अथ हल् सन्धिः
६२ स्तोः श्चुना श्चुः
सकारतवर्गयोः शकारचवर्गाभ्यां योगे शकारचवर्गौ स्तः । रामश्शेते । रामश्चिनोति । सच्चित् । शार्ङ्गिञ्जयः।
सूत्रार्थ - सकार तथा तवर्ग का शकार तथा चवर्ग के साथ योग होने पर सकार के स्थान पर शकार तथा तवर्ग के स्थान पर चवर्ग हो।
विशेष-
सकार तथा तवर्ग का शकार तथा चवर्ग के साथ पूर्व या पर (पहले या बाद) में कहीं भी योग होने पर स् को श् तथा तवर्ग के स्थान पर यथासंख्य चवर्ग आदेश होगा। अर्थात् सकार तथा तवर्ग का शकार तथा चवर्ग के साथ योग होना चाहिए। यह योग किसी भी प्रकार से हो रहा हो। पहले सकार तथा तवर्ग आता हो या बाद में । दोनों स्थिति में शकार चवर्ग होगा।
स्थिति इस तरह होगी।
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स, त, थ, द, ध, न ↔ श, च, छ, ज, झ, ञ
अथवा
श, च, छ, ज, झ, ञ ↔ स, त, थ, द, ध, न
रामश्शेते । रामस् + शेते में स् के बाद शकार होने से स्तोः श्चुना श्चुः से स् को श् आदेश हुआ। रामश्शेते बना।आप वा शरि सूत्र के नियम से रामः शेते भी लिख सकते है। इसे हम विसर्ग सन्धि में पढ़ेंगे।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण-
रामश्चिनोति । रामस् + चिनोति में रामस् के स् के बाद चवर्ग का चकार बाद में होने के कारण स्तोः श्चुना श्चुः से स् को श् आदेश होकर रामश्चिनोति बना।
सच्चित् । सत् + चित् अस स्थिति में सत् के तकार को जश्त्व द् होकर सद् बनता है। इसके बाद दकार को श्चुत्व ज् हुआ। पुनः जकार को खरि च से चर्त्व च् होकर सच्चित् बना। प्रस्तुत उदाहरण में छात्र को दकार को स्तोः श्चुना श्चुः से श्चुत्व ज् होने की प्रक्रिया बतायी जाय।
शार्ङ्गिञ्जय । शार्ङ्गिन् + जय में न् के बाद चवर्ग का जकार बाद में होने से स्तोः श्चुना श्चुः से नकार को ञ् आदेश होकर शार्ङ्गिञ्जय बना।
विशेष-
सकार एवं तवर्ग में कुल 6 अक्षर हैं- स् त् थ् द् ध् न् । इन वर्णों के स्थान पर यथासंख्य नियम के अनुसार क्रमशः श् च् छ् ज् झ् ञ् आदेश होगा। अतः सकार के स्थान पर शकार, तकार के स्थान पर चकार, इसी प्रकार क्रमशः यथासंख्य आदेश होंगें। शात् सूत्र से ज्ञात होता है कि यह यथासंख्य नियम केवल आदेश में ही लागू होगा। स्थानी (सकार तथा तवर्ग का कोई वर्ण) या योग (शकार या चवर्ग) का कोई भी वर्ण पूर्व या पर में होने पर श्चुत्व हो जाता है।
श्चुत्व नियम का निषेध-
६३ शात्
शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।।
सूत्रार्थ - शकार से परे तवर्ग का शकार और चवर्ग नहीं हो।
विश्नः। विश् + न में शकार के बाद न (तवर्ग) होने पर स्तोः श्चुना श्चुः से न को श्चुत्व ञ् प्राप्त था, इस सूत्र से श्चुत्व का निषेध होकर विश्नः ही रह गया। इसी प्रकार प्रश्नः में भी।
इस निषेध सूत्र से ज्ञात होता है कि श् चवर्ग के पूर्व या बाद तवर्ग, स हो या स् तवर्ग के बाद श् या चवर्ग हो। दोनों ही स्थिति में श्चुत्व होगा। पूर्व या पर किसी भी स्थिति में होने पर श्चुत्व प्राप्त नहीं होता तो यह सूत्र निषेध नहीं करता।
६४ ष्टुना ष्टुः
स्तोः ष्टुना योगे ष्टुः स्यात् । रामष्षष्ठः । रामष्टीकते । पेष्टा । तट्टीका । चक्रिण्ढौकसे ।।
सूत्रार्थ - सकार तथा तवर्ग का षकार तथा टवर्ग के साथ योग होने पर सकार के स्थान पर षकार तथा तवर्ग के स्थान पर टवर्ग हो।
विशेष-
इस सूत्र में भी सकार और तवर्ग का षकार और टवर्ग के साथ यथासंख्य योग होने पर यथासंख्य कार्य का नियम लागू नहीं होता है।
रामस्+ षष्ठः में सकार तथा षकार का योग होने पर इस सूत्र से स् को ष् आदेश हुआ। रामष्षष्ठः रूप बना। इसी प्रकार
पेष् + ता में तकार को टकार आदेश होकर = पेष्टा
तत् + टीका में तकार को टकार आदेश होकर = तट्टीका
चक्रिन् + ढौकसे में नकार को णकार आदेश होकर = चक्रिण्ढौकसे रूप बनेगा।
६५ न पदान्ताट्टोरनाम्
