संस्कृत
शिक्षा की समस्याओं के अध्ययनार्थ तथा इस भाषा के विकास के सम्बन्ध में सुझाब देने
के लिए डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी की अध्यक्षता में 1956 में संस्कृत आयोग का गठन किया
गया था। इस समिति ने 1957 में अपना प्रतिवेदन अंग्रेजी भाषा में
प्रस्तुत किया। हिन्दी में अनुदित प्रतिवेदन पर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय
के कुलपति तथा उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के अध्यक्ष बद्रीनाथ शुक्ल ने अपनी भूमिका लिखकर उ. प्र. सं. सं., लखनऊ से प्रकाशित किया। यह भूमिका आयोग के सुझावों का सार संकलन है। उस आयोग की संस्तुतियों पर साररूप में लिखित
यह भूमिका आपके अध्ययनार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है। हम इसका अध्ययन कर पाते हैं
कि 50 वर्ष बीत जाने तथा इस सुझाव पर
छिटपुट कार्य होने के पश्चात् भी संस्कृत की स्थिति यथावत् है। प्रस्तुत है आयोग के प्रतिवेदन पर लिखी-
भूमिका
जनता तथा
लोक सभा के आग्रह पर केंद्रीय शासन ने 1
अक्टूबर सन 1956 को भारत के सुविख्यात शिक्षाविद् स्वर्गीय
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी की अध्यक्षता में संस्कृत के पठन-पाठन तथा संस्कृत संबंधी
प्रशासन एवं जनसंपर्क के निष्णात यशस्वी विद्वानों से विभूषित एक संस्कृत आयोग का
संगठन किया था। इन विद्वानों ने अपने देशव्यापी पर्यटन द्वारा पारंपरिक तथा आधुनिक
दोनों प्रकार की संस्कृत शिक्षा का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया तथा साक्षियों
एवं अपनी प्रश्नावली के उत्तरों को अपने परिपक्व ज्ञान, अनुभव और विचारों से समन्वित
करते हुए अक्टूबर 1957 में अपना सर्वांगपूर्ण प्रतिवेदन
प्रस्तुत किया। 12 अध्यायों के अपने इस प्रतिवेदन में
सम्मानित सदस्यों ने संस्कृत शिक्षा के ऐतिहासिक विवेचन के साथ उसकी वर्तमान
स्थिति का रोचक चित्रण किया है तथा वर्तमान स्थिति के परिपेक्ष्य में संस्कृत
शिक्षा एवं भारतीय संस्कृति के प्रचार तथा उसकी लोकप्रियता स्थापित करने की
अनिवार्यता पर भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है। प्रतिवेदन में पारंपरिक तथा
आधुनिक दोनों ही संस्कृत के पठन-पाठन की सरणियों को सुदृढ़ बनाने की अनेकानेक
मार्गों का केवल निर्देश ही नहीं किया गया है, बल्कि संस्कृत शिक्षा के राष्ट्रीय
संगठन इत्यादि पर भी विचारोद्बोधक सुझाव समुपस्थापित किए गए हैं। यही नहीं,
संस्कृत वाङ्मय के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अंताराष्ट्रिय जगत् में भारत का
व्यक्तित्व कैसे समुज्ज्वल किया जा सकता है तथा स्वतंत्र भारत की आकांक्षाओं की
पूर्ति किन - किन उपायों से की जा सकती है, इस संबंध में भी आयोग का प्रतिवेदन
कतिपय मौलिक, ठोस तथा व्यावहारिक दिशाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है।
इस
तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि संस्कृत भाषा में एकता स्थापित करने की तथा
चरित्र निर्माण की अद्भुत शक्ति विद्यमान है। अतः आधुनिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम
में उन छात्रों को छोड़कर जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है, भाषा के अध्ययन के प्रसंग
में ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए जिससे भाषा के रूप में संस्कृत का स्थान
