संस्कृत साहित्य की दृष्टि में शब्दशक्तिः उपयोग और महत्व

 मम्मट ने अपने काव्य लक्षण में शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना है। इसमें शब्दों के ये तीन भेद किया। (१) वाचक (२) लक्षक (३) व्यञ्जक । इसी तरह अर्थ के भी तीन भेद है- (१) वाच्य (२) लक्ष्य (३) व्यंग्य । मम्मट ने शब्द शक्तियों के लिये (१) अभिधा (२) लक्षणा (३) व्यञ्जनानामक तीन शक्तियों का निरूपण किया है।

 शब्दों के भेद प्रदर्शित करते हुए लिखा है "स्याद्वाजको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्तथा ।" काव्य में अभिधालक्षणा तथा व्यञ्जना के द्वारा शब्दों के अर्थ का विवेचन वाच्यलक्ष्यतथा व्यंग्य भेद से किया है। "गंगायां घोषः" में गंगा शब्द के वाच्या को जलधारा रूप लक्ष्य तटरूपव्यंग्य शीतलता तथा पावनता रूप तीनों अर्थों का ज्ञान क्रमशः अभिधालक्षणाव्यञ्जना से होता है। मम्मट ने तीन प्रकार के शब्दों के अर्थ का निरूपण करने के लिये वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः" लिखा है अर्थात् वाचकलक्षक के क्रमशः वाच्य लक्ष्यव्यंग्य अर्थ होते हैं। इस प्रकार अभिघा से वाच्यार्थलक्षणा से लक्ष्यार्थव्यञ्जना से व्यंग्यार्थकी प्रतीति होती है। अतः मम्मट ने तीन शब्द शक्तियों का विवेचन काव्य प्रकाश में किया है।

(१) अभिधा (वाच्यार्थ ज्ञान के लिये)

(२) लक्षणा (लक्ष्यार्थ ज्ञान के लिये)

(३) व्यञ्जना (व्यंग्यार्थ प्रतीति के लिये) महावैयाकरण नागेश ने परमलघुमञ्जूषा ग्रन्थ में शब्दार्थ बोध के लिए तीन वृत्तियों को स्वीकार किया है। "सा च वृत्तिस्त्रिधा शक्तिलक्षणा व्यञ्जना च" इस प्रकार नागेश ने भी तीन शक्तियों को स्वीकार किया है तो अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन शब्द शक्तियों के स्वरूप क्या-क्या हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार है। है कि अभिधाआचार्य मम्मट ने अभिधा का स्वरूप प्रदर्शित करते हुए लिखा "स-मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते" इस वाक्य का आशय यह है कि वाच्यार्थ को स्पष्ट करने वाली शब्दशक्ति को अभिधा कहते हैं। यह अभिधा का व्यापार मुख्य व्यापार माना जाता है। इस लिये अभिधा से बोधित अर्थ को मुख्यार्थ अथवा वाच्यार्थ तथा अभिधेयार्थ एवं शक्यार्थ कहते हैं । इस प्रकार अभिधावृत्ति से साक्षात् संकेतित अर्थ को धारण करने वाले शब्द को वाचक शब्द कहते हैं। संकेतित अर्थ वह होता है जो श्रोता को सुनने से ही ज्ञात हो जाये इसलिये साक्षात् संकेतित अर्थ को स्पष्ट करने वाली शक्ति को अभिधा कहते हैं। यह संकेतित अर्थ चार प्रकार का होता है। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये मम्मट ने लिखा है कि संकेतितश्चतुर्भेदो जात्यादिर्जातिरेव वा" अर्थात् (१) जाति (२) गुण (३) क्रिया (४) यदृच्छा भेद से संकेतित अर्थ के चार भेद होते है । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी इसी भाव को स्पष्ट करते हुये महाभाष्य में लिखा है कि "चतुष्टयीशब्दानां प्रवृत्तिः" अर्थात् जातिवाचक गौः कीगुणवाचक शुक्ल कीक्रियावाचक चल कीयहच्छवाचक डित्थ की प्रवृत्तिनिवृत्ति जातिगुणक्रियायदृच्छा (अर्थात् संज्ञा) वाचक शब्दों की उपाधि में होती है। पतञ्जलि की 'चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिःअनुकरण करते हुये आलंकारिकों ने संकेतित अर्थ के चार भेदों को माना है। इस प्रकार वाचक शब्द के वाच्यार्थ अथवा मुख्यार्थ ज्ञान के लिये अभिधा का आश्रय लिया जाता है अतः अभिघा का महत्व स्वयं सिद्ध हो जाता है कि अभिधावृत्ति के अभाव में वाच्यार्य भी ज्ञात नहीं होगा। अतः अभिधा के सभी विद्वान् मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते हैं ।

