अथाव्ययीभावः
९१० अव्ययीभावः
अधिकारोऽयं प्राक् तत्पुरुषात् ।।
सूत्रार्थ- तत्पुरूषः (2.1.22) से पहले तक अव्ययीभाव का अधिकार है।
९११ अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु
विभक्त्यर्थादिषु वर्तमानमव्ययं सुबन्तेन सह नित्यं समस्यते सोऽव्ययीभावः। प्रायेणाविग्रहो नित्यसमासः, प्रायेणास्वपदविग्रहो वा । विभक्तौ, हरि ङि अधि इति स्थिते ।।
यह दो पदों वाला सूत्र है । इस सूत्र में सुबामन्त्रिते पराङ्वत्स्वरे से सुप् तथा सह सुपा से सह की अनुवृत्ति आती है। समर्थः पदविधिः परिभाषा सूत्र का अर्थ भी उपस्थित रहता है।
सूत्रार्थ- विभक्ति, समीप, समृद्धि ( वृद्धि का आधिक्य ), व्यृद्धि ( वृद्धि का अभाव ), अर्थाभाव, अत्यय (नाश), असम्प्रति ( अनुचित), शब्द की अभिव्यक्ति, पश्चात्, यथा, क्रमशः, एक दम, समानता, स्पत्ति, सम्पूर्णता, अन्त अर्थ में वर्तमान अव्यय का समर्थ सुबन्त के साथ नित्य समास होता है। इस अव्ययीभाव प्रकरण में अव्ययं विभक्ति सूत्र में कहे गये अर्थों में समास होगा। इनके उदाहरण तथा कतिपय विशिष्ट स्थितियों में लगने वाले सूत्र आगे कहे जाएगे।
हरौ इति यह लौकिक विग्रह तथा हरि ङि अधि यह अलौकिक विग्रह है। इस स्थिति में-
९१२ प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्
समासशास्त्रे प्रथमानिर्दिष्टमुपसर्जनसंज्ञं स्यात् ।।
सूत्रार्थ- समास शास्त्र में जो पद प्रथमान्त हो, उसके द्वारा निर्दिष्ट शब्द उपसर्जन संज्ञक होता है।
समास करने वाले सूत्रों में प्रथमा विभक्ति के द्वारा जिस पद का निर्देश किया जाता है, उस पद की अथवा उस पद के द्वारा बोध्य पद की उपसर्जन संज्ञा होती है। जैसे अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यृद्धयर्थाभावात्यया.. में अव्यय की उपसर्जन संज्ञा हुई।
९१३ उपसर्जनं पूर्वम्
समासे उपसर्जनं प्राक्प्रयोज्यम् । इत्यधेः प्राक् प्रयोगः । सुपो लुक् । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात्प्रातिपदिकसंज्ञायां स्वाद्युत्पत्तिः । अव्ययीभावश्चेत्य व्ययत्वात्सुपो लुक् । अधिहरि ।।
सूत्रार्थ- समास में उपसर्जन का पहले प्रयोग होता है।
अधिहरि। यहाँ अधि शब्द सप्तमीविभक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह विभक्ति अर्थ में समास का उदाहरण है। हरौ इति इस लौकिक विग्रह और हरि ङि अधि इस अलौकिक विग्रह होगा परन्तु यह सूत्र अलौकिक विग्रह में ही लगता है। हरि ङि अधि इस अलौकिक विग्रह में अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु से अधि इस अव्यय का विभक्ति आदि अर्थों में समर्थ सुबन्त हरि ङि के साथ समास होता है। इस सूत्र से हरि ङि अधि का समास हुआ। हरि ङि अधि का समास करने के बाद हरि ङि अधि इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा हुई। हरि ङि अधि यह पूरा समुदाय प्रातिपदिक कहलाया। सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से प्रातिपदिक का अवयव स्वरूप ङि प्रत्यय का लुक् हुआ। हरि अधि बना। अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु इस समासविधायक सूत्र में प्रथमान्तपद है - अव्ययम्, इस पद से निर्दिष्ट है- अधि, अतः अधि की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा हो