सुरक्षित हो जाए तथा सभी छात्र संस्कृत ले सके। जो छात्र संस्कृत लेना चाहते हैं
उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई अथवा रुकावट का सामना न करना पड़े। त्रिभाषा सूत्र
के विधान में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि मातृभाषा तथा क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी
के साथ संस्कृत या विशेष स्थिति में किसी
अन्य समकक्ष प्राचीन भाषा का अध्ययन कर सकें। इस प्राविधान से हम राष्ट्रिय हित की
दृष्टि से माध्यमिक शिक्षा को अधिक से अधिक लोकोपकारी बना सकते हैं।
संस्कृत
विद्यालयों में निरंतर छात्र संख्या की गिरावट तथा प्रतिभासम्पन्न छात्रों के
उत्तरोत्तर अभाव की स्थिति चिन्ताजनक होती जा रही है। इस स्थिति को संभालने के लिए आवश्यक है कि इन विद्यालयों से
निकले हुए छात्रों को वही सम्मान, प्रतिष्ठा तथा जीविकोपार्जन के अवसर उपलब्ध हो,
जो किसी कला, विज्ञान या अन्य प्रकार के आधुनिक विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के
छात्रों को प्राप्त है। संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना से इस प्रश्न का हल भी
संभव हो गया है, किंतु इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पर्याप्त जनजागृति, संस्कृत
के पठन पाठन के प्रति निष्ठा, विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं में संस्कृत की
विशेषता एवं सर्वोपरि संस्कृत शिक्षा को सर्व साधन संपन्न बनाने के लिए पर्याप्त
धन की आवश्यकता है, जिससे चुने हुए संस्कृत विद्यालयों को हम आकर्षक वेतन पर
अध्यापक दे सके तथा उनके भवनों, छात्रावासों और पुस्तकालयों को समुचित रूप से
सुसज्जित कर सकें। इस दिशा हमारा प्रयत्न चल रहा है तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
हमारे एतद्विषयक चेष्टाओं के अनुकूल है। प्रतियोगिता परीक्षाओं में शास्त्रीय
विषयों के समावेश की भी चेष्टा हम कर रहे हैं तथा इस संदर्भ में भी केंद्रीय और
प्रादेशिक शासनों ने हमारे प्रस्तावों के प्रति अनुकूलता प्रकट की है।
पारंपरिक
संस्कृत शिक्षा के संदर्भ में संस्कृत आयोग ने इस प्रणाली को प्रचलित तथा संरक्षित
रखने का सर्वथा उचित समर्थन किया है। आयोग का सुझाव है कि इसे सर्वमान्य शिक्षा की
मान्यता दी जाए। इस संस्तुति का आंशिक कार्यान्वयन संस्कृत परीक्षाओं की समानांतर
अंग्रेजी परीक्षाओं से समकक्षता तथा संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थापना से हो
चुका है। आयोग ने यह सुझाव दिया है कि वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय की सफलता
देखकर देश में और भी संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाय। हमारा अनुरोध है
कि अब वह समय आ गया है कि देश के अन्य संस्कृत केंद्रों में भी संस्कृत
विश्वविद्यालय खोले जायें। आयोग ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत में संस्कृत
विश्वविद्यालय की स्थापना की संस्तुति की है। हमारी सूचना है कि दक्षिण भारत में
इस प्रकार की चेष्टा चल भी रही है। संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थापना से निश्चय
ही संस्कृत की मान्यता बढ़ेगी तथा संस्कृत के पठन-पाठन की पारंपरिक तथा अर्वाचीन
पद्धतियों के समन्वयन से संस्कृत का पठन-पाठन लोकोपयोगी बन सकेगा। यही नहीं, हमारे
