मार्कण्डेय पुराण में योग, योग सिद्धि तथा योगिचर्या वर्णन, ॐकार तथा अलर्क निर्वेद वर्णन


अथ षट्त्रिंशो
ऽध्यायः

योगनिरूपणम्

            दत्तात्रेय उवाच

ज्ञानपूर्वो वियोगो योऽज्ञानेन सह योगिनः ।

सा मुक्तिर्ब्रह्मणा चैक्यमनैक्यं प्राकृतैर्गुणैः ॥ 1॥

दत्तात्रेय ने कहाज्ञानलाभ होने के उपरान्त योगियों का जब अज्ञान से वियोग हो जाता है, उसको मुक्ति कहते हैं और प्रकृति के गुणों से अनैक्य (पृथकता) हो जाना ही साक्षात् ब्रह्म के साथ मुक्ति (एकता) होती है । 

 

मुक्तिर्योगात्तथा योगः सम्यग्ज्ञानान्महीपते ।

ज्ञानं दुःखोद्भवं दुःखं ममतासक्तचेतसाम् ॥ 2॥

हे महीपते! ममतासक्त चित्त से दुःख उत्पन्न होता है और दुःख से ज्ञान का उदय होता है । सम्यक् ज्ञान से योग की प्राप्ति होती है और योग से मुक्ति प्राप्त होती है ॥

तस्मात्सङ्गं प्रयत्नेन मुमुक्षुः सन्त्यजेन्नरः ।

सङ्गाभावे ममेत्यस्याः ख्यातेर्हानिः प्रजायते ॥ 3॥

 अतः मुमुक्षु व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक विषयासक्ति का परित्याग करे । विषयासक्ति के अभाव से 'मेरा' यह ज्ञान नष्ट हो जाता है। 

निर्ममत्वं सुखायैव वैराग्याद्दोषदर्शनम् ।

ज्ञानादेव च वैराग्यं ज्ञानं वैराग्यपूर्वकम् ॥ 4॥

निर्ममत्व ही सुख का कारण है। हृदय में वैराग्य का सञ्चार होने से संसार के समस्त दोष सूझने लगते हैं। ज्ञान से ही वैराग्य होता है। वैराग्य से भी ज्ञान का उदय होता है ।  

तद्गृहं यत्र वसतिस्तद्भोज्यं येन जीवति ।

यन्मुक्तये तदेवोक्तं ज्ञानमज्ञानमन्यथा ॥ 5॥

जिस स्थान में निवास किया जाय, वहीं घर है, जिसके द्वारा देह का पोषण होता है, वही भोज्य है; जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है, वही ज्ञान है और इससे जो विपरीत है, वही अज्ञान कहा जाता है। 

उपभोगेन पुण्यानामपुण्यानाञ्च पार्थिव ।

कर्त्तव्यानाञ्च नित्यानामकामकरणात्तथा ॥ 6॥

असञ्चयादपूर्वस्य क्षयात्पूर्वार्ज्जितस्य च ।

कर्मणो बन्धमाप्नोति शरीरं च पुनः पुनः ॥ 7॥

 हे पार्थिव ! पुण्यापुण्य का उपभोग कर लेने पर कर्म करते हुए पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय और नवीन कर्मों का असञ्चय होने से ही बार-बार शरीर बन्धन को प्राप्त करता है । 

एतत्ते कथितं राजन्योगं चेमं निबोध मे ।

यं प्राप्य ब्रह्मणो योगी शाश्वतान्नान्यतां व्रजेत् ॥ 8॥

हे राजन्! यह सब जो मैंने तुमसे कहाइसी को योग कहते हैं। जिस योग के द्वारा योगी शाश्वत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य और किसी का अनुभव नहीं करते । 

प्रागेवात्मात्मना जेयो योगिनां स हि दुर्जयः ।

कुर्वीत तज्जये यत्नं तस्योपायं श‍ृणुष्व मे ॥ 9॥

सबसे पहले आत्मा के द्वारा आत्मा को जीत लेना चाहिये, क्योंकि आत्मा ही योगियों के लिये दुर्जय है। अतः इसके जीतने में यत्न करना चाहिए। आत्मा को किस प्रकार जीतना चाहिये, वह मुझसे सुनो।

प्राणायामैर्दहेद्दोषान्धारणाभिः च किल्विषम् ।

प्रत्याहारेण विषयान्ध्यानेनानीश्वराङ्गुणान् ॥ 10॥

 प्राणायाम के द्वारा समस्त दोषों कोधारणा के द्वारा पाप को,  प्रत्याहार द्वारा विषयसमूह को  और ध्यान के द्वारा अनीश्वर गुणों को (दग्ध कर देना चाहिये) ।। 

यथा पर्वतधातूनां दोषाः दह्यन्ति धाम्यताम् ।

तथेन्द्रियकृता दोषाः दह्यन्ते प्राणनिग्रहात् ॥ 11॥

जिस प्रकार पर्वतों में उत्पन्न होने वाले धातु अग्नि-संस्कार करने से निर्दोष (शुद्ध) हो जाते हैं, उसी प्रकार प्राण वायु को वश में करने से समस्त इन्द्रियकृत दोष नष्ट हो जाते हैं। 

प्रथमं साधनं कुर्यात्प्राणायामस्य योगवित् ।

प्राणापाननिरोधस्तु प्राणायाम उदाहृतः ॥ 12॥

 योग को जाननेवाला व्यक्ति प्रथम प्राणायाम की साधना करे। प्राण और अपान-इन दो वायुओं के निरोध को प्राणायाम कहते हैं ।। 

लघुमध्योत्तरीयाख्यः प्राणायामस्त्रिधोदितः ।

तस्य प्रमाणं वक्ष्यामि तदलर्कं श‍ृणुष्व मे ॥ 13॥

लघु, मध्यम और उत्तरीय नाम वाला प्राणायाम तीन प्रकार का होता है । हे अलर्क ! इन तीनों प्रकार के प्राणायामों का प्रमाण बताता हूँ, श्रवण करो।

लघुः द्वादशमात्रस्तु द्विगुणः स तु मध्यमः ।

त्रिगुणाभिस्तु मात्राभिः उत्तमः परिकीर्तितः ॥ 14॥

लघु प्राणायाम बारह मात्रा का होता है मध्यम प्राणायाम उससे दुगनी अर्थात् 24 मात्रा और उत्तम अथवा उत्तरीय प्राणायाम तिगुनी मात्रा अर्थात् 36 मात्रा का कहा जाता है।। 

निमेषोन्मेषणो मात्रा कालो लघ्वक्षरस्तथा ।

प्राणायामस्य संख्यार्थं स्मृतो द्वादशमात्रिकः ॥ 15॥

 आँख की पलक गिराने और उठाने में जो समय लगता है, वही एक मात्रा का काल है और यह लघु अक्षर है। प्राणायाम की गणना हेतु बारह मात्राओं का काल का निर्धारित है। 

प्रथमेन जयेत्स्वेदम्मध्यमेन च वेपथुम् ।

विषादं हि तृतीयेन जयेद्दोषाननुक्रमात् ॥ 16॥

 पहले प्राणायाम के द्वारा स्वेद (पसीना) कोदूसरे प्राणायाम के द्वारा कम्प (कँपकँपी) को और तीसरे प्राणायाम के द्वारा विषाद (खिन्नता) आदि दोषों को क्रमश जीत लें।।

