लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते रक्ताद्यर्थकाः)


अथ रक्ताद्यर्थकाः

१०३६ तेन रक्तं रागात्
अण् स्‍यात् । रज्‍यतेऽनेनेति रागः । काषायेण रक्तं वस्‍त्रं काषायम् ।।
रंगविशेषवाची शब्द से ‘उससे रंगा हुआ' इस अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है। 
'अण्' में 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है, अ शेष बचता है। रज्यते इति–‘रज्यतेऽनेन इति रागः' यह ‘रागः' शब्द की व्युत्पत्ति है, जिसका अर्थ है- इससे रंगा जाता है अर्थात् रंगने के साधन नील पीतादि रङ्ग। यहाँ ‘रज्ज्' धातु से करण अर्थ में ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्' से घञ् प्रत्यय, ‘घञि च भावकरणयोः' से नकार का लोप, ‘चजोः कुः घिण्ण्यतोः' से जकार को कुत्व गकार, उपधावृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'रागः' रूप बनता है।
काषायम्- कषायेण रक्तं वस्त्रम् (गेरुए रङ्ग से रंगा हुआ वस्त्र )- यहाँ तृतीयान्त समर्थ रङ्गवाचक 'उससे रंगा हुआ' इस अर्थ में 'कषाय' शब्द से 'तेन रक्तं रागात्' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'कषाय + अ' बना। इस दशा में तद्धितेष्वचामादेः' से कषाय के आदि वर्ण  'अ' को वृद्धि 'आ' हुआ। काषाय + अ रूप बना। 'यस्येति च' से काषाय के अन्त्य 'अ' का लोप, वर्ण संयोग होकर काषाय बना। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘काषायम्' रूप बना। 
१०३७ नक्षत्रेण युक्तः कालः
अण् स्‍यात् ।
नक्षत्रविशेषवाचक शब्द से ‘नक्षत्र से सम्बद्ध काल' इस अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है।
नक्षत्र शब्द से यहाँ नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा अर्थ लिया जाएगा।

(तिष्‍यपुष्‍ययोर्नक्षत्राणि यलोप इति वाच्‍यम्) । पुष्‍येण युक्तं पौषमहः ।।
पौषम् (अहः)- पुष्येण युक्तम् (पुष्यनामक नक्षत्र से युक्त चन्द्रमा से युक्त दिन)- यहाँ तृतीयान्त समर्थ नक्षत्रविशेषवाचक 'पुष्य' शब्द से 'नक्षत्र से सम्बद्ध काल' अर्थ में 'नक्षत्रेण युक्तः कालः' से अण्' प्रत्यय होता है। 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप। 'पुष्य + अ' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि 'यस्येति च' से  अन्त्य अकार का लोप हुआ। पौष्य् + अ इस दशा में 'तिष्यपुष्ययोर्नक्षत्राणि यलोप इति वाच्यम्' से 'य' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पौषम्' रूप बना। 
१०३८ लुबविशेषे
पूर्वेण विहितस्‍य लुप् स्‍यात् षष्‍टिदण्‍डात्‍मकस्‍य कालस्‍यावान्‍तरविशेषश्‍चेन्न गम्‍यते । अद्य पुष्‍यः ।।
पूर्वसूत्र से विहित (अण् प्रत्यय) का लोप होता है, यदि साठ दण्ड (24 घंटे) वाले समय का अवान्तर भेद (रात्रि या दिन) न बतलाया गया हो। 
सूत्र में स्थित अवशेष शब्द का अर्थ है कि साठ घड़ी (24 घंटे) का दिन रात होता है, उसमें यह ज्ञात न हो कि दिन है या रात्रि। 

अद्य पुष्यः- अद्य पुष्येण युक्तः कालः (आज पुष्यनक्षत्र से सम्बद्ध चन्द्रमा युक्त काल है)-यहाँ ‘पुष्य' शब्द से ‘नक्षत्रेण युक्तः कालःः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'लुबविशेषे' से अण् प्रत्यय का लोप हो जाता है क्योंकि यहाँ यह ज्ञात नहीं हो रहा है कि दिन है या रात्रि। ‘पुष्य' से प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पुष्यः' रूप बना। 
१०३९ दृष्‍टं साम
तेनेत्‍येव । वसिष्‍ठेन दृष्‍टं वासिष्‍ठं साम ।।
‘उसके द्वारा देखा गया साम' इस अर्थ में तृतीयान्त समर्थ से अण् प्रत्यय होता है। 
'अण्' में 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाने से 'अ' शेष रहता है। 

