लघुसिद्धान्तकौमुदी (अजन्‍तस्‍त्रीलिङ्ग- प्रकरणम्)

                            अथ अजन्‍तस्‍त्रीलिङ्गाः

पूर्वपाठावलोकन/ प्रस्तावना
अजन्तस्त्रीलिङ्ग प्रकरण अध्ययन करने के लिए पूर्व के प्रकरण में आये कतिपय सूत्रों का पुनः स्मरण कर लेना चाहिए। आपको अजन्तपुल्लिङ्ग प्रकरण पढ़ते समय शब्द रूपों का क्रम समझ में आ गया होगा। यहाँ माहेश्वर सूत्र में दिये गये क्रम के अनुसार शब्दों को रखा गया है।  आप जानते होंगे कि संस्कृत में कुछ ही शब्द ऐसे हैं,जो स्त्रीलिंग शब्द हैं। इसमें अधिकांश शब्द पुल्लिङ्ग से स्त्रीलिंग बनाये जाते हैं। इसके लिए हम आगे के अध्याय में स्त्रीप्रत्यय को पढ़ेंगे। स्त्रीप्रत्यय से आकारान्त, ईकारान्त तथा ऊकारान्त स्त्रीवाचक शब्द बनते हैं। यही कारण है कि अजन्तस्त्रीलिंग में इस प्रकार के रूपों की सिद्धि (शब्द निर्माण की प्रक्रिया) दिखायी देती है। रमा, गंगा आदि स्त्रीवाचक शब्दों में अर्थवदधातु, कृत्तद्धित से प्रातिपदिक संज्ञा किये विना ही ङ्याप्प्रातिपदिकात् से सु आदि विभक्तियों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि ङ्यन्त तथा आबन्त से भी स्वादि प्रत्यय होते हैं। जो स्त्रीवाचक शब्द में ङीष्, ङीप्, ङीन्, टाप्, डाप्, चाप् प्रत्यय से बने हैं, वहाँ सु आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति ङ्याप्प्रातिपदिकात् से ङ्यन्त तथा आबन्त के कारण होंगे। शेष में प्रातिपदिक संज्ञा कर स्वादि की उत्पत्ति करनी चाहिए। इसके अनन्तर  प्रत्ययः, परश्च, द्वयेकयोः., बहुषु बहुवचनम् आदि सूत्रों  आवश्यकता तथा प्रक्रिया  अजन्तपुल्लिङ्ग प्रकरण के समान होती है। स्वादि प्रत्ययों की इत्संज्ञा तथा लोप के लिए उपदेशे., चुटू, लशक्व. तस्य लोपः की बार-बार आवश्यकता होगी।

प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः, अमि पूर्वः, दीर्घाज्जसि च के साथ सन्धि प्रकरण के दीर्घ, यण्, गुण तथा अयादि सन्धि के सूत्रों की आवश्यकता होती है। तृतीयादि विभक्तियों में अट्कुप्वाङ्. तथा ससजुषो रुः, खरवसानयोर्विसर्जनीयः, ङित् विभक्तियों विशेषतः ईकारान्त शब्दों की सिद्धि में नदी संज्ञा का विशेष प्रयोजन होता है। ईकारन्त तथा ॠकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों की सिद्धि के समय इकारन्त तथा ऋकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों की प्रक्रिया में आये ङेराम्नद्यम्नीभ्यः आदि सूत्रों की आवृत्ति कर लेनी चाहिए। 

रमा ।



२१७ औङ आपः
आबन्‍तादङ्गात्‍परस्‍ययौङः शी स्‍यात् । औङित्‍यौकारविभक्तेः संज्ञा । रमे । रमाः ।।
सूत्रार्थ - आबन्त अंग से परे औ को शी आदेश हो।

विशेष
रमु क्रीडायाम् धातु से नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः सूत्र से  'अच्' प्रत्यय करने पर 'रम' शब्द बना । स्त्रीत्व विवक्षा में अजाद्यतष्टाप् से 'टाप्' प्रत्यय कर अनुबन्धों का लोप और सवर्णदीर्घ करने से 'रमा' शब्द निष्पन्न होता है । यह रमा शब्द आबन्त है अतः ङ्याप्प्रातिपदिकात् से आबन्त से परे सु आदि की उत्पत्ति हो हुई।
रमा । रमा + सु में उकार का अनुबन्धलोप रमा + स् हुआ। 'रमा' शब्द आबन्त (टाबन्त) है, अतः इस से परे हल्ङ्याभ्यो० (१७९) सूत्र से  अपृक्त सकार का लोप हो गया  'रमा' रूप सिद्ध हुआ। 

विशेष
यहाँ सु विभक्ति का लोप हो गया है, तथापि 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' के बल पर 'रमा' शब्द की पद संज्ञा हो जाती है। 
रमे। रमा + औ इस स्थिति में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से प्राप्त सवर्ण का दीर्घाज्जसि च से निषेध हुआ। यहाँ वृद्धिरेचि से प्राप्त वृद्धि एकादेश को औङ आप: सूत्र बाधकर आबन्त अङ्ग से परे औ को 'शीआदेश कर दिया रमा + ई हुआ। शकार की 'लशक्वतद्धितेसे इत्संज्ञा लोप होने पर 'तस्य लोपःसे लोप हो गया। 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौके अनुसार 'शीमें सुप्त्व धर्म आया। अब आद्गुण: आ और ई में  गुण ए होकर 'रमेरूप सिद्ध हुआ।
रामाः । 'रमा + जस् में जकार का अनुबन्धलोप रमा + अस्' हुआ। यहाँ 'अक: सवर्णे दीर्घः'  से दीर्घ होकर तथा सकार का रुत्व, विसर्ग होकर 'रामाःरूप सिद्ध हुआ।
विशेष
यहाँ 'प्रथमयोः पूर्वसवर्णः'  से  प्राप्त पूर्वसवर्ण दीर्घ का 'दीर्घाज्जसि च' से  निषेध हो गया। 
२१८ सम्‍बुद्धौ च
आप एकारः स्‍यात्‍सम्‍बुद्धौ । एङ्ह्रस्‍वादिति संबुद्धिलोपः । हे रमे । हे रमे । हे रमाः । रमाम् । रमे । रमाः ।।
सूत्रार्थ -आबन्त अङ्ग को एकार आदेश हो सम्बुद्धि परे रहते।