इस अनुष्ठान से संस्कृत के विद्वानों तथा छात्रों को भी अपने कार्यव्यापार में
विश्वास और लोकसम्मान प्राप्त हो सकेगा। वर्तमान स्थिति में हम आयोग के इस प्रस्ताव
का समर्थन करना चाहेंगे कि पारंपरिक तथा अर्वाचीन संस्कृत के पठन-पाठन का समन्वयन एवं
सामंजस्य राष्ट्रीय हित की दृष्टि से सहायक सिद्ध होगा। इस समन्वयन के द्वारा
संस्कृत वाङ्मय के विशाल भंडार का भारतीय ढंग से प्रकाशन किया जा सकेगा एवं
संस्कृत का रचनात्मक और सर्जनात्मक क्षेत्र, जो इस समय अविरुद्ध तथा उपेक्षित ही
कहा जाएगा, उसे भी गति प्राप्त होगी। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि
संस्कृत विद्यालयों में अर्वाचीन पद्धति के प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए
संबद्ध पाठ्यक्रम में इस सारिणी का समावेश किया जाए तथा आधुनिक पद्धति से
प्रशिक्षित विद्वान् इसके निर्वाह के लिए संस्कृत विद्यालयों में नियुक्त किए जाएं।
इस
प्रकार आधुनिक अंग्रेजी महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों में
पारंपरिक पाठ्यक्रम प्रणाली के शास्त्रीय प्रशिक्षण का प्राविधान किया जाना चाहिए
तथा एतदर्थ पारंपरिक संस्कृत के विद्वानों की नियुक्ति इन विद्यालयों तथा संस्थाओं
में की जानी चाहिए। कतिपय विश्वविद्यालय इस दिशा में कार्य भी कर रहे हैं।
उदाहरणार्थ हमारा संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय तथा काशी हिंदू विश्वविद्यालय
आदि।
भारतीय
शिक्षा व्यवस्था को राष्ट्रीय दृष्टि से अधिकाधिक सुदृढ़, आकर्षक, प्रभावशाली तथा
ज्ञानार्जन के लक्ष्य से अधिक लोकोपयोगी बनाने के लिए आयोग का यह सुझाव सर्वथा
समर्थनीय है कि विज्ञान संबंधी विषयों के अध्ययन में उनसे संबद्ध संस्कृतवाङ्मय की
भूमिका का भी तुलनात्मक ढंग से अध्ययन किया जाना चाहिए तथा उन विषयों से संदर्भित
हमारे शास्त्रों के इतिहास का भी छात्रों को तुलनात्मक ज्ञान कराया जाना चाहिए। इसी
प्रकार समस्त विद्यालयों, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों के छात्रों को अपने देश
के पैतृक संपत्ति का ज्ञान कराने के लिए विभिन्न स्तरों के अनुकूल संस्कृत साहित्य,
भारतीय चिंतन, दर्शन, धर्म, नीतिशास्त्र, कला-कौशल एवं वास्तुविधा की भूमिका देते
हुए भारतीय संस्कृति के एक क्रमिक पाठ्यक्रम का अनिवार्य प्राविधान भी आवश्यक होना
चाहिए। संस्कृत-शोध के क्षेत्र को सुव्यवस्थित तथा राष्ट्रीय दृष्टि से लाभप्रद
एवं उपयोगी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि देश में प्रचलित विभिन्न शोध संस्थानों
को पर्याप्त स्थान, उपकरण तथा योग्य प्रशिक्षित कर्मचारी उपलब्ध कराये जायें।
हमारे अधिकांश बड़े-बड़े शोध संस्थान भी धनाभाव से अपनी योजनाओं के यथासमय
कार्यान्वयन में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। विश्वविद्यालयों के अनेक उपयोगी
शोधप्रबंध अप्रकाशित पड़े हुए हैं। बड़ी-बड़ी शोध योजनाएं बाधित हैं। इस संदर्भ
में आयोग के इस विचार को हम उपयोगी समझते हैं कि शोधकार्य के प्रारंभ की स्वीकृति
में कठोरता बरती जानी चाहिए। विषयों की पुनरावृत्ति न हो। कम परिश्रम साध्य अनुपयोगी
तथा सरल विषय स्वीकृत न किए जाएं। वेद, वैदिक संस्कार, कर्मकांड, कल्पसूत्र, भाषाविज्ञान,
