प्रतिपलं तव संस्मरणम् (हुलासगंज संस्मरण 2)


हुलासगंज में मैं 
26 जनवरी 1983 को पहुंचा था। 
मुझे याद है, उस दिन चारों ओर झण्डोत्तोलन हो रहा था। गाँव से पहले दरभंगा और फिर दरभंगा से डॉ. वेंकटेश शर्मा के साथ पटना पहुंचा। वही वेंकटेश शर्माजो मेरे बड़े भाई के मित्र और व्याकरण के दिग्गज विद्वान् हैं। उनकी शास्त्रार्श शैली अद्भुत थी। उस समय वे हुलासगंज संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य पद का निर्वाह कर रहे थे। बाद में इनके साथ अनेक दुखद घटनायें जुडती चली गयी। मुझे याद हैजब मैं दरभंगा से पटना जाने वाली बस में अपने बड़े भाई महानंद झा जी के साथ जा रहा था। वेंकटेश शर्मा जी हमसे कुछ दूरी पर बस में खड़े थे। लंबे कद काठी के कारण उन्हें बस में पहचानना बिल्कुल आसान था। मैंने एक बार जोर से उनका नाम लेकर उन्हें पुकारा भी था। पटना में किसी परिचित के यहां वह पहुंचे और हम लोगों को वहीं छोड़ कर किसी काम से बाहर चले गए थे। दोपहर का समय था। उस घर का दृश्य आज भी मुझे याद है। बार-बार जोर से खांसने वाला खाट पर लेटा एक बूढ़ा व्यक्तिचारों ओर मक्खियों का अंबारकुछ छोटे- छोटे बच्चेजो अपने बर्तन में खाना खा रहे थे। बहुत गन्दा माहौल था,जिसे मैं 34 साल बाद भी नहीं भूल पाया। घंटे 2 घंटे बाद हम लोग वहां से विदा हुए और हुलासगंज आ पहुंचे। वहाँ से फतूहा, हिलसा, इस्लामपुर होते हुलासगंज तक आया था। हुलासगंज तक आने का बस ही एकमात्र साधन था। गया की ओर से आना हो या पटना की ओर से, बस ही एकमात्र सहारा है।

हुलासगंज में  हमारे दो भाई कुलानंद झा और महेश झा संस्कृत शिक्षा प्राप्त करने के लिए पहले से ही वहां रह रहे थे। हम लोगों का सामान महाविद्यालय परिसर के छात्रावास में तथा रात्रि शयन आश्रम परिसर में बने उच्च विद्यालय छात्रावास में होता था। छात्रावास मिट्टी की दीवार और घास फूस से छाए हुए छप्पर से बने थे। उस समय महेश झा के दो प्रमुख मित्र थे। घनश्याम शर्मा और मृत्युंजय शर्मा घनश्याम शर्मा मोटे हृष्ट पुष्ट थे और मृत्युंजय बिल्कुल दुबले और मंद आवाज वाले। मृत्युंजय आज भी हुलासगंज से जुड़े हैंजबकि घनश्याम के बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिल पा रही है। अस्तु

उस समय स्वामी जी रमाना पर गए हुए थे। संतों के बाहर जाने को रमाना कहा जाता है। एक गांव से दूसरे गांव, दूसरे गांव से तीसरी गांव अहर्निश घूमते रहना। घूमते रहना। रमण करते रहनासंतों का स्वभाव होता है। स्वामी जी से काफी दिनों तक  मेरी मुलाकात  नहीं हो पाई। एक दिन पता चला कि स्वामी जी आज हुलासगंज आने वाले हैं । मुख्य द्वार के बाहर सभी छात्र उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं भी पंक्तिबद्ध हो खडा हो गया। स्वामी जी घोड़े से पधारे। सभी छात्रों के साथ मैंने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। मुझे नहीं याद है कि स्वामी जी के साथ मेरी बातचीत कब हुई। समय बीतता चला गया। वहाँ के छात्र श्वेत कटिवस्त्र तथा कौपीन पहनते थे। मुझे याद नहीं मुझे सर्वप्रथम कब और किसने अंगवस्त्र के लिए कटिवस्त्र दिया। कभी-कभी स्वामी जी छात्रों को कटिवस्त्र बांटा करते थे। एक धोती को बीच से फाड़कर एक कटिवस्त्र बनता था। 12 से 15 वर्ष के आयु के बच्चों के लिए यह वस्त्र पर्याप्त होता था। महेश को अच्छा कटिवस्त्र मिल जाया करता था। स्वामी जी उसे अधिक स्नेह करते थे। बच्चे कटिवस्त्र के नीचे हाफ पैंट पहने रहते थे। कक्षा में हमलोग धोती पहनते थे। इस प्रकार वहां के पोशाक में अधोवस्त्र के लिए कटिवस्त्र तथा ऊपर के शरीर को ढ़कने के लिए शर्ट या अन्य कोई वस्त्र पहना जा सकता था। 
हम नियत दिनचर्या का पालन करते हुए धीरे-धीरे उस व्यवस्था में घुल मिल गये। मेरा नामांकन श्री स्वामी परांकुशाचार्य संस्कृतोच्च विद्यालय के प्रथमा प्रथम वर्ष कक्षा  में हो गया। कक्षा 7-8 को प्रथमा कहा जाता है। इस विद्यालय में उस समय प्रधानाध्यापक श्री नन्द कुमार शर्मा सहित पाँच अन्य अध्यापक थे। भागलपुर निवासी श्री शिवनन्दन शर्मा साहित्य के अध्यापक थे  । वे हमें रघुवंशमहाकाव्यम् तथा अमरकोश पढ़ाते थे। उन्होंने ही श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करना सिखाया। उचैली, गया निवासी श्री नरेश शर्मा हितोपदेश पढ़ाते थे।  श्री नन्द कुमार शर्मा ज्योतिष की पुस्तक शिशुबोध तथा आयुर्वेद की पुस्तक स्वस्थेतिवृत्तम् पढ़ाते थे। मोकर, पटना निवासी श्री अनिल शर्मा लघुसिद्धान्तकौमुदी पढ़ाते थे। अध्यापन के लिए योग्य छात्र नहीं मिलने के कारण वे लघुसिद्धान्तकौमुदी के अजन्तपुल्लिँगप्रकरण तक ही पढ़ाने में सक्षम थे। जब हमलोग इसे आगे पढ़ने के लिए तैयार हो गये तब वे मेरे बड़े भैया श्री विमलेश झा विमल से हलन्तपुँल्लिङ्ग प्रकरण पढ़ना आरम्भ किये। रुस्तमपुर, जहानाबाद निवासी श्री राम ध्यान सिंह इतिहास, भूगोल, सामाजिक अध्ययन विषय पढ़ाते थे। जिस दिन इन्हें पढ़ाने की इच्छा नहीं होती होती थी, उस दिन नदी किनारे शहर बसने के कारण पर निबंध लिखने को बोल देते थे। रुस्तमपुर हुलासगंज से 6 किलोमीटर दूर गांव है। ये प्रतिदिन पैदल वहाँ से आते जाते थे। सर्दी के मौसम में छात्रों के पैसे से मूली खाने का इन्हें शौक था। इनके पास पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती थी। छात्रों से उधारी भी लिया करते थे। झुनाठी, पटना निवासी श्री वीरेन्द्र शर्मा गणित तथा अंग्रेजी पढ़ाते थे। प्रथमा कक्षा में रहते आप अंग्रेजी के शब्दों की स्पेलिंग तथा उसका हिन्दी अर्थ याद कराते रहे। ये काफी गुस्सा करते थे। पाठ याद नहीं करने अथवा किसी प्रकार की गलती के लिए इनका डंडा (सपाका) तैयार रहता था। दो चार छात्र इनके डंडे की व्यवस्था में प्रतिदिन नियुक्त होता था। श्री शिवकुमार शर्मा संस्कृत उच्च विद्यालय में आधुनिक विषय के अध्यापक थे। उन्होंने बहुत श्रम पूर्वक ट्रांसलेशन सिखाया। मध्यमा (कक्षा 9-10) कक्षा में उन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ाया था। आज भी उसके कतिपय सिद्धान्त याद हैं। उनके इतना समर्पित अध्यापक विरले ही होते हैं। कक्षा के भीतर और बाहर वे स्वभाव से अत्यंत ही कठोर, अनुशासनप्रिय थे । उनकी अनुमति के बिना एक भी पत्ता नहीं हिलता था। अध्यापन कार्य के अतिरिक्त ये छात्रावास की व्यवस्था, खेती बाड़ी, निर्माण कार्य, भोजन बनाने, वर्तन धोने, सब्जी काटने आदि में छात्रों की पारी लगाने आदि का काम करते थे। प्रतिदिन रात्री में दो छात्र इनका हाथ पांव दबाते थे। विद्यालय में शैक्षणिक वातावरण था। प्रतिदिन कक्षायें नियमित संचालित होती थी। प्रातः 10 बजे सामुहिक प्रार्थना होती थी। सायं काल समाहारः साम्नां श्लोक से हयग्रीव की स्तुति के बाद कक्षाओं का समापन होता था। मध्यमा कक्षा में जाने के बाद मैं शिक्षक के निर्देश पर प्रथमा के छात्रों को पढ़ा देता था।   श्री राम ध्यान सिंह को छोड़कर सभी शिक्षक आवासीय परिसर में रहते थे अतः कक्षायें सुचारु चला करती थी। प्रतिपद तथा अष्टमी तिथि को विद्यालय में अवकाश होता था। वहाँ की शिक्षा व्यवस्था सुदृढ़ थी। सप्ताहांत में प्रत्येक कक्षा के छात्र एकत्र होकर श्लोकान्त्याक्षरी प्रतियोगिता किया करते थे।  प्रत्येक कक्षा में 12 से 15 आवासीय छात्र थे। कुछ स्थानीय छात्र भी वहाँ पढ़ने आते थे। प्रतिदिन प्रातः 4 बजे जागरण की घंटी बजने के साथ सभी छात्र मंदिर प्रांगण में इकट्ठा होकर वेंकटेश सुप्रभातम् का गायन किया करते थे। इसकी ध्वनि हुलासगंज से 3 किलोमीटर दूर लाट गांव तक सुनाई पड़ती थी। हमलोग लाट गाँव जाया करते थे। यहाँ लाट नामक एक विशाल पथ्थर का स्तम्भ था, जो कि खेत में लम्बवत् पड़ा था। इसे हमलोग अपने हाथों से नापा करते थे। कहा जाता था कि इसे पहले सिरे से दूसरे सिरे तथा दूसरे सिरे से पहले सिरे तक नापने पर कभी भी समान माप नहीं मिलता। इसे रात में कोई राक्षस ले जा रहा था, प्रातः कुम्भकार द्वारा घड़ा बनाने की आवाज सुनकर इस शिलाखण्ड को वहीं छोड़ गया। हुलासगंज बराबर तथा नागार्जुनी पहाड़ी से घिरा हुआ है। इस इलाके में इस प्रकार का विशाल शिलाखण्ड मिलना आश्चर्य की बात नहीं है। जब मैं विद्यालय के प्रथम तल पर खड़े होकर दक्षिण दिशा की ओर देखता था तो वहाँ से बराबर की पहाड़ी साफ - साफ दिखती थी। राजगीर भी वहाँ से दिखाई देता था।चर्चा वेंकटेश सुप्रभातम् की कर रहा था। इसी मंदिर प्रांगण में प्रत्येक दिन रात्रीकालीन आरती में भगवान् लक्ष्मी नारायण की स्तुति करने तथा् तनयन पढ़ने के लिए सभी अध्यापक, छात्र तथा संत एकत्र होते थे। इसके बाद भोजन करने जाते थे। प्रत्येक अष्टमी तथा प्रतिपद् की रात्री को स्तोत्र पाठ करने हमलोग मंदिर में एकत्र होते थे। इन स्तोत्रों में आलवन्दार स्तोत्र मुख्य था। स्तोत्र पाठ का फल यह हुआ कि मैं संस्कृत छन्दों को आसानी से समझने लगा। श्लोकों की यति को समझना मेरे लिए आसान हो गया।
छात्रों में ऐसे शिक्षकों के लिए उपनाम रखने की परंपरा रही है। हम लोग भी अपने अध्यापकों के उपनाम रख लिए थे, जो आपसी बातचीत में प्रयोग किए जाते थे। श्री शिवकुमार शर्मा की दाँतें बाहर की ओर निकली हुई थी। हम लोगों ने उनका नाम बसुला रखा। श्री नरेश शर्मा के हाथ टेढ़े थे। वे कहा करते थे कि हाथों में गोली लगने के कारण ऐसा हो गया। उनकी अनेक मधुर स्मृतियां आज भी याद है। अध्यापकों की योग्यता, कक्षाध्यापन की शैली आदि पर आगे यथासमय लिखता रहूँगा। श्री शिवकुमार शर्मा जी ने मेरी प्रातः कालीन ड्यूटी में मुख्य द्वार से घुड़साल तक की सड़क और उस भूभाग पर प्रातः प्रातः झाड़ू लगाने का काम आबंटित किया। महेश झा उच्च विद्यालय परिसर के ठीक सामने के रास्ते पर झाड़ू लगाते थे। मुझे याद है कि वह नारियल का झाड़ू नहीं था। झाडू का आकार छोटा होने के कारण काफी झुककर सफाई करनी पड़ती थी। झाडू लगाते अंग्रेजी के अध्यापक का चेहरा सामने आ जाता था। मन में हमेशा भय बना रहता था कि कहीं ये कान पकड़कर विद्यालय के प्रथम तल से नीचे न फेंक दे। जब वे गुस्सा होते थे तब दाँत भींचकर कान में नाखून दबा देते थे। 
हुलासगंज प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण था। मंदिर परिसर के पार्श्वभाग, महाविद्यालय परिसर में कास उगे हुए थे। उस समय उच्च विद्यालय मंदिर परिसर में ही था। उसके पीछे कुछ आम के पेड़ थे।  यहां के एक संत, जिनका नाम कमलनयन शर्मा था वानिकी का काम देखा करते थे। यही गोपालन भी करते थे। उस समय कहा जाता था कि इन्हें हनुमान की सिद्धि प्राप्त है। संत कमलनयन शर्मा की यथाप्रसंग विस्तृत चर्चा करूंगा। अभी बस इतना ही कि उन्होंने आश्रम से संबन्धित सम्पूर्ण भूभाग को वनाच्छादित कर रखा था। यहां काजू ,अमरुद, आम, नीबू, नारियल आदि के बागान थे। मैं जिस क्षेत्रफल पर झाड़ू लगाता था, वहां काजू के दो अमरुद के वृक्ष थे। उसी के बीच में एक हैंडपंप लगा था, जिस पर छात्र  भोजन करने के बाद अपनी थाली की सफाई, स्नान, कपडों की धुलाई आदि किया करते थे। उस समय तक हुलासगंज में शौचालय का निर्माण नहीं हुआ था। हम लोग शौच के लिए आश्रम परिसर से काफी दूर खुले में जाया करते थे। जिन बर्तनों में भोजन बनाया जाता था, उसकी सफाई बडे छात्र तथा छोटे छात्र सब्जी काटने से लेकर हर छोटा बडा काम किया करता था। हमारी दिनचर्या अत्यंत ही नियमित और अनुशासनबद्ध थी। 

प्रातः 4:00 बजे उठकर मंदिर जाकर वेंकटेश सुप्रभातम्  का सामूहिक पाठ करना। पाठ याद करने के लिए बैठ जाया करते थे। सुबह छात्रों को जगाने का काम छात्रावास के छात्रावास अधीक्षक श्री शिवकुमार शर्मा जी कराते थे। शिवकुमार शर्मा जी का कठोर अनुशासन था। प्रातः 4:00 बजे से लेकर रात्रि 9:00 बजे तक जब तक कि छात्र सो नहीं जाएहर एक पर उनकी पैनी दृष्टि होती थी। प्रातः कालीन नित्यक्रिया कर घर से लाये जलपान को करना और दैनिक आवृत्ति के लिए बैठ जाना। उच्च विद्यालय परिसर में समय-समय पर घंटी बजाई जाती थी। प्रत्येक घंटी का समय के साथ अलग अलग तात्पर्य होता था। यदि 4:00 बजे की घंटी है तो यह जागरण के लिए होती थी। 9:00 बजे की घंटी प्रातःकालीन भोजन करने के लिए10:00 बजे की घंटी स्कूल जाने के लिए, स्कूल के प्रत्येक कालांश के लिए घंटी बजती रहती थी। अध्यापक बदलते रहते थे और अंतिम घंटी 4:00 बजे की बजती थी। तब हम सायंकालीन विद्यालयीय प्रार्थना कर अपने छात्रावास परिसर को चले जाते थे। 4:30 पुनः घंटी बजती थी अमनिया करने के लिए। चावल की साफ सफाई को अमनिया कहा जाता था। यहाँ के भण्डार गृह में भूसा युक्त चावल रखा था। प्रतिदिन दो छात्र भूसे से चावल अलग करते उच्च विद्यालय के प्रथम तल पर लम्बवत् फैलता था, ताकि छात्र इसकी दोनों तरफ बैठकर अमनिया कर सकें। यह प्रक्रिया प्रतिदिन की थी। कभी कभी गेहूँ की भी अमनिया की जाती थी। सर्दियों के रात के भोजन में रोटी का प्रबन्ध होता था। रोटी बनाने के लिए भी बारी- बारी से छात्रों को लगाया जाता था। अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए कार्य करने का हमलोग अभ्यस्त हो चुके थे। समय और दिनचर्या का साहचर्य घंटी के साथ हो चुका था। हम इसके अभिन्न अंग बन चुके थे। 
एक दिन की घटना है । हम चारों भाई (महेश, कुलानन्द,महानन्द और मैं) महाविद्यालय के छात्रावास में सोए हुए थे, तभी आश्रम में स्थित उच्च विद्यालय के छात्रावास की ओर से जोर जोर से आवाज आ रही थी, आग लग गई है। महाविद्यालय के छात्रों के साथ हमलोग उस दिशा की ओर दौड़ पडे। वहां पहुंच कर देखा, स्थिति अत्यंत ही भयावह थी।  उच्च विद्यालय के छात्रावास में कुल 3 कक्ष थे। इसके साथ ही भोजनालय भी लगा हुआ था। मिट्टी की दीवारें और घास फूस से निर्मित छप्पर वाले इस छात्रावास में आग इतनी तेजी से फैली कि किसी को संभलने का मौका ही नहीं दिया। उच्च विद्यालय के छात्रावास से आग की ऊँची लपटें निकल रही थी। कक्षा 6 से 8 तक के छात्र बदहवास इधर उधर भाग रहे थे। कोई अपनी जली किताबें, बर्तन आदि को देखकर रो रहा था तो कोई भयावह मंजर को देखकर भयभीत था। सभी छात्रों के कपड़े, रजाई सब कुछ जल चुके थे। उच्च विद्यालय के अध्यापक श्री शिवकुमार शर्मा जी की तत्परता से कोई हताहत नहीं हुआ। सभी सुरक्षित बाहर निकल चुके थे। आग किसने लगायी या कैसे लगी इसपर कयास ही लगते रहे। कोई कहता कि छात्रावास के पार्श्वभाग से किसी ने आल लगायी तो किसी का तर्क था कि बिजली के शार्टशर्किट से आग लगी। अंततः आग लगने के कारण को खोजा नहीं जा सका। अंततः निर्णय हुआ कि इस मिट्टी और घास से निर्मित छात्रावास को पक्के भवन में बदला जाय। मुझे अभी भी याद है कि मेरे सहपाठी उचौली निवासी अवधेश शर्मा की लघुसिद्धान्तकौमुदी आधी जल गयी थी। कुछ दिनों तक छोटे बच्चों का छात्रावास उच्च विद्यालय का बरामदा बना रहा। महाविद्यालय का दो कक्षों का छात्रावास भी फूस से निर्मित था। भय के कारण महाविद्यालय के छात्र भी घास से निर्मित छात्रावास को छोडकर महाविद्यालय के पक्के कक्ष में रहने आ गये। उस समय तक महाविद्यालय में कुल 4 कमरे बने हुए थे। उनमें से एक कक्ष में महाविद्यालय के अध्यापक डॉ. वेङ्कटेश शर्मा, श्री विमलेश झा तथा श्री रामचन्द्र मिश्र रहते थे। शेष कक्ष या बरामदे में पढ़ाई होती थी। जल्द ही हम आग लगने की घटना को घटना को भूल गये। हम पूर्ववत् अपनी दिनचर्या में लग गये।
हुलासगंज में रहनेवाले अधिकांश छात्र गया, जहानाबाद, औरंगाबाद तथा पटना के निवासी थे। उच्च विद्यालय के अध्यापक श्री शिवनन्दन शर्मा के कारण कुछ भागलपुर के छात्र भी वहाँ रहकर अध्ययन करते थे। इक्के दुक्के छात्र नबादा तथा नालन्दा जनपद के थे। 1985 तक गया जिले के अन्तर्गत ही जहानाबाद तथा अरवल जिला आता था। अगस्त 1986 में गया से अलग होकर जहानाबाद जिला बना तथा अगस्त 2001 में जहानाबाद से अलग होकर अरवल जिला बना। इन जनपदों के विभिन्न गांवों से आकर पढ़ने वाले छात्रों के साथ रहते हुए दक्षिण बिहार का भूगोल, रहन सहन आदि से मैं भलीभाँति परिचित हो गया था। कक्षा 6 से वहाँ रहने के कारण मगही बोली ठीक उसी प्रकार बोलना सीख गया था जैसा कि उस क्षेत्र के स्थानीय छात्र बोला करते थे। कभी -कभी मेरे मगही उच्चारण में भी मैथिली भाषा का टोन पहचान लिया जाता था। 
आश्रम में बहुतायत में फलदार वृक्ष लगे थे। इसका कतिपय संस्मरण आज भी याद है। अल्पावधि की छुट्टियों में यहाँ के आसपास के जनपदों के छात्र अपने घर चले जाते थे। दूरस्थ जनपद का रहने के कारण मैं दीपावली, होली, नवरात्र आदि के अवकाश में घर नहीं जा पाता था। जाड़े में बेर फलता है। मंदिर परिसर के पीछे बेर का पेड़ था। बाल स्वभाव के कारण हमलोग संत कमलनयन दास से छिपकर बेर तोड़ लेते थे। एक दिन संत कमलनयन दास कहीं से घूमते बेर के पास पहुँचे तथा उसकी तना झुका देखकर समझ गये कि हमलोगों में से किसी ने बेर तोड़ा है। गुस्से में आकर संत कमलनयन ने उस पेड़ को काट डाला। वे यहीं नहीं रूके। स्वामी जी के सम्मुख ही हमलोगों से मगही में कहा कि जाओ अब पेड़ और झुक गया है। अब बेर तोड़ने में असुविधा नहीं होगी। वे परम दयालु संत भी थे। उनके लगाये नींबू के पेड़ से नींबू तोड़कर हमलोगों के बीच बांटा जाता था। उसे हमलोग अचार बनाते थे। काजू के सरस फूल को चूसना उन्होंने ही सिखाया। ग्रीष्मवकाश में हमें खट्टे मीठे आम मिल जाते थे। श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन 
गांव से शिर पर धान की बोरी लाना
माध्यमिक विद्यालय के छात्रावास के लिए तार का पेड़ काटा जाना
महाविद्यालय परिसर पर वृक्षारोपण तथा कटीले तार से घेराबन्दी

महाविद्यालय परिसर में सब्जी की खेती





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