववत् अनिट् ही है। अनुनासिक न होने से इसकी भी सम्पूर्ण प्रक्रिया शो तनूकरणे की तरह ही होती है।
 प्रत्येक लकार में तिप् के रूप- स्यति। ससौ। साता। सास्यति।
दोऽवखण्डने। दो धातु अवखण्डन अर्थात् काटना अर्थ में है। इसमें भी सार्वधातुक ओकार की इत्संज्ञा होकर द् शेष रहता है। इसके भी सारे रूप छो छेदने की तरह ही रूप होते हैं किन्तु दाधा घ्वदाप् से घुसंज्ञा होने के कारण लिंङ् में एर्लिङि से नित्य से एत्व तथा लुङ् में गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु से सिच् का लुक् आदि विशेष कार्य होते हैं।
 प्रत्येक लकार के तिप् में रूप- द्यति। ददौ। दाता। दास्यति। द्यतु। अद्यत्। द्येत्।
व्यध ताडने। व्यध धातु का अर्थ है- मारना, बींधना । उदात्त अकार की इत्संज्ञा होती है। व्यध् शेष रहता है। परस्मैपदी और अनिट् है। 
६३७ ग्रहि-ज्‍या-वयि-व्‍यधि-वष्‍टि-विचति-वृश्‍चति-पृच्‍छति-भृञ्जतीनां ङिति च
एषां सम्‍प्रसारणं स्‍यात्‍किति ङिति च । विध्‍यति । विव्‍याध । विविधतुः । विविधुः । विव्‍यधिथविव्‍यद्ध । व्‍यद्धा । व्‍यत्‍स्‍यति । विध्‍येत् । विध्‍यात् । अव्‍यात्‍सीत् ।। पुष पुष्‍टौ ।। १० ।। पुष्‍यति । पुपोष । पुपोषिथ । पोष्‍टा । पोक्ष्यति । पुषादीत्‍यङ् । अपुषत् ।। शुष शोषणे ।। ११ ।। शुष्‍यति । शुशोष । अशुषत् ।। णश अदर्शने ।। १२ ।। नश्‍यति । ननाश । नेशतुः ।।
सूत्रार्थ-  कित् या ङित् प्रत्यय के परे होने पर ग्रह् (ग्रहण करना)ज्या (वृद्ध होना)वेञ् (बुनना)व्यध् (बेधना)वश् (इच्छा करना)व्यच् (ठगना)व्रश्च् (काटना) प्रच्छ् (पूछना)और भ्रस्ज् (भूनना) इन धातुओं को सम्प्रसारण होता है।
 विध्यति। व्यध् से लट्तिप्श्यन्अनुबन्धलोप होने पर व्यध् + यति बना। श्यन् का य अपित् सार्वधातुक होने के कारण सार्वधातुकमपित् से ङित् है। अतः व् + य् +  + ध् = व्यध् के यकार के स्थान पर ग्रहि-ज्या-वयि-वष्टि-विचति-पृच्छति-भृज्जतीनां ङिति से सम्प्रसारण होकर इकार हो गया। व् +  +  + ध् + यति बना। इ + अ में सम्प्रसारणाच्च से पूर्वरूप होकर इकार ही हुआ  । इस तरह विध् + यति बना। वर्णसम्मलेन होकर विध्यति सिद्ध हुआ। लट् में रूप - विध्यतिविध्यतःविध्यन्ति आदि।
विव्याध। लिट् में व्यध् + अ बनने के बाद द्वित्व होकर व्यध् + व्यध् + अ बना। लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् से अभ्यास को सम्प्रसारण होकर पूर्वरुप हुआ विध् + व्यध अ बना। विध् के धकार का हलादि शेष हुआ। विव्यध् + अ बना। अत उपधायाः से व्यध् के उपधा की वृद्धि होने पर विव्याध बना।
द्विवचन एवं बहुवचन में कित् होने के कारण ग्रहि-ज्या-वयि-व्यधि-वष्टि-विचति-वृश्चति-पृच्छति भृज्जतीनां ङिति च पहले सम्प्रसारण होकर बाद में विध् को द्वित्व आदि कार्य होते है। विविध् + अतुस्= विविधतुः। थल् के कित्, ङित् न होने के कारण लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् से अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। भारद्वाज नियम से थल् को इट् होने पर विव्यधिथ और इट् न होने के पक्ष में विव्यध् + थ बनने के बाद झषस्तथोर्धोऽधः से थकार के स्थान पर धकार आदेश और पूर्वधकार को जश्त्व होकर विव्यद्ध बनता है। लिट् के वस् और मस् में क्रादिनियम से नित्य से इट् हो जाता है।

