लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते साधारणप्रत्ययाः)

अथ तद्धिताःतत्रादौ साधारणप्रत्‍ययाः

सुबन्त से तद्धित प्रत्यय होता है। सुबन्त तथा तिङन्त की पद संज्ञा होती है अतः यहाँ सुबन्त से पद सम्बन्धी विधि (तद्धित प्रत्यय तथा स्वादि कार्य) होगी। अपत्याधिकार में प्रायः अपत्य अर्थों में प्रत्ययों का विधान किया गया है। इसमें समर्थानां प्रथमाद् वाङ्याप्प्रादिकात्प्रत्ययः, परश्च, तद्धिताः  का अधिकार चला आ रहा है। समर्थः पदविधिः सूत्र के अनुसार पदविधि करने के लिए दो पदों के बीच सामर्थ्य की अपेक्षा है। समर्थ पद वह होता है,जब शब्दों में सन्धि का  कार्य हो चुका होता है। समर्थ पदों में प्रथमोच्चरित पद से तद्धित प्रत्यय होता है। तद्धित वृत्ति में शब्द के अर्थावबोध के लिए वाक्य का लौकिक तथा अलौकिक विग्रह किया जाता है।  अपत्य तीन प्रकार के होते है। 1.अपत्य 2. गोत्रापत्य 3. युवापत्य । यथा प्रसंग हम उदाहरण पूर्वक इसकी विस्तृत चर्चा करेंगें।
अपत्य शब्द नपुंसक लिंग का है। अपत्य अर्थ में तीनों लिंगों में इस प्रकार लौकिक विग्रह होगा। 1. दितेः अपत्यम् (पुमान्) दैत्यः  2. दितेः अपत्यम् (स्त्रीः) दैत्या 3. दितेः अपत्यम् (नपुंसकः) दैत्यम्। 
१००० समर्थानां प्रथमाद्वा 4.1.87
इदं पदत्रयमधिक्रियते प्राग्‍दिश इति यावत् ।।
इस सूत्र का अधिकार 4.1.87 से 5.1.1 के पूर्व तक है। धान्यानां भवने के पहले तक के अर्थों में स्त्री तथा पुंस् प्रतिपदिकों से क्रमशः नञ् तथा स्नञ् प्रत्यय होते हैं।
धान्यानां भवने क्षेत्रे खञ् च इस सूत्र से पहले के अर्थों में स्त्री तथा पुंस् प्रतिपदिकों से तद्धित संज्ञक क्रमशः नञ् तथा स्नञ् प्रत्यय होते हैं।
१००१ अश्वपत्‍यादिभ्‍यश्‍च
एभ्‍योऽण् स्‍यात्‍प्राग्‍दीव्‍यतीयेष्‍वर्थेषु । अश्वपतेरपत्‍यादि आश्वपतम् । गाणपतम् ।।
अश्वपति आदि शब्दों से प्राग्दीव्यतीय (अष्टाध्यायी के 4.4.2 तक विहित) अर्थों में अण् प्रत्यय हो। 
अश्वपतेः अपत्यम्, अश्वपतेः भवः, अश्वपतेः समूहः आदि अर्थों में अश्वपति शब्द से अण् प्रत्यय णकार का अनुबन्ध लोप तथा तद्धितेश्वचामादेः से आदि अच् अकार की वृद्धि आ होकर आश्वपति + अ हुआ। यस्येति च से इकार लोप होने पर आश्वपत रूप बना। कृत्तद्धित से प्रातिपदिक संज्ञा सु विभक्ति। आश्वपत शब्द नपुंसक लिंग का होने के कारण  सु को अम् आदेश आश्वपतम् रूप बना। 
१००२ दित्‍यदित्‍यादित्‍यपत्‍युत्तरपदाण्‍यः
दित्‍यादिभ्‍यः पत्‍युततरपदाच्‍च प्राग्‍दीव्‍यतियेष्‍वर्थेषु ण्‍यः स्‍यात् । अणोऽपवादः । दितेरपत्‍यं दैत्‍यः । अदितेरादित्‍यस्‍य वा ।।
दिति, अदिति, आदित्य शब्दों तथा पति शब्द जिस पद के अंत में हो उससे प्राग्दीव्यतीय अर्थों में ण्य प्रत्यय हो। यह ण्य प्रत्यय अण् का अपवाद है।
१००३ हलो यमां यमि लोपः
हलः परस्‍य यमो लोपः स्‍याद् वा यमि । इति यलोपः । आदित्‍यः । प्राजापत्‍यः । 
हल् से परे यम् का लोप होता है, यदि लोप होने वाले यम् के बाद यम् हो तो।
(देवाद्यञञौ) । दैव्‍यम्। दैवम् । 
प्राग्दीव्यतीय अर्थों में देव शब्द से यञ् तथा अञ् प्रत्यय होता है।
(बहिषष्‍टिलोपो यञ्च) । बाह्‍यः ।।
प्राग्दीव्यतीय अर्थों में बहिस् शब्द से टि लोप तथा यञ् प्रत्यय होता है।
(ईकक्‍च) 
प्राग्दीव्यतीय अर्थों में बहिस् शब्द से ईकक् प्रत्यय तथा टि लोप होता है।
१००४ किति च
किति तद्धिते चाऽचामादेरचो वृद्धिः स्‍यात् । वाहीकः ।
कित् तद्धित प्रत्यय परे रहते अचों में आदिवृद्धि भी होती है।       
(गोरजादिप्रसङ्गे यत्) । गोरपत्‍यादि गव्‍यम् ।।
पूर्वोक्त अर्थों में  गो शब्द में अच् आदि प्रत्ययों के प्रसंग में यत् होता है।
१००५ उत्‍सादिभ्‍योऽञ्
औत्‍सः ।।
उत्स आदि शब्दों से अपत्यादि अर्थों में अञ् होता है।
इत्‍यपत्‍यादिविकारान्‍तार्थ साधारणप्रत्‍ययाः ।। १ ।।
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