गई। अधि की उपसर्जन संज्ञा होने से उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जनसंज्ञक अधि का हरि के पूर्व में प्रयोग हुआ अधिहरि बना। चुंकि प्रातिपदिकसंज्ञा हरि ङि अधि की की गई थी किन्तु एकदेशविकृतमन्यवत् के बल से विकृति होने (अधि के पूर्व प्रयोग होने पर) भी वह प्रातिपदिक बना रहता है। अतः अधिहरि को कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रतिपदिक संज्ञा हुई। अधिहरि प्रातिपदिक से सु विभक्ति की उत्पत्ति हुई। अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञक होने के कारण अधिहरि की अव्ययसंज्ञा तथा सु विभक्ति का अव्ययादाप्सुपः से लुक् हुआ। अधिहरि रूप सिद्ध हुआ।
यहाँ विस्तार पूर्वक प्रक्रिया बता ही गयी। समास में सभी स्थानों पर इसी प्रकार विग्रह तथा स्वादि कार्य करना चाहिए।
९१४ अव्ययीभावश्च
अयं नपुंसकं स्यात् ।।
सूत्रार्थ - अव्ययीभाव समास से निष्पन्न शब्द नपुंसकलिंग का होता है।
सूत्र में चकार ग्रहण किया गया है, जिसका अर्थ और होता है। इस चकार से ज्ञात होता है यह सूत्र नपुंसलिंग का विधान करता है। अव्ययप्रकरण में पठित अव्ययीभावश्च (1.1.40) सूत्र अव्ययसंज्ञा करता है तथा यह अव्ययीभावश्च (2.4.18) सूत्र नपुंसलिंग का विधान करता है।
९१५ नाऽव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः
अदन्तादव्ययीभावात्सुपो न लुक्, तस्य पञ्चमी विना अमादेशश्च स्यात् ।। गाः पातीति गोपास्तस्मिन्नित्यधिगोपम् ।।
सूत्रार्थ - अदन्त अव्ययीभाव से परे सुप् का लुक् नहीं हो। पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर अन्य विभक्तियों के स्थान पर अम् आदेश हो।
यह सूत्र अव्ययादाप्सुपः से प्राप्त सुप् के लुक् का निषेध और पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर शेष सुप् विभक्ति के स्थान पर अम् आदेश भी करता है । ध्यान देने योग्य यह है कि सुप् के लुक् का निषेध पञ्चमी में भी होता है।
सु आदि प्रत्यय के स्थान में होने वाला अम् आदेश में स्थानिवद्धावेन प्रत्ययत्व आ जायेगा। प्रत्यय ङी उपदेश संज्ञक है अतः हलन्त्यम् से इसके अंतिम हल् मकार की इत्संज्ञा प्राप्त होती है। न विभक्तौ तुस्माः से उसका निषेध हो जाता है।
अधिगोपम्। गाः पातीति गोपाः तस्मिन् गोपि इति, अधिगोपम्। गोपि इति लौकिकविग्रहः, गोपा ङि अधि इति अलौकिकविग्रहः। गोपा ङि अधि यह विभक्ति अर्थ में समास का उदाहरण है। इस प्रयोग में अधि शब्द सप्तमीविभक्त्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। गोपा ङि अधि इस अलौकिक विग्रह में अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु से अधि इस अव्यय शब्द का समर्थ सुबन्त गोपा ङि के साथ समास होता है। गोपा ङि अधि का समास होने से यह पूरा समुदाय समाससंज्ञक हो गया। कृत्तद्धितसमासाश्च से समाससंज्ञक गोपा ङि अधि इस समुदाय की प्रातिपदिकसंज्ञा हो गई, गोपा ङि अधि यह पूरा समुदाय प्रातिपदिक कहलाया। इसलिए इसमें लगा ङि प्रत्यय प्रातिपदिक का अवयव बन गया। ङि का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। गोपा अधि बना। अधि की उपसर्जनसंज्ञा तथा उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जन संज्ञक अधि का पूर्वप्रयोग हुआ अर्थात् अधि शब्द