लिट् लकार में इस प्रकार रूप बनेंगें- विव्याध, विविधतुः, विविधुः।

विशेष-
व् +  +  + ध् + + यति में वकार का भी सम्प्रणारण प्राप्त होता है किन्तु न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम् से निषेध हो जाता है। निषेधक सूत्र का अर्थ है- सम्प्रसारण के परे होने पर पूर्व को सम्प्रसारण नहीं होता। इससे सिद्ध हो जाता है कि जहाँ दो वर्ण सम्प्रसारण के योग्य होंवहाँ पर पहले पर वर्ण को सम्प्रसारण होता है।
सार्वधातुक लकारों में श्यन् प्रत्यय होता है, जो कि अपित् है । अपित् प्रत्यय को सार्वधातुकमपित् सूत्र ङित् करता है, अतः जहाँ- जहाँ श्यन् प्रत्यय होगा वह ङित् होगा।

व्यद्धा । व्यध् + ता में झषस्तथोर्धाऽधः से तकार को धकार हुआ। व्यध् + धा में पूर्वधकार को जश्त्व होकर दकार होता है। व्यद्धा, व्यद्धारौ, व्यद्धारः, आदि रूप बनेंगें। लुट् लकार में इट् नहीं होता है।
व्यत्स्यति । लुट् लकार में व्यध् + स्यति में धकार को खरि च से चर्त्व होकर तकार होता है। व्यत्स्यति, व्यत्स्यतः व्यत्स्यन्ति आदि।  
विध्यतु। लोट् लकार में विध्यतु, विध्यतात्, विध्यताम्, विध्यन्तु आदि रूप बनेगा।
लङ् लकार में - अविध्यत्, अविध्यताम्, अविध्यन्, आदि रूप बनेगा ।
विधिलिङ् लकार में विध्येत्, विध्येताम्, विध्येयुः आदि रूप बनेगा ।
आशीर्लिङ् में कित् होने के कारण सम्प्रसारण होता है। विध्यात्, विध्यास्ताम्, विध्यासुः आदि रूप बनेगा ।

अव्यात्सीत्। लुङ् लकार के तिप् में अट्, सिच्, ईट् होकर  अव्यध् + स् + ई + त् बना। यहाँ वदव्रजहलन्तस्याचः से हलन्तलक्षणा वृद्धि होकर अव्याध् बना। अव्याध् के धकार को खरि च से चर्त्व होकर अव्यात्सीत् रूप बना। तस् में अव्याध् + स् + ताम् बनने के बाद झलो झलि से सकार का लोप, झषस्तथोर्धोऽधः से तकार को धकार और पूर्वधकार को जश्त्व होकर दकार होने पर अव्यद्धाम् बनता है। झि के स्थान पर सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च से जुस् आदेश होने पर अव्यध् + स् + उस् बना है। झल् के परे न होने के कारण सकार का लोप नहीं हुआ। अव्यात्सुः।  थस् तथा थ प्रत्ययों में झलो झलि से सिच् का लोप होता है।
पुष पुष्टौ। पुष धातु पालन करने,बढ़ने या पुष्ट करने अर्थ में है। यह अनिट् धातु है। पुष में अकार इत्संज्ञक है। अजन्त या अकारवान न होने से क्रादि नियम से लिट् में सर्वत्र इट् होता है।
लट् में श्यन् होकर - पुष्यति, पुष्यतः, पुष्यन्ति बनता है।
लिट् में द्वित्व, अभ्यास कार्य होने पर पु पुष् बना यहाँ उत्तरवर्ती पुष् के उकार को गुण होकर पुपोष बना। थल् प्रत्यय में क्रादि नियम से इट् होकर पुपोषिथ बना।  
लुट् में ष्टुत्व गुण आदि होकर पोष्टा बना।
लृट् में पुष् धातु से तिप्, स्य, लघूपधगुण करके पोष् + स्यति बना। षढोः कः सि से स्य के सकार के परे होने के कारण पोष् के षकार के स्थान पर ककार आदेश हुआ। पोक् + स्यति बना। ककार से परे सकार को आदेशप्रत्यययोः से षत्व होकर पोक् + ष्यति बना। वर्णसम्मेलन होकर पोक्ष्यति बना। इसी प्रकार पोक्ष्यतः पोक्ष्यन्ति आदि बनेगें।
लोट् में- पुष्यतु-पुष्यतात्, पुष्यताम् पुष्यन्तु बनेगा।
लङ् में- अपुष्यत्, अपुष्यताम्, अपुष्यन्।
विधिलिंङ् में- पुष्येत्, पुष्येताम्, पुष्येयुः।
आशीर्लिङ् में- पुष्यात्, पुष्यास्ताम्, पुष्यासुः।
लुङ् में पुषादि धातु के होने के कारण पुषादिद्युताद्यॢदितः परस्मैपदेषु से च्लि के स्थान पर चङ् आदेश होकर अपुषत् बनेगा। अपुषत्, अपुषताम्, अपुषन्।

