संस्कृत व्याकरण समझने का औजार


                                                    संस्कृत व्याकरण के अङ्ग

व्याकरण के पांच अङ्ग हैं- सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ तथा लिङ्गानुशासन। माहेश्वर सूत्र, सूत्रपाठ, धातुपाठ, वार्तिकपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ तथा लिङ्गानुशासन, आगम, प्रत्यय तथा आदेश को उपदेश कहा जाता है।

                 धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिङ्गानुशासनम्।
                 आगमप्रत्ययादेशा उपदेशाः प्रकीर्तिताः ।।

                 धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिंगानुशासनम्।
                 आदेशो आगमश्च उपदेशाः प्रकीर्तिता।।

इनमें सूत्रपाठ मुख्य भाग है, शेष उसके परिशिष्ट ग्रन्थ कहे जाते हैं। ये सभी रचनायें अष्टाध्यायी के सूत्रों के पूरक हैं। इन परिशिष्ट ग्रन्थों की सहायता से ही सूत्रों को लघु रूप में कह पाना सम्भव हो सका। आगे के पाठ में आप देख सकेंगे कि किस प्रकार प्रत्याहार तथा धातु आदि अन्य पाठों का उपयोग सूत्रों को छोटे आकार में बनाये रखने के लिए किया गया। जैसे- पाणिनि ने सर्वनाम संज्ञा के लिए सर्वादीनि सर्वनामानि’ (अष्टा. 1.1.27) सूत्र लिखते हैं, यहां सर्व आदि से सर्वादि गण का निर्देश किया गया है। सर्वादि गण के ज्ञान के लिए गणपाठ के सहारे की आवश्यकता होती है, यदि गण पाठ नहीं होता तो इतने कम शब्दों में सूत्रों को कहना सम्भव नहीं था। सूत्र का अर्थ ही होता है- धागा। इसके सहारे हम विभिन्न गणों, प्रत्याहार के वर्णों तक पहुँच पाते हैं। इस प्रकार सूत्र अपने छोटे आकार में रहकर भी अधिक अर्थ को कह पाता है। इसी प्रकार फणां च सप्तानाम्’ (अष्टा. 6.4.125) सूत्र में फणादि सात धातुओं का निर्देश मिलता है। इसकी जानकारी धातुपाठ से मिलती है। उणादयो बहुलम्’ (अष्टा. 3.3.1) सूत्र को समझने के लिए उणादिपाठ की शरण में जाना होता है। इस प्रकार धातुपाठ और गणपाठ  आदि उपदेश कहे जाते हैं। पाणिनि अपने सूत्र में प्रत्याहार की तरह ही  इसका भी प्रयोग करते हैं। अतः सूत्रों के साथ साथ धातुपाठ आदि का भी स्मरण करना चाहिए। 
                                                               अनुवर्तन

अष्टाध्यायी की रचना सूत्रों की शैली में हुई अतः इसे अष्टाध्यायी सूत्रपाठ भी कहा जाता है। लघुसिद्धान्तकौमुदी का निर्माण  अष्टाध्यायी के सूत्रों से ही हुआ है। सूत्र में संक्षेपीकरण को महत्व दिया जाता है। हम इसके सहारे विस्तार तक पहुंच जाते हैं। सूत्रों को याद रखना आसान होता है। यदि ये सूत्र बड़े आकार में होते तो याद रखना भी कठिन होता। एक ही शब्द को बारबार कहना और लिखना पड़ता। सूत्र में कही गयी बातों को पूरी तरह समझने के लिए हमें कुछ बुद्धि लगानी पड़ती है। पाणिनि ने यदि किसी सूत्र में एक बार कोई बात कह दी तो उसे आगे के सूत्र में पुनः नहीं कहते। वह नियम आगे के सूत्र में आ जाते हैं। इसे अनुवर्तन कहते हैं। जब कोई शब्द किसी सूत्र में दिखाई नहीं दे और अर्थ पूर्ण नहीं हो रहा हो तो उसे पहले के सूत्र में देखना चाहिए। जैसे- हलन्त्यम् (1.3.3) सूत्र में उपदेशेऽजनुनासिक इत् (1.3.2) से  उपदेशे तथा इत् इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। आप देख रहे होंगें कि उपदेशेऽजनुनासिक इत् के बाद की संख्या हलन्त्यम् सूत्र की है। इस प्रकार हलन्त्यम् सूत्र का अर्थ पूर्ण हो जाता है। अनुवृत्ति को समझने के लिए हमें अष्टाध्यायी की आवश्यकता होती है परन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी में सूत्र के नीचे अनुवृत्ति आदि प्रक्रिया को पूर्ण कर उसकी वृत्ति अर्थात् सूत्र का अर्थ लिखा हुआ है।
  
