अनेक ताराओं के समुदाय को नक्षत्र की संज्ञा दी
जाती है। निरुक्तकार यास्क ने नक्षत्र शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि `न क्षते गतिकर्मण:' अर्थात् जिसकी गति का क्षत नहीं होता। अनन्त आकाश में जो असंख्य तारे हैं
उनमें कुछ तारों के समूह से गाड़ी—छकड़ा, हाथ, बैल, सर्प, घोड़ा आदि जो आकृतियाँ बनती हैं वे ही प्रकाशपुंज नक्षत्र कहलाते हैं।
क्रान्तिवृत्त या राशिचक्र के सत्ताइसवें भाग (खण्ड) का नाम नक्षत्र है अत:
नक्षत्रों की संख्या २७ मानी गयी है। राशियां १२ हैं अत: सवा दो नक्षत्रों की एक
राशि होती है। इन सत्ताईस नक्षत्रों के अलावा अभिजित नामक अठाईसवां नक्षत्र भी
माना गया है। यह उत्तराषा़ढ़ा नक्षत्र का चौथा चरण तथा श्रवण नक्षत्र के प्रथम चरण
के मेल से बनता है। कतिपय आचार्यों की मान्यता के अनुसार उत्तराषाढ़ा की अन्तिम १५
घटी तथा श्रवण के प्रारम्भ की ४ घटी इस प्रकार १९ घटी का परिणाम काल अभिजित
नक्षत्र होता है। किन्तु प्राधान्येन समस्त आकाशमण्डल को ज्योतिष शास्त्र ने २७
भागों में विभक्त किया है। ये सत्ताइसों नक्षत्र इस प्रकार हैं — अश्विनी, भरणी, कृत्तिका,
रोहिणी, मृगशिरा, आद्र्रा,
पुनर्वसु, पुष्य, श्लेषा,
मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी,
हस्त, चित्रा, स्वाती,
विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा,
मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा,
श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा,
पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती। एक
वर्ष में सभी २७ नक्षत्र सूर्य के सामने होकर संक्रमण करते हैं। सूर्य एक मास में
सवा दो नक्षत्र पार करता है अत: लगभग १३ दिन में नक्षत्र पार करता है। मंगल ११/२
मास में सवा दो नक्षत्र पार करता है अत: लगभग २० दिन में एक नक्षत्र पार करता है।
किन्तु चन्द्रमा सवा दो दिन में एक राशि पार करता है अत:लगभग एक अहोरात्र में ही १
नक्षत्र पार कर जाता है। पृथ्वी व चन्द्रमा की असमान गति के कारण कभी चन्द्रमा ५७
घटी में एक नक्षत्र को पार करता है तथा कभी ६८ घटी तक चलता है। यही कारण है कि
समस्त ग्रह नक्षत्रों का भोग करते हैं किन्तु चन्द्रमा को ही नक्षत्राधिपति कहा
जाता है। चन्द्रमा की स्थिति नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार जानी जाती है। जातक के
जन्म समय मेंं चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है वही नक्षत्र जातक का माना जाता
है। इसी नक्षत्र को आधार बनाकर कुण्डली मेलापक, मुहूर्त
विचार तथा अन्य यात्रादि सभी कृत्य होते हैं। पञ्चाङ्गों में भी जिस नक्षत्र का
उल्लेख रहता है, वह चन्द्रमा का ही नक्षत्र होता है।
नक्षत्रों के स्वामी इस प्रकार हैं —
नक्षत्र नक्षत्र
का स्वामी
अश्विनी अश्विनीकुमार
भरणी काल
कृत्तिका अग्नि
रोहिणी ब्रह्मा
मृगशिरा चन्द्रमा
आद्रा रुद्र
पुनर्वसु अदिति
पुष्य बृहस्पति
आश्लेषा सर्प
मघा पितर
पूर्वाफाल्गुनी भग
उत्तराफाल्गुनी अर्यमा
हस्त सूर्य
चित्रा विश्वकर्मा
(त्वष्टा)
स्वाती वायु
विशाखा इन्द्राग्नि
अनुराधा मित्र
ज्येष्ठा इन्द्र
मूल राक्षस
पूर्वाषाढ़ा जल
उत्तराषाढ़ा विश्वेदेवा
श्रवण विष्णु
धनिष्ठा वसु
शतभिषा वरुण
पूर्वाभाद्रपद अजैकपाद
उत्तराभाद्रपद अहिर्बुध्न्य
रेवती पूषा
अभिजित ब्रह्मा
इन नक्षत्रों को शुभता, अशुभता एवं मुहूर्तादि के
विचार हेतु सात भागों में बांटा गया है जो कि ध्रुव, चर,
उग्र, मिश्र, लघु,
मदु एवं तीक्ष्ण संज्ञक हैं। ये सत्ताईस नक्षत्र उर्ध्वमुख, अधोमुख एवं तिर्यक् मुख नाम से तीन भागों में
