काव्य के अङ्गरूप शब्द और अर्थ को अलंकृत करने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं। काव्य का शरीर शब्द और अर्थ माना गया है। अतः अर्थ और शब्द दोनों को अलंकृत करने वाले को (१) शब्दालंकार तथा (२) अर्थालंकार कहा गया है। इस तरह अलंकार के प्रमुख दो भेद होते हैं। (१) शब्दालंकार (२) अर्थालंकार ।
इनमें से
शब्दपरिवृत्ति असह को शब्दालंकार और शब्दपरिवृत्ति सह को अर्थालंकार कहा जाता हैं
। आइये अब शब्दपरिवृत्ति असह तथा शब्दपरिवृत्ति सह को अर्थालंकार समझते हैं। जिस
रचना में किसी शब्द के स्थान पर उसी शब्द का पर्यायवाची शब्द रखने पर अलंकारत्व
समाप्त हो जाये उसे शब्द परिवृत्ति असह कहा जाता है, क्योंकि यहाँ शब्द परिवृत्ति सहन नहीं होता है। वहाँ का अलंकार समाप्त हो
जाता है। शब्द परिवृत्ति असह के कारण शब्दालंकार माना जाता है । ठीक इसके विपरीत जहाँ जिस रचना में शब्द
परिवर्तन करके उसके पर्यायवाची शब्द को रखने पर भी अलंकारत्व समाप्त न हो, वहाँ शब्दपरिवृत्ति को सहन करने के कारण अर्थालंकार कहते हैं । अतः
शब्दापरिवृत्ति असह और शब्दपरिवृत्ति के सह के आधार से अलंकार के दो भेद हो जाते
हैं ।
इन दोनों प्रकार के अलंकारों में श्लेष का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। श्लेष का चमत्कार सभी सहृदयों को आनन्दित करने में सदा समर्थ रहता है। अतः अभी लक्षणकारों ने श्लेष का निरूपण किया है। आचार्य मम्मट के अनुसार-
वाच्यभेदेन भिन्ना यद् युगपत् भाषणस्पृशः ।
श्लिष्यन्ति शब्दाः श्लेषोऽसावक्षरादिभिरष्टधा॥
सामान्य रूप से 'सकृत्प्रयुक्तः शब्दः सकृदेव अर्थं गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार प्रयोग किया हुआ शब्द एक बार के ही अर्थ का बोध करता है। अर्थात् एक शब्द एक ही अर्थ का बोध करा सकता है। अनेक अर्थों का नहीं। अतः 'प्रत्यक्षशब्दाभिद्यन्ते' इसके अनुसार प्रत्येक अर्थ के लिये पृथक्-पृथक् शब्द को प्रयुक्त करना चाहिये । परन्तु कहीं पर दो भिन्न-मिन्न अर्थों का बोध करने वाले शब्द मिलकर समानाकार अर्थात् एकाएक हो जाते हैं। ऐसी दशा में उन समानाकार दो शब्द का दो बार उच्चारण नहीं किया जाता है। अतः एक ही शब्द की प्रतीति होती है। परन्तु जतुकाष्ठन्याय से दो दोनों भिन्न भिन्न अर्थों के बोधक शब्द मिलकर एकाएक हो जाते हैं। जैसे लाख और लकड़ी पृथक् पृथक् दो वस्तुयें हैं। तथापि कभी कभी दोनों चिपककर एकाकार होने के कारण दो की प्रतीति नहीं होती है। इसी प्रकार दो समानाकार शब्द एक बार उच्चारण किये जाने के कारण जहाँ एक शब्द के रूप प्रतीत होते हैं वहाँ शब्दों का श्लेष (चिपकाव) होने के कारण श्लेष नामक शब्दालंकार होता है। इस शब्दश्लेष अलंकार के आठ भेद होते हैं -
(१) वर्ण श्लेष (२) पद श्लेष (३) लिंग श्लेष (५) प्रकृति श्लेष (४) भाषा श्लेष (६) प्रत्यय श्लेष (७) विभक्ति श्लेष (८) वचन श्लेष।
