नैषधीयचरितम्

 श्रीहर्ष

महाकवि श्रीहर्ष  का परिचय नैषधीयचरित महाकाव्य के अंत में प्राप्त होता है। महाकवि ने यहाँ स्वयं के बारे में पर्याप्त जानकारी दी है। आपके पिता श्रीहीर तथा माता मामल्ल देवी थीं।

श्रीहर्षं कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः

श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् ।।

महाकवि श्रीहर्ष के पिता श्रीहीर स्वयं एक उच्चकोटि के कवि थे। ऐसा सुना जाता है कि आप उदयनाचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये। तत्पश्चात् आपने शरीरत्याग के समय पुत्र को बुलाकर कहा कि तुम ऐसा यत्न करो, जिससे कि मेरा प्रतिद्वन्द्वी तुमसे हार जाय, इससे मुझे आत्मिक तोष की प्राप्ति होगी। अथ महाकवि श्रीहर्ष पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर अपनी माता से चिन्तामणि मन्त्र की दीक्षा लेकर भगवती की आराधना में तल्लीन हो गये। भगवती की आराधना के फलस्वरूप आपको असाधारण विद्वत्ता और प्रतिभा की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् आपने राजा विजयचन्द्र के दरबार में अपने पिता के प्रतिद्वन्द्वी को देखकर यह श्लोक पढ़ा-

साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले

तर्क वा मयि संविधातरि समं लीलायते भारती ।

शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्करैरास्तृता

भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् ।।

अर्थात् चाहे सुकुमार वस्तु वाली साहित्य की रचना हो, चाहे दृढन्याय की ग्रन्थियों से युक्त तर्कशास्त्र की रचना हो, मेरे रचयिता होने पर सरस्वती एक समान ही क्रीडा किया करती है। यदि मनोऽभिलपित पति हो तो चाहे कोमल बिछावन युक्त शय्या हो अथवा दर्भाङ्कुरों से आवृत्त भूमि, स्त्रियों के लिए दोनों समान आनन्ददायिनी होती हैं।

इस श्लोक को सुनकर प्रतिद्वन्द्वी ने श्रीहर्ष की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए अपनी हार मान ली तथा इस श्लोक में श्रीहर्ष की प्रशंसा की-

हिंस्राः सन्ति सहस्रोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धता-

स्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् ।

केलिः कोलकुलैर्मदो मदकलैः कोलाहलं नाहलैः

संहर्षो महिषैश्च यस्य मुमुचे साहङ्कृते हुङ्कृते ।।

अर्थात् वन में बहुत से शक्तिशाली पशु होते हैं, किन्तु केवल सिंह के शीर्य की प्रशंसा की जाती है, जिसकी गर्जना सुनकर अन्य भयभीत पशु अपने आनन्द का परित्याग कर देते हैं। अपने प्रतिद्वन्दी के मुख से यह श्लोक सुनकर श्रीहर्ष अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। इसके बाद राजा की गुणप्रियता से हर्षित श्रीहर्ष ने राजा की स्तुति करते हुए यह श्लोक पढ़ा-

गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च

माऽस्मिन्नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः ।

अस्त्रीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री-

रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्री ।।

अर्थात् हे नारियों । गोविन्द का पुत्र होने तथा शरीरसौन्दर्य के कारण इस राजा को कामदेव मत समझो। क्योंकि कामदेव तो संसार के विजय के लिए स्त्रियों को अस्त्र बनाता है पर यह शस्त्रधारी पुरुषों को स्त्री (के समान असहाय) बना देता है। इसके पश्चात् गुणग्राही राजा ने 'श्रीहीर' विजयी पण्डितकृत श्रीहर्ष की स्तुति की प्रशंसा की।

महाकवि श्रीहर्ष कान्यकुब्जनरेश जयवन्द की सभा में विद्यमान थे तथा उनसे समस्त विद्वान् श्रेष्ठतासूचक दो बीड़ा पान तथा आसन पाते थे। जो समाधियों में परमानन्दसागर ब्रह्म का साक्षात्कार भी करते थे। उनका काव्य अतिशय सरस होने से अमृत की वर्षा करने वाला है और तर्कविषयक जिसकी उक्तियाँ प्रतिवादियों को पराजित करने वाली हैं। इसका वर्णन महाकवि ने स्वयं किया है जो कि अक्षरशः सत्य है-

ताम्बूलद्वयमासनञ्च लभते यः कान्यकुब्जेश्वराद्

यः साक्षात्कुरुते समाधिषु परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् ।