पदान्ताट्टवर्गात्परस्यानामः स्तोः ष्टुर्न स्यात्। षट् सन्तः । षट् ते । पदान्तात्किम् ? ईट्टे । टोः किम् ? सर्पिष्टमम् ।
सूत्रार्थ - पदान्त टवर्ग से परे नाम भिन्न शब्द के सकार तथातवर्ग के स्थान पर ष्टुत्व नहीं हो।
षट् सन्तः । षड् + सन्तः में सकार को ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व प्राप्त था। षड् पद के बाद सकार होने से न पदान्तात् सूत्र से ष्टुत्व का बाध हो गया। षड् + सन्तः में डकार को खरि च से चर् (टकार) हो जाने पर षट् सन्तः रूप बनता है। इसी प्रकार षड् + ते में षड् पद के बाद तवर्ग ते होने से कारण इस सूत्र से ष्टुत्व का निषेध हो गया। डकार का चर्त्व टकार होकर षट् ते रूप बना।
आचार्य पाणिनि के सूत्रों में किये गये प्रत्येक अनुबन्धों की समीक्षा कर उसकी उपयोगिता बताते हैं। न पदान्तात् सूत्र में पदान्त ग्रहण क्यों किया गया? उत्तर देते हैं- इट् + ते में तिङन्त ते है, जिसकी सुप्तिङन्तं पदम् से पद संज्ञा होती है। यदि यहाँ पदान्त नहीं कहा जाता तो इट् के टकार के बाद तकार होने से ष्टुत्व का निषेध हो जाता। इस प्रकार की अनिष्ट आपत्ति से बचने के लिए इस सूत्र में पदान्त कथन किया गया। इट् + ते में तकार का ष्टुत्व टकार होकर इट्टे रूप सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार सूत्र में टवर्ग ग्रहण की उपयोगिता का उदाहरण सर्पिष्टमम् देते हैं। यदि पदान्त से परे नाम से भिन्न सकार तवर्ग के ष्टुत्व का निषेध किया जाता तो सर्पिष् +तमम् जैसे स्थल पर भी ष्टुत्व का निषेध हो जाता। अतः सूत्र में टवर्ग से परे कहा गया। सर्पिष् +तमम् में ष्टुना ष्टुः से तकार को ष्टुत्व होकर सर्पिष्टमम् रूप बना।
(अनाम्नवतिनगरीणामिति वाच्यम्) । षण्णाम् । षण्णवतिः । षण्णगर्यः ।।
अर्थ - नाम, नवति, नगरी को छोड़कर ष्टुत्व का निषेध हो।
षण्णाम् । षण्णवतिः । षण्णगर्यः ।
षड् + नाम, षड् + नवति, षड् + नगर्यः में ष्टुना ष्टुः से नाम, नवति तथा नगर्यः के नकार को ष्टुत्व णकार प्राप्त था, जिसे न पदान्ताट्टोरनाम् से ष्टुत्व का निषेध हो रहा था। ष्टुत्व निषेध होने से अनिष्ट रूप बन रहे थे,जबकि ष्टुत्व होने पर ही इच्छित रूप बन सकता है। अतः अनाम्नवति० वार्तिक द्वारा नाम, नवति तथा नगरी को छोड़कर ष्टुत्व निषेध का विधान किया। इस प्रकार षड् + नाम में नकार को ष्टुत्व णकार होकर षड् + णाम् हुआ । षड् के डकार को प्रत्यये भाषायां नित्यम् सूत्र से णकार हुआ षण्णाम् रूप बना । इसी प्रकार षड् + नवति में नकार को ष्टुत्व णकार तथा डकार को यरोऽ नुनासिके० से णकार हुआ षण्णवतिः रूप बना ।
६६ तोः षि
न ष्टुत्वम् । सन्षष्ठः ।।
सूत्रार्थ - तवर्ग का षकार परे रहते ष्टुत्व नहीं हो।
सन्षष्ठः । सन् + षष्ठः इस अवस्था में ष्टुना ष्टुः से सन् के नकार को ष्टुत्व प्राप्त हुआ। प्रकृत सूत्र से सन् + षष्ठः में तवर्ग नकार से षकार परे रहने पर ष्टुत्व का निषेध हो गया । सन्षष्ठः यथावत् रूप बना।
६७ झलां जशोऽन्ते
पदान्ते झलां जशः स्युः । वागीशः ।।
सूत्रार्थ - पदान्त में झल् के स्थान पर जश् हो। वाक् + ईशः में पदान्त झल् है वाक् का क् , इसे जश् हुआ ग् । वाग् + ईशः = वागीशः रूप बना।
विशेष-
जश्त्व सन्धि 1. पदान्त (झल्) वर्णों का 2. अपदान्त (झल्) वर्णों का में होता है। यहाँ आपने पदान्त झल् के जश्त्व के बारे में पढ़ा है। अपदान्त जश्त्व के बारे में सुध्युपास्यः सिद्ध करते समय झलां जश् झसि इस सूत्र को पढ़ चुके हैं।
६८ यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा
यरः पदान्तस्यानुनासिके परेऽनुनासिको वा स्यात् । एतन्मुरारिः, एतद् मुरारिः ।
सूत्रार्थ - पदान्त में यर् के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक हो अनुनासिक परे रहते।
