नित्यमानन्दमयं शान्तं निर्विकल्पं निराकारम् ।
शिवतत्त्वमनाद्यन्तं
ये विदुस्ते परं गताः ।।
यतो वाचो
निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
तदेवं परमं
प्रोक्तं ब्रह्मैव शिवसंज्ञकम् ।।
जिस
पर शिव कृपा करते हैं, वही शिव तत्व को जान पाता है।
सूचना- यह लेख व्याख्यान के रूप में वैश्विक संस्कृत मंच पर दिया गया था, जिसे लेख के रूप में यहाँ उपस्थित किया जा रहा है।
वैदिक
सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि के पहले कुछ भी नहीं था। तब निराकार चिदात्मक ब्रह्म विद्यमान
था। इसी को शैव शास्त्रों में शिव नाम से कहा गया है। जब यही निर्गुण निराकार शिव
एकोहं बहुस्याम का संकल्प लेते हैं तब उनकी इच्छा शक्ति स्वरूपिणी महामाया प्रकृति
प्रकट हुई। ऐसी स्थिति में निर्गुण शिव सगुण ब्रह्म का स्वरूप ले लेता है। इन्हें
साम्बसदाशिव या सकलशिव कहा जाता है।
शक्तिः
साक्षान्महादेवी महादेवस्य शक्तिमान् ।
यतो
विभूतिलेशो वै सर्वमेतच्चराचरम् ।।
शिव
सभी के मूलाधार और निमित्त कारण हैं। महाशक्ति प्रकृति उपादान कारण है। उपादान
कारण वह कारण है, जो कार्य के शरीर का निर्माण करता है।
कारण
को भी तीन भागों में विभाजित किया है। निमित्त कारण, उपादान कारण तथा साधारण कारण। उदाहरणार्थ घड़ा बनने के लिए कुम्हार,
मिट्टी तथा दण्ड तीन कारणों का होना आवश्यक है। इस निर्माण में
कुम्हार निमित्त कारण है, मिट्टी उपादान कारण है और दण्ड
चक्र आदि साधारण कारण हैं ।
सृष्टि के सम्बन्ध में निमित्त कारण वह है जो स्वयं अदृश्य अपरिवर्तित रहकर विधि प्रकार के दृश्य घटकों का निर्माण करता है। उपादान कारण वह है जिससे निर्माता किसी पदार्थ का निर्माण करता है तथा साधारण कारण वह है जो बनाने का माध्यम बनता है। इस कारण सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है। उपादान कारण प्रकृति है । इस प्रकार सृष्टि निर्माण का समस्त तत्व चिन्तन समाहित हो गया है।
इस
व्याख्यान में हम सगुण साकार शिव तत्व की चर्चा करेंगे-
महाभारत तथा बृहदारण्यक में वेदों को अर्थ को जानने का माध्यम इतिहास तथा पुराण को बताया गया है।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत् कहा है। अतः यहाँ पुराणों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है। पुराण उसे कहा जाता है, जिसमें पंचमहाभूत, इन्द्रिय की उत्पत्ति, ब्रह्मा से लेकर सम्पूर्ण चराचर जगत की उत्पत्ति, सूर्य वंश, चन्द्रवंश, मन्वन्तर, अवतार वर्णन, वंश के प्रसिद्ध पुरुष का वर्णन किया गया हो।
सर्गश्च प्रति सर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् ।। अमरकोष
पुराणों की संख्या 18 है।
देवी भागवत के अनुसार -
मद्वयं
भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् ।
अनापलिंगकूस्कानि
पुराणानि प्रचक्षते ॥
म-2,
भ-2, ब्र-3, व-4 ।
अ-1,ना-1, प-1, लिं-1, ग-1, कू-1, स्क-1 ॥
विष्णु पुराण में - ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु) भागवत, नारद मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, वैवर्त, लिङ्ग, वराह, स्कन्द वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्माण्ड पुराण के नामों का उल्लेख है । किसी मत में वायु पुराण के स्थान पर शिव पुराण तथा भागवत पुराण के स्थान पर देवीभागवत पुराण की गणना की जाती है।