गोपा के बाद में में था, जो पूर्व में आ गया- अधिगोपा बना। अव्ययीभावश्च से नपुंसक, हृस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य से अधिगोपा में स्थित पा के आकार को हृस्व होकर अधिगोप बना। अधिगोप की अव्ययीभावश्च ((1.1.40)) से अव्ययसंज्ञा,प्रातिपदिक संज्ञा, सु आदि, सु का अव्ययादाप्सुपः से लुक् प्राप्त हुआ। नाव्ययीभावादतो. सूत्र से विभक्ति के लुक् का निषेध हुआ। सु के स्थान पर अम् आदेश होकर -अधिगोप + अम् बना। अमि पूर्वः से पूर्वरूप हुआ-अधिगोपम्।
यह सूत्र पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर शेष सभी विभक्तियों को अम् आदेश करता है किन्तु सुप् लुक् का निषेध पञ्चमी में भी होता है अतः पञ्चमी को छोड़कर शेष विभक्तियों में समान रूप अर्थात् अधिगोपम् ही बनेंगे किन्तु पञ्चमी में अधिगोपात्, अधिगोपाभ्याम्, अभिगोपेभ्यः बनेंगे। अन्य विभक्तियो की प्रक्रिया (तृतीया और सप्तमी विभक्ति) आगामी सूत्र तृतीयासप्तम्योर्बहुलम् को देखें। यह विकल्प से अम् आदेश करता है, जिससे अधिगोपेन, अधिगोपाभ्याम्, अधिगोपैः तथा अधिगोपे, अधिगोपयोः अधिगोपेषु ये रूप भी बनते है।
९१६ तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्
अदन्तादव्ययीभावात्तृतीयासप्तम्योर्बहुलमम्भावः स्यात् । अधिगोपम्, अधिगोपेन, अधिगोपे वा । कृष्णस्य समीपम् उपकृष्णम् । मद्राणां समृद्धिः सुमद्रम् । यवनानां व्यृद्धिर्दुर्यवनम् । मक्षिकाणामभावो निर्मिक्षकम् । हिमस्यात्ययोऽतिहिमम् । निद्रा संप्रति न युज्यत इत्यतिनिद्रम् । हरिशब्दस्य प्रकाश इतिहरि । विष्णोः पश्चादनुविष्णु । योग्यतावीप्सापदार्थानतिवृत्तिसादृश्यानि यथार्थाः । रूपस्य योग्यमनुरूपम् । अर्थमर्थं प्रति प्रत्यर्थम् । शक्तिमनतिक्रम्य यथाशक्ति ।।
सूत्रार्थ - अदन्त अव्ययीभाव से परे तृतीया और सप्तमी के स्थान पर बहुलता से अम् आदेश हो।
उपकृष्णम्। कृष्णस्य समीपम् यह लौकिक विग्रह और कृष्ण ङस् उप अलौकिक विग्रह है। समीप अर्थ में विद्यमान उप के साथ कृष्ण ङस् उप का अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु से समास हुआ। समास होने के बाद कृष्ण ङस् उप इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से ङस् विभक्ति का लुक् हुआ। कृष्ण उप बना। प्रथमानिर्दिष्ट उप की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा हो गई तो उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जनसंज्ञक उप का पूर्वप्रयोग हुआ। प्रातिपदिक संज्ञा, सु विभक्ति और अव्ययप्रकरण के अव्ययीभावश्च से अव्यसंज्ञक होने के कारण सु विभक्ति का अव्ययादाप्सुपः से लुक् प्राप्त हुआ। नाव्ययीभावदतो.. से विभक्ति के लुक् का निषेध तथा सु के स्थान पर अम् आदेश होकर उपकृष्ण + अम् बना। अमि पूर्वः से पूर्वरूप हुआ -उपकृष्णम्।
प्रातिपदिक, अव्यसंज्ञक उपकृष्ण से टा विभक्ति आने पर सभी विभक्तियों में एकसमान रूप प्राप्त था परन्तु तृतीयासप्तम्योर्बहुलम् से तृतीया में विकल्प से टा को अम् आदेश होगा। अम् पक्ष में उपकृष्णम् रूप बनेगा विकल्प में (अम् के अभाव में) उपकृष्णेन बना। भ्याम् में उपकृष्णाभ्याम् एवं भिस् में उपकृष्णैः बनेगा। सप्तमी विभक्ति में अम् होकर उपकृष्णम् बनेगा । अभाव पक्ष में तीनों वचनों में उपकृष्णे, उपकृष्णयोः, उपकृष्णेषु बनेगा।