एतन्मुरारिः। एतद् + मुरारिः इस दशा में एतद् इस पद के अंत में यर् वर्ण है दकार। इस दकार को अनुनासिक मुरारिः के मकार परे रहते अनुनासिक वर्ण नकार हो जाएगा। यहाँ पर द् को अनुनासिक न् आदेश उच्चारण स्थान की समानता के कारण हुआ। एतन्मुरारिः रूप बना। विकल्प पक्ष में एतद्मुरारिः रहेगा। इसी प्रकार धिक् + मनः आदि बनाकर देखें ।
(प्रत्यये भाषायां नित्यम्) । तन्मात्रम्। चिन्मयम् ।।
अर्थ- अनुनासिक से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय परे रहते पदान्त यर् के स्थान पर नित्य अनुनासिक हो।
तन्मात्रम्। तद् + मात्रम् इस अवस्था में तद् एक पद है तथा इसके आगे मात्रच् प्रत्यय का मकार है, जो कि अनुनासिक है। अनुनासिक से प्रारम्भ होने वाला मात्रच् प्रत्यय के मकार, तद् इस पदान्त यर् के बाद में है। अतः द् के स्थान पर अनुनासिक वर्ण होगा नकार। तन्मात्रम् रूप बनेगा। इसी प्रकार चित् + मयम् में पदान्त यर् चित् के बाद मयट् प्रत्यय का म होने से चिन्मयम् रूप बनेगा। कई लोग संस्कृत वाङ्मय शब्द अशुद्ध लिखते है। यहाँ वाक् + मयम् शब्द है। ककार को ङकार होकर वाङ्मय रूप बनेगा।
६९ तोर्लि
तवर्गस्य लकारे परे परसवर्णः । तवर्गस्य लकारे परे परसवर्णः । तल्लयः । विद्वाँल्लिखति । नस्यानुनासिको लः ।
सूत्रार्थ - लकार परे रहते तवर्ग के स्थान पर परसवर्ण हो।
तल्लयः। तद् + लयः इस स्थिति में तवर्ग के दकार से परे लयः का लकार रहने पर दकार के स्थान पर पर सवर्ण आदेश प्राप्त हुआ। तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् के अनुसार दकार तथा लकार का एक उच्चारण स्थान है (ॡतुलसानां दन्ताः । ॡ, तवर्ग, ल एवं श का उच्चारण स्थान दांत है।) अतः दकार के स्थान पर स्थान साम्य आदेश लकार होगा। तल्लयः रूप बनेगा। इसी प्रकार विद्वान् + लिखति में नकार के अनुनासिक होने से इसके स्थान पर अनुनासिक लँकार आदेश हुआ। विद्वाँल्लिखति बना।
७० उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य
उदः परयोः स्थास्तम्भोः पूर्वसवर्णः ।।
सूत्रार्थ - उद् उपसर्ग पूर्वक स्था और स्तम्भ धातुओं को पूर्वसवर्ण हो।
७१ तस्मादित्युत्तरस्य
पञ्चमीनिर्देशेन क्रियमाणं कार्यं वर्णान्तरेणाव्यवहितस्य परस्य ज्ञेयम् ।।
सूत्रार्थ - पंचमी विभक्ति के निर्देश के द्वारा किया जाना वाला कार्य दूसरे वर्ण के व्यवधान रहित पर वर्ण को हो।
इस सूत्र को समझने के लिए उदः स्थास्तम्भोः सूत्र तथा तस्मादित्युत्तरस्य इन दोनों सूत्रों को समझना अनिवार्य है। परिभाषा के अनुसार उदः इस पञ्चम्यन्त पद के निर्देश द्वारा जिस कार्य का विधान बाद के पद के स्थान में किया गया हो, वह कार्य पर पद के आदि वर्ण के स्थान में हो।
७२ आदेः परस्य
परस्य यद्विहितं तत्तस्यादेर्बोध्यम् । इति सस्य थः ।।
सूत्रार्थ - पर पद के स्थान में जो विहित कार्य वह पर पद के आदि वर्ण को हो।
७३ झरो झरि सवर्णे
हलः परस्य झरो वा लोपः सवर्णे झरि ।।
सूत्रार्थ - हल् से परे झर् का लोप हो सवर्ण झर् के परे रहते विकल्प से।
७४ खरि च
खरि झलां चरः । इत्युदो दस्य तः । उत्थानम् । उत्तम्भनम् ।।
सूत्रार्थ - खर् परे रहते झल् के स्थान पर चर् हो।
उत्थानम् । उद् +थ + थानम् में दकार हल् से परे थकार झर् है। इसके बाद सवर्ण झर् है शानम् का थकार, अतः पूर्व थकार का विकल्प से लोप होगा। लोप हो जाने पर उद् + थानम् होगा।
उद् + थानम् तथा उद् +थ + थानम् दोनों रूपों में खर् (थकार) के परे रहते (दकार) झल् के स्थान पर सदृशतम चर् आदेश तकार होगा। लोप पक्ष में उत् + थानम् = उत्थानम् तथा विकल्प पक्ष में उत् +थ + थानम् = उत्थथानम् रूप बनेगा। इसी प्रकार उद् + थ + तम्भनम् में उत्तम्भनम् तथा उत्थ्तम्भनम् रूप बनेगा।
विशेष-
यह सूत्र झल् वर्णों को चर् करता है अतः इसे चर्त्व सन्धि कहते हैं। हल् सन्धि का यह महत्वपूर्ण सूत्र है।
७५ झयो होऽन्यतरस्याम्
झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः । नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः । वाग्घरिः, वाग्हरिः ।।
सूत्रार्थ - झय् परे रहते हकार को पूर्वसवर्ण हो विकल्प हो।
सूत्रार्थ - झय् परे रहते हकार को पूर्वसवर्ण हो विकल्प हो।
७६ शश्छोऽटि
झयः परस्य शस्य छो वाऽटि । तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः । तच्छिवः, तच्शिवः ।
सूत्रार्थ - झय् से परे शकार के स्थान पर विकल्प से छकार हो अट् परे रहते।
तच्छिवः, तच्शिवः । तद् + शिवः इस अवस्था में स्तोः श्चुना श्चुः से तद् के दकार का श्चुत्व जकार हुआ। तज् + शिवः रूप बना। खरि च सूत्र से तज् के जकार को चकार हुआ तच् + शिवः रूप बना। अब शश्छोऽटि से तच् इस पद के अंत के अंतिम वर्ण च् के परे शिवः का शकार होने से शकार को विकल्प से छकार हुआ। तच्छिवः रूप बना। जिस बार शश्छोऽटि शकार को छकार नहीं होगा उस पक्ष में तच्शिवः रूप बनेगा।
(छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन ।।
अर्थ - अम् परे रहते पदान्त झय् से परे शकार के स्थान पर विकल्प से छकार हो।
तच्छ्लोकेन । तद् + श्लोकेन में तद् के दकार को स्तोः श्चुना श्चुः से श्चुत्व जकार हुआ तथा जकार को खरि च से चकार होकर तच् + श्लोकेन हुआ। तद् श्लोकेन में पद है- तच्, इसके अंत में झय् का चकार है, इस पदान्त झय् से परे है श्लोकेन का शकार है। इस शकार से परे अम् है लकार। ऐसी स्थिति में शकार के स्थान पर विकल्प से छकार हो गया। वर्ण सम्मेलन होकर तच्छ्लोकेन बना।
७७ मोऽनुस्वारः
मान्तस्य पदस्यानुस्वारो हलि । हरिं वन्दे ।।
सूत्रार्थ - मकारान्त पद के स्थान पर अनुस्वार हो हल् परे रहते।
हरिं वन्दे । हरिम् + वन्दे में मान्त पद हरिम् है, हल् परे है वन्दे का वकार अतः हरिम् इस पद को मोऽनुस्वारः से अनुस्वार प्राप्त हुआ। अलोऽन्त्यस्य के अनुसार हरिम् क् अंतिम अल् मकार के स्थान पर अनुस्वार होकर हरिं वन्दे रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार व्याघ्रं हन्ति। मधुरं खादति आदि में अनुस्वार होता है।
७८ नश्चापदान्तस्य झलि
नस्य मस्य चापदान्तस्य झल्यनुस्वारः । यशांसि । आक्रंस्यते । झलि किम् ? मन्यते ।।
सूत्रार्थ - अपदान्त नकार तथा मकार से झल् परे रहते उसके स्थान पर अनुस्वार हो।
यशांसि । जो पद के अंत में नहीं हो उसे अपदान्त कहते हैं। यशान् + सि में यशान् का नकार पद के अंत में नहीं है। यशस् शब्द का पद है यशांसि। अपदान्त यशान् के नकैर को झल् (स्) परे रहते अनुस्वार हो गया। यशांसि रूप बना। इसी प्रकार आक्रम् + स्यते में मकार को अनुस्वार होकर आक्रंस्यते रूप बना। अन्य उदाहरण- पयांसि, नमांसि आदि ।
झलि किम् ? ग्रन्थकार प्रश्न करते हुए प्रत्येक अनुबन्ध की उपयोगिता दिखाते हैं। यहाँ प्रश्न हुआ कि यदि सूत्र में झल् परे रहने पर ऐसा नहीं कहते अर्थात् अपदान्त नकार तथा मकार के स्थान पर अनुस्वार हो। इतना मात्र कहते तो क्या होता? उसका उत्तर मन्यसे इस उदाहरण से दे रहे हैं। मन् + यसे में अपदान्त मन् के नकार को अनुस्वार होकर मंन्यसे ऐसा अनिष्ट रूप बन जाता । अतः सूत्र में झलि कहा। झलि कहने से यसे का यकार झल् प्रत्याहार में नहीं आता अतः यहाँ अनुस्वार नहीं होता।
सारांश-
अनुस्वार सन्धि दो स्थितियों में होती है। 1. कोई भी व्यंजन वर्ण बाद में होने पर पदान्त म् वर्ण को नित्य अनुस्वार होता है। 2. झल् परे रहते अपदान्त न् तथा म् वर्णों का अनुस्वार होता है। मोऽनुस्वारः हल् सन्धि का यह महत्वपूर्ण सूत्र है।
७९ अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः
स्पष्टम् । शान्तः ।।
सूत्रार्थ - अनुस्वार के स्थान में परसवर्ण हो, यय् परे रहते
शान्तः। शां + तः में शां के अनुस्वार को यय् (तः) तकार परे रहने पर परसवर्ण हो गया। अनुस्वार का स्थान साम्य परसवर्ण तवर्ग का पंचमवर्ण नकार होगा।
