स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी महाराज

स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी महाराज        (1921-2036)
श्रीस्वामी जी का अवतार स्थल महमत्पुर गॉंव हैं जो विक्रम नौवतपुर के समीप अवस्थित है। 10 मार्च 1865 तदनुसार फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी शुक्रवार संवत् 1921 कुंभ के सूर्य में मघा नक्षत्र में नौवतपुर के समीप अवस्थित महमत्पुर गॉंव के कौण्डिन्य गोत्रीय आथर्वणिक ब्राह्मण कुल में श्री रामधनी शर्मा एवं श्रीमति रामसखी देवी के द्वितीय पुत्र के रूप में आप अवतरित हुए। वचपन में आप 'पारस' नाम से पुकारे जाते थे।  बभनलई ग्रा म के भारद्वाजगोत्रीय श्री नरसिंह नारायण शर्मा की पुत्री के साथ परिणय सूत्र में बंधकर आपका गृहास्थाश्रम में प्रवेश हुआ तथा एक पुत्ररत्न भी प्राप्त हुआ। इस तरह से गृहस्थाश्रम के मुख्य उद्देश्य पितृ ऋण से आप मुक्त हुए।
स्वामी परमहंससूरि से मिलन
वचपन से ही संगीत के माध्यम से रामचरित मानस की सस्वर प्रस्तुति में आपकी अभिरूचि थी। एक दिन स्वामी परमहंस सूरि जी के स्वागत में गॉंव मे मानस प्रस्तुति का आयोजन हुआ। आपकी जब बारी आयी तो जनकपुर फुलवारी में भगवान राम एवं सीता जी के प्रथम मिलन प्रसंग "श्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी …………बरनत छवि जहॅ तहॅ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।" की प्रस्तुति से आपने परमहंससूरि जी को मुग्ध कर दिया। प्रस्थान के पूर्व स्वामी परमहंससूरि जी ने आपके बड़े भाई श्रीजुदागी शर्मा से आपको अपने लिया मांगा। घर गृहस्थी के कारण प्रारंभ में भाई को संकोच तो हुआ परंतु उन्होंने अपनी स्वीकृति देते हुए कहा कि पारस भी आपका ही है। कुछ समय बीता और स्वामी परमहंससूरि जी तरेत स्थान से दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल गये। इधर पारस जी का मन स्वामी जी में ही लगा रहता था। एक बार पारस जी अस्वस्थ हुए और प्रतिदिन रोग बढ़ता ही
गया।चारमाह से शय्याबद्ध रहते हुए स्थिति ऐसी आ गयी कि सबलोग इनके जीवन से निराश हो गये। इनकी मॉं निराश होकर ऑसू बहाती हुई भगवान से निरोग होने के लिए प्रार्थनाा करती रहतीं। मॉं की स्थिति देखकर पारसजी ने उनसे कहा 'मुझे परमहंस स्वामी जी के शरण में दान कर देने से मेरा रोग
हट जायेगा।' असहाय मॉं ने पारस के प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दे दी। इसी बीच अचानक स्वामी परमहंससूरि जी का तरेत में पदापर्ण हुआ। पारस जी ने अपने पिता से स्वामी जी के दर्शन की ईच्छा प्रकट की। पिता ने तरेत ठाकुरवारी जाकर स्वामी परमहंससूरि जी को पारस की मरणासन्न स्थिति से
अवगत कराया। स्वामी जी शीघ्र ही महमत्पुर पहुॅच गये एवं पारस जी के शरीर को अपने करकमल के स्पर्श से रक्षाकवच में बांध कर यह कहते हुए तरेत लौट गये 'पारस ठाकुरवारी आ जाओ'। मरणासन्न स्थिति वाला ठाकुरवारी जायेगा। यह सुनकर सब आश्चर्यचकित हो गये परंतु चमत्कार जैसा ही हुआ और पारस जी ने शीघ्र ही मरणशय्या छोड़ दिया तथा लड़खड़ाते ठाकुरवारी पहुॅच गये। "प्रभु पहिचानि परेउ धरि चरना" और स्वामी परमहंससूरि जी ने पारस जी को श्रीवैष्णव धर्म के पंचसंस्कार से दीक्षित कर 'पराङ्कुशाचार्य' नाम दे दिया। बाद में यही स्वामी पराङ्कुशाचार्य हो गये तथा "सरौती के स्वामी जी" के नाम से विख्यात हुए। दैवसंयोग से पिता परमपद हुए। पत्नी तथा पुत्र भी शनैः शनैः संसार छोड़ते गये। पारिवारिक बंधन ढ़ीला पड़ गया और जीवित मॉं पहले ही इन्हें परमहंस स्वामी जी की शरणागति में दान कर चुकी थी।
दिव्यदेश भ्रमण एवं भगवदचरित का अवगाहन
परमहंस स्वामी जी की पदछाया में रहते हुए पैंतीस वर्ष की अवस्था में श्रीपराङ्कुशाचार्य जी परमहंस स्वामी जी के साथ दक्षिण भारत के श्रीवैष्णव दिव्यदेश के दर्शन के लिये प्रस्थान कर गये। जहॉं पाञ्चरात्र शास्त्र विधि का पालन करते हुए पूर्ण परम्परा का निर्वाह होता हो एवं तदनुसार मंदिर में भगवान की पूजा होती हो उसे दिव्य देश कहते हैं। इस यात्रा का पहला लक्ष्य श्रीजगन्नाथ पुरी था। पहला चार्तुमास वहीं बीता। आंध्रप्रदेश के सिहाचलम अहोविलम मंगलगिरि तथा तिरूपति तिरूमला के दिव्यदेश का दर्शन करने में दूसरा चातुर्मास रास्ते में ही बीता। वहॉं से तमिलनाडु के मद्रास कांचीपुरम श्रीरंगम तथा आळवार तिरूनगरी के समीपस्थ स्थित सभी दिव्यदेश का दर्शन पूरा करने में तीसरा एवं चौथा
चातुर्मास रास्ते में बीता तथा पांचवा मुम्बई में बीता। वहॉं से छठे वर्ष में द्वारिका विन्दुसरोवर पुष्कर आदि की यात्रा पूरी हुई एवं सातवें वर्ष पुनः वृन्दावन का दर्शन करते तरेत पाली लौट आये। इस यात्रा में तिरूमला वेङ्कटेश भगवान तथा कांची के वरदराज भगवान एवं श्रीरंगम के रंगनाथ भगवान से विशेष सम्बन्ध बन गया। आळवार तिरूनगरी से लेकर श्रीरंगम तथा कांचीपुरम तक आळवार तथा पूर्वाचार्यों की भूमि होने के कारण श्रीवैष्णव परम्परा को गहराई से समझने का अवसर मिला जो सदा के लिये इनके मानसपटल पर अंकित हो गया। इसी स्वानुभूत आनन्द का बीज बाद में अर्चागुणगान रूपी सौरभपूर्ण कमल के रूप में प्रस्फुटित हुआ। रंगनाथ. वरदराज़ तथा वेङ्कटेश भगवान के दिव्यदेश की महिमा रूपी बाग बाटिका एवं वन में आळवार एवं पूर्वाचार्यों रूपी विहंगों के विहार करते सुमधुर वाणी से प्रफुल्लित हो श्रीपराङ्कुशाचायजी जीवन भर भगवद चरित के बाग बाटिका को दत्तचित्त माली की तरह
सींचते रहे। इनके जीवन के बाद के वर्षों में प्रत्येक वर्ष इन दिव्यदेशों की अनेकों बार अनगिनत यात्राएँ हुईं तथा इस तरह से श्रीपराङ्कुशाचार्य जी स्वयं एक चलन्त एवं जीवन्त तीर्थपुरी हो गये। ये जहॉं रहते समीपस्थ भक्तों को नित्य नवीन भगवदचरित के ही फूल के सुगंध एवं मृदु फल के सुस्वाद का आनन्द मिलते रहता।
सरौती ठाकुरवारी
ई सन् 1910 की बात है। यातायात के साधन में प्रायः घोड़ा या बैल का ही प्रयोग होता था। व्यापारी लोग बैल के माध्यम से सामान एक जगह से दूसरे जगह ले जाते थे। एक दिन एक व्यापारी 'श्रीराम लक्ष्मण एवं सीता जी' के प्रस्तर विग्रह बेचने सरौती पहुॅचा। गॉंव के भक्तों में 'श्रीराघवेन्द्र सरकार' को गॉंव में ही रखने का विचार आया। पैसा चन्दा कर विग्रह खरीद लिये गये। श्रीराघव जी नामक एक भक्त ने कुछ जमीन ठाकुर जी के नाम दे दी। ठाकुरवारी के लिये मिट्टी एवं खपड़ा के दो तीन घर बनाये गये। ठाकुर जी की प्राणप्रतिष्ठा के लिये सुयोग्य संत का अन्वेषण होने लगा तथा तरेत के परमहंस स्वामी जी से इस पुनीत कार्य के लिये निवेदन किया गया। परमहंस स्वामी जी पधारे तथा अपने नियमवश गॉंव के बाहर ही बगीचा में ठहर गये। उन्होंने ने ही वृन्दावन से याज्ञिक तथा पुजारी आदि की व्यवस्था कर दी
