मैं बुद्ध जयन्ती 2019 के अवसर पर अपने इस लेख में बौद्धों के अनात्मवाद, क्षेणवाद का विवेचन तथा जयन्त भट्ट, कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, दयानन्द सरस्वती, हेमचन्द्र सूरी आदि द्वारा किये गये खण्डन के बहस से अलग हटकर इस विचारधारा में विचलन को रेखांकित करने का प्रयास किया हूँ।
मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत्
योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः।
अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्ध्येति सौत्रान्तिकः
प्रत्यक्षं क्षणभंगुरश्च सकलं वैभाषिको भाषते॥
हे बुद्ध! आप आत्मा और पुनर्जन्म पर बिना कुछ बोले इह लोग से पधार गए। आपके
जाने के बाद आप के सिद्धांतों (बौद्ध दर्शन) की स्थापना करने में लगे दार्शनिकों
के विचार निरंतर बदलते रहे। आत्मा के विषय में राजा मिलिन्द के प्रश्न पर नागसेन द्वारा
दिये गये उत्तर में इसे रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार का एक समूह (संघात) कहा गया। नैरात्म्यवाद
अनात्मवाद (शून्यवाद) से आरम्भ होकर अबतक 4 बौद्ध दार्शनिक संप्रदाय तथा हीनयान (थेरवाद) इसकी वैभाषिक
एवं सर्वास्तिवादी दोनों शाखाएँ , महायान (महासांघिक) तथा तंत्र - मंत्र के माध्यम
से बुद्ध व उनकी पत्नी की तारादेवी के रूप में पूजा के लिए बनी वज्रयान शाखा तक
आकर एक नये कलेवर में विस्तार पा रहा है।
माध्यमिक (शून्यवाद
) के प्रवर्तक दूसरी सदी के दार्शनिक नागार्जुन के सिद्धांत को अद्वैत विज्ञानवादी
वसुबन्धु ने पलट दिया। इनके सिद्धान्त को दिग्नाग ने। ‘प्रमाणवार्तिकम्`के लेखक धर्मकीर्ति तक आते आते आत्मा की सत्ता को स्वीकार
कर लिया गया। कुमारिल भट्ट तथा शंकराचार्य ने तो आपके नाम से स्थापित दार्शनिक
सिद्धांतों का खण्डन या आंशिक परिष्कार ही किया। क्योंकि आप आत्मा और पुनर्जन्म पर
चुप थे। आपके विचार को मानने वाले दार्शनिकों ने आत्मा की सत्ता को स्वीकार कर
लिया था।
आपने जिस पाली भाषा में अपने उपदेश दिया उस भाषा का महत्व तृतीय बौद्ध संगीति
तक ही रहा। चतुर्थ बौद्ध संगीति की भाषा संस्कृत हो गई। बौद्ध दर्शन की पुस्तकें
भी संस्कृत भाषा में ही लिखी गई। आपके उपदेशों को जिस भाषा में संकलित किया गया,
वह विमर्श की भाषा नहीं बन पायी फलतः जितना विमर्श बौद्ध दर्शन या संस्कृत में
लिखे साहित्य पर हुआ, उतना पालि भाषा में लिखित साहित्य पर नहीं। आज आपके अनुयायियों
को पालि भाषा अनुत्पादक लगने लगी है। उनके बौद्धिक विचार प्रदाता बौद्धिक लोग पालि
में लिखित साहित्य स्वयं नहीं पढ़ते और न ही पाली भाषा पढ़ने की प्रेरणा देते है।
अब वे आपके उपदेशों को सही रूप में समझने में असमर्थ हैं।
आपके नाम से धंधा चलाने वालों ने नया धंधा चलाया है, जिसमें कला, भाषा तथा साहित्य
की आवश्यकता नहीं है। वे लोग अंग्रेजी में लिखे साहित्य उन्हें पढ़ा रहे हैं ताकि
उन्हें मनचाहा परिणाम मिल सके। आप की जीवनी जो अभी जनसामान्य में प्रचलित है,
वह संस्कृत भाषा में लिखी गई और इसी भाषा के महान कवि जयदेव
ने आपको नवम अवतार घोषित करते हुए गीतगोविन्दम् में स्तुति गान किया।
आपने जीवन का लक्ष्य निर्वाण बताया था लेकिन इसी भारत में अब लोग जीवन का
लक्ष्य आरक्षण को मानने लगे हैं। आपने इंद्रजाल करने,
मूर्ति की पूजा करने तथा जीवों की हत्या करने से मना किया
था। विचारधारा में निरंतर विचलन होते रहने के कारण भैरव और भैरवी की पूजा,
पंच मकार की उपासना से लेकर तमाम तरह के तांत्रिक कर्म बौद्ध