                                                              उत्सर्ग एवं अपवाद

संस्कृत व्याकरण के शब्दों की संरचना दो भागों में विभाजित हैं 1. सामान्य संरचना। इन शब्दों के निर्माण के लिए सामान्य सूत्र बनाये गये। इसे उत्सर्ग सूत्र कहा जाता है। 2. अपवाद या विशेष। सामान्य नियम को वाधित करने के लिए अपवाद या विशेष सूत्रों का निर्माण किया गया। इस विधि से समान संरचना वाले शब्दों का निर्माण एक ही सूत्र से हो जाता है। उदाहरण के लिए अपत्य अर्थ को सूचित करने के लिए प्रातिपादिक सामान्य से अण् प्रत्यय जुड़ता है, यह सामान्य नियम कर देने पर सूत्रकार को ऐसे प्रातिपादिकों की सूची नहीं देनी पड़ती जिन्हें अण् प्रत्यय प्राप्त है अपितु केवल उन विशेषों के बारे में विधान करना शेष रहता है जो अण् प्रत्यय से भिन्न प्रत्यय द्वारा अपत्य अर्थ को सूचित करते हैं। उदाहरणार्थ तस्यापत्यम्’ (अष्टा. 4.1.22) सूत्र द्वारा सामान्य नियम कर देने पर प्रातिपादिक सामान्य से अपत्यार्थ में अण् प्रत्यय होता है, यह आवश्यक नहीं रहता कि अण् प्रत्यय प्राप्त करने वाले प्रातिपादिकों का किसी अन्य विशेष सूत्र द्वारा उल्लेख किया जाय। अपत्यार्थ को सूचित करने के लिए जिन प्रातिपादिक विशेष शब्दों का निर्माण अण् प्रत्यय से नहीं हो पाता वहीं किसी अन्य प्रत्यय का विधान करना है। जैसे- अत इञ्’ (अष्टा. 4.1.95) सूत्र द्वारा अकारान्त प्रातिपादिकों से अपत्य अर्थ में इञ्प्रत्यय का विधान करते हैं। अकारान्त प्रातिपादिक समूह का एक भाग विशेष है। अतः तत्सम्बन्धी नियम पूर्व नियम का बाधक या अपवाद होगा। यदि अकारान्त प्रातिपादिकों का भी कोई वर्ग विशेष उक्त अर्थ में अन्य प्रत्यय की अपेक्षा रखता है तो पाणिनि के सामने उन्हें सूचीबद्ध करके तत्सम्बन्धी नियम देने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रहता। ऐसा नियम उक्त रीति से अदन्त प्रातिपादिक-सामान्य के बारे में विहित अत इञ्इस विधि का अपवाद होगा, जैसे कि गर्गादिभ्यो यञ्’ (अष्टा. 4.1.105) गर्गादिगण के विषय में इसका अपवाद है। पाणिनि ने इस उत्सर्ग तथा अपवाद शैली से सूत्रों के आकार को छोटा रखने में सफलता तो प्राप्त किया ही, साथ ही एक ही प्रकार के अर्थ को समझाने में शब्दसमूह की विविध संरचनात्मक आकृतियों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत कर दिया। इस शैली के द्वारा हम संस्कृत शब्दों की संरचना को सरलता पूर्वक समझ पाते हैं।

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