विभक्त हैं। कुछ नक्षत्रों की पंचम एवं मूल संज्ञाएं भी हैं। यथा —
धनिष्ठा (कतिपय आचार्य धनिष्ठा का बाद वाला
अर्धभाग ही पंचक के अन्तर्गत मानते हैं), शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद,
उत्तराभाद्रपद एवं रेवती ये ५ नक्षत्र पंचक अथवा (पांचक) के नाम से
जाने जाते हैं तथा रेवती, अश्विनी, आश्लेषा,
मघा, ज्येष्ठा एवं मूल नक्षत्रों को मूल
संज्ञक माना है। इन नक्षत्रों में उत्पन्न जातक की मूल शान्ति करायी जाती है।
इसमें ज्येष्ठा की अन्तिम एक घटी (२४ मिनट) तथा मूल के आदि की २ घटी अभुक्त मूल
कहलाता है। आश्लेषा नक्षत्र सर्पमूल संज्ञक है तथा शेष नक्षत्र मूल गण्डान्त नाम
से जाने जाते हैं।
नक्षत्रों में करणीय कार्य -
ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :
उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ।
तत्र स्थिरं बीजगेहशान्त्यारामादि सिद्धये।।मुहूर्तचिन्तामणि, नक्षत्रप्रकरण, २
उत्तराफाल्गुनी, उत्तरषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद
एवं रोहिणी नक्षत्र तथा रविवार ध्रुव अथवा स्थिर हैं। इन नक्षत्रों में तथा इस वार
में बीज बोना, मकान बनाना, वाटिका
लगाना और शान्ति कर्म आदि सिद्ध होते हैं।
चर (चल) नक्षत्र :
स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि चन्द्रश्चापि
चरं चलम् ।
तस्मिन् गजादिकारोहो वाटिकागमनादिकम् ।। वही, ३
स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण,
धनिष्ठा एवं शतभिषा नक्षत्र तथा चन्द्रवार की संज्ञा चर अथवा चल है।
इसमें हाथी आदि की सवारी करना, उद्यान (बगीचा) आदि में जाना
शुभ होता है।
उग्र (क्रूर) नक्षत्र :
पूर्वात्रयं याम्यमघे उग्रं क्रूरं कुजस्तथा।
तस्मिन् घाताग्निशाठ्यानि विषशस्त्रादि
सिद्ध्यति।।वही, ४
पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद,
भरणी तथा मघा नक्षत्र और मङ्गलवार का नाम उग्र अथवा व्रूâर है। इनमें मारण, आग लगाना, विष
देना शस्त्र कर्म आदि सिद्ध होते हैं।
मिश्र नक्षत्र :
विशाखाग्नेयभे सौम्यो मिश्रं साधारणं स्मृतम् ।
तत्राग्निकार्यं मिश्रं च वृषोत्सर्गादि
सिद्धये।।
विशाखा एवं कृत्तिका नक्षत्र और बुधवार का नाम
मिश्र और साधारण है। इनमें अग्निकार्य, मिश्र कर्म, और
वृषोत्सर्ग आदि कर्म सिद्ध होते हैं।
क्षिप्र (लघु) नक्षत्र :
हस्ताश्विपुष्याभिजित: क्षिप्रं लघु गुरुस्तथा।
तस्मिन् पण्यरतिज्ञानं भूषाशिल्पकलादिकम् ।।
वही, ६
हस्त, अश्विनी, पुष्य एवं
अभिजित नक्षत्र और बृहस्पतिवार की संज्ञा क्षिप्र अथवा लघु है। इनमें दुकान का काम,
स्त्री-पुरुष की मैत्री, ज्ञान, आभूषण, शिल्प कर्म आदि सिद्ध होते हैं।
मृदु (मैत्र) नक्षत्र :
मृगान्त्यचित्रामित्रक्र्षं मृदुमैत्रं
भृगुस्तथा।
तत्र गीताम्बरक्रीडा मित्रकार्यविभूषणम् ।। वही, ७
मृगशिरा, रेवती, चित्रा,
अनुराधा नक्षत्र और शुक्रवार की संज्ञा मृदु अथवा मैत्र है। इनमें
गीत गाना, वस्त्र पहिनना, क्रीड़ा करना,
मित्र का कार्य और आभूषण के कर्म सिद्ध होते हैं।
तीक्ष्ण (दारुण) नक्षत्र :
मूलेन्द्र्रािहभं सौरिस्तीक्ष्णं दारुणसंज्ञकम्
।
तत्राभिचारघातोग्रभेदा: पशुदमादिकम् ।। वही, ८
मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा
एवं अश्लेषा नक्षत्र और शनिवार की संज्ञा तीक्ष्ण अथवा दारुण है। इनमें अभिचार
(जादू), घात उग्र कर्म और पशुओं का दमन इत्यादि कर्म सिद्ध
होते हैं।
नक्षत्रों की अधोमुखादि संज्ञा -
मूलाहिमिश्रोग्रमधोमुखं
भवेदूध्र्वास्यमाद्र्रेज्यहरित्रयंध्रुवम् ।
तिर्यङ्मुखं मैत्रकरानिलादिति