देवीभागवत में शिव पुराण के स्थान पर वायु पुराण का नाम है। भागवत दो है - देवी भागवत तथा श्रीमद्भागवत । नारद पुराण मे विषय सूची सहित नाम है । प्रत्येक पुराण में अठारहों पुराणों के नाम और उनकी श्लोक संख्या दी गयी है। प्रायः सभी पुराणों के नाम और श्लोक संख्या का मिलान हो जाता है, कहीं कहीं भेद है। जैसे कूर्म पुराण में अग्नि के स्थान में वायुपुराण; मार्कंडेय पुराण में लिंगपुराण के स्थान में नृसिंहपुराण; देवीभागवत में शिव पुराण के स्थान में नारद पुराण और मत्स्य में वायुपुराण है।
पुराणों के विषय में यहाँ जानकारी देना अतएव आवश्यक है, क्योंकि शिवतत्व की सर्वाधिक सामग्री शिव पुराण में मिलते हैं, जिसको पुराण मानने पर मतभेद है।
सगुण
शिव के अनेक नाम मिलते हैं। यथा- पंचानन, शूलपाणी, चन्द्रमौली, गङ्गाधर आदि। ये नामों
में से कुछ नाम इनके स्वरूप को तो कुछ कथानक के आधार पर रखे गये हैं। वस्तुतः ये
नाम शिव की विशेषता को बताते हैं। आगे हम इनके कथानक, स्वभाव, आराधना पद्धति,
प्रतीक, धाम, पूजन पद्धति, शिव पर आधारित व्रत, पर्व आदि पर चर्चा करेंगें, जिसका
वर्णन विभिन्न पुराणों तथा शैवागम के ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं।
शिव
तत्व की जानकारी का मूल स्रोत वैदिक तथा अवैदिक दोनों प्रकार के ग्रन्थ हैं। वैदिक
पद्धति में कर्म, ज्ञान तथा योग के द्वारा शिव की आराधना की जाती है, जबकि वैदिक
तांत्रिक एवं पौराणिक कर्म में अन्तर्भूत है।
शिव
निर्मल तथा शान्त स्वभाव के हैं। इनकी उपासना सभी जाति, धर्म तथा वर्ण के लोग करते
हैं। इन्हें धनिकों के द्वारा पूजा किया जाना जितना आसान है, उतना ही निर्धन
व्यक्ति द्वारा भी।
वायु,
कूर्म , शिव, स्कन्द, लिङ्ग, अग्नि, पुराणों में शिव को ब्रह्म माना गया है।
शैवागम में शिव के विविध रूप मिलते हैं। वेद में इनके 9 स्वरूप, उपनिषद् में 10
स्वरूप तथा पुराणों में 11 स्वरूपों का प्रतिपादन किया गया है।
ऋग्वेद
में इन्हें रूद्र कहा गया है। मा नो महान्तमुत मानो मंत्र से हमें ज्ञात होता है
कि इनका एक स्वरूप संहारक भी है। इस मंत्र में ऋषि गण अपने पुत्रों, मां, पिता तथा
अन्य प्रेमी जनों का संहार नहीं करने की स्तुति कर रहे हैं। मा न स्तोके तनये ।
कियता चैव
कालेन द्वितीयेच्छाभवत् किल ।
अमूर्तेन स्वमूर्तिश्च तेनाकल्पि स्वलीलया ।। शिवपु. 2.1.6.15
शैवमत
के प्रतिपादक पुराणों में शिव, कूर्म, वायु, स्कन्द, मार्कण्डेय, लिङ्ग आदि में शिव के अनेक स्वरूप दिखते
हैं। उनमें ब्रह्म स्वरूप, दिव्य शब्दमय रूप,
गृहस्थ स्वरूप, दुष्ट विनाशक रूप, ज्ञानमय
स्वरूप, पशुपति रूप, युद्ध करने वाला स्वरूप,
पाप विनाशक स्वरूप, शरणागत पालक रूप कहे गये हैं । पुराणों में
पुराणों के नाम भी दिये गये हैं। अष्टादश पुराणों के नाम में मतभिन्नता है। शिव
पुराण को पुराण में गणना नहीं की जाती है। अतः यहाँ शिवपुराण के अत्यल्प उद्धरण
दिये जायेंगें।
शिव
पुराण के अनुसार से निर्विकल्पक शिव ब्रह्म के नाम से कहा गया। इसी शिव के अस्फुट
अवस्था में शक्ति है।
अप्रमेयमनाधारमविकारमनाकृतिः
।
निर्गुणं
योगिगम्यं च सर्वव्याप्येककारकम् ॥ (शिव.
