मम्मट का काव्य प्रयोजन

 आचार्य मम्मट ने काव्य के ६ प्रयोजनों का उल्लेख किया है । "प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते" । इस कथनानुसार कोई मूर्ख व्यक्ति भी किसी लाभ के बिना अर्थात् प्रयोजन विशेष को लक्ष्य किये बिना किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। कोई मन्दबुद्धि भी छोटे से छोटे कार्य को प्रयोजन के बिना नहीं प्रारम्भ करता है। क्योंकि जब तक कर्ता को (१) विषय (२) प्रयोजन (३) सम्बन्ध (४) अधिकारी का ज्ञान नहीं होता है, तब तक अनुबन्ध चतुष्टय ज्ञान के विना कर्ता की कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती है। इसलिये ग्रन्थकार ने विषय और प्रयोजन को स्पष्ट करने के लिये निम्नलिखित कारिका का अवतरण किया है –

काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।

सद्यः परनिवृत्तये कान्ता सम्मिततयोपदेशयुजे।।

मम्मट ने काव्य के प्रयोजनों का विस्तृत वर्णन करते हुए उपर्युक्त ६ प्रयोजनों का उल्लेख किया है ।

(१) यशसे- प्रथम तो काव्य का प्रयोजन यश लाभ है क्योंकि भारतीय मनीपियों की मान्यता रही है कि यह पञ्चभौतिक नश्वर शरीर तथा अन्य सांसारिक चाकचिक्य सब मिथ्या एवं नश्वर है। केवल यश ही चिरस्थायी है। अतः किमी ने शौर्य से, न्याय से, परोपकार से, देश भक्ति से, लोक कल्याण के लिये सदुपदेशों से एवम् सद्रचना से यश प्राप्त करके यशः शरीर से अमरता को प्राप्त किया है। कालिदास ने रघुवंश के द्वितीय सर्ग में यश का महत्व प्रकटित करते हुये लिखा है -

किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशःशरीरे भव मे दयालुः ।               

एकान्तविधंसिषु मद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु ।। रघु. 2/ 57 ।।

इम तपोभूमि में सहस्रों उदार पुरुष पञ्चभौतिक शरीरादि सुखों की उपेक्षा करके यश प्राप्त करके सदा के लिये अमर हो गये हैं। अतएव मम्मट ने भी काव्य का प्रथम प्रयोजन यशप्राप्ति ही प्रदर्शित किया है । काव्य के निर्माण से यश प्राप्त होता है जैसा कि कालिदास, व्यास, भास, भवभूति, भारवि, माघ आदि महाकवियों ने काव्य-रचना करके विश्व में यश से परम प्रसिद्धि प्राप्त कर यशः शरीर से अमरत्व प्राप्त कर लिया है। सत्साहित्य का सृजन ही यश के लिये होता है। कालिदास सत्साहित्य का सृजन करके कविकुल गुरु के नाम से यश प्राप्त करके आज भी यश: शरीर से जी रहे हैं। उन्होंने स्वयं रघुवंश के प्रारम्भ में काव्य के मुख्य का महत्व निम्नलिखित पद्य से अभिव्यक्त किया है।

मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् ।

प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः ॥ रघु. १-३॥

अतः काव्य का प्रथम प्रयोजन यश प्राप्ति है।

अर्थकृते काव्य रचना का द्वितीय प्रयोजन अर्थार्जन है, क्योंकि इस लोक में अर्थ के अभाव में जीवन कठिन हो जाता है। अतः योगक्षेम के लिये अर्थार्जन अनिवार्य है। अर्थ का अपरिहार्य प्रभुत्व अनुभव करके विद्वानों ने अर्थस्य पुरुषो दासः, सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति इत्यादि सूक्तियों से अर्थ की आवश्यकता स्वीकार की है। यह अर्थ प्राप्ति भी काव्य-रचना से हो सकती है, जैसा कि प्रसिद्ध है कि धावक आदि कवियों ने हर्ष आदि के नाम से रत्नावली नाटिका आदि की रचना करके प्रचुर मात्रा में धन प्राप्त किया था । भोजप्रबन्ध में इस प्रकार के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। अतः काव्य-रचना का द्वितीय प्रयोजन धनराशि प्राप्त करना है।

व्यवहारविदे- काव्य के सम्यक् अध्ययन से लोकव्यवहार का ज्ञान प्राप्त होता है। लोकव्यवहार के ज्ञान के बिना सामाजिक जीवन के कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। अनेक विद्वान् भी व्यवहार ज्ञान के बिना उपहास को प्राप्त हुये हैं। अतः व्यवहार ज्ञान के साहित्य का अध्ययन परमावश्यक है। रामायण तथा महाभारत व्यवहार ज्ञान के लिये साहित्य सागर है। रामायण तो व्यवहार ज्ञान की अलौकिक निधि है। राजा तथा प्रजा को, पति-पत्नी को, भाइयों को, मित्रों को, सेवकों, शत्रुओं को, कैसा व्यवहार करना चाहिये, इनकी शिक्षा एवं उपदेश रामायण के पात्रों से भली-भांति प्राप्त हो रहा है। तथा प्राचीनकाल में कब कैसा व्यवहार किया जाता था, वेशभूषा, खानपान आदि कैसा था, यह सब ज्ञान काव्य के श्रवण, पठन, मनन से ही सफलता पूर्वक जाना जा सकता है। अतः व्यवहार ज्ञान के लिये काव्य का पठन, श्रवण एवं मनन अति आवश्यक है।