थी। ई सन् 1912 में ठाकुर जी अपने ठाकुरवारी में विराज गये तथा विधिवत नित्य पूजा का शुभारंभ हो गया। परमहंस स्वामी जी ने एक 'यमुना गाय' . प्रसाद पकाने का एक बड़ा टोकना. ठाकुर जी के लिये एक पर्दा. तथा श्रीरामप्रपन्नाचार्य नामके एक पुजारी ठाकुर जी को अपनी तरफ से भेंट स्वरूप अपिर्त किये। ई सन् 1915 में परमहंस स्वामी जी का महाप्रयाण हो गया। श्रीपराङ्कुशाचर्य जी उदास रहने लगे। परमहंस स्वामी जी के श्रीवासुदेवाचार्य नाम के एक अन्य शिष्य जो 'नासिक स्वामी जी' के नाम से प्रसिद्ध थे कालान्तर में तरेत के स्थानाधीश बनाये गये।
           श्रीपराङ्कुशाचर्य जी पूर्व से ही गान एवं वादन विद्या में कुशल थे। इनका अधिकांश समय भगवान के भजन कीर्तन में ही बीतने लगा। सरौती के भक्तों को ठाकुरवारी के लिये एक अच्छे व्यवस्थापक की खोज थी। ये लोग मुकामा स्वामी जी के सम्मिलित प्रयास से श्रीपराङ्कुशाचर्य जी के पास पहुँचे तथा उन्हें सरौती लाने में सफल हो गये। श्रीपराङ्कुशाचर्य जी अब 'सरौती स्वामी जी' के नाम से जाने जाने लगे। पहले का ठाकुरवारी गॉंव से बाहर था तथा ठाकुर जी के पूवाभिमुखी होने के कारण गॉंव ठाकुर जी की पीठ की तरफ पीछे पड़ जा रहा था। कुछ भक्तों के मन में इसे गॉंव की प्रगति के लिये बाधक होने का भान होने लगा। इन लोगों ने श्रीस्वामी जी से अपनी मनसा प्रकट की। पहले
वाले ठाकुरवारी के पास ही ई सन् 1930 में तरेत स्थान की तरह यहॉं भी उत्तराभिमुख नये ठाकुरवारी का निर्माण हुआ तथा इस बार का ठाकुरवारी मिट्टी का न होकर ईंट एवं छत में लोहे की शहतीर आदि से पटाई करके विस्तृत जगमोहन के साथ पक्का बना। राघवेन्द्र सरकार अब नये ठाकुरवारी में पधारे.। यही ठाकुरवारी आज भी विराजमान है। समय बीतने के साथ श्रीस्वामी जी श्रीवैष्णव परम्परा में प्रगाढ़ होते गये तथा प्रतिवर्ष दक्षिण भारत के तिरूमला तिरूपति. कांचीपुरम. तथा श्रीरंगम की यात्रा अवश्य करने लगे। धीरे धीरे तिरूमला तिरूपति के वेंकटेश भगवान से अधिक जुड़ गये। फलतः ई सन् 1968 के वैशाख शुक्लपक्ष में सरौती में भी श्रीवेंकटेश भगवान के विग्रह को विधिवत प्राणप्रतिष्ठा के साथ पधरवाया
गया। नये विग्रह पूर्व से विराजते हुए राघवेन्द्र सरकार के साथ उसी गर्भगृह में उसी वेदी पर लक्ष्मणजी की वाईं ओर विराज कर भक्तों को दर्शन लेगे। दर्शन की यही व्यवस्था आज भी यहॉं विराजमान है।
भारत में मुगलों ने हिन्दु मन्दिरों तथा हिन्दु संस्कृति को सर्वाधिक दिव्यचरितामृत स्वामीश्रीपराङ्कुशाचार्य जी महाराज 106 क्षति पहुँचायी। हिन्दु मन्दिरों को तोड़फोड़ कर नष्ट किया गया तथा गॉंव के गॉंव हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया। मुगलों के अत्याचार ने सर्वाधिक उत्तर भारत को प्रभावित किया। दक्षिण में भी श्रीरंगम की व्यवस्था को इनलोगों ने नष्ट ही कर दिया था तथा हजारों की संख्या में यहॉं श्रीवैष्णव जन भगवान रंगनाथ की रक्षा में अपनी जान गंवा दिये थे। उत्तर भारत में ऊँचे शिखर के साथ दूर से दिखने वाले मन्दिर को आसानी से चिह्नित कर नष्ट किया जाता था। परिणाम स्वरूप यहॉ नये मन्दिरों के निर्माण में सावधानी बरती जाने लगी तथा मन्दिर भी आवासीय घरों की तरह बिना
शिखर के बनने लगे। इसी शैली पर तरेत तथा सरौती के ठाकुरवारी भी बने थे। गर्भगृह के ऊपर मात्र एक बंगलानुमा संरचना बना दी जाती थी तथा उसमें सार्वजनिक प्रवेश वर्जित रहता था। श्रीस्वामी जी के ई सन् 1980 में महाप्रयाण के बाद सरौती के भक्त गण 1990 के दशक में सरौती के ठाकुरवारी में भी गर्भगृह के ऊपर शिखर आदि जोड़कर इसका जीर्णोद्धार किया।
ठाकुरजी के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर श्रीस्वामी जी की प्रतिमा भी स्थापित की गयी। इसतरह से श्रीस्वामी जी के काल के धरोहर संरचना में काफी परिवर्तन कर दिया गया।
मातृ प्रेम
श्रीस्वामी जी अपनी मॉं से अंत तक जुड़े रहे। श्रीस्वामी जी महमत् पुर जाते थे परन्तु अपने घर नहीं जाते थे। मॉं वृद्धा हो गयीं थीं। मॉं को जब एकबार इनके आगमन का पता चला तो लड़खड़ाते दीवार के सहारे इनके ठहराव स्थल पर पहुँच गयीं एवं बोलीं 'मॉं को क्यों भूल गये बेटा'। श्रीस्वामी जी ने मॉं को साष्टांग प्रणाम कर घर पहुँचाया तथा इसके बाद जब कभी भी इस क्षेत्र में आते तो अपनी मॉं का दर्शन अवश्य करते थे। मॉं जब परमपद कर गयीं तो स्वयं आचार्य बनकर इन्होंने नारायणवलि संपन्न
कराया। रघुनाथपुर निवासी श्रीराजदेव शर्मा जी ने बताया कि श्रीस्वामी जी कहा करते थे 'गऊ एवं मॉँ मेें कोइे दोष नहीं होता है।' स्वामी जी ने अपनी मॉं का श्राद्ध बिन्दुसरोवर में भी किया था।
श्रीस्वामी जी के धार्मिक कृत्य एवं पुस्तकों का प्रणयन
श्रीवैष्णव मत में संस्कार करने के अतिरिक्त श्रीस्वामी जी गॉंवों में 'श्रीमद्भागवत्' तथा 'हरिवंश' की कथा सुनाया कराते थे। श्रीस्वामी जी की कृपा से अनेकों निःसंतान लोगों को 'हरिवंश' की कथा सुनने से संतान की प्राप्ति हुई है। भक्तों के बीच श्रीस्वामी जी ने कथा सुनाने में 'भागवत सप्ताह' का बंधन नहीं रखा। सुविधानुसार वे सबको एक दो या तीन दिनों की भागवत कथा सुनाया करते थे। इनके पास भागवत की संस्कृत मूल वाली ही पुस्तक सदा विराजमान रहती थी। श्रीस्वामी जी ने अपने आध्यात्मिक अनुभव का लाभ अपने तक सीमित नहीं रखकर निम्नांकित पुस्तकों का प्रणयन किया जिससे भक्तगण भी
पूर्णतया लाभान्वित हुए तथा होते रहेंगे।
1। ब्रह्ममेध संस्कार एवं नारायण वलि पद्धति। 2। अर्चागुणगान।3श्रीपरमहंस स्वामी राजेन्द्रसूरि जी महाराज की संक्षिप्त जीवनी प्रथम भाग। 4।साम्प्रदायिक पश्नोत्तर स्त्री एवं मंत्र परमहंस स्वामी जी की जीवनी द्वितीय भाग। 5। राम रहस्य एवं हिंसा।परमहंस स्वामी जी की जीवनी तृतीय भाग 6। महाप्रयाण परमहंस स्वामी जी की जीवनी चतुर्थ भाग। 7। श्रीसीताराम परिचय एवं मानस शंका समाधान। 8। एक नारायण ही उपास्य क्यों। 9। ध्रुव प्रह्लाद चरित्र । 10। सुदामा चरित्र।
