लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते चातुरर्थिकाः)

 अथ चातुरर्थिकाः

१०५९ तदस्‍मिन्नस्‍तीति देशे तन्नाम्‍नि

उदुम्‍बराः सन्‍त्‍यस्‍मिन्‍देशे औदुम्‍बरो देशः ।।

'वह वस्तु है' इस अर्थ में प्रथमान्त समर्थ शब्द से 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं, यदि प्रत्ययान्त शब्द देश का नाम है।

चातुरर्थिकाः- इस प्रकरण में चार अर्थों में प्रत्यय कहे गए हैं, इसीलिए इसे चातुरर्थिक कहते हैं। चार अर्थ ये हैं-1. तदस्मिन्नस्ति (वह वस्तु इसमें है), 2. तेन निर्वृत्तम् (उसने बनाया), 3. तस्य निवासः (उसका निवास), 4. अदूरभवः (उससे दूर न होने वाला)।

 

औदुम्बरो देशः- उदुम्बराः सन्ति अस्मिन् देशे (गूलर हैं इस देश में)-इस विग्रह में 'उदुम्बर' शब्द से 'तदस्मिन्नस्तीति देशे तन्नाम्नि' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप। 'उदुम्बर + अ' इस स्थिति में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से उदुम्बर के अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'औदुम्बरः' रूप सिद्ध होता है।

१०६० तेन निर्वृत्तम्

कुशाम्‍बेन निर्वृत्ता नगरी कौशाम्‍बी ।।

'उसने बसाया या बनाया' इस अर्थ में तृतीयान्त शब्द से 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं।

कौशाम्बी-कुशाम्बेन निवृत्ता नगरी (कुशाम्ब के द्वारा बसाई गई नगरी)-इस विग्रह में 'कुशाम्ब' शब्द से 'तेन निवृत्तम्' से 'अण्' प्रत्यय, णकार लोप। 'कुशाम्ब अ इस दशा में तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप, स्त्रीत्वबोधक ङीप् (ई) प्रत्यय तथा स्वादिकार्य होकर 'कौशाम्बी' रूप बनता है।

१०६१ तस्‍य निवासः

शिबीनां निवासो देशः शैबः ।।

'उसका निवास' इस अर्थ में षष्ठ्यन्त शब्द से अण् आदि प्रत्यय होते हैं।

शैवः- शिबीनां निवासो देशः इस विग्रह में 'शिवि' शब्द से 'तस्य निवासः' ने 'अण्' प्रत्यय, णकार का लोप। शिवि + अ इस स्थिति में तद्धितेप्वचामादेः से आदिवृद्धि 'इ को ए', 'यस्यति च' से अन्य '' का लोप, शैव् अ = शैवः हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर शैवः'रूप सिद्ध होता है।

१०६२ अदूरभवश्‍च

विदिशाया अदूरभवं नगरं वैदिशम् ।।

अदूरभव (दूर न होना) अर्थ में षष्ठ्यन्त शब्द से 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं।

वैदिशम्- विदिशाया अदूरभवं नगरम् (विदिशा के समीप का नगर)-इस विग्रह में 'विदिशा' शब्द से 'अदूरभवश्च' से 'अण्' प्रत्यय, णकारलोप। विदिशा + अ इस स्थिति में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य आकार का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वैदिशम्' रूप सिद्ध होता है।

१०६३ जनपदे लुप्

जनपदे वाच्‍ये चातुरर्थिकस्‍य लुप् ।।

जनपद (देशविशेष) के वाच्य होने पर चातुरर्थिक प्रत्यय का लोप हो जाता है।

१०६४ लुपि युक्तवद्व्‍यक्तिवचने

लुपि सति प्रकृतिवल्‍लिङ्गवचने स्‍तः । पञ्चालानां निवासो जनपदः पञ्चालाः। कुरवः । अङ्गाः। वङ्गाः । कलिङ्गाः ।।