हे रमे । 'हे रमा + सु' में उकार को अनुबन्धलोप, सम्बुद्धौ च से आबन्त अङ्ग से सम्बुद्धि परे होने के कारण अन्त्य आकार को एकार होकर 'हे रमे + स्' बना। इस स्थिति में एङ्हस्वात्सम्बुद्धेः सूत्र से सम्बुद्धि के सकार का लोप हुआ। 'हे रमे' रूप सिद्ध हुआ। 
सम्बुद्धि के द्विवचन तथा बहुवचन में प्रथमा के समान ही हे रमे, हे रमा: रूप सिद्ध होंगे। 
रमाम् । रमा + अम् में 'अमि पूर्वः' से अम् के अकार का पूर्वरूप होकर रमाम् रूप सिद्ध हुआ। 
रमाः । द्वितीया बहुवचन शस् विभक्ति 'रमा + शस्' इस स्थिति में 'प्रथमयोः पूर्वसवर्णः' से पूर्व आकार और अकार के स्थान में सवर्ण दीर्घ एकादेश आकार हुआ। रमास् रूप बना। रमास् के सकार के स्थान में 'रु' और उसके रेफ के स्थान में विसर्ग होने पर रमाः रूप सिद्ध हुआ । 

२१९ आङि चापः
आङि ओसि चाप एकारः । रमया । रमाभ्‍याम् । रमाभिः ।।
सूत्रार्थ - आङ् या ओस् परे रहते आबन्त अङ्ग को एकार आदेश हो।
प्राचीन आचार्यों ने 'टा' को आङ् कहा है।
रमया । 'रमा + टा' में अक: सवर्णे दीर्घः से प्राप्त सवर्ण दीर्घ को बाध कर आङि चाऽऽप: से  एकार आदेश हुआ। रमे + आ बना । अब 'एचोऽयवायाव:' से रमे के एकार को अय् आदेश तथा वर्ण सम्मेलन कर रमया रूप सिद्ध हुआ। 
रमा + भ्याम् = रमाभ्याम्। रमा + भिस् में सकार को रुत्व तथा विसर्ग होकर रमाभिः रूप सिद्ध हुआ। 
२२० याडापः
आपो ङितो याट् । वृद्धिः । रमायै । रमाभ्‍याम् । रमाभ्‍यः । रमायाः । रमयोः । रमाणाम् । रमायाम् । रमासु । एवं दुर्गाम्‍बिकादयः ।।

सूत्रार्थ - आबन्त अङ्ग से परे ङित् को 'याट्' आगम हो। 'याट्' में 'टकार' की इत्संज्ञा हो जाती है, जिसके फलस्वरूप यह ङित् प्रत्यय के आदि में होता है।
रमायै । रमा से चतुर्थी के एकवचन में ङे विभक्ति आयी। ङकार का अनुबन्ध लोप होकर 'रमा + ए' बना। याडाप: से आबन्त अङ्ग से परे ङित् प्रत्यय है ङे का ए इसे याट् का आगम हुआ। याट् के टकार की इत्संज्ञा लोप होने पर 'रमाया + ए' बना। यहाँ वृद्धिरेचि' से वृद्धि होकर रमायै रूप सिद्ध हुआ। 
द्विवचन में 'रमाभ्याम्' तथा बहुवचन में 'रमाभ्यः' रूप बनेगा।

रमायाः । रमा + ङसि में अनुबन्धलोप, अस्' शेष बचा। याडापः से  याट् आगम तथा अक: सवर्णे दीर्घः से दीर्घ होकर रमायास् बना। सकार को रुत्व, विसर्ग करने पर रमायाः रूप सिद्ध हुआ। 
रमयोः । 'रमा + ओस्' में 'वृद्धिरेचि' से वृद्धि आदेश प्राप्त हुआ। 'आङि चाप:' से  आकार को एकार हुआ। रमे + ओस् बना। 'एचोऽयवायाव:' से रमे के एकार को  अयादेश तथा सकार को रुत्वादि कार्य होकर रमयोः रूप सिद्ध हुआ।
रमाणाम् । 'रमा + आम्' में 'ह्रस्वनद्यापो०' के से  'नुट्' आगम हुआ। उकार तथा टकार का अनुबन्ध लोप होने पर रमा नाम् बना। 'अट्कुप्वानुम्०' नाम के नकार को णकार हो गया। रमाणाम् रूप सिद्ध हुआ। 
रमायाम्  । 'रमा + ङि' में 'ङेराम्नद्याम्नीभ्यः' से  'ङि' को आम् आदेश होकर 'रमा + आम् हुआ। आम् को स्थानिवद्भाव करके 'याडाप:' से याट् आगम हुआ । रमा या आम् हुआ। या आम्  में सवर्णदीर्घ हुआ। रमायाम् रूप सिद्ध हुआ।
रमासु । रमा + सुप् में पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप होकर रमासु रूप सिद्ध हुआ । 


आकारान्तस्त्रील्लिङ्ग रमा शब्द का रूप
विभक्ति             एकवचनम्    द्विवचनम्     बहुवचनम्
प्रथमा       रमा         रमे         रमाः
द्वितीया      रमाम्        रमे         रमाः
तृतीया       रमया       रमाभ्याम्     रमाभिः
चतुर्थी       रमायै       रमाभ्याम्     रमाभ्यः
पञ्चमी       रमायाः     रमाभ्याम्     रमाभ्यः
षष्ठी        रमायाः      रमयोः      रमाणाम्
सप्तमी       रमायाम्     रमयोः      रमासु
सम्बोधन     हे रमे       हे रमे        हे रमाः



२२१ सर्वनाम्‍नः स्‍याड्ढ्रस्‍वश्‍च
आबन्‍तात्‍सर्वनाम्‍नो ङितः स्‍याट् स्‍यादापश्‍च ह्रस्‍वः । सर्वस्‍यै । सर्वस्‍याः । सर्वासाम् । सर्वस्‍याम् । शेषं रमावत् ।। एवं विश्वादय आबन्‍ताः ।।
सूत्रार्थ - आबन्त सर्वनाम से परे ङित् प्रत्ययों को स्याट् का आगम हो तथा (आप्) टा को ह्रस्व आदेश हो। 'स्याट्' में टकार इत्संज्ञक है। सर्व शब्द से टाप् प्रत्यय होकर सर्वा बना है। इसी आप् को ह्रस्व होता है।
सर्वस्यै । 'सर्वा + ङे' अनुबन्धलोप हो जाने पर 'सर्वा + ए' हुआ । यहाँ वृद्धि को बाध कर सर्वनाम होने के कारण सर्वनाम्नः स्याड्ढ्स्वश्च से 'स्याट्' आगम तथा आकार को ह्रस्व हो गया। सर्व स्या ए हुआ। स्या ए में वृद्धि होकर 'सर्वस्यै' रूप सिद्ध हुआ। 
सर्वस्याः । पञ्चमी एकवचन में सर्वा + अस्' में 'सर्वनाम्न: स्याङ्' से स्याट् का आगम, सर्वा के आकार को ह्रस्व तथा सवर्णदीर्घ, रुत्व, विसर्ग होकर सर्वस्याः रूप सिद्ध हुआ । 
सर्वस्याम् । सप्तमी के एकवचन में 'सर्वा + ङि' इस दशा में 'ङेराम्नद्याम्नीभ्यः' से ङि को आम् आदेशसर्वनाम्नः स्याड्ढ्स्वश्च सूत्र से स्याट् आगम और आकार को ह्रस्व होकर सर्वस्याम् रूप बना।  