ज्येष्ठाश्विभानीदृशकृत्यमेषु सत् ।। वही, ९
मूल, आश्लेषा, मिश्र और
उग्र नक्षत्रों की अधोमुख (नीचे मुख) संज्ञा है। आद्र्रा, पुष्य,
श्रवण, धनिष्ठा, तथा
शतभिषा नक्षत्रों की उध्र्वास्य (ऊपर को मुख) संज्ञा है। अनुराधा, हस्त, स्वाती, पुनर्वसु,
ज्येष्ठा तथा अश्विनी नक्षत्रों की तिर्यङ्मुख (तिरछा मुख) संज्ञा
है। इन नक्षत्रों में ऐसा ही काम भी करना चाहिये। जैसे यदि वुंâआ खोदना है तो अधोमुख नक्षत्रों में आरम्भ करना चाहिये।
नक्षत्रों की अन्धलोचनादि संज्ञा -
अन्धाक्षश्चिपटाक्षश्च काणाक्षो दिव्यलोचन:।
गणयेद्रोहिणीपूर्वं सप्तवारमनुक्रमात् ।।
रोहिणी नक्षत्र से यथाक्रम सात आवृत्ति
नक्षत्रों की करने से अन्धलोचन, मन्दलोचन, काणलोचन और सुलोचन संज्ञा
होती है। चक्र निम्नलिखित है —
रो. पु. उफा. वि. पूषा. ध. रे. अन्धलोचन
मृ. अश्ले. ह. अनु. उषा. शत. अ. मन्दलोचन
आ. म. चि. जे. अभि. पूभा. भर. काणलोचन
पुन. पूफा. स्वा. मू. श्र. उभा. कृ. सुलोचन
द्विपुष्करत्रिपुष्करयोग -
भद्रातिथौ रविजभूतनयार्वâवारे
द्वीशार्यमाजचरणादितिवह्निवैश्वे।
त्रैपुष्करो भवति मृत्युविनाशवृद्धौत्रैगुण्यदो
द्विगुणकृद्वसुतक्र्षचान्द्रे।। वही, ५०
भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी) शनिवार,
विशाखा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पुनर्वसु, कृत्तिका
और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र इन तीनों के आपस में मिलने से त्रिपुष्कर योग होता है यह
मृत्यु, विनाश और वृद्धि में तिगुना फल देता है। जैसे यदि
त्रिपुष्कर योग में कोई वस्तु खो जाय तो उसका फल यह है कि तीन वस्तु खोयेंगी।
भद्रा तिथि, शनि, भौम और रविवार तथा
धनिष्ठा चित्रा और मृगशिरा नक्षत्र के योग से द्विपुष्कर योग होता है इसका फल दो
गुना होता है।
पञ्चक में वर्जित कार्य -
वासवोत्तरदलादिपञ्चके याम्यदिग्गमनगेहगोपनम्।
प्रेतदाहतृणकाष्ठ संग्रहं छय्यका विततनं
चवर्जयेत् ।।
धनिष्ठा नक्षत्र का उत्तरार्ध, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद,
उत्तराभाद्रपद और रेवती इन ५ नक्षत्रों को पञ्चक कहते हैं। दक्षिण
दिशा की यात्रा, घर का छावना, प्रेतदाह,
घास, लकड़ी का इकट्ठा करना और खाट का बुनवाना-
ये कर्म पञ्चक में वर्जित है।
पञ्चक का फल -
पञ्चके पञ्चगुणितं त्रिगुणं च त्रिपुष्करे।
यमले द्विगुणं सर्व हानीष्टव्याधिकं भवेत् ।।
अग्निदाहो भयं रोग: प्रजापीडा धनक्षति:।
पञ्चक में हानि, लाभ और रोग पाँचगुना होता है, त्रिपुष्कर में तिगुना और द्विपुष्कर में दोगुना होता है। पञ्चक का फल
अग्निदाह, भय, रोग, प्रजापीड़ा तथा धननाश है।
अभिजित्प्रशंसा -
शज्र्ुमूले यदा छाया मध्याह्ने च प्रजायते।
तदा चाभिजिदाख्याता घटिवैâका स्मृता बुधै:।।
जातोऽभिजिति राजास्याद् व्यापारे
सिद्धिरुत्तमा।
दिनमध्येऽभिजित्संज्ञे दोषमन्येषु सत्स्वपि।।
सर्वकुर्याच्छुभं कर्म याम्यदिग्गमनं विना।
अभिजित्सर्वदेशेषु मुख्यदोषविनाशकृत्।।
मध्ये दिने गते भानौ मुहूर्तोऽभिजिदाह्वय:।
नाशयत्यखिलान्दोषान् पिनाकी त्रिपुरं यथा।।
अष्टमे दिवसस्यार्धे त्वभिजित्संज्ञक: क्षण:।
स ब्रह्मणो वरान्नित्यं सर्वकामफलप्रद:।।
जब मध्याह्न में शज्र्ु के मूल में छाया आ जाती
है तब एक घड़ी का अभिजित मुहूर्त होता है। अभिजित मुहूर्त में उत्पन्न होने से
राजयोग होता है और उस मुहूर्त में तो उस समय चाहे कितने भी दोष हों सब शुभकर्म
करने चाहिये। केवल दक्षिण दिशा की यात्रा वर्जित करनी चाहिये। मध्याह्न में अभिजित
नामक मुहूर्त सब देशों में सब दोषों का नाश करने वाला है, जैसे शिवजी ने त्रिपुरासुर का