वासिष्ठं साम- वसिष्ठेन दृष्टं साम (वसिष्ठ के द्वारा देखा गया साम)-यहाँ 'देखा गया साम' इस अर्थ में तृतीयान्त समर्थ ‘वसिष्ठ' शब्द से ‘दृष्टं साम' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाने पर अ शेष बचा। ‘वसिष्ठ + अ' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से  'अ' को आदिवृद्धि 'आ' ,  'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वासिष्ठम्' रूप बना। 
१०४० वामदेवाड्ड्यड्ड्यौ
वामदेवेन दृष्‍टं साम वामदेव्‍यम् ।।
 'उससे देखा गया साम' अर्थ में ‘वामदेव' शब्द से ड्यत् तथा ड्य प्रत्यय होते हैं। 
ड्यत् तथा ड्य में केवल 'य' शेष रहता है। अर्थात् ड्यत् एवं 'ड्य' में 'ड्' की तथा ड्यत् में 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब ड्यत् तथा ड्य में 'य' ही शेष रहता है तो फिर दो प्रत्ययों की क्या आवश्यकता? इसका समाधान यह है कि स्वर में दोनों प्रत्ययों का अन्तर पड़ता है। ड्यत् में तकार की इत् संज्ञा हो जाने के कारण यह तित् है अतः ‘तित्स्वरितम्' के विधान से ड्यत् का 'अ' स्वरित है परन्तु आद्युदात्तश्च के विधान से ड्य का 'अ' उदात्त होता है। 
                 सिद्धे यस्येति लोपेन किमर्थं ययतौ डितौ। 
                   ग्रहणं माऽतदर्थे भूद्वामदेव्यस्य नञ्स्वरे।।
वामदेव्यम्- वामदेवेन दृष्टं साम (वामदेव के द्वारा देखा गया साम)-यहाँ ‘वामदेव' शब्द से 'वामदेवाड्यड्ड्यौ ' से 'ड्यत्' प्रत्यय होता है। ‘ड्यत्' में 'य' शेष रहता है। 'वामदेव + य' इस दशा में डित् होने से 'टेः' से टि संज्ञक 'अ' का लोप हो जाता है। 'वामदेव्य' की  प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वामदेव्यम्' रूप बनता है। 