विशेष-
शाम् + तः में मकार को नश्चापदान्तस्य से अनुस्वार तथा अनुस्वार को इस सूत्र से परसवर्ण (नकार) होने पर शांतः रूप बना। अन्य उदाहरण- शङ्का, गुण्ठितः, गङ्गा, अञ्चितः, मुक्तिञ्च, अर्चनञ्च आदि
८० वा पदान्तस्य
त्वङ्करोषि, त्वं करोषि ।।
सूत्रार्थ - पदान्त अनुस्वार के स्थान पर विकल्प से परसवर्ण हो, यय् परे रहते।
त्वङ्करोषि। त्वम् + करोषि में त्वम् और करोषि ये दो पद हैं । इन दोनों पदों में से त्वम् इस पद के मकार को मोऽनुस्वारः से अनुस्वार होकर त्वं हो गया। यह अनुस्वार बाद में स्थित वर्ण के करोषि के ककार समान होगा। इस अनुस्वार वर्ण को तुल्यास्यप्रयत्नं सूत्र के अनुसार विकल्प से परसवर्ण होगा। त्वं का अनुस्वार परवर्ती ककार के पंचम वर्ण के समान होकर त्वङ्करोषि हो जाएगा। विकल्प पक्ष में त्वं करोषि ही रहेगा।
पोषणं स्वेन रूपेण वैकुण्ठे त्वं करोषि च ।
भूमौ भक्तविपोषाय छायारूपं त्वया कृतम् ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम्/माहात्म्य
भवांल्लिखति ताञ्चक्रे भवाञ्शेतेऽप्यनीदृशः ।
भवाण्डीनं त्वन्तरसि त्वङ्करोषि सदार्चनम् ॥ गरुडपुराणम्
विशेष-
पूर्व में अनुस्वार तथा बाद में यय् प्रत्याहार का वर्ण होने पर अनुस्वार के स्थान पर परसवर्ण हो जाता है। इसे परसवर्ण सन्धि भी कहा जाता है। परसवर्ण सन्धि दो स्थितियों में होती है।
1. अपदान्त अनुस्वार के बाद यय् परे रहने पर नित्य अनुस्वार होता है जबकि
2. पदान्त अनुस्वार के बाद यय् परे रहने पर विकल्प से अनुस्वार होता है।
८१ मो राजि समः क्वौ
क्विबन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् । सम्राट् ।।
सूत्रार्थ - क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु परे रहते सम् के मकार के स्थान पर म् ही हो।
सम्राट् । सम् + राट् में राट् यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है। उसके परे रहते सम् के मकार को मोऽनुस्वारः से अनुस्वार प्राप्त था। उसका निषेध इस सूत्र के होकर सम् के मकार को मकार ही रह गया। सम्राट् रूप बना।
८२ हे मपरे वा
मपरे हकारे परे मस्य मो वा । किम् ह्मलयति, किं ह्मलयति ।
सूत्रार्थ - मकार है परे जिस हकार के ऐसे हकार के परे रहते मकार के स्थान पर विकल्प से मकार हो।
यहाँ तीन शर्तों का ध्यान रखना चाहिए -
1. मकार के स्थान पर विकल्प से मकार होता है, विकल्प पक्ष में अनुस्वार होता है । 2. मकार के बाद का वर्ण हकार हो। 3. इस हकार के बाद पुनः मकार हो। यहाँ वर्णों की स्थिति होगी – म् + ह् + म् ।
किम् ह्मलयति, किं ह्मलयति । किम् + ह्मलयति में हे मपरे वा से हकार के परे ह्म का मकार पर है ऐसे हकार किं के अनुस्वार के परे रहते मोऽनुस्वारः से प्राप्त अनुस्वार को बाधकर कर विकल्प से मकार कर दिया। किम् ह्मलयति बना। विकल्प पक्ष में मोऽनुस्वारः से अनुस्वार होकर किं ह्मलयति बना।
(यवलपरे यवला वा)। किय्ँ ह्यः, किं ह्यः । किव्ँ ह्वलयति, किं ह्वलयति । किल्ँ ह्लादयति, किं ह्लादयति ।।
अर्थ- यकार, वकार, लकार है परे है जिस हकार के ऐसे हकार के परे रहते मकार के स्थान पर विकल्प से य्ँ , व्ँ, ल्ँ आदेश हो।
यवलपरे वार्तिक में तीन शर्तों का ध्यान रखना चाहिए -
1. मकार के स्थान पर विकल्प से य्ँ , व्ँ, ल्ँ आदेश होता है, विकल्प पक्ष में अनुस्वार होता है । 2. मकार के बाद का वर्ण हकार हो। 3. इस हकार के बाद पुनः य / व/ ल हो। यहाँ वर्णों की स्थिति होगी – म् + ह् + य / व/ ल ।
यहाँ स्थानी मकार अनुनासिक है अतः आदेश य् व् ल् भी अनुनासिक होगा। किम् + ह्यः, किम् + ह्वलयति, किम् + ह्लादयति में ह्यः, ह्वलयति तथा ह्लादयति के हकार के परे क्रमशः य,र, तथा ल है। ऐसा हकार किम् के मकार के परे होने पर किम् के मकार को क्रमशः अनुनासिक सहित य्ँ , व्ँ, ल्ँ होकर किय्ँ ह्यः, किव्ँ ह्वलयति, किल्ँ ह्लादयति बना। विकल्प पक्ष में मोऽनुस्वारः से अनुस्वार होकर किं ह्यः, किं ह्वलयति, किं ह्लादयति बने।