मद्राणां समृद्धिः में मद्र आम् का सु के साथ समास होकर सुमद्रम् बना । इसी प्रकार यवनानां व्यृद्धिः में यवन आम् का व्यृद्धिः अर्थ में 'दुर्' अव्यय के साथ समास होकर दुर्यवनम् । जिसकी समृद्धि चली गयी हो उसे व्यृद्धिः कहते हैं। विगता ऋद्धिव्यृद्धिः।
उपकृष्ण की ही तरह गृहस्य समीपम्-उपगृहम् आदि बनाने का अभ्यास करें।
इसी प्रकार मद्राणां समृद्धिः में समृद्धि अर्थ में सु से समास होकर सुमद्रम् बना।
यवनानां व्यृद्धिर्दुर्यवनम् व्यृद्धि अर्थ में दुर् अव्यय से समास होकर दुर्यवनम् बना ।
मक्षिकाणामभावो निर्मिक्षकम् में अभाव अर्थ में निर् अव्यय से समास होकर निर्मक्षिका को नपुंसकलिंग होने से ह्रस्व होकर निर्मक्षिकम् बना। ।
हिमस्यात्ययोऽतिहिमम् में नाश (अत्यय) अर्थ में अति अव्यय से समास होकर निर्मक्षिकम् बना ।
निद्रा संप्रति न युज्यत इति अतिनिद्रम् में असम्प्रति (अनुचित) अर्थ में अति अव्यय से समास होकर अतिनिद्रम् बना ।
हरिशब्दस्य प्रकाश इतिहरि में शब्द प्रादुर्भाव (प्रकाश) अर्थ में इति अव्यय से समास होकर अतिनिद्रम् बना । यहाँ भी प्रथमा विभक्ति में निद्रा को ह्रस्व हुआ है।
विष्णोः पश्चादनुविष्णु में पश्चात् अर्थ में अनु अव्यय के साथ समास हुआ।
योग्यतावीप्सापदार्थानतिवृत्तिसादृश्यानि यथार्थाः । यथा अव्यय के चार अर्थ होते है- योग्यता, वीप्सा(बार-बार होना) , पदार्थानतिवृत्ति(अतिक्रमण न होना) तथा सादृश्य । इन चारों अर्थों में यथा के साथ समास होता है। रूपस्य योग्यमनुरूपम् । अर्थमर्थं प्रति प्रत्यर्थम् । शक्तिमनतिक्रम्य यथाशक्ति ।। सादृश्य का उदाहरण अव्ययीभावे चाकाले में दिया जा रहा है।
९१७ अव्ययीभावे चाकाले
सहस्य सः स्यादव्ययीभावे न तु काले । हरेः सादृश्यं सहरि । ज्येष्ठस्याऽऽनुपूर्व्येण इति अनुज्येष्ठम् । चक्रेण युगपत् सचक्रम् । सदृशः सख्या ससखि । क्षत्राणां संपत्तिः सक्षत्रम् । तृणमप्यपरित्यज्य सतृणमत्ति । अग्निग्रन्थपर्यन्तमधीते साग्नि ।।
यदि काल का वाचक शब्द उत्तरपद में न हो तो अव्ययीभाव समास में सह के स्थान पर स आदेश होता है।
सहरि। यह यथा के अर्थ में आने वाला सादृश्य का उदाहरण है । हरेः सादृश्यम् यह लौकिक विग्रह तथा हरि + ङस् + सह यह अलौकिक विग्रह है। यथा के सदृश अर्थ में विद्यमान सह के साथ हरि + ङस् का अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु से समास हो गया। समास करने के बाद हरि + ङस् + सह इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च स प्रातिपदिकसंज्ञा हो गई। ङस् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। हरि + सह बना। प्रथमानिर्दिष्ट सह की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा तथा उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जनसंज्ञक सह का पूर्वप्रयोग हुआ। सह + हरि बना। अव्ययीभावे चाकाले से काल का वाचक शब्द उत्तरपद में नहीं होने के कारण सह के स्थान पर स आदेश हुआ- सहरि बना। सहरि की अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञा, एकदेशविकृतमनन्यवत् इस न्याय के बल पर सहरि को प्रातिपादिक मानकर सु विभक्ति, सु का अव्ययादाप्सुपः से लुक् होकर सहरि रूप सिद्ध हुआ ।
