लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते मत्‍वर्थीयाः)


                            अथ मत्‍वर्थीयाः


पूर्व पाठावलोकन
मतुप् प्रत्यय दो अर्थों में होते हैं। वह इसका है तथा वह इसमें है। तत् अस्य अस्ति तथा तत् अस्मिन् अस्ति। भाष्यकार पतंजलि के अनुसार इसके अतिरिक्त अन्य अर्थों में भी मतुप् प्रत्यय होते हैं।
भूम-निन्दा-प्रशंसासु नित्य-योगेऽतिशायने।
 सम्बन्धेऽस्ति विवक्षायां भवन्ति मतुबादयः।।
बहुत्वनिंदाप्रशंसानित्ययोगअतिशय और संसर्ग-इन छः विषयों में मतुप् प्रत्यय होते हैं । 
उदाहरण-
भूम - गोमान्। निन्दा- कुष्ठी। ककुदावर्तिनी कन्या। प्रशंसा - रूपवती कन्या। नित्ययोग - क्षीरिणो वृक्षाः। अतिशायन - उदरिणी कन्या। संसर्ग दण्डी, छत्री। अस्ति - अस्तिमान्।

 इस प्रकरण के सूत्रों में अधोलिखित सूत्रों की अनुवृत्ति आते हैं।

मतुँप्  5|2|94 तत्  5|2|94 अस्मिन्  5|2|94 अस्ति  5|2|94 अस्य  5|2|94 अन्यतरस्याम्  5|2|109
 इस प्रकरण के सूत्रों में अधोलिखित सूत्रों का अधिकार आता हैं।
प्रत्ययः  3|1|1 परश्च  3|1|2 आद्युदात्तश्च  3|1|3  ङ्याप्प्रातिपदिकात्  4|1|1  तद्धिताः  4|1|76 समर्थानां प्रथमाद्वा  4|1|82
अतः सूत्र का अर्थ करते समय सभी सूत्रों में प्रथमान्त समर्थ ङ्यन्त, आबन्त तथा प्रातिपदिक समर्थ सुबन्त से परे  तद्धित प्रत्यय विकल्प से हो जोड़ना चाहिए। 

  मत्वर्थीय प्रकरण में झयः तथा मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवाऽदिभ्यः इन दो सूत्रों को सदैव स्मरण रखना चाहिए। झयः सूत्र झय् से परे मतुप् के मकार को वकार आदेश करता है। मादुपधायाश्च सूत्र मवर्णान्त, अवर्णान्त, मकारोपध तथा अकारोपध से परे मतुप् के मकार को वकार करता है तथा यवादि से परे म को व नहीं करता है।
इसके अतिरिक्त अत्वसन्तस्य चाऽधातोःउगिदचां सर्वनामस्थाने धातोः, अपृक्त एकाल् प्रत्ययः, हल्ङ्याभ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्यस्येति चसंयोगान्तस्य लोपःनस्तद्धिते सूत्र भी स्मरण रखना चाहिए। 

अत्वसन्तस्य चाऽधातोः अर्थ- सम्बुद्धि भिन्न सु परे हो तो अतु अंत वाले अङ्ग की तथा धातु भिन्न अस् अंत वाले अंग की उपधा के स्थान पर दीर्घ होता है। अतु में मतुप्, वतुप्, डवतु आदि प्रत्ययों का ग्रहण होता है।
उगिदचां सर्वनाम स्थाने धातोः अर्थ- धातु से भिन्न उक् की इत्संज्ञा हुए तथा जिसके नकार को लोप हुआ हो, ऐसे अंग को नुम् का आगम हो, सर्वनाम स्थान परे रहते।
हल्ङ्याभ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् अर्थ- हल्, दीर्घ,(ङी, आप्) से परवर्ती सु ति सि के अपृक्त हल् को लोप हो।