इसी प्रकार ‘ड्य' प्रत्यय में 'य' शेष रहता है। शेष कार्य पूर्ववत् होकर 'वामदेव्यम्' रूप बनता है। 
१०४१ परिवृतो रथः
अस्‍मिन्नर्थेऽण् प्रत्‍ययो भवति । वस्‍त्रेण परिवृतो वास्‍त्रो रथः ।।
‘उससे ढका हुआ रथ' इस अर्थ में तृतीयान्त से अण् प्रत्यय होता है। 
'अण्' में 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'अ' शेष रहता है।
वास्त्रो रथः- वस्त्रेण परिवृतः रथः (वस्त्र से ढका हुआ रथ)-इस विग्रह में तृतीयान्त समर्थ 'वस्त्र' शब्द से ‘परिवृतो रथः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' के 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप हुआ। वस्त्र + अ' हुआ। इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से 'अ' को आदिवृद्धि 'आ' हुआ। वास्त्र अ हुआ। 'यस्येति च' से वास्त्र के अन्त्य 'अ' का लोप, वर्ण सम्मेलन, वास्त्र की प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वास्त्रः' रूप बनता है। 
१०४२ तत्रोद्धृतममत्रेभ्‍यः
शरावे उद्धृतः शाराव ओदनः ।।
'उसमें निकालकर रखा हुआ' इस अर्थ में सप्तम्यन्त अमत्र (पात्र) वाचक शब्द से 'अण्' प्रत्यय होता है।
'अमत्र' भाजनं पात्रमुच्यते'-काशिका। 'अमत्र' शब्द का अर्थ ‘पात्र' है । 'अण्' प्रत्यय में 'अ' शेष रहता है। 
शारावः ओदनः- शरावे उद्धृतः ओदनः (सिकोरे या तस्तरी में निकालकर  रक्खा गया भात)-इस विग्रह में सप्तम्यन्त पात्रवाचक शराव' शब्द से तत्रोद्धृतममत्रेभ्यः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। ‘अण्' में 'अ' शेप रहता है। शराव + अ इस दशा में तद्धितेष्वचामादेः' से 'अ' की आदिवृद्धि 'आ', 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शारावः' रूप बनता है। 
१०४३ संस्‍कृतं भक्षाः
सप्‍तम्‍यन्‍तादण् स्‍यात्‍संस्‍कृतेऽर्थे यत्‍संस्‍कृतं भक्षाश्‍चेत्ते स्‍युः । भ्राष्‍ट्रेषु संस्‍कृता भ्राष्‍ट्रा यवाः ।।
सप्तम्यन्त से संस्कृत (पकाया या भुना) अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है, यदि संस्कृत पदार्थ खाने की वस्तु हो तो।
भ्राष्ट्रा यवाः- भ्राष्ट्रेषु संस्कृताः (यवाः) (भाड़ में भुने हुए जौ)–यहाँ 'उसमें संस्कृत हुए' इस अर्थ में सप्तम्यन्त समर्थ 'भ्राष्ट' शब्द से 'संस्कृतं भक्षाः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'अ' शेष रहता है। 'भ्राष्ट्र + अ' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि', 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भ्राष्ट्राः' रूप बनता है। 
१०४४ साऽस्‍य देवता
इन्‍द्रो देवताऽस्‍येति ऐन्‍द्रं हविः । पाशुपतम् । बार्हस्‍पत्‍यम् ।।
वह इसका देवता है' इस अर्थ में प्रथमान्त देवतावाचक शब्द से 'अण्' आदि प्रत्यय होता है। 
आदि पद से 'अण्' से भिन्न ‘ण्य' आदि प्रत्ययों को समझना चाहिए। 
ऐन्द्रं हविः- इन्द्रो देवताऽस्येति (इन्द्र है देवता जिसका वह हवि) यहाँ प्रथमान्त समर्थ देवतावाचक ‘इन्द्र' शब्द से ‘साऽस्य देवता' से 'अण्' प्रत्यय होता है। अण् में 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर अ शेष बचा। 'इन्द्र + अ' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से 'इ' को आदिवृद्धि ऐ', 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ऐन्द्रम् रूप बना।
पाशुपतम्- पशुपतिः देवता अस्य (इसका देवता पशुपति है)-इस अर्थ में 'पशुपति' शब्द से 'साऽस्य देवता' इस सूत्र के विधान से ‘अश्वपत्यादिभ्यश्च' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' के 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप, ‘पशुपति + अ' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य इकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पाशुपतम्' रूप बनता है। 