२.१.६,
११-१२)
अर्वाचीनाः
पराचीना ईश्वरं तं जगुर्बुधाः।।
जब वह ब्रह्म सृष्टि करना चाहता है तब वह सगुण तथा निर्गुण भेद में स्थित होकर शक्ति से युक्त हो जाता है।
प्रधानं
प्रकृतिं तां च मायां गुणवतीं पराम् ।
बुद्धितत्त्वस्य
जननीमाहुविकृतिबर्जिताम् ॥
सा
शक्तिरम्बिका प्रोक्ता प्रकृतिः सकलेश्वरी ।
त्रिदेवजननी
नित्या मूलकारणमित्युत ।। (शि.पु.रु.सं.,
१.६.१०.२१)
शक्तियुक्त परमेश्वर शिव 'सकल शिव' साम्ब सदाशिव कहे जाते हैं। सृष्टि काल में वह चिद् रूप परमेश्वर चिद्रूपा
महाशक्ति को स्वयं से अलग करते हैं। मूल प्रकृति वह ईश्वरी महाशक्ति तीनों लोकों
की जननी कही जाती हैं ।
उस महाशक्ति
के साथ पुरुष शिव एकसाथ होकर शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण करते हैं। इस क्षेत्र
को काशिका कहा गया। इस क्षेत्र में रमण करते हुए शिव शक्ति संसार के पालन के लिए
एक पुरुष की कल्पना किये। वह त्रैलोक्य सुन्दर शान्ति पुरुष विष्णु थे। विष्णु के
अंग से जलधारा निकली। उसके तप से थके विष्णु सो गये । अतः उनका नाम नारायण पड़ा ।
ब्रह्मरूपं जलमभूत् स्पर्शनात् पापनाशनम् ।
तदा श्रान्तश्च पुरुषो विष्णुस्तस्मिन् जले स्वयम् ॥
सुष्वाप परमश्रांतो बहुकालं विमोहितः ।
नारायणेति नामाऽपि तस्यासीच्छृतिसम्मतम् ॥ (शि.पु.रु.सं., ६.५२,५३)
ब्रह्मा
केंद्र की उत्पत्ति, कार्य विभाजन,
सगुण शिव तीन रूपों में होते हैं यथा स्वर्ण रूपभेद होने पर भी एक
ही होता है।
स एवाहं महादेवः स एवाहं जनार्दनः ।
उभयोरन्तरं नास्ति घटस्थजलयोरिव ।।
लिङ्ग पुराण के पुरूष सूक्त में पुराण पुरुष शिव का विश्वरूप वर्णित है।
द्यौमूर्द्धा हि विभोस्तस्य खं नाभिः परमेष्ठिनः ।
सोमसूर्याग्नयो नेत्रं दिशः श्रोत्रे महात्मनः ।।
वक्त्राद्वै ब्राह्मणाः जाता ब्रह्मा च भगवान् विभुः ।
इन्द्रविष्णू भुजाभ्यां तु क्षत्रियाश्च महात्मनः ॥
वैश्याश्चोरुप्रदेशात्तु शूद्राः पादात् पिनाकिनः ॥
श्रीमद्
भागवत में शिव को ब्रह्म कहा गया । भागवत में समुद्र मंथन से उत्पन्न विष से
ग्रस्त संसार की रक्षा के लिए विष्णु आदि शिव की स्तुति करते हैं।
महाभारत
में शिव विश्व के कर्तारूप में कहे गये हैं ।
ईश्वरश्चेतनः कर्त्ता पुरुषः कारणं शिवः ।
विष्णुर्ब्रह्मा शशी सूर्यः शक्रो देवाश्च सान्वयाः ॥
सृज्यते ग्रस्यते चैव तयोभूतमिदं जगत् ।
अप्रज्ञातं जगत्सर्वं तदा होको महेश्वरः ॥
पराशर
पुराण में साम्ब सत्य आदि लक्षण से युक्त ब्रह्म को कहे गये ।
सर्वकारणमीशानः साम्बः सत्यादिलक्षणः ।
न विष्णुर्न विरश्चिश्च न रुद्रो नापरः पुमान् ॥
श्रुतयश्च पुराणानि भारतादीनि सत्तमः ।
शिवमेव सदा साम्बं हृदि कृत्वा ब्रुवन्ति हि