जब भी स्वामीजी बालाजी के दर्शन को जाते थे तो वहॉं बीसो मन लड्डू का भोग लगवा कर स्थानीय मठों में बॉंटते थे तथा सरौती लाते थे। तिरूमला के संत लोग स्वामी जी की श्रद्धा देखकर अवाक् रहते थे तथा इस बात का उल्लेख करते थे कि स्वामी जी के चश्मा रखने वाले कवर में साक्षात लक्ष्मी बसती हैं। पता नहीं एक छोटे चश्मे के खोल से कितने रूपये स्वामी जी खर्च करते रहते थे क्योंकि लड्डू भोग में ही उस जमाने में पन्द्रह सोलह हजार रूपए लगा देते थे। बाकी श्रीवैष्णव संत के सम्मान के खर्च अलग ही रहता था। सरौती लौटने पर समस्त श्रीवैष्णव गॉंवों मे श्री स्वामी जी बालाजी के लड्डू का प्रसाद निश्चित रूप से उपलब्ध कराते रहते थे।
श्रीस्वामी जी के बारे में भक्तों के संस्मरण सुमन
आथर्वणं सुमनसां प्रवरमहान्तं कौन्डिन्यवंशमनधं करूणालयन्तम्।।
राजेन्द्रदेशिकपदे विनिवेशयन्तं श्रीमत् पराङ्कुडामुनिं प्रणतोऽस्मि नित्यम्।।
श्री रंगदेशिक स्वामी के चरणाश्रित परमहंस स्वामी श्री राजेन्द्रसूरि जी के पदछाया में रहने वाले अथर्ववेदी पुण्यवान कौडिन्य ऋषि के अथरव कुल के पुष्प सा सुकोमल गुरू स्वामी पराङ्कुश जी की सदा वन्दना करता हूँ। सरौतीस्वामी जी ने हजारो गॉंवों को श्रीवैष्णव मत में समाश्रित कर लाखों भक्तों का उद्धार किया। इनके सभी भक्तों के अपने अपने दिव्य संस्मरण हैं। सबों को एकत्रित करना संभव नहीं है। कुछेक संस्मरण सुमन ही यहॉं अर्पित हो सके हैं।
पंडित श्रीमाधव शर्मा जी द्वारा संग्रहित संस्मरण
विद्याज्ञानवयः पूज्यं श्रीपराङ्कुशमाश्रितम्।
शिष्योपशिष्यान् पाठयन्तं माधवार्यं नमाम्यहम्।।
श्रीमाधव शर्मा जी का जन्म ई सन् 1921 में जलालपुर गॉंव में हुआ था। बचपन में ही सरौती स्वामी जी से श्रीवैष्ण्व संस्कार से सुसंस्कृत हो खैरा संस्कृत विद्यालय में पढ़ने आ गये थे। इनको पंडित गदाधार जी का स्नेह प्राप्त था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा खैरा में हुई तथा खैरा विद्यालय बंद हो जाने के बाद ये पंडित गदाधर जी के साथ पटना गये और वहीं से व्याकरण में आचार्य की शिक्षा पूरी की। गृहस्थजीवन स्वीकार करते हुए सकूराबाद भवन निर्माण में निपुणता वास्तुकला के ज्ञान सम्बन्धि एक घटना है। सरौती ठाकुरवारी में 18 फीट लंबा एवं 18 फीट चौड़ा जगमोहन का निर्माण होना था। श्रीस्वामी जी ने 12 पत्थर के पाये के सहारे अपने निर्देश में इसका निर्माण कराया। गया से एक कारीगर फर्श में संगमरमर लगाने आया था परन्तु वह देर से काम करके ज्यादा समय लगाकर ज्यादा मजदूरी का लालची हो गया था। श्रीस्वामी जी ने सरौती के पास से ही किसी अब्दुल नामके कारीगर को बुलाया और अपनी
देखरेख में संगमरमर विछाने का काम पूरा कराया। इसीतरह से जगमोहन के ऊपर एक बंगला बनना था परन्तु किसी कारीगर को उसकी छावनी कैसे की जाय समझ मे नहीं आर हा था। श्रीस्वामी बाहर गये हुए थे। सरौती लौटने पर उन्होंने स्वयं ही उसका उपाय निकाल कर छावनी का कार्य पूरा कराया।
घोड़े की सवारी
सरौती स्वामी जी एक बार अपने गुरू परमहंस स्वामी जी के साथ भारत यात्रा पर थे। महाराष्ट्र में किसी भक्त ने परमहंस स्वामी जी को एक घोड़ा समर्पित किया। परमहंस स्वामी जी तो पैदल ही चलते थे इसलिये घोड़े का उपयोग दिव्यचरितामृत स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी महाराज 124
मात्र सामान वगैरह ढ़ोने में हो रहा था। एक दिन परमहंस स्वामी जी ने पराङ्कुशाचार्य जी को घोड़े पर बांह पकड़ कर बैठा दिया और कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। उसदिन से घुड़सवारी करना श्रीस्वामी जी को अपने गुरू का प्रसाद हो गया एवं सरौती स्थानाधीश के रूप में ये 'घोडावाले स्वामी' जी के नाम से भी प्रसिद्ध हो गये थे। रात के समय को अनावश्यक सो कर या जाग कर व्यतीत करने से बचने के लिये श्रीस्वामी जी अधिकांशतः रात में ही चलते थे। इसका दूसरा पक्ष यह भी था कि दिन में भक्तों के बीच रहकर उनको लाभान्वित करते थे। इनके घोड़े की विशेषता थी कि जब श्रीस्वामी जी रात में राह भूल जाते थे तो अपने घोड़ा पर ही छोड़ देते थे और स्वयंमेव ईच्छित स्थल पर पहुँच जाते थे। घोड़े की दूसरी विशेषता थी कि जब श्रीस्वामी जी अपने गंतव्य स्थल पर पहुँचते थे तो घोड़ा 'धैवत ध्वनि' से गॉंववाले को श्रीस्वामी जी के आगमन की सूचना दे देता था।
नये घोड़े का नियंत्रण ओड़विगहा गॉंव की एक अनोखी घटना है। एक भक्त नया घोड़ा खरीदा था। संयोग से श्रीस्वामी जी वहॉं पधार गये और उसने श्रीस्वामी जी को घोड़े पर चढ़कर आशीर्वाद देने का निवेदन किया। श्रीस्वामी जी जैसे ही घोड़े पर सवार हुए कि वह वायु गति से भागने लगा। सभी कसनी आदि विखरने की स्थिति में आ गये। लोगों को लगा कि आज श्रीस्वामी जी को घोड़ा से
गिरकर अवश्य ही गंभीर चोट लगेगी परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। घोड़ा थककर जब रूका तो लोगों ने देखा कि श्रीस्वामी जी उसके गर्दन के पास चिपके हुए हैं। घोड़ा से उतरकर श्रीस्वामी जी ने अपने गुरू बड़ेमहाराज परमहंस स्वामी के आशीर्वाद का स्मरण किया।
प्रेत का कल्याण
एक बार रात्रि में घोड़ा पर सवार होकर श्रीस्वामी जी नहर किनारे किसी गॉंव को जा रहे थे। वहॉं एकान्त में एक फूस की झोपड़ी दिखी। श्रीस्वामी जी के साथ पैदल चलने वाले विद्याथी का दल कुछ दूर पीछे छूट चुका था। फूस की झोपड़ी से एक महिला बीमार बच्चे को गोद में लेकर आई और श्रीस्वामी जी से उसके लिये दवा मांगने लगी। इन्होंने बच्चे को घोड़ा के समीप लाने को संत का इसी तरह से उपचार हुआ करता है। ऐसा देखा जाता था कि जब कभी भी बड़े महाराज परमहंस स्वामी जी को अपने शरीर पर वायुदोष उत्पन्न होने का आभास होता था तो वे ऊंचे स्वर में भजन गाते थे। इससे शरीर पर कुपित वायुदोष शांत हो जाता था।
आयुर्वेद
वर्षात के चार माह साधु संत एक ही स्थान पर टिक जाते हैं और इसे चातुमास करना कहा जाता है। श्रीस्वामी जी भी सरौती में चार माह रहकर आयुवेदिक रस रसायन चूर्णादि औषधियों का भी निर्माण कराते थे। इसके लिये आयुर्वेद की पुस्तके पहले से ही मंगा कर रखते थे। सहयोगियों को ककहरा की तरह आयुर्वेद के गूढ़ तत्वों को बताते थे। सरौती में 'रसराज सुन्दरम' 'निघन्टु रत्नाकर' 'पारद संहिता' 'सुश्रुत संहिता' 'चरक वाग्भट संहिता' 'वैद्यकशब्द निघन्टु' 'सम्पूर्ण मदनपाल निघन्टु' 'अष्टाकर रहस्य' 'धनवन्तरि भावप्रकाश' 'सम्पूर्ण भैषज्य रत्नावली' 'माधव निदान' 'शार्गंधर संहिता' 'चिकित्सा चन्द्रोदय' 'भैषज्य रत्नावली' आदि पुस्तकें से लोगों को पढ़ाते थे। वैद्यों को अथवा रोगियों को औषधियॉं निःशुल्क बांटी जाती थी। मिर्जापुर के च्यवन बाबू श्रीस्वामी जी की देखरेख में बारह वर्षों में 'मकरध्वज' नामकी एक दवा बनाये थे जो मरनासन्न व्यक्ति को भी कुछ देर के लिय पुनः होश में लाने में सामर्थ्य थी।
