दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु ।। १ ।।
सूत्रार्थ-दिव् के अनेक अर्थ हैं- क्रीड़ा= खेलना, विजिगीषा= जीतने की इच्छा करना, व्यवहार= क्रय-विक्रय रूप व्यवहार करना, द्युति= चमकना, स्तुति= स्तुति करना, मोद= प्रसन्न होना, मद= मदमत्त होना, स्वप्न= सोना, कान्ति= इच्छा करना और गति= चलना।
विशेष- दिवादि गण की रूप सिद्धि में भ्वादि गण के सूत्रों की आवश्यकता होती है। पाठकों को चाहिए कि वे इस गण की रूप सिद्धि के लिए भू धातु की रूप सिद्धि देख लें ।
सूत्रार्थ-कर्तृवाची सार्वधातुक प्रत्यय के परे होने पर दिवादिगण के धातुओं से परे श्यन् प्रत्यय होता है।
यह सूत्र कर्तरि शप् का अपवाद है। श्यन् में शकार तथा नकार की इत्संज्ञा एवं लोप हो जाता है। य शेष रहता है।
दीव्यति।दिव् धातु से लट्, तिप् सार्वधातुकसंज्ञा, कर्तरि शप् सेशप्प्राप्त हुआ, उसे बाधकर दिवादिभ्यः श्यन् से श्यन् हुआ, दिव् + श्यन् बना।श्यन् में शकार और नकार का लोप, दिव् + य + ति बना। दिव् में इकार की अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा से उपधासंज्ञा हुई और उसको हलि च से दीर्घ हुआ, दीव् + य + ति बना।वर्णसम्मलेन हुआ- दीव्यति।
दिदेव।दिव् धातु से लिट् लकार, लिट् के स्थान पर तिप् हुआ।दिव् +तिप्, परस्मैपदानां णलतुसुस्- थलथुस-णल्वमाः से परस्मैपद के'तिप्' के स्थान पर णल् आदेश हुआ।दिव् + णल् हुआ । णल् में णकार को चुटू से तथा लकार कोहलन्त्यम् से इत्संज्ञा तस्यलोपः से लोप होकर'दिव्+ अ' हो गया। लिटि धातोरनभ्यासस्य से प्रथम एकाच् 'दिव्' को द्वित्व हो गया।दिव् + दिव् अ हुआ, 'दिव् दिव् अ'- यहाँ प्रथम 'दिव्' की पूर्वोऽभ्यासः से अभ्यास संज्ञा हुई। हलादिः शेषः से 'दिव् दिव् अ' का आदि हल् शेष रहगया। अर्थात् दिव् में दो हल् वर्ण हैं। प्रथम या आदि हल् वर्ण द् है एवं इसके आगे का हल् वर्ण व् है। इनमें से द्शेष रहता है तथा अन्य हल् (वकार) का लोप हो जाता है। इस प्रक्रिया को करने परदि दिव् अ हुआ ।अपित् में गुण नहीं होगा। वर्ण संयोग करने परदिदेव रूप सिद्ध हुआ। अन्य रूप- दिदिवतुः, दिदिवुः आदि।
विशेष-
दिव् धातु सेट् (इट् होने के योग्य) है, अतः वलादि आर्धधातुक के परे होने पर इट् आगम हो जाता है। पित् प्रत्ययों में लघूपधगुण होता है, किन्तु जो पित् नहीं होता वहाँ असंयोगाल्लिट् कित् से कित्व होने के कारण क्ङिति च से गुण का निषेध होता है।
दिदेव।
लिट् के रूप-
दिदेव, दिदिवतुः, दिदिवुः।
दिदेविध, दिदिवथुः, दिदिव।
दिदेव, दिदिविव, दिदिविम।
देविता ।लुट् में दिव् लुट्, दिव् ति, दिव् तास् ति, दिव् इ तास् ति, देव् इ तास् ति, देव् इ तास् ति, देव् इ तास् डा, देव् इ त् आ, वर्णसम्मलेन देविता सिद्ध हुआ। हल् परे न होने के कारण हलि च से दीर्घ नहीं हुआ। इस तरह रूप बनते है- देविता, देवितारौ, देवितारः। देवितासि, देवितास्थः देवितास्थ। देवितास्मि, देवितास्वः देवितास्मः।
लोट् में-लट् की तरह श्यन् हलि च से दीर्घ होकर - दीव्यतु-दीव्यतात्, दीव्यताम् दीव्यन्तु। दीव्य-दीव्यतात्, दीव्यतम्, दीव्यत। दीव्यानि, दीव्याव, दीव्याम, सिद्ध होते है
लङ् में-अट् श्यन्, दीर्घ करके इस प्रकार रूप बनते हैं - अदीव्यत्, अदीव्यताम्, अदीव्यन्। अदीव्यः अदीव्यतम्, अदीव्यत। अदीव्यम्, अदीव्याव, अदीव्याम।
विधिलिङ् में-श्यन् होकर भ्वादिगण की तरह यासुट्, लिङ्ः सलोपोऽनन्त्यस्य से प्राप्त सलोप को बाधकर अतो येयः से इय् आदेश, यकारलोप आदि कार्य होते है। दीव्येत्, दीव्येताम्, दीव्येयुः। दीव्येः, दीव्येतम्, दीव्येत। दीव्येयम्, दीव्येव, दीव्येम।
आशीर्लिङ् में-यासुट् के कित् होने के कारण लघूपधगुण निषिद्ध हो जाता है। केवल हलि च से उपधादीर्घ होकर इस प्रकार रूप बनते हैं- दीव्यात्, दीव्यास्ताम्, दीव्यासुः। दीव्याः दीव्यास्तम्, दीव्यास्त। दीव्यासम्, दीव्यास्व, दीव्यास्म।लुङ् में -अदेवीत्, अदेविष्टाम्, अदेविषुः। अदेवीः अदेविष्टम् अदेविष्ट। अदेविषम्, अदेविष्व, अदेविष्म।भ्वादिगणीय असेधीत् की तरह रूप बनता है-
इसी प्रकारषिवु धातु तन्तुसन्ताने= धागे का विस्तार करना (सिलाई करना) अर्थ में है। षिवु उकार की इत्संज्ञा और लोप होता है।। धात्वादेः षः सः से षकार के स्थान पर सकार आदेश होकर सिव् बन जाता है। इसके बाद की पूरी प्रक्रिया दिव् धातु की तरह ही होती है। यह धातु षोपदेशक हैं अतः तन्निमित्तक कार्य होंगें।