शिवेतरक्षतये काव्य रचना अथवा पठन एवं श्रवण अमंगलनाश में भी समर्थ है, यह काव्य का चतुर्थ प्रयोजन माना है। कादम्बरी के रचयिता बाणभट्ट के साले मयूरभट्ट भी कवि थे। दोनों ही धारानगरी में रहते थे तथा प्रतिदिन अपनी-अपनी नूतन रचनायें एक-दूसरे को सुनाते थे। एक दिन बाणभट्ट से उनकी पत्नी किसी कारण से अप्रसन्न हो गई, रातभर बाणभट्ट पत्नी को मनाने का प्रयत्न करते-करते रात बीत जाने पर वे पत्नी से कह रहे थे कि

गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशी शीर्यत इव 

प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णित इव ।

प्रणमान्तो मानस्त्यसि न तथापि क्रुधमहो

इस प्रकार मनाने में व्यस्त बाण तीन पदों की रचना करके पुनः चतुर्थ पद की योजना के लिये आवृत्ति कर रहे थे कि उसी समय प्रातःकाल के भ्रमणार्थ बाणभट्ट को साथ लेने की इच्छा से मयूरभट्ट द्वार पर आ गये। और बाणभट्ट की रचना की आवृत्ति सुनकर रुक गये और जब चतुर्थ पद पूर्ण न होते देखा तो सहसा तीव्र स्वर से चतुर्थ पद की पूर्ति करके सुना दिया कि "कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम्" ।। यह सुनकर बाण की पत्नी ने क्रोध के आवेश में स्वर बिना पहचाने ही कुष्ठी होने का शाप दे दिया। बाण की पत्नी के पतिव्रतत्व के प्रभाव से मयूरभट्ट को कुष्ठ रोग हो गया। जब उनकी पत्नी को ज्ञात हुआ कि मैंने यह क्या किया कि अपने भाई को ही शाप दे दिया तो पुनः कुष्ठनिवारणार्थ सूर्यशतक की रचना का उपदेश दिया, जिससे मयूरभट्ट गंगातट पर जाकर एक वृक्ष पर बैठे गये और एक रस्सी में सौ गाँठ लगाकर तथा लटका कर सूर्यस्तवन की रचना करने लगे। एक श्लोक की रचना करने पर रस्सी की गाँठ काट देते थे। इस प्रकार सौ श्लोक की रचना करने पर उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया। अतः काव्य से अमंगलनाश होता है, यह काव्य का चतुर्थ प्रयोजन है।

सद्यः परनिवृतये - वस्तुतः काव्य के ६ प्रयोजन में सद्यपरनिवृत्ति ही मुख्य एवं श्रेष्ठ प्रयोजन माना जाता है। काव्य के पठन तथा श्रवण एवं दर्शन के द्वारा पाठक, श्रोता, दर्शक, अलौकिक रसास्वादन को प्राप्त करते हैं। परनिवृत्ति अर्थात् पराशान्ति एव अलौकिक आनन्द का अनुभव करने लगते हैं। आनन्दानुभूति काल सांसारिक कष्टों की विस्मृति हो जाती है। यह आनन्दानुभूति ही समस्त काव्य से अथवा आत्मचितन सम्बन्धी दर्शन शास्त्रों के रहस्य को जानने से ही हो सकती है। किन्तु दर्शनशास्त्र आदि का रहस्य ज्ञान तो अति श्रमसाध्य एवं नीरस होने के कारण विरक्त विद्वज्जनों को ही प्राप्त हो सकता है। अतः काव्यानन्द का शर्करामिश्रित दुग्ध के सदृश सरलता से बोध हो सकता है। इसलिये यह अलौकिक आनन्द ब्रह्मानन्द सहोदर की अनुभूति केवल काव्य से ही प्राप्त हो सकती है। इस मुख्य प्रयोजन का समर्थन करते हुए धनन्जय ने अपने भाव को व्यक्त करते हुये कहा है कि यदि कोई रस (आनन्द) को क्षरण करने वाले रूपकों में व्युत्पत्ति का अन्वेषण करता है तो वह मन्दबुद्धि ही कहा जायेगा । अतः मम्मट द्वारा प्रतिपादित सद्यः परनिवृत्ति अर्थात् विगलित बेद्यान्तर स्पर्शशून्य ब्रह्मानन्द सहोदर रस की अनुभूति ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है। अन्य प्रयोजन आनुषंगिक हैं, क्योंकि काव्य द्वारा अलौकिक आनन्दानुभूति के पश्चात् कुछ भी प्राप्य अप्राप्य आदि का ज्ञान नहीं रह जाता है। अतः यह अलौकिक आनन्दानुभूति ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है।