पुराण, शब्दार्थ विकास विज्ञान, नाट्यशास्त्र, प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र, भारतीय
मनोविज्ञान तथा आचारशास्त्र, भारतीय समाजशास्त्र, लोकसंस्कृति, सौंदर्यशास्त्र,
संगीत, वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला तथा भारतीय विज्ञान और ज्योतिष की संहिता-शाखा
आदि रोचक विषय अत्यंत उपेक्षित हैं। इन पर शोध कार्य किया जाना चाहिए। इस प्रकार
भारत के अन्य देशीय संपर्क के क्षेत्र में भारतीय शोध कार्य नहीं के समान है। जो
कुछ है वह भी विदेशी विद्वानों की खोज पर आधारित है। स्वतंत्र भारत में अब अन्य
राष्ट्रों से राजनीतिक संबंध भी स्थापित किए जा चुके हैं। हमारे शोधकर्ताओं का यह
परम कर्तव्य हो गया है कि वह मिस्त्र, मध्य पूर्व, मध्य एशिया, तिब्बत, चीन तथा
जापान संबंधी प्राचीन भारतीय संपर्क के मौलिक शोध कार्य को अपने हाथों में लें।
हमारे शोध छात्र केवल दर्शन या साहित्य पर ही दत्त चित्त न रहें। इन तथ्यों पर
विस्तृत प्रकाश डालते हुए देश में प्रचलित शोध संस्थानों की सहायता तथा व्ययसाध्य
योजनाओं को संपन्न करने के लिए आयोग ने एक केंद्रीय भारतीय ज्ञान संस्थान की
स्थापना का प्रस्ताव किया है। उनकी यह संस्तुति शोध कार्य को सुदृढ़ बनाने में
अवश्य ही उपकारक सिद्ध होगी।
भारतीय
इतिहास, विचार परंपरा तथा संस्कृति के क्षेत्र को भारतीय दृष्टिकोण से चिंतन के
विषय में आज का विद्वत्समाज अधिक चिंतित प्रतीत होता है। पुरातत्व सामग्री के समान
हमारा एतत्संबंधी कार्य बहुत कुछ उपयोगी तथा बहुमूल्य ग्रंथों पर भी निर्भर है, जो
देश के विभिन्न भागों में पांडुलिपियां के रूप में बिखरे पड़े हैं। इन सामग्री का
एक विशाल अंश विदेश में भी जा चुका है। हमारी पांडुलिपियों का विदेशों में ले जाए
जाने का क्रम विगत तीन शताब्दियों से प्रचलित है। हमें इस हस्तलिखित सामग्री का
संग्रह, संरक्षण, सूचीकरण एवं संपादन मात्र ही नहीं करना है, किंतु राष्ट्र के हित
में विदेश जाने से भी उन्हें रोकना है तथा जो सामग्री विदेश जा चुकी है उसे पुनः
प्राप्त करना है। पांडुलिपियों की देखभाल तथा उनकी व्यवस्था को सुसंघटित करने के
लिए आयोग ने केंद्रीय पांडुलिपि सर्वेक्षण विभाग की योजना का सुझाव दिया है। इस
संस्तुति के अनुसार इस विभाग की शाखाएं प्रत्येक प्रदेश में होंगी तथा अपने सुसंघटित
रूप में यह विभाग पांडुलिपियों की खोज, उनका सर्वेक्षण, एकत्रीकरण, विवरणात्मक
सूचीकरण एवं संपादन का कार्य स्थानीय शासकीय तथा शासकीय संघटनों के सहयोग से करेगा।
हमारा यह सुझाव है कि यह विभाग विभिन्न सरकारी तथा गैर सरकारी शोध संस्थाओं एवं
संस्थानों को पांडुलिपि-संग्रह तथा उनके वैज्ञानिक संपादन कार्य के लिए अपेक्षित
आर्थिक सहायता देने का भी कार्य करे एवं उनकी एतत् संबंधी अन्यान्य कठिनाइयों को
दूर करने में उन्हें हस्तावलम्ब दे। इससे हमारे देश के इस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्य
को अत्यधिक बल प्राप्त होगा। शासन का कर्तव्य है कि वह हमारी पांडुलिपियों को
विदेशों में विक्रय या अन्य किसी भी प्रकार से बाहर ले जाने पर रोक लगाने के लिए
उपयुक्त कानून बनावे तथा विदेशों के विभिन्न पुस्तकालयों एवं संग्रहालयों में
हमारे ज्ञान-विज्ञान के जो बहुमूल्य दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहित हैं, उनका