शेषमिति- सर्वा शब्द के शेष रूप 'रमा' शब्द के समान ही बनेंगे। इसी प्रकार 'विश्वपा' आदि आबन्त सर्वनाम शब्दों के रूप बनेंगे।। 
२२२ विभाषा दिक्‍समासे बहुव्रीहौ
सर्वनामता वा । उत्तरपूर्वस्‍यैउत्तरपूर्वायै । तीयस्‍येति वा सर्वनामसंज्ञा । द्वितीयस्‍यैद्वितीयायै ।। एवं तृतीया ।। अम्‍बार्थेति ह्रस्‍वः । हे अम्‍ब । हे अक्‍क । हे अल्‍ल ।। जरा । जरसौ इत्‍यादि । पक्षे रमावत् ।। गोपाःविश्वपावत् ।। मतीः । मत्‍या ।।
सूत्रार्थ - दिशावाची सर्वादि शब्दों की दिक्समास (बहुव्रीहि समास) में सर्वनाम संज्ञा विकल्प से हो।

विशेष
बहुव्रीहि समास के प्रकरण में कथित 'दिङ्नामान्यन्तराले' सूत्र के से  किया गया समास 'दिक्समास' कहलाता है।

उत्तरपूर्वा। उत्तरपूर्वयोः दिशयोः अन्तरालम् (अर्थात् उत्तर और पूर्व दिशा के बीच की दिशा) इति उत्तरपूर्वा। 'उत्तरपूर्वा + ङे' में विभाषा दिक्समासे बहुव्रीहौ से विकल्प से सर्वनाम संज्ञा,सर्वनाम होने के कारण सर्वनाम्नः स्याड्ढ्स्वश्च से 'स्याट्आगम तथा आकार को ह्रस्व हो गया।  उत्तरपूर्व स्या + ए हुआ । स्या + ए में वृद्धि होकर 'उत्तरपूर्वस्यै' रूप सिद्ध हुआ। सर्वनाम संज्ञा अभाव पक्ष में याडापः से 'याट्' होकर 'उत्तरपूर्वायै' बना। 
उत्तरपूर्वाया:। 'उत्तरपूर्वा + ङसि'  तथा ङ्स् में  विभाषा दिक्समासे बहुव्रीहौ से विकल्प से सर्वनाम संज्ञा,सर्वनाम होने के कारण सर्वनाम्नः स्याड्ढ्स्वश्च से 'स्याट्आगम तथा आकार को ह्रस्व हो गया।  सकार को रुत्व विसर्ग  होकर उत्तरपूर्वस्याः, उत्तरपूर्वाया: रूप बनेंगे। 
आम् में- उत्तरपूर्वासाम् तथा उत्तरपूर्वाणाम्।
ङि में उत्तरपूर्वस्याम् और उत्तरपूर्वायाम् रूप बनेंगे।
तीयस्येति इति- 'तीयस्य ङित्सु वा' से तीयप्रत्ययान्त शब्दों की ङित् प्रत्ययों में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है।
 द्वितीया शब्द तीय प्रत्ययान्त शब्द है। अतः इसकी सर्वनाम संज्ञा विकल्प से हुई। द्वितीया + ङे में स्याट् आगम और ह्रस्व होकर द्वितीयस्यै रूप बना। अभावपक्ष में याडापः से याडागम होकर 'द्वितीयायै' रूप बनेगा। आम् में द्वितीयानाम् होगा। ।
एवमिति-इसी प्रकार तृतीया (तीसरी) शब्द के भी रूप बनेंगे।
अम्बार्थेति- अम्बा अर्थात् माता के वाचक 'अम्बा', 'अक्का' तथा 'अल्ला' को सम्बुद्धि में 'अम्बार्थनद्यो०' सूत्र से ह्रस्व होकर 'हे अम्ब' इत्यादि रूप बनते हैं। शेष रूप 'रमा' शब्द की तरह होंगे।
जरा । जरा शब्द के प्रथमा एकवचन में आबन्त होने से 'रमा' की तरह 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल्' के से  सु का लोप होकर 'जरा' रूप सिद्ध हुआ।
जरसौ । 'जरा + औ' में 'जराया जरसन्यतरस्याम्' के से  जरस् आदेश, वर्णसम्मेलन होकर 'जरसौ' बन गया। पक्ष में 'रमा' की तरह रूप होंगे।
 विशेष
'गोपा' शब्द 'विच्' प्रत्यय से निष्पन्न शब्द है । विच् का सर्वापहार लोप हो जाता है। अतः यह शब्द दोनों लिङ्गों में समान ही रहता है। दूसरे प्रकार से गोप शब्द '' प्रत्यय से बनता है। स्त्रीत्व की विवक्षा में इससे 'टाप्' प्रत्यय होकर 'गोपा' शब्द बनता है। गोपा शब्द के रूप 'विश्वपा' की तरह होंगे।



