शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्दः एवं ज्योतिष ये छः वेदाङ्ग हैं। सर्वाधिक उपयोगिता की दृष्टि से वेदाङ्गों में शिक्षा का प्रथम स्थान है। पाणिनि ने शिक्षा को घ्राण (नासिका) कहा है। "शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य ।" यह वर्णोच्चारण-विज्ञान का प्रतिपादक है। जिस तरह प्राण के बिना जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है उसी तरह शिक्षा के बिना अर्थात् शुद्धोच्चारण- निर्धारण के बिना वेद की सुरक्षा हो नहीं सकती। शिक्षा वह विद्या है, जो स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण का निर्धारण करती है। आचार्य सायण ने स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यया विद्यया शिक्ष्यते उपदिश्यते सा विद्या शिक्षा कथ्यते (ऋग्वेदभाष्य-भूमिका पृ०49)। कहकर शिक्षा की परिभाषा की है। अर्थ-जिस वेदांग में स्वर और वर्ण आदि के उच्चारण की रीति का उपदेश दिया जाता है, वह शिक्षा है ।
तैत्तिरीयोपनिषद् (1.2) में इसे और भी
स्पष्ट किया गया है---"शिक्षां व्याख्यास्यामः--वर्णः, स्वरः, मात्रा, बलम्, साम, सन्तानः- इत्युक्तः
शिक्षाध्यायः ।"
शिक्षा ग्रन्थ में वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम तथा सन्तान इन छः अंगों का विवेचन किया जाता है-
(1.) वर्णः -अ, इ, उ, क्, ख् आदि वर्णों का
उच्चारण ।
(2.) स्वरः- वेदपाठ
में प्रयुक्त उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का उच्चारण ।
(3.) मात्रा- ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत
का उच्चारण ।
(4.) बल---स्थान, प्रयत्न के
अनुसार वर्णों का उच्चारण ।
(5.) साम---दोषरहित और
माधुर्य आदि गुण सहित उच्चारण ।
(6.) सन्तान---संहिता
(सन्धि) के नियमों के अनुसार उच्चारण ।
वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के लिए स्वर-ज्ञान की आवश्यकता होती है। स्वरों के उच्चारण का ज्ञान होने से अर्थ ज्ञान हो पाना संभव होता है। वेद में समान शब्द रहने पर भी स्वर के उच्चारण में भेद हो जाने पर अर्थभेद हो जाता है। यज्ञ में वैदिक मन्त्रों के विहित स्वरयुक्त उच्चारण से ही अभीष्ट फल मिल सकता है। पाणिनीय शिक्षा के अनुसार जो मन्त्र यथानिर्धारित स्वर अथवा वर्ण से हीन रहता है वह मिथ्याप्रयुक्त अर्थात् अनुपयुक्त होने के कारण अभीष्ट फलदायक नहीं होता है। वह वाग्वज्र बनकर यजमान विनाश कर देता है-
मन्त्रो हीनः
स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।। पाणिनीयशिक्षा-52
शिक्षाशास्त्र का प्रमुख उद्देश्य है- वर्णों के उच्चारण की शिक्षा। प्रातिशाख्यों का विवेचन इसी वर्णों के उच्चारण पर आधारित है। शिक्षाग्रन्थों में कुछ सिद्धान्त सामान्य वर्णोच्चारण विषयक हैं तथा कुछ सिद्धान्त विभिन्न वेदों तथा विभिन्न वैदिक शाखाओं से सम्बद्ध हैं। अधिकतर शिक्षाग्रन्थ वेद विशेष से सम्बद्ध हैं। शिक्षाग्रन्थों की संख्या 50 से अधिक मानी जाती है।
शिक्षा, निरुक्त एवं
व्याकरण ये तीनों भाषाविज्ञान के प्रमुख उपादान हैं जिनमें शिक्षा का सम्बन्ध
ध्वनिविज्ञान से, व्याकरण का संबंध प्रधानतः पदविज्ञान से तथा
निरुक्त का सम्बन्ध अर्थविज्ञान से है। भाषाविज्ञानगत ध्वनिवैज्ञानिक तत्त्वों का
मौलिक अनुशीलन शिक्षाग्रन्थों में ही पाया जाता है। शिक्षाशास्त्र के अनुशीलन से
ही भारतीय आर्यभाषाओं की ध्वनियों का सम्यक् ज्ञान संभव है। व्याकरण एवं निरुक्त
शब्दशास्त्र हैं जबकि शिक्षा वर्णशास्त्र है। भाषा वाक्यों से, वाक्य शब्दों से
तथा शब्द वर्णों से बनते हैं। इस तरह भाषा का आधारस्तम्भ वर्णविज्ञान अर्थात्
शिक्षाशास्त्र ही हैं।
1. वर्ण :