८३ नपरे नः
नपरे हकारे मस्य नो वा । किन् ह्नुते, किं ह्नुते ।।
सूत्रार्थ - नकार है परे जिस हकार के ऐसे हकार के परे रहते मकार के स्थान पर विकल्प से नकार हो।
यहाँ भी तीन शर्तों का ध्यान रखना चाहिए -
1. मकार के स्थान पर विकल्प से नकार होता है, विकल्प पक्ष में अनुस्वार होता है । 2. मकार के बाद का वर्ण हकार हो। 3. इस हकार के बाद पुनः नकार हो। यहाँ वर्णों की स्थिति होगी – म् + ह् + न् ।
किम् + ह्नुते। यहाँ मकार से परे हकार और इस हकार के बाद नकार है अतः किम् के मकार को विकल्प से नकार हो गया किन् ह्नुते बना। नकार विकल्प पक्ष में मोऽनुस्वारः से अनुस्वार होकर किं + ह्नुते बना।
८४ डः सि धुट्
डात्परस्य सस्य धुड्वा ।
सूत्रार्थ - डकार से परे सकार को धुट् आगम विकल्प से हो।
८५ आद्यन्तौ टकितौ
टित्कितौ यस्योक्तौ तस्य क्रमादाद्यन्तावयवौ स्तः ।। षट्त्सन्तः, षट् सन्तः ।।
सूत्रार्थ - टित् तथा कित् आगम क्रमशः स्थानी के आदि तथा अन्त में अवयव स्वरूप हो। टित् आगम आदि में तथा कित् आगम अन्त में होगा।
षट्त् सन्तः, षट् सन्तः। षड् + सन्तः इस स्थिति में षड् के डकार से परे सकार को धुट् का आगम हो गया। धुट् में उकार तथा टकार की इत्संज्ञा होती है अतः यह टित् है। टित् होने के कारण आद्यन्तौ टकितौ सूत्र के अनुसार इसका आगम सकार के आदि में होगा। षड् + ध् + सन्तः बना। खरि च से धकार को चर्त्व होकर तकार तथा डकार को टकार होकर षट् + त् + सन्तः बना। परस्पर वर्ण सम्मेलन होकर षट्त्सन्तः बना। धुट् का आगम विकल्प से होता है। विकल्प पक्ष में षड् + सन्तः के डकार को चर्त्व होकर षट्सन्तः बना।
विशेष-
अध्ययनकर्ताओं को व्याकरण के आगम और आदेश को समझना चाहिए। ये दोनों पारिभाषिक शब्द हैं। शत्रुवदादेशः मित्रवदागमः के अनुसार -
आगम मित्र के समान होता है। आगम जिस वर्ण को लक्षित कर होता है वह आगम उस वर्ण के पास में आकर बैठ जाता है। वह कहाँ बैठे? पहले या बाद में इसके बारे में आपने आद्यन्तौ टिकितौ के निर्देश को जान लिया। उदाहरण - डः सि धुट् तथा ङणोः कुक् टुक् शरि से होने वाले धुट्, कुक् तथा टुक् आगम हैं।
आदेश शत्रु के समान होता है। यह आदेश दो प्रकार का होता है। एकादेश तथा सामान्य आदेश ।
उदाहरण - एकः पूर्वपरयोः(6.1.84) यह सूत्र एकादेश अधिकार का विधान करता है। यदि पूर्व पर के स्थान में एक ही आदेश होता तो वह एकादेश कहा जाता है। एकादेश अधिकार में अच् सन्धि आता है। आद्गुणः (6.1.87), वृद्धिरेचि (6.1.88), एत्येधत्यूठ्सु (6.1.89) आदि द्वारा किया जाने वाला एकादेश हैं। ।
सामान्य आदेश- इको यणचि (6.1.77), एचोऽयवायावः (6.1.78), अवङ् स्फोटायनस्य (6.1.123) आदि सामान्य आदेश के उदाहरण हैं । यह आदेश अच् तथा हल् दोनों वर्णों के स्थान पर होता है। अच् के स्थान में होने वाले आदेश को अजादेश कहा जाता है तथा हल के स्थान में होने वाले आदेश को हलादेश। इको यणचि आदि अजादेश के तथा समः सुटि (8.3.5) हलादेश के उदाहरण हैं।
८६ ङ्णोः कुक्टुक् शरि
वा स्तः । प्राङ्क् षष्ठः, प्राङ् षष्ठः।
सूत्रार्थ - शर् परे रहते ङकार तथा णकार को क्रमशः कुक् तथा टुक् का आगम हो, विकल्प से।
कुक् और टुक् के ककार की हलन्त्यम् से तथा उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत् से इत् संज्ञा तथा तस्य लोपः स् लोप हो जाता है। क् तथा ट् शेष रहता है।
प्राङ्क् षष्ठः। प्राङ् + षष्ठः में शर् (षष्ठः का आदि षकार) परे रहते प्राङ् के ङकार को ङ्णोः कुक्टुक् शरि से कुक् का आगम हुआ। कुक् के ककार तथा उकार का अनुबन्धलोप हुआ। कुक् कित् है अतः आद्यन्तौ टकितौ से कित् ङकार के अन्त्य में आया। प्राङ् + क्+ षष्ठः हुआ। वर्णसम्मेलन कर प्राङ्क् षष्ठः बना। ङ्णोः कुक्टुक् शरि विकल्प से कित् करता है। विकल्प पक्ष में प्राङ् षष्ठः रूप बना। इसी प्रकार सुगण् + षष्ठः में णकार को टित् का आगम होकर सुगण्ट् षष्ठः तथा विकल्प पक्ष में सुगण् षष्ठः बना।