जिसका आयुर्वेद की पुस्तकों में उल्लेख नहीं था वैसी दवायें भी श्रीस्वामी जी अपनी मनीषा से बनवाते थे। आठ दस तरह के नमक के रस से सरौती में 'मदनविलास' नामकी एक ऐसी ही औषधि बनती थी जो विषम अपच में भी लाभ करती थी। बाहर भ्रमण के अन्तराल साथ के विद्यार्थियों को रास्ते में मिलने वाली जड़ी बूटी की पहचान कराते हुए उनके गुणदोष से अवगत कराते चलते थे।
   115 वर्ष की लम्बी अवधि वाले जीवन के अंतिम तीन वर्ष श्रीस्वामी जी ने हुलासगंज 'श्रीलक्ष्मी नारायण' मन्दिर में ही भगवान के लीला गुणों के स्मरण  करने में बिताये। श्रीस्वामी जी महाराज नम्माळवार के अंश से ही अवरित थे। जिस कमरे में हुलासगंज आश्रम में ये रहते थे उस कमरे के ठीक सामने दरवाजा पर एक बकुला वृक्ष विद्यमान था। यह वृक्ष आज भी है। हुलासगंज की अंतिम तीन वर्षों की अवधि में प्रायः ये ऑंखें बंद किये रहते थे। जब भगवदप्रसाद सामने आये तो ऑंखे खोल उसे ग्रहण

करते थे। अपने महाप्रयाण के तीन दिन पूर्व अपने भक्तों को 'श्रीमन्नारायण' का कीर्तन करने को कहा। द्वयमंत्र की अनुगुंज में स्वामी जी स्तोत्र रत्न के पद 21 गुनगुनाते रहे। अंततः 10 फरवरी सन् 1980 तदनुसार वि संवत् 2036 फाल्गुन कृष्ण नवमी रविवार अनुराधा नक्षत्र मकर के सूर्य की गोधूलि वेला में दिव्यपार्षदों के साथ भगवान स्वयं आकर श्रीस्वामी जी महाराज को वैकुण्ठ लोक ले गये।
साभार-- दिव्यचरितामृतम्
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बाणभट्ट ! तुम किसके हो?

               शब्दार्थयोः समो गुम्फः पाञ्चाली रीतिरिष्यते  ।
                शिलाभट्टारिकावाचि बाणोक्तिषु च सा यदि  ॥ धनपाल
महाकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रथम दो उच्छ्वास और कादंबरी की भूमिका श्लोक संख्या 10 से 20 तक में  अपनी आत्मकथा और वंश परिचय सविस्तार दिया है। संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट ही एक ऐसे कवि है, जिन्होंने अपना पूरा जीवनवृत्त उपलब्ध कराया है। कुछ दिन पूर्व मैं दिव्यचरितामृतम् नामक एक पुस्तक पढ रहा था, जिसमें बिहार राज्य के वर्तमान अरवल जिले के सरौती नामक ग्राम को बाण का जन्म स्थल बताने की कोशिश की गयी थी। अतः मैं लिखता हूँ, बाणभट्ट तुम किसके हो? बाणभट्ट द्वारा लिखित पुस्तक के अनुसार  इनके पूर्वज बिहार राज्य के सोन नदी के तट पर बसे प्रीति कूट नामक नगर में रहते थे। यह स्थान बिहार के पश्चिमी भाग में स्थित माना जाता है। बाणभट्ट का वंश विद्या और धर्म के लिए सुविख्यात था। बाणभट्ट वात्स्यायन गोत्र के पवित्र ब्राह्मण कुल में जन्म लिए थे। इन्होंने अपने ग्रंथ हर्षचरित में अपने पूर्वजों का नामोल्लेख किया है। इनके पूर्वज वत्स तथा वत्स के पुत्र कुबेर थे। उन्होंने लिखा है कि कुबेर के घर पर वेदाध्ययन के लिए बड़ी संख्या में छात्र उपस्थित रहा करते थे। बाणभट्ट ने कादंबरी में उल्लेख किया है कि इनके घर पर बटूक गण यजुर्वेद तथा सामवेद का गान किया करते थे। यदि कोई बटुक अशुद्ध पाठ करता था तो पिंजरे में रहने वाला मैना और तोता उन्हें टोक दिया करता था। कुबेर के चार बेटे थे उसमें पशुपति सबसे छोटे थे। पशुपति के पुत्र थे अर्थपति। अर्थपति के 11 पुत्रों में आठवाँ पुत्र था चित्रभानु। चित्रभानु भी सभी शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान थे। इनके यज्ञ के कुंडों से निकला हुआ धूम चारों दिशाओं में व्याप्त हो चुका था। इसी चित्रभानु के घर पर बाणभट्ट का जन्म हुआ था। बाल्यावस्था में ही बाणभट्ट के माता पिता का निधन हो गया था, तब उनकी आयु 14 वर्ष थी। बाणभट्ट के घर में काफी संपत्ति थी। अभिभावक के नहीं रहने पर नियंत्रण के अभाव में ये कुसंगति में आकर अनेक दुर्व्यसनों के आदी हो गए। उन्हें देश भ्रमण का शौक था। अपने कुछ अंतरंग मित्रों के साथ में देशाटन करने निकल गए। कुछ समय के बाद सांसारिक अनुभव होने पर अपने गृहनगर वापस आ गए। लोग उनका उपहास किया करते थे। एक दिन बाणभट्ट के चचेरे भाई कृष्ण का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि हम लोग महाराज हर्ष से तुम्हारी शिकायत कर दी है, अतः वे तुम्हारे ऊपर अप्रसन्न है। उनसे शीघ्र मिलो। कृष्ण की प्रेरणा से बाणभट्ट महाराजा हर्ष से जाकर मिले। पहले तो राजा हर्ष ने बाणभट्ट की अवहेलना की, किंतु बाद में उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें अपना राज्यश्रय प्रदान कर दिया। ताम्बूलद्वयमासनं च। बाण कुछ दिनों तक वहां राज्यसभा के सम्मानित पंडित बने रहे। बाद में वे अपने नगर को लौट आए और वहीं रह कर उन्होंने हर्षचरितम् नामक ग्रंथ की रचना की। यह एक ऐतिहासिक काव्य है,जिससे तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का पता चलता है। महाराजा हर्ष की मृत्यु हो जाने के बाद बाणभट्ट अपनी दूसरी कृति कादम्बरी की समाप्ति के प्रति उदासीन हो गए। बाण के बेटे पुलिन्द या पुलिन  ने कादंबरी को पूरा किया।
मुंज का समय 10वीं शताब्दी के अंत में लिखित धनपाल की तिलक मंजरी से भी इसकी प्रामाणिकता सिद्ध होती है।
 केवलोऽपि स्फुरन् बाणः करोति विमदान् कवीन्  ।
कि पुनः क्लृप्तसन्धानपुलिन्दकृतसन्निधिः  ॥ तिलक मंजरी 26
इस पद्य में श्लेषालंकार के माध्यम से बाण के पुत्र का नाम पुलिंद बताया गया है। यही पुलिंद भट्ट कादंबरी के उत्तरार्ध के रचयिता है। उन्होंने स्वयं भी लिखा है-
 याते दिवं पितरि तद्वचसैव सार्ध: विच्छेदमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः।
दुःखं सतां यदसमाप्तिकृतं विलोक्य प्रारब्ध एष च मया न कवित्वदर्पात्॥
पिता के इस संसार से प्रस्थान करते ही उनके वचन के साथ यह कथा प्रबंध संसार में विखर गया। इसके असमाप्त न होने के कारण सज्जनों के दुख को देखकर ही मैंने इसे आरंभ किया है, कवित्व के घमंड से नहीं। बूलर ने बाण  के पुत्र का नाम भूषणबाण कहा है। कुछ लोग इनका नाम भूषण भट्ट भी बताते हैं ।
बाणभट्ट सम्राट हर्षवर्धन के आश्रित थे। अतः बाणभट्ट का स्थिति काल आसानी से निश्चित किया जा सकता है। हर्षवर्धन का राज्यारोहण महोत्सव 606 ईस्वी में हुआ था तथा उनकी मृत्यु 648 मानी जाती है। यह तिथियां ताम्रपत्र दानों तथा चीनी यात्री ह्वेनसांग के संस्मरणों के आधार पर स्वीकार की जा चुकी है, अतः बाणभट्ट का समय सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सुनिश्चित होता है। बाणभट्ट के समय के अंतरंग और बहिरंग प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं।  रुय्यक जिनका समय 1150 ई. है ने अपने ग्रंथ अलंकारसर्वस्वम्  में बाणभट्ट विरचित हर्षचरित का कई बार उल्लेख किया है। क्षेमेंद्र 1050 ई. ने अपनी कृतियों में कई स्थलों पर बाण का उल्लेख किया है। रुद्रट कृत काव्यालंकार के टीकाकार नेमिसाधु 1060 ई.  ने कादंबरी एवं हर्षचरित को कथा तथा आख्यायिका का आदर्श प्रतिमान बताया है। भोज 1025 ई. ने अपने सरस्वतीकंठाभरणम् में कहा है कि बाण पद लिखने की अपेक्षा उत्कृष्ट गद्य लेखक हैं-