मृदुत्वं सेव्यमानस्तु सिंहशार्दूलकुञ्जराः ।

यथा यान्ति तथा प्राणो वश्यो भवति योगिनः ॥ 17॥

सिंह, बाघ और हाथी जिस प्रकार सेवा के द्वारा मृदु हो जाते हैं, उसी प्रकार योगिजन का प्राण प्राणायाम के द्वारा को वश में आ जाता हैं। 

वश्यं मत्तं यथेच्छातो नागं नयति हस्तिपः ।

तथैव योगी स्वच्छन्दः प्राणं नयति साधितम् ॥ 18॥

महावत (पीलवान ) जिस प्रकार मस्त हाथी को वश में लाकर अपनी इच्छा के अनुसार चलाता हैउसी प्रकार योगिगण प्राण को वशीभूत कर स्वेच्छानुसार अनायास उससे कार्य करा लेने में समर्थ होते है । 

यथा हि साधितः सिंहो मृगान् हन्ति न मानवान् ।

तद्वन्निषिद्धपवनः किल्विषं न नृणां तनुम् ॥ 19॥

जिस प्रकार सिखाया हुआ सिंह मृगादि को मारता है, किन्तु मनुष्य को नहीं मारता, उसी प्रकार प्राणवायु पापपुञ्ज का नाश करता है, शरीर की कोई हानि नहीं होती। इसी कारण योगी पुरुष निरन्तर प्राणायाम परायण हुआ करते हैं। प्राणायाम की चार अवस्थाएँ हुआ करती हैं, जिनसे मुक्ति प्राप्त होती है। उन्हीं अवस्थाओं का अब मैं वर्णन करता हूँ, तुम सुनो।। 

तस्माद्युक्तः सदा योगी प्राणायामपरो भवेत् ।

श्रूयतां मुक्तिफलदं तस्यावस्थाचतुष्टयम् ॥ 20॥

इसी कारण योगी पुरुष निरन्तर प्राणायाम परायण हुआ करते हैं। मुक्ति फल को देने वाले प्राणायाम की चार अवस्थाएँ होती हैं। उन अवस्थाओं को तुम सुनो।।  

ध्वस्तिः प्राप्तिः तथा संवित्प्रसादश्च महीपते ।

स्वरुपं श‍ृणु चैतेषां कथ्यमानमनुक्रमात् ॥ 21॥

हे महीपते ! ध्वस्ति, प्राप्ति, संवित् और प्रसाद ये प्राणायाम की चार अवस्थाएं हैं। अब मैं इनका यथाक्रम स्वरूप वर्णन करता हूँ, उसे सुनो।

कर्मणामिष्टदुष्टानां जायते फलसंक्षयः ।

चेतसोपकषायत्वं यत्र सा धवस्तिरच्यते ॥ 22॥

जिस अवस्था में इच्छित और दुष्ट दोनों प्रकार के कर्मफल का क्षय हो जाता है, चित्त की मलिनता का नाश हो जाता है, उसको ध्वस्ति कहते हैं ।

ऐहिकामुष्मिकान् कामान् लोभमोहात्मकान् स्वयम् ।

निरुध्यास्ते यदा योगी प्राप्तिः सा सार्वकालिकी ॥ 23॥

जिस अवस्था में लोभ-मोहात्मक ऐहिक और आमुष्मिक समस्त इच्छाओं को योगी स्वयं निरुद्ध करते हैं, उसे सार्वकालिकी प्राप्ति कहते हैं। 

अतीतानागतानर्थान्विप्रकृष्टतिरोहितान् ।

विजानातीन्दुसूर्यर्क्षग्रहाणां ज्ञानसम्पदा ॥ 24॥

तुल्यप्रभावस्तु सदा योगी प्राप्नोति सम्पदम् ।

तदा संविदिति ख्याता प्राणायामस्य संस्थितिः ॥ 25॥

योगी जिस अवस्था में ज्ञान-सम्पत्ति के द्वारा अतीतअनागततिरोहित तथा दूरस्थ विषयों को अच्छी तरह जान लेते है, चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रादि की तरह क्षमता प्राप्त कर लेते हैं तब वह संवित् नामक प्राणायम की स्थिति है ।।  

यान्ति प्रसादं येनास्य मनः पञ्च च वायवः ।

इन्द्रियानीन्द्रियार्थाश्च स प्रसाद् इति स्मृतः ॥ 26॥

जिस अवस्था में योगी का मन, पञ्चवायु, इन्द्रिय और इन्द्रियों के विषयों की शुद्धि हो जाती है, उसको प्रसाद कहते हैं। 

श‍ृणुष्व च महीपाल प्राणायामस्य लक्षणम् ।

युञ्जतश्च सदा योगं यादृग्विहितमानसम् ॥ 27॥

हे महीपते ! अब प्राणायाम के लक्षण और योगारम्भ करते समय जिस प्रकार के आसन बाँधने पड़ते हैंउनके लक्षण सुनो।  

पद्मर्द्धासनं चापि तथा स्वस्तिकमासनम् ।

आस्थाय योगं युञ्जीत कृत्वा च प्रणवं हृदि ॥ 28॥

पद्मासनअर्द्धासन और स्वस्तिकासन में स्थित होकर तथा हृदय में प्रणवमन्त्र का धारण करते हुए योग में प्रवृत्त होना चाहिये। 

समः समासनो भूत्वा संहृत्य चरणावूभौ ।

संवृतास्यः तथैवोरू सम्यग्विष्टभ्य चाग्रतः ॥ 29॥

पार्ष्णिभ्यां लिङ्गवृषणावस्पृशन्प्रयतः स्थितः ।

किञ्चिदुन्नामितशिरा दन्तैः दन्तान्न संस्पृशेत् ॥ 30॥

साधक सरल भाव से समासन में (अर्थात् जो आसन ऊँचा-नीचा उबड़-खाबड़ न होऐसा आसन) होकर दोनों पाँव और जंघाएँ एकत्र कर आगे की ओर फैला ले, मुँह बन्द करऐसा बैठेजिससे हाथ से जननेन्द्रिय और अण्डकोष छुआ न जा सके। इस आसन में सिर कुछ उन्नत रहे और दाँतों से दाँत का स्पर्श नहीं हो। 

सम्पश्यन्नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।

रजसा तमसौ वृत्तिं सत्त्वेन रजसस्तथा ।

सञ्छाद्य निर्मले तत्त्वे स्थितो युञ्जीत योगवित् ॥ 31॥

दृष्टि नासिकाग्र में स्थिर रहे, वह इधर-उधर विचलित न हो। योगाभ्यासी व्यक्ति उस समय रजोगुण के द्वारा तमोगुणी वृत्ति का और सत्वगुण के द्वारा राजसिक वृत्ति का निरास कर मात्र निर्मल तत्त्व में अवस्थान करता हुआ योगसाधन करे । 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्राणादीन्मन एव च ।

निगृह्य समवायेन प्रत्याहारमुपक्रमेत् ॥ 32॥

 समवाय क्रम से इन्द्रियों और उनके विषयों को तथा मन और प्राणादि वायुओं को वशीभूत करकेकछुआ जिस प्रकार अपने सब अङ्गों को बटोर लेता है उसी प्रकार प्रत्याहार की साधना करनी चाहिये । 