लिट् में द्वित्व आदि करके सिसिव् अ के बाद द्वितीय सि के सकार को आदेशप्रत्यययोः से षत्व होता है। पित् में उपधागुण और अपित् में निषेध होकर निम्नलिखित रूप से सिद्ध होते है-
नृती गात्रविक्षेपे।नृती धातु गात्रविक्षेप अर्थात् नाचना अर्थ में है। ईकार की इत्संज्ञा होती है। नृत् शेष रहता है। गुण होने पर नर्त् और श्यन् होने पर नृत्य बन जाता है।
नृत् के लट् में पूर्ववत् क्रिया सम्पन्न करने पर- नृत्यति, नृत्यतः नृत्यन्ति। नृत्यसि, नृत्यथः, नृत्यथ। नृत्यामि, नृत्यावः, नृत्यामः रूप बनते हैं।
लिट् लकार में- नृत तिप्, उसके स्थान पर णल् आदेश करके अनुबन्धलोप करने पर नृत + अ बना। द्वित्व करने पर नृत् नृत् अ बना। नृ नृत् से उरत् से अर् होने पर नर् नृत अ बना। हलादिशेष होकर न नृत् अ बनने के बाद पुगन्तलघूपधस्य च से उपधाभूत नृ के ऋकार के स्थान पर रपर सहित गुण होकर न नर्त् अ बना, वर्णसम्मलेन होकर ननर्त सिद्ध हुआ।
यह गुण केवल तिप्, सिप् और मिप् में होगा क्योंकि शेष में तो असंयोगाल्लिट् कित् से किद्वद्धाव होकर क्ङिति च से गुण का निषेध हो जाता है। इसलिए ननृत + अतुस् आदि में वर्णसम्मलेन होकर निम्नलिखित रूप से सिद्ध हो जाते हैं- ननर्त, ननृततुः, ननृतुः। ननर्तिथ, ननृतथुः ननृत। ननर्त, ननृतिव, ननृतिम।
सूत्रार्थ-कृत् (कृति = काटना), चृत् (चृति = खेलना या मारना), छृद् (छृदिर् = चमकना, खेलना), तृद् (तृदिर् = हिंसा करना, अनादर करना) और नृत् (नृती = नाचना) धातुओं से परे सिच् से भिन्न सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय को विकल्प से इट् आगम होता है।
नर्तिष्यति, नर्त्स्यति।नृत् धातु में से लृट् लकार, नृत् स्य ति। आर्धधातुकं शेषः से स्य की आर्धधातुकसंज्ञा होती है। उसको सेऽसिचि कृतचृतच्छृदतृदनृतःसे वैकल्पिक इट् आगम हुआ, नृत् इस्य ति बना। पुगन्तलघूपधस्य च से उपधाभूत ऋकार को रपर सहित गुण, नर्त् इस्य ति बना। इकार से परे सकार का आदेशप्रत्यययोः से षत्व हुआ, नर्तिष्यति बना गया। इट् आगम न होने के पक्ष में षत्व भी नहीं हुआ, गुण करके नर्त् स्य ति में वर्णसम्मलेन करके नर्त्स्यति रूप बना ।
नृत् धातु के लृट् में स्य, इट् आगम के पक्ष में गुण होकर- नर्तिष्यति, नर्तिष्यन्ति। इट् के अभाव में- नर्त्स्यति, नर्त्स्यतः नर्त्स्यन्ति ।
लोट् के रूप- नृत्यतु-नृत्यतात्, नृत्यताम्, नृत्यन्तु। नृत्य-नृत्यतात्, नृत्यतम्, नृत्यत।
लृङ् के इट् पक्ष में- अनर्तिष्यत्, अनर्तिष्यताम्, अनर्तिष्यन्।
इट् न होने के पक्ष में- अनर्त्स्यत्, अनर्त्स्यताम्। अनर्त्स्यः, अनर्त्स्यतम्, अनर्त्स्यत, अनर्त्स्यम्, अनर्त्स्याव, अनर्त्स्याम।
त्रसी उद्वेगे।त्रसी धातु उद्वेग अर्थात् डरना या घबराना अर्थ में है। ईकार की इत्संज्ञा होती है, त्रस् शेष रहता है। सेट् और परस्मैपदी है।चुरादि में इसके समान ही एक अन्य धातु है-त्रस धारणे ग्रहण इत्येके वारण इत्यन्ये धारणग्रहणवारणेषु। इसका रूप पृथक् होता है। अध्ययनकर्ताओं को धातु के गण का ध्यान रखना चाहिए।
त्रस्यति, त्रसति। त्रस् से लट्, तिप्, शप् को बाधकर नित्य से श्यन् प्राप्त था, उसे बाधकर वा भ्राशभ्लाशभ्रमुक्रमुक्लमुत्रसित्रुटिलषः से विकल्प से श्यन् हुआ। अनुबन्धलोप करके त्रस् + यति बना। वर्णसम्मलेन होकर त्रस्यति सिद्ध हुआ। श्यन् न होने के पक्ष में शप् होकर त्रसति बनता है। त्रस्यति, त्रस्यतः, त्रस्यन्ति एवं त्रसति, त्रसतः, त्रसन्ति आदि।
तत्रास।लिट्, तिप्, णल्, अ, द्वित्व, हलादिशेष करके तत्रस् + अ बना। अत उपधायाः से वृद्धि होकर तत्रास सिद्ध हुआ।
६३४वा जॄभ्रमुत्रसाम्
एषां किति लिटि सेटि थलि च एत्वाभ्यासलोपौ वा । त्रेसतुः, तत्रसतुः । त्रेसिथ, तत्रसिथ । त्रसिता ।। शो तनूकरणे ।। ५ ।।
सूत्रार्थ-कित् लिट् या सेट् थल् के परे होने पर जृ (जीर्ण होना), भ्रम् (घूमना), त्रस् (घबराना) धातुओं को विकल्प से एत्व और अभ्यास का लोप होता है।
तिप्, सिप् और मिप्के पित् होने के कारण असंयोगाल्लिट् कित् से कित् नहीं होता है। अतः इनमें एत्वाभ्यासलोप की प्राप्ति नहीं है। सिप् (थल्) में विशेष विधान होने के कारण हो जाता है।
त्रेसतुः, तत्रसतुः।त्रस् धातु से लिट्, लिट् के तस् में त + त्रस् + अतुस् बनने के बाद अप्राप्त का वा जृभ्रमुत्रसाम् से विकल्प से एत्व के अभ्यास का लोप हुआ अर्थात् त्रस् के अभ्यास त का लोप हुआ तथा त्रस् के अकार को एत्व होकर त्रेस् + अतुस् बना। वर्णसम्मलेन और सकार को रूत्वविसर्ग होकर त्रेसुतः बना। एत्व तथा अभ्यासलोप न होने के पक्ष में तत्रस् + अतुस्= तत्रसतुः बना। इसी प्रकार सेट् थल् मेंत्रेसिथ तथा तत्रसिथ ये दो रूप बनेंगें।
