भीमराव रामजी आंबेडकर महान् संस्कृत
प्रेमी थे। यह हमें कई स्रोतों से पता चलता है। संस्कृत आयोग का प्रतिवेदन 1956-57
के दशम अध्याय क्रम 6 संस्कृत राजभाषा के रूप में पैरा से तथा अनेक समाचार पत्रों से यह सिद्ध होता है कि संस्कृत को राज्यभाषा
बनाने के प्रस्ताव का समर्थन डॉ. आंबेडकर ने किया था। इनका जन्म 14 अप्रैल,
1891 में हुआ। इनकी जीवनी हमें अनेक स्रोतों से प्राप्त हो जाती
है। इस लेख का उद्येश्य उनके संस्कृत
प्रेम से अवगत कराना है। वे अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, पालि, संस्कृत, गुजराती और जर्मन, फारसी, फ्रेंच
विदेशी भाषाओं के जानकार थे। इनका परिनिर्वाण 6 दिसम्बर 1956 को हुआ ।
डॉ आंबेडकर
राज्य की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व देते थे। उनका मानना था कि समाज के
लोकतांत्रिक होने से राज्य स्वतः लोकतांत्रिक हो जाएगा, परंतु राज्य के
लोकतांत्रिक होने से समाज भी लोकतांत्रिक हो जाएगा यह आवश्यक नहीं । राज्य शक्ति
संचालित है, सत्ता शक्ति में तानाशाही मनोवृति न्यूनाधिक रूप से अवश्य रहती है। यह
परिणाम भी देखने को आ सकता है कि लोकतंत्र ही अधिनायक तंत्र का रूप ले ले।
लोकतंत्र, चेतना का व्यवहार है। चेतना संस्कार, समूह मूलक है, अतः डॉ. अंबेडकर
राजनीतिक स्वतंत्रता से अधिक अर्थ, धर्म, समाज आदि की स्वतंत्रता पर बल देते थे।
साम्यवादियों की तरह वे धर्मच्युत समाज की स्थापना को महत्व नहीं देते थे। वे इस
क्षेत्र में धर्म की लोकतांत्रिक संचेतना के प्रवाह की अनुभूति करते रहना चाहते
थे। संस्कृत के लिए उनका यह विचार समसामयिक है। हमें सर्वप्रथम समाज को
संस्कृतभाषी बनाना चाहिए क्रमशः राज्य सत्ता भी संस्कृतभाषा को अपनाने पर विवश
होगी। १९२० का दशक वह समय था जब गाँधी भाषाई अस्मिता के आधार पर अंग्रेजों के
विरूद्ध जनमत को संगठित किये थे। इस समय समग्र भारत को एक सूत्र में बांधने वाली
भाषा की आवश्यकता थी। अंग्रेजी हमें दासता का बोध कराती है अतः इसे स्वीकार करना
सम्भव नहीं था। हिन्दी का फैलाब सीमित था तथा कुछ प्रान्तों में विरोध भी था।
भाषा के
आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन के बारे में डॉ. आंबेडकर का मत था कि राष्ट्रीय
एकता के लिए संविधान में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि हर राज्य की सरकारी भाषा वही
हो, जो केंद्र सरकार की है। उनके मत में
भाषावार प्रांत अव्यवहारिक थे। 1 नवंबर 1956 को भाषावार प्रांत में के गठन से अल्प
भाषा भाषी लोगों की शक्ति कम हो गई। गीता का उपदेश शुनि चैव स्वपाके च पण्डिताः
समदर्शिनः का उदाहरण देते हुए डॉ. आंबेडकर कहते थे कि हिंदू दर्शन सर्वव्यापी
आत्मा का सिद्धांत सिखाता है।
1947 में श्याम कृष्ण दर आयोग का
गठन किया गया। दर आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया था।
उसका मुख्य जोर प्रशासनिक सुविधाओं को आधार बनाने पर था। 22 दिसम्बर
1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में प्रथम राज्य
पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। इस आयोग ने 30 सितंबर 1955
को अपनी रिपोर्ट में भाषा को भी राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाया।
आज समूचा देश क्षेत्र और भाषा के आधार पर बंट चुका है।
अनेक समाचार पत्रों से यह सिद्ध होता है कि संस्कृत को
राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव का समर्थन डॉ. आंबेडकर ने भी किया था। संस्कृत के
पक्ष का समर्थन करते हुए नजीरुद्दीन अहमद ने सदन को संबोधित किया था कि जिस भाषा
को हम एक ऐसे देश के लिए अपनाना चाहते हैं जहां की अनेक भाषाएं प्रचलित है,
सर्वप्रथम उस भाषा को पक्षपात रहित होना चाहिए। साथ ही साथ
वह किसी एक प्रदेश की अपनी भाषा न हो। सभी क्षेत्रों की सर्व साधारण भाषा हो तथा
जिसे स्वीकार करने से किसी एक प्रदेश को तो लाभ हो,किंतु अन्य प्रदेशों के लिए वह कठिनाइयों उत्पन्न करें।
लक्ष्मीकांत मैत्र, जोकि हिंदी के स्थान पर संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाए जाने
वाले संशोधन के प्रचालक थे, उन्होंने परिषद से कहा कि यदि संस्कृत को स्वीकार किया जाता
है तो सभी द्वेष तथा कटुता हो दूर जाएंगी तथा साथ ही साथ जो मनोवैज्ञानिक जटिलताएं
इस समय उठ खड़ी हुई है वह भी समाप्त हो जाएंगी। तब इसके या उसके प्रभुत्व की भावना
थोड़ी भी न रह जाएगी। यह तटस्थता अर्थात किसी एक विशेष प्रदेश की भाषा का न होना
राष्ट्रभाषा का सर्वप्रथम एवं आवश्यक सिद्धांत माना गया है।
कानून मंत्री डॉ. आंबेडकर उन लोगों में शामिल हैं जो संस्कृत को भारतीय
संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा देने के हक में हैं। पीटीआई
के संवाददाता से डॉ. आंबेडकर ने पूछा कि संस्कृत में गलत क्या है? संस्कृत को भारत की आधिकारिक भाषा का दर्जा देने के संबंध में संशोधन बिल
पर संविधान सभा तब विचार करेगी जब सदन में आधिकारिक भाषा का प्रश्न आएगा। संशोधन
बिल कहता है कि संघ की आधिकारिक भाषा संस्कृत होनी चाहिए। ये जानना दिलचस्प होगा कि डॉ.
आंबेडकर भी चाहते थे कि संस्कृत को भारत की आधिकारिक भाषा बनाने के समर्थन में ऑल
इंडिया अनुसूचित जाति फेडरेशन की कार्यकारी कमेटी 10 सितंबर,
1949 के दिन एक प्रस्ताव पास करे, लेकिन
कार्यकारी कमेटी के युवा सदस्यों द्वारा विरोध की धमकी देने के कारण उसने उस
प्रस्ताव को वापस ले लिया। बहरहाल एलके मिश्रा द्वारा पेश संशोधन बिल सभा में तीखी
बहस के बाद दुर्भाग्यवश गिर गया और इस प्रकार भारत को भाषाई रूप से एकता के सूत्र
में पिरोने का बाबासाहेब का सपना अधूरा ही रह गया।
साथ ही वह इस प्राचीन भाषा में मौजूद ज्ञान के भंडार से
आम भारतीयों को जोड़े रखना चाहते थे। डॉ. आंबेडकर का संस्कृत से लगाव दिखावा नहीं
था। आर्य और अनार्य, ऊंची और निम्न
जातियों के संबंध में यूरोप के सिद्धांतों की सच्चाई को जानने की उत्कंठा ने उनमें
संस्कृत में रुचि पैदा की थी। इसके लिए उन्होंने वेद सहित कई मौलिक स्रोतों का
स्वयं और खुले मन से अध्ययन किया।जब संविधानसभा में राजभाषा के
सम्बन्ध में चर्चा हो रही थी तभी डॉ़ आंबेडकर और पण्डित लक्ष्मीकान्त मैत्रा
परस्पर संस्कृत में ही वार्तालाप कर रहे थे। यह समाचार 15 सितम्बर,1941 के 'आज' नामक हिन्दी
समाचार पत्र में 'डॉ़ आंबेडकर का संस्कृत में वार्तालाप'
नाम से छपा था। इससे पहले प्रयाग से प्रकाशित 'दि लीडर' नामक अंग्रेजी समाचार पत्र के मुखपृष्ठ पर
13 सितम्बर,1941 को प्रकाशित हुआ था। दिल्ली के राष्ट्रीय
अभिलेखागार में शताधिक वषों से संरक्षित पत्रिकाओं और समाचारपत्रों को देखने से यह
महत्वपूर्ण समाचार प्राप्त हुआ।
5 अगस्त