सूत्र में स्थित युक्त शब्द का अर्थ प्रकृति (मूल-शब्द) तथा व्यक्ति का अर्थ लिंग है। किसी भी शब्द से प्रत्यय का लोप हो जाने पर उसके लिंग तथा वचन प्रकृति (मूलशब्द) के समान होंगे।

पञ्चालाः- पञ्चालानां निवासो जनपदः (पञ्चाल लोगों का निवास जनपद) इस विग्रह में 'पञ्चाल' शब्द से 'तस्य निवासः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। यहाँ निवास जनपद है अतएव 'जनपदे लुप्' से 'अण्' का लोप हो जाता है।

पञ्चाल एक जनपद का नाम है। इसलिए उससे एकवचन प्राप्त होता है परन्तु 'लुपि युक्तवद् व्यक्तिवचने से क्षत्रिय वाचक पञ्चाल' शब्द अपनी प्रकृति के समान पुल्लिङ्ग तथा बहुवचन में रहता है।

कुरवः- कुरूणां निवासो जनपदः (कुरु लोगों का निवास जनपद) इस विग्रह में 'कुरु' शब्द से तस्य निवासः' से 'अण्' प्रत्यय, 'जनपदे लुप्' से 'अण्' का लोप, 'लुपि युक्तवद्व्यक्तिवचने' से पुँल्लिङ्ग तथा बहुवचन हुआ।

 

कलिङ्गाः- कलिङ्गानां निवासो जनपदः (कलिङ्ग लोगों का निवास जनपद) इस विग्रह में कलिङ्ग' शब्द से 'तस्य निवासः' से 'अण्' प्रत्यय 'जनपदे लुप्' से 'अण्' का लोप, 'लुपि युक्तवद् व्यक्तिवचने' से पुँल्लिङ्ग तथा बहुवचन होकर कलिङ्गाः बना।

१०६५ वरणादिभ्‍यश्‍च

अजनपदार्थ आरम्‍भः । वरणानामदूरभवं नगरं वरणाः ।।

वरणा आदि शब्दों से परे चातुरर्थिक प्रत्यय का लोप होता है।

अजनपदार्थ इति- जनपद से भिन्न अर्थ में लोप करने के लिए प्रकृत सूत्र प्रस्तुत किया गया है। जनपद अर्थ में तो पूर्व सूत्र (जनपदे लुप्) से ही लोप होगा।

 

वरणाः- वरणानामदूरभवं नगरम् (वरणा के समीप वाला नगर)-इस विग्रह में 'अदूरभवश्च' से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'वरणादिभ्यश्च' से 'अण्' का लोप हो जाता है। 'लुपि युक्तवद् व्यक्तिवचने' से प्रकृति के समान लिंग तथा वचन होने से वरणाः' रूप सिद्ध होता है।

१०६६ कुमुदनडवेतसेभ्‍यो ड्मतुप्

कुमुद, नड और वेतस शब्दों से 'तद् अस्मिन् अस्ति' इस अर्थ में ड्मतुप' प्रत्यय होता है, यदि प्रत्ययान्त शब्द देश का वाचक हो तो।

 'ड्मतुप्' प्रत्यय में 'मत्' शेष रहता है। शेष भाग का लोप हो जाता है। डित् होने से इसके परे होने पर टि का लोप हो जाता है।

१०६७ झयः

झयन्‍तान्‍मतोर्मस्‍य वः । कुमुद्वान् । नड्वान् ।।

झय् अन्त वाले शब्द के बाद मतु' के 'म्' को 'व्' आदेश हो जाता है।

कुमुद्वान्-  कुमुदाः सन्ति अस्मिन् देशे (कुमुद होते हैं इस देश में) इस विग्रह में 'कुमुद' शब्द से 'कुमुदनडवेतसम्यो डमतुप' से 'ड्मतुपु' प्रत्यय होता है। ड्मुतप् में 'मत्' शेष रहता है। 'कुमद मत्' इस दशा में डित् होने से 'टेः' से '' का लोप, 'झयः' से 'मत्' के मकार को वकार होकर 'कुमुदत्' बनता है। प्रथमा के एकवचन में 'कुमुद्वान्' बनता है।