नाश किया था। दोपहर में जब अभिजित नाम अष्टम मुहूर्त होता है तो वह नित्य सब
कामनाओं की सिद्धि करता है, क्योंकि उसको ब्रह्माजी ने वरदान
दिया है।
दग्धनक्षत्र –
याम्यं त्वाष्ट्रं वैश्वदेवं धनिष्ठार्यम्णं
ज्येष्ठान्त्यं रवेर्दग्धभं स्यात् ।
रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मङ्गलवार
को उत्तराषाढ़ा, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार
को उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येष्ठा और शनिवार को रेवती
नक्षत्र होने से दग्धनक्षत्र हो जाते हैं।
ग्रहों का जन्म नक्षत्र -
याम्यचित्रोत्तराषाढ़ा धनिष्ठोत्तरफाल्गुनी।
ऐन्द्रपौष्येऽर्वâवारादिष्वर्कादिग्रहजन्मभम् ।।
राहोस्तु भरणी ज्ञेया केतो: सार्प तथैव च।
जन्मतिथौ तु जन्मक्र्षे शुभकर्म विवर्जयेत् ।।
शुभग्रहाणां जन्मक्र्षे शुभकर्म शुभावहम् ।
पापग्रहाणां जन्मक्र्षे शुभं चाप्यशभं भवेत् ।।
सूर्य का भरणी नक्षत्र, चन्द्रमा का चित्रा, मंगल का उत्तराषाढ़ा, बुध का धनिष्ठा, बृहस्पति का उत्तराफाल्गुनी, शुक्र का ज्येष्ठा,
शनि का रेवती, राहु का भरणी, केतु का आश्लेषा जन्म नक्षत्र हैं। ग्रहों की जन्म तिथि तथा जन्म नक्षत्र
में शुभ कार्य वर्जित करना चाहिये। शुभ ग्रहों के जन्म नक्षत्र में शुभ कर्म शुभ
फलदायक होता है। पाप ग्रहों के जन्म नक्षत्र में शुभ कर्म भी अशुभ हो जाता है।।
शून्यनक्षत्र –
कदास्रभे त्वाष्ट्रवायू विश्वेज्यौ भगवासवौ।
विश्वश्रुती पाशिपौष्णे अजपाद्यग्निपित्र्यभे।।
चित्रद्वीशौ शिवाश्व्यर्का: श्रुतिमूले
यमेन्द्रभे।
चैत्रादिमासे शून्याख्या स्तारावित्तविनाशदा:।।
चैत्र में रोहिणी और अश्विनी, वैशाख में चित्रा और स्वाती,
ज्येष्ठ में उत्तराषाढ़ा और पुष्य, आषाढ़ में
पूर्वाफाल्गुनी और धनिष्ठा, श्रावण में उत्तराषाढ़ा और श्रवण,
भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, आश्विन में
पूर्वाभाद्रपद, र्काितक में कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में आद्र्रा,
अश्विनी और हस्त, माघ में श्रवण और मूल तथा
फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा शून्य नक्षत्र हैं इनमें कार्य करने से धन का नाश
होता है।
अन्तरङ्ग बहिरङ्ग नक्षत्र -
सूर्यभादुड्गुणं पुन: पुनर्गण्यतामिति चतुष्टयं त्रयम् ।
अन्तरङ्गबहिरङ्गसंज्ञकं तत्र कर्म विदधीत
तादृशम् ।।
सूर्य के नक्षत्र से ४ और ३ इस प्रकार गिनने से
अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग नक्षत्र होते हैं और उनमें वैसा ही कर्म भी करना चाहिये। जैसे
पशुओं को अन्तरङ्ग नक्षत्रों में लाना चाहिये और बहिरंग नक्षत्रों में बाहर भेजना
चाहिये।
नक्षत्रराशिविभाग -
भचक्रद्वादशो भागो राशिस्तु नवभि: पदै:।
अश्विन्यादिक्रमेणैव तृतीयक्र्षान्निवर्तते।।
सप्तविंशतिभानांच नवभिर्नवभि:पदै:।
अश्विनीप्रमुखानां च मेषाद्या राशय: स्मृता।।
सप्तविंशतिभैज्र्योतिश्चव्रंâ स्तिमिवायुगम् ।
तदर्काशो भवेद्राशिर्नवक्र्षचरणाज्र्ति:।।
अश्विनी भरणी कृतिकापादो मेष:। कृत्तिकानां त्रय:
पादा रोहिणी मृगशिरोऽद्र्ध वृष:। मृगशिरोऽर्धमाद्र्रा पुनर्वसुपादत्रयं मिथुनम् ।
पुनर्वसुपाद एक: पुष्याश्लेषान्तं कर्वâ:। मघा पूर्वफल्गुन्युत्तरफल्गुनीपाद:
िंसह:। उत्तरफल्गुन्यास्त्रय: पादा हस्तचित्रार्धं कन्या। चित्रार्धं
स्वातिविशाखापादत्रयं तुला। विशाखा पादएकोऽनुराधाज्येष्ठान्तं वृश्चिक:। मूलं
पूर्वाषाढोत्तराषाढापादो धन्वी। उत्तराषाढायास्त्रय: पादा: श्रवणधनिष्ठार्धं मकर:।
धनिष्ठार्ध शतभिषा पूर्वाभाद्रपदा पादत्रयं कुम्भ:। पूर्वाभाद्रपदा पाद एक
उत्तराभाद्रपदा रेवत्यन्तं मीन:।।