(वा.) चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् । प्राङ्ख् षष्ठः, प्राङ्क्षष्ठः, प्राङ् षष्ठः । सुगण्ठ् षष्ठः सुगण्ट् षष्ठः, सुगण् षष्ठः ।।
अर्थ- चय् के स्थान पर द्वितीय वर्ण हो शर् परे रहते पौष्करसादि आचार्य के मत में।
प्राङ्ख् षष्ठः। प्राङ् + षष्ठः में शर् (षष्ठः का आदि षकार) परे रहते प्राङ् के ङकार को ङ्णोः कुक्टुक् शरि से कुक् का आगम हुआ। कुक् के ककार तथा उकार का अनुबन्धलोप होने पर प्राङ् + क् + षष्ठः हुआ। चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् से शर् (ष) परे रहते चय् (क्) के स्थान पर द्वितीय वर्ण ख् हुआ। प्राङ् + ख् + षष्ठः हुआ। वर्ण सम्मेलन कर प्राङ्ख्षष्ठः बना। चयो द्वितीयाः शरि विकल्प से द्वितीय वर्ण करता है अतः विकल्प पक्ष में प्राङ्क् षष्ठः पूर्ववत् बनेगा। इसी प्रकार सुगण्ठ्षष्ठः समझना चाहिए।
इस तरह एक शब्द के तीन रूप बनते हैं- प्राङ्ख् षष्ठः (कुक् आगम चय् को द्वितीय वर्ण पक्ष), प्राङ्क्षष्ठः (कुक् आगम चय् को द्वितीय वर्ण का अभाव पक्ष) , प्राङ् षष्ठः (कुक् आगम अभाव पक्ष) । सुगण्ठ् षष्ठः(कुक् आगम चय् को द्वितीय वर्ण पक्ष), सुगण्ट् षष्ठः (कुक् आगम चय् को द्वितीय वर्ण का अभाव पक्ष), सुगण् षष्ठः(कुक् आगम अभाव पक्ष) ।
८७ नश्च
नान्तात्परस्य सस्य धुड्वा । सन्त्सः, सन्सः ।।
सूत्रार्थ - नकारान्त पद से परे रहते सकार को धुट् का आगम विकल्प से हो।
सन्त्सः, सन्सः । सन् + सः यहाँ पर पद है सान् । इस पह के अंत में नकार है अतः यह नान्त पद है। इस नान्त पद से परे सः के सकार को धुट् का आगम विकल्प से हुआ। धुट् टित् है अतः यह सकार के पूर्व होगा। सन् + धुट् + सः हुआ। धुट् में उकार तथा टकार का अनुबन्ध होने पर ध् शेष रहा सन् + ध् + सः हुआ। खरि च से धुट् के धकार को चर्त्व उसी वर्ण का तकार होकर सनत्सः बना। धुट् विकल्प पक्ष में सन्सः बना।
इसी प्रकार नान्त पदों से धुट् का आगम कर और शब्द बनायें। यथा- विद्वान् + सीदति आदि।
८८ शि तुक्
पदान्तस्य नस्य शे परे तुग्वा । सञ्छम्भुः, सञ्च्छम्भुः, सञ्च्शम्भुः, सञ्शम्भुः ।।
सूत्रार्थ - शकार परे रहते पदान्त नकार को तुक् का आगम विकल्प से हो।
सन् + शम्भुः इस स्थिति में आद्यन्तौ टकितौ सूत्र के निर्देशानुसार न् के बाद शि तुक् सूत्र से विकल्प से तुक् आगम हुआ। सन् + तुक् + शम्भुः हुआ। तुक् में उक् का अनुबन्ध लोप हुआ। सन् + त् + शम्भुः हुआ। स्तोः श्चुना श्चुः सूत्र से तकार को श्चुत्व चकार पुनः नकार को ञकार होकर सञ् + च् + शम्भुः हुआ। शश्छोऽटि सूत्र से झय् (चकार) के बाद श को विकल्प से छकार होकर सञ्च्छम्भुः बना। शि तुक् से तुक् के अभाव पक्ष में सञ्छम्भुः बना। शश्छोऽटि से छ के अभाव पक्ष एवं शि तुक् से तुक् आगम के पक्ष में सन् + त् + शम्भुः में श्चुत्व होकर सञ्च्शम्भुः बना। तुक् के अभाव पक्ष में सन् + शम्भुः में केवल श्चुत्व कार्य होकर सञ्शम्भुः रूप बना।
सन् + शम्भुः शि तुक् सूत्र से तुक् आगम विकल्प से
सन् + तुक् + शम्भुः आद्यन्तौ टकितौ सूत्र से न् के बाद
सन् + त् + शम्भुः अनुबन्ध लोप
सञ्च् + शम्भुः स्तोः श्चुना श्चुः सूत्र से श्चुत्व
सञ्च्छम्भुः शच्छोऽटि सूत्र से श को छ विकल्प से
सञ्छम्भुः तुक् के अभाव पक्ष में-
सञ्च्शम्भुः छ के अभाव पक्ष एवं तुक् आगम के पक्ष में
सञ्शम्भुः तुक् के अभाव पक्ष में
८९ ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम्
ह्रस्वात्परे यो ङम् तदन्तं यत्पदं तस्मात्परस्याचो ङमुट् । प्रत्यङ्ङात्मा । सुगण्णीशः । सन्नच्युतः ।।