इन आठों भेदों के अतिरिक्त मम्मट ने शब्द श्लेष का नवां भेद मानते हैं। उन्होंने "भेदाभावात्प्रकृत्यादेर्भेदोऽपि नवमो भवेत्" कहा है। उपर्युक्त आठ भेदों में प्रकृति, प्रत्यय आदि का भेद होने से इन आठ भेदों को सभंगश्लेष के नाम से भी पुकारते हैं। इसके अतिरिक्त जहां प्रकृति, प्रत्ययादि के भेद के बिना भी स्वरभेद से तथा स्वरभेद आदि के बिना भी श्लेष होता है, तो वहाँ उसे अभंगश्लेष के नाम से पुकारते हैं। मम्मटाचार्य ने अभंगश्लेष को श्लेष का नवां भेद माना है। रुय्यक ने सभंगश्लेष को शब्दालंकार के नाम से अभिहित किया है, क्योंकि सभंगश्लेष का विषय शब्द है। सभंगश्लेष में भिन्न-भिन्न अर्थ वाले अनेक शब्द जतुकाष्ठन्याय से मिलकर एकाकार हो जाते हैं तथा अभंगश्लेष को अर्थश्लेष माना है, क्योकि अर्थश्लेष अलंकार, अर्थश्लेष का विषय होता है। अर्थश्लेष में स्वर आदि की अभिन्नता से एक शब्द में दो अर्थों का श्लेष होता है। इसीलिये अभंगश्लेष को अर्थश्लेष माना है। मम्मट ने शब्दालंकार और अर्थालंकार का भेदक अन्य व्यतिरेक को माना है "तत्सत्वे तत्सत्वमनन्वयः तदभावे व्यतिरेकः" इसका आशय यह है कि जहां जिस किसी शब्द विशेष कारण गुण तथा अलंकार का अस्तित्व स्पष्ट हो रहा है। इसके अतिरिक्त उस शब्द विशेष को हटाकर उसके स्थान पर समानार्थक पर्यायवाची शब्द के रखने पर गुण और अलंकारादि का अस्तित्व न रह जाय, तो वहाँ शब्दगुण और शब्द अलंकार होता है तथा जहाँ शब्द विशेष को हटाकर अन्य समानार्थक पर्यायवाची शब्द रखने पर भी अर्थ की विशेषता की प्रतीति हो रही हो, तो वहां अर्थगुण और अर्थालंकार होता है इस प्रकार मम्मट ने जहाँ शब्द के परिवर्तन कर देने से श्लेष की उपस्थिति नहीं रह जाती है, तो वहाँ अभंगश्लेष अथवा शब्दालंकार होता है। मम्मट के मतानुसार शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष के क्रमशः उदाहरण देखिये।
शब्दश्लेष
पृथुकार्त्तस्वरपात्रं
भूषितनिःशेषपरिजनं देव ! ।
विलसत्करेणुगहनं
सम्प्रति सममावयोः सदनम् ।।
(काव्यप्रकाश नवम उल्लास)
प्रस्तुत उदाहरण में कोई याचक दरिद्र राजा से कह रहा है कि हे राजन् ! इस समय हम दोनों का (मेरा तथा आपका) घर एक समान है, क्योंकि आपका भवन पृथुकार्तस्वरपात्रम् अर्थात् स्वर्ण के बड़े-बड़े पात्रों से (सुशोभित) युक्त है और मेरा घर (पृथुकार्तस्वर) पात्रम् अर्थात् शिशुओं के आर्तन स्वर (दुखित रोने के स्वर) का स्थान है। भूषित निःशेष परिजन अर्थात् आपके परिवार के सभी सदस्य भूषित अलंकृत (आभूषणों से सुसज्जित) हैं तथा मेरे परिवार के समस्त सदस्य भूषित अर्थात् भूमि पर पड़े हुए हैं। विसलत्करेणुगहनम्-आपका भवन हथनियों की भीड़ से सुशोभित है और मेरा घर बिलों में रहने वाले चूहों के द्वारा खोदी हुई मिट्टी से पूर्ण है। अतः इस प्रकार आपके भवन की मेरे घर की समानता स्पष्ट सिद्ध है। यदि यहाँ पृथुक्, तथा भूषित, विलसत्क, शब्दों को हटाकर अन्य समानार्थक पर्यायवाची शब्द रख दिये जायें, तो श्लेष समाप्त हो जायेगा। शब्द परिवृत्ति असह होने के कारण यह शब्दश्लेष अलंकार का उदाहरण माना जाता है।