सर्वेक्षण करके उनकी माइक्रोफिल्म प्रतिलिपि तैयार करावे तथा उसे पांडुलिपि
सर्वेक्षण विभाग में संचित करें। भूतपूर्व रजवाड़ों के राज महलों की पांडुलिपियों
के संग्रह अब भी विद्वानों की पहुंचकर बाहर है, उन्हें जनता के लिए खोल देना चाहिए।
आयोग ने इन सभी बातों पर अपने सुझाव तथा विचार प्रस्तुत किए हैं।
मूलतः
संस्कृत के सांस्कृतिक मूल्य पर ही हमारे देश की एकता निर्भर है। क्षेत्रीय भाषाबाद जैसी अनेक घटनात्मक प्रवृतियों से हमारे देश की एकता खतरे में है। इन तत्वों को
निष्क्रिय तथा निष्फल बनाने के लिए शासकीय तथा शैक्षिक स्तर पर संस्कृत का प्रश्रय आवश्यक जान पड़ता है। जैसे-जैसे हम संस्कृत को अपनाएंगे उसकी एकीकरण की शक्ति बलवती
होगी तथा ये विघटनात्मक प्रवृत्तियां क्षीण एवं शिथिल होती जाएंगीं। इस संदर्भ में
आयोग का यह सुझाव है कि सार्वजनिक अवसरों पर हिंदी, क्षेत्रीय भाषाओं अथवा अंग्रेजी
के साथ संस्कृत का भी व्यवहार किया जाना चाहिए। हमारे विचार से केवल अपने देश ही
में नहीं अपितु विदेशों में भी भारतीय दूतावासों तथा भारतीय छात्र संगठनों के बीच विशेष आयोजन, उत्सवों एवं इस प्रकार के अन्य समारोह के अवसर पर विभिन्न राष्ट्रभाषाओं एवं हिंदी के साथ संस्कृत का भी प्रयोग केवल इन अवसरों की शोभा एवं गौरव का ही
संवर्धन नहीं करेगा, अपितु अन्य देशों में भारतीय व्यक्तित्व को समुज्जवलित करने में
भी यह प्रक्रिया सहायक सिद्ध होगी।
विद्यालयों
में अनुशासन एवं नैतिक शिक्षा का प्रश्न आज हमारे सामने है। हमारा संस्कृतवाङ्मय लोकोक्तियां, सुभाषितों एवं कहावतों का एक विशाल भंडार है। यह सुभाषित तथा नीति के
श्लोक प्राचीन भारतीय छात्रों को सच्चरित्र तथा व्यवहार कुशल बनाने के महत्वपूर्ण
साधन थे, क्योंकि मस्तिष्क पर इनका गंभीर तथा स्थायी प्रभाव पड़ता है। बाल्यकाल के
कंठस्थ नीति श्लोक बालक के जीवन में सदा उत्तम विचारों, कार्यों तथा व्यवहारों से
संबद्ध एक मित्र के समान प्रेरणा के स्रोत बने रहते हैं। अपनी शिक्षा व्यवस्था में
यदि शिशु कक्षाओं से ही हम बालकों को इन सुभाषितों की योजनाबद्ध शिक्षा दें तो हम
अपने भावी नागरिकों के चरित्र निर्माण द्वारा राष्ट्र की अनुपम सेवा कर सकेंगे। इस
संदर्भ में हम आयोग के विचारों का स्वागत करते हैं।
स्वतंत्रता
प्राप्ति के उपरांत विश्व के समस्त राष्ट्र भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के
जिज्ञासु बन गए हैं तथा उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं। यही
नहीं, हमारी भारतीय जनता भी राष्ट्रप्रेम से प्रभावित होकर अपनी प्राचीन संस्कृति
को श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगी है। दासतायुग के वातावरण एवं शासन व्यवस्था की
विदेशी स्वार्थमयी प्रवृतियों के प्रति भी उनकी अरुचि स्पष्ट है। अतः राष्ट्र के
हित में यह आवश्यक हो गया है कि हमारा अधिकारी वर्ग, विदेश जाने वाले हमारे छात्र, विदेश स्थित हमारे छात्र संगठन एवं दूतावास भारतीय संस्कृति की वास्तविकता, भारतीय
चिंतन के यथार्थ स्वरुप तथा भारतीय सभ्यता के रहस्य से भलीभांति परिचित हों तथा
उन्हें तत्संबंधी अच्छा ज्ञान प्राप्त हो। ऐसा होने पर ही वह देश तथा विदेश में
यथार्थ भारतीय व्यक्तित्व का प्रकाशन एवं प्रतिनिधित्व कर सकेंगे। भारतीय जनता का
विश्वास, सम्मान तथा सहयोग प्राप्त कर सकेंगे तथा बाहर जाकर उन राष्ट्रों के उत्सुक