यस्तु प्रत्याहरेत्कामान्सर्वाङ्गानीव कच्छपः ।

सदात्मरतिरेकस्थः पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ 33॥

 इस प्रकार कामसमूह को प्रत्याहरण कर केवल आत्मा में ही लौ लगा देने से आत्मा के द्वारा आत्मा का दर्शन होता है । 

स बाह्याभ्यन्तरं शौचं निपाद्याकण्ठनाभितः ।

पूरयित्वा बुधो देहं प्रत्याहारमुपक्रमेत् ॥ 34॥

योगाभ्यासी को कण्ठ से लेकर नाभिपर्यन्त बाह्य और आभ्यन्तरिक देह की शुद्धि करके प्रत्याहार की साधना करनी चाहिये । 

तथा वै योगयुक्तस्य योगिनो नियतात्मनः ।

सर्वे दोषाः प्रणश्यन्ति स्वस्थश्चैवोपजायते ॥ 35॥

नियतात्मा योग से युक्त योगी के समस्त दोष मिट जाते हैं। मन और शरीर निरोगी भी होता है। 

वीक्षते च परं ब्रह्म प्राकृतांश्च गुणान्पृथक् ।

व्योमादिपरमाणुञ्च तथात्मानमकल्मषम् ॥ 36॥

वह योगी परब्रह्म को देखता है और प्राकृत आदि गुणों को (ब्रह्म से) पृथक् देखता हैं।  आकाशादि के परमाणुओं तथा विशुद्ध आत्मा का भी साक्षात्कार करता है। 

इत्थं योगी यताहारः प्राणायामपरायणः ।

जितां जितां शनैर्भूमिमारोहेत यथा गृहम् ॥ 37॥

इस प्रकार योगी नियताहार कर और प्राणायाम में संलग्न होकर धीरे-धीरे योगभूमि को जय कर ले और अपने घर की तरह उस भूमि पर आरूढ़ हो जाय।  

दोषान्व्याधींस्तथा मोहमाक्रान्ता भूरनिर्जिता ।

विवर्धयति नारोहेत्तस्माद्भूमिमनिर्जिताम् ॥ 38॥

यदि योगभूमि को जय न किया जायतो कामादि दोषव्याधियाँ और मोह की वृद्धि होती है । अतः योगभूमि को बिना जय किये उस पर आरूढ़ नहीं होना चाहिये। 

प्राणानामुपसंरोधात्प्राणायाम इति स्मृतः ।

धारणेत्युच्यते चेयं धार्य्यते यन्मनो यया ॥ 39॥

 जिसके द्वारा पञ्च प्राण संयत होते हैंउसी को प्राणायाम कहते हैं ॥  जिसके द्वारा मन को धारण किया जायवह धारणा कहलाती है ।  

शब्दादिभ्यः प्रवृत्तानि यदक्षाणि यतात्मभिः ।

प्रत्याह्रियन्ते योगेन प्रत्याहारस्ततः स्मृतः ॥ 40॥

नियतात्मा व्यक्ति जिस अवस्था में इन्द्रियों को उनके शब्दादि विषयों में प्रत्याहरण करते हैं, वही प्रत्याहार है। 

उपायश्चात्र कथितो योगिभिः परमर्षिभिः ।

येन व्याध्यादयो दोषा न जायन्ते हि योगिनः ॥ 41॥

 योगसिद्ध परम ऋषिगण इस विषय में जिन उपायों का निरूपण कर गये हैंउनके अवलम्बन से योगी के शरीर में व्याधि आदि प्रवेश करने में असमर्थ हो जाती हैं। 

यथा तोयार्थिनस्तोयं यन्त्रनालादिभिः शनैः ।

आपिबेयुस्तथा वायुं पिबेद्योगी जितश्रमः ॥ 42॥

 जिस प्रकार प्यासा धीरे-धीरे जल पीता हैउसी प्रकार जितश्रम योगी धीरे-धीरे वायु का पान करे।

प्राङ्नाभ्यां हृदये चा तृतीये च तथोरसि ।

कण्ठे मुखे नासिकाग्रे नेत्रभ्रुमध्यमूर्द्धसु ॥ 43॥

पहले नाभि में, फिर हृदय में, फिर वक्षःस्थल में, फिर कण्ठ में, फिर मुख में, फिर नासाग्र में, फिर आँखों में, फिर भ्रूमध्य में, फिर तालू में 

किञ्च तस्मात्परस्मिंश्च धारणा परमा स्मृता ।

दशैता धारणाः प्राप्य प्राप्नोत्यक्षरसाम्यताम् ॥ 44॥

और अन्त में परमब्रह्म में धारणा करनी चाहिये। इस दस प्रकार की प्रकार धारणा को प्राप्त कर ब्रह्मसारूप्य को प्राप्त हो जाता है।।

तस्य नो जायते मृत्युर्न जरान च वै क्लमः ।

न श्रान्तिरवसादोत्थ तुरीये सततं स्थितिः ॥ 45॥

उसकी मृत्यु नहीं होती है, बुढ़ापा नहीं आती, थकावट नहीं होती । वह सदा तुरीय अवस्था में स्थित रहता है। 

इयं वै योगभूमिः स्यात् सप्तैव परिकीर्त्तितः ।

यत्र स्थिते ब्रह्मस्थितिं लभते नात्र संशयः ॥ 46॥

 यह योग की स्थिति सात प्रकार की कही गयी है। यहाँ स्थित हो जाने पर ब्रह्म की स्थिति को प्राप्त

हो जाता है। इसमें संशय नहीं है।

नाध्मातः क्षुधितः श्रान्तो न च व्याकुलचेतनः ।

युञ्जीत योगं राजेन्द्र! योगी सिद्ध्यर्थमादृतः ॥ 47॥

हे राजेन्द्र ! योगी को सिद्धिलाभ के लिये हाँपना, भूख, थकावट और वित्तचाञ्चल्य इनका परित्याग कर समत्त्व बुद्धि से योगाभ्यास करना चाहिये। 

नातिशीते न चोण्षे वै न द्वन्द्वे नानिलात्मके ।

कालेस्वेतेषु युञ्जीत न योगं ध्यानतत्परः ॥ 48॥

अत्यन्त शीत मेंअत्यन्त उष्णता में, आग में, अथवा आँधी में ध्यान तत्पर होकर योगाभ्यास को  नहीं करना चाहिये। 

सशब्दाग्निजलाभ्यासे जीर्णगोष्ठे चतुष्पथे ।

शुष्कपर्णचये नद्यां श्मशाने ससरीसृपे ॥ 49॥

सभये कूपतीरे वा चैत्यवल्मीकसंचये ।

देशेष्वेतेषु तत्त्वज्ञो योगाभ्यासं विवर्जयेत् ॥ 50॥

कोलाहल युक्त स्थान में, अग्नि, जल के निकट, जीर्ण गोष्ठ (जहाँ गायें बाँधी जाती हैं) में, चौराहे पर, सुखी पत्ती जहाँ बिछी हो, ऐसे में स्थान में, नदी के तट पर, श्मशान में, जहाँ साँप-बिच्छू हों, भययुक्त स्थान में, कुआँ के किनारे, मंदिर में, दीमक वाले स्थान में तत्त्ववेत्ता योगी को योगाभ्यास नहीं करना चाहिये।

