अथ विसर्गसन्धिः
विशेष- विष्णुस् + त्राता में ससजुषो रुः से रुत्व होकर विष्णुरुँ + त्राता हुआ। उपदेशेऽजनुनासिक इत् से रू घटक उकार की
इत्संज्ञा, तस्य लोपः होकर विष्णुर् + त्राता बना। अब खरवसानयोर्विसर्जनीयः
से विसर्ग होकर विष्णुः+त्राता होता है। विसर्जनीयस्य
सः से सकार, विष्णुस् + त्राता, अनचि
च से वैकल्पिक द्वित्व, विष्णुस्त्राता, विष्णुस्स्त्राता बना। खरि च से चर् वर्णों का
सवर्ण चर् ही रहता है । विष्णुस्त्राता तथा विष्णुस्स्त्राता । अणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः
से अनुनासिक होकर विष्णुस्त्राता, विष्णुस्त्राताँ, विष्णुस्स्त्राता, विष्णुस्स्त्राताँ ये 4
रूप बनेंगें। झरो झरि सवर्णे की भी प्रवृत्ति होती है ।
हरिः शेते, हरिश्शेते । हरिः + शेते में वा शरि सूत्र से हरिः के विसर्ग
को शर् (शेते का शकार) परे रहते विकल्प से विसर्ग हुआ। हरिः शेते बना। विसर्ग के
अभाव पक्ष में विसर्जनीयस्य सः सूत्र से विसर्ग को स् होकर हरिस् + शेते हुआ।
स्तोः श्चुना श्चुः से हरिश् के सकार को श्रुत्व शकार होकर हरिश्शेते बना।
शिवोऽर्च्यः। शिवस् + अर्च्यः
में ससजुषो रुः से सकार को रु हुआ। रु के
उकार की इत्संज्ञा, लोप, शिवर् + अर्च्यः बना। शिवर् + अर्च्यः में व् का अकार अप्लुत अ है,
उसके बाद र् है और र् के बाद अर्च्यः का अप्लुत अ है, इसलिए यहाँ र् को उत्व होकर शिवोऽर्च्यः बना ।
१०८ भोभगोअघोअपूर्वस्य
योऽशि
एतत्पूर्वस्य
रोर्यादेशोऽशि । देवा इह, देवायिह । भोस् भगोस् अघोस् इति सान्ता निपाताः । तेषां रोर्यत्वे कृते
।।
सूत्रार्थ - भोस् भगोस् अघोस् तथा अवर्ण पूर्वक रु को यकार आदेश हो अश् परे
रहते।
देवा इह । देवा + स् + इह में
ससजुषो रुः से स् को रु आदेश, देवा + रु + इह हुआ। रु
के उकार का अनुबन्ध लोप देवा + र् + इह
हुआ। भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि सूत्र से रेफ को य् का आदेश, देवा + य् + इह हुआ । लोपः शाकल्यस्य सूत्र से य् का विकल्प से लोप होकर
देवा इह बना। विकल्प के अभाव पक्ष में देवा + य् + इह में वर्ण सम्मेलन कर देवायिह
बना।
१०९ हलि सर्वेषाम्
भोभगोअघोअपूर्वस्य यस्य
लोपः स्याद्धलि । भो देवाः । भगो नमस्ते । अघो याहि ।।
सूत्रार्थ - भोस्
भगोस् अघोस् तथा अवर्ण पूर्वक य का लोप हो हल् परे रहते।
अर्थ- भोस् भगोस् अघोस् अ अवर्ण
पूर्व वाले य् का लोप होता है हल् परे रहते। भोस् भगोस् तथा अघोस् ये तीनों
सकारान्त निपात हैं। इसके सकार रु एवं रु को य् आदेश किया जाता है। रूप सिद्धि इस
प्रकार है।
भोस् देवाः
भो रु देवाः
ससजुषो रूः सूत्र से स् को रु आदेश
भो र् देवा रु के उकार का अनुबन्ध लोप
भो य् देवाः
भो-भगो-अघो-अपूर्वस्य
योऽशि सूत्र से र् को य् आदेश
भो देवाः हलि सर्वेषाम् सूत्र से य् का लोप
इसी प्रकार भगोस् तथा अघोस् के सकार को रुत्व तथा यत्व होकर भगो नमस्ते। अघो याहि
बनेगें।
अभ्यास-
पुनः रमते. एषः
विष्णुः. हरि: चरितम् में सन्धि का प्रयोग करें।
११० रोऽसुपि
अह्नो रेफादेशो न तु
सुपि । अहरहः । अहर्गणः ।।
सूत्रार्थ - अहन् शब्द के नकार को रेफ आदेश हो परन्तु सुप् परे रहते नहीं हो।
अहरहः । अहन् + अहः इस अवस्था में रोऽसुपि सूत्र से अहन् के नकार के स्थान पर र्
आदेश हुआ। यहाँ पर अहः बाद में है, जि कि सुप् प्रत्याहार का
नहीं है। अहर् + अहः हुआ। परस्पर वर्ण सम्मेलन करने पर अहरहः
बना।
१११ रो रि
रेफस्य रेफे परे लोपः
।।
सूत्रार्थ - रेफ परे रहते रेफ का लोप हो।