स्कन्द
पुराण ब्रह्मोत्तर खण्ड में शिव परमात्मा कहे गये ।
शिवो गुरुः शिवो देव शिवो बन्धुः शरीरिणाम् ।
शिव आत्मा शिवो जीवः शिवादन्यन्न किंचन ॥
शिवमुद्दिश्य यत्किञ्चिद् दत्तं जप्तं हुतं कृतम् ।
तदवन्तफलं प्रोक्तं सर्वागमविनिश्चितम् ।।
शिव पुराण
/ कूर्म पुराण के ईश्वर गीता में विभूति योग का वर्णन मिलता है। शिव पुराण शिव को
समर्पित है। यहाँ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के मुख से शिव के स्वरूप
महिमा आदि का वर्णन प्रदर्शित है। इसके संहिता में शिव के ब्रह्म रूप को स्थापित
किया गया। शब्दमय तनु, परमगृहस्थ रूप के
यहाँ अनेक कथानक आते है, जिससे उनके स्वरूप को जाना जा सकता है । यथा- सती प्रसंग,
युद्ध कर्ता, जलन्धर वध, शंखचूडवध, भूत गण आदि।
शिव के अनेक
स्वरूपों में शिव के महाज्ञानेश्वर रूप की चर्चा की गयी है।
वेदों के
विस्तृत रूप पुराणों में शिव को ज्ञानमय कहा गया है। यही सकल विद्या के अधिष्ठाता
देव हैं। सभी विद्याओं के प्रवर्तक शिव हैं। वायु पुराण में इन्हें विद्यानां पतये
नमः कहकर स्तुति की गयी है।
नमस्तुभ्यं
भगवते सुब्रते।
न्याय
शास्त्रकार गौतम वाक्युद्ध में उन्हें संतुष्ट कर उनसे ज्ञान प्राप्त किया । कणाद,
तण्डि, उपमन्यु, दधीचि,
मार्कण्डेय, दुर्वासा ने भी शिव से ज्ञान
प्राप्त किया। पाणिनि ने शिव से शब्दसूत्र जाल पाकर व्याकरण की रचना की।
महादेव के
अनुचर नन्दीश्वर ने शिव की इच्छा से कामशास्त्र की रचना की । शिव सभी विद्याओं के
जनक हैं। ज्ञानमिच्छेतु शंकरात् ।
शिव एव हि
सर्वज्ञः परिपूर्णश्च निस्पृहः।
पुरा नवं भवति
इति पुराणम्। वेदों के तत्व को पुराणों में नवीन ढ़ंग से कहा गया है।
महाभा
माता
च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः । बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥
स्वयं
पञ्चमुखः पुत्रौ गजाननषडाननौ । दिगम्बरः कथं जीवेदन्नपूर्णा न चेद् गृहे ॥
शिव
श्मशानवासी हैं, श्मशान उनका नित्यस्थान है।
अनित्यताकी शिक्षा देनेके लिये वह जीव-शरीरके अन्त्येष्टि स्थान श्मशान में वास
करते हैं। तारकब्रह्म का नाम लेनेसे ही वे खुश होते हैं, इसीलिये
उनका एक नाम आशुतोष है। त्याग की पूर्णावस्था उनके जीवन में प्रतिफलित है, इसी कारण किसी प्रकारके ऐश्वर्यके उपकरण के द्वारा उनकी पूजा नहीं होती।
भाँग, धतूरा, बिल्वपत्र उनकी पूजा के
उपकरण हैं।
मृत्युञ्जय
नाम की एक सार्थकता यही है कि जिस वस्तु से जगत् की मृत्यु होती है,
उसे भी वह जय कर लेते हैं, तथा उसे भी प्रिय
मानकर ग्रहण करते हैं। भगवत्-शक्ति की महिमाका कीर्तन करनेके लिये उस पञ्चाननके