बार्हस्पत्यम्- बृहस्पतिः देवता अस्य (इसका देवता बृहस्पति है)-इस अर्थ में बृहस्पति शब्द से 'साऽस्य देवता' के विधान से 'दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः' से ‘ण्य' प्रत्यय होता है। ‘ण्य' में 'य' शेष रहता है। 'बृहस्पति + य' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से  'ऋ' को आदिवृद्धि आर्, 'यस्येति च' से बृहस्पति के अन्त्य 'इ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'बार्हस्पत्यम्' रूप बनता है। 
१०४५ शुक्राद्घन्
शुक्रियम् ।।
शुक्र शब्द से 'वह इसका देवता है' इस अर्थ में 'घन्' प्रत्यय होता है।
'घन्' में 'न्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है। 'घ' शेष रहता है। 'घन्' प्रत्यय 'अण्' का अपवाद है। 
शुक्रियम्- शुक्रो देवता अस्य (इसका देवता शुक्र है)-इस अर्थ में 'शुक्र' शब्द से 'शुक्राद्घन्' से 'घन्' प्रत्यय होता है। ‘न्' की इत्संज्ञा तथा लोप घ शेष बचा। 'शुक्र + घ' इस दशा में 'आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'घ' को 'इय' आदेश होता है। 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, शुक्र + इय + शुक्रिय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शुक्रियम्' रूप बनता है। 
१०४६ सोमाट्ट्यण्
सौम्‍यम् ।।
सोम शब्द से 'वह इसका देवता है' इस अर्थ में 'ट्यण्' प्रत्यय होता है।
'ट्यण्' में 'ट्' तथा 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है, केवल 'य' शेष रहता है। 
सौम्यम्- सोमो देवता अस्य (इसका देवता सोम है) इस अर्थ में ‘सोम' शब्द से ‘सोमाट्यण' से 'ट्यण्' प्रत्यय होता है। 'ट्यण्' के 'ट' तथा 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप हुआ। ‘सोम + य' बना। इस दशा में तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, अन्त्य अकार लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सौम्यम्' रूप बनता है। 
१०४७ वाय्‍वृतुपित्रुषसो यत्
वायव्‍यम् । ऋतव्‍यम् ।।
वायव्‍यम् - वायुः देवता अस्य (इसका देवता वायु है)-इस अर्थ में 'वायु' शब्द से 'वाय्वृतुपित्रुषसो यत्' से 'यत्' प्रत्यय होता है। 'यत्' में 'य' शेष रहता है। 'वायु + य' इस दशा में 'ओर्गुणः' से वायु के 'उ' को गुण 'ओ' हुआ। वायो + य बना। 'वान्तो यि प्रत्यये' से 'ओ' को अव् आदेश, वाय् + अव् + य = वायव्य बना। वायव्य की प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादि कार्य होकर 'वायव्यम्' रूप बनता है। 
ऋतव्यम्- ऋतुः देवता अस्य (इसका देवता ऋतु है) इस अर्थ में 'ऋतु' शब्द से 'वाय्वृतुपित्रुषसो यत्' से 'यत्' प्रत्यय होता है। ‘यत्' में 'य' शेष रहता है। ऋतु + य' इस दशा में 'ओर्गुणः' से ऋतु के 'उ', को गुण 'ओ' होकर ऋतो + य हुआ। 'वान्तो यि प्रत्यये' से ऋतो के 'ओ' को 'अव्' आदेश होकर 'ऋतव्य' बना। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ऋतव्यम्' रूप बना। 
१०४८ रीङ् ऋतः
अकृद्यकारे असार्वधातुके यकारे च्‍वौ च परे ऋदन्‍ताङ्गस्‍य रीङादेशः । यस्‍येति च । पित्र्यम् । उषस्‍यम् ।।
कृत् तथा सार्वधातुक से भिन्न यकार और च्वि प्रत्यय परे रहने पर ऋदन्त अङ्ग (ऋकारान्त शब्द के ऋ) को रीङ् (री) आदेश होता है। 
'रीङ्' में 'री' शेष रहता है। अन्त्य 'ऋ' को ही 'री' आदेश होता है तथा 'यस्येति च' से री के 'ई' का लोप हो जाता है। 

पित्र्यम्- पितरो देवता अस्य (इसके देवता पितृगण हैं)-अर्थ में 'पितृ' शब्द से 'वाय्वृतुपित्रुषसो यत्' से 'यत्' प्रत्यय होता है। 'यत्' में 'य' शेष रहता है। 'पितृ + य' इस दशा में 'रीङ् ऋतः' से 'ऋ' को रीङ् (री) आदेश होता है। 'पित् + री+ य' इस स्थिति में 'यस्येति च' ‘से री के 'ई' का लोप हुआ। पित् + र् + य = पित्र्य बना, इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पित्र्यम्' रूप बनता है।
उषस्यम्- उषा देवता अस्य (इसका देवता उषा है)-इस अर्थ में 'उपस्' शब्द से 'वाय्वृतुपित्रुषसो यत्' से 'यत्' प्रत्यय होता है। 'यत् में य शेष रहता है। उषस् + य - उषस्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'उषस्यम्' रूप बनता है।
१०४९ पितृव्‍यमातुलमातामहपितामहाः
एते निपात्‍यन्‍ते । पितुर्भ्राता पितृव्‍यः । मातुर्भ्राता मातुलः । मातुः पिता मातामहः । पितुः पिता पितामहः ।।
पितृव्य, मातुल, मातामह, पितामह-ये शब्द निपातन से सिद्ध होते हैं।
पितृव्यः- पितृभ्राता (पिता का भाई, चाचा)- इस अर्थ में 'पितृ' शब्द से 'पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः' से 'व्यत्' प्रत्यय का निपातन होता है। 'व्यत्' में 'व्य' शेष रहता है। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पितृव्यः' रूप बनता है। 
मातुलः- मातुः भ्राता (माता का भाई, मामा)-इस अर्थ में 'मातृ' शब्द से 'पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः' से 'डुलच्' प्रत्यय का निपातन होता है। 'ड' तथा 'च्’ की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर मातृ + उल' हुआ। इस दशा में डित्त्व के सामर्थ्य से 'टेः' से टि संज्ञक  'ऋ' का लोप मात् + उल + मातुल बना। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मातुलः' रूप बनता है। 
मातामहः- मातुः पिता (माता का पिता, नाना)-इस अर्थ में 'मातृ' शब्द से 'पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः' से 'डामहच्' प्रत्यय का निपातन होता है। ‘डामहच्' में आमह शेष रहता हैं। डित्त्व के सामर्थ्य से 'टेः' से 'ऋ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मातामहः' रूप बनता है। 