जनवर्ग को भारत का वास्तविक सांस्कृतिक संदेश दे सकेंगे। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए
आयोग ने यह संस्तुति की है कि भारतीय प्रशासन एवं विदेशी सेवाओं के प्रशिक्षणार्थी
को भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं संस्कृतचिंतन का भी यथोचित ज्ञान कराया जाना
चाहिए। केंद्रीय शासन के विदेश विभाग को हमने भी एक इसी प्रकार का प्रस्ताव भेजा है,जिसे शासन का अनुमोदन प्राप्त हो चुका है। इस क्रिया की सफलता के लिए आयोग की यह
संस्तुति उपयोगी सिद्ध होगी कि प्रत्येक दूतावास में एक सांस्कृतिक अनुभाग खोला
जाए तथा उसमें विद्वान् सांस्कृतिक अधिकाररियों की नियुक्ति की जाए जो भारतीय
संस्कृति एवं संस्कृत चिंतन के संबंध में विदेशी जनता के जिज्ञासाओं का समाधान कर
सके। वहां के विश्वविद्यालयों के छात्रों की सहायता कर सके तथा भारतीय सांस्कृतिक
क्रियाकलापों का भी प्रदर्शन कर सकें।
इस समय
प्रौढ शिक्षा संबंधी अभियान एक राष्ट्रीय आंदोलन का रुप धारण कर चुका है तथा
केंद्रीय एवं प्रादेशिक शासन एतत्संबंधी विभिन्न योजनाओं के सक्रिय कार्यान्वयन
में तत्पर हैं। भारतीय परंपराओं तथा भारतीय संस्कृति के प्रति हमारा जनवर्ग अभी हृदय
से सम्मान तथा श्रद्धा की भावना से ओतप्रोत है। प्रौढ शिक्षा को सांस्कृतिक रूप
देने के लिए क्या ही अच्छा होता कि इस कार्यक्रम में पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद् इत्यादि पर मनोरंजक व्याख्यानों एवं प्रदर्शनों की व्यवस्था की जाती, जिससे
हमारी जनता अपने प्राचीन सांस्कृतिक आदर्श एवं आचार-व्यवहारों का उपदेश प्राप्त
कर सकती। इस योजना में देश के प्रतिभाशाली व्यास परिवारों की सेवा से लाभ उठाया जा
सकता है। कतिपय प्रदेशों के सामुदायिक विकास तथा राष्ट्रीय प्रसार कार्य में इन
व्यासों की सामयिक नियुक्ति भी की जा सकती है।
हमारे देश
में इस समय संस्कृत शिक्षा संबंधी अनेक न्यास तथा समर्पित निधियां विद्यमान हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी ट्रस्ट है जो या तो निष्क्रिय है या दाता की इच्छा के विरुद्ध
उनका धन अंग्रेजी शिक्षा में लगाया जा रहा है। यह एक गंभीर प्रसंग है जिसकी हम
उपेक्षा नहीं कर सकते। शासन का कर्तव्य है कि संस्कृत शिक्षा के हित में वह अपने
स्रोतों एवं साधनों से ऐसे अपराधी प्राभूतों का सर्वेक्षण कराएं तथा ऐसा कानून
बनाए जिससे संस्कृत के लिए समर्पित इन निधियों की आय समुचित रुप से संस्कृत शिक्षा
में ही लगाई जा सके। आयोग की संस्तुति का कार्यान्वयन संस्कृत शिक्षा के समुन्नयन
तथा उसके सम्मान के संवर्धन की दिशा में निश्चय ही उपकारक सिद्ध होगा।
केंद्रीय
तथा प्रादेशिक शासन अपने विभिन्न विभागों की व्यवस्था में अत्यंत व्यस्त है। ऐसी
स्थिति में एक ऐसे राष्ट्रीय संगठन का होना आवश्यक है, जो प्रशासन का ध्यान संस्कृत
की ओर आकर्षित करता रहे, संस्कृत संबंधी संस्थाओं, संस्थानों तथा संगठनों को समन्वित करता रहे तथा समस्त देश की पारंपरिक शिक्षा को एक सूत्र में संबद्ध कर सके। इस
आकांक्षा की पूर्ति के लिए संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के प्रथम कुलपति
स्वर्गीय डॉक्टर आदित्यनाथ जाने यह केंद्रीय संस्कृत शिक्षा परिषद् का सुझाव रखा था। संस्कृत आयोग ने भी इस प्रकार की संस्कृत शिक्षा परिषद् की संस्कृति की है। इस संगठन