यादृग्गद्यविधौ बाणः पद्यबन्धेऽपि तादृशः ।
 गत्यां गत्यामियं देवी विचित्रा हि सरस्वती ।।
 धनंजय ई.  1000 ने दशरूपक में बाण का उल्लेख करते हुए लिखा है यथा हि महाश्वेतावर्णनावसरे भट्टबाणस्य। आनंदवर्धन 850 ई.  के ध्वन्यालोक में बाण की दोनों गद्य कृतियों की चर्चा है। वामन 800 ई. ने काव्यालंकारसूत्रवृत्तिः में कादंबिनी के एक लंबे समास वाले गद्य अनुकरोति भगवतो नारायणस्य को उद्धृत किया है। इस प्रकार आठवीं शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी तक के काव्यशास्त्रकारों ने बाण तथा उनकी कृतियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है। अतः बाण का समय सप्तम शताब्दी के पूर्वार्ध सुनिश्चित किया जा सकता है।
 अंतरंग प्रमाण
बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित के प्रारंभिक पद्य में तथा अन्य कवियों के साथ कालिदास का सादर उल्लेख किया है। निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिसु ।
प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते । हर्षचरित 16

कालिदास का काल पंचम शताब्दी है । इससे भी यह बात प्रमाणित हो जाती है कि बाणभट्ट का आविर्भाव पांचवीं शताब्दी के बाद हुआ होगा। हर्षचरितम् के प्रथम उच्छवास में जिस भारत नामक ग्रन्थ के रचयिता सर्वविद् वेदव्यास, वासवदत्ता,गद्यबन्ध नृपति भट्टार हरिश्चन्द्र, सुभाषित कोश निर्माता सातवाहन, सेतुबन्ध के रचयिता प्रवरसेन, कालिदास,भास आदि की प्रशंसा की गई है, उनमें से कोई भी कवि सातवीं शताब्दी के बाद उत्पन्न नहीं हुए, अतः अंतः साक्ष्य तथा तथा वहिः साक्ष्य के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि बाणभट्ट का स्थिति काल सप्तम शताब्दी ही है। बाणभट्ट की दो कृतियां आज उपलब्ध होती है। 1. हर्षचरित 2. कादंबरी । उनका एक अन्य ग्रंथ जिसका नाम चंडीशतक है, की भी चर्चा की जाती है। इसमें उन्होंने भगवती दुर्गा की 100 पद्यों से स्तुति की थी। सूक्ति संग्रह एवं अलंकार ग्रंथों में इनके नाम से कुछ पद्य प्राप्त होते हैं। नलचंपू के दो टीकाकारों चंदपाल तथा गुणविनयगणि का कहना है कि बाण भट्ट ने मुकुटताडितक नामक नाटक की भी रचना की थी। उन्होंने मुकुटताडितक  के पद्य को अपने श्रृंगारप्रकाश  में उद्धृत भी किया है, परंतु अभी तक यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सका है। यह नाटक वेणीसंहार की भांति महाभारत के कथानक के ऊपर आधारित है, जिसमें भीम दुर्योधन को मारकर उसके मुकुट को तोड़-फोड़ डालता है, अतः इसका नाम मुकुटताडितक रखा गया है। नलचंपू के टीकाकार स्पष्ट रुप से इसे बाणभट्ट की रचना मानते हैं। आचार्य क्षेमेंद्र अपनी कृति औचित्यविचारचर्चा में बाण के एक पद्य को उद्धृत करते हैं, जिसमें चंद्रापीड की प्रेयसी कादंबरी की विरह व्यथा का वर्णन है। इससे यह अनुमान होता है की बाण ने पद्य में भी कादंबरी की कथा लिखी थी, परंतु या पद्य कादंबरी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है।
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मगध क्षेत्र में संस्कृत की परम्परा 2

        मैंने अपने पूर्व आलेख में स्पष्ट कर दिया है कि मगध क्षेत्र का अतीत अत्यंत ही गौरव पूर्ण रहा है। मध्यकाल में यहाँ संस्कृत का उत्थान अधिक नहीं हो सका, परंतु उन्नीसवीं सदी आते-आते इस क्षेत्र में पुनः संस्कृत विद्या की स्थापना होने लगी। कारण यह कि 19 वीं तथा 20 वीं सदी में मगध के आसपास वाराणसी तथा कोलकाता ये दो संस्कृत विद्या के केंद्र स्थापित थे। लोग आरंभिक शिक्षा मगध में प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु कोलकाता या काशी की ओर जाते रहे। सबसे प्रशंसनीय बात यह थी कि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र में जाकर यहां के विद्वानों ने संस्कृत विद्या की अलख जगायी। इस क्षेत्र में वैष्णव संतो के आगमन के पूर्व भी अनेक संस्कृत विद्या के केंद्र स्थापित थे। टीकारी राज तथा गया के खुरखुरा में स्थित संस्कृत विद्यालय ने अनेक विद्वानों को पैदा किया। पटना जिले का राघवपुर नामक गांव संस्कृत शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जिसे छोटी काशी के नाम से जाना जाता था। परंतु खेद है कि इस क्षेत्र की एक भी विदुषी का नाम प्रकाश में नहीं आ सका है। मैंने पूर्व के लेख तथा इतनी यादें मत आया कर (हुलासगंज संस्मरण) में कुछ विद्वानों की चर्चा कर दी है अतः इस आलेख में उन विद्वानों के नाम सम्मिलित नहीं किये गये है।
 पंडित विष्णु दत्त शर्मा
औरंगाबाद मंडल के चंदा ग्राम में पंडित विष्णु दत्त शर्मा का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। आपने उच्च शिक्षा काशी में अध्ययन कर प्राप्त किया। आपने संस्कृत के लक्षण ग्रंथ विश्व विमर्श लिखकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है

राम आशीष पांडेय

आपका जन्म नवादा जिले के छोटिया गाँव में 7  जुलाई 1944 को हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित सिद्धेश्वर पांडे था।  गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर पटना विश्वविद्यालय से 1969 ईस्वी में आपने संस्कृत में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की। कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से आपने साहित्य, व्याकरण एवं वेद मैं आचार्य की उपाधि प्राप्त की। 1973 में आपको हिंदी से एम. ए. रांची विश्वविद्यालय तथा 1990 में विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त हुई। 1971 में पटना हथुआ राज ज्ञानोदय संस्कृत कॉलेज  मंदिरी में नियुक्त हुए। इसके बाद 1973 में रांची के मारवाड़ी कॉलेज में आप की नियुक्ति संस्कृत प्राध्यापक के पद पर हुई। आपको बिहार सरकार ने वैदिक साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया। डॉ. पांडे ने नाटक, गद्य, काव्य, एकांकी खंडकाव्य और सिद्धांत ग्रंथों का भी प्रणयन किया। इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों पर समालोचना तथा संपादकीय भी लिखा है। आपकी कृतियों में मुख्य है-