सत्त्वस्यानुपपत्तौ च देशकालं विवर्जयेत् ।

नासतो दर्शनं योगे तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ 51॥

जहाँ और जिस समय सत्त्वगुण का पोषण न होउस देश-काल को छोड़ देना चाहिये । जहाँ सात्विकता नहींवहाँ योगाभ्यास करने से कदापि आत्मसाक्षात्कार नहीं होता। इस कारण असात्विक देश-काल का परित्याग करना ही उचित है।। 

(दृढव्रता चित्तशुद्धिश्च जायते नात्र संशयः ।

स्थानकालप्रभावेण निश्चयं विद्धि भूमिप ।

तन्मयस्य कुतश्चिन्ता देशकालमयी तथा ॥ 52॥)

(कोष्ठक भाग प्रक्षिप्त अंश है)

दोषानेताननादृत्य मूढत्वाद्यो युनक्ति वै ।

विघ्नाय तस्य वै दोषा जायन्ते तन्निबोध मे ॥ 53॥

इन दोषों का अनादर करते हुए मूर्खता के कारण उक्त प्रकार के स्थानों पर जो योगाभ्यास में प्रवृत्त होते हैं, उनमें कौन-कौन से दोष उत्पन्न होकर वे उनके कार्य में विघ्न डालते हैं, वह मैं कहता हूँ, सुनो। 

बाधिर्यं जडता लोपः स्मृतेर्मूकत्त्वमान्धता ।

ज्वरश्च जायते सद्यस्तत्तदज्ञानयोगिनः ॥ 54॥

ऐसे अज्ञानी योगी को बधिरता, जड़ता, मूकत्व (गूंगापन), स्मृतिलोप, अन्धता और ज्वर तत्काल हो जाता है। 

प्रमादाद्योगिनो दोषा यद्येते स्युश्चिकित्सितम् ।

तेषां नाशाय कर्त्तव्यं योगिनां तन्निबोध मे ॥ 55॥

प्रमादवश साधक में यदि में ये दोष आ जायँजो उनके निवारणार्थ योगियों को कौन से उपाय करने चाहियेइसका विवरण मुझे कहें। 

स्निग्धां यवागूमत्युष्णां भुक्त्वा तत्रैव धारयेत् ।

वातगुल्मप्रशान्त्यर्थमुदावर्त्ते तथोदरे ॥ 56॥

अच्छी तरह जौ (यवागू) को रोग का छाँटकर और उन्हें स्निग्ध कर खाने से बहुत गरम उदर तथा गुल्म के स्थान में बाँधने से वात और गुल्म नाश होता है। 

यवागूं वापि पवनं वायुग्रन्थिं प्रतिक्षिपेत् ।

तद्वत् कल्पे महाशैलं स्थिरं मनसि धारयेत् ॥ 57॥

इस तरह यवागू को वायुग्रन्थि पर बाँधना अथवा हवा करना लाभदायक है। मन के चञ्चल होने पर प्रलयकालीन महाशैल की भावना करनी चाहिये ।  

विघाते वचनो वाचं वाधिर्य्यं श्रवणेन्द्रियम् ।

यथैवाम्रफलं ध्यायेत्तृष्णार्त्तो रसनेन्द्रिये ॥ 58॥

वाणी बोलने में व्यवधान आने और कान में बधिरता आने पर जिस प्रकार प्यासा व्यक्ति रसनेन्द्रिय के लिये आम्रफल के लाभ की इच्छा करता है, उस प्रकार श्रवणेन्द्रिय तथा वाणी की धारणा (अभिलाषा) करनी चाहिये। 

यस्मिन् यस्मिन् रुजा देहे तस्मिंस्तदुपकारिणीम् ।

धारयेद्धारणामुष्णे शीतां शीते च दाहिनीम् ॥ 59॥

इस प्रकार देह में जो जो व्याधि हों, उनका नाश करने के लिये देह के लिये उपकार का भावना करनी चाहिये। उष्णता में शीतलता की भावना और शीत में उष्णता की भावना करनी चाहिए।

कीलं शिरसि संस्थाप्य काष्ठं काष्ठेन ताडयेत् ।

लुप्तस्मृतेः स्मृतिः सद्यो योगिनस्तेन जायते ॥ 60॥

सिरहाने की ओर एक कील गाड़ कर उस पर एक काष्ठ रखकर दूसरे काष्ठ से उस काष्ठ को ठोकने से जिसकी स्मृति लुप्त हो गयी हो, ऐसे योगाभ्यासी में यथाशीघ्र स्मृति का पुनरुदय हो जाता है ।

द्यावापृथिव्यौ वाय्वग्नी व्यापिनावपि धारयेत् ।

अमानुषात्सत्वजाद्वा बाधास्वितिचिकित्सिताः ॥ 61॥

स्मृतिशक्ति का लोप होने पर आकाशपृथ्वीवायु और अग्नि की भावना करनी चाहिये। अमानुषसत्व के कारण उत्पन्न हुए विघ्नों की चिकित्सा इसी प्रकार कही गयी है। 

अमानुयं सत्त्वमन्तर्योगिनं प्रविशेद्यदि ।

वाय्वग्निधारणेनैनं देहसंस्थं विनिर्द्दहेत ॥ 62॥

योगाभ्यासी के हृदय में अमानुषसत्व का प्रवेश होने पर वायु और अग्नि की भावना धारण करने से वह दग्ध हो जाता है।।

एवं सर्वात्मना रक्षा कार्य्या योगविदा नृप!।

धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधनं यतः ॥ 63॥

हे नृपते ! इस प्रकार योगवेत्ता व्यक्ति को सब भाँति शरीर की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि शरीर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इस चतुर्वर्ग के साधन का मूल है। 

प्रवृत्तिलक्षणाख्यानाद्योगिनो विस्मयात् तथा ।

विज्ञानं विलयं याति तस्माद्गोप्याः प्रवृत्तयः ॥ 64॥

प्रवृत्तिस्वरूप वर्णन और विस्मय इन दो कारणों से योगी का विज्ञान विलय को प्राप्त होता है। अतः प्रवृत्ति समूह को गुप्त रखना चाहिये। 

अलोल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् ।

कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चिह्नम् ॥ 65॥

अचाञ्चल्यनीरोगिताअनिष्ठुरतादेह में सुगन्धिसञ्चारमूत्र और विष्ठा की अल्पताकान्तिप्रसाद और सुस्वर ये सब योगप्रवृत्ति के प्रथम चिह्न हैं। 

अनुरागी जनो याति परोक्षे गुणकीर्त्तनम् ।

न बिभ्यति च सत्त्वानि सिद्धेर्लक्षणमुत्तमम् ॥ 66॥

जिस अवस्थान में लोग अनुरक्त होकर पीछे-पीछे गुणकीर्तन करें और कोई जीव भय न करेवही सिद्धि की उत्तम अवस्था जाननी चाहिये। 

शीतोष्णादिभिरत्युग्रैर्यस्य वाधा न विद्यते ।

न भीतिमेति चान्यभ्यस्तस्य सिद्धिरुपस्थिता ॥ 67॥

अत्युग्र शीत और उष्ण जिसे सता न सकें और किसी से जो न डरेउसी को सिद्धिलाभ हुआ हैऐसा जानना चाहिये।। 

        इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे जडोपाख्याने योगाध्यायो नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः  

      अथ सप्तत्रिंशोऽध्यायः     

 योगसिद्धि- वर्णनम्

दत्तात्रेय उवाच

उपसर्गाः प्रवर्त्तन्ते दृष्टे ह्यात्मनि योगिनः ।

ये तांस्ते सम्प्रवक्ष्यामि समासेन निबोध मे ॥ 1॥

 

काम्याः क्रियास्तथा कामान् मानुषानभिवाज्ञति ।

स्त्रियो दानफलं विद्यां मायां कुप्यं धनं दिवम् ॥ 2॥

 

देवत्वममरेशत्वं रसायनचयः क्रियाः ।

मरुत्प्रपतनं यञ्जं जलाग्न्यावेशनं तथा ।

श्राद्धानां सर्वदानानां फलानि नियमांस्तथा ॥ 3॥

 

तथोपवासात्पूर्त्ताच्च देवताभ्यर्च्चनादपि ।

तेभ्यश्चेभ्यश्च कर्मभ्य उपसृष्टोऽभिवाञ्चति ॥ 4॥

 

चित्तमिथं वर्त्तमानं यत्नादेयागी निवर्त्तयेत् ।

ब्रह्मसङ्गि मनः कुर्व्वन्नुपसर्गात्प्रमुच्यते ॥ 5॥

 

उपसर्गैर्जितैरेभिरूपसर्गास्तुतः पुनः ।

योगिनः सम्प्रवर्त्तन्ते सात्त्वराजसतामसाः ॥ 6॥

 

प्रातिभः श्रावणो दैवो भ्रमावर्त्तौ तथापरौ ।

पञ्चैते योगिनां योगविघ्नाय कटुकोदया ॥ 7॥

 

वेदार्थाः काव्यशास्त्रार्था विद्याशिल्पान्यशेषतः ।

प्रतिभान्ति यदस्त्येति प्रातिभः स तु योगिनः ॥ 8॥

 

शब्दार्थानखिलान् वेत्ति शब्दं गृह्नति चैव यत् ।

योजनानां सहस्रेभ्यः श्रावणः सोऽभिधीयते ॥ 9॥

 

समन्ताद्वीक्षते चाष्टौ स यदा देवतोपमः ।

उपसर्गं तमप्यान्थर्दैवमुन्मत्तवद्बुधाः ॥ 10॥

 

भ्राम्यते यन्निरालम्बं सनो दोषेण योगिनः ।

समस्ताचारविभ्रंशाद्भ्रमः स परिकीर्त्तितः ॥ 11॥

 

आवर्त्त इव तोयस्य ज्ञानावत्तो यदाकुलः ।

नाशयेच्चित्तमावर्त्त उपसर्गः स उच्यते ॥ 12॥

 

एतैर्नाशितयोगास्तु सकला देवयोनयः ।

उपसर्गैर्महाघोरैरावर्त्तन्ते पुनः पुनः ॥ 13॥

 

प्रावृत्य कन्वलं शुल्कं योगी तस्मान्मनोमयम् ।

चिन्तयेत्परमं ब्रह्म कृत्वा तत्प्रवणं मनः ॥ 14॥

 

योगयुक्तः सदा योगी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ।

सूक्ष्मास्तु धारणाः सप्त भूराद्या मूर्द्ध्न धारयेत् ॥ 15॥

 

धरित्रीं धारयेद्योगी तत्सौख्यं प्रतिपद्यते ।

आत्मानं मन्यते चोर्व्विं तद्बन्धञ्च जहाति सः ॥ 16॥

 

तथैवाप्सुरसं सूक्ष्मं तद्वद्रूपञ्च तेजसि ।

स्पर्शं वायौ तथा तद्वद्विभ्रतस्तस्य धारणाम् ।

व्योम्नः सूक्ष्मां प्रवृत्तिञ्च शब्दं तद्वज्जहाति सः ॥ 17॥

 

मनसा सर्वभूतानां मनस्याविशते यदा ।

मानसीं धारणां विभ्रन्मनः सूक्ष्मञ्च जायते ॥ 18॥

 

तद्वद्बुद्धिमशेषाणां सत्त्वानामेत्य योगवित् ।

परित्यजति सम्प्राप्य बुद्धिसौक्ष्म्यमनुतमम् ॥ 19॥

 

परित्यजति सूक्ष्माणि सप्त त्वेतानि योगवित् ।

सम्यग्विज्ञाय योऽलर्क! तस्यावृत्तिर्न विद्यते ॥ 20॥

 

एतासां धारणानन्तु सप्तानां सौक्ष्म्यमात्मवान् ।

दृष्ट्वा ततः सिद्धिं त्यक्त्वा त्यक्त्वा परं व्रजेत् ॥ 21॥

 

यस्मिन् यस्मिंश्च कुरुते भुते रागं महीपते!।

तस्मिंस्तस्मिन् समासक्तिं सम्प्राप्य स विनश्यति ॥ 22॥

 

तस्माद्विदित्वा सूक्ष्माणि संसक्तानि परस्परम् ।

परित्यजति यो देही स परं प्राप्नुयात्पदम् ॥ 23॥

 

एतान्येव तु सन्धाय सप्त सूक्ष्माणि पार्थिव ।

भूतादीनां विरागोऽत्र सद्भावज्ञस्य मुक्तये ॥ 24॥

 

गद्धादिषु समासक्तिं सम्प्राप्य स विनश्यति ।

पुनरावर्त्तते भूप! स ब्रह्मापरमानुषम् ॥ 25॥

 

सप्तैता धारणा योगी समतीत्य यदिच्छति ।

तस्मिंस्तस्मिंल्लयं सूक्ष्मे भूते याति नरेश्वर!॥ 26॥

 

देवानामसुराणां वा गन्धर्व्वोरगरक्षसाम् ।

देहेषु लयमायाति सङ्गं नाप्नोति च क्वचित् ॥ 27॥

 

अणिमा लघिमा चैव महिमा प्राप्तिरेव च ।

प्राकाम्यञ्च तथेशित्वं वशित्वञ्च तथापरम् ॥ 28॥

 

यत्र कामावसायित्वं गुणानेतांस्तथैश्वरान् ।

प्राप्नोत्यष्टौ नरव्याघ्र! परं निर्व्वाणसूचकान् ॥ 29॥

 

सूक्ष्मात् सूक्ष्मतमोऽणीयान् शीघ्रत्वं लघिमा गुणः ।

महिमाऽशेषपूज्यत्वात् प्राप्तिर्नाप्राप्यमस्य यतः ॥ 30॥

 

प्राकाम्यस्य च व्यापित्वादीशित्वञ्चेश्वरो यतः ।

वशित्वाद्वशिमा नाम योगिनः सप्तमो गुणः ॥ 31॥

 

यत्रेच्चास्थानमप्युक्तं यत्र कामावसायिता ।

त्रैश्वर्य्यकारणैरेभिर्योगिनः प्रोक्तमष्टधा ॥ 32॥

 

मुक्तिसंसूचकं भूप! परं निर्वाणमात्मनः ।

ततो न जायते नैव वर्द्धते न विनश्यति ॥ 33॥

 

