काव्य में गुण और अलंकारः अन्तर तथा स्थान

 साहित्य में अलंकारों का एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है । अग्निपुराण के अनुसार अलंकार रहित कवि की वाणी उसी प्रकार सुशोभित नहीं होती है, जैसे विधवा स्त्री समाज में सुशोभित नहीं होती है। इसके अतिरिक्त ध्वनिवादी आचार्यों ने भी अलकारों के महत्व का अनुभव करके अलंकार ध्वनि को स्वीकार करके अलंकारों की महत्ता को व्यक्त किया है। इस प्रकार काव्य में अलंकारों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह सभी अलंकारिक स्वीकार करते हैं, परन्तु प्राचीन आचार्यों ने अलंकारों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रदर्शित किया है ।

उद्भट का मत- आचार्य उद्भट गुण और अलंकारों में भेद नहीं मानते है अर्थात् उद्भट के मतानुसार लौकिक गुण (शूरता, उदारता, दयालुता आदि) अलंकार (हार, अंगूठी आदि में तो भेद होता है) क्योंकि शूरता आदि गुणों का आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध होता है और हार आभूषणों का शरीर के साथ संयोग सम्बन्ध होता है, परन्तु काव्य के गुण (ओज, प्रसाद, माधुर्य) और अलंकार (शब्दालंकार, अर्थालंकार, उभयालंकार) आदि काव्य में ये दोनों (गुण और अलंकार) समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अतः काव्य में गुण (ओज प्रसादादि) अलंकारों (अनुप्रास उपमा आदि) में भेद नहीं किया जा सकता है तथा जो लोग गुण और अलंकारों में भेद स्वीकार करते हैं उन्हें इस पंक्तियों को देखना चाहिए। रामवायवृत्या शौर्यादयः संयोगवृत्या तु हारादयः इत्यस्तु गुणालंकाराणां भेदः, ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि । समवायवृत्या स्थितिरिति गड्ढलिका प्रवाहेणवैषां भेदः ।

वामन का मत- उद्भट के बाद वामनाचार्य ने गुण और अलंकारों का भेद स्वीकार करते हुए लिखा है काव्यशोभायाः कर्तारोधर्मा: गुणा: तदतिशय हेतवस्त्वलंकाराः ।" इसका भाव यह है कि काव्य की शोभा करने वाले धर्मों को गुण और काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं । इस प्रकार वामन के मत से काव्य की शोभा कारक गुण और काव्य की शोभावर्द्धक अलंकार होते हैं। अतः ओज, प्रसाद आदि गुण, काव्य में शोभा को उत्पन्न करने वाले नहीं होते हैं, परन्तु अलंकार (अनुप्रासोपमादि) काव्य में शोभा उत्पन्न करने वाले नहीं होते हैं। अतः अलंकारों को गुण नहीं कह सकते हैं। अलंकार तो काव्य की शोभा बढ़ाने वाले होते हैं जैसे-सुन्दर शोभायुक्त रमणी के अंगों की शोभा वृद्धि तभी आभूषण कर सकते हैं जब रमणी में सौन्दर्यादिगुण पहले से विद्यमान होते हैं। उसी प्रकार काव्य में शोभोत्पादक गुणों के (ओज, प्रसाद आदि के) विद्यमान होने पर ही अनुप्रासादि अलंकार शोभावृद्धि करने में समर्थ हो सकते हैं । अतः वाक्य के गुण काव्य के स्वरूपाधायक होते हैं और अलंकार उत्कर्षाधायक होते हैं तथा गुण काव्य के लिये अनिवार्य होते हैं और अलंकार अनिवार्य नहीं होते हैं, क्योंकि अलंकारों के विना काव्य में काव्यत्व विद्यमान रहता है। ठीक इसके विपरीत ओज प्रसादादि गुणों के अभाव में काव्य में काव्यत्व नहीं रहता है। इससे स्पष्ट है कि काव्य गुण अनिवार्य होते है और अलंकार अनिवार्य नहीं होते हैं ।