लक्षणा लक्ष्यार्थ को स्पष्ट करने के लिये लक्षणा का स्वरूप प्रदर्शित करते हुये आचार्य सम्मट ने लिखा है कि मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथप्रयोजनात् ।

अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणाऽऽरोपिता क्रिया ।।

इसका आशय यह है कि मुख्यार्थ के बाध अर्थात् असंगत प्रतीत होने पर मुख्यार्थ से यह सम्बन्धित अर्थ में ही लक्षणा होती है अर्थात् लक्षणा मुख्यार्थ से सम्बन्धित अर्थ में ही लक्षणार्थ को स्पष्ट करती है। किन्तु यह लक्षणा रूढ़ि अथवा प्रयोजन को मानकर ही प्रवृत्त होती है। जैसे कर्मणि कुशलः में कुशान जाति इस मुख्यार्थ (कुश लाने वाले अर्थ) का बाघ दिखाई पड़ रहा हैक्योंकि प्राचीनकाल में कुश लाने वाले को ही कुशल कहा जाता था परन्तु आजकल किसी भी कार्य में निपुण देखकर कुशलोऽय पुरुषःकहते हैं। अतः कुशल के मुख्यार्थ के बाधित होने पर रूढ़िवश अर्थात् परम्परा एवं प्रसिद्धि को हेतु मानकर कुशल का लक्षणा द्वारा चातुर अर्थ ग्रहण किया जाता है। अतः इसे रूढा लक्षणा भी कहते हैं। इसी प्रकार प्रयोजनवश होने वाली लक्षणा को प्रयोजनवती लक्षणा कहते हैं। जैसे 'गंगायां घोषःमें मुख्यार्थ (गंगा का जलधारा रूप अर्थ) के बाधित होने पर मुख्यार्थ से सम्बन्धित तट में लक्षणा शीतलता एवं पावनता रूप विशेष प्रयोजन को मानकर होती है। आचार्य मम्मट ने इस लक्षणा के मुख्य दो भेद को (१) शुद्धा, (२) गोणी मानकर पुनः शुद्धा के दो भेद (१) उपादानलक्षणा । (२) लक्षणलक्षणा किया है। इसके बाद इन दोनों के सारोपा और साध्यवसाना दो भेद का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार शुद्धालक्षणा के (१) उपादान-लक्षणा (२) लक्षण-लक्षणा (३) सारोपा (४) साध्यवसाना ये चार भेद होते हैं। गौणी के (१) सारोपा (२) साध्यवसाना दो भेद होते हैं। इस प्रकार शुद्धा और गौणी के दो भेदों को मिलाकर मम्मट के मत से लक्षणा के कुल ६ भेद होते हैं। इसीलिये मम्मट ने द्वितीय उल्लास में लक्षणा के भेद प्रदर्शित करते हुये लिखा है कि 'लक्षणा षड्विधाइसलिये लक्षणा के ६ भेद होते हैं जैसे-

 लक्षणा (१) शुद्धा (२) गौणी

शुद्धा के भेद-

(१)  उपादानलक्षणा (२) लक्षणलक्षणा (३) सारोपा (४) साध्यवसाना

( उदा० कुन्ता: प्रविसन्ति ) (गंगायां घोषः) (आयुर्धृतन्) आयुरेवेदम्)