अब ह्रस्व इकारान्त शब्द मति शब्द  की सिद्धि बता रहे हैं-
मती: । मति शब्द के द्वितीया के बहुवचन में शस् विभक्ति आयी। मती + शस् में पूर्वसवर्णदीर्घ होकर 'मतीस्' बना। सकार को रुत्व, विसर्ग होकर मती: रूप सिद्ध हुआ। ।
मत्या । 'मति + टा में टकार का अनुबन्धलोप मती + ' में 'इको यणचि' के से  यणादेश होकर 'मत्या' हो गया। 
२२३ ङिति ह्रस्‍श्‍च
इयङुवङ्स्‍थानौ स्‍त्रीशब्‍दभिन्नौ नित्‍यस्‍त्रीलिङ्गावीदूतौह्रस्‍वौ चेवर्णोवर्णौस्‍त्रियां वा नदीसंज्ञौ स्‍तो ङिति । मत्‍यैमतये । मत्‍याः २ । मतेः २ ।।
सूत्रार्थ - इयङ् उवङ् के स्थानी, स्त्री शब्द को छोड़कर, उन नित्य स्त्रीलिङ्ग इकार, ईकार और उकार, ऊकार की ङित् (ङे,ङसि, डस्, ङि) प्रत्यय परे रहते स्त्रीलिंग में विकल्प से नदी संज्ञा हो ।
 विशेष
सूत्र में दो प्रकार के शब्दों की स्त्रीलिंग में ङित् (ङे,ङसि, डस्, ङि) प्रत्यय परे रहते विकल्प से नदी संज्ञा होती है। 
1.  उन नित्य स्त्रीलिङ्ग शब्द  के ईकार ऊकार के स्थान पर इयङ् उवङ् आदेश हुआ हो  
2. ह्रस्व इकार और ह्रस्व उकार वाले स्त्रीलिंग शब्द । श्री, भ्रू आदि शब्द नित्य स्त्रीलिंग हैं। इनसे इयङ् उवङ् आदेश होता है। इनकी भी प्रकृत सूत्र से विकल्प से नदी संज्ञा होगी। नित्यस्त्रीलिंग के बारे में पूर्व में कहा जा चुका है।
स्त्रीलिंग इकारान्त शब्द का उदाहरण दे रहे हैं।
मत्यै।  'मति + ङे' में मति शब्द ह्रस्व इकारान्त है, अतः इसकी ङिति ह्रस्वश्च से  विकल्प से नदी संज्ञा हुई। ङे के ङकार का अनुबन्धलोप मति + ए बना। नदी संज्ञा, 'आण्नद्याः' से  आट् आगम मति आट् ए, 'आटश्च' से  वृद्धि होने पर मती + ऐ बना। इकार को 'यण्' होकर मत्यै रूप बना। नदी संज्ञा अभाव पक्ष में घि संज्ञा होगी तथा 'घेर्ङिति' से  गुण होकर मते + ए बना। मते के ए को 'अय्' आदेश होकर मतये रूप सिद्ध हुआ।
मत्याः- पञ्चमी और षष्ठी के एकवचन ङसि तथा ङस् में विकल्प से नदी संज्ञा, आट् आगम, वृद्धि, यण्, रुत्व और विसर्ग कार्य होकर मत्याः रूप सिद्ध हुआ। नदीसंज्ञा के अभावपक्ष में घिसंज्ञा, गुण मते + अस् बना। 'ङसिङसोश्च' से अस् के अकार का पूर्वरूप तथा सकार को रुत्व विसर्ग होकर मतेः रूप बना।
मतीनाम् । मति + आम् यहाँ ह्रस्वनद्यापो नुट् से नुट् का आगम नामि से मती के ईकार को दीर्घ होकर मतीनाम् रूप बना। 

२२४ इदुद्भ्‍याम्
इदुद्भ्‍यां नदीसंज्ञकाभ्‍यां परस्‍य ङेराम् । मत्‍याम्मतौ । शेषं हरिवत् ।। एवं बुद्ध्‍यादयः ।।
सूत्रार्थ - नदीसंज्ञक ह्रस्व इकार उकार से परे ङि को आम् आदेश हो । यह औत् सूत्र सूत्र का अपवाद है।
मत्याम्, मतौ । 'मति + इ' यहां प्रकृतसूत्र से ङि को आम् होकर 'मति + आम्' हुआ। अब आण्नद्याः से आट् आगम और ह्रस्वनद्यापो नुट् (१४८) से नुट् आगम दोनों एकसाथ प्राप्त होते हैं। नुट् की अपेक्षा आट् पर होने के कारण आट् का आगम हुआ मति + आट् आम् हुआ । आटश्च से आ आम् में वृद्धि होने पर मती + आम् हुआ। मती के इकार को यण् करने पर मत्याम् रूप सिद्ध हुआ। नदीसंज्ञा के अभाव में घिसंज्ञा होकर अच्च घेः से ङि को औकार और घि को अकार अन्तादेश होकर मत + औ बना । यहाँ वृद्धि एकादेश करने से 'मतौ रूप सिद्ध हुआ।
हे मते । हे मति + सु में ह्रस्वस्व गुणः से मती के इकार को गुण एकार होकर मते स् बना। एङ्ह्रस्वात् से सम्बुद्धि का लोप होकर 'हे मते' सिद्ध हुआ।
इसी प्रकार बुद्धि आदि इकारान्त शब्द बनेंगें।
            एक०                   द्वि०                  बहु०
मति:                   मती                  मतयः
मतिम्                 मती                  मती:
मत्या                  मतिभ्याम्         मतिभिः
मत्यै, मतये         मतिभ्याम्         मतिभ्यः
मत्याः, मतेः        मतिभ्याम्         मतिभ्यः
मत्याः, मते:        मत्योः               मतीनाम्
मत्याम्, मतौ      मत्योः               मतिषु
हे मते                 हे मती               हे मतयः