मयूर दूतम्-दूत काव्य की परंपरा में डॉ. पांडे ने एक मयूरदूतम् नामक खंडकाव्य का प्रणयन किया। अन्य दूत काव्यों की तरह ही मयूर दूतम् पर भी कवि कुलगुरु कालिदास का साक्षात प्रभाव देखने को मिलता है। मंदाक्रांता की छटा से शोभित इस काव्य की कथावस्तु राष्ट्रीय भावना को जागृत करती है। संभोग एवं विप्रलंभ का प्रत्येक स्थल मर्मस्पर्शी है। नायिका को दिलासा दिला कर नायक द्वारा इंग्लैंड जाने के कथानक को लेकर कवि ने पाटलिपुत्र से इंग्लैंड तक का मनोहरी चित्र उपस्थापित किया है
                          कश्चित् विद्याविभवसहितः शोधकार्याभिलाषी
                          शिक्षा क्षेत्रादधिगतधनाsसावुवासेंगनन्दे
                          तत्रत्यैका सुभणरमगी  शुभ्ररूपा सुरम्य
                           प्राप्याशां सा हृदयनिहिते तस्य रागे सुबुद्धा।।
सभ्यता एवं परंपरा का मेल इस काव्य में देखते ही बनता है।
 इस का प्रकाशन श्याम प्रकाशन, जैजपुर, नालंदा से 1974 ईस्वी में किया गया
इंदिरा शतक-1986 में प्रकाशित इन्दिराशतक कृति भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन वृत्त पर आधारित रचना है। इसमें 100 श्लोक हैं ।
आप संस्कृत सेवा संघ रांची के संयुक्त सचिव भी रह चुके हैं
पं. ब्रह्मदेव शास्त्री
गया जनपद के मगरा ग्राम में पंडित ब्रह्मदेव शास्त्री की आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने विभिन्न स्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की। आपकी अनुरक्ति संस्कृत के प्रति आरंभिक अवस्था से ही थी। आपने आधुनिक नाट्य परंपरा के हर पक्ष को समृद्ध करने का कार्य किया है। 1988 इस्वी में आपके नाटक की प्रतियोगिता में मंचन के फलस्वरूप भारत सरकार ने द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित किया था। आपकी नाटिका निम्नलिखित हैं-
सावित्री नाटिका पुरस्कृत तथा प्रकाशित। वेला नाटिका पंडित ब्रह्मदेव शास्त्री संस्कृत नाट्य मंचन में भी सिद्ध हस्त थे। आप दिल्ली के 25 मलका गंज रोड जवाहर नगर में निवास किये।
डॉशिव कुमार मिश्र
पटना जिले के कौड़ियां गांव के निवासी पंडित जगन्नाथ मिश्र एवं माता जय सुंदरी मिश्र के यहां आपका जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। आपके दादा पंडित ब्रह्मदत्त द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और उनकी छत्रछाया में रहकर आपने अनौपचारिक रूप से संस्कृत की विद्या पायी। उसके बाद आप आरा जनपद के कोइलवर उच्च विद्यालय में अध्ययन हेतु गए। वहां से अध्ययन कर आपने पटना विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यही से आपने हिंदी में m.a. की उपाधि प्राप्त की। साहित्याचार्य तथा विद्यावारिधि की उपाधि भी प्राप्त की । ऋक् तंत्र प्रातिशाख्य पर आपने शोध कार्य किया ।इस ग्रंथ पर s. c. बर्नेल ने कार्य किया था। बर्नेल ने केरल के किसी संग्रहालय से इस पुस्तक की मूल प्रति प्राप्त की थी। महाभाष्यकार पतंजलि जिस सामवेद के बारे में बताते हैं कि वह सहस्त्र वर्त्मा था, उसकी एक भी प्रति तब तक उपलब्ध नहीं था शाकटायन विरचित इस ग्रंथ को बर्नेल ने सर्वप्रथम उपलब्ध कराया। तत्पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पंडित सूर्यकांत शास्त्री ने इस पर विस्तृत नोट लिखते हुए इसे प्रकाशित कराया था। इतनी अल्प सामग्री के ऊपर शुद्ध कार्य करना आपके लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। आपने उसे पूरा कर दिखाया। आपके शोध निर्देशक डॉ. विधाता मिश्र थे।आपकी गुरु परंपरा में प्रोफैसर बेचन जा प्रोफेसर चंद्रकांत पांडे प्रोफैसर हरिपुर पन्न द्विवेदी प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद सिंह तथा काशी नाथ मिश्र प्रवृत्ति विद्वान पंडित हुए। आपने साहित्याचार्य की उपाधि भी प्राप्त की। अध्ययन के उपरांत आपने केंद्रीय विद्यालय रांची से सेवा कार्य प्रारंभ किया। इसके बाद भारत सरकार के विभिन्न उपक्रमों में सेवा देते हुए आप वर्षों तक गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद में नियुक्त हुए। यहां रहते हुए आपने दृक्  जैसी अनेक पत्रिकाओं का संपादन किया। दृक् पत्रिका में आधुनिक संस्कृत साहित्य की समीक्षा तथा विद्वानों के साक्षात्कार का प्रकाशित होते है। यह आधुनिक संस्कृत साहित्य को समर्पित एकमात्र पत्रिका है। आपने संस्कृत शब्दकोश को विस्तार देते हुए पंजाबी भाषा में अनुदित किया। इसका नाम है पंजाबी संस्कृत शब्दकोश। इसके आप मुख्य संपादक हैं। यह पुस्तक गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ प्रयाग से प्रकाशित है इसमें 800 पृष्ठ है 1988 में शंकर दयाल शर्मा ने इस का विमोचन किया। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा यह पुरस्कृत है। दूसरी पुस्तक है वैदिक व्याकरण कोश । इसमें समस्त पाणिनि शिक्षा के पारिभाषिक शब्दों का संकलन किया गया है। सभी परिभाषाएं संस्कृत इंग्लिश तथा हिंदी में दी गई है
बलराम पाठक
पंडित बलराम पाठक का जन्म 26 जून 1921 में पंडित यज्ञ लाल पाठक एवं माता मोती देवी के यहां गया जिले के खीरी तिलैया ग्राम में हुआ था।आप शाकद्वीपीय ब्राह्मण थे। आपने अपने संबंधी के यहां रखकर आरंभिक शिक्षा ग्रहण की। उच्च शिक्षा आपने कोलकाता से प्राप्त किया। यहां से आपने 1924 ईस्वी में व्याकरण तीर्थ की उपाधि प्राप्त की। पुनः बिहार में आकर 1934 में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। अध्ययन के उपरांत आपने लाल ठाकुरबाड़ी रांची में एक संस्कृत पाठशाला आरंभ किया, परंतु कुछ ही बरसों बाद यह बंद हो गई। इसके बाद श्री पाठक श्री गोसनर उच्च विद्यालय में 1935 ईस्वी में संस्कृत अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। 1956 ईस्वी में आप का स्थानांतरण स्थानीय बालिका उच्च विद्यालय में हो गया। यहां से 1968 ईस्वी में सरकारी सेवा से मुक्त हुए। तब से 1978 तक मारवाड़ी सेवा संस्थान द्वारा संचालित शिवनारायण कन्या पाठशाला अपर बाजार रांची में कार्य किया। आप 1924 से 1954 तक बिहार संस्कृत समिति के सदस्य भी रहे। सन् 1986 में आप का देहावसान हो गया। आपने कर्मकांड एवम बाल उपयोगी पुस्तकों की रचना की। जिनमें मुख्य हैं-शारदीय दुर्गा पूजा पद्धति यह 52 पृष्ठों की है इसका प्रकाशन 1967 में हीरा लाल साहू, मूरत साहू भवननीची बाजार, रांची से हुआ था।