लिट् लकार का दोनों पक्ष में रूप- - तत्रास, त्रेसतुः -तत्रसतुः, त्रेसुः - तत्रसुः,
लुङ् मे- वदव्रजहलन्त... से प्राप्त वृद्धि का नेटि से निषेध होने के बाद पुनः अतो हलादेर्लघोः से वैकल्पिक वृद्धि होती है। वृद्धिपक्ष के रूप- अत्रासीत्, अत्रासिष्टाम, अत्रासिषुः अत्रासीः,
वृद्धि के अभाव में- अत्रसीत्, अत्रसिष्टाम्, अत्रसिषुः आदि। लृङ्-अत्रसिष्यत् अत्रसिष्यताम् आदि।
शो तनूकरणे।शो का अर्थ है- पतला करना, छीलना। शो में ओकार की अनुनासिक न होनेे से इत्संज्ञा भी नहीं होती है।
सूत्रार्थ-श्यन् के परे होने पर धातु के ओकार का लोप हो।
श्यति।शो धातु से लट्, तिप्, दिवादिभ्यः श्यन् सेश्यन् हुआ। शो + यति बना। ओतः श्यनि से ओकार का लोप होने पर श् + यति बना। परस्परवर्ण सम्मलेन होने पर श्यति सिद्ध हुआ। इस प्रकार लट् लकार के रूप बनते हैं- श्यति, श्यतः श्यन्ति। श्यसि, श्यथः श्यथ। श्यामि, श्यावः श्यामः
शशौ।शो धातु से लिट्, तिप्, णल्, अ होने के बाद शो + अ बना। यहाँ पर श्यन् न होने के कारण शित् नहीं है और शो धातु उपदेश अवस्था में एजन्त है। अतः आदेच उपदेशेऽशिति से आत्व हुआ, शा + अ बना। आत औ णलः से अकार के स्थान पर औकार आदेश, शा + औ बना। शा को द्वित्व, शाशा + औ, अभ्याससंज्ञा करके हृस्व से प्रथम शा के आकार को हृस्व होकर शशा + औ बना। शशा + औ में वृद्धिरेचि से वृद्धि हुई- शशौ।
णल् के परे होने पर शशौ और शेष तस् आदि रूप में द्वित्व आदि करने के बाद आतो लोप इटि च से आकार का लोप और वर्णसम्मलेन करके बनते है- शशतुः, शशुः। शशिथ-शशाथ, शशथुः शश। शशौ, शशिव, शशिम।
सूत्रार्थ-परस्मैपद परे रहते घ्रा (सूंघना), धेट् (पीना), शो (पतला करना), छो (काटना), और षो (नाश करना) धातु से परे सिच् का विकल्प से लुक् होता है।
अशात्।शो धातु से लुङ्, तिप्, अट्, च्लि, सिच्, और आत्व करके अ + शा + स् + त् बना। पा पाने धातु से अपात् की तरह यहाँ पर भी विभाषा घ्राधेटशाच्छासः से सिच् का वैकल्पिक लुक् होकर अशात् बना। सिच् विद्यमान न होने के कारण अस्तिसिचोऽपृक्ते से इट् आगम और यमरमनमातां सक् च से सक् और इट् भी नहीं होते है। इस तरह लुङ् के रूप बने- अशात्, अशाताम् । झि को आतः से जुस् आदेश होने पर अशा + उस् हुआ। उस्यपदान्तात् से पररूप होकर अशुः रूप बना।
सिच् के लोप का अभाव पक्ष में अस्तिसिचोऽपृक्ते से इट् आगम और यमरमनमातां सक् च से सक् करके अशास् + इत् = अशासीत्सिद्ध हुआ। इसका रूप होगा- अशासीत्, अशासिष्टाम्, अशासिषुः।
लृङ् में- अशास्यत्, अशास्यताम्,
छो छेदने। छो धातु काटने के अर्थ में है। इस में शित् के परे होने पर ओकार का लोप और अशित् के परे रहने पर आत्व करके शो धातु की तरह की रूप सिद्ध होते है। विशेषता यह है कि लङ्, लुङ् और लृङ् लकारों में अट् आगम होने के बाद छे च से अ को तुक् आगम और तकार को छकार के परे होने के कारण स्तोः श्चुना श्चुः से चुत्व होकर चकार आदेश होता है, जिससे अच्छान्त आदि रूप बनते है।
छो धातु के लट् के रूप- छयति, छयतः छयन्ति।
लिट् में छे च से तुक् आगम और स्तोः श्चुना श्चुः से चुत्व होने पर- चच्छौ, चच्छतुः, चच्छुः।
लुट्- छाता, छातारौ, छातारः।
लृट्- छास्यति, छास्यतः छास्यन्ति।
लोट्- छयतु-छयतात्, छयताम्, छयन्तु।
लङ्- अच्छयत्, अच्छयताम्, अच्छायन्त।
विधिलिङ्- छयेत्, छयेताम्, छयेयुः।
आशीर्लिङ्- छायात्, छायास्ताम्, छायासुः।
लुङ् में- सिच् के लुक् पक्ष में- अच्छात्, अच्छाताम्,
लुक् ने होने के पक्ष में- अच्छासीत् अच्छासिष्टाम्, अच्छासिषुः।
छो, सो, तथा दो (काटना) धातुओं के पूर्ववत् रूप बनेंगें। लोट् के सिप् को हि आदेश होने पर हि का लोप होने पर छ्य,स्य तथा द्य रूप बनेंगें।
आशीर्लिङ् में घुसंज्ञक दो को एकारादेश होकर देयात् रूप बनेगा। लुङ् में गातिस्ता. से सिच् का लोप होकर अदात् रूप बनेगा।
षोऽन्तकर्मणि।षो धातु को धात्वादेः षः सः से षकार के स्थान पर दन्त्य सकार आदेश होता है। अन्त्य ओकार की इत्संज्ञा नहीं होती है। अतः सो शेष रहता है। यह भी धातु पूर्ववत् अनिट् ही है। अनुनासिक न होने से इसकी भी सम्पूर्ण प्रक्रिया शो तनूकरणे की तरह ही होती है।
प्रत्येक लकार में तिप् के रूप- स्यति। ससौ। साता। सास्यति।