एक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। अर्थात् एक
नक्षत्र चार भागों में बाँटा जाता है। इस रीति से २७ नक्षत्रों के २र्७ े ४ = १०८ भाग हुए। २७ नक्षत्रों की मिलकर १२
राशियाँ होती हैं। इसलिये ९ चरणों की एक राशि हुई भचक्र के ३६० अंश होते हैं और
उसमें १२ राशियाँ होती हैं।
अश्विनी, भरणी और कृत्तिका के एक चरण तक मेषराशि
होती है। कृत्तिका के तीन चरण, रोहिणी पूरा और मृगशिरा के दो
चरण तक वृषराशि होती है। मृगशिरा के दो चरण, आद्र्रा नक्षत्र
पूरा और पुनर्वसु के तीन चरण तक मिथुन राशि होती है। पुनर्वसु का एक चरण, पुष्य और अश्लेषा के अन्त तक कर्वâ राशि होती है।
मघा, पूर्वफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी के एक चरण तक िंसह
राशि होती है। उत्तराफाल्गुनी के तीन चरण, हस्त पूरा और
चित्रा के दो चरण तक कन्या राशि होती है। चित्रा के अन्तिम दो चरण, स्वाती पूरा तथा विशाखा के तीन चरण तक तुला राशि, पुन:
विशाखा का एक चरण, अनुराधा पूरा तथा ज्येष्ठा पूरा वृश्चिक
राशि, मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा
के एक चरण तक धनु राशि होती है। उत्तराषाढ़ा के तीन चरण, श्रवण
और धनिष्ठा के दो चरण तक मकर राशि होती है। धनिष्ठा के दो चरण, शतभिषा और पूर्वभाद्रपद के तीन चरण तक कुम्भ राशि होती है। पूर्वभाद्रपद
का एक चरण उत्तराभाद्रपद और रेवती के अन्त तक मीन राशि होती है।
नक्षत्रों के ताराओं की संख्या -
त्रित्र्यंगपंचाग्निकुवेदवह्नय:
शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुमूकृता:।
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोऽब्धय:
शतद्विद्विरदा भतारका:।।
अश्विनी के ३, भरणी के ३, कृत्तिका
के ६, रोहिणी के ५, मृगशिरा के ३,
आद्र्रा का १, पुनर्वसु के ४, पुष्य के ३, आश्लेषा के ५, मघा
के ५, पूर्वाफाल्गुनी के २, उत्तराफाल्गुनी
के २, हस्त के ५, चित्रा का १, स्वाती का १, विशाखा के ४, अनुराधा
के ४, ज्येष्ठा के ३, मूल के ११,
पूर्वाषाढ़ा के २, उत्तराषाढ़ा के २, अभिजित के ३, श्रवण के ३, धनिष्ठा
के ४, शतभिषा के १००, पूर्वाभाद्रपद के
२, उत्तराभाद्रपद के २, रेवती के ३२,
यह नक्षत्रों के ताराओं की संख्या है।
नक्षत्रों का स्वरूप -
अश्वादिरूपं तुरगास्ययोनी क्षुरोऽन
एणास्यमणिर्गृहञ्च।
पृषत्कचव्रेâ भवनं च मञ्च: शय्या करो
मौक्तिकविद्रुमञ्च।।
तोरणं बलिनिभञ्च कुण्डलं
िंसहपुच्छगजदन्तमञ्चका:।
त्र्यस्रि च त्रिचरणाभमर्दलौ
वृत्तमञ्चयमलाभमर्दला:।।
अश्विनी नक्षत्र का स्वरूप घोड़े के मुख के समान
है, भरणी का योनि के समान, कृत्तिका का छुरे के समान, रोहिणी का शकट (गाड़ी के)
समान, मृगशिरा का हरिण के मुख के समान, आद्र्रा का मणि के समान, पुनर्वसु का गृह के समान,
पुष्य का बाण के समान, आश्लेषा का चक्र के
समान, मघा का भवन के समान, पूर्वाफाल्गुनी
का मञ्च (चारपाई)के समान, उत्तराफाल्गुनी का शय्या के समान,
हस्त का हाथ के समान, चित्रा का मोती के समान,
स्वाती का विद्रूम (मूंगा) के समान, विशाखा का
तोरण (फाटक) के समान, अनुराधा का बलि (भात की बलि) के समान,
ज्येष्ठा का कुण्डल के समान, मूल का सिंहपुच्छ
के समान, पूर्वाषाढ़ा का हाथीदांत के समान, उत्तराषाढ़ा का मञ्च के समान, अभिजित का त्रिकोण के
समान, श्रवण का वामनरूप तीन चरणों के समान, धनिष्ठा का मृदङ्ग के समान, शतभिषा का वृत्त के समान,
पूर्वाभाद्रपद का मञ्च के समान, उत्तराभाद्रपद
का यमल (जुड़े हुए दो बालकों) के समान तथा रेवती का मृदङ्ग के समान स्वरूप जानना
चाहिए।
तारा –
जन्मक्र्षाद्दिनभं यावद्गणयेन्नवभिर्भजेत् ।