पाँच मुख हैं। यद्यपि यह उनके योग-शरीरका विकासमात्र है, तथापि
वे सर्वदा ही पञ्चमुख नहीं रहते। योगी का शरीर जब आनन्दमें पूर्ण होकर भगवत्
कीर्त्तन करता है, तब उसके अनेकों सिर हो जाते हैं। यह
अस्वाभाविक नहीं है, साधन-सापेक्ष है।
शिवलोक
को छोड़कर उनका आदि स्थान हिमालय का कैलास है। अनेक पुराण-इतिहासों में यह बात
पायी जाती है। हिमालय भू-भारतमें सर्वोच्च पर्वत है, शिवके समान शुभ्रवर्ण धारण करके वह अचल और अटलभाव से खड़ा है। योगिश्रेष्ठ
शिव जी पार्वती के साथ वहीं आकर जगत्के कल्याण के लिये ध्यानमग्न हुए थे। ये शिव
ही अपने योग और विभूति का प्रकाश कर नाना स्थान में नाना रूप में हमारे सम्मुख
प्रतिभास होते हैं।
पिनाक
क्या है ?
शिवके
धनुषकी संज्ञा 'पिनाक' है
। शिवको 'पिनाकपाणि' कहते हैं, पिनाक को धारण करनेवाला शिव के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जो व्यक्ति जिस
धनुष को अधिज्य करने की शक्ति रखता है, वही उस धनुष का धारण करनेवाला कहा जाता है।
पिनाक के धारण की शक्ति उसी में हो सकती है जो शिवरूप हो गया हो । धनुषके दण्ड में
अनन्त शक्ति रहती है। उस शक्ति को व्यक्त करने के लिये या उससे कार्य लेने के लिये
धनुर्दण्ड के एक सिरे पर बँधी हुई प्रत्यञ्चा को दूसरे सिरे से मिलाना अनिवार्य
है। जिसने धनुष को अघिज्य नहीं किया, वह उसकी शक्तिपर अधिकृत
नहीं हो सकता । शिवने पिनाक को अधिज्य करके उसकी शक्ति को अपने वश में कर लिया है।
यह पिनाक मेरुदण्ड की ही दूसरी संज्ञा है। निरुक्तकार यास्कने लिखा है रम्भः
पिनाकमिति दण्डस्य । ( नि० ३ । २१ ) अर्थात् रम्भ और पिनाक दण्डको कहते हैं।
मेरुपर्वत का दण्ड ही वह विशिष्ट दण्ड है, जिसके लिये रम्भ
और पिनाक-शब्दोंको पुराणकारोंने अपनाया। इस तरह पिनाक या मेरुदण्ड ही शिवका परमधनु
है।
शिव
का वाहन वृष
शिवको
वृषाञ्चन,
वृषभध्वज और वृषकेतु भी कहते हैं। उनकी सबसे बड़ी विजय वृषको अपने
वश में करके उसपर सवारी करना है। प्रायः जगत् के सब पुरुषोंपर वृष सवारी करता है,
पर शिवजी वृषपर सवारी करते हैं। यह वृष काम है। वर्षणशील रेत को ‘वृष' कहा गया है। यह वृष या काम अधोरेत करके
मनुष्योंको अपने आसनसे च्युत कर हो देता है। इसपर पैर रखकर खड़े होना महती धीरता
है। इस लेखमें उन वैदिक और पौराणिक प्रमाणों और उपाख्यानोंके विस्तार के लिये
स्थान नहीं है जिनसे वृष या वृषाके पूर्ण स्वरूपका परिचय मिलता है। सूत्ररूपसे यह
जान लेना पर्याप्त है कि कामकी ही एक संज्ञा 'वृष' है। शिवजी मदनका दहन कर चुके हैं, उन्होंने कामको
परास्त कर लिया है, वे अरूपहार्य योगीश्वर हैं, अतएव वृष उनका वाहन बन गया है। योगी और भोगीमें यही भेद है, एक का वाहन काम है और एक स्वयं काम का वाहन है।