दोऽवखण्डने। दो धातु अवखण्डन अर्थात् काटना अर्थ में है। इसमें भी सार्वधातुक ओकार की इत्संज्ञा होकर द् शेष रहता है। इसके भी सारे रूप छो छेदने की तरह ही रूप होते हैं किन्तु दाधा घ्वदाप् से घुसंज्ञा होने के कारण लिंङ् में एर्लिङि से नित्य से एत्व तथा लुङ् में गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु से सिच् का लुक् आदि विशेष कार्य होते हैं।
प्रत्येक लकार के तिप् में रूप- द्यति। ददौ। दाता। दास्यति। द्यतु। अद्यत्। द्येत्।
व्यध ताडने।व्यध धातु का अर्थ है- मारना, बींधना । उदात्त अकार की इत्संज्ञा होती है। व्यध् शेष रहता है। परस्मैपदी और अनिट् है।
६३७ग्रहि-ज्या-वयि-व्यधि-वष्टि-विचति-वृश्चति-पृच्छति-भृञ्जतीनां ङिति च
सूत्रार्थ-कित् या ङित् प्रत्यय के परे होने पर ग्रह् (ग्रहण करना), ज्या (वृद्ध होना), वेञ् (बुनना), व्यध् (बेधना), वश् (इच्छा करना), व्यच् (ठगना), व्रश्च् (काटना)प्रच्छ् (पूछना), और भ्रस्ज् (भूनना) इन धातुओं को सम्प्रसारण होता है।
विध्यति। व्यध् से लट्, तिप्, श्यन्, अनुबन्धलोप होने पर व्यध् + यति बना। श्यन् का य अपित् सार्वधातुक होने के कारण सार्वधातुकमपित् से ङित् है। अतः व् + य् + अ + ध् = व्यध् के यकार के स्थान पर ग्रहि-ज्या-वयि-वष्टि-विचति-पृच्छति-भृज्जतीनां ङिति से सम्प्रसारण होकर इकार हो गया। व् + इ + अ + ध् + यति बना। इ + अ में सम्प्रसारणाच्च से पूर्वरूप होकर इकार ही हुआ । इस तरह विध् + यति बना। वर्णसम्मलेन होकर विध्यति सिद्ध हुआ। लट् में रूप - विध्यति, विध्यतः, विध्यन्ति आदि।
विव्याध। लिट् में व्यध् + अ बनने के बाद द्वित्व होकर व्यध्
+ व्यध्
+ अ बना। लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्
से अभ्यास को सम्प्रसारण होकर पूर्वरुप हुआ विध् + व्यध अ बना। विध् के धकार का
हलादि शेष हुआ। विव्यध् + अ बना। अत उपधायाः से व्यध् के उपधा की वृद्धिहोने पर विव्याध बना।
द्विवचन एवं बहुवचन में कित् होने के कारण
ग्रहि-ज्या-वयि-व्यधि-वष्टि-विचति-वृश्चति-पृच्छति भृज्जतीनां ङिति च पहले
सम्प्रसारण होकर बाद में विध् को द्वित्व आदि कार्य होते है। विविध्
+ अतुस्= विविधतुः। थल् के
कित्,
ङित् न होने के कारण लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् से अभ्यास को
सम्प्रसारण होता है। भारद्वाज नियम से थल् को इट् होने पर विव्यधिथ और इट् न होने
के पक्ष में विव्यध् + थ बनने के बाद झषस्तथोर्धोऽधः से थकार के स्थान पर धकार
आदेश और पूर्वधकार को जश्त्व होकर विव्यद्ध बनता है। लिट् के वस् और मस् में
क्रादिनियम से नित्य से इट् हो जाता है।
लिट् लकार में इस प्रकार रूप बनेंगें- विव्याध, विविधतुः, विविधुः।
विशेष-
व् + इ + अ + ध् + + यति में वकार का भी सम्प्रणारण प्राप्त होता है किन्तु न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम् से निषेध हो जाता है। निषेधक सूत्र का अर्थ है- सम्प्रसारण के परे होने पर पूर्व को सम्प्रसारण नहीं होता। इससे सिद्ध हो जाता है कि जहाँ दो वर्ण सम्प्रसारण के योग्य हों, वहाँ पर पहले पर वर्ण को सम्प्रसारण होता है।
सार्वधातुक लकारों में श्यन् प्रत्यय होता है, जो कि अपित् है । अपित् प्रत्यय को सार्वधातुकमपित् सूत्र ङित् करता है, अतः जहाँ- जहाँ श्यन् प्रत्यय होगा वह ङित् होगा।
व्यद्धा । व्यध् + ता में झषस्तथोर्धाऽधः से तकार को धकार हुआ। व्यध् + धा में पूर्वधकार को
जश्त्व होकर दकार होता है। व्यद्धा, व्यद्धारौ, व्यद्धारः, आदि रूप बनेंगें। लुट् लकार में इट् नहीं होता है।
व्यत्स्यति । लुट् लकार में व्यध् + स्यति में धकार को खरि च से चर्त्व होकर तकार होता है।
व्यत्स्यति, व्यत्स्यतः व्यत्स्यन्ति आदि।
विध्यतु। लोट् लकार में विध्यतु, विध्यतात्, विध्यताम्, विध्यन्तु आदि रूप बनेगा।
लङ् लकार में - अविध्यत्, अविध्यताम्, अविध्यन्, आदि रूप बनेगा ।
विधिलिङ् लकार में विध्येत्,विध्येताम्, विध्येयुः आदि रूप बनेगा ।
आशीर्लिङ् में कित् होने के कारण सम्प्रसारण होता है। विध्यात्,विध्यास्ताम्, विध्यासुः आदि रूप बनेगा ।
अव्यात्सीत्। लुङ् लकार के तिप् में अट्, सिच्, ईट् होकर अव्यध् + स् + ई + त् बना। यहाँ वदव्रजहलन्तस्याचः से हलन्तलक्षणा वृद्धि
होकर अव्याध् बना। अव्याध् के धकार को खरि च से चर्त्व होकर अव्यात्सीत् रूप बना।
तस् में अव्याध् + स् + ताम् बनने के बाद झलो झलि से सकार का लोप,