यत्काव्यं मधुवर्षि धर्षितपरास्तर्केषु यस्योक्तयः

श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् ।।

जयचन्द के वंशवाले राजपूत गहड़वाल कहलाते थे। ग्यारहवीं तथा बारहवी सदी में इस वंश का उत्तरी भारत में बड़ा नाम था। ये लोग कन्नौज के राजा कहलाते थे, परन्तु पीछे चलकर इन्होंने काशी को अपनी राजधानी बनाया। जयचन्द काशी से ही अपने विस्तृत साम्राज्य पर शासन करते थे। इनके पिता विजयचन्द ने तथा इन्होंने मिलकर १९५६ ईस्वी से लेकर ११६३ ईस्वी तक राज्य किया था। अतएव महाकवि का आविर्भाव काल विजयचन्द और जयचन्द के सभापण्डित होने के कारण द्वादश शताब्दी का उत्तरार्ध ठहरता है।

महाकवि श्रीहर्ष की रचनाओं का उल्लेख नैषधीयचरित महाकाव्य में मिलता है। इनके द्वारा रचित विजयप्रशस्ति ग्रन्थ में जयचन्द के पिता विजयचन्द की प्रशंसात्मक प्रशस्ति लिखी गई जान पड़ती है जो कि महाकवि के आश्रयदाता तथा प्रसिद्ध योद्धा एवं विजयी वीर थे।

नैषधीयचरितम्

 नैषधीयचरित महाकाव्य में २२ सर्ग हैं। महाकवि श्रीहर्ष ने महाभारत की नल-दमयन्ती की कथा को आधार बनाकर इस महाकाव्य की रचना की। नलदमयन्ती की कथा महाभारत के वनपर्व में वर्णित है। इसमें नल के गुणों का सविस्तर वर्णन है। इसके पश्चात् दमयन्ती के पूर्वानुराग की विशद चर्चा है। अनन्तर राजा नल के दमयन्तीविषयकानुराग के कारण वनविहार के लिए प्रस्थान, तत्पश्चात् तालाब के किनारे हंस का देखना तथा उसे पकड़ लेना, फिर हंस का मनुष्य की वाणी में विलाप सुनकर उसे छोड़ देना, पुनः हंस का दमयन्ती का वर्णन करना, पुनः हंस को दमयन्ती के पास भेजना आदि वर्णित है। अनन्तर हंस दमयन्ती के समक्ष उपस्थित हो नल के गुणगण का वर्णन करता है। दमयन्ती के पिता भीम के द्वारा स्वयंवर का आयोजन, तत्पश्चात् नारदजी का स्वर्गलोक में प्रस्थान, इन्द्र के साथ वार्तालाप आदि का वर्णन है। तदनन्तर इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम चारों देव स्वयंवरार्थ प्रस्थान करते हैं। मार्ग में ही नल के अलौकिक सौन्दर्य को देखकर इन्द्र वाणी की चतुरता का प्रयोग करते हैं। फिर तिरस्करिणी विद्या देकर नल को दूत बनाकर दमयन्ती के पास भेजते हैं। नल देवों की खूब प्रशंसा करते हैं किन्तु दमयन्ती नलविषयकानुराग से तनिक भी विचलित नहीं होती है। फिर स्वयंवर का आयोजन होता है। स्वयंवर में चारों देव नलरूप धारण कर उपस्थित होते हैं। सरस्वती स्वयं आकर सभी राजाओं का परिचय देती हैं। पाँच पुरुषों को नल की आकृति में देखकर दमयन्ती घबरा जाती है। फिर उसकी पतिभक्ति से सन्तुष्ट देवगण विशिष्ट चिह्नों को प्रकट करते हैं। तदनन्तर दमयन्ती के साथ नल का विवाह होता है। जब देवतागण स्वर्ग को लौटते हैं तब कलि के साथ घनघोर बाग्युद्ध छिड़ जाता है। देवता कलि को हराकर नास्तिकवाद का मुंहतोड़ जवाब देते है। कलि नल के ऊपर कुपित हो उनको पीड़ित करने हेतु दृदप्रतिज्ञ होकर कही उत स्थान न पाकर उनके उद्यान में ही अवसर की प्रतीक्षा में निरत होता है। ल के मिलन-रात्रि के मनोहर वर्णन के साथ ही ग्रन्थ की समाप्ति हो जाती है। महाकवि श्रीहर्ष ने अपने महाकाव्य को सरस बनाने हेतु महाभारत की कथा में यथास्थान किञ्चित् परिवर्तन तथा परिवर्धन किया है।