११८८ तदस्‍यास्‍त्‍यस्‍मिन्निति मतुप्
गावोऽस्‍यास्‍मिन्‍वा सन्‍ति गोमान् ।।

सूत्रार्थ- वह इसका है तथा वह इसमें है, इन अर्थों में प्रथमान्त प्रातिपदिक से मतुप् हो। 
गोमान्। गावः अस्य सन्ति तथा गावः अस्मिन् सन्ति इस अर्थ में गो शब्द से मतुप् प्रत्यय हुआ। मतुप् में पकार तथा उकार की इत् संज्ञा तथा लोप हुआ। गो + मत् हुआ। प्रातिपदिक संज्ञा, स्वादि की उत्पत्तिअत्वसन्तस्य से उपधा दीर्घउगिदचां से नुमागम गो + मान्त् + सु । सु में उकार की इत्संज्ञा लोप, सु के सकार का हलङ्याभ्यः से लोप गो + मान्त् हुआ। अंतिम तकार का संयोगान्तस्य लोपः से लोप गोमान् रूप बना। 
११८९ तसौ मत्‍वर्थे
तान्‍तसान्‍तौ भसंज्ञौ स्‍तो मत्‍वर्थे प्रत्‍यये परे । गरुत्‍मान् । वसोः संप्रसारणं । विदुष्‍मान् ।

सूत्रार्थ- मत्वर्थ प्रत्यय परे रहते तकारान्त तथा सकारान्त शब्द भसंज्ञक होते हैं। 
गरुतः अस्य सन्ति इस लौकिक विग्रह में मतुप् प्रत्यय हुआ। प्रातिपदिक संज्ञा, स्वादि की उत्पत्ति,  गरुत् इस पद में त् यह  है व्यंजन वर्ण अंत में है। अतः यह तान्त है। तान्त होने के कारण तसौ मत्वर्थे से मतुप् प्रत्यय परे रहते गरुत् इस पद की भसंज्ञा हुई। भसंज्ञा होने के कारण पद संज्ञा का बाध हो गया। पद संज्ञा के बाध होने से झलां जशोऽन्ते से जश्त्व तथा यरोनुनासिके को बाधकर प्रत्यये भाषायाम नित्यम् से होने वाला अनुनासिक कार्य  नहीं हुआ। गरुत् + मत् में अत्वसन्तस्य से उपधा दीर्घउगिदचां से नुमागम गरुत् + मान्त् + सु । सु में उकार की इत्संज्ञा लोप, सु के सकार का हलङ्याभ्यः से लोप गरुत् + मान्त् हुआ। अंतिम तकार का संयोगान्तस्य लोपः से लोप गरुत्मान् रूप बना।
इसी प्रकार विद्वान्सः अस्य सन्ति इस विग्रह में विद्वस् शब्द से मतुप् प्रत्यय,अनुबन्ध लोप, स्वादि की उत्पत्ति, प्रकृत सूत्र से भसंज्ञाभसंज्ञा होने से पद संज्ञा का बाध हो गया। आकडारादेका संज्ञा के अनुसार एक की एक ही संज्ञा होगी। अतः स्वादिष्वसर्वनामस्थाने से प्राप्त पद संज्ञा तथा वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः से प्राप्त सकार को दकारादेश नहीं होगा। वसोः सम्प्रसारणम् से विद्वस् के वकार का सम्प्रसारण उ हुआ। विदुस् + मत् + सु शेष कार्य गरुत्मत् के समान होकर विदुष्मान् रूप बना।

(गुणवचनेभ्‍यो मतुपो लुगिष्‍टः)
 । शुक्‍लो गुणोऽस्‍यास्‍तीति शुक्‍लः पटः । कृष्‍णः ।।

गुण वाचक शब्द से मतुप् का लोप हो। शुक्‍लः गुणः अस्‍या अस्‍ति इति शुक्‍लः पटः। शुक्ल शब्द गुण वाचक है। यह किसी भी पदार्थ का गुण बताता है। यहाँ पट की विशेषता बता रहा है। इससे मतुप् प्रत्यय होने पर मतुप् का लोप हो जाता है। शुक्लः, कृष्णः श्यामः आदि रूप सिद्ध होते हैं।
११९० प्राणिस्‍थादातो लजन्‍यतरस्‍याम्
चूडालः । चूडावान् । प्राणिस्‍थात्‍किम् ? शिखावान्‍दीपः । 