पितामहः- पितुः पिता (पिता का पिता, बाबा)-इस अर्थ में 'पितृ' शब्द से पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः' से 'डामहच्' प्रत्यय का निपातन होता है। ‘डामहच्' में ‘आमह' शेष रहता है। डित्त्व के सामर्थ्य से 'टेः' से 'ऋ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पितामहः' रूप बनता है।
विशेष- जहाँ सूत्र में सिद्ध रूपों को पढ़ दिया जाता है और उनमें उनकी आवश्यकतानुसार प्रत्ययों की कल्पना कर ली जाती है, वहाँ निपातन से कार्य किया गया माना जाता है। इस प्रकार निपातन शब्द पाणिनीय व्याकरण का पारिभाषिक शब्द है। पितृव्य आदि इसके उदाहरण हैं। 
१०५० तस्‍य समूहः
काकानां समूहः काकम् ।।
षष्ठ्यन्त पद से (उसका) समूह अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है। 
काकम्- 'काकानां समूहः (कौओं का समूह) इस अर्थ में 'काक शब्द से 'तस्य समूहः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'अ' शेष रहता है। 'काक + अ इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से काक में आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'काकम्' रूप बनता है। 
इसी प्रकार बकानां समूहः इस अर्थ में 'बक' शब्द से 'बाकम्' बनता है। 
१०५१ भिक्षादिभ्‍योऽण्
भिक्षाणां समूहो भैक्षम् । गर्भिणीनां समूहो गार्भिणम् । इह 
षष्ठ्यन्त समर्थ पद से भिक्षा आदि शब्दों से समूह अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है।
भैक्षम्- भिक्षाणां समूहः (भिक्षा का समूह)-इस अर्थ में 'भिक्षा' शब्द से 'भिक्षादिभ्योऽण्' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'अ' शेष रहता है। 'भिक्षा + अ' इस दशा में तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि 'इ' को 'ऐ', 'यस्येति च' से अन्त्य 'आ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भैक्षम्' रूप बनता है। 
गार्भिणम्- गर्भिणीनां समूहः (गर्भिणियों का समूह)-इस अर्थ में 'गर्भिणी' शब्द से 'भिक्षादिभ्योऽण्' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'अ' शेष रहता है। ‘गर्भिणी + अ' इस दशा में 'भस्याढे तद्धिते' से गर्भिणी शब्द को पुंवद्भाव होता है। तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि होकर 'गार्भिन् + अ' बनता है। यहाँ 'नस्तद्धिते' से टि लोप (अन् का लोप) प्राप्त होता है, जिसे बाधकर 'इनण्यनपत्ये' से प्रकृतिभाव हो जाता है। गार्भिन् के नकार को णकार, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'गार्भिणम्' रूप सिद्ध होता है। 
विशेष-
भिक्षा अचित्त अर्थात् चित्तहीन है अतः उससे 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' 4। 2। 47।। से ठक् प्रत्यय होता है। गर्भिणी शब्द 'ङी' प्रत्ययान्त होने के कारण अन्तोदात्त होने से अनुदात्तादि है इसलिए उससे अनुदात्तादेरञ् 41 2 1 44 ।। से अञ् प्रत्यय प्राप्त होता है। प्रस्तुत सूत्र उन दोनों को बाधकर 'अण्' प्रत्यय का विधान करता है। 
यचि भम् से भसंज्ञा- सु, औ, जस्, अम्, औट्-इन सर्वनामस्थानसंज्ञक प्रत्ययों को छोड़कर 'सु' से लेकर 'कप्' प्रत्यय पर्यन्त यकारादि और अजादि प्रत्यय परे होने पर पूर्व की भसंज्ञा होती है । मत्वर्थ प्रत्यय पर होने पर तसौ मत्वर्थ से तकारान्त शब्द की भसंज्ञा होती है । 
(भस्‍याढे तद्धिते) । इति पुंवद्भावे कृते –
भस्येति-'ढ' से भिन्न तद्धित प्रत्यय परे होने पर भसंज्ञक को पुंवद्भाव होता है। जैसे-'गर्भिणी + अ' को पुंवद्भाव होकर 'गर्भिन् + अ' होता है।