झषस्तथोर्धोऽधः से तकार को धकार और पूर्वधकार को जश्त्व
होकर दकार होने पर अव्यद्धाम् बनता है। झि के स्थान पर सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च से
जुस् आदेश होने पर अव्यध् + स् + उस् बना है। झल् के परे न होने के कारण सकार का लोप नहीं
हुआ। अव्यात्सुः। थस् तथा थ प्रत्ययों में
झलो झलि से सिच् का लोप होता है।
पुष पुष्टौ। पुष धातु पालन करने,बढ़ने या पुष्ट करने अर्थ में है। यह अनिट् धातु है। पुष
में अकार इत्संज्ञक है। अजन्त या अकारवान न होने से क्रादि नियम से लिट् में
सर्वत्र इट् होता है।
लट् में श्यन् होकर - पुष्यति, पुष्यतः, पुष्यन्ति बनता है।
लिट् में द्वित्व, अभ्यास कार्य होने पर पु पुष् बना यहाँ उत्तरवर्ती पुष् के
उकार को गुण होकर पुपोष बना। थल् प्रत्यय में क्रादि नियम से इट् होकर पुपोषिथ
बना।
लुट् में ष्टुत्व गुण आदि होकर पोष्टा बना।
लृट् में पुष् धातु सेतिप्, स्य, लघूपधगुण करके पोष् + स्यति बना। षढोः कः सि से स्य के सकार के परे होने के कारण
पोष् के षकार के स्थान पर ककार आदेश हुआ। पोक् + स्यति बना। ककार से परे सकार को आदेशप्रत्यययोः से षत्व
होकर पोक् + ष्यति बना। वर्णसम्मेलन होकर पोक्ष्यति बना। इसी प्रकार पोक्ष्यतः पोक्ष्यन्ति
आदि बनेगें।
लुङ् में पुषादि धातु के होने के कारण पुषादिद्युताद्यॢदितः परस्मैपदेषु से
च्लि के स्थान पर चङ् आदेश होकर अपुषत् बनेगा। अपुषत्,
अपुषताम्, अपुषन्।
लृङ् में- अपोक्ष्यत्, अपोक्ष्यताम्, अपोक्ष्यन्।
।। शुष शोषणे ।। ११ ।।
शुष धातु शोषण अर्थात् सूखने के अर्थ
में है। न शोषयति मारूतः में शोषयति का अर्थ सुखाना है। यह णिजन्त में रूप बनता
है।
शुष में अकार की इत्संज्ञा होने के बाद
शुष् शेष बचता है। इसका रूप पुष् के समान होते हैं। जैसे- शुष्यति। शुशोष। शोष्टा।
शोक्ष्यति। शुष्यतु। अशुष्यत्। शुष्येत्। शुष्यात्। अशुषत्। अशोक्ष्यत्।
।। णश अदर्शने ।। १२ ।।
अदर्शन का अर्थ है दिखाई न देना। नाश होने
अर्थ में भी इस धातु का प्रयोग किया जाता है। णश के णकार को णो नः से नकार आदेश और
उपदेशेऽजनुनासिक इत् से शकारोत्तरवर्ती अकार की इत्संज्ञा और लोप होने पर नश् शेष बचता
है।
लट् लकार में- शप् को बाधकर दिवादिभ्यः श्यन् से
श्यन् प्रत्यय हुआ। श्यन् में शकार तथा नकार का अनुबंध लोप य शेष बचा। नश्+यति
हुआ। नश्यति, नश्यतः, नश्यन्ति आदि रूप सिद्ध हुआ।
सूत्रार्थ- झलादि
प्रत्यय के परे होने पर मस्ज् और नश् धातुओं को नुम् आगम होता है।
ननाश। लिट् लकार, लिट् के स्थान पर तिप्, णल्, अ, नश् को द्वित्व, हलादिशेष होकर ननश् + अ ननाश तस् और झि
में एत्वाभ्यासलोप होकर नेशतुः नेशुः बनते हैं।
नेशिथ, ननंष्ठ। लिट् के सिप् में ननश् + थ बनने के बाद
आर्धधातुकस्येद् वलादेः से नित्य से इट् प्राप्त था, उसे बाधकर रधादिभ्यश्च से विकल्प से इट् हुआ। इट् से युक्त थल् के परे होने पर
थलि च सेटि से एत्वाभ्यासलोप हुआ नेश्+ इथ बना। वर्णसम्मेलन होकर नेशिथ रूप सिद्ध
हुआ। इट् होने पर झलादि न मिलने के कारण नुम् नहीं हुआ। इट् न होने के पक्ष में
एत्वाभ्यासलोप भी प्राप्त नहीं है। अतः ननश्थ बना। मस्जिनशोर्झलि से नुम् का आगम, मित् होने के कारण अन्त्य अच् नकारोत्तरवर्ती अकार के
बाद और शकार के पहले बैठा। ननन्श्थ बना। नकार को नश्चापदान्तस्य झलि से अनुस्वार, शकार को व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः से
षकार आदेश, षकार से परे थकार को ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व से ठकार
आदेश होकर ननंष्ठ सिद्ध हुआ। इस तरह दो रूप बन गये नेशिथ, ननंष्ठ।
लुट् में - इट्पक्ष और इट् के अभाव पक्ष में दो-दो रूप बनते हैं। नशिता, नशितारौ, नशितारः एवं नंष्टा, नंष्टारौ, नंष्टारः।
लृट् में- रधादिभ्यश्च से इट् होने के पक्ष में नशिष्यति और इट् के अभाव में
नुम् का आगम होकर नन्श्+स्यति बना है। नकार को अनुस्वार, शकार को पकार आदेश और सि के सकार के
परे रहते षकार को षढोः कः सि से ककार आदेश होकर नंक्+स्यति बना। ककार से परे सकार
को षत्व करके क्क्ष्संयोगे क्षः होकर नंक्ष्यति बना। क्ष्य में विद्यमान ककार के
परे होने पर अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः से परसवर्ण होकर ङकार हुआ। इस तरह से
नक्ष्यति बना। इट् के पक्ष में नशिष्यति, नशिष्यतः, नशिष्यन्ति आदि। इट् न होने के पक्ष
में- नक्ष्यति, नक्ष्यतः, नक्ष्यन्ति।