आनन्दवर्द्धन का मत - वामन के बाद आनन्दवर्द्धन ने गुण और अलंकारा में भेद प्रतिपादित करते हुए लिखा है-

तमर्थमवलम्बते येऽङ्गितं ते गुणाः स्मृताः ॥

अंगाश्रितास्त्वलंकारा: मन्तव्याः कटकादिवत् ॥

इसका तात्पर्य यह है कि काव्य के आत्मतत्व रसभावादि के आश्रित रहने वाले धर्म को गुण कहते हैं और काव्य के शरीररूप शब्द और अर्थ के आश्रित रहने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं अर्थात् गुण, काव्य को आत्मा स्वभाव आदि के आश्रित होते है और अलंकार काव्य के शरीर शब्द और अर्थ दोनों के आश्रित रहने वाले अलंकार होते हैं। मम्मट का मत - आचार्य मम्मट ने वामन और आनन्दवर्द्धन के मतों का साररूप ग्रहण करके गुण और अलंकारों का भेद स्पष्ट करते हुए गुण और अलंकार का स्वरूप निर्धारित किया है। अतः वामन के मत से काव्य में गुणों की अनिवार्यता और आनन्दवन के मत से काव्य की आत्मा रस-भाव आदि की रसघर्मता को ग्रहण करके गुण और अलंकार का स्वरूप करते हुए लिखा है कि

ये रहस्याङ्गिनो धर्माः शोर्यादय इवात्मनः ।

उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥

अर्थात् जैसे शूरता, उदारता आदि गुण आत्मा के धर्म होते हैं, उसी प्रकार जो काव्य की आत्मा रस के धर्म होते हैं और काव्य के उत्कर्ष के हेतु होते हैं तथा जो काव्य की आत्मा "रस" में अचल स्थिति से रहते हैं, उन्हें गुण कहते हैं।

इसके अतिरिक्त जो काव्य में रहने वाले काव्य के शरीर रूप शब्द और अर्थ के कभी-कभी उत्कर्ष के हेतु होते है जैसे हार कटक, कुण्डलादि आभूषण पञ्चभूत शरीर का कभी-कभी उत्कर्षण करते हैं, उन्हें काव्य में (अनुप्रासादि को) अलंकार कहते हैं। इसी भाव को प्रकट करने के लिये सम्मट ने लिखा है

उपकुर्वन्ति ते सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।

हारादिवदलंकारान् तेऽनुप्रासोपमादयः ।।

इस प्रकार अलङ्कार (अनुप्रागोपमादि) काव्य के शरीररूप शब्द और अर्थ की शोभावृद्धि करते हैं तथा कभी-कभी रस के उपकारक होते हैं और कभी-कभी नहीं भी होते हैं।

मम्पट के मतानुसार गुण और अलंकारों का अन्तर निम्न प्रकार समझना चाहिये ।

गुण

(१) गुण काव्य की आत्मा स के स्थिर धर्म होते हैं।

(२) गुण काव्य के आत्मत्व रस के साथ नित्य रहते है।

(३) गुण काव्य की आत्मा रस के साथ रहकर रस के साक्षात् उपकारक होते हैं।

अलंकार

 (१) अलंकार काव्य के शरीर शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म होते हैं।

(२) अलंकार काव्य की आत्मा रस के साथ नित्य नहीं रहते हैं अपितु अलंकार रसहीन काव्य में भी रहते हैं।

(३) अलंकार रस के साथ रह कर भी कभी शब्द और अर्थ के द्वारा रस के उपकारक होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं।