1949 में कांग्रेस कार्य समिति ने डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में दो
भाषाओं के शिक्षण का निर्णय लिया।
सितम्बर 1949 में भाषा-नीति को लेकर
राष्ट्रनायकों के बीच बहुत चर्चा हुई। इंडियन शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की अखिल
भारतीय कार्यकारी समिति की गोष्ठी में डॉ़ आंबेडकर ने राजभाषा 'संस्कृत हो' यह प्रस्ताव पारित करने का महान्
प्रयत्न किया। परन्तु श्री बी़ पी़ मौर्य आदि युवा कार्यकर्ताओं ने उसका बहुत
विरोध किया और सभा त्याग की भी घोषणा कर दी। इस कारण से डॉ़ आंबेडकर ने अपना
प्रस्ताव वापस ले लिया। उसके बाद उसी दिन शाम को पत्रकार गोष्ठी बुलाकर उन्होंने
अपना विचार व्यक्त किया।
संविधान सभा में कांग्रेस दल के सदस्यों ने भाषानीति के सन्दर्भ में 21,22,23,24,25 सितम्बर,1949 को गोष्ठी की। अन्त में, 25 सितम्बर को मुंशी-आयंगर सूत्र के सन्दर्भ में मतदान किया गया। पक्ष और विपक्ष में 77-77 बराबर मत प्राप्त हुए। 'हिन्दुस्तान' पत्रिका में प्रकाशित तत्कालीन वार्ता के अनुसार मतदान के समय अध्यक्ष पद पर आसीन श्री सत्यनारायणन् ने अपना निर्णायक मत नहीं दिया।
संविधान सभा में कांग्रेस दल के सदस्यों ने भाषानीति के सन्दर्भ में 21,22,23,24,25 सितम्बर,1949 को गोष्ठी की। अन्त में, 25 सितम्बर को मुंशी-आयंगर सूत्र के सन्दर्भ में मतदान किया गया। पक्ष और विपक्ष में 77-77 बराबर मत प्राप्त हुए। 'हिन्दुस्तान' पत्रिका में प्रकाशित तत्कालीन वार्ता के अनुसार मतदान के समय अध्यक्ष पद पर आसीन श्री सत्यनारायणन् ने अपना निर्णायक मत नहीं दिया।
अन्त में यह निर्णय लिया गया कि
संविधान सभा में यदि मतदान हो तो सभी अन्त:साक्ष्य अनुसार मतदान करें। 16 सितम्बर,1949 के अंग्रेजी समाचारपत्र ट्रिब्यून में संस्कृत के सन्दर्भ में
सम्पादकीय भी छपा।
संविधान सभा में प्रो. निजामुद्दीन
मोहम्मद संस्कृत-परक प्रस्ताव के उपस्थापक और प्रमुख थे। उन्होंने संविधानसभा में
संस्कृत के पक्ष में भाषण भी दिया। प्रस्ताव के पक्ष में हस्ताक्षर करने वालों में
अनेक लोग तमिलनाडु प्रदेशवासी और दक्षिणवासी भी थे।
उन दिनों संस्कृतज्ञों ने भी कुछ
प्रयास किए। 25सितम्बर,1949 को अंग्रेजी
समाचार पत्र दि स्टेट्समैन में प्रकाशित वार्ता के अनुसार डॉ़ सारस्वत महोदय की अध्यक्षता
में हुई संस्कृतज्ञों की अखिल भारतीय सभा में 'संस्कृत को राजभाषा बनाने की अभियाचना की गई ।
अन्त में संविधान की आठवीं अनुसूची
में संस्कृत की प्रविष्टि की गई,राजभाषा हिन्दी
के विकास हेतु प्रमुखतया संस्कृत से शब्द लिए जाएंगे, केन्द्र
सरकार के विविध विभागों, मन्त्रालयों तथा संस्थानों में
ध्येय वाक्य संस्कृत भाषा में हों । आम्बेडकर ने जिस संस्कृत को राजभाषा का सम्मान दिलाने का प्रयास किया वही काम द्वापर में व्यास ने तथा त्रेता में वाल्मीकि ने किया था। संस्कृत को जब- जब उद्धार की आवश्यकता हुई। ईश्वर ने किसी अब्राह्मण को इसका निमित्त बनाया।
लेखक- जगदानन्द झा
सम्पर्क- 9598011847
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर द्वारा संस्कृत को राज्य भाषा बनाने का प्रस्ताव क्यों खारिज कर दिया गया?
जवाब देंहटाएंवर्तमान काल में राज्यसभा में संस्कृत भाषा का प्रस्ताव कभी क्यों नहीं उठाया जाता?
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