लोट्- नश्यतु-नश्यतात्, नश्यताम्, नश्यन्तु आदि।
लङ्- अनश्यत्, अनश्यताम्, अनश्यन् आदि।
विधिलिङ्- नश्येत्, नश्येताम्, नश्येयुः।
आशीर्लिङ झलादि न होने के कारण नुम् का आगम नहीं हुआ। नश्यात्, नश्यास्ताम्, नश्यासुः आदि।
लुङ्- पुषादिद्युताद्य्लृदितः परस्मैपदेषु से च्लि के
स्थान पर अङ् आदेश होकर- अनशत्, अनशताम्, अनशन्, अनशः अनशतम्, अनशत, अनशम्, अनशाव, अनशाम। लृङ्- अनशिष्यत्, अनक्ष्यत्।
षूङ् प्राणिप्रसवे। पूङ् धातु का अर्थ- प्राणियों को पैदा करना है। धातु के आदि षकार के
स्थान पर धात्वादेः षः सः से सकार आदेश होता है। ङकार भी इत्संज्ञक है। सू बचता
है। ङकारानुबन्ध के कारण आत्मनेपदी और स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो वा से वलादि में
वेट् है किन्तु लिट् में श्रयुकः किति से नित्य से इट् का निषेध प्राप्त होने पर
क्रादिनियम से नित्य से इट् हो जाता है।
लिट्- में ए,
आते, इरे, आथे, इट् ये स्वतः ही अजादि है और से, ध्वे, वहे, महे में इट् होने के कारण अजादि है। अतः अचि श्नुधातुभ्रुवां
य्वोरियडुवङौं से उवङ्आदेश होता है। द्वितीय सकार को षत्व हो
जाता है।
धातुरूप- सुषुवे, सुषुवाते, सुषुविरे, सुषुविषे, सुषुवाथे, सुषुविद्वे-सुषुविध्वं, सुषुवे, सुषुविवहे, सुषुविमहे। लुट्- इट् होने के पक्ष में
सविता, सवितारौ, सवितारः, सवितासे आदि और इट् न होने के पक्ष में
सोता, सोतारौ, सोतारः, सोतासे आदि।
इसी तरह लृट् में- सविष्यते, सविष्येते, सविष्यन्ते, सोष्यते, सोष्येते, सोष्यन्ते आदि। लोट्- सूयताम्, सूयेताम्, सूयन्ताम्,सूयस्व, सूयेथाम, सूयध्वम्, सूयै, सूयावहै, सूयामहै।
आशीर्लिङ् - इट् के पक्ष में- सविषीष्ट, सविषीय़ास्ताम्, सविषीरन्, सविषीष्ठाः, सविषीयास्थाम्, सविषीद्वम्-सविषीध्वम्, सविपीय, सविषीवहि, सविषीमहि। इट् के अभाव में- सोषीष्ट, सोषीयास्ताम्, सोषीरन् आदि।
लुङ् के इट्पक्ष में- असविष्ट, असविषाताम्, असविषत, असविष्ठाः, असविषाथाम्, असविद्वम्-असविध्वम्, असविपि, असविष्वहि, असविष्महि। इट् न होने पर असोष्ट, असोषाताम्, असोषत, असोष्ठाः, असोषाथाम्, असोद्वम्, असोषि, असोष्वहि, असोष्महि।
लृङ्- असविष्यत, असोष्यत। दृङ् परितापे।
दूङ् धातु परिताप अर्थात् दुःखी होना अर्थ में है। ङकार की इत्संज्ञा होने से
आत्मनेपदी है और ऊदन्त होने से सेट् है।
दीङ् क्षये। दीङ् धातु नष्ट होना अर्थ में है। यह भी ङकार की इत्संज्ञा हो जाने
के कारण आत्मनेपदी है और अनिट् कारिका के अनुसार अनिट् भी किन्तु लिट् में
क्रादिनियम से नित्य से इट् होता है।
लट्- दूयते, दूयेते, दूयन्ते आदि।
६४०दीङो युडचि क्ङिति
दीङः परस्याजादेः क्ङित आर्धधातुकस्य युट् ।
सूत्रार्थ - दीङ्
से परे अजादि कित्, ङित् आर्धधातुक को युट् आगम होता है।
उकार और टकार की
इत्संज्ञा होकर केवल य् बचता है और टित् होने के कारणअजादि आर्धधातुक का आदि-अवयव हो जाता है।
(वुग्युटावुवङ्यणोः सिद्धौ वक्तव्यौ)। दिदीये ।।
उवङ्
और यण् की कर्तव्यता में वुक् और युट् को सिद्ध कहना चाहिए।
उवङ् और यण् की कर्तव्यता में वुक् और युट् को सिद्ध कहना चाहिए।
भाष्य में वुग्युटावुवङ्यणोः सिद्धौ वक्तव्यौ वार्तिक
असिद्धवदत्राभात् सूत्र में पठित है। षष्ठाध्याय केचतुर्थपाद के बाइसवें सूत्र से पाद की समाप्ति
पर्यन्त के सूत्र आभीय सूत्र कहलाते हैं। उक्त सूत्र से एक आभीय की कर्तव्यता में दूसरा आभीय असिद्ध कर दिया जाता है।
दीङो युडचि क्ङिति 6/4/63 आभीय सूत्र के अन्तर्गत आता है। इस आभीय के द्वारा किया
गया युट् का आगम एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य इस आभीय की कर्तव्यता में असिद्ध होने से
यण् की प्राप्ति होती है। अतः वुग्युटावुवङ्यणोः सिद्धौ वक्तव्यौ वार्तिक के
द्वारा उवङ् और यण् की कर्तव्यता में वुक् और युट् असिद्ध नहीं होते अर्थात् वुक्
और युट् होते हैं। युट् के सिद्ध होने से अजादि न मिलने के कारण यण् और वुक् के
सिद्ध होने से अजादि न मिलने से उवङ् नहीं होता।
दिदीये। लिट् के तिप् में दिदी + ए बनने के बाद दीङो युडचि क्ङिति से
युट् आगम होकर दिदी + य् + ए बना। अब आभीयशास्त्र के द्वारा किया गया युट्
असिद्धवदत्राभात् के नियम से आभीयशास्त्र एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य की दृष्टि में
असिद्ध था । यहाँ वुग्युटावुवङ्यणोः सिद्धौ वक्तव्यौ से युट् सिद्ध हुआ । युट् के
आगमन हो जाने से दी के आगे अजादि न मिलने के कारण यण् नहीं हो सका। वर्णसम्मेलन