पशुपति
और लिंग-
शब्द
और लिंगान भगवान् शङ्करके अनेक नामोंमेंसे पशुपति और लिंग यह दो समझमें कम आते
हैं। पशुपति शब्दपर शिवपुराणकी बायवीय संहिता के पूर्वखण्डमें यों लिखा है
स
पश्यति शरीरं तच्छरीरं तन्न पश्यति । तो पश्यति परः कश्चित्तावुभौ तं न पश्यतः
॥६०॥
ब्रह्माद्याः
स्थावरान्ताश्च पशवः परिकीर्तिताः । पशूनामेव सर्वेषां प्रोक्तमेतन्निदर्शनम् ॥६१॥
स
एष बध्यते पाशैः सुखदुःखाशनः पशुः ।
लीलासाधनभूतो
य ईश्वरस्येति सूरयः ॥ ६२॥
अज्ञो
जन्तुरनीशोऽयमात्मनस्सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो
गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥६३ ॥
(अध्याय
५ ) 'यह जीव शरीरको देखता है, शरीर जीवको नहीं देखता।
दोनोंको कोई उनसे भी परे देखता है परन्तु ये दोनों उसे नहीं देखते। ब्रह्मा से
लेकर स्थावरतक सभी पशु कहलाते हैं। सब पशुओंके लिये ही यह निदर्शन कहा है। यह
मायापाशोंमें बँधा रहता है और सुख-दुःखरूपी चारा खाता है और भगवान् (मदारी) की
लीलाओंका साधन है, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं।
लिंग
पुराण का कथानक लिङ्ग की उत्पत्ति
एक
बार विष्णु और ब्रह्मामें इस विषयपर कि परमेश्वर कौन है,
विवाद चल पड़ा। दोनों ही अलग-अलग अपनेको ईश्वर सिद्ध कर रहे थे।
ब्रह्मा और विष्णु में परस्पर कलह हो ही रहा था कि एक अति प्रकाशमान ज्योतिर्लिङ्ग
उत्पन्न हुआ। उस लिङ्गके प्रादुर्भावको देखकर दोनोंने उसे अपनी कलह-निवृत्तिका
साधन समझ यह निश्चय किया कि जो कोई इस लिङ्गके अन्तिम भागको स्पर्श करे वही
परमेश्वर है। वह लिङ्ग नीचे और ऊपर दोनों ओर था । ब्रह्माजी तो हंस बनकर लिङ्गका
अग्रभाग ढूँढ़नेको ऊपर उड़े और विष्णुजीने अति विशाल एवं सुदृढ़ वराह बनकर लिङ्गके
नीचेकी ओर प्रवेश किया। इसी भाँति दोनों हजारों वर्षतक चलते रहे, परन्तु लिङ्गका अन्त न पाया । तब दोनों अति व्याकुल हो लौट आये और बार-बार
उस परमेश्वरको प्रणामकर उसकी मायासे मोहित हो विचार करने लगे कि यह क्या है कि
जिसका कहीं अन्त न आदि ! विचार करते-करते एक ओर प्लुतस्वरसे 'ओ३म्, ओ३म्' यह शब्द सुन पड़ा।
शब्दका अनुसन्धान करके लिङ्गकी दक्षिण ओर देखा तो ॐकारस्वरूप स्वयं शिव दीख पड़े।
भगवान् विष्णुने शिवकी स्तुति की। स्तुतिको सुनकर महादेवजी प्रसन्न हो कहने लगे,
'हम तुमसे प्रसन्न हैं, तुम भय छोड़कर हमारा
दर्शन करो। तुम दोनों ही हमारी देहसे उत्पन्न हुए हो। सब सृष्टिके उत्पन्न
करनेवाले ब्रह्मा हमारे दक्षिण अङ्गसे और विष्णु वाम अङ्गसे उत्पन्न हुए हैं। हम
तुमसे प्रसन्न हैं, वर माँगो ।' विष्णु