२२५ त्रिचतुरोः स्‍त्रियां तिसृचतसृ
स्‍त्रीलिङ्गयोरेतौ स्‍तो विभक्तौ ।।
सूत्रार्थ - स्त्रीलिंग में त्रि और चतुर् शब्दों को क्रम से 'तिसृ' और 'चतसृ' आदेश हो ।
अजन्तपुल्लिङ्ग में त्रि शब्द नित्य बहुवचनान्त है, ऐसा कहा जा चुका है। चतुर् शब्द भी नित्य बहुवचनान्त है। 
२२६ अचि र ऋतः
तिसृ चतसृ एतयोर्ऋकारस्‍य रेफादेशः स्‍यादचि । गुणदीर्घोत्‍वानामपवादः । तिस्रः । तिसृभ्‍यः । तिसृभ्‍यः । आमि नुट् ।।
सूत्रार्थ - तिसृ और चतसृ शब्द के ऋकार को रेफ आदेश हो अच् परे रहते।
इको यणचि से यण् करके भी अचि र ऋत: से किया जाना वाला ऋकार को रेफ आदेश का कार्य सिद्ध हो जाता पुनः इस सूत्र की आवश्यकता को लिखते हैं-  गुणेति- अचि र ऋत: सूत्र गुण, दीर्घ तथा उकार का अपवाद है।
गुण का उदाहरण - जस् परे रहते 'ऋतो डिसर्वनाम०से गुण प्राप्त होता है।
पूर्वसवर्ण दीर्घ का उदाहरण -  शस् परे रहते 'प्रथमयोः पूर्वसवर्णः' से पूर्वसवर्ण दीर्घ प्राप्त है
उत्व का उदाहरण - ङसि और ङस् परे रहते 'ऋत उत्' से उत्व प्राप्त है। उक्त तीनों कार्यों को बाधकर इस सूत्र से ऋकार को रेफ आदेश हो जाता है। अतः कहा गया- गुणेति। इन सूत्रों के इको यणचि से बाध्य- बाधकता पर आप विचार करें।
तिस्रः । 'त्रि + जस्' यहाँ 'त्रिचतुरो:०से 'तिसृ' आदेश हो गया। तिसृ + अस्। अब यहाँ पूर्वसवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ, जिसे बाधकर 'ऋतो डिसर्वनाम०' से प्राप्त गुण प्राप्त हुआ। इसे 'अचि र ऋत:' के द्वारा बाधकर रेफ आदेश हो गया। तिस्र + अस् हुआ। अस् के सकार को विसर्ग होकर 'तिस्रः' रूप सिद्ध हो गया। 
तिस्रः । 'तिसृ + शस्' में पूर्वसवर्ण दीर्घ को बाध कर रेफादेश तथा शस् के सकार को रुत्व, विसर्ग होकर तिस्रः बना।
त्रि शब्द से भिस् तथा भ्यस्' में 'तिसृ' आदेश तथा सकार को रुत्व, विसर्ग होकर तिसृभिः, 'तिसृभ्यः' रूप बना।
आमि इति- 'त्रि + आम्' में 'त्रिचतुरो:'- से 'तिसृ' आदेश तथा 'अचि र ऋतःसे रेफ आदेश होकर तिस्र + आम् हुआ। 'ह्रस्वनद्यापो०' से आम् को 'नुट्' आगम हुआ। तिसृ नुट् आम् में  नुट् के उट् का अनुबन्धलोप, तिस्र + नाम् हुआ। नामि से प्राप्त दीर्घ के निषेध के लिए आगामी सूत्र आया-

विशेष-
 'नुमचिर तृज्वद्भावेभ्यो नुट् पूर्व विप्रतिषेधेन' परिभाषा के अनुसार रेफादेश की अपेक्षा नुडागम बलवान है। अत: रेफादेश को पर होते हुए भी 'नुट्' आगम होगा। नुट् का आगम हो जाने पर रेफादेश की स्वत: निवृत्ति हो जायेगी, क्योंकि नाम् अजादि प्रत्यय नहीं है। 

२२७ न तिसृचतसृ
एतयोर्नामि दीर्घो न । तिसृणाम् । तिसृषु ।। द्वे । द्वे । द्वाभ्‍याम् । द्वाभ्‍याम् । द्वाभ्‍याम्। द्वयोः । द्वयोः ।। गौरी । गौर्य्यौ । गौर्य्यः । हे गौरि । गौर्य्यै इत्‍यादि । एवं नद्यादयः ।। लक्ष्मीः । शेषं गौरीवत् ।। एवं तरीतन्‍त्र्यादयः ।। स्‍त्री । हे स्‍त्रि ।।
सूत्रार्थ - आम् प्रत्यय परे रहते तिसृ और चतसृ शब्दों को दीर्घ आदेश न हो।

तिसृणाम् । 'तिसृ + नाम्' यहाँ 'नामि' सूत्र से प्राप्त दीर्घ का निषेध इस सूत्र के द्वारा किया गया। 'ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम्' से नकार को णकार आदेश तथा वर्ण सम्मेलन करने पर 'तिसृणाम्' रूप सिद्ध हुआ।
तिसृषु । सप्तमी के बहुवचन में आदेशप्रत्यययोः' से सुप् प्रत्यय के सकार को मूर्धन्य (षकार) आदेश होकर तिसृषु रूप सिद्ध हो गया।

इसी प्रकार चतसृ शब्द के भी रूप बनेंगे। प्र० चतस्रः। द्वि० चतस्रः। त० चतसृभिः। च० चतसृभ्यः । पं० चतृसृभ्यः । ष० चतसृणाम्। स० चतसृषु।



द्वे । द्वि शब्द के प्रथमा तथा द्वितीया के द्विवचन में 'त्यदादीनाम:' से इकार को अकार आदेश हुआ। 'द्व + औ' हुआ। इस स्थिति में स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप् हो गया। द्व आ औ में अ तथा आ में सवर्णदीर्घ होकर द्वा + औ बना। यहाँ औङ: आप: से 'शी' आदेश तथा गुण होकर 'द्वे' रूप बना।
द्वाभ्याम् । 'द्वि + भ्याम्'- यहाँ 'त्यदादीनाम:' से इकार को अकार आदेश, टाप् तथा सवर्णदीर्घ होकर 'द्वाभ्याम्' रूप बना।
द्वयोः । षष्ठी तथा सप्तमी द्विव० में अकार, टाप्, सवर्ण दीर्घ, आङि चाप: से आकार को एकार तथा अय् आदेश होकर 'द्वयोः' रूप बना। 

गौरी । दीर्घ ईकारान्त शब्द 'गौरी शब्द से सु विभक्ति, उकार का अनुबन्ध लोप 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल्' से अपृक्त सकार का लोप होकर गौरी रूप सिद्ध हुआ
गौर्यौ । 'गौरी + औ'- यहाँ पूर्व सवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ,जिसे 'दीर्घाज्जसि च' से निषेध हो गया। 'गौरी + औ' में इको यणचि से 'यण्' होकर 'गौर्यौ' रूप बना।
गौर्यः । 'गौरी जस्' में होकर यण् तथा रुत्ल,विसर्ग होकर 'गौर्यः' रूप बना।
हे गौरि । 'हे गौरी + सु' में गौरी नित्य स्त्रीलिङ्ग होने के कारण नदीसंज्ञक हो गया। यहाँ 'अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वःसे गौरी के ईकार को ह्रस्व तथा 'एङ् ह्रस्वात्से सकार लोप होकर हे गौरि रूप बना। 
गौरीम् । गौरी + अम् में अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर गौरीम् बना। 
गौरीः । गौरी + शस् में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्णदीर्घ तथा सकार को रूत्वविसर्ग होकर गौरीः रूप बना।गौरीणाम् । गौरी + आम् में ह्रस्वनद्यापो०से नुट् का आगम, अट्कुप्वानु. से णत्व होकर गौरीणाम् बना।