होकर दिदीये सिद्ध हुआ।
ल्यप्
के विषय में या एच् करने में निमित्त शिद्भिन्न प्रत्यय के विषय में क्रयादि के
मीञ्, स्वादि के मिञ् और दिवादि के दीङ् धातुओं को आकार
अन्तादेश होता है।
एच् करने में निमित्त का तात्पर्य यह है जिसे निमित्त मानकर धातु में
गुण, वृद्धि आदि होकर एच् अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ बन जाता हो, वह वर्ण एच् निमित्तक है। एच् का
निमित्त होते हुए शित् नहीं होना चाहिए। लुट्, लृट्, आशीर्लिङ, लुङ, लृङ् में स्य,
तास् आदि एज्निमित्तक हैं। अतः इन
लकारों में आत्त्व हो जाता है। जिस लकार में श्यन् होता है, वहाँ शित् होने के कारण नहीं होता।
दाता। दी से लुट्, त, तास्, डा करके दी+ता बना। ता इस आर्धधातुक को मानकर धातु के ईकार को गुण
होकर एकार बनता है। अतः ता एज्निमित्तक है । उसके परे होने पर मीनातिमिनोतिदीङां
ल्यपि च से धातु के ईकार के स्थान पर आकार आदेश होकरदाता रूप सिद्ध हुआ।
स्थाध्वोरिच्च से होने वाला इत्त्व दीङ् धातु में नहीं होता है।
अदास्त ।। लुङ् लकार में तिबादेश अदा+स्+त बनने के बाद दा-रूप मानकर
दाधा घ्वदाप् से घुसंज्ञा और स्थाघ्वोरिच्च से इत्त्व प्राप्त होता है किन्तु
स्थाघ्वोरित्त्वे दीङः प्रतिषेधः से निषेध हो जाने से इत्व नहीं हुआ। अतः अदास्त
ही रह गया।
डीङ् विहायसा गतौ। डीङ् धातु का अर्थ है - आकाशमार्ग से जाना, उड़ना । डीङ् में ङकार की इत्संज्ञा होती है अतः अनुदात्तङित आत्मनेपदम् से यह आत्मनेपदी है। ऊदृदन्तैः इस कारिका में आने के कारण सेट्है।
लट्- डीयते,
डीयेते, डीयन्ते आदि। उत् उपसर्ग के लगने से उड्डीयते आदि रूप बनते हैं।
सूत्रार्थ- शित् प्रत्यय के परे होने पर ज्ञा और जन् धातुओं के स्थान पर जा आदेश
होता है।
अनेकाल् शित्सर्वस्य के नियम से अनेकाल् जा आदेश अनेकाल् होने के
कारण सम्पूर्ण जन् के स्थान पर जा सर्वादेश हो जाता है।
जायते। जन् से लट्, त, श्यन् आदि होकर जन्+यते बना है।
ज्ञाजनोर्जा से जा सर्वादेश होकर जायते बन गया।
जायते, जायेते, जायन्ते।
जायसे, जायेथे, जायध्वे,
जाये, जायावहे, जायामहे।
जज्ञे।
लिट् में श्यन् न होने से अशित् होने के कारण जा आदेश नहीं हुआ।द्वित्वादि होकर जजन्-ए बना ह। गमहनजनखनघसां लोपः क्ङित्यनङि से
उपधालोप होकर जज्+न्+ए बना। जकार से परे नकार को श्चुत्व होकर ञकार हुआ, जज्ञ्+ए बना। जकार और ञकार के संयोग से
ज्ञ बन गया, जज्+ए, वर्णसम्मेलन होकर जज्ञे सिद्ध हुआ।
एभ्यश्च्लेश्चिण् वा स्यादेकवचने तशब्दे परे ।।
सूत्रार्थ- एकवचन
त शब्द के परे होने पर दीप्, जन्, बुध, पूर्, ताय् और प्याय् धातुओं से परे च्लि के स्थान पर चिण्
आदेश होता है।
६४४चिणो लुक्
चिणः परस्य लुक् स्यात् ।।
सूत्रार्थ-चिण्
से परे (तशब्द का) लुक् होता है।
विशेष - यह
सूत्र अङ्गाधिकार में है अर्थात् अङ्गस्य का अधिकार आता है। अङ्ग से परे प्रत्यय
यहाँ पर केवल त ही मिलता है क्योंकि केवल त के परे ही चिण् हुआ है।
सूत्रार्थ-चिण्
के परे होने पर अथवा कृत्संज्ञक जित् या णित् के परे होने पर जन्और वध् धातुओं की उपधा की वृद्धि नहीं होती है।
अजनि,
अजनिष्ट। जन् से लुङ् लकार,लुङ्लङ्लृङ्क्ष्वडुदात्तः से धातु को अट् का आगम, लकार के स्थान परत, च्लि
करके उसके स्थान पर दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्योऽन्यतरस्याम् से वैकल्पिक चिण् आदेश
करने पर अजन्+इत बना। चिणो लुक् से त का लुक् हुआ, अजन्+इ बना। चिण् के इकार को णित् मानकर अत उपधायाः से वृद्धि
प्राप्त होने पर जनिवध्योश्च से निषेध हुआ। इस तरह अजनि सिद्ध हुआ। चिण् न होने के
पक्ष में सिच् आदेश होकर उसको इट् का आगम करके अजन्+इस्+त है। इकार से पर सकार को
षत्व और षकार से परे तकार को ष्टुत्व करके अजन्+इष्ट अजनिष्ट सिद्ध हुआ। इस तरह दो
रूप बने। आताम् आदि में कहीं भी चिण् नहीं होता। अतः सिच् होकर एक ही रूप बनते
हैं।
दीपी दीप्तौ। दीपी धातु का अर्थ है - चमकना । ईकार की इत्संज्ञा
होती है। ईदित् होने से निष्ठासंज्ञक प्रत्यय के परे रहते श्वीदितो निष्ठायाम् से
इट् का निषेध होता है, अन्यत्र इट् होता है। अनुदात्तेत् होने से आत्मनेपदी
है। अन्य रूप सामान्य ही हैं, केवल लुङ् के एकवचन में
दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्योऽन्यतरस्याम् से चिण् होकर चिणो लुक् से त का लुक् होकर
अदीपि, अदीपिष्ट ये दो रूप बनते हैं।