शेषा तारा: प्रकीर्तिता:।। जन्मसम्पद्विपत्क्षेम प्रत्यरि: साधको वध:।
मैत्रातिमित्रे तारा: स्युस्त्रिरावृत्त्या नवैव हि।। जन्मतारा द्वितीया च षष्ठी
चैव चर्तुिथका। अष्टमी नवमी चैव षडेतास्तु शुभावहा:।।
ताराबलाच्चन्द्रशुभाशुभे विधोर्बलाद्रवेस्तद्बलत:
परेषाम्।
स्वोच्चे स्वभे मित्रगृहेंऽशके तु दुष्टा:
शुभा:शीतकरो विशेषात् ।।
जन्म नक्षत्र से दिन नक्षत्र तक गिने और ९ का
भाग दे जो शेष बचे उसी को तारा जाने। ताराओं के नाम ये हैं- जन्म, सम्पत् , विपत् , क्षेम, प्रत्यरि,
साधक, वध, मैत्र तथा
अतिमैत्र। २७ नक्षत्रों की ३ आवृत्ति करने से ये ९ तारा होती हैं। दूसरी, छठी, चौथी, आठवीं और नवीं,
ये पांच तारा शुभ होती हैं। १, ३, ५ तथा ७ अशुभ होती हैं। यद्यपि चन्द्रमा बलवान् हो तथापि पहिली, तीसरी, पांचवीं तथा सातवीं तारा मनुष्यों को कष्ट
देने वाली होती हैं। कृष्ण पक्ष में तारा का बल लेना चाहिए और शुक्लपक्ष में
चन्द्रमा का बल विचार करना चाहिये। तारा बल से चन्द्रमा का शुभाशुभ बल होता है,
चन्द्रमा के बल से सूर्य को बल मिलता है और सूर्य के बल से और
ग्रहों को बल मिलता है। अपने उच्च में, अपनी राशि में,
मित्र के क्षेत्र अथवा आकाश में स्थित दुष्ट ग्रह भी शुभ फल देने
वाले होते हैं। अपने उच्चादि स्थानों में चन्द्रमा विशेष फल देता है।
आवश्यके तारादिदानम् –
मृत्यौ स्वर्णतिलान्विपद्यपि गुडं शाकं त्रिजन्मस्वभो
दद्यात्प्रत्यरितारकासु लवणं सर्वो
विपत्प्रत्यरि:।
मृत्युश्चादिमपर्यये न शुभदोऽथैषां
द्वितीयेंऽशका
नादिप्रान्त्यतृतीयका: अथ शुभा: सर्वे तृतीये
स्मृता:।।
योगस्य हेम करणस्य च धान्यमिन्द्रो: शङ्खे च
तण्डुलमणी तिथिवारयोश्च।
ताराबलाय लवणान्यथ गाश्च राशेर्दद्याद् द्विजाय
कनकं शुचिनाडिकाया:।।
आवश्यकता पड़ने पर वध तारा में सुवर्ण तथा तिल
का, विपत् तारा में गुड़ का,
जन्मतारा में शाक (साग) का तथा प्रत्यरि तारा में लवण का दान करना
चाहिए। प्रथम आवृत्ति में विपत् वधतारा शुभ नहीं हैं, दूसरी
आवृत्ति में पूर्वोक्त ताराओं की आदि, मध्य तथा अन्त्य २०/२०
घड़ियां वर्जित करनी चाहिये। तीसरी आवृत्ति में दोष नहीं है। विष्कुम्भादि योग दोष
में सुवर्ण का, करण के दोष में धान्य का, चन्द्रमा के दोष में शंख का, तिथिदोष में तण्डुल का,
बार के दोष में मणि का, तारा के दोष में लवण
का, राशि के दोष में गाय का तथा जन्म नाड़ी के दोष में सुवर्ण
का दान करना चाहिये।
तिथिवार एवं नक्षत्रों से योग
संवर्तकयोग -
सप्तम्यां च रवेर्वारो बुधस्य प्रतिपद्दिने।
संवर्ताख्यस्तदा योगो वर्जितव्य: सदा बुधै:।।
रविवार को सप्तमी हो तथा बुधवार को प्रतिपदा हो
तो संवर्त नाम योग होता है। इसको सदा वर्जित करना चाहिये।
यमदंष्ट्रयोग –
मघाधनिष्ठा सूर्ये तु चन्द्रे मूलविशाखके।
कृत्तिकाभरणी भौमे सौम्ये पूषा पुनर्वसु:।।
गुरौ पूषाश्विनी शुक्रे रोहिणी चानुराधिका।
शनौ विष्णु: शतभिषग्यमदंष्ट्रा: प्रकीर्तिता:।।
रविवार को मघा अथवा धनिष्ठा हो, चन्द्रवार को मूल अथवा विशाखा
हो, मङ्गलवार को कृत्तिका अथवा भरणी हो, बुधवार को पूर्वाषाढ़ा अथवा पुनर्वसु हो, बृहस्पतिवार
को रेवती अथवा अश्विनी हो, शुक्रवार को रोहिणी अथवा अनुराधा
हो तथा शनिवार को श्रवण अथवा शतभिषा हो तो यमदंष्ट्र योग हो जाता है। इसमें शुभ
कर्म वर्जित करने चाहिये।
मृत्युयोग -
नन्दा सूर्ये मङ्गले च भद्रा भार्गवसोमयो:।
बुधे जया गुरौ रिक्ता शनौ पूर्णा च मृत्युदा।।
दिनकरदिनमैत्रं सोमवारे च वैश्वं
शतभिषजिधराजश्चाश्विनी चन्द्रसूनौ।
सुरगुरुदिनसौम्यं सार्पभं शुक्रवारे
रविसुतदिनहस्तं मृत्युयोगं वदन्ति।।