गोर्यै । 'गौरी + ङे' में 'आण्नद्याःसे आट् का आगम हुआ । 'गौरी आ ए हुआ । इसमें 'आटश्चसे वृद्धि होकर -गौरी ऐ' बन गया। गौरी के ईकार को यण्' होकर 'गोर्यै' रूप बना। 
गौर्याम् । गौरी + ङि' में ङेरामनद्याम्नीभ्यः से ङि को आम् आदेश होने पर गौरी + आम् हुआ। आण्नद्याः से आट् का आगम हुआ। गौरी आट् आम् में आटश्च से वृद्धि होने पर गौरी आम् हुआ । यहाँ इको यणचि से ईकार को यण् होकर गौर्याम् रूप सिद्ध हुआ।
                    एकवचन             द्विवचन            बहुवचन
प्रथमा               गौरी                 गौर्यौ                 गौर्यः
द्वितीया             गौरीम्               गौर्यौ                 गौरीः
तृतीया             गौर्या                 गौरीभ्याम्         गौरीभिः
चतुर्थी              गौर्यै                  गौरीभ्याम्         गौरीभ्यः
पञ्चमी              गौर्याः               गौरीभ्याम्         गौरीभ्यः
षष्ठी                गौर्याः               गौर्योः               गौरीणाम्
सप्तमी              गौर्याम्              गौर्योः               गौरीषु
संबोधन           हे गौरि              हे गौर्यौ             हे गौर्यः

इसी प्रकार नदी, देवी, पुरी, पुत्री, पृथ्वी, दासी, श्रीमती, भवानी, पृथ्वी, रमणी, जननी, कमलिनी, लेखनी आदि के रूप बनेंगे।
लक्ष्मीः । लक्ष दर्शनाङ्कनयोः (चुरा० उ०) धातु से लक्षेर्मुट् च से ई प्रत्यय और मुट् का आगम करने से 'लक्ष्मी' शब्द निष्पन्न होता है। ङ्यन्त न होने के कारण लक्ष्मी से परे सु को हल्ङ्याब्भ्यः (१७६) द्वारा लोप नहीं होता। सु को सकार को रुत्व ,विसर्ग होकर लक्ष्मीः रूप बनता है। अन्य विभक्तियों में गौरी शब्द के समान रूप बनते हैं ।
एवं तरीति- तरी, तन्त्री आदि अन्य ई प्रत्ययान्त शब्दों के रूप भी लक्ष्मी शब्द के समान होते हैं। ड्यन्त न होने से इन में भी सुलोप नहीं होता। इस विषय पर इस श्लोक को याद रखना चाहिए -

अवी-तन्त्री-तरी-लक्ष्मी-धी-ह्री-श्रीणामुणादिषु ।
सप्तस्त्रीलिङ्गशब्दानां न सुलोपः कदाचन ॥ 
स्त्री। 'स्त्री+  सु'- में 'हल्ड्याब्भ्य:-से अपृक्त सकार का लोप होकर स्त्री बना।

हे स्त्रि । 'हे स्त्री + सु'- यहाँ नदीसंज्ञक होने से 'अम्बार्थनद्योर्ह्रस्व:' से स्त्री के ईकार को ह्रस्व हो गया। स्त्रि स् बना। 'एङ्ह्रस्वाद्से सकार का लोप हो गया। हे स्त्रि बना। 
२२८ स्‍त्रियाः
अस्‍येयङ् स्‍यादजादौ प्रत्‍यये परे । स्‍त्रियौ । स्‍त्रियः ।।
सूत्रार्थ - अजादि प्रत्यय परे रहते स्त्री शब्द को इयङ् आदेश हो।
इयङ में अकार तथा ङकार की इत्संज्ञा, लोप हो जाने पर इय् शेष रहता है।
स्त्रियौ । 'स्त्री + औ' इस अवस्था में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से प्राप्त पूर्वसवर्ण दीर्घ आदेश का 'दीर्घाज्जसि च' से निषेध हो गया। 'इको यणचि' से यण् प्राप्त हुआ । स्त्रियाः से अजादि प्रत्यय परे होने से 'स्त्री' शब्द के ईकार को इयङ् आदेश होकर 'स्त्रियौ' रूप सिद्ध हुआ। 
स्त्रियः । 'स्त्री + जस्' में इयङ् आदेश और सकार को रुत्व, विसर्ग होने से स्त्रियः रूप बना। 
२२९ वाम्‍शसोः
अमि शसि च स्‍त्रिया इयङ् वा स्‍यात् । स्‍त्रियम्स्‍त्रीम् । स्‍त्रियःस्‍त्रीः । स्‍त्रिया । स्‍त्रियै । स्‍त्रियाः । परत्‍वान्नुट् । स्‍त्रीणाम् । स्‍त्रीषु ।। श्रीः । श्रियौ । श्रियाः ।।
सूत्रार्थ - अम् और शस् परे रहते स्त्री शब्द को इयङ् विकल्प से हो।
स्त्रियम् । स्त्री + अम् में 'इको यणचि' से यण् प्राप्त हुआ। इसे बाधकर 'अमि पूर्व:' से पूर्वरूप प्राप्त हुआ । पूर्वरूप को बाधकर वाऽम्-शसो: से इयङ् आदेश हुआ स्त्रिय् + अम् हुआ । वर्ण सम्मेलन होकर स्त्रियम् रूप सिद्ध हुआ। इयङ् के विकल्प में अमि पूर्व:' से पूर्वरूप होकर स्त्रीम् बना। 

स्त्रियः। द्वितीया के बहुवचन में इयङ् होकर स्त्रियः बना। इयङ् के अभाव पक्ष में पूर्वसवर्ण दीर्घ होकर 'स्त्री:' रूप बना। 
स्त्रिया । 'स्त्री टा'- यहाँ स्त्रियाः' सूत्र के से  इयङ् आदेश होकर 'स्त्रिय् आ- स्त्रिया' रूप सिद्ध हुआ। 
स्त्रियै । 'स्त्री डे'- इस अवस्था में 'आण्नद्याः' से  आट् तथा 'आटश्च' से  वृद्धि होकर 'स्त्री + ऐ' बना। यहाँ 'स्त्रियाः' से  इयङ् आदेश होकर 'स्त्रियै' रूप बना। 
स्त्रियाः । स्त्री + ङसि तथा  ङस् में स्त्री शब्द की नदी संज्ञा होने से आट् आगम, स्त्री आट् अस्, वृद्धि आदेश, स्त्री आस् तथा इयङ् आदेश होकर स्त्रियास् बना । सकार को रुत्व विसर्ग करके स्त्रियाः बना।
स्त्रीणाम् । 'स्त्री + आम्'- यहाँ 'स्त्रियाः' से  इयङ् आदेश तथा 'ह्रस्वनद्यापो नुट्' से  'नुट्' प्राप्त है। 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्' के अनुसार पर कार्य नुडागम होकर स्त्री नुट् आम् हुआ। स्त्रीनाम् में 'अट्कुप्वाङ्' से  नकार को णकार होकर स्त्रीणाम् बन गया। 
स्त्रीषु । 'स्त्री + सुप्' में सकार को आदेशप्रत्यययोः से मूर्धन्य आदेश होकर 'स्त्रीषु' हो गया। 