वस्तुतः काव्य का मूल चमत्कार है अर्थात् कवि का वही काव्य सफल माना जाता है जिसे पढ़ने तथा सुनने से सहृदय का हृदय चमत्कार से तरंगित हो उठे। आनन्दवर्द्धन से पूर्ववर्ती आचार्यों ने काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले रस, गुण, अलंकार इन तीन को माना है। आनन्दवर्द्धन ने भी ध्वनि के इन तीन भेद (रस, अलंकार, वस्तुध्वनि) मानकर अलंकार का महत्व स्वीकार किया है। अग्निपुराण में अलंकार रहित कवि की वाणी की उपमा विधवा स्त्री से देकर काव्य में अलंकार की अनिवार्यता स्वीकार की है। उद्भट ने गुण और अलंकारों में भेद ही नहीं माना है। मम्मट भी काव्य में अलंकार की महत्ता को स्वीकार करते हुए अपने काव्य लक्षण में "अनलंकृतीपुनः क्वापि" लिखा है। जिसका आशय यह है कि कवि को अपनी रचना में अलंकार योजना के लिये यथा शक्ति प्रयत्नशील अवश्य रहना चाहिये परन्तु यदि रसप्रधान रचना में अलंकार न भी आ सकें तो कोई आवश्यकता नहीं। अतः यथासम्भव काव्य में अलंकार अवश्य होने चाहियें। साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ और चन्द्रालोककार जयदेव ने मम्मट के "अनलंकृती" का खण्डन किया है। जयदेव ने मम्मट के "अनलंकृती" शब्दार्थ के विशेषण का खण्डन करते हुये लिखा है

अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती ।

असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती ॥

अर्थात् जो मम्मट अलंकार रहित शब्दार्थ जो काव्य मानते हैं वे अग्नि को शीतल क्यों नहीं स्वीकार करते हैं, इस प्रकार उन्होंने "अनलंकृती" का खण्डन किया है। वस्तुतः मम्मट का आशय यह है कि काव्य में चमत्कार ही काव्यत्व होता है। यह चमत्कार, रसरूप और अलंकाररूप होता है। अर्थात् जहाँ वाच्यार्थ से भिन्न व्यंग्यार्थ अधिक चमत्कारजनक होता है तो वहां व्यंग्यार्थ के द्वारा रसरूप चमत्कार ही काव्य का काव्यत्व कहलाता है तथा जहाँ वाच्यार्थरूप चमत्कार होता है वह वाच्यार्थरूप चमत्कार अलंकारों के द्वारा ही काव्य के आनन्द का हेतु होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि काव्य में चमत्कार रसरूप तथा अलंकाररूप होता है। अतः काव्य में अलंकारों का महत्व रस के समान ही मानना चाहिये अर्थात् यदि रस और अलंकार में उपमानोपमेय की कल्पना चमत्कार रूप समान धर्म को मानकर करे तो उपमान रस और उपमेय अलंकार कहा जायेगा। अतः काव्य में रस के समान अलंकार का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है ।

Share:

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अनुवाद सुविधा

ब्लॉग की सामग्री यहाँ खोजें।

लोकप्रिय पोस्ट

जगदानन्द झा. Blogger द्वारा संचालित.

मास्तु प्रतिलिपिः

इस ब्लॉग के बारे में

संस्कृतभाषी ब्लॉग में मुख्यतः मेरा
वैचारिक लेख, कर्मकाण्ड,ज्योतिष, आयुर्वेद, विधि, विद्वानों की जीवनी, 15 हजार संस्कृत पुस्तकों, 4 हजार पाण्डुलिपियों के नाम, उ.प्र. के संस्कृत विद्यालयों, महाविद्यालयों आदि के नाम व पता, संस्कृत गीत
आदि विषयों पर सामग्री उपलब्ध हैं। आप लेवल में जाकर इच्छित विषय का चयन करें। ब्लॉग की सामग्री खोजने के लिए खोज सुविधा का उपयोग करें