नापि क्षयमवाप्नोति परिणामं न गच्छति ।

छेदं क्लेदं तथा दाहं शोषं भुयादितो न च ॥ 34॥

 

भुतवर्गादवाप्नोति शब्दाद्यैर्ह्रियते न च ।

न चास्य सन्ति शब्दाद्यास्तद्भोक्ता तैर्न युज्यते ॥ 35॥

 

यथा हि कनकं खन्तमपद्रव्यवदग्निना ।

दग्धदोषं द्वितीयेन खन्तेनैक्यं व्रजेन्नृप!॥ 36॥

 

न विशेषमवाप्नोति तद्वद्योगाग्निना यतिः ।

निर्द्दग्धदोषस्तेनैक्यं प्रयाति ब्रह्मणा सह ॥ 37॥

 

यथाग्निरग्नौ संक्षिप्तः समानत्वमनुव्रजेत् ।

तदाख्यस्तन्मयो भुतो न गृह्येत विशेषतः ॥ 38॥

 

परेण ब्रह्मणा तद्वत् प्राप्यैक्यं दग्धकिल्विषः ।

योगी याति पृथग्भावं न कदाचिन्महीपते!॥ 39॥

 

यथा जलं जलेनैक्यं निक्षिप्तमुपगच्छति ।

तथात्मा साम्यमभ्येति योगिनः परमात्मनि ॥ 40॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे योगसिद्धिर्नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः

 

अथ अष्टत्रिंशोऽध्यायः

              योगिचर्य्या- वर्णनम्

अलर्क उवाच ।

भगवन्! योगिनश्चर्य्यं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।

ब्रह्मवर्त्मन्यनुसरन् यथा योगी न सीदति ॥ 1॥

 

दत्तात्रेय उवाच ।

मानापमानौ यावेतौ प्राप्त्युद्वेगकरौ नृणाम् ।

तावेव विपरीतार्थौ योगिनः सिद्धिकारकौ ॥ 2॥

 

मानापमानौ यावेतौ तावेवान्थर्विषामृते ।

अपमानोऽमृतं तत्र मानस्तु विषमं विषम् ॥ 3॥

 

चक्षुःपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।

सत्यपूतां वदेद्वाणीं बुद्धिपूतञ्च चिन्तयेत् ॥ 4॥

 

आतिथ्यश्राद्धयज्ञेषु देवयात्रोत्सवेषु च ।

महाजनञ्च सिद्ध्यर्थं न गच्छेद्योगवित् क्वचित् ॥ 5॥

 

व्यस्ते विधूमे व्यङ्गारे सर्वस्मिन् भुक्तवज्जने ।

अटेत योगविद्भैक्ष्यं न तु त्रिष्वेव नित्यशः ॥ 6॥

 

यथैवमवमन्यन्ते जनाः परिभवन्ति च ।

तथा युक्तश्चरेद्योगी सतां वर्त्म न दूषयन् ॥ 7॥

 

भैक्ष्यं चरेद्गृहस्थेषु यायावरगृहेषु च ।

श्रेष्ठा तु प्रथमा चेति वृत्तिरस्योपदृश्यते ॥ 8॥

 

अथ नित्यं गृहस्थेषु शालीनेषु चरेद्यतिः ।

श्रद्दधानेषु दान्तेषु श्रोत्रियेषु महात्मसु ॥ 9॥

 

अत ऊर्द्धं पुनश्चापि अदुष्ठापतितेषु च ।

भैक्ष्यचर्य्या विवर्णेषु जघन्या वृत्तिरिष्यते ॥ 10॥

 

भैक्ष्यं यवागूं तक्रं वा पयो यावकमेव वा ।

फलं मूलं प्रियङ्गुं वा कणपिण्याकशक्तवः ॥ 11॥

 

इत्येते च शुभाहारा योगिनः सिद्धिकारकाः ।

तत्प्रयुञ्ज्यान्मुनिर्भक्त्या परमेण समाधिना ॥ 12॥

 

अपः पूर्वं सकृत् प्राश्य तुष्णीन्भूत्वा समाहितः ।

प्राणारेति ततस्तस्य प्रथमा ह्यान्थतिः स्मृता ॥ 13॥

 

अपानाय द्वितीया तु समानायेति चापरा ।

उदानाय चतुर्थी स्यात् व्यानायेति च पञ्चमी ॥ 14॥

 

प्राणायामैः पृथक् कृत्वा शेषं भुञ्जीत कामतः ।

अपः पुनः सकृत् प्राश्य आचम्य हृदयं स्पृशेत् ॥ 15॥

 

अस्तेयं ब्रह्मचर्यञ्च त्यागोऽलोभस्तथैव च ।

व्रतानि पञ्च भिक्षुणामहिंसापरमाणि वै ॥ 16॥

 

अक्रोधो गुरुशुश्रुषा शौचमाहारलाघवम् ।

नित्यस्वाध्याय इत्येते नियमाः पञ्च कीर्त्तिताः ॥ 17॥

 

सारभूतमुपासीत ज्ञानं यत् कार्य्यसाधकम् ।

ज्ञानानां व धा षेयं योगविघ्नकरा हिन्सा ॥ 18॥

 

इदं ज्ञेयमिदं ज्ञेयमिति यस्तृषितश्चरेत् ।

अपि कल्पसहस्रेषु नैव ज्ञेयमवाप्नुयात् ॥ 19॥

 

त्यक्तसङ्गो जितक्रोधो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ।

विधाय बुद्ध्ह्या द्वाराणि मनो ध्याने निवेशयेत् ॥ 20॥

 

शून्येष्वेवावकाशेषु गुहासु च वनेषु च ।

नित्ययुक्तः सदा योगी ध्यानं सम्यगुपक्रमेत् ॥ 21॥

 

वाग्दन्तः कर्मदन्तश्च मनोदन्तश्च ते त्रयः ।

यस्मैते नियता दन्ताः स त्रिदन्ती महायतिः ॥ 22॥

 

सर्वमात्ममयं यस्य सदसज्जगदीदृशम् ।

गुणागुणमयं तस्य कः प्रियः को नृपाप्रियः ॥ 23॥

 

विशुद्धबुद्धिः समलोष्ठ्रकाञ्चनः समस्तभूतेषु च तत्समाहितः ।

स्थानं परं शाश्वतमव्यञ्च परं हि गत्वा न पुनः प्रजायते ॥ 24॥

 

वेदाः श्रेष्ठाः सर्वयज्ञक्रियाश्च यज्ञाज्जप्यं ज्ञानमार्गश्च जप्यात् ।

ज्ञानाद्ध्यानं सङ्गरागव्यपेतं तस्मिन्प्राप्ते शाश्वतस्योपलब्धिः ॥ 25॥

 

समाहितो ब्रह्मपरोऽप्रमादी शुचिस्तथैकान्तरतिर्यतेन्द्रियः ।

समाप्नुयाद्योगमिमं महात्मा विमुक्तिमाप्नोति ततः स्वयोगतः ॥ 26॥

 