१०५२ इनण्‍यनपत्‍ये
अनपत्‍यार्थेऽणि परे इन् प्रकृत्‍या स्‍यात् । तेन नस्‍तद्धित इति टिलोपो न । युवतीनां समूहो यौवनम् ।।
अपत्य अर्थ से भिन्न (अर्थ में) 'अण्' प्रत्यय परे होने पर 'इन्' को प्रकृतिभाव होता है। 
तेनेति- इस कारण से 'नस्तद्धिते' से टि का लोप नहीं होता है। यहाँ 'अण्' प्रत्यय का विधान अपत्य अर्थ से भिन्न समूह अर्थ में हुआ है। 
यौवनम्- युवतीनां समूहः (युवतियों का समूह) - इस अर्थ में 'युवति' शब्द से 'भिक्षादिभ्योऽण्' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'अ' शेष रहता है। 'युवति + अ' इस दशा में 'भस्याढे तद्धिते' इस वार्तिक से 'युवती' को पुंवद्-भाव होकर 'युवन्' हो जाता है। 'युवन् + अ' इस स्थिति में 'नस्तद्धिते' से टि लोप प्राप्त होता है 'अन्' से प्रकृतिभाव हो जाता है। 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यौवनम्' रूप सिद्ध होता है। 

यौवतम्– 'युवन्' शब्द से 'यूनस्तिः' से ति प्रत्यय से निष्पन्न 'युवति' शब्द के अभाव पक्ष में 'यु' धातु से शतृ प्रत्यय, उवङ् तथा 'उगितश्च' से ङीप् प्रत्यय होकर 'युवती' शब्द बनता है। 'युवती' शब्द से 'अनुदात्तादेरञ्' से 'अञ्' प्रत्यय, 'भस्याढे तद्धिते' से 'युवती' को पुंवद्भाव होकर 'युवत्' हो जाता है। आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘यौवतम्' रूप बनता है। 
१०५३ ग्रामजनबन्‍धुभ्‍यस्‍तल्
तलन्‍तं स्‍त्रियाम् । ग्रमता । जनता । बन्‍धुता ।
ग्राम, जन और बन्धु शब्दों से समूह अर्थ में 'तल्' प्रत्यय होता है। 
'तल्' में 'ल्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'त' शेष रहता है। 
तलन्तमिति- तल् प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं। स्त्रीत्व के बोधन के लिए टाप् (आ) प्रत्यय लगाकर शब्द आकारान्त हो जाता है।। 
ग्रामता- ग्रामाणां समूहः (ग्रामों का समूह)-इस अर्थ में 'ग्राम' शब्द से "ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल्' से 'तल्' प्रत्यय होता है। 'ल्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'त' शेष रहता है। ग्राम + त' इस स्थिति में 'तलन्तं स्त्रियाम्' के विधान से स्त्रीत्वबोधक ‘टाप्' प्रत्यय होता है। ‘टाप्' में 'आ' शेष रहता है। 'ग्राम + त + आ' इस दशा में सवर्णदीर्घ तथा स्वादिकार्य होकर 'ग्रामता' रूप बनता है। जनता-जनानां समूहः (लोगों का समूह)-इस अर्थ में 'जन' शब्द से । 'ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल्' से तल् प्रत्यय, 'ल' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'जन + त' यह स्थिति हुई, अब यहाँ स्त्रीत्वबोधक ‘टाप्' प्रत्यय, सवर्णदीर्घ, प्रातिपदिक-संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'जनता' रूप सिद्ध होता है। 
बन्धुता- बन्धूनां समूहः (बन्धुओं का समूह)-इस अर्थ में 'बन्धु' शब्द से 'ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल्' से तल् प्रत्यय, 'ल्' की इत्संज्ञा तथा लोप, स्त्रीत्वबोधक ‘टाप्' (आ) प्रत्यय, सवर्णदीर्घ तथा स्वादिकार्य होकर 'बन्धुता' रूप सिद्ध होता है। 