श्रीः । श्री शब्द ङ्यन्त नहीं है। अत: लक्ष्मीः की तरह 'श्री + सु' में 'स्' का रुत्व,विसर्ग होकर 'श्री:' रूप बनता है। 
श्रियौ । श्री + औ' में 'अचिश्नु० ' से  इयङ् आदेश होकर 'श्रियौ' रूप बना। 
श्रियः । श्री + जस् में इयङ् आदेश, रुत्व, विसर्ग होकर श्रियः रूप बना। 



२३० नेयङुवङ्स्‍थानावस्‍त्री
इयङुवङोः स्‍थितिर्ययोस्‍तावीदूतौ नदीसंज्ञौ न स्‍तो न तु स्‍त्री । हे श्रीः । श्रियैश्रिये । श्रियाःश्रियः ।।
सूत्रार्थ - जिस दीर्घ ईकार तथा ऊकार के स्थान पर इयङ् उवङ्  आदेश होते हैं, उसकी नदी संज्ञा नहीं होती, स्त्री शब्द को छोड़कर।
हे श्री: । 'हे श्री + सु' यहाँ दीर्घ ईकारान्त 'श्री' शब्द के स्थान पर इयङ् आदेश होता है अतः यहाँ नदी संज्ञा का निषेध हो जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप ह्रस्वनद्यापः से ह्रस्व नहीं हुआ। 'हे श्री + सु' में सकार को रुत्व तथा विसर्ग होकर हे श्री: बन गया। 
श्रियम् । श्री + अम् में अचिश्नुधातु० से इयङ् आदेश तथा अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर श्रियम् रूप बना।
श्रियै, श्रिये । श्री + ए'- 'यू स्त्रियाख्यौ नदी' से प्राप्त नदी संज्ञा का 'नेयङुवङ्स्थानावस्त्री' से निषेध हो गया। 'ङिति ह्रस्वश्च०' से  विकल्प से नदी संज्ञा होती है। नदी संज्ञा होने पर आट् आगम, वृद्धि आदेश होकर श्री ऐ बना। 'अचिश्नु०' से  इयङ् आदेश होने पर श्रिय् ऐ= श्रियै रूप बना। अभाव पक्ष में इयङ् आदेश होकर 'श्रिये' रूप बनेगा।श्रियाः, श्रियः  'श्री + ङसि' में नदीसंज्ञा विकल्प से होती है। नदी पक्ष में ङे विभक्ति की तरह कार्य होकर 'श्रियाः' रूप सिद्ध हुआ है तथा अभाव पक्ष में इयङ् आदेश होकर 'श्रियः' रूप बन गया। 
विशेष- 
अचिश्नु से इयङ् आदेश अजादि विभक्तियों में होता है परन्तु इस सूत्र से यू स्त्रियाख्यौ से प्राप्त नदी संज्ञा का निषेध सभी विभक्तियों में होगा।
२३१ वामि
इयङुवङ्स्‍थानौ स्‍त्र्याख्‍यौ यू आमि वा नदीसंज्ञौ स्‍तो न तु स्‍त्री । श्रीणाम्श्रियाम् । श्रियिश्रियाम् ।। धेनुर्मतिवत् ।।

सूत्रार्थ - जिसके स्थान पर इयङ् और उवङ् आदेश होते हैं, ऐसे नित्यस्त्रीलिङ्ग ईकार, ऊकार की आम् परे रहते विकल्प से नदीसंज्ञा हो। स्त्री शब्द की उक्त संज्ञा न हो।

श्रीणाम् । 'श्री + आम्'- यहाँ इयङ् स्थिति वाला ईकारान्त 'श्री' शब्द है। आम् परे रहते इसकी प्रकृत सूत्र से  विकल्प से नदीसंज्ञा हो गई। नदी संज्ञा के पक्ष में 'ह्रस्वनद्यापो नुट्' से  'नुट्' आगम तथा अट्कुप्वाङ् से णत्व होकर श्रीणाम् बनता है। नदी संज्ञा अभाव पक्ष में 'इयङ्' होकर 'श्रियाम्' बनेगा। 
श्रियाम्, श्रियि । 'श्री + ङि' में 'ङिति ह्रस्वश्च' से विकल्प से नदी संज्ञा हुई। नदी संज्ञा होने से ङेराम्नद्याम्नी० से ङि का आम् आदेश होकर श्री + आम् बना। आण् नद्याः से आट् का आगम, श्री आट् + आम् में आटश्च से वृद्धि होने पर श्री आम् बना। यहाँ अचिश्नुधातु० से श्री के ईकार को इयङ् आदेश, अनुबन्धलोप होने पर श्रियाम् बना। नदीत्वाभाव पक्ष में इयङ् आदेश होकर 'श्रियि' रूप बनेगा।
नदी संज्ञा से जुड़े कार्यों पर स्मरणीय बातें –
(1) नदीसज्ञा का उपयोग केवल डे, ङसि, ङस्, ङि, आम् और सम्बुद्धि इन छ: स्थानों पर ही होता है ।
(2) जिस शब्द में इयङ् उवङ् आदेश होते हों उस में प्रथम नेयङुवङ्स्थानावस्त्री से सर्वत्र छः स्थानों पर नदीसञ्ज्ञा का निषेध हो जाता है।
(3) नदीत्व के निषेध के बाद ङिद्वचनों तथा आम् में क्रमशः ङिति ह्रस्वश्च और वाऽऽमि सूत्रों से नदीत्व का विकल्प हो जाता है।
(4) उपर्युक्त नदी संज्ञा के विकल्प होने से सम्बुद्धि ही नदी संज्ञा होने से बची रहती है। इस प्रकार नेयङुवङ् द्वार किया जाने वाला नदी संज्ञा का निषेध केवल सम्बुद्धि में ही चरितार्थ होता है।
(5) नदी संज्ञा विधायक उपर्युक्त नियमों में सर्वत्र 'अस्त्री' कहा गया है । अतः स्त्री शब्द में यू स्त्र्याख्यो नदी से नित्य नदी संज्ञा होती है। 