सर्वविध श्राद्ध पद्धति इस पुस्तक में पुराणों के नियमानुसार श्राद्ध कर्म की सांगोपांग  क्रमिक व्याख्या  की गई है। यह पुस्तक 90 पृष्ठों की है इसका प्रकाशन 1972 इसवी में हरि जी  कर्म सिंह भाई  द्वारा हुआ। 
जटाधारी मिश्र
गया जिले के पंचाननपुर गांव के निवासी पंडित सत्यनारायण मिश्र के यहां 15 दिसंबर 1930 को पंडित जटाधारी मिश्र का जन्म हुआ था। आपने आरंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त की। आपने साहित्य आचार्य की उपाधि बिहार संस्कृत समिति पटना से की। सन् 1964 ईसवी में आप अध्यापन से जुड़ गए। आपने वह गोस्नरसंत जान्स, rc मिशन आदि विद्यालयों में अध्यापन के दायित्व का निर्वाह किया। आपके द्वारा लिखित पुस्तक है- संस्कृत व्याकरण प्रभा यह बालोपयोगी पुस्तक का प्रकाशन विजयी भंडार, रांची से 1958 ईस्वी में हुआष इसमें 215 पृष्ठ हैं।
पंडित उमा शंकर शर्मा ऋषि
पंडित उमाशंकर शर्मा ऋषि का जन्म गया जिले के पुन्दील नामक ग्राम में एक शाकद्वीपीय ब्राम्हण कुल में हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने एम ए संस्कृत की उपाधि ग्रहण की । आपने पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग में आचार्य पद को भी सुशोभित किया है। संस्कृत के प्रति आपकी गहरी निष्ठा रही है। आप संस्कृत छात्रों को कोचिंग के माध्यम से आईएएस परीक्षा की तैयारी भी करवाते हैं।आपने प्रतियोगी परीक्षाओं की अनेक पुस्तकें लिखा, जो कि गूगल बुक्स पर भी उपलब्ध है। आप संस्कृत भाषा का सरलीकरण करते हुए छात्रों के उपयोगार्थ और सहज बोधगम्य शैली में अनेक पुस्तकों का प्रणयन, संपादन तथा टीका किया है। मुख्य पुस्तकों हैं- 1- निरुक्त संपादन प्रकाशित । 2- अशोक का स्तंभ शिलालेख प्रकाशित
धनुषधारी मिश्र
गया जिले के कुरका देव ग्रामवासी पंडित शिव पदारथ मिश्र के यहां अनंत चतुर्दशी सन् 1868 को आपका जन्म हुआ। गांव में आरंभिक शिक्षा प्राप्त कर मध्य विद्यालय देव में प्रवेश लिया। यहां से टाउन स्कूल गया पढ़ने चले आए और यहीं से आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद आर्थिक विपन्नता के कारण आप आगे नहीं पढ़ सके। गया से प्रकाशित मासिक पत्रिका साहित्य सरोवर के आप संपादक पद पर कार्य करने लगे। कुछ दिनों बाद यह पत्रिका बंद हो गई तब आप वाराणसी चले आये। यहां रहकर संस्कृत ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद करने में लीन हुए। आप द्वारा अनेक अनुदित पुस्तकें यहां से प्रकाशित भी हुई। इनमें से 1- देवर्षि पितृतर्पण 2- कार्तिक महात्म्य 3- गया पद्धति तथा दुर्गा पाठ मुख्य है। इसके अतिरिक्त संध्या वंदन मनुष्य का मातृत्व संबंध भी प्रकाशित है। मनुष्य का मातृत्व संबंध पुस्तक पर आपको वेणी पोएट्री प्राइस फंड से पुरस्कार भी मिला है 1917 ईस्वी में आप का देहावसान हो गया।
देव शरण शर्मा
जहानाबाद जिले के पंडित बालमुकुंद मिश्र के पुत्र पंडित देव शरण शर्मा का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी सोमवार सन 1890 ईसवी में हुआ। जहानाबाद के लक्ष्मी संस्कृत विद्यालय में  पंडित देवदत्त मिश्र से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर   उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु वाराणसी के क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां से आपने काव्य एवं पुराण विषय में तीर्थ की उपाधि प्राप्त की तथा पटना संस्कृत शिक्षा समिति से काव्यालंकार की उपाधि भी प्राप्त की। सन 1980 आपने लिखना शुरू किया। आपने हिंदी तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में समान रुप से लिखा है। उन दिनों मिथिला मिहिर, मर्यादा, मनोरंजन नामक मासिक पत्रों में आपके लेख कविता आदि प्रकाशित होते थे। आपने संस्कृत की पुस्तकों को हिंदी में अनुवाद किया है, जिसमें मुख्य हैं- 1- भगवद्गीता पद्यानुवाद 2- भागवत दशम स्कंध पद्यानुवाद इसके अतिरिक्त भी आपकी छिटपुट  संस्कृत रचनाएं भूदेव नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित होती थी।
डॉ. कृष्ण मोहन अग्रवाल
डॉ. कृष्ण मोहन अग्रवाल का जन्म 10 जून 1946 को हुआ। आपके पिता डॉक्टर राम मोहन दास मगध विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। आप की शिक्षा-दीक्षा आरा में हुई। यहां से आपने b.a. किया। आप संस्कृत में एम ए पीएचडी तथा डिलीट की उपाधि प्राप्त की। आपने hd जैन कॉलेज आरा से अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। 1969 में आप छपरा के राजेंद्र कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए तथा यहीं पर स्नात्कोत्तर संस्कृत विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आप द्वारा लिखित पीएचडी  शोध प्रबंध प्रकाशित है। आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन किया है। आप के निर्देशन में अनेक छात्रों ने शोध कार्य किया। आपकी अधोलिखित रचनाएं प्रकाशित हैं 1-श्रीमद्भागवत का काव्यशास्त्रीय परिशीलन 2- कौटिल्य ऑन क्राइम एंड पनिशमेंट
रामवृक्ष पांडेय
डॉक्टर रामबृक्ष पांडेय का जन्म 1 जनवरी 1934 को ग्राम नूरसराय (शेरपुर) जिला नालंदा, बिहार में पिता पंडित राम शरण पांडे एवं माता पार्वती देवी के यहां हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। इसके बाद आपने पटना सिटी के मुरारका संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन किया। मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा, नव नालंदा महाविहार नालंदा से भी आपने अध्ययन किया। आपकी गुरु परंपरा में पंडित ब्रह्मदत्त द्विवेदी, पंडित शीतांशु शेखर बागची तथा पंडित गुलाब चंद्र चौधरी प्रवृति विद्वान रहे। आप व्याकरण, वेदांत, साहित्य एवं पाली विषय का अध्ययन किया। आप सभी परीक्षाओं में स्वर्ण पदक प्राप्त किए ।आपने पटना सिटी के राम निरंजन दास मुरारका संस्कृत कॉलेज में 17 वर्षों तक पढ़ाया। उसके पश्चात हरिद्वार में 3 वर्ष अध्यापन कर श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ. नई दिल्ली में दर्शन संकायाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आपके लगभग एक दर्जन शोध प्रबंध प्रकाशित है। आपने दर्शन के अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। आप द्वारा संपादित मुख्य कृति है विशिष्टाद्वैत
कमलेश मिश्र 1844-1935