           इति मार्कण्डेयपुराणान्तर्गते योगिचर्याकथनं नाम अष्टत्रिंशोऽध्यायः

अथैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

ॐकारवर्णनम्

दत्तात्रेय उवाच

एवं यो वर्तते योगी सम्यग्योगव्यवस्थितः ।

न स व्यावर्तितुं शक्यो जन्मान्तरशतैरपि॥1॥

दृष्ट्वा च परमात्मानं प्रत्यक्षं विश्वरूपिणम् ।

विश्वपादशिरोग्रीवं विश्वेशं विश्वभावनम्॥2॥

तत्प्राप्तये महत्पुण्यमोमित्येकाक्षरं जपेत् ।

तदेवाध्ययनं तस्य स्वरूपं शृण्वतः परम्॥3॥

अकारश्च तथोकारो मकारश्चाक्षरत्रयम् ।

एता एव त्रयो मात्राः सात्त्वराजसतामसाः॥4॥

निर्गुणा योगिगम्यान्या चार्धमात्रोर्ध्वसंस्थिता ।

गान्धारीति च विज्ञेया गान्धारस्वरसंश्रया॥5॥

पिपीलिकागतिस्पर्शा प्रयुक्ता मूर्ध्नि लक्ष्यते ।

यथा प्रयुक्त ओङ्गारः प्रतिनिर्याति मूर्धनि॥6॥

तथोङ्कारमयो योगी त्वक्षरे त्वक्षरो भवेत् ।

प्राणो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म वेध्यमनुत्तमम्॥7॥

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।

ओमित्येतत् त्रयो वेदास्त्रयो लोकास्त्रयोऽग्नयः॥8॥

विष्णुर्-ब्रह्मा-हरश्चैव ऋक्सामानि यजूंषि च ।

मात्राः सार्धाश्च तिस्त्रश्च विज्ञेयाः परमार्थतः॥9॥

तत्र युक्तस्तु यो योगी स तल्लयमवाप्नुयात् ।

अकारस्त्वथ भूर्लोक उकारश्चोच्यते भुवः॥10॥

सव्यञ्जनो मकारश्च स्वर्लोकः परिकल्प्यते ।

व्यक्ता तु प्रथमा मात्रा द्वितीयाव्यक्तसंज्ञिता॥11॥

मात्रा तृतीया चिच्छक्तिरर्धमात्रा परं पदम् ।

अनेनैव क्रमेणैता विज्ञेया योगभूमयः॥12॥

ओमित्युच्चारणात् सर्वं गृहीतं सदसद् भवेत् ।

ह्रस्वा तु प्रथमा मात्रा द्वितीया दैर्घ्यसंयुता॥13॥

तृतीया च प्लुतार्धाख्या वचसः सा न गोचरा ।

इत्येतदक्षरं ब्रह्म परमोङ्कारसंज्ञितम्॥14॥

यस्तु वेद नरः सम्यक् तथा ध्यायति वा पुनः ।

संसारचक्रमुत्सृज्य त्यक्तत्रिविधबन्धनः॥15॥

प्राप्रोति ब्रह्मणि लयं परमे परमात्मनि ।

अक्षीणकर्मबन्धश्च ज्ञात्वा मृत्युमरिष्टतः॥16॥

उत्क्रान्तिकाले संस्मृत्य पुनर्योगित्वमृच्छति ।

तस्मादसिद्धयोगेन सिद्धयोगेन वा पुनः ।

ज्ञेयन्यरिष्टानि सदा येनोत्क्रान्तौ न सीदति॥17॥

 

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे योगधर्मे ओङ्कारवर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

 