अनुज्येष्ठम्। यहाँ आनुपूर्व्य अर्थ में अनु के साथ समास हुआ । ज्येष्ठस्य आनुपूर्व्येण लौकिक विग्रह और ज्येष्ठ + ङस् + अनु अलौकिक विग्रह में आनुपूर्व्य अर्थ में विद्यमान अनु के साथ ज्येष्ठ + ङस् का अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु से समास हुआ। समास करने बाद ज्येष्ठ + ङस् + अनु इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा, ङस् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् होकर ज्येष्ठ + अनु बना। प्रथममानिर्दिष्ट अनु की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा, अनु का पूर्वप्रयोग होकर अनुज्येष्ठ बना। अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञा, एकदेशविकृतमनन्यवत् न्याय के बल पर अनुज्येष्ठ को प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति हुआ। अव्ययादाप्सुपः से प्राप्त सु के लुक् का नाव्ययीभावादतो से निषेध तथा सु के स्थान पर अम् आदेश हुआ। अनु + ज्येष्ठ + अम् बना। ज्येष्ठ + अम् में अमि पूर्वः से पूर्वरूप हुआ- अनुज्येष्ठम् बना।
सचक्रम्। चक्रेण युगपत् लौकिक विग्रह और चक्र + टा + सह इस अलौकिक विग्रह में यौगपद्य (एक साथ एक ही काल में) इस अर्थ में अव्ययं विभक्ति से चक्र + टा + सह में समास हो गया। समास करने के बाद चक्र + टा + सह इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा, टा का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। चक्र + सह बना। उपसर्जनसंज्ञा, सह का पूर्वप्रयोग होकर सह + चक्र बना। अव्ययीभावे चाकाले से सह के स्थान पर पर स आदेश होकर सचक्र बना। सु विभक्ति सु को अम् आदेश होकर सचक्रम् बना।
ससखि। सचक्रम की ही तरह सदृशः सख्या लौकिक विग्रह और सखि + टा + सह अलौकिक विग्रह सादृश्य अर्थ में सखि + टा + सह का अव्ययं विभक्ति से समास हो गया। समास करने के बाद सखि + टा + सह इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से टा का लुक् हुआ। सखि + सह बना। सह की उपसर्जनसंज्ञा तथा पूर्वप्रयोग हुआ। सह + सखि बना। अव्ययीभावे चाकाले से सह के स्थान पर स आदेश होकर ससखि बना। अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञा, एकदेशविकृतमनन्यवत् न्याय के अनुसार ससखि को प्रातिपदिक मानकर सु हुआ, अव्ययादाप्सुपः से सु का लुक् होकर ससखि रूप सिद्ध हुआ।
९१८ नदीभिश्च
नदीभिः सह संख्या समस्यते ।
नदीवाचक सुबन्त शब्दों के साथ संख्या वाचक सुबन्त शब्द का समास होता है और वह अव्ययीभाव समास हो।
(वा.) समाहारे चायमिष्यते । पञ्चगङ्गम् । द्वियमुनम् ।।
समाहारे चायमिष्यते। यह वार्तिक है। यह समास समाहार अर्थ में होता है। इस वार्तिक का चकार अवधारण के लिए है।
पञ्चगङ्म्। पञ्चानां गङ्गानां समाहारः इस लौकिक विग्रह तथा पञ्चन् आम् गङ्गा आम् यह अलौकिक विग्रह में नदीभिश्च से समास हुआ। नदीभिश्च में आकडारादेका संज्ञा का अधिकार है। सूत्र में पठित चकार से संख्या की अनुवृत्ति आती है,जो कि प्रथमान्त है। इसके द्वारा निर्दिष्ट शब्द पञ्चन् आम् की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा हुई। उपसर्जन पञ्चन् का पूर्वनिपात भी होता है। पञ्चन् + आम् + गङ्गा + आम् की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा करके सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से विभक्तियों का लुक् होकर पञ्चन् + गङ्गा बना। स्वादि का उत्पत्ति, नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से पञ्चन् के नकार का लोप हुआ। नपुंसक लिंग होने के कारण गङ्गा के आकार को ह्रस्व हुआ पञ्चगङ्ग + सु हुआ। सु के अम् आदेश, पूर्वरूप होकर पञ्चगङ्गम् बना। इसी प्रकार द्वयोः यमुनयोः समाहारः द्वियमुनम् रूप बनेगा।
९१९ तद्धिताः
आपञ्चमसमाप्तेरधिकारोऽयम् ।।
पाँचवे अध्याय की समाप्ति तक तद्धित का अधिकार है।
यह अधिकार सूत्र के साथ संज्ञासूत्र भी है। पञ्चम अध्याय की समाप्ति पर्यन्त होने वाले प्रत्ययों की तद्धितसंज्ञा होगी। इस सूत्र का मुख्य प्रयोजन तद्धित प्रकरण में है तथापि समास में होने वाले समासान्त प्रत्यय भी तद्धिताः सूत्र के अधिकार में आते हैं। जिसके कारण उनकी तद्धितसंज्ञा होती है।
९२० अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः
शरदादिभ्यष्टच् स्यात्समासान्तोऽव्ययीभावे । शरदः समीपमुपशरदम् । प्रतिविपाशम् ।
अव्ययीभाव में शरत् आदि शब्दों से समासान्त तद्धितसंज्ञक टच् प्रत्यय हो ।
टच् में टकार और चकार इत्संज्ञक है, अकार शेष रहता है। इससे हलन्त शब्द भी अजन्त बन जाता है। शरदादि गण है। इसके अन्तर्गत शरद्, विपाशु, अनस्, मनस्, उपानह्, दिव्, हिमवत्, अनडुह्, दिश्, दृश, विश्, चेतस्, चुतर्, चतुर्, त्यद्, तद्, यद्, कियत् ये शब्द आते हैं।
उपशरदम्। शरदः समीपम् लौकिक विग्रह तथा शरद् + ङस् + उप इस अलौकिक विग्रह में समीप अर्थ में विद्यमान उप का शरद् ङस् के साथ अव्ययं विभक्ति-समीप से समास हो गया। समास करने के बाद शरद् + ङस् + उप इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा, ङस् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। शरद् + उप बना। प्रथमानिर्दिष्ट सह की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जसंज्ञा तथा उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जनसंज्ञक उप का पूर्व प्रयोग हुआ, उप + शरद् बना। अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः से समासान्त टच् प्रत्यय, अनुबन्धलोप होकर उपशरद् + अ बना। वर्णसम्मलेन होकर उपशरद बना। अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञा, एकदेशविकृतमन्यवत् इस न्याय के बल पर उपशरद को प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति आई और उसका अव्ययादाप्सुपः से लुक् प्राप्त हुआ, किन्तु नाव्ययीभावादतो. से विभक्ति का अलुक् हुआ। सु के स्थान पर नपुंसकत्वात् अम् आदेश, पूर्वरूप करने के पश्चात् उपशरदम् बना।
प्रतिविपाशम्। विपाशं विपाशं (विपाशाया अभिमुखम्) प्रति लौकिक विग्रह और विपाश् + अम् + प्रति अलौकिक विग्रह में लक्षणेनाभिप्रती अभिमुख्ये के द्वारा आभिमुख्य (सम्मुख) अर्थ में विद्यमान प्रति इस निपात का अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि से समास हुआ। समास करने के बाद विपाश् + अम् + प्रति इस समुदाय की कृतद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा हो गई। अम् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। विपाश् + प्रति बना। प्रथमानिर्दिष्ट