बिहार के अरवल के निकट वेलखड़ा गांव में कमलेश मिश्र का जन्म एक प्रतिष्ठित शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में हुआ। कहा जाता है कि आप के पितामह निर्णय सिंधु के प्रणेता कमलाकर भट्ट के शिष्य थे। कमलेश मिश्र काशी आकर यहां के विद्वान् गंगाधर शास्त्री के पिता नृसिंहदत्त शास्त्री से साहित्य का अध्ययन किया था। आपके साथ भारतेंदु हरिश्चंद्र पढ़ा करते थे। इनके कई पत्र आपके बंशजों के पास सुरक्षित हैं। इन्होंने कमलेश विलास नामक एक गीतिकाव्य की रचना कीजिसका प्रकाशन 1955 ईस्वी में हुआ। कमलेश विलासः गीतिपरंपरा की एक उपलब्धि है। इसी समय अरविंदो  भी  गीतिकाव्य की रचना कर रहे थे। इस समय भारत में संस्कृत के विद्वानों ने  गीतिकाव्य की रचना आरंभ की थीजो कि गीत गोविंद के प्रणेता जयदेव की परंपरा से है। कमलेश विलास में भगवत् भक्ति से ओतप्रोत होकर सोहरदादरा ताल में भैरवी राग से गेयहरिगीतिकाग़ज़लदोहापृथ्वीदिक्पाल छंदरेख़्ताकव्वालीठुमरीहोलीचैताकजरीबिहागखेमटालावनीझूमरनहछू आदि का प्रयोग किया गया। इस में कुल 13 सर्ग हैंसंभवतः यह एक ऐसा प्रथम गीतिकाव्य हैजिसमें लोक गीत या लोकधुनशास्त्रीय राग तथा गज़लों का एक साथ प्रयोग किया गया है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भट्ट मथुरानाथ शास्त्री तथा संस्कृत में गजल प्रबंध लिखने वाले जगन्नाथ पाठकअभिराज राजेंद्र मिश्र आदि ने संस्कृत में गजल का प्रयोग किया। कवि को इस ग्रंथ के लेखन के साथ ही यह चिंता सताने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो कि पाठक इसके गीतों के स्वर ताल में ही डूबे रहे और भगवान के पावन पदों में मन नहीं लगा पावेंइसीलिए उन्होंने एक श्लोक के द्वारा पाठकों को आगाह किया है
               कमलेशगीतमिदं मुदा स्वरतालमञ्जिममञ्जुलम्।
               श्रृणु तस्य तत्र पदे मनोsपि समाविधेहि सुपावने।
कमलेश विलास में बरसात के लिए लिखे गए इस गीत की चित्रमयता देखें
        चमचम चमक  चमत्कृदाचंञ्यन्ती चपला मुहुरुदरे संभाति।
        प्रिय क्व हेति च चातकीपिकि कुहूरिति कौति
        नदति घने शिखिना समं शिखिनी नटति च नौति
        तद्दं दृक्श्रुतिपातमशेषं हृदि मे बहुशूलं प्रददाति।
कमलेश विलास के संपादक तथा कवि के वंशज श्री मोहन शरण मिश्र ने प्रस्तुत गीतिकाव्य की उत्तम भूमिका लिखी हैजिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र के दो संस्कृत गीतों को भी उद्धृत किया गया है। 
कमला प्रसाद मिश्र  1872-1936
पटना जनपद केपटना सिटी नगर के गायघाट मोहल्ले में पंडित कमला प्रसाद मिश्रा का जन्म हुआ। आपने आयुर्वेद शास्त्र के अध्ययन के पश्चात आयुर्वेदीय पद्धति से जन सेवा करना शुरू किया ।आयुर्वेद के आप निष्णात विद्वान थे ।आपने एक कोष ग्रंथ तैयार किया जो वैद्य कोष के नाम से विख्यात हुआ। आपने हिंदी में भी अनेको रचनाएं की सन 1936 ईस्वी में आप का निधन हो गया।
प्रियव्रत शर्मा 
पटना जिले में 1920 ईस्वी में प्रियव्रत शर्मा का जन्म हुआ आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई तथा तदुपरांत आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नामांकन कराए। सन 1956 ईस्वी में आपने पटना स्थित राजकीय आयुर्वेदिक कालेज से अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। यहां प्राचार्य पद को भी सुशोभित किया। बिहार प्रांत देशी चिकित्सा के अधीक्षक पद तथा संस्थान के अध्यक्ष निदेशक पद पर भी रहे। द्रव्यगुण विभाग अध्यक्ष पद से आप सेवानिवृत्त हुए। आप आयुर्वेद शास्त्र के मर्मज्ञ थे। आपने कुछ मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें मुख्य हैं- द्रव्य गुण विभागअभिनव शरीर क्रिया विज्ञानआयुर्वेद का इतिहास, वाग्भट्ट विवेचनचरक चिंतन। आपके द्वारा संपादित मुख्य ग्रंथों हैं - वोपदेव का ह्रदयदीपकवाहर का अष्टांग निघंटु,माधव का द्रव्यगुणकैयदेव निघंटु तथा चरक संहिता का अंग्रेजी अनुवाद।
डॉ ब्रजमोहन पांडे नलिन
पाटलिपुत्र के खेतवाहा गांव में डॉक्टर पांडे का जन्म 1940 में हुआ आरंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद आपने पटना विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। सन 1961 ईस्वी में आपने संस्कृत से एम ए किया। 1962 में पाली में m a सन 1964 में हिंदी में m.a. तथा 1970 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की । स्वर्गीय डॉक्टर छविनाथ मिश्र के निर्देशन में आपने डिलीट भी किया । 8 अगस्त 1963 को हर प्रसाद दास जैन कॉलेज आरा से आप संस्कृत व्याख्याता के रूप में विधिवत नियुक्त होकर अध्यापन आरंभ किया । वहां से आप का स्थानांतरण 1 अप्रैल 1965 ईसवीं को गया कॉलेज गया में हो गया । यहां आप 1976 इसवी तक रहे 1977 ईस्वी के जनवरी मास में आपको मगध विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्थानांतरित किया गया, जहां आप 1985 तक रहे। इस विश्वविद्यालय में पाली विभाग स्थापित होने पर आपको पाली विभागाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई । आप संस्कृत. हिंदी. पाली के विद्वान तो हैं ही भाषा विज्ञान पर भी आपका अधिकार है। आपने ग्रंथों का भी प्रणयन किया।
 रंभा मंजरी नाटिका अनुवादक तथा संपादक भारती प्रकाशन अशोक नगर पटनासौंदरानंद समीक्षा एवं दार्शनिक गवेषणा चौखंबा प्रकाशन 1972, मगही अर्थ विज्ञान विश्लेषणात्मक अध्ययन 1982, अभिनव भारती प्रकाशन इलाहाबादबौद्ध साधना और दर्शनभाषा विज्ञान
अवधेश प्रसाद शर्मा 1886 -1962
 पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र के यहां कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी सन् 1850 ईस्वी को आपका जन्म हुआ। आरंभिक शिक्षा अपनी मां से प्राप्त कर उच्च अध्ययन हेतु गया तथा काशी पधारे। आपने वाराणसी से काव्यतीर्थ, आयुर्वेदाचार्य, आयुर्वेद रत्न आदि उपाधियां प्राप्त की। अध्ययन के पश्चात अध्यापन तथा लेखन को अपना  कर्म मार्ग बनाया। सन 1928 से साहित्यसुधा नामक मासिक पत्रिका का संपादन आपने किया।  इसी पत्रिका में आपकी रचनाएं प्रकाशित हुई । आप अकेले इस पत्रिका का संचालन निरंतर नहीं कर सके और अधिक व्यय आने के कारण इसे 1931 में बंद करना पड़ा। संस्कृत साहित्य परिषद इस पत्रिका के विषय में लिखता है-
              साहित्यसुधा पाटलीपुत्रान्तर्गत राघवपुर प्रकाशमापन्ना।
              एकहायने वयसि वर्तमान पद्य मई पद्य मया देश भाषा संस्कृत पत्रिका
 इस समय आपके द्वारा प्रकाशित रचना उपलब्ध नहीं है आप दर्शन के विद्वान थे तथा कुमारसंभवम् का पद्यानुवाद किया था। आप का निधन सन 1967 ईस्वी में हुआ।
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