 

नड्वान्- नडाः सन्ति अस्मिन् देशे (नरकुल होते हैं इस देश में)-इस विग्रह में 'नड' शब्द से 'कुमुदनडवेतसेभ्यो ड्मतुप्' से ड्रमतुप् प्रत्यय, 'ड्मतुप्' में 'मत्' शेष रहता है। डित् होने से 'टे:' से '' का लोप, ‘झयः' से मकार को वकार, प्रथमा के एकवचन में 'नड्वान्' रूप बनता है।

१०६८ मादुपधायाश्‍च मतोर्वोऽयवादिभ्‍यः

मवर्णावर्णान्‍तान्‍मवर्णावर्णोपधाच्‍च यवादिवर्जितात्‍परस्‍य मतोर्मस्‍य वः । वेतस्‍वान् ।।

म् और अ अन्त में हों या म् और अ उपधा में हों तो 'मतुप' के '' को व्' हो जाता है परन्तु यव आदि के बाद में '' को '' नहीं होता है।

वेतस्वान्- वेतसाः सन्ति अस्मिन् देशे (इस देश में वेंत अधिक होते हैं)-इस विग्रह में वेतस' शब्द से 'कुमुदनडवेतसेभ्यो ड्मतुप्' से ड्मतुप् प्रत्यय, 'ड्मतुप्' में 'मत्' शेष रहता है। डित् होने से '' का लोप, अवर्णोपध होने से 'मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः' से मकार को वकार होकर वेतस्वत्' रूप बनता है। प्रथमा के एकवचन में 'वेतस्वान्' बनता है।

 

विशेष - अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा से अन्त्य अल्' से पूर्व वर्ण की उपधासंज्ञा होती है । इस सूत्र के उदाहरण - मवर्णान्त-किंवान्। अवर्णान्त-ज्ञानवान् । मवर्णोपध-लक्ष्मीवान् । अवर्णोपध-वेतस्वान् । यवादिगण में ये शब्द आते हैं-यव दल्मि ऊर्मि भूमि रुत् गरुत् इक्षु द्रु मधु इति यवादिः। यह आकृतिगण है।

१०६९ नडशादाड्ड्वलच्

नड्वलः । शाद्वलः ।।

नड और शाद शब्दों से तदस्मिन् अस्ति देशे' इस अर्थ में ड्वलच् प्रत्यय होता है।

ड्वलच्' में वल प्रत्यय शेष रहता है।

नड्वलः- नडाः सन्ति अस्मिन् देशे (जिस देश में नड अधिक होते हैं) इस विग्रह में नड' शब्द से 'नडशादाड् ड्वलच' से 'ड्वलच्' प्रत्यय होता है। ड्वलच्' में 'वल' शेष रहता है। डित् होने से 'टेः' से टि (अ) का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'नड्वलः' रूप सिद्ध होता है।

 

शाद्वलः- शादाः सन्ति अस्मिन् देशे (जिस देश में हरी घास अधिक होती है) इस विग्रह में 'शाद' शब्द से नड्शादाड् ड्वलच्' से 'ड्वलच्' प्रत्यय होता है। 'ड्वलच्' में 'वल' शेष रहता है। डित् होने से 'टेः' से '' (टि) का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शाद्वलः' रूप बनता है।

१०७० शिखाया वलच्

शिखावलः ।।

शिखा शब्द से 'तद् अस्मिन् अस्ति' इस अर्थ में वलच्' प्रत्यय होता है।

'वलच्' के 'च्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर वल' शेष रहता है।

शिखावलः- शिखाः सन्ति अस्मिन् देशे (जिस देश में शिखा अधिक हों)-इस विग्रह में 'शिखा' शब्द से 'शिखाया वलच्' से 'वलच्' प्रत्यय होता है। च्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर वल' शेष रहता है। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शिखावलः' रूप सिद्ध होता है।

इति चातुरर्थिकाः ।। ४ ।।
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