(गजसहायाभ्‍यां चेति वक्तव्‍यम्) । गजता । सहायता ।
गज और सहाय शब्दों से भी समूह अर्थ में 'तल्' प्रत्यय होता है।
गजता- गजानां समूहः (हाथियों का समूह)-इस अर्थ में 'गज' शब्द से 'गजसहायाभ्यां चेति वक्तव्यम्' से तल् प्रत्यय होता है। 'तल्' में 'ल्' की इत्संज्ञा तथा लोप, ‘गज + त' इस स्थिति में स्त्रीत्वबोधक टाप् प्रत्यय, टा में आ शेष बचा । गज + आ में सवर्णदीर्घ तथा स्वादिकार्य होकर ‘गजता' रूप सिद्ध होता है। 
सहायता- सहायानां समूहः (सहायकों का समूह)-इस अर्थ में 'सहाय' शब्द से 'गजसहायाभ्यां चेति वक्तव्यम्' से 'तल्' प्रत्यय, 'ल्' की इत्संज्ञा तथा लोप, स्त्रीबोधक टाप् (आ) प्रत्यय, सवर्णदीर्घ तथा स्वादिकार्य होकर ‘सहायता' रूप बनता है। 
(अह्‍नः खः क्रतौ) । अहीनः ।।
अहन्' शब्द से समूह अर्थ में 'ख' प्रत्यय होता है यदि क्रतु (यज्ञ) वाच्य हो। 

अहीनः- अह्नां समूहेन साध्यः क्रतुः (दिन के समूह में अर्थात् अनेक दिनों में किया जाने वाला यज्ञ)-इस अर्थ में 'अहन्' शब्द से 'अह्नः खः क्रतौ' से 'ख' प्रत्यय हुआ। 'अहन् + ख' इस दशा में 'आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'ख' को 'ईन' आदेश होकर 'अहन् + ईन हुआ। अहन् के अन् भाग का लोप, अह् + ईन् = 'अहीन', प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अहीनः' रूप सिद्ध होता है। 
१०५४ अचित्तहस्‍तिधेनोष्‍ठक्
अचेतनवाची (अर्थात् चित्तरहित के वाचक), हस्तिन् तथा धेनु शब्द से समूह अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय होता है। 
'चित्त' चेतन प्राणियों में ही रहता है, अतएव 'अचित्त' शब्द से चेतनरहित ही लिए जाएंगे।

१०५५ इसुसुक्तान्‍तात्‍कः
इस् उस् उक्तान्‍तात्‍परस्‍य ठस्‍य कः । साक्तुकम् । हास्‍तिकम् । धैनुकम् ।।
इस्, उस्, उक् और 'त्' अन्त वाले शब्दों से परे (आगे) 'ठ' को 'क' हो जाता है। 
 यह सूत्र 'ठस्येकः' सूत्र से होने वाले 'ठ' के 'इक' का बाधक है। सूत्र में स्थित 'उक्' प्रत्याहार है। इसमें उ, ऋ, लृ-ये तीन वर्ण आते हैं।
साक्तुकम्- सक्तूनां समूहः (सत्तुओं का समूह)- इस अर्थ में अचित्तवाची 'सक्तु' शब्द से 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'ठक्' के 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो गया। 'सक्तु + ठ' इस स्थिति में उकारान्त 'सक्तु' शब्द के कारण 'इसुसुक्तान्तात् कः' से 'ठ' को 'क' हो जाता है। 'सक्तु + क' इस दशा में 'किति च' से आदिवृद्धि होने पर साक्तु + क हुआ। साक्तुक की प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'साक्तुकम्' रूप सिद्ध होता है। 
हास्तिकम्- हस्तिनां समूहः (हाथियों का समूह)-इस अर्थ में 'हस्तिन्' शब्द से 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप। 'हस्तिन् + ठ' इस दशा में 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' हो जाता है। 'हस्तिन् + इक' इस स्थिति में 'नस्तद्धिते' से टि संज्ञक इन्  का लोप, 'किति च' से आदिवृद्धि हास्त् + इक = हास्तिक हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'हास्तिकम्' रूप सिद्ध होता है। 