प्रति की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा हुई। उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जनसंज्ञक प्रति का पूर्वप्रयोग हुआ प्रति + विपाश् बना। अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः से समासान्त टच् प्रत्यय, अनुबन्धलोप होकर प्रतिविपाश् + अ बना। वर्णसम्मेलन होकर प्रतिविपाश बना। अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञा, एकदेशविकृतमनन्यवत् इस न्याय के बल पर प्रतिविपाश को प्रतिपदिक मानकर सु विभक्ति, अव्ययादाप्सुपः से सु विभक्ति का लुक् प्राप्त हुआ, किन्तु नाव्ययीभावादतो. से विभक्ति के लुक का निषेध हो गया। सु के स्थान पर अम् आदेश, पूर्वरूप होकर प्रतिविपाशम् रूप सिद्ध हुआ।
(गणसूत्र) जराया जरश्च । उपजरसमित्यादि ।।
अव्ययीभाव समास में जराशब्द से समासान्त टच् के साथ ही जरस् आदेश भी हो। यह गणसूत्र शरत्प्रभृति में पठित है।
उपजरसम्। जरायाः समीपम् लौकिक विग्रह और जरा ङस् उप अलौकिक विग्रह है। अव्ययं विभक्ति से समीप अर्थ में उप अव्यय का का जरा ङस् के साथ समास हुआ । समास होने पर जरा + ङस् + उप इस समुदाय की प्रतिपदिकसंज्ञा, ङस् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। जरा + उप बना। प्रथमानिर्दिष्ट उप की प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से उपसर्जनसंज्ञा तथा उपसर्जनं पूर्वम् से उपसर्जनसंज्ञक उप का पूर्वप्रयोग हुआ उप + जरा बना। अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः से समासान्त टच् प्रत्यय हुआ । टच् का अनुबन्ध लोप होकर उप + जरा + अ हुआ। जराया जरश्च इस गणसूत्र से जरा के स्थान पर जरस् आदेश होकर उपजरस् + अ बना। वर्णसम्मलेन होकर उपजरस बना। अव्ययीभावश्च से उपजरस की अव्ययसंज्ञा, एकदेश. न्याय से उपजरस को प्रातिपदिक मानकर सु विभक्ति, अव्ययादाप्सुपः से लुक् प्राप्त हुआ, किन्तु नाव्ययीभावा. से विभक्ति के लोप का निषेध हो गया।र सु के स्थान पर अम् आदेश तथा पूर्वरूप करने पर उपजरसम् बना।
९२१ अनश्च
अन्नन्तादव्ययीभावाट्टच् स्यात् ।।
यह दो पदों वाला सूत्र है। पञ्चम्यन्त अनः तथा च । इस सूत्र में राजाहः सखिभ्यष्टच् से टच् तथा अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः से विभक्ति विपरिणाम करके अव्ययीभावात् की अनुवृत्ति आती है। अनः पद अव्ययीभावात् का विशेषण हैं। तद्धिताः, समासान्ताः, प्रत्ययः, परश्च, ङयाप्प्रातिपदिकात् का अधिकार है। उस प्रकार सूत्र का अर्थ होगा-
अन् अन्त वाले अव्ययीभाव से समास के अन्त में तद्धितसंज्ञक टच् प्रत्यय हो।
तद्धिताः का अधिकार का प्रयोजन तद्धित परे होने पर नकारान्त शब्द के भसंज्ञक टि का लोप करना है।
उपराजम्। राज्ञः समीपम् लौकिक विग्रह तथा राजन् + ङस् + उप इस अलौकिक विग्रह में समीप अर्थ में विद्यमान उप का राजन् ङस् के साथ अव्ययं विभक्ति-समीप- समृद्धि-व्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासंप्रति- शब्दप्रादुर्भाव- पश्चाद्यथानुपूर्व्य- यौगपद्य-सादृश्य- सम्पत्ति-साकल्यान्तवचनेषु से समास हो गया। समास करने के बाद राजन् + ङस् + उप इस समुदाय की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा , ङस् का सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से लुक् हुआ। राजन् + उप बना। प्रथमानिर्दिष्ट उप की उपसर्जन संज्ञा, उपसर्जनसंज्ञक उप का पूर्वप्रयोग होने पर उप + राजन् बना। अनश्च से समासान्त टच् प्रत्यय, अनुबन्धलोप होकर उपराजन् + अ बना। अ के परे होने पर उपराजन् की यचि भम् से भसंज्ञा हुई तथा उपराजन् के टि अन् का नस्तद्धिते से लोप हुआ। उपराज् + अ बना। वर्णसम्मलेन होकर उपराज बना। अव्ययसंज्ञा, सु विभक्ति आदि कार्य पूर्ववत् कर उपराजम् सिद्ध हुआ।
९२२ नस्तद्धिते
नान्तस्य भस्य टेर्लोपस्तद्धिते । उपराजम् । अध्यात्मम् ।।
नान्त भसंज्ञक टि का लोप हो तद्धित प्रत्यय के परे रहते।
९२३ नपुंसकादन्यतरस्याम्
अन्नन्तं यत् क्लीबं तदन्तादव्ययीभावाट्टज्वा स्यात् । उपचर्मम् । उपचर्म ।।
अन् अन्त वाला जो नपुसंक लिंग, तदन्त अव्ययीभाव से टच् प्रत्यय हो, विकल्प से ।
उपचर्मम् उपचर्म चर्मणः समीपम् इस लौकिक विग्रह तथा चर्मन ङस् उप इस अलौकिक विग्रह में समीप अर्थ में विद्यमान उप का चर्मन् के साथ अव्ययं विभक्ति. से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, ङस् का सुपो धातुप्रातिपदिकयो से लुक् होकर चर्मन् + उप बना। उपसर्जनसंज्ञक उप का पूर्वप्रयोग होने पर उप + चर्मन् बना। चर्मन् नपुंसक है, अतः नपुंसकादन्यतरस्याम् से विकल्प से समासान्त टच् प्रत्यय हुआ, टच् का अनुबन्धलोप होकर उपचर्मन् + अ बना। अ के परे होने पर यचि भम् से उपचर्मन् की भसंज्ञा तथा नस्तद्धिते से उपचर्मन् में विद्यमान टि संज्ञक अन् का लोप होने पर उपचर्म् + अ बना। वर्णसम्मलेन होकर उपचर्म बना। अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञा, सु विभक्ति, उसका अव्ययादाप्सुपः से प्राप्त लुक् का नाव्ययीभावादतः से लुक् का निषेध,सु के स्थान पर अम् आदेश, पूर्वरूप करने पर उपचर्मम् बना। जिस पक्ष में टच् नहीं होगा उस पक्ष में उपचर्मन् से सु के आने के बाद अव्यययादाप्सुपः से सु का लोप तथा न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से नकार का लोप करके उपचर्म बनता है।
९२४ झयः
झयन्तादव्ययीभावाट्टज्वा स्यात् । उपसमिधम् । उपसमित् ।।
झय् प्रत्याहार वाला वर्ण अन्त में हो ऐसे अव्ययीभाव से विकल्प से तद्धितसंज्ञक टच् प्रत्यय होता है।
उपसमिधम्, उपसमित्। समिधः समीपम् लौकिक विग्रह तथा समिध् + ङस् + उप अलौकिक विग्रह में समीप अर्थ में विद्यमान उप का समिध् ङस् का अव्ययं विभक्ति-समीप समृद्धि से समास हुआ। झयः से विकल्प से समासान्त टच् प्रत्यय, अनुबन्धलोप वर्णसम्मलेन पूर्वक उपसमिध बना। सु विभक्ति, सु के स्थान पर अम् आदेश, पूर्वरूप करने पर उपसमिधम् बना। टच् विकल्प पक्ष में उपसमिध् से सु आया। सु का अव्ययादाप्सुपः से लोप, उपसमिध् के धकार को जश्त्व, वाऽवसाने से वैकल्पिक से चर्त्व करने पर उपसमित्, उपसमिद् सिद्ध हुआ ।
पाठ सारांश-
अव्ययीभाव समास में ध्यान रखे कि किस शब्द के साथ किस अर्थ में समास हो रहा है
लौकिक विग्रह तथा अलौकिक विग्रह क्या है?
अदन्त शब्द से सुप् का आदेश नहीं होता है।
तृतीया तथा सप्तमी विभक्ति के स्थान पर अम् आदेश विकल्प से होता है।
इत्यव्ययीभावः ।। २ ।।
साधु: भवतां धन्यवादा: । 🙏
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