रविवार तथा मङ्गलवार को नन्दा तिथि (१।६।११) हो, शुक्र तथा सोमवार को भद्रा
तिथि (२।७।१२) हो, बुधवार को जया तिथि (३।८।१३) हो, बृहस्पतिवार को रिक्ता तिथि (४।९।१४) हो, शनिवार को
पूर्णा तिथि (५।१०।१५) हो, तो मृत्युयोग होता है। इसमें सब
शुभकर्म वर्जित करने चाहिये।
रविवार को अनुराधा नक्षत्र, सोमवार को उत्तराषाढ़ा, मंगल को शतभिषा, बुध को अश्विनी, बृहस्पति को मृगशिरा, शुक्र को आश्लेषा तथा शनि को
हस्त हो तो मृत्युयोग होता है।
सर्वदा सर्वदेशेषु मृत्युयोगं विवर्जयेत् ।
सब देशों में सर्वदा मृत्युयोग वर्जित करना
चाहिये। (मृत्युयोग आनन्दादि योगों में भी होता है)।।
क्रकचयोग -
तिथ्यज्र्ेन समायुक्तो वाराज्रे यदि जायते।
त्रयोदशाज्र्: क्रकचो योगो निन्द्यस्तदा
बुधै:।।
यदि तिथि तथा वार का अज्र् मिलाकर तेरह हो जाय
तो क्रकच योग बन जाता है। यह सब कार्यों में निन्दित है। जैसे सप्तमी तिथि तथा
शुक्रवार इन दोनों की संख्या मिलाकर ७ ± ६ = १३ होने से क्रकच
योग बन जायेगा।
क्रकचयोगचक्र –
सू० चं० मं० बु० बृ० शु० श०
१ २ ३ ४ ५ ६ ७ वार
१२ ११ १० ९ ८ ७ ६ तिथि = १३
तिथिनक्षत्रजदोष –
तथा निन्द्यं शुभे सार्प द्वादश्यां
वैश्वमादिमे।
अनुराधा द्वितीयायां पञ्चम्यां पित्र्यभं तथा।।
त्र्युत्तराश्च तृतीयायामेकादश्यां च रोहिणी।
स्वातीचित्रे त्रयोदश्यां सप्तम्यां
हस्तराक्षसे।।
नवम्यां कृत्तिकाष्टम्यां पूषा षष्ट्यां च
रोहिणी।।
द्वादशी के दिन आश्लेषा, प्रतिपदा के दिन उत्तराषाढ़ा,
द्वितीया को अनुराधा, पञ्चमी को मघा, तृतीया को तीनों उत्तरा, एकादशी को रोहिणी, त्रयोदशी को स्वाती तथा चित्रा; सप्तमी को हस्त तथा
मूल, नवमी को कृत्तिका, अष्टमी को
पूर्वभाद्रपद तथा षष्ठी को रोहिणी शुभ कार्यों में वर्जित करनी चाहिये।
ज्वालामुखीयोग –
चतुर्थी चोत्तरायुक्ता मघायुक्ता तु पञ्चमी।
अनुराधया तृतीया तु नवम्या सह कृत्तिका।।
अष्टमी रोहिणीयुक्ता योगो ज्वालामुखाभिध:।
त्याज्योऽयं शुभकार्येषु गृह्यते त्वशुभे
पुन:।।
चतुर्थी के दिन तीनों उत्तरा, पञ्चमी के दिन मघा, तृतीया के दिन अनुराधा, नवमी के दिन कृत्तिका एवं
अष्टमी के दिन रोहिणी होने से ज्वालामुखी योग होता है। यह शुभकार्यों में वर्जित
है, अशुभ कार्यों में ग्रहण किया जाता है।
यमघण्टयोग -
सूर्यादिवारे तिथयो भवन्ति
मघाविशाखाशिवमूलवह्नि:।
ब्राह्मं करोऽर्काद्यमघण्टकाश्च शुभे विवज्र्या
गमने त्ववश्यम् ।।
रविवार को मघा, चन्द्रवार को विशाखा, मंगल को आद्र्रा, बुध को मूल, बृहस्पति
को कृत्तिका, शुक्र को रोहिणी तथा शनिवार को हस्त होने से
यमघण्टयोग हो जाता है, यह शुभ काम में विशेषत: यात्रा में
अवश्य वर्जित करना चाहिये।
र० चं० मं० बु० बृ० शु० श०
म० वि० आ० मू० कृ० रो० ह०
(यमघण्ट)
दोषपरिहार -
यमघण्टे त्यजेदष्टौ मृत्यौ द्वादशनाडिका:।
अन्येषां पापयोगानां मध्याह्नात्परत: शुभम् ।।
लग्नाच्छुभग्रह: केन्द्रे त्रिकोणे वा स्थितो
यदि।
चन्द्रो वापि न दोष: स्याद्यमघण्टकसंभव:।।
दिवामृत्युप्रदा: पापा दोषास्त्वेते न
रात्रिषु।।
यमघण्ट में ८ घड़ियाँ तथा मृत्युयोग में १२
घड़ियाँ वर्जित करनी चाहिये,
शेष पाप योगों में मध्याह्न के उपरान्त अशुभ फल नहीं रहता है। यदि
लग्न से केन्द्र अथवा त्रिकोण में शुभग्रह अथवा चन्द्रमा स्थित हो तो यमघण्ट का
दोष नहीं होता है। इन दोषों का फल दिन में होता है, रात में
नहीं।
अमृतसिद्धियोग -
हस्त: सूर्ये मृग: सोमे वारे भौमे तथाश्विनी।
बुधे मैत्रं गुरौ पुष्यो रेवती भृगुनन्दने।।
रोहिणी सूर्यपुत्रे च सर्वसिद्धिप्रदायक:।
असावमृतसिद्धिश्च योग: प्रोक्त: पुरातनै:।।
रविवार को हस्त नक्षत्र, सोमवार को मृगशिरा, मंगलवार को अश्विनी, बुधवार को अनुराधा, बृहस्पतिवार को पुष्य, शुक्रवार को रेवती तथा शनिवार
को रोहिणी नक्षत्र होने से अमृतसिद्धि योग होता है और यह योग सब प्रकार की सिद्धि
देने वाला होता है।
अमृतयोग –
हस्ते सूर्यश्चन्द्रमा रोहिणीषु भौमो मूले
सोमदेवे बुधश्च।
भाग्ये जीवो वैष्णवे भार्गवश्च पित्र्ये शौरि:
र्कीितताश्चामृताख्या:।।
रविवार को हस्त नक्षत्र, सोमवार को रोहिणी, मंगलवार को मूल, बुधवारको मृगशिरा, बृहस्पति को पूर्वाफाल्गुनी, शुक्र को श्रवण,
शनि को मघा हो तो अमृतयोग होता है।
अमृता तिथि -
चन्द्रार्कयोर्भवेत्पूर्णा कुजे भद्रा गुरौ जया।
बुधे शनौ च नन्दा चेच्छुक्रे रिक्ताऽमृता तिथि:।।
रवि चन्द्रवार को पूर्णातिथि (५।१०।१५) हो, मंगल को भद्रातिथि (२।७।१२) हो,
बृहस्पति को जया (३।८।१३) हो, बुध-शनि को
नन्दा (१।६।११) हो, शुक्र को रिक्ता (४।९।१४) हो तो अमृता
तिथि होती है।
अमृतयोगफल -
यदि विष्टिव्र्यतीपातो दिनं वाप्यशुभं भवेत् ।
हन्यतेऽमृतयोगेन भास्करेण तमो यथा।।
यदि भद्रा हो, व्यतीपात हो अथवा अशुभ दिन हो तो अमृत योग
से अशुभ का ऐसा नाश होता है, जैसे कि सूर्य से अन्धकार का।
सर्वार्थसिद्धियोग -
सूर्येऽर्वâमूलोत्तरपुष्यदास्रं चन्द्रे
श्रुतिब्राह्मशशीज्यमैत्रम् ।
भौमेऽश्ब्यहिर्बुश्न्यकृशानुसार्पं ज्ञे
ब्राह्ममैत्रार्वâकृशानुचान्द्रम् ।।
मुहूर्तचिन्तामणि, शुभाशुभ प्रकरण, २८
जीवेऽन्त्यमैत्राश्व्यदितीज्यधिष्ण्यं शुव्रेâऽन्त्यमैत्रश्वयदितिश्रवोभम् ।
शनौ श्रुतिब्राह्मसमीरभानि सर्वार्थसिद्ध्यै
कथितानि पूर्वै:।। वही,
२९
रविवार को हस्त, मूल, तीनों उत्तरा,
पुष्य और अश्विनी नक्षत्र हों, चन्द्रवार को
श्रवण, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य अनुराधा हों, मंगलवार को अश्विनी और
उत्तराभाद्रपद, कृत्तिका और आश्लेषा हों, बुधवार को रोहिणी, अनुराधा, हस्त,
कृत्तिका और मृगशिरा हों, बृहस्पतिवार को
रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और पुष्य हों, शुक्रवार को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और
श्रवण हों, शनिवार को श्रवण, रोहिणी और
स्वाती नक्षत्र हों तो सर्वार्थसिद्धियोग बनता है, इसमें काम
करने से सब काम सिद्ध होते हैं।
अमृतविषघटी -
तिथि, वार तथा नक्षत्रों में विष तथा अमृत घटी
होती है। विषघटी सर्वत्र शुभ कार्यों में वर्जित हैं, जन्म
में भी अशुभफलकारक हैं। अमृतघटी यात्रा, विवाह आदि में
अत्यन्त शुभफलदायक है। नियम यह है कि पूर्वोक्त संख्याओं में चार घड़ी और जोड़ देनी
चाहिये। जैसे सूर्यवार को ४० घड़ी से ४ घड़ी तक अमृतघटी होंगी तथा २० घड़ी से २४ घड़ी
तक विषघटी होंगी इत्यादि। वार सदा ६० घड़ी पूरा न हो तो त्रैराशिक से काम लेना
चाहिये। विषघटी में जो कुछ शुभ कार्य किया जाये उसका शीघ्र नाश हो जाता है। विवाह,
व्रतबन्ध, चूड़ाकर्म, गृहप्रवेश,
यात्रा आदि शुभ कार्यों में विषघटी विघ्नकारक है। यह कर्मकर्ता की
मृत्यु करती है। यदि चन्द्रमा सौम्यराशि में हो, मित्रदृष्ट
अथवा स्ववर्ग का लग्न में हो तो विषनाड़ी-दोष को शान्त करता है। यदि चन्द्रमा लग्न
को छोड़ कर केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो, शुभ ग्रहों से दृष्ट
हो अथवा लग्नेश केन्द्र में हो तो विषघटी-दोष का नाश करता है।
बहुत ही सुन्दर प्रयास, संस्कृत के श्लोकों के साथ सामान्य भाषा का बहुत ही सटीक अनुवाद साधुवाद का अधिकारी है। इसे सभी को पढ़ना चाहिए। जिससे ये ज्ञान अन्य लोगों तक भी पहुंचे।
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