सूत्रार्थ-  मत्वर्थ में प्राणिस्थ आकारान्त प्रथमान्त अङ्गवाचक शब्द प्रकृतिक से लच् प्रत्यय विकल्प से होता है।
चूडा अस्य सन्ति इस लौकिक विग्रह में चूडा इस आकारन्त प्रथमान्त शब्द से लच् प्रत्यय होता है। चूडा + लच् स्वादि कार्य होकर चूडालः रूप बनेगा। लच् प्रत्यय के अभाव में चूडा शब्द से मतुप् होकर चूडावान् रूप बनेगा। सूत्र में प्राणिस्थ आकारन्त कहने का प्रयोजन यह है कि जो आकारान्त शब्द किसी प्राणी में स्थित नहीं हो उससे लच् प्रत्यय नहीं हो। प्राणिस्थ विशेषण नहीं लगाने पर शिखावान् दीपः में दीप में शिखा के स्थित होने की स्थिति में भी शिखा से लच् प्रत्यय प्राप्त हो जाएगा, जो कि अभीष्ट नहीं है। जब शिखा किसी प्राणी में स्थित होगी तब वहाँ लच् प्रत्यय होगा।
(वा.)प्राण्‍यङ्गादेव । नेह- मेधावान् ।।
प्राणी के अंग में स्थित आकारान्त वाची पदार्थ के होने पर ही हो। मेधावान् में मेधा अस्य अस्मिन् वा अस्ति इस लौकिक विग्रह में मेधा प्राणी का अंग नहीं होने से लच् प्रत्यय नहीं होगा। यहाँ मतुप् होकर मेधावान् बनेगा। मेधा प्राणी में स्थित रहती है परन्तु यह प्राणी का अंग नहीं है। मेधा वह विशिष्ट और असाधारण मानसिक शक्ति या गुण हैजिससे मनुष्य किसी असाधारण कार्य को कर दिखलाता है। इसे धारणा शक्ति या बुद्धि कह सकते हैं।
संस्कृत व्याकरण में इसे प्राणी का अंग नहीं माना गया ।
११९१ लोमादिपामादिपिच्‍छादिभ्‍यः शनेलचः
लोमादिभ्‍यः शः । लोमशः । लोमवान् । रोमशः । रोमवान् । पामादिभ्‍यो नः । पामनः । 
सूत्रार्थ- लोमादि गण पठित प्रथमान्त समर्थ सुबन्त से श प्रत्यय, पामन्  आदि से न प्रत्यय तथा पिच्छ आदि से इलच् प्रत्यय विकल्प से होता है।

लोमानि अस्य सन्ति इस विग्रह में लोमन् शब्द से श प्रत्यय हुआ। लोमन् ने नकार का नलोपः प्रातिपदिकस्य से लोप स्वादि कार्य होकर लोमशः रूप बना। विकल्प पक्ष में मतुप् होकर लोमवान् बनेगा। इसी प्रकार रोमेशः तथा रोमवान् बनेगा। पामन् से न प्रत्यय, पामन् के नकार का लोप पामनः रूप बनेगा। न प्रत्यय विकल्प पक्ष में मतुप् होकर पामवान् बनेगा। पाम + मत् इस स्थिति में मत् के मकार को मादुपधायाश्च सूत्र से वकार हो जाता है। पिच्छ शब्द से इलच् प्रत्यय पिच्छिलः रूप बनेगा। इलच् के विकल्प में मतुप् होकर पिच्छवान् रूप बनेगा।
(वा.) अङ्गात्‍कल्‍याणे । अङ्गना । 