लृङ् में- अपोक्ष्यत्, अपोक्ष्यताम्, अपोक्ष्यन्।

६३८ रधादिभ्‍यश्‍च
रध् नश् तृप् दृप् द्रुह् मुह् ष्‍णुह् ष्‍णिह् एभ्‍यो वलाद्यार्धधातुकस्‍य वेट् स्‍यात् । नेशिथ ।।
६३९ मस्‍जिनशोर्झलि
नुम् स्‍यात् । ननंष्‍ठ । नेशिवनेश्व । नेशिमनेश्‍म । नशितानंष्‍टा । नशिष्‍यतिनङ्क्ष्यति । नश्‍यतु । अनश्‍यत् । नश्‍येत् । नश्‍यात् । अनशत् ।। षूङ् प्राणिप्रसवे ।। १३ ।। सूयते । सुषुवे । क्रादिनियमादिट् । सुषुविषे । सुषुविवहे । सुषुविमहे । सविता सोता ।। दूङ् परितापे ।। १४ ।। दूयते ।। दीङ् क्षये ।। १५ ।। दीयते ।।
६४० दीङो युडचि क्‍ङिति
दीङः परस्‍याजादेः क्‍ङित आर्धधातुकस्‍य युट् ।

(वुग्‍युटावुवङ्यणोः सिद्धौ वक्तव्‍यौ) । दिदीये ।।
६४१ मीनातिमिनोतिदीङां ल्‍यपि च
एषामात्‍वं स्‍याल्‍ल्‍यपि चादशित्‍येज्‍निमित्ते । दाता । दास्‍यति ।
(स्‍थाघ्‍वोरित्त्वे दीङः प्रतिषेधः) । अदास्‍त ।। डीङ् विहायसा गतौ ।। १६ ।। डीयते । डिड्ये । डयिता ।। पीङ् पाने ।।१७ ।। पीयते । पेता । अपेष्‍ट ।। माङ् माने ।। १८ ।। मायते । ममे ।। जनी प्रादुर्भावे ।। १९ ।।
६४२ ज्ञाजनोर्जा
अनयोर्जादेशः स्‍याच्‍छिति । जायते । जज्ञे । जनिता । जनिष्‍यते ।।
६४३ दीपजनबुधपूरितायिप्‍यायिभ्‍योऽन्‍यरतस्‍याम्
एभ्‍यश्‍च्‍लेश्‍चिण् वा स्‍यादेकवचने तशब्‍दे परे ।।
६४४ चिणो लुक्
चिणः परस्‍य लुक् स्‍यात् ।।
६४५ जनिवध्‍योश्‍च
अनयोरुपधाया वृद्धिर्न स्‍याच्‍चिणि ञ्णिति कृति च । अजनिअजनिष्‍ट ।। दीपी दीप्‍तौ ।। २०।। दीप्‍यते । दिदीपे । अदीपिअदीपिष्‍ट ।। पद गतौ ।। २१ ।। पद्यते । पेदे । पत्ता । पत्‍सीष्‍ट ।।
६४६ चिण् ते पदः
पदश्‍च्‍लेश्‍चिण् स्‍यात्तशब्‍दे परे । अपादि । अपत्‍साताम् । अपत्‍सत ।। विद सत्तायाम् ।। २२ ।। विद्यते । वेत्ता । अवित्त ।। बुध अवगमने ।। २३ ।। बुध्‍यते । बोद्धा । भोत्‍स्‍यते । भुत्‍सीष्‍ट । अबोधिअबुद्ध । अभुत्‍साताम् ।। युध संप्रहारे ।। २४ ।। युध्‍यते । युयुधे । योद्धा । अयुद्ध ।। सृज विसर्गे ।। २५ ।। सृज्‍यते । ससृजे । ससृजिषे ।।
६४७ सृजिदृशोर्झल्‍यमकिति
अनयोरमागमः स्‍याज्‍झलादावकिति । स्रष्‍टा । स्रक्ष्यति । सृक्षीष्‍ट । असृष्‍ट । असृक्षाताम् ।। मृष तितिक्षायाम् ।। २६ ।। मृष्‍यतिमृष्‍यते ।। ममर्ष । ममर्षिथ । ममृषिषे । मर्षितासि । मर्षिष्‍यतिमर्षिष्‍यते ।। णह बन्‍धने ।। २७ ।। नह्‍यतिनह्‍यते । ननाह । नेहिथननद्ध । नेहे । नद्धा । नत्‍स्‍यति । अनात्‍सीत्अनद्ध ।।
इति दिवादयः ।। ४ ।।

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