चत्वारिंशोऽध्यायः

अलर्कनिर्वेदवर्णनम्

दत्तात्रेय उवाच

अरिष्टानि महाराज ! शृणु वक्ष्यामि तानि ते ।

येषामालोकनान्मृत्युं निजं जानाति योगवित्॥1॥

देवमार्गं ध्रुवं शुक्रं सोमच्छायामरुन्धतीम् ।

यो न पश्येन्न जीवेत् स नरः संवत्सरात् परम्॥2॥

अरश्मिबिम्बं सूर्यस्य वह्निं चैवांशुमालिनम् ।

दृष्ट्वै कादशमासात् तु नरो नोर्धन्तु जीवति॥3॥

वान्ते मूत्रपूरीषे च यः स्वर्णं रजतं तथा ।

प्रत्यक्षं कुरुते स्वप्ने जीवेत् स दशमासिकम्॥4॥

दृष्ट्वा प्रेतपिशाचादीन् गन्धर्वनगराणि च ।

सुवर्णवर्णान् वृक्षांश्च नव मासान् स जीवति॥5॥

स्थूलः कृशः कृशः स्थूलो योऽकस्मादेव जायते ।

प्रकृतेश्च निवर्तेत तस्यायुश्चाष्टमासिकम्॥6॥

खण्डं यस्य पदं पार्ष्णयां पादस्याग्रे च वा भवेत् ।

पांशुकर्दमयोर्मध्ये सप्त मासान् स जीवति॥7॥

गृध्रः कपोतः काकालो वायसो वापि मूर्धनि ।

क्रव्यादो वा खगो नीलः षण्मासायुः प्रदर्शकः॥8॥

हन्यते काकपङ्क्तीभिः पांशुवर्षेण वा नरः ।

स्वां च्छायामन्यथा दृष्ट्वा चतुः पञ्च स जीवति॥9॥

अनभ्रे विद्युतं दृष्ट्वा दक्षिणां दिशमाश्रिताम् ।

रात्राविन्द्रधनुश्चापि जीवितं द्वित्रिमासिकम्॥10॥

घृते तैले तथादर्शे तोये वा नात्मनस्तनुम् ।

यः पश्येदशिरस्कां वा मासादूर्ध्वं न जीवति॥11॥

यस्य वस्तसमो गन्धो गात्रे शवसमोऽपि वा ।

तस्यार्धमासिकं ज्ञेयं योगिनो नृप ! जीवितम्॥12॥

यस्य वै स्त्रमात्रस्य हृत्पादमवशुष्यते ।

पिबतश्च जलं शोषो दशाहं सोऽपि जीवति॥13॥

सम्भिन्नो मारुतो यस्य मर्मस्थानानि कृन्तति ।

हृष्यते नाम्बुसंस्पर्शात् तस्य मृत्युरुपस्थितः॥14॥

ऋक्षवानरयानस्थो गायन् यो दक्षिणां दिशम् ।

स्वप्ने प्रयाति तस्यापि न मृत्युः कालमिच्छति॥15॥

रक्तकृष्णाम्बरधरा गायन्ती हसती च यम् ।

दक्षिणाशान्नयेन्नारी स्वप्ने सोऽपि न जीवति॥16॥

नग्नं क्षपणकं स्वप्ने हसमानं महाबलम् ।

एकं संवीक्ष्य वल्गन्तं विद्यान्मृत्युमुपस्थितम्॥17॥

आमस्तकतलाद्यस्तु निमग्नं पङ्कसागरे ।

स्वप्ने पश्यत्यथात्मानं स सद्यो म्रियते नरः॥18॥

केशाङ्गारांस्तथा भस्म भुजङ्गान्निर्जलां नदीम् ।

दृष्ट्वा स्वप्ने दशाहात्तु मृत्युरेकादशे दिने॥19॥

करालैर्विकटैः कृष्णैः पुरुषैरुद्यतायुधैः ।

पाषाणैस्ताडितः स्वप्ने सद्यो मृत्युं लभेन्नरः॥20॥

सूर्योदये यस्य शिवा क्रोशन्ती याति संमुखम् ।

विपरीतं परीतं वा स सद्यो मृत्युमृच्छति॥21॥

यस्य वै भुक्तमात्रस्य हृदयं बाधते क्षुधा ।

जायते दन्तघर्षश्च स गतायुर्न संशयम्॥22॥

दीपगन्धं न यो वेत्ति त्रस्यत्यह्नि तथा निशि ।

नात्मानं परनेत्रस्थं वीक्षते न स जीवति॥23॥

शक्रायुधं चार्धरात्रे दिवा ग्रहगणन्तथा ।

दृष्ट्वा मन्येत संक्षीणमात्मजीवितमात्मवित्॥24॥

नासिका वक्रतामेति कर्णयोर्नमनोन्नती ।

नेत्रञ्च वामं स्त्रवति यस्य तस्यायुरुद्गतम्॥25॥

आरक्ततामेति मुखं जिह्वा वा श्यामतां यदा ।

तदा प्राज्ञो विजानीयान्मृत्युमासन्नमात्मनः॥26॥

उष्ट्र-रासभयानेन यः स्वप्ने दक्षिणां दिशम् ।

प्रयाति तञ्च जानीयात् सद्योमृत्युं न संशयः॥27॥

पिधाय कर्णौ निर्घोषं न शृणोत्यात्मसम्भवम् ।

नश्यते चक्षुषोर्ज्योतिर्यस्य सोऽपि न जीवति॥28॥

पततो यस्य वै गर्ते स्वप्ने द्वारं पिधीयते ।

न चोत्तिष्ठति यः श्वभ्रात्तदन्तं तस्य जीवितम्॥29॥

ऊर्ध्वा च दृष्टिर्न च संप्रतिष्ठा रक्ता पुनः संपरिवर्तमाना ।

मुखस्य चोष्मा शुषिरञ्च नाभेः शंसन्ति पुंसामपरं शरीरम्॥30॥

स्वप्नेऽग्निं प्रविशेद्यस्तु न च निष्क्रमते पुनः ।

जलप्रवेशादपि वा तदन्तं तस्य जीवितम्॥31॥

यश्चाभिहन्यते दुष्टैर्भूतै रात्रावथो दिवा ।

स मृत्युं सप्तरात्र्यन्ते नरः प्राप्रोत्यसंशयम्॥32॥

स्ववस्त्रममलं शुक्लं रक्तं पश्यत्यथासितम् ।

यः पुमान् मृत्युमासन्नं तस्यापि हि विनिर्दिशेत्॥33॥

स्वभाववैपरीत्यन्तु प्रकृतेश्च विपर्ययः ।

कथयन्ति मनुष्याणां सदासन्नौ यमान्तकौ॥34॥

येषां विनीतः सततं येऽस्य पूज्यतमा मताः ।

तानेव चावजानाति तानेव च विनिन्दति॥35॥

देवान्नार्चयते वृद्धान् गुरून् विप्रांश्च निन्दति ।

मातापित्रोर्न सत्कारं जामातॄणां करोति च॥36॥

योगिनां ज्ञानविदुषामन्येषाञ्च महात्मनाम् ।

प्राप्ते तु काले पुरुषस्तद्विज्ञेयं विचक्षणैः॥37॥

योगिनां सततं यत्नादरिष्टान्यवनीपते ।

संवत्सरान्ते तज्ज्ञेयं फलदानि दिवानिशम्॥38॥

विलोक्या विशदा चैषां फलपङ्क्तिः सुभीषणा ।

विज्ञाय कार्यो मनसि स च कालो नरेश्वर॥39॥

ज्ञात्व कालञ्च तं सम्यगभयस्थानमाश्रितः ।

युञ्जीत योगी कालोऽसौ यथा नास्याफलो भवेत्॥40॥

दृष्ट्वारिष्टं तथा योगी त्यक्त्वा मरणजं भयम् ।

तत्स्वभावं तदालोक्य काले यावत्युपागतम्॥41॥

तस्य भागे तथैवाह्नो योगं युञ्जीत योगवित् ।

पूर्वाह्ने चापराह्ने च मध्याह्ने चापि तद्दिने॥42॥

यत्र वा रजनीभागे तदरिष्टं निरीक्षितम् ।

तत्रैव तावद्युञ्जीत यावत् प्राप्तं हि तद्दिनम्॥43॥

ततस्त्यक्त्वा भयं सर्वं जित्वा तं कालमात्मवान् ।

तत्रैवावसथे स्थित्वा यत्र वा स्थैर्यमात्मनः॥44॥

युञ्जीत योगं निर्जित्य त्रीन् गुणान् परमात्मनि ।

तन्मयश्चात्मना भूत्वा चिद्वृत्तिमपि सन्त्यजेत्॥45॥

ततः परमनिर्वाणमतीन्द्रियमगोचरम् ।

यद्बुद्धेर्यन्न चाख्यातुं शक्यते तत् समश्नुते॥46॥

एतत् सर्वं समाख्यातं तवालर्क ! यथार्थवत् ।

प्राप्स्यसे येन तद्ब्रह्म संक्षेपात्तन्निबोध मे॥47॥

शशाङ्करश्मिसंयोगाच्छन्द्रकान्तमणिः पयः ।

समुत्सृजति नायुक्तः सोपमा योगिनः स्मृता॥48॥

यच्चार्करश्मिसंयोगादर्ककान्तो हुताशनम् ।

आविष्करोति नैकः सन्नुपमा सापि योगिनः॥49॥

पिपीलिकाखु-नकुल-गृहगोधा-कपिञ्जलाः ।

वसन्ति स्वामिवद् गेहे ध्वस्ते यान्ति ततोऽन्यतः॥50॥

दुः खन्तु स्वामिनो ध्वंसे तस्य तेषां न किञ्चन ।

वेश्मनो यत्र राजेन्द्र ! सोपमा योगसिद्धये॥51॥

मृद्वाहिकाल्पदेहापि मुखाग्रेणाप्यणीयसा ।

करोति मृद्भारचयमुपदेशः स योगिनः॥52॥

पशुपक्षिमनुष्याद्यैः पत्रपुष्पफलान्वितम् ।

वृक्षं विलुप्यमानन्तु दृष्ट्वा सिध्यन्ति योगिनः॥53॥

रुरुशावविषाणाग्रमालक्ष्य तिलकाकृतिम् ।

सह तेन विवर्धन्तं योगी सिद्धिमवाप्नुयात्॥54॥

द्रवपूर्णमुपादाय पात्रमारोहतो भुवः ।

तुङ्गमार्गं विलोक्योच्चैर्विज्ञातं किं न योगिना॥55॥

सर्वस्वे जीवनायालं निखाते पुरुषस्य या ।

चेष्टा तां तत्त्वतो ज्ञात्वा योगिनः कृतकृत्यता॥56॥

तद्गृहं यत्र वसतिः तद्भोज्यं येन जीवति ।

येन सम्पद्यते चार्थस्तत्सुखं ममतात्र का॥57॥

अभ्यर्थितोऽपि तैः कार्यं करोति करणैर्यथा ।

तथा बुध्यादिभिर्योगी पारक्यैः साधयेत्परम्॥58॥

इति चत्वारिंशोऽध्याये अलर्कनिर्वेदवर्णनम्

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