अकार (अ) आदि अक्षरों को वर्ण कहते हैं (वर्णोऽकारादिः) । वेदज्ञान के लिए सर्वप्रथम वर्णों (अक्षरों) का ज्ञान आवश्यक है। पाणिनि शिक्षा में वर्णों की संख्या 63 या 64 कहा गया है, जिनमें 21 स्वर, 25 स्पर्शसंज्ञक वर्ण, 8 यादि (य, र, ल, व, श, ष, स, ह) 4 यम, अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा दुःस्पृष्ट ये 63 वर्ण हैं। यदि इनमें प्लुत लृकार को सम्मिलित करने पर संख्या- 64 होती है।दुःस्पृष्ट का विस्तृत विवेचन आगे किया जाएगा।
अकार, इकार, उकार तथा ऋकार के ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत रूप 4X3=12 तथा हस्व लृकार, कुल 13 स्वर हैं। एकार, ओकार, ऐकार तथा औकार के दीर्घ एवं प्लुत 4X2=8 । इस तरह पाणिनीय शिक्षा में स्वरों की कुलसंख्या 31 बताई गई है। कवर्ग से पवर्ग तक पाँच वर्गों के पांच- पाँच स्पर्श वर्ण 5X5=25 है। यकारादि अर्थात् अन्तःस्थ 4 तथा उष्मवर्ण 4 कुल 8 होते हैं। प्रत्येक व्यञ्जन वर्ग के प्रथम व्यञ्जनों में से किसी एक के आगे यदि व्यञ्जन वर्ग का पंचम व्यञ्जन आ जाता है तो पूर्ववत्तों एवं परवर्ती व्यञ्जनों के मध्य में पूर्ववर्ती व्यञ्जन के सदृश एक अतिरिक्त अनुनासिक व्यञ्जन उच्चरित होने लगता है। उसी मध्यगत अनुनासिक व्यञ्जन को यम कहा जाता है। व्यञ्जन वर्ग पाँच हैं और प्रत्येक व्यञ्जनवर्ग के प्रथम चार व्यञ्जनों के सम्पर्क से यम ध्वनियों की उत्पत्ति होती है। इस तरह यमवर्णों की संख्या 5X4= 20 है। किन्तु पाणिनीय शिक्षा में ध्वनिवर्गीकरण में सभी व्यञ्जनवर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ व्यञ्जनों को एक मानकर यम ध्वनियों की संख्या चार बतलाई गई है।
2. स्वर :
यहाँ पर स्वरों से तात्पर्य उदात्त, अनुदात्त और स्वरित से है (उदात्तादिः स्वरः)।
उदात्तश्चानुदात्तश्च
स्वरितश्च स्वरास्त्रयः।
ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति
कालतो नियमा अचि ।।11।।
उदात्त, अनुदात्त और
स्वरित (समाहार स्वर) ये तीन स्वर हैं । हृस्व दीर्घ और प्लुत ये अच् (स्वर वर्ण) उच्चारण
काल के नियम हैं।
वेदमन्त्रों के उच्चारण में इन उदात्तादि स्वरों का विशेष महत्व है क्योंकि वेदों
में स्वरभेद से अर्थभेद भी हो जाता है। जैसा कि पाणिनीय शिक्षा में बतलाया गया है
कि जो मन्त्र स्वर और वर्ण से हीन होता है अथवा मिथ्या प्रयुक्त होता है वह
प्रयोजन की सिद्धि नहीं करता है। वस्तुतः वाग्वज्र होकर यजमान का नाश कर डालता है।
जिस प्रकार स्वरदोष के कारण इन्द्रशत्रु वृत्रासुर मारा गया। यहां पर 'इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व' इस मन्त्र में 'इन्द्रशत्रु में
तत्पुरुषप्रयुक्त अन्तोदात्त होना चाहिए था किन्तु ऋत्विजों ने उक्त पद में
बहुव्रीहिप्रयुक्त आदि उदात्त अशुद्ध उच्चारण कर दिया जिससे इन्द्र के द्वारा
वृत्तासुर मारा गया।
3. मात्रा :
स्वरों के उच्चारण में
लगनेवाले समय को मात्रा कहते हैं। मात्राएँ तीन होती हैं- ह्रस्व, दीर्घ और
प्लुत। एक मात्रा के उच्चारण में लगनेवाला समय ह्स्व, दो मात्रा को
दीर्घ और तीन मात्रा को प्लुत कहते हैं। (मात्रा हस्वः द्वे दीर्घः तिस्रः प्लुत
उच्यते स्वरः)। नारदीयशिक्षा में बताया गया है कि पलक गिरने में जितना समय लगता है, उतने समय को
एक-मात्रा कहते है (निमेषा काला मात्रा स्यात्) । इस प्रकार ह्स्व की एकमात्रा, दीर्घ की दो मात्राएँ
तथा प्लुत की तीन मात्राएँ होती हैं।
एकमात्रो भवेत् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो
व्यंजनं चार्द्धमात्रकम्।। पाणिनिशिक्षा।
अर्थात् जिसके उच्चारण में एक मात्रा का समय
लगता है, उसे ह्रस्व कहते
हैं। जिसके उच्चारण में दो मात्रा का समय लगता है, उसे दीर्घ कहते
हैं। जिसके उच्चारण में तीन मात्रा का समय लगता है, उसे प्लुत कहते हैं तथा व्यंजन वर्ण के उच्चारण
में आधे मात्रा का समय लगता है।
मात्रा के समय को पाणिनि शिक्षा में स्पष्ट करते हुए कहा गया है-
चाषस्तु वदते मात्रां
द्विमात्रं चैव वायसः।
शिखