पुस्तकें
सुगठित ज्ञान का स्वरुप होती हैं। उ0
प्र0 संस्कृत संस्थान, लखनऊ में
विद्वद्जन हेतु एक अतिथि गृह आरक्षित था। एक बार मैंने अपने पुस्तकालय की
पुस्तकों को उस अतिथि गृह में स्थानान्तरित करने हेतु संस्थान के तत्कालीन
अध्यक्ष विद्वन्मूर्धन्य प्रो0 नागेन्द्र पाण्डेय के पास
प्रस्ताव लेकर गया तो वे बोले, विद्वद्जन साक्षात् जीवित
पुस्तक स्वरुप होते हैं। उन्हीं के द्वारा पुस्तकें लिखी जाती है, अतएव किसी लिखित पुस्तक के बजाय वे श्रेष्ठ हैं। अतः उनके लिए आरक्षित
कक्ष सर्वोत्तम स्थान पर होना चाहिए न कि पुस्तकें।
तब से आज
तक लगभग 12 वर्ष बीत गये। अब मै सोचता हूँ। पुस्तक बड़ा या
विद्वान्। निश्चय हीं पुस्तक की अपेक्षा ज्ञान की जीवित प्रतिमूर्ति बड़ा है।
पुस्तकीय ज्ञान को आत्मसात किया विद्वान् उसमें व्यक्त विचारों की व्याख्या कर
सकता है। भाष्य कर विस्तृत फलक उपलब्ध कराता है। उससे तर्क पूर्ण ढ़ग से सहमत या
असहमत हो सकता है। तद्रुप अनेक ग्रंथो का सार संकलन कर समयानुकूल प्रस्तुत का सकता
है।
अब तो मैं
यह भी मानने लगा हूँ कि वह विद्वान् उस विद्वान से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है जोे
अपने ज्ञान को केवल पुस्तकाकार कर ही नहीं छोड़ा अपितु उसके संवाहकों की एक जीवित
वंश परम्परा स्थागित किया हो। पुस्तक का ज्ञान चलफिर कर उपदेश नहीं देता। ज्ञान
प्राप्ति हेतु प्रेरित नहीं करता बल्कि चुपचाप आलमारी में स्थित हो कर जिज्ञासु की
प्रतीक्षा करता है। उस व्यक्ति की विचारधारा तब तक सुषुप्तावस्था में रहती है जब
उसे पुस्तक के रुप में परिणत कर दिया जाता है। मौखिक परम्परा लोक संवाहिका होती
है। जीवित विचारधारा युगगति के साथ मिलकर अमरता को प्राप्त करती है। हे विद्वज्जन
आप भी पुस्तक परम्परा के आगे शिष्य परम्परा को भी अपनायें। भले इस पर आपको लेखकीय
पुरस्कार प्राप्त न हो रहा हो।
पुस्तकें
एक हताश गुरु की अभिव्यक्ति है कहा जाय तो विशेष अनुचित नहीं। गुरु तब पुस्तक
लिखने बैठ जाता हैं जब उसके मन में दो विचार हों 1- पुस्तक
बिक्री से प्राप्त आय या प्रकाशक द्वारा प्रदत्त रायल्टी की आशा 2-योग्य शिष्य परम्परा निर्माण में स्वयं की अक्षमता।
प्रथम
विचार में ज्ञानी अपना ज्ञान बांटता नहीं, अपितु उसका विक्रय
करता है। यह यशसे नहीं, अर्थकृते के लिए ही है। पुष्कलेन
धनेन च से ज्ञान आर्थिक रुप से सशक्त व्यक्ति के पास पहुँचाने का स्रोत्र है। यह
व्यापार सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक हो सकता है इसमे संशय है। पुस्तक की गुणवत्ता
एवं उपादेयता पर निर्भर करता है कि पाठकवृन्द उसकी मांग कब तक करते रहेंगें। एक
समय बाद यह किसी के आर्थोपार्जन में सहायक सिद्व नहीं हुआ तो पाठक धन खर्च कर
पुस्तक क्यों खरीदे।
कुछ ज्ञानी
जन कलम के धनी होते हैं लिखत हैं छपवाते हैं। ये पर्यावरण के हितैषी नहीं होते। जो
पेड़ को नष्ट कराकर पुस्तक छपवा कर बेचने में रुचि रखते हों वे शिष्य परम्परा
कहाँ स्थापित कर पाएगें। मैं यहाँ कोचिंग में पढ़ने पढ़ाने वाले गुरु शिष्य की
चर्चा नहीं कर रहा हूँ। मैं सिर्फ सुगठित किसी एक शाखा के विचारधारा की बात कर रहा
हूँ। जिसकी खोज गुरु ने की हो।
जिन्होंने
योग्य शिष्य परम्परा स्थापित की हो। अपना अब तक का उपार्जित ज्ञान शिष्य को इस
हेतु से दिया हो कि इसे अनवरत आगे की पीढ़ी को इसे और समृद्ध कर बांटना। वे यथार्थ
में पूज्य हैं और संसार आदर के साथ उनका नाम स्मरण करता है। शिष्य भी उस परम्परा
में खुद को जोड़कर गौरव का अनुभव करता है।
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