समर्थक एवं मित्र

सर्वाधिकार सुरक्षित

विषय श्रेणियाँ

ब्लॉग आर्काइव

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 1

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 2

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 3

Sanskritsarjana वर्ष 2 अंक-1

Recent Posts

लेखानुक्रमणी

लेख सूचक पर क्लिक कर सामग्री खोजें

अभिनवगुप्त (1) अलंकार (3) आधुनिक संस्कृत गीत (14) आधुनिक संस्कृत साहित्य (5) उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (1) उत्तराखंड (1) ऋग्वेद (1) ऋषिका (1) कणाद (1) करवा चौथ (1) कर्मकाण्ड (47) कहानी (1) कामशास्त्र (1) कारक (1) काल (2) काव्य (16) काव्यशास्त्र (27) काव्यशास्त्रकार (1) कुमाऊँ (1) कूर्मांचल (1) कृदन्त (3) कोजगरा (1) कोश (12) गंगा (1) गया (1) गाय (1) गीति काव्य (1) गृह कीट (1) गोविन्दराज (1) ग्रह (1) छन्द (6) छात्रवृत्ति (1) जगत् (1) जगदानन्द झा (3) जगन्नाथ (1) जीवनी (6) ज्योतिष (20) तकनीकि शिक्षा (21) तद्धित (10) तिङन्त (11) तिथि (1) तीर्थ (3) दर्शन (19) धन्वन्तरि (1) धर्म (1) धर्मशास्त्र (14) नक्षत्र (2) नाटक (4) नाट्यशास्त्र (2) नायिका (2) नीति (3) पतञ्जलि (3) पत्रकारिता (4) पत्रिका (6) पराङ्कुशाचार्य (2) पर्व (2) पाण्डुलिपि (2) पालि (3) पुरस्कार (13) पुराण (3) पुस्तक (1) पुस्तक संदर्शिका (1) पुस्तक सूची (14) पुस्तकालय (5) पूजा (1) प्रत्यभिज्ञा शास्त्र (1) प्रशस्तपाद (1) प्रहसन (1) प्रौद्योगिकी (1) बिल्हण (1) बौद्ध (6) बौद्ध दर्शन (2) ब्रह्मसूत्र (1) भरत (1) भर्तृहरि (2) भामह (1) भाषा (1) भाष्य (1) भोज प्रबन्ध (1) मगध (3) मनु (1) मनोरोग (1) महाविद्यालय (1) महोत्सव (2) मुहूर्त (1) योग (5) योग दिवस (2) रचनाकार (3) रस (1) रामसेतु (1) रामानुजाचार्य (4) रामायण (3) रोजगार (2) रोमशा (1) लघुसिद्धान्तकौमुदी (45) लिपि (1) वर्गीकरण (1) वल्लभ (1) वाल्मीकि (1) विद्यालय (1) विधि (1) विश्वनाथ (1) विश्वविद्यालय (1) वृष्टि (1) वेद (6) वैचारिक निबन्ध (26) वैशेषिक (1) व्याकरण (46) व्यास (2) व्रत (2) शंकाराचार्य (2) शरद् (1) शैव दर्शन (2) संख्या (1) संचार (1) संस्कार (19) संस्कृत (15) संस्कृत आयोग (1) संस्कृत कथा (11) संस्कृत गीतम्‌ (50) संस्कृत पत्रकारिता (2) संस्कृत प्रचार (1) संस्कृत लेखक (1) संस्कृत वाचन (1) संस्कृत विद्यालय (3) संस्कृत शिक्षा (6) संस्कृत सामान्य ज्ञान (1) संस्कृतसर्जना (5) सन्धि (3) समास (6) सम्मान (1) सामुद्रिक शास्त्र (1) साहित्य (7) साहित्यदर्पण (1) सुबन्त (6) सुभाषित (3) सूक्त (3) सूक्ति (1) सूचना (1) सोलर सिस्टम (1) सोशल मीडिया (2) स्तुति (2) स्तोत्र (11) स्मृति (12) स्वामि रङ्गरामानुजाचार्य (2) हास्य (1) हास्य काव्य (2) हुलासगंज (2) Devnagari script (2) Dharma (1) epic (1) jagdanand jha (1) JRF in Sanskrit (Code- 25) (3) Library (1) magazine (1) Mahabharata (1) Manuscriptology (2) Pustak Sangdarshika (1) Sanskrit (2) Sanskrit language (1) sanskrit saptaha (1) sanskritsarjana (3) sex (1) Student Contest (2) UGC NET/ JRF (4)