अर्थश्लेष-
स्तो केनोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम् ।
अहो सुसदृशी वृत्तिस्तुलाकोटे: खलस्य च ॥
(काव्यप्रकाश नवम उल्लास)
प्रस्तुत उदाहरण में तराजू और दुष्ट के स्वभाव की समानता का वर्णन किया है कि थोड़ा वस्तु रखने से तराजू का पलड़ा नीचे को और वस्तु निकाल लेने पर पलड़ा ऊपर को उठ जाता है। उसी प्रकार दुष्ट का स्वभाव होता है कि थोड़े लाभ से प्रसन्नादि और साधारण वस्तु के न मिलने पर क्रुद्ध आदि हो जाता है। यदि यहां स्तोक शब्द को हटाकर अल्पक शब्द को रख दिया जाय तो भी श्लेष समाप्त नहीं होता है। इसी विशेषता के कारण इसे अर्थश्लेष माना है। अलंकार सर्वस्वकार रुय्यक का मत है कि श्लेष अलंकारों की सत्ता स्वतन्त्र कोई सत्ता नहीं होती है अर्थात् श्लेष अलंकार अन्य अलंकारों के बिना नहीं रह सकता है। अतः श्लेष का अस्तित्व अन्य अलंकारों के होने पर ही मानना चाहिए। इसे अनन्य परतन्त्राम् कहते हैं। ब्रह्मा की सृष्टि समवायि, असमवायि एवं निमित्त कारण आदि के अधीन होने के कारण परतन्त्र है। जबकि कवि की रचना किसी अर्थात् अन्य अलंकार होने पर ही श्लेष की प्रधानता होती है। परन्तु आचार्य मम्मट को रुय्यक का यह मत मान्य नहीं है। उनका कथन है कि अन्य अलंकारों के बिना भी श्लेष की स्वतन्त्र सत्ता होती है जैसे-
देव ! त्वमेव पातालमाशानां त्वं निबन्धनम् ।
त्वं चामरमरुद्भूमिरेको लोकत्रयात्मकः ।।
हे विष्णु देव ! आप ही पाताल लोक के और दूसरे अर्थ में पाता अलं संसार के सदा रक्षक हैं। आप ही आशाओं के आधार दूसरे अर्थ में आशा = दिशाओं के व्यापार के आधार हैं अर्थात् आप ही भूलोक हैं। आप ही देवताओं और मरुद्गणों के निवास स्थान स्वर्ग लोक हैं। दूसरे अर्थ में राजचिह्न रूप चॅवर के डुलाने से उत्पन्न मरुत् (वायु) का भोग करने वाले आप ही हैं। इस प्रकार आप अकेले ही तीनों लोक स्वरूप हैं। इस उदाहरण में उपमा आदि कोई अन्य अलंकार नहीं है। अतः यह स्वतन्त्र श्लेष उदाहरण है। इससे स्पष्ट है कि रुय्यक का यह मत कि अन्य अलंकारों के होने पर ही श्लेष होता है सर्वथा अनुपयुक्त एवं युक्तिरहित है। अतः मम्मट के मतानुसार अन्य अलंकारों के बिना भी श्लेष की स्वतन्त्र सत्ता है तथा अन्य उपमा आदि अलंकारों के साथ श्लेष के होने पर भी उपमा आदि अलंकारों की सत्ता प्रधानरूप से होती है। इससे निश्चित होता है कि रुय्यक का सिद्धान्त मान्य एवं समीचीन नहीं है। इससे श्लेष अलंकार की सत्ता स्वयं सिद्ध है। यही कारण है कि माघ, बाण, हर्ष आदि महाकवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं में श्लेष का पर्याप्त प्रयोग किया है।
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