कान्तासम्मिततयोपदेश युजे - काव्य प्रयोजनों के अन्त में अन्तिम प्रयोजन उपदेश माना है। ये उपदेश तीन होते हैं। (१) शब्द प्रधान (२) अर्थ प्रधान (३) रस प्रधान ।

प्रभुसम्मित उपदेश- शब्द प्रधान से तात्पर्य वेदशास्त्रियों के उपदेशों का ग्रहण किया जाना है, अर्थात् वेदादिकों के उपदेश को प्रभुसम्मित उपदेश माना जाता है, क्योंकि यह वेद के उपदेश को अक्षरश: पालन करने का आदेश देता है। वह किसी की विवशता एवं वैयक्तिक दशा को देखकर आदेश नहीं देता है। वेद तो सत्यं वद, धर्मं चर का आदेश देते हैं । जैसे अधिकारी अपने परिचारकों को शुष्कता के साथ आदेश देते हैं कि अमुक पञ्जिका ले आओ तथा अमुक ले जाओ। ठीक इसी प्रकार वेद कर्तव्यपालन का अक्षरशः आदेश देते हैं। अतः वेदादिशास्त्रों के उपदेश को प्रभुसम्मित उपदेश कहते हैं।

सुहृत् संमितोपदेश - पुराणादि मित्रवत् उपदेश देते हुए कहते हैं कि रामादि की तरह व्यवहार करना चाहिये, रावण आदि के समान नहीं। अर्थात् पुराणेतिहास के उपदेश वेदादि की तरह शब्द प्रधान न होकर अर्थप्रधान होते हैं। अतः पुराणादि के उपदेश का अक्षरशः पालन नहीं किया जाता है, अपितु अभिप्राय समझकर अनुसरण किया जाता है। इस पुराण इतिहासादि के उपदेश को सुहृत्सम्मित की कोटी में स्वीकार किया जाता है। मित्र का उपदेश राजाज्ञा आदि के समान अनिवार्य रूप से पालनीय नहीं होता है। स्वेच्छया लोग मित्र के उपदेश का पालन करते हैं। इसी प्रकार पुराणादि के उपदेश को भी लोग पालन करते हैं। अतः पुराणेतिहासादि के उपदेश को मुहृत् सम्मित की कोटी में स्वीकार किया गया है।

कान्तासम्मितोपदेश - प्रभुसम्मित तथा सुहृत्सम्मित उपदेश की अपेक्षा काव्य का उपदेश भिन्न एवं विलक्षण होता है, क्योंकि कान्तासम्मितोपदेश में शब्द की प्रधानता नहीं होती है और न अर्थ की प्रधानता होती है अपितु इस उपदेश में रस की प्रधानता होती है। इस रस प्रधान उपदेश शैली को ही कान्तासम्मितोपदेश कहते हैं। जब कान्ता किसी कार्य में पुरुष को प्रवृत्त या निवृत्ति करना चाहती है तो कान्ता अपनी सामर्थ्य से रसमय वातावरण प्रस्तुत करके ही पुरुष की प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिये प्रेरित करती है। कान्तासम्मितोपदेश में शब्द और अर्थ दोनों गुणीभाव को प्राप्त हो जाते हैं और रस की प्रधानता हो जाती है। इस प्रकार रसप्रधान उपदेश शैली को ही कान्तासम्मितोपदेश के अन्तर्गत मानते हैं। काव्य के रसमय उपदेश से कर्तव्य का ज्ञान सरलता से हो जाता है। इस शैली में वेदादिशास्त्र के समान शब्द की प्रधानता नहीं होती है और पुराणेतिहासादि के समान अर्थ की प्रधानता नहीं होती है। अपितु एक विलक्षण रसप्रधान, सरस उपदेश काव्य से प्राप्त होता है। जिस प्रकार प्रिय पत्नी के द्वारा सरस बातावरण में प्रस्तावित कार्य को पति अस्वीकृत नहीं कर पाता है अपितु उत्साह एवं लगन के साथ कान्ता के प्रस्तावित कार्य को पूर्ण सामर्थ्य से पूर्ण करने का प्रयास करता है। ठीक इसी प्रकार काव्य के रसास्वाद के साथ-साथ कर्त्तव्य एवं समुन्नति के कार्यों में सहर्ष प्रवृत्त होता है। अतः यह सरस उपदेश ही काव्य का अन्तिम कान्तासम्मितोपदेश माना जाता है। इसीलिये कवि को सदा रसमय कान्ता सम्मितोपदेश प्रधान रचना करने का प्रयास करना चाहिये ।

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