धर्म में शुरू हो गये। सबसे बड़ी मूर्तियां आप की ही बनाई गई। यहां तक की पहाड़ को
ही काट छांट कर मूर्ति का रूप दे दिया गया।
आपने ब्राह्मणों को ब्राह्मण ही कहा। चाहते तो पालि के शब्द का प्रयोग कर सकते
थे। आपने कहीं भी ब्राह्मणों का विरोध नहीं किया, क्योंकि आपके उपदेशों को आगे
बढ़ाने में ब्राह्मणों का अहम योगदान रहा है। अब भारत में प्रजातंत्र लागू है।
प्रजातंत्र तभी तक प्रासंगिक रह पाता है जब तक की परस्पर लोगों को बांटा न जाए,
क्योंकि उन्हें वोट बैंक बनाना होता है। लिच्छवी गणराज्य की
प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को भूल जाइए।
आप जानते होंगें कि संस्कृत भाषा का व्याकरण ने पालि भाषा को अपने आंचल में
स्थान देकर पोषित किया। पालि संस्कृत की छाया बनकर सहा पीछे- पीछे चलती है। तभी हम
आपके विचार को सही तरह से समझ पा रहे हैं। संस्कृत के शास्त्रों तथा विद्याओं ने
आपको हमेशा रक्षित किया। पालि में आपके वचनों के अतिरिक्त और है ही क्या?
आप की विचारधारा को यदि किसी ने वास्तविक रूप से समूल नष्ट करने का काम किया
तो वह था- छठी सदी का हूण शासक मिहिरकुल। इसने कश्मीर से लेकर गान्धार तक बौद्ध
मठों की भयंकर तोड़फोड़ की। प्रख्यात चीनी बौद्ध यात्री ह्वेन सांग के अनुसार
मिहिरकुल ने 1600 मठों को ध्वस्त कर दिया था।
बारहवीं-तेरहवीं सदी में तुर्की का शासक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार
खिलजी ने कुशीनगर की विश्व प्रसिद्ध सात मीटर लंबी सुनहरी मूर्ति को तीन टुकड़ों
में तोड़कर फेंक दिया था। गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त प्रथम द्वारा 450-470 ई. के बीच स्थापित नालंदा विश्वविद्यालय को इसने जला दिया।
कहते हैं कि मरते हुए एक भिक्षु ने जब कहा था कि ये किताबें अनमोल ख़ज़ाना है,
इन्हें मत मिटाओ तो अनपढ़ सैनिकों ने कहा कि जब पढने वाले ही
नहीं बचेंगे तो किताबें किस काम की? बस सब किताबें जला दी गयीं।
उदान्तपुरी (बिहार शरीफ) के प्रख्यात बौद्ध मठ को ध्वस्त कर दिया,
जिसमें सैकड़ों बौद्ध भिक्षु मारे गये तथा हजारों बौद्ध
ग्रंथ खून से लथ-पथ होकर बचे-खुचे बहुमूल्य बौद्ध ग्रंथों को अपने रक्त रंजित
चीवरों में छिपाकर बर्मा, नेपाल तथा तिब्बत ले गये।
मुहम्मद गौरी ने सारनाथ पर हमला करके इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सूची लम्बी है।
अब आप के अनुयायी उन्हीं से गलबहियां कर रहे हैं जिसने आप के सिद्धांतों को
जला डाला और अनुयायियों को मार डाला था। आप जान चुके होंगे कि बौद्ध भिक्षुओं को
तलवार के दम पर भारत के बाहर किसने भगाया था ।
जब अफगानिस्तान में आप की मूर्ति तोड़ी जा रही थी तब भारत में आप अपने जन्म
दिन वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को मुस्कुरा उठे थे। देखिए न कुछ लोग सनातन परंपरा से
बौद्ध परंपरा को कैसे अलग कर रहे हैं। वे जिस वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को पर्व मनाते
हैं,
वह कालगणना सनातन परम्परा का है। आपके नाम पर स्थापित
प्रतीक,
आपकी मुद्राएं, जन्म जन्मांतर की कहानियां, इन्द्रादि देवता
सब कुछ समान ही तो है। खैर मैं यहां आप से लंबा संवाद नहीं
कर सकता। बस इतना ही कहूंगा कि आपके जाने के बाद आपको मानने वालों में निरंतर
वैचारिक परिवर्तन देखा गया है। वे सनातन परम्परा में दोष ढ़ढ़ूने और काल्पनिक
बातों का बदला लेने के लिए आपने सिद्धान्तों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह शुभ लक्षण नहीं है।