और ब्रह्माने शिवजीके चरणों में भक्ति माँगी।
अर्द्धनारीश्वर
श्रीशिवपुराण की वायवीय संहिता ( पूर्वभाग ) के १३ और १४ वें अध्याय में कथा आती
है कि जब ब्रह्मा की मानसिक सृष्टि से प्रजा की वृद्धि न हुई तब उन्होंने प्रजा
वृद्धि का ठीक उपाय जानने के लिये तपस्या करना प्रारम्भ किया। तपस्या के कारण
ब्रह्माके मनमें आद्याशक्ति उदित हुई। उक्त शक्तिके आश्रयसे ब्रह्मा
त्र्यम्बकेश्वर शिव के ध्यान करनेमें प्रवृत्त हुए । श्रीशिव ध्यानके प्रभावसे
सन्तुष्ट होकर अर्द्धनारीश्वर अर्थात् आधी स्त्री (शक्ति) और आधे पुरुष (शिव) के
रूपमें ब्रह्माके समक्ष प्रकट हुए । ब्रह्माने शिव और उनकी शक्ति दोनोंकी स्तुति
की। स्तुतिसे प्रसन्न होकर श्रीशियने अपने शरीरसे एक देवीकी उत्पत्ति की जिनकी
संज्ञा परमा शक्ति थी । ब्रह्माने उक्त श्रीदेवीसे कहा कि 'मैंने अबतक मनद्वारा देवतादिकी उत्पत्ति की है किन्तु वे बार बार उत्पन्न
होकर भी वृद्धिंगत नहीं हो रहे हैं। अतएव अब मैं मैथुन-जन्य सृष्टिद्वारा प्रजाकी
वृद्धि करना चाहता हूँ । इसके पूर्व आपसे अक्षय नारी-कुलकी उत्पत्ति न हुई जिसके
कारण मैं स्त्रीको नहीं बना सकता । अतएव आप कृपाकर मेरे पुत्र दक्षके यहाँ
कन्यारूपमें जन्म लीजिये ।' ऊपरकी कथासे तीन परमोत्तम
सिद्धान्त प्रकट होते हैं । एक तो यह कि शिव-लिङ्गरूप में संसारके समस्त चराचर
प्राणियोंके साँचे हैं और जो साँचेकी भाँति संकल्प रूपमें लिङ्गके अन्दर नहीं है
उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि परात्पर शिवकी प्राति उनकी
शक्तिसे सम्बन्ध होनेपर ही होती है, जैसे ब्रह्माको हुई।
तीसरी यह कि संसारकी मानवी प्रजाका कारण अर्द्धनारीश्वर होनेसे सभी पुरुष शिवरूप
और सब त्रियाँ शक्तिरूपिणी हैं, जैसा कि शिवपुराणमें लिखा
है- शङ्करः पुरुषाः सर्वे स्त्रियः सर्वा महेश्वरी ।
वामन
पुराण में हरिहरात्मक रूप
एक
बार समस्त देवताओंके गुरु भगवान् श्रीशङ्कर वर्षपर्यन्त स्तब्धभावसे रहे । उनके
इसप्रकार रहनेसे सहस्र • सारा विश्व
डावाँडोल हो गया और सम्पूर्ण देवता भयभीत हो गये । तब सारे देवता मिलकर भगवान्
विष्णुके पास गये और प्रणाम कर उनसे जगत्के विक्षोभका कारण पूछने लगे। भगवान्ने
कहा- 'चलो, श्रीमहादेवजीके यहाँ चलें।
हे महाज्ञानी हैं, जगत्के क्षोभका कारण अवश्य जानते होंगे।'
यह कहकर वे देवताओंको साथ लेकर मन्दराचल पर्वतपर गये । किन्तु
देवताओंने वहाँ किसीको नहीं देखा। तब वे भगवान् से पूछने लगे कि 'शङ्कर कहाँ हैं, हम तो उन्हें कहीं नहीं देखते।'
भगवान्ने कहा- 'शङ्कर आपलोगोंके सामने ही तो
बैठे हैं। आपलोगोंने स्वार्थवश देवी पार्वतीके गर्भको नष्ट किया है, इसी कारण, मालूम होता है, महादेव