सूत्रार्थ - ह्रस्व स्वर से परे जो ङम् (ङ् ण् न्) वह ङम् है जिसके अंत में ऐसा पद , उस पद से परे अच् को ङमुट् का आगम नित्य हो।
ङमुट् में टकार तथा उकार की इत्संज्ञा होती है । ङम् शेष बचता है। यह ङम् प्रत्याहार है । इसमें ङ ण तथा न वर्ण आते हैं। ङ् ण् न् को ङ् ण् न् यथासंख्य होते हैं। अतःङुट्, णुट्, नुट् आगम क्रमशः होंगें।
प्रत्यङ् + आत्मा इस स्थिति में ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् सूत्र से नित्य ङमुट् का आगम होगा यह आगम आद्यन्तौ टकितौ सूत्र से आ के पूर्व होगा । प्रत्यङ् + ङमुट् + आत्मा में टकार तथा उकार का अनुबन्ध लोप होकर प्रत्यङ्ङात्मा बना। इसी प्रकार सुगण् + ईशः में णुट् का आगम तथा सन् + अच्युतः में नुट् का आगम होकर क्रमशः सुगण्णीशः तथा सन्नच्युतः रूप बनता है।
प्रयोग-
यावद् देहे चिदान्दः प्रत्यङ्ङात्मा विराजते।
तावदेव जगत्सर्व प्रतिभाति मनोहरम्।।
९० समः सुटि
समो रुः सुटि ।।
सूत्रार्थ - सम् के मकार को रु आदेश हो सुट् परे रहते।
९१ अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा
अत्र रुप्रकरणे रोः पूर्वस्यानुनासिको वा ।।
सूत्रार्थ - इस रु के प्रकरण में रु से पूर्व वर्ण को विकल्प से अनुनासिक हो।
९२ अनुनासिकात्परोऽनुस्वारः
अनुनासिकं विहाय रोः पूर्वस्मात्परोऽनुस्वारागमः ।।
सूत्रार्थ - अनुनासिक को छोड़कर रु से पूर्व वर्ण को अनुस्वार आगम हो।
९३ खरवसानयोर्विसर्जनीयः
खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्गः ।
सूत्रार्थ - खर् परे रहते अवसान में पदान्त रकार को विसर्ग हो।
(संपुंकानां सो वक्तव्यः) । सँस्स्कर्ता, संस्स्कर्ता ।।
सम्, पुम् और कान् शब्दों के विसर्ग के स्थान पर सकार हो।
सम्, पुम् और कान् शब्दों के विसर्ग के स्थान पर सकार हो।
९४ पुमः खय्यम्परे
अम्परे खयि पुमो रुः । पुँस्कोकिलः, पुंस्कोकिलः ।।
सूत्रार्थ - अम् परक खय् परे रहते पुम् के स्थान में रु हो । अलोऽन्त्यस्य से पुम के अन्त्य वर्ण म् के स्थान पर रु होगा।
९५ नश्छव्यप्रशान्
अम्परे छवि नान्तस्य पदस्य रुः। न तु प्रशान्शब्दस्य ।।
सूत्रार्थ - अम् परक छव् परे रहते नान्त पह के स्थान पर रु होता है, प्रशान् शब्द को छोड़कर।
९६ विसर्जनीयस्य सः
खरि । चक्रिँस्त्रायस्व, चक्रिंस्त्रायस्व । अप्रशान् किम् ? प्रशान्तनोति । पदस्येति किम् ? हन्ति ।।
सूत्रार्थ - खर् परे रहते विसर्ग को सकार आदेश हो।
९७ नॄन् पे
नॄनित्यस्य रुर्वा पे ।।
सूत्रार्थ - नृन् को विकल्प से रु हो पकार परे रहते।
९८ कुप्वोः ͝ क ͝͝ पौ च
कवर्गे पवर्गे च विसर्गस्य ॅॅ क ॅॅ पौ स्तः, चाद्विसर्गः । नॄँ ͝͝ पाहि, नॄःँ पाहि, नॄःंपाहि । नॄन्पाहि ।।
सूत्रार्थ - कु तथा पु परे रहते विसर्ग को क्रमशः जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय हो।
९९ तस्य परमाम्रेडितम्
द्विरुक्तस्य परमाम्रेडितम् स्यात् ।।
सूत्रार्थ - जो हो बार कहा गया है, उसके बाद वाले भाग की आम्रेडित संज्ञा हो।
१०० कानाम्रेडिते
कान्नकारस्य रुः स्यादाम्रेडिते । काँस्कान्, कांस्कान् ।।
सूत्रार्थ - आम्रेडित परे रहते कान् शब्द के नकार को रु हो।
१०१ छे च
ह्रस्वस्य छे तुक् । शिवच्छाया ।।
सूत्रार्थ - छकार परे रहते ह्रस्व वर्ण को तुक् का आगम हो।
१०२ पदान्ताद्वा
दीर्घात् पदान्तात् छे तुग्वा । लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मीछाया ।।
सूत्रार्थ - छकार परे रहते पदान्त दीर्घ को तुक् का आगम विकल्प से हो।
इति हल्सन्धिः ।
लघुसिद्धान्तकौमुदी
(विसर्गसन्धिप्रकरणम्) →
गुरुवर जी के श्री चरणों में मेरा कोटि कोटि नमन। बहुत सुंदर कार्य है।मुझे जब उच्चारण और अर्थ समझ में नहीं आता है तो यह ब्लॉग औषधि का काम करता है
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। अतीव शोभनम् उपयोगि लाभदायकम् च।
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