गौणी के भेद

(१)  सारोपा (२) साध्यवसाना

(उदा० गौर्वाहीकः) (गोरय)

इस प्रकार लक्षणा का भी महत्व अनुपम है। जिस प्रकार अभिधा के बिना बाक्यार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है। उसी प्रकार लक्षणा के बिना लक्ष्यार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है । अतः लक्षणा का काव्य में गौरव स्पष्ट ही सिद्ध है।

व्यञ्जना

जिस स्थल पर अभिधा लक्षणा का व्यापार समाप्त हो जाता है। अर्थात् अभिधा लक्षणा के विरत होने पर भी जिस प्रयोजनरूप अर्थ की प्रतीति इष्ट होती हैउस विशेष अर्थ का बोध केवल त्र्यंजना से ही हो सकता हैक्योंकि व्यंग्यार्थ अथवा प्रयोजन विशेष अर्थ का बोध अभिधा से नहीं हो सकता है क्योंकि शीतलता पावनता रूप विशेष अर्थ संकेतित-अर्थ नहीं है। अभिधा केवल संकेतित अर्थ को स्पष्ट करती है। अतः संकेत-ग्रह के अभाव में अभिधा की प्रवृत्ति ही सम्भव नहीं है इसके अतिरिक्त जिस शीतलता पावनता को प्रयोजन मानकर लक्षणा की जाती हैवह लक्षणा भी शीतलता पावनता रूप अर्थ को नहीं ज्ञात करा सकती है क्योंकि लक्षणा की प्रवृत्ति (१) मुख्यार्थ बाध (२) मुख्यार्थ योग, (३) रूढ़ि अथवा प्रयोजन रूप तीन कारणों के होने पर ही होती हैपरन्तु गंगायां घोष: में जिस शीतलता पावनता की सिद्धि के लिये तट में लक्षणा की जाती है पुनः शीतलता पावनता की सिद्धि के लिये यदि तट में लक्षणा करेंतो तट अर्थ मुख्यार्थ नहीं है. और न तट में मुख्यार्थ की बाधा ही है तथा शीतलता पावनता रूप अर्थ को लक्षणा द्वारा ज्ञात करने के लिये कोई प्रयोजन चाहिये परन्तु इस प्रकार प्रयोजन की मिथ्या कल्पना करने से शास्त्र में अनवस्था दोष आ जायेगा । अतः शीतलता पावनता रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये व्यञ्जनावृत्ति अवश्य स्वीकार करनी चाहिये । इसी भाव को आचार्य मम्मट ने अधोलिखित कारिका में स्पष्ट किया है -

यस्य प्रतीतिमाधातुं लक्षणासमुपास्यते ।

फले शब्दकैगम्येऽत्र व्यञ्जनान्नापराक्रिया ॥

इस प्रकार व्यङ्ग्यार्थरूप लोकोत्तर अर्थ की प्रतीति व्यञ्जना के अतिरिक्त किसी अन्यवृत्ति के द्वारा नहीं हो सकती है। एक व्यञ्जना के (१) शाब्दी व्यञ्जना, (२) आर्थीव्यञ्जना ये दो भेद होते हैं। शाब्दीव्यञ्जना में शब्द की प्रधानता से व्यङ्गयार्थ की प्रतीति होती है। इसी लिये शाब्दीव्यञ्जना में शब्द को हटाकर उनके पर्यायवाची शब्द को रखने से व्यङ्गयार्थ समाप्त हो जाता हैअतः शब्द की प्रधानता से होने वाले व्यङ्गयार्थ स्थल में शाब्दीव्यञ्जना होती है। सशङ्खचको हरिःअशङ्खचको हरिःकर्णार्जुनौ इत्यादि शाब्दीव्यञ्जना के भेद अभिधामूला व्यञ्जना के उदाहरण माने जाते हैं । आर्थी व्यञ्जना में अर्थ की प्रधानता से व्यङ्ग यार्थ की प्रतीति होती है तथा आर्थी व्यञ्जना में शब्द को परिवर्तित करके यदि समानार्थक शब्द रखेंगे तो भी व्यङ्ग्यार्थ होगा । अतः शब्द परिवृत्ति सह-व्यञ्जना को आर्थी-व्यञ्जना और शब्द परिवृत्ति असहव्यञ्जना को शाब्दी-व्यञ्जना कहते हैं। इस शाब्दी-व्यञ्जना के दो भेद (१) अभिधामूला-व्यञ्जना (२) लक्षणामूला व्यञ्जना होते हैं। द्वितीय उल्लास के अन्त में अभिधामूला व्यञ्जना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुये मम्मट ने लिखा है कि

अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते ।

संयोगाद्यैरवाच्यार्यधीकृद् व्यावृतिरञ्जनम् ॥

(१) संयोग, (२) विप्रयोग, (३) साहचर्य, (४) विरोधिता, (५) अर्थ, (६) प्रकरण, (७) लिङ्ग (८) अन्य शब्द की सन्निधि, (९) सामर्थ्य, (१०) औचित्य, (११) देश, (१२) काल (१३) व्यक्ति (पुलिङ्ग स्त्रीलिंगादि), (१४) स्वर आदि के कारण अनेकार्थ शब्दों के अर्थ केवल एक अर्थ में नियंत्रित हो जाते हैं फिर भी सहृदयों के हृदय में अन्य अर्थों की प्रतीति होती है, वह व्यञ्जना व्यापार से ही होती है। इसी व्यापार को अभिधामूला व्यञ्जना कहते हैं।

संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता।

अर्थ: प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य सन्निधि:।।

सामर्थ्यमौचिती देश: कालो व्यक्ति: स्वरोदय।

शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतव:।।

                                    वाक्यपदीयम्

लक्षणामूलाव्यञ्जना को अविवक्षितवाच्य भी कहते हैं। लक्षणामूला व्यञ्जना के अर्थान्तर संक्रमित तथा अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनि नामक दो भेद होते हैं।

आर्थीव्यञ्जना- (१) वक्ता (२) बोद्धव्य (३) काकु (४) वाक्य, (५) वाच्य, (६) अन्य सन्निधि, (७) प्रस्ताव, (८) देश (९) काल (१०) वेष्टादि के वैशिष्ट्य से सहृदयों के हृदय अन्य विशेष अर्थ को प्रतीति कराने वाले व्यापार को आर्थीव्यजना कहते है। इस प्रकार साहित्यशास्त्र में अभिधालक्षणाव्यञ्जना को उपाधि अपना धर्म विशेष माना गया है। वस्तुतः किसी शब्द को वाचक तथा लक्षक और व्यञ्जक कहना उचित प्रतीत नहीं होता हैक्योंकि कोई भी शब्द अभिधा के सम्बन्ध से बाचक और लक्षणा के सम्बन्ध से लक्षक तथा व्यञ्जना के सम्पर्क से व्यंज्जक हो जाता है। इसीलिये शब्द को वाचकलक्षक तथा व्यञ्जक कहना ठीक नहीं है। यही कारण है कि आनन्दवर्द्धनाचार्य ने शब्द और अर्थ के वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध को शब्द का स्वाभाविक धर्म व्यंग्य व्यञ्जक सम्बन्ध को शब्द का नैमित्तिक धर्म रहा है। मम्मट ने इसे इस श्लोक में स्पष्ट किया है "स्याद् वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिया ।" अर्थात् मम्मट के मतानुसार अभिधालक्षणाव्यञ्जना इन तीन शब्दशक्ति रूप उपाधियों के कारण शब्दबाचक, लक्षक व्यञ्जक हो जाता । इस प्रकार इस विवेचन से अभिधालक्षणा के महत्व के साथ-साथ व्यञ्जना का महत्व समझने के लिये नितान्त उपादेय है क्योंकि मम्मट ने ध्वनि के वस्तु (२) अलंकार (३) रसध्वनि भेद करते हुये रस ध्वनि को असंलक्ष्यक्रम तथा काव्य का आत्मा रस कहा है । अतः शब्द शक्ति काव्य का प्राण है।

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