जीने आपके ज्ञानको नष्ट कर दिया है। अब आपलोग पापमुक्ति के लिये तप्तकृच्छू नामक
व्रत करें और विधिपूर्वक शङ्करका पूजन करें, तब आप शङ्करका
दर्शन पा सकेंगे ।' देवताओंने भगवान्के आदेशानुसार
शरीरशुद्धि के लिये 'ततकृच्छ्र'व्रत
किया और व्रतकी समाप्तिपर पापमुक्त होकर उन्होंने भगवान्से कहा कि 'अब हमें कृपया शङ्करका दर्शन कराइये जिससे हम उनका विधिवत् पूजन कर सकें ।'
तब भगवान् मुरारिने उन्हें अपने हृदय-कमलपर शयन करनेवाले शिवलिङ्गका
दर्शन कराया और देवताओंने उस लिङ्गका विधिवत् अर्चन किया। यहाँ यह प्रश्न हो सकता
है कि सत्त्व और तमोगुणसे आवृत हरि-हर किसप्रकार एकशरीर हो गये। बात यह है कि
देवताओंको चिन्तित देखकर सर्व व्यापी भगवान् विश्वमूर्ति हो गये । त्रिनेत्र शिवकी
अर्द्ध मूर्तिका डेढ़ नेत्र और द्विनेत्र विष्णुकी अर्द्धमूर्तिका एक नेत्र - इस
प्रकार उस हरि-हर मूर्तिके ढाई नेत्र थे; कानोंमें कनक और
सर्पके कुण्डल विराजमान थे; मस्तकपर घुँघुराले काले बाल और
कपिशवर्णकी जटाएँ सुशोभित थीं; गरुड़ और वृषभका वाहन था;
हार और भुजङ्गसे अङ्ग विभूषित था; कटिप्रदेशमें
पीतवसन और गजचर्म बँधा था; कर-कमलोंमें चक्र, कृपाण, हल, शार्ङ्ग, पिनाक और आजगव नामके धनुष, कपर्द, खट्याङ्ग, कपाल, घण्टा और शङ्ख
धारण किये हुए थे। इसप्रकारकी हरिहरात्मक युगल मूर्तिको देखकर देवतालोग परम
प्रसन्न हुए और गद्गद् होकर स्तुति करने लगे ।
जगद्धर
भट्टकी स्तुति-कुसुमाञ्जलि
सर्वज्ञशम्भुशिवशङ्करविश्वनाथ
मृत्युञ्जयेश्वरमृडप्रभृतीनि देव !
नामानि
तेऽन्य विषये फलवन्ति किन्तु त्वं स्थाणुरेव भगवन् ! मयि मन्दभाग्ये ॥११॥८३ ॥
सर्वज्ञ,
शिव, शङ्कर, मृत्युञ्जय,
मृड आदि आपके आठ-दस नाम बड़े ही सुन्दर हैं। वे सभी शुभसूचक हैं।
किसीका अर्थ है कल्याणकर्त्ता, किसीका सुखदाता, किसीका विश्वनाथ, किसीका सर्वज्ञ और किसीका मृत्यु
विजयी । पर ये सब नाम हैं किसके लिये ? औरोंके लिये; मेरे लिये नहीं। जो सौभाग्यशाली हैं उन्हींको आप, अपने
इन नामोंके अनुसार, फल देते हैं—किसीको
सुख देते हैं, किसीका कल्याण करते हैं, किसीकी मृत्यु टाल देते हैं । रहा मैं, सो मुझ
अभागीके विषय में आपका एक और ही नाम सार्थक है। वह नाम है, स्थाणु
(ढूँठ) ! पत्र, पुष्प, फल और
शाखाओंतकसे रहित सूखे वृक्षसे भी भला कभी किसीको कुछ मिला है ? उससे तो छायातककी आशा नहीं। अतएव, आप जब मेरे लिये
एकमात्र स्थाणु हो रहे हैं तब मैं आपसे क्या आशा रक्यूँ ? यह
सब मेरे ही दुर्भाग्यका विजृम्भण है। महाराज ! बहुत हो चुका । अब तो मुझपर कुछ
कृपा की जाय । मुझे इससे अधिक अच्छी प्रार्थना करना नहीं आता।