धेनुकम्- धेनूनां समूहः (धेनुओं का समूह)-इस अर्थ में 'धेनु' शब्द से 'अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप । धेनु + ठ' इस स्थिति में ठगन्त होने के कारण 'इसुसुक्तान्तात् कः' से 'ठ' को 'क', 'किति च' से आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'धेनुकम्' रूप बनता है। 
१०५६ तदधीते तद्वेद
द्वितीयान्त से 'उसे पढ़ता है या उसे जानता है' इस अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 
१०५७ न य्‍वाभ्‍याम् पदान्‍ताभ्‍यां पूर्वौ तु ताभ्‍यामैच्
पदान्‍ताभ्‍यां यकारवकाराभ्‍यां परस्‍य न वृद्धिः किंतु ताभ्‍यां पूर्वौ क्रमादैजावागमौ स्‍तः। व्‍याकरणमधीते वेद वा वैयाकरणः ।।
पदान्त 'य' और 'व' से परे स्वर को वृद्धि नहीं होती है, अपितु उनसे पहले 'ऐ' और 'औ' का आगम होता है। 
वैयाकरणः- व्याकरणमधीते वेद वा (व्याकरण को पढ़ता है या जानता है)-इस विग्रह में 'व्याकरण' शब्द से 'तदधीते 'तद्वेद' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'अण्' में 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर व्याकरण + अ हुआ। इस स्थिति में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि प्राप्त होती है परन्तु 'न यवाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्' उस आदिवृद्धि को बाधकर 'य्' से पहले 'ऐ' का आगम कर देता है। 'व् + ऐ + याकरण + अ हुआ। वर्ण सम्मेलन करने पर  वैयाकरण + अ' इस स्थिति में 'यस्येति च' से वैयाकरण के अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वैयाकरणः' रूप सिद्ध होता है। 
१०५८ क्रमादिभ्‍यो वुन्
क्रमकः । पदकः । शिक्षकः । मीमांसकः ।।
क्रम आदि शब्दों से ‘उसे पढ़ता है या जानता है' इस अर्थ में 'वुन्' प्रत्यय होता है। 
क्रमकः- क्रममधीते वेद वा (क्रम पाठ को पढ़ता है या जानता है) इस विग्रह में 'क्रम' शब्द से 'क्रमादिभ्यो वुन्' से 'वुन्' प्रत्यय होता है। 'वुन्' के 'न्' की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर 'क्रम + वु' बना। इस दशा में 'युवोरनाको' से 'वु' को अक हो जाता है। ‘क्रम + अक' इस स्थिति में 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'क्रमकः' रूप सिद्ध होता है। 
पदकः- पदमधीते वेद वा (पदपाठ को पढ़ता है या जानता है) इस विग्रह में 'पद' शब्द से 'क्रमादिभ्यो वुन्' से वुन् प्रत्यय, वुन् के ‘न्' का लोप पद + वु हुआ। 'युवोरनाकौ' से 'वु' को 'अक', 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पदकः' रूप बनता है। 
शिक्षकः- शिक्षामधीते वेद वा (शिक्षा को पढ़ता है या जानता है) इस विग्रह में 'शिक्षा' शब्द से 'क्रमादिभ्यो वुन्' से 'वुन्' प्रत्यय, 'न्' का लोप, “युवोरनाको' से 'वु' को ‘अक', 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शिक्षकः रूप बनता है। 
मीमांसकः- मीमांसामधीते वेद वा (मीमांसा का पढ़ता है या जानता है)-इस विग्रह में 'मीमांसा' शब्द से 'क्रमादिभ्यो वुन् स वुन् प्रत्यय, 'न्' का लोप, 'युवोरनाको' से 'वु' को 'अक', 'यस्येति च' स अन्त्य 'आ' का लोप मीमांसक बना।प्रातिपदिकसंज्ञा तथा सु विभक्ति, रुत्व, विसर्ग होकर मीमांसकः रूप बनता है। 


इति रक्ताद्यर्थकाः ।। ३ ।।
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