११२ ढ्रलोपे पूर्वस्य
दीर्घोऽणः
ढरेफयोर्लोपनिमित्तयोः
पूर्वस्याणो दीर्घः । पुना रमते । हरी रम्यः । शम्भू राजते । अणः किम् ? तृढः । वृढः ।
सूत्रार्थ - लोप
निमित्तक ढकार तथा रेफ रहते पूर्व अण् वर्ण को दीर्घ होता है।
अकार का उदाहरण-
पुना रमते । पुनर् + रमते में रो रि सूत्र से र्
परे रहते पूर्ववर्ती र् का लोप हुआ, पुन + रमते बना। ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः सूत्र से पुन के अकार को दीर्घ हुआ। पुना रमते बना।
इसी तरह इकार तथा उकार के उदाहरणों
में हरीर् रम्यः = हरी रम्यः शम्भू = राजते भी सिद्ध होंगे।
अणः किम्? तृढः
अण्
(अ इ उ) से परे र् और ढ् होने पर अण् को ही दीर्घ होता है। अन्य को नहीं। जैसे-
तृढ् ढः यहाँ पर ढो ढे लोपः से ढकार से परे ढकार रहने के कारण ढ् का लोप तो हुआ
परन्तु ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः में अणः कहने से तृ के ऋकार को दीर्घ नहीं हुआ।
मनस् रथ इत्यत्र रुत्वे कृते हशि चेत्युत्वे रोरीति लोपे च
प्राप्ते ।।
११३ विप्रतिषेधे परं कार्यम्
तुल्यबलविरोधे परं
कार्यं स्यात् । इति लोपे प्राप्ते । पूर्वत्रासिद्धमिति रोरीत्यस्यासिद्धत्वादुत्वमेव
। मनोरथः ।।
सूत्रार्थ - समान
बल वाले सूत्र के एक साथ प्रवृत्त होने पर बाद वाले सूत्र का कार्य हो।
मनोरथः । मनस् रथः इस
स्थिति में
मन रु रथः
ससजुषो रूः सूत्र से स् को रु आदेश
मन र् रथः
अनुबन्ध लोप
यहाँ रो रि सूत्र से र् का लोप और हशि च सूत्र
से र् को उत्व-दोनों की एक साथ प्राप्ति हुई। विप्रतिषेधे परं कार्यम् से रो रि
(8.3.14) से र् का लोप हो गया। मन + रथः बना। हशि च
(6.1.110) से रथ के थकार पर रहने के कारण लुप्त रकार के स्थान पर उत्व हुआ।
मन उ रथः बना। आद्गुणः सूत्र से गुण एकादेश होकर मनोरथः बना।
विशेष- तुल्य
बल विरोध या समान बल वाले का विरोध उसे कहते हैं, जब दोनों
सूत्रों की प्रवृत्ति अन्य स्थलों पर हो चुकी हो। वे दोनों कार्य कर चुके हों तथा
किसी एक स्थल पर दोनों की प्राप्ति हो रही हो।
अन्यत्रान्यत्रलब्धावकाशयोरेकत्रप्राप्तिः तुल्यबलविरोधः । जैसे- रो रि सूत्र पुना
रमते में रेफ का लोप कर चुका है तथा शिवो वन्द्यः में हशि च उत्व कर चुका है। मनोरथः
में दोनों की प्राप्ति है अतः यहाँ तुल्य बल विरोध है। ऐसे प्रसंग में विप्रतिषेधे
परं कार्यम् से पर कार्य होता है। संस्कृत व्याकरण के सूत्र में किस सूत्र का कौन
विरोध करता है,किसका कौन बाधक है आदि पर परिभाषेन्दुशेखर आदि
ग्रन्थों में विस्तार से चर्चा की गयी है।
सूत्रार्थ - ककार रहित एतद् तथा तद्
शब्द का जो सु, उसका लोप होता
है, हल् परे रहते, नञ् समास
को छोड़कर।
एष
सु विष्णुः
एष
विष्णुः
एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनञ्समासे हलि सूत्र से सु का लोप हुआ।
अकोः किम्? एषको रुद्रः
ककार
रहित एतद् और तद् के सु का लोप होता ह। क रहने पर सु लोप नहीं होगा जैसे- एषक सु
रु रुद्रः = एषको
रुद्रः ।
अनञ्समासे किम्? असः शिवः
यदि
एतत् और तद् में नञ्समास हो तो इनके सु का लोप नहीं होता। जैसे- अस सु शिवः= असः
शिवः।
हलि किम्? एषोऽत्र।
हल्
परे होने पर ही एतद् और तद् के सु का लोप होता है अन्यत्र यथा प्राप्त उत्च
पूर्वरुपादि कार्य होते है। जैसे- एष सु अत्र= एषोऽत्र
आप सदैव छात्रों को कुछ न कुछ खोज कर मार्गदर्शन देते रहते हैं इसीलिए आप मुझे पसंद है।
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