महाभारत में नल ने हंस को एक उद्यान में देखा जबकि नैषधीयचरित के अनुसार नल उद्यानमध्यस्थित तड़ाग में हंस को देखते हैं। महाभारत के अनुसार नल ने हंस को तब छोड़ा जब उसने उसका प्रिय करने के लिए दमयन्ती के पास जाने का वचन दिया-

ततोऽन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार तदानलम् ।

न हन्तव्यो ऽस्मि ते राजन् ! करिष्यामि हि ते प्रियम् ।।

जबकि नैषध में नल ने उसके करुण विलाप से द्रवित होकर बिना किसी शर्त के छोड़ दिया। महाभारत के अनुसार देवों के दौत्यकार्य को अपना कर्तव्य समझकर राजा नल देवों के भय से सम्पन्न करता है, वहाँ वह अपना परिचय देने अथवा अनुराग प्रकट करने में पीछे नहीं हटता। जबकि नैपथ में नल दमयन्ती से अपने आपको छियाये रखते हुए देवताओं का दूतकार्य बड़ी निष्ठा से करता है। महाभारत के अनुसार अनेक हँस कुण्डिनपुर जाकर दमयन्ती तथा उसकी सखियों के पास उतरते हैं, जिनका वे पीछा करती हैं किन्तु नैषधीयचरित में केवल एक ही हंस यह कार्य करता है। महाभारत का हंस एक साधारण पक्षी है जबकि नैपथ में हंस कवि की एक विशिष्ट रचना है। वह शिष्ट एवं सुसंस्कृत मानव के रूप में प्रतीत होता है। महाभारत के अनुसार कति का प्रवेश नल-दमयन्ती के परिणय के बहुत बाद होता है किन्तु नैषध में उनके विवाह के तुरन्त बाद कलि निषधनगरी में प्रवेश करता है।

महाभारत के अनुसार दमयन्ती की प्रणयावस्था का समाचार सखियों द्वारा विदर्भराज को ज्ञात होता है, जबकि नैषध में अन्तःपुर में दमयन्ती की सखियों का कोलाहल सुनकर राजा भीम स्वयं अन्तःपुर में प्रविष्ट होकर उसकी दशा को ज्ञात करते हैं। महाभारत में चारों देवों ने दो-दो वरदान दिये, जिसकी संख्या आठ हो गई। जबकि नैषध में केवल इन्द्र चार वर देता है, एक दमयन्ती को तथा तीन नल को।

निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः

कथां तथाऽऽद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि ।

नलः सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः

स राशीरासीन्महसां महोज्ज्वलः ।।१।।

अन्वयः- यस्य क्षितिरक्षिणः कथां निपीय बुधाः सुधाम् अपि तथा न आद्रियन्ते । सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः महसां राशिः महोज्ज्वलः सः नलः आसीत् ।

पदार्थः- यस्य=जिस। क्षितिरक्षिणः = पृथ्वीपालक नल की । कथाम् = कथा को । निपीय=भली-भाँति पान करके, भली-भाँति आस्वादन कर। बुधाः = विद्वान् लोग। सुधाम्=अमृत को । अपि=भी । तथा= वैसा । न आद्रियन्ते = आदर नहीं देते हैं। सित- च्छत्रितकीर्तिमण्डलः=(अपने ) यशःसमूह को शुभ्र छत्र बनाने वाले। महसाम् = तेजों के। । राशि: = T:= समूहस्वरूप अर्थात् महातेजस्वी सूर्य के समान । महोज्ज्वलः=नित्य उत्सव वाले। सः=वे। नलः=नल (नामक राजा ) । आसीत् = हुए ।

संस्कृतव्याख्या- यस्य=प्रकृतस्य । क्षितिरक्षिणः=पृथ्वीपालस्य नलस्य । कथाम्= उपाख्यानम् । निपीय= नितरामास्वाद्य, सादरं श्रुत्वेत्यर्थः । बुधाः=धीमन्तः । सुधाम्=अमृतम् अपि। तथा=तेन प्रकारेण न आद्रियन्ते=न आदरं कुर्वन्ति, भूपतेः नलस्य कथां सुधामपेक्ष्य बहु मन्यन्ते सुमतयो देवाः वेति भावः । सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः=श्वेतात. पत्रीकृतयशोमण्डलः। महसाम् = तेजसाम् । राशिः = समूहः, रविरिवेति भावः । महोज्ज्वलः- महैः=उत्सवैः, उज्ज्वलः= दीप्यमानः, नित्यमहोत्सवशालीत्यर्थः । सः = निषधदेशाधिपतिः । नलः=नलः नाम। आसीत् = बभूव ।

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