२३२ स्‍त्रियां च
स्‍त्रीवाची क्रोष्‍टुशब्‍दस्‍तृजन्‍तवद्रूपं लभते ।।
सूत्रार्थ - स्त्री वाची क्रोष्टु शब्द तृजन्त के समान हो। 
२३३ ऋन्नेभ्‍यो ङीप्
ऋदन्‍तेभ्‍यो नान्‍तेभ्‍यश्‍च स्‍त्रियां ङीप् । क्रोष्‍ट्री गौरीवत् ।। भ्रूः श्रीवत् ।। स्‍वयम्‍भूः पुंवत् ।।
सूत्रार्थ - ऋदन्त और नकारान्त शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् हो । 

क्रोष्ट्री । क्रोष्टु + सु इस अवस्था में स्त्रियां च सूत्र से क्रोष्टु शब्द को स्त्रीलिङ्ग में तृजन्त होकर 'क्रोष्टृ' रूप बना। अब ऋन्नेभ्यो ङीप् से 'ङीप्' प्रत्यय हुआ। 'क्रोष्टृ + ङीप् हुआ। ङीप् में ङकार का लशक्वतद्धिते.' से तथा पकार का हलन्त्यम् से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप हुआ। क्रोष्टृ + ' बना। अब यणादेश होकर 'क्रोष्ट्री' हो गया।
गौरीवदिति- ईकारान्त 'क्रोष्ट्री' शब्द के रूप गौरी शब्द की तरह होंगे।

दीर्घ ऊकारान्त शब्द भ्रू (भौं) शब्द के प्रथमा के एकवचन में सु का रुत्व, विसर्ग हो जाता है- भ्रूः ।
श्रीवत्-भ्रू शब्द के रूप श्री शब्द के समान बनेंगे। इसमें 'नेयङुवङ्स्थानावस्त्री' से नदी संज्ञा का निषेध और ङिद्वचनों में 'ङिति ह्रस्वश्च' से विकल्प से नदी संज्ञा होती है। यहाँ 'अचिश्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवडौ' से उवङ् आदेश होगा।
विभक्ति             एकवचन           द्विवचन             बहुवचन
प्रथमा                भ्रूः                    भ्रुवौ                  भ्रुवः
सम्बोधन            हे भ्रूः                 हे भ्रुवौ              हे भ्रुवः
द्वितीया             भ्रुवम्                भ्रुवौ                  भ्रुवः
तृतीया               भ्रुवा                  भ्रूभ्याम्             भ्रूभिः
चतुर्थी               भ्रुवै / भ्रुवे           भ्रूभ्याम्             भ्रूभ्यः
पञ्चमी               भ्रुवाः / भ्रुवः        भ्रूभ्याम्             भ्रूभ्यः
षष्ठी                  भ्रुवाः / भ्रुवः        भ्रुवोः                भ्रूणाम् / भ्रुवाम्
सप्तमी               भ्रुवाम् / भ्रुवि        भ्रुवोः                भ्रूषु

स्वयम्भूः । 'स्वयम्भू + सु' में 'ससजुषोः रु:से रु होकर 'खरवसानयोः विसर्ज०से विसर्ग हो गया। स्वयम्भूः रूप बना। 'स्वयम्भू' के रूप पुँल्लिङ्ग की तरह होंगे। 
२३४ न षट्स्‍वस्रादिभ्‍यः
ङीप्‍टापौ न स्‍तः ।।
सूत्रार्थ - षट् संज्ञा वाले और स्वसृ आदि शब्दों से डीप् तथा टाप् नहीं होते हैं। 

'ष्णान्ता: षट्से पञ्चन्, षष्, सप्तन् आदि शब्दों की षट् संज्ञा होती है। अत: इन नकारान्त शब्दों को 'ऋन्नेभ्य:०'  से ङीप् प्राप्त है, जिसका निषेध इस सूत्र से किया किया जा रहा है। 
                   स्‍वसा तिस्रश्‍चतस्रश्‍च ननान्‍दा दुहिता तथा ।
                   याता मातेति सप्‍तैते स्‍वस्रादय उदाहृताः ।।

स्वसा इति- इस कारिका में स्वसृ आदि का परिगणन किया गया है। 'स्वसृ (बहिन), तिसृ (तीन स्त्रियाँ), चतसृ (चार स्त्रियाँ), ननान्दृ (पति की बहिन-ननद), दुहितृ (लड़की), यातृ (भाइयों की स्त्रियाँ आपस में 'याता' कहती हैं), मातृ (माता) ये सात शब्द स्वस्रादि कहे गये हैं। 
स्‍वसा । स्‍वसारौ ।। माता पितृवत् । शसि मातॄः ।। द्यौर्गोवत् ।। राः पुंवत् ।। नौर्ग्‍लौवत् ।।
स्वसा । 'स्वसृ + सु' इस दशा में 'ऋदुदशन०' सूत्र से ऋकार को 'अनङ्' आदेश हुआ। 'स्वस्  अनङ् + सु' में अङ् की इत्संज्ञा और लोप, 'अतृन्तृचस्वसृ०' से उपधा अकार को दीर्घ होकर 'स्वासान् + सु' हुआ। सु के उकार का अनुबन्धलोप, अपृक्त सकार का 'हल्ड्याब्भ्य:०' से सलोप और 'नलोपः प्रातिपदिका०' से नकार का लोप होकर स्वसा रूप सिद्ध हुआ।

स्वसारौ । स्वसृ + औ'- यहाँ 'ऋतो ङि सर्वनामस्थानयोःसे गुण होकर 'स्वसर् + औ' बना। स्वसर् के उपधा को 'अप्तृन्तृच्स्वसृ०से दीर्घ होकर स्वसारौ रूप सिद्ध हुआ । 
माता पितृवदिति- मातृ शब्द पितृ शब्द के समान होगा मातृ+ शस् में मातृः रूप बनेगा। इसी प्रकार ननान्दृ आदि शब्दों के भी रूप बनते हैं। 

द्यौः । द्यो शब्द का रूप 'गो' शब्द के समान बनेंगे। रै शब्द स्त्रीलिंग में भी पुल्लिङ्ग के समान होंगें। नौ शब्द के रूप ग्लौ के समान बनते हैं। 



इत्‍यजन्‍तस्‍त्रीलिङ्गाः
                                                              लघुसिद्धान्तकौमुदी (अजन्‍तनपुंसकलिंग-प्रकरणम्)

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