के माध्यम से देश में व्याप्त पारंपरिक संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित
विभिन्न परीक्षाओं के नाम, उनके तथा पाठ्यक्रम एवं मान्यता में आज जो विभिन्नता
विद्यमान है वह दूर की जा सकती है तथा उसमें एकरूपता लायी जा सकती है। इसके अतिरिक्त
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समान यह परिषद् देश के संस्कृत महाविद्यालयों तथा
विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थानों को विकास अनुदान भी दे सकेगी। यह आवश्यक होगा कि
इस परिषद् के सदस्य ऐसे ही व्यक्ति होंगे जो संस्कृत शिक्षा के समस्त पहलुओं के
पारंपरिक तथा आधुनिक शैक्षिक एवं प्रशासनिक अनुभव रखते हो।
आयुर्वेद
की शिक्षा के संदर्भ में आज यह प्रश्न विवादास्पद बना हुआ है कि विशुद्ध आयुर्वेद
की पारंपरिक शिक्षा दी जाए या अर्वाचीन चिकित्सा के कुछ उपयोगी अंश भी उस में
सम्मिलित किए जायें? इस संदर्भ में हम संस्कृत आयोग के इस विचार का समर्थन करते हैं
कि यद्यपि आधुनिक ज्ञान तथा प्रशिक्षण का कुछ थोड़ा सा अंश आयुर्वेद के
पाठ्यक्रम में मिला देना आवश्यक प्रतीत होता है, किंतु इसकी मात्रा अधिक हो जाने पर
आयुर्वेद की विशिष्टता नष्ट हो जाएगी। आयुर्वेद की शिक्षा को सजीव तथा विशेष जनोपयोगी बनाने के लिए विश्वविद्यालयों में आयुर्वेद शोध विभागों की स्थापना की जानी
चाहिए तथा आयुर्वेद के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होने वाले अभ्यर्थियों के लिए
संस्कृत का यथेष्ट पूर्वज्ञान अनिवार्य किया जाना चाहिए। आयुर्वेद के प्रशिक्षण को
अत्यधिक प्रभावशाली तथा स्वाभाविक बनाने के लिए यह भी आवश्यक है कि आयुर्वेद की
पाठ्यपुस्तकें भी संस्कृत में लिखी जाए।
भारतीय
संस्कृति तथा सभ्यता से संबद्ध विभिन्न संदर्भ अनेक मंत्रालयों में बिखरे पड़े
हैं। यह मंत्रालय अपने अपने ढंग से इन संदर्भों पर सोचते विचारते हैं। इस व्यवस्था
से एक ही संदर्भ का दो या अधिक मंत्रालयों में दोहराए जाने तथा विभिन्न-विभिन्न
रूप से कार्यान्वित किए जाने की भी संभावना रहती है। इन विभिन्न क्रियाओं का एकीकरण
आवश्यक प्रतीत होता है। यह भी आवश्यक है कि देश के सांस्कृतिक विकास की नीति सुदृढ़ बनाई जाए तथा एतत् संबंधी विभिन्न क्रियाकलापों का केंद्रीकरण किया जाए। इस
लक्ष्य की पूर्ति के लिए आयोग ने एक पृथक् संस्कृति मंत्रालय स्थापित किए जाने की
संस्कृति की है, जिसके अंतर्गत देश के समस्त सांस्कृतिक संदर्भ कार्य करेंगे। हमारा
विश्वास है की इस मंत्रालय की स्थापना से देश में संस्कृत तथा संस्कृति के क्षेत्र
में संपन्न होने वाले क्रियाकलापों को विशेष शक्ति प्राप्त हो सकेगी।संस्कृत को समुन्नत करने की दिशा में आयोग ने अनेकानेक सुझाव प्रस्तुत किए हैं, उनमें से कुछ थोड़े से अत्यंत महत्वशील सुझावों के कतिपय अंशों पर ही हमने दृष्टि डाली है।
वाराणसी
गंगा दशहरा संवत् 2036 बद्रीनाथ शुक्ल
(5 जून, 1979 ई. मंगलवार) अध्यक्ष, उत्तर
प्रदेश संस्कृत अकादमी तथा
कुलपति संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय
जयतु संस्कृतम्
जवाब देंहटाएंमैं संस्कृत से B.A.+B.Ed. कर रहा हूँ परन्तु इसकी
जवाब देंहटाएंपुस्तकें ही नही मिल रही है।अगर कुछ सहायता कर सकते हैं तो मैं आपका आभारी रहूँगा।🙏🙏🙏