अर्थ- कल्याण अर्थ में अंग शब्द से न प्रत्यय हो। कल्याणानि सुन्दरानि अङ्गानि यस्याः विग्रह में अङ्ग शब्द से  न प्रत्यय हुआ स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् अङ्गना रूप बना। 
अर्थ- (वा.) लक्ष्म्या अच्‍च । लक्ष्मणः । 
लक्ष्मी शब्द से  मत्वर्थ में न प्रत्यय तथा लक्ष्मी को अत् अन्तादेश हो।
लक्ष्मणः। लक्ष्मी शब्द से  मत्वर्थ में न प्रत्यय हुआ। लक्ष्मी + न हुआ। लक्ष्मी के ईकार को अत् अन्त आदेश होने पर लक्ष्मत् + न हुआ। हलन्त्यम् से लक्ष्मत् के तकार की इत्संज्ञा, लोप नकार को णकारादेश लक्ष्मण बना स्वादि कार्य होकर लक्ष्मणः रूप बना।
पिच्‍छादिभ्‍य इलच् । पिच्‍छिलः । पिच्‍छवान् ।।

११९२
 दन्‍त उन्नत उरच्
उन्नता दन्‍ताः सन्‍त्‍यस्‍य दन्‍तुरः ।।
सूत्रार्थ- उन्नत अर्थ में दन्त शब्द शब्द से उरच् प्रत्यय हो।
दन्‍तुरः । उन्नता दन्‍ताः सन्‍ति अस्‍य इस विग्रह में दन्त शब्द से उरच् प्रत्यय हुआ। दन्तुरः सिद्ध हुआ।
११९३ केशाद्वोऽन्‍यतरस्‍याम्
केशवः । केशी । केशिकः । केशवान् ।
सूत्रार्थ- प्रथमान्त केश शब्द से मत्वर्थ में व प्रत्यय हो विकल्प से।
केश + व = केशवः। व प्रत्यय के विकल्प में अत इनि-ठनौ से इनि प्रत्यय हुआ। केश + इनि में यचि भम् से केश के अकार की भसंज्ञा, यस्येति च से लोप करने पर केशिन् बना। प्रातिपदिक केशिन् से प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति  केशिन् के इकार को दीर्घ सु का लोपनकार का नस्तद्धिते से अनुबन्ध लोप केशी रूप बना। अत इनि-ठनौ अदन्त से ठन् प्रत्यय भी करता है। ठन् प्रत्यय के पक्ष में केश + ठन् । ठस्येकः से ठकार को इक् आदेश होकर केशिकः रूप बनेगा। केशाद्वः तथा अत इनि सूत्र के विकल्प में तदस्‍यास्‍त्‍यस्‍मिन्निति से केश शब्द से मतुप् प्रत्यय हुआ। केश + मत् मादुपधायाः से मतुप् के मकार को वकारादेश केशवान् रूप बनेगा।

(वा.) अन्‍येभ्‍योऽपि दृश्‍यते । मणिवः । 
अर्थ- केश शब्द से अतिरिक्त से भी व प्रत्यय देखा जाता है।
मणिः अस्य अस्ति इस विग्रह में मणि शब्द से व प्रत्यय होकर मणिवः रूप बना।
(वा.) अर्णसो लोपश्‍च । अर्णवः ।।
अर्थ- अर्णस् शब्द से व प्रत्यय तथा अन्त्य सकार का लोप हो।
अर्णांसि जलानि अस्य सन्ति इस विग्रह में अर्णस् शब्द से व प्रत्यय हुआ। अर्णस् + व इस स्थिति में अर्णस् के सकार का लोप हुआ। सु विभक्ति, रूत्व विसर्ग अर्णवः रूप बना।
११९४ अत इनिठनौ
दण्‍डी । दण्‍डिकः ।।
सूत्रार्थ- अदन्त शब्द से इनि तथा ठन् प्रत्यय विकल्प से हो। यहाँ अन्यतरस्याम् की अनुवृत्ति आती है। अतः इनि और ठन् प्रत्यय विकल्प से होगा।
दण्डी । दण्डः अस्य अस्ति इस विग्रह में दण्ड शब्द से इनि प्रत्यय, दण्ड की भसंज्ञा, यस्येति च से डकार के अकार का लोप, सु विभक्ति, इकार को दीर्घ, सु तथा दण्डीन् के नकार को लोप होकर दण्डी रूप सिद्ध हुआ।