पद गतौ। पद धातु का अर्थ है- जाना । अनुदात्त अकार की इत्संज्ञा होती है, पद्शेष रहता है। अनुदात्तेत् होने से आत्मनेपदी और अनुदात्तों में
परिगणित होने से अनिट् है।
सूत्रार्थ - पद धातु से परे च्लि के स्थान पर चिण् आदेश होता है त शब्द के परे
रहने पर।
अपादि।
पद् से लुङ् लकार, लुङ्लङ्लृङ्क्ष्वडुदात्तः से धातु को अट् का आगम, अनुबन्धलोप, टित् धातु का आद्यावयव होगा। लकार के स्थान
पर प्रथमपुरुष का एकवचन त आदेश,च्लि
करके उसके स्थान पर चिण् ते पदः से नित्य से चिण् आदेश होकर अपद् + इत बना। अत
उपधायाः से पकारोत्तरवर्ती अकार की बृद्धि और चिणो लुक् से त का लुक् करके अपादि
बना। ताम् आदि में चिण् नहीं होगा। रूप इस तरह बनेगा।
विद सत्तायाम्। ।। २२ ।।विद धातु सत्ता अर्थात् होना विद्यमान रहना, पाया जाना अर्थ में है। अकार की
इत्संज्ञा होकर विद् शेष रहता है। अनुदात्तेत् होने के कारण आत्मनेपदी है।
अनुदात्तों में पढ़े जाने से अनिट् है किन्तु लिट् में क्रादिनियम से सर्वत्र इट्
होता है।
लुङ् के त में झलो झलि से सकार का लोप होता है। अवित्त, अवित्साताम्, अवित्सत, अवित्थाः, अवित्साथाम्, अविद्ध्वम्, अवित्सि, अवित्स्वहि,
अवित्स्महि।
लृङ्- अवित्स्यत, अवित्स्येताम्, अवित्स्यन्त ।
बुध अवगमने।। २३ ।। बुध धातु का अर्थ है - जानना । अनुदात्त अकार की इत्संज्ञा होकर
बुध् शेष रहता है। अनिट् और आत्मनेपदी है। स्य, सीयुट्
और सिच् के सकार के परे होने घर एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः से बकार के स्थान
पर भष् आदेश होकर भकार हो जाता है। तासि के तकार को झषस्तथोर्थोऽधः से धकार आदेश
होकर बुध के पूर्व धकार को झलां जश् झशि से जश्त्व होकर दकार बनता है। लुङ् के त
में दीपजनबुध पूरितायिप्यायिभ्यो ऽन्यतरस्याम् से चिण् होता है। उसके बाद चिणो
लुक् से त का लुक् होता है। लघूपधगुण होता है। चिण् न होने के पक्ष में सिच् के
सकार का झलो झलि से लोप होता है।
युध सम्प्रहारे। युध धातु का अर्थ है - युद्ध करना । अनुदात्त अकार की इत्संज्ञा
होतो है। युध् शेष रहता है। आत्मनेपदी एवं अनिट् है। यहाँ चिण् और भष्भाव नहीं
होता है।
सूत्रार्थ- कित्-भिन्न झलादि प्रत्यय परे हो तो सृज् और दृश् धातुओं को अम् आगम
होता है।
स्रष्टा। सृज् से लुट्, तासि, डा, टि
का लोप करके सृज्+ता बना है। सृजिदृशोर्झल्यमकिति से अम् आगम हुआ। अनुबन्धलोप होकर
अकार के मित् होने सेअन्त्य अच् के बाद बैठा तो सु+अ+ज्+ता
बना। सृ+अ में यण् होकर सूर्+अ-स्र, स्रज्-ता
बना। जकार के स्थान पर व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज- राजभ्राजच्छषां षः से षकार आदेश होकर
स्रष्-ता बना। वर्णसम्मेलन होकर स्रष्टा सिद्ध हो गया। स्रष्टा, स्रष्टारौ, स्रष्टारः।
स्रक्ष्यते। लृट् में भी अम् आगम, यण्, षकारादेश करके स्रष्+स्यत बना है। घढोः
कः सि से षकार के स्थान पर ककार आदेश, ककार
से परे सकार को आदेशप्रत्यययोः से षत्व, ककारऔर षकार के संयोग से क्षकार होकार स्रक्ष्यते सिद्ध होता है।
स्रक्ष्यते, स्रक्ष्येते, स्रक्ष्यन्ते।
लोट्- सृज्यताम्, सृज्येताम्, सृज्यन्ताम्।
लङ्- असृज्यत,
असृज्येताम्, असृज्यन्त।
विधिलिङ्- सृज्येत, सृज्येयाताम्, सृज्येरन्।
आशीर्लिङ्- लिङ्सिचावात्मनेपदेषु से कित् होने के कारण
सृजिदृशोर्झल्यमकिति से अम् नहीं होगा- सृक्षीष्ट, सृक्षीयास्ताम्, सृक्षीरन्।
मृष तितिक्षायाम्। मृष धातु अर्थ है- तितिक्षा या सहना । स्वरित अन्त्य अकार की
इत्संज्ञा होती है। स्वरितेत् होने से स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले से
उभयपदी हो जाता है। अनुदात्त धातुओं में परिगणित न होने से सेट् है।
णह बन्धने। णह धातु अर्थ है- बाँधना । णह का अन्त्य अकार स्वरित है। इसकी इत्संज्ञा होती
है। अतः स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले से उभयपदी हो जाता है। णो नः से णकार को नकार आदेश होता है। अनिट् है।
लुट्- नहो धः से हकार के स्थान पर धकार आदेश और झषस्तथोर्थोऽधः से
तकार के स्थान पर धकार आदेश होने के बाद पूर्व धकार को जश्त्व होकर-नद्धा, नद्धासि, नद्धासे।
संस्कृत को अन्तर्जाल के माध्यम से प्रत्येक लाभार्थी तक पहुँचाने तथा संस्कृत विद्या में महती अभिरुचि के कारण ब्लॉग तक चला आया। संस्कृत पुस्तकों की ई- अध्ययन सामग्री निर्माण, आधुनिक
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