दण्‍डिकः।
 दण्ड शब्द से ठन् प्रत्यय, दण्ड की यस्मात्प्रत्यय से अंग संज्ञा, ठन् के नकार का लोप, ठकार को ठस्येकः से इक आदेश हुआ। दण्ड + इक में दण्ड के अंतिम अकार का लोप, स्वादि कार्य दण्डिकः रूप बना।
११९५ व्रीह्‍यादिभ्‍यश्‍च
व्रीह्यादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः इनिठनौ प्रत्ययौ भवतो मत्वर्थे । 
व्रीही । व्रीहिकः ।।
सूत्रार्थ- मत्वर्थ में प्रथमान्त व्रीहि आदि गणपठित शब्दों से इनि तथा ठन् प्रत्यय हो। विकल्प में मतुप् प्रत्यय भी होगा।
व्रीहयः अस्य सन्ति इस विग्रह में व्रीह्‍यादिभ्‍यश्‍च सूत्र से ठन् प्रत्यय हुआ। व्रीहि + इन् ➤ व्रीहिन्यचि भम् से अजादि प्रत्यय परे रहते व्रीहि के इकार की भसंज्ञायस्येति च से लोप करने पर व्रीहिन् बना।
 ➤ सु विभक्ति ➤ व्रीहिन् + सु । व्रीहिन् के इकार को दीर्घ ➤ व्रीहीन् + सु, सु तथा व्रीहीन् के नकार को लोप होकर व्रीही रूप सिद्ध हुआ।
व्रीहिकः । व्रीहि + ठन् में ठन् के नकार का अनुबन्ध लोप, ठकार इक आदेशयचि भम् से अजादि प्रत्यय परे रहते व्रीहि के इकार की भसंज्ञायस्येति च से लोप करने पर व्रीह् + इक, स्वादि कार्य व्रीहिकः रूप बना। मतुप् प्रत्यय के पक्ष में व्रीहिमान् रूप बनेगा।



विशेष-
मतुप् प्रत्यय के पक्ष में व्रीहिमान् रूप बनेगा।
व्रीह्यादि गण - व्रीहिमायाशिखामेखलासंज्ञाबलाकामालावीणावडवाअष्टकापताकाकर्मन्चर्मन्हंसायवखदकुमारीनौ , शीर्षात् नञः ।
व्रीह्यादि के सभी शब्दों से इनि तथा ठन् प्रत्यय ये दोंनों प्रत्यय नहीं होते । व्रीह्यादि गण के कुछ शब्दों से केवल "इनि" प्रत्यय तथा कुछ शब्दों से "ठन्" प्रत्यय होता है।

११९६ अस्- माया-मेधा-स्रजो विनिः

असन्तेभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः तथा माया-मेधा-स्रज् एतेभ्यः शब्देभ्यः प्रथमासमर्थेभ्यः "विनि" तथा "मतुप्" प्रत्ययौ भवतः ।
यशस्‍वी । यशस्‍वान् । मायावी । मेधावी । स्रग्‍वी ।।
सूत्रार्थ- जिस प्रातिपदिक के अंत में अस् हो तथा माया-मेधा-स्रज् इन शब्दों से विनि तथा मतुप् प्रत्यय होते हैं ।
यशस्‍वी । यशो अस्य अस्मिन् अस्ति इस विग्रह में  अस् अंत वाले यशस् शब्द से विनि प्रत्यय यशस् + विनि बना। विनि के अंतिम इकार की इत्संज्ञा लोप → यशस् + विन्  हुआ।  यशस् + विन् इस स्थिति में स्वादिष्वसर्वनामस्थाने से पद संज्ञा प्राप्त हुई। उसे बाधकर तसौ मत्वर्थे से  भसंज्ञा हुई । अतः यशस् के सकार को रूँत्व नहीं हुआ । यशस्विन् से सु विभक्ति, दीर्घ, नलोप आदि कार्य पूर्ववत् करके यशस्वी रूप बना। 
विनि प्रत्यय विकल्प से होता है अतः पक्ष में मतुप् होकर यशस्वान् रूप बनेगा। इसी प्रकार मायावी,मायावान् । मेधावी,मेधावन् । स्रग्‍वी,स्रग्वान् रूप बनाना चाहिए ।।
विशेष-
अस् अंत वाले प्रातिपदिक चन्द्रमस्पयस्विद्वस्यशस्तपस् जैसे और शब्दों को संकलित कर विनि तथा मतुप् प्रत्यय लगाकर रूप बनायें। ऐसे निष्पन्न प्रातिपदिक शब्दों को खोजें जो विनि तथा मतुप् प्रत्यय से निष्पन्न हुआ हो।



११९७ वाचो ग्‍मिनिः
वाग्‍ग्‍मी ।।
सूत्रार्थ- अस्य अस्ति तथा अस्मिन् अस्ति इन दोनों अर्थों में वाच् शब्द से ग्मिनि प्रत्यय होता है ।
वाग्‍ग्‍मी । अस्य अस्ति तथा अस्मिन् अस्ति इन दोनों अर्थों में वाच् शब्द से ग्मिनि प्रत्यय होता है ।
प्रशस्ता वाक् अस्य अस्ति सः वाग्ग्मी। वाच् + ग्मिनि में ग्मिनि का अंतिम इकार उच्चारण मात्र के लिए है अतः इसका अनुबन्ध लोप हो जाता है। वाच् + ग्मिन् में वाच् अङ्ग का स्वादिष्वसर्वमानस्थाने से  पदसंज्ञावाक् के ककार का चोः कुः से कुत्व ककार होकर वाक् + ग्मिन्झलां जशोऽन्ते से पदान्त ककार को गकार हुआ। वाग् + ग्मिन् = वाग् + ग्मिन् रूप बना। सु विभक्ति, दीर्घनलोप आदि कार्य पूर्ववत् करके वाग्ग्मी रूप बना। 
११९८ अर्श आदिभ्‍योऽच्
अर्शोऽस्‍य विद्यते अर्शसः । आकृतिगणोऽयम् ।।
सूत्रार्थ- मत्वर्थ में प्रथमान्त अर्शस् आदि समर्थ सुबन्त से अच् प्रत्यय हो। तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् से औत्सर्गिक रूप से मतुप् प्रत्यय भी होगा। यह आकृतिगण है।
अर्शः अस्य सन्ति इस विग्रह में अर्शस् शब्द से अच् प्रत्यय हुआ। अर्शस् + अच् हुआ। अच् का चकार उच्चारणार्थक होने से इत्संज्ञा लोपअर्शस हुआ। स्वादि कार्य होकर अर्शसः रूप सिद्ध हुआ।
अर्श आदि गण-
अर्शस्उरस्तुन्दचतुरपलितजटाघताअभ्रकर्दमआमलवणस्वाङ्गाद्धीनात् (गणसूत्र)वर्णात् (गणसूत्र) । ११९९ अहंशुभमोर्युस्
अहंयुः अहङ्कारवान् । शुभंयुस्‍तु शुभान्‍वितः ।।
सूत्रार्थ- मत्वर्थ में प्रथमान्त समर्थ सुबन्त अहम् तथा शुभम् शब्दों से "युस्" प्रत्यय होता है।
अहम् इस अव्यय से अस्य अथवा अस्मिन् अस्ति इस अर्थ में युस् प्रत्यय हुआ। अहम् + युस् हुआ। युस् प्रत्यय का सकार इत्संज्ञक  हैअतः अङ्गस्य सिति च से अहम् की पदसंज्ञा होती है।  अहम् की पदसंज्ञा होने से मोऽनुस्वारः से अहम् के मकार को अनुस्वारः तथा वा पदान्तस्य से विकल्प से परसवर्णादेश य् अहय् + यु हो गया। वा पदान्तस्य से विकल्प पक्ष में अहं + यु होगा। अहय्यु तथा अहंयु में स्वादि कार्य होकर क्रमशः अहय्युः तथा अहंयुः रूप बनेगा।
इसी प्रकार शुभम् इस अव्यय से अस्य अशवा अस्मिन् अस्ति अर्थ में शुभंयुः तथा शुभय्युः रूप बनेगा।
तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् सूत्र से आरम्भ हुआ अधिकार इस सूत्र पर आकर समाप्त हो जाता है ।
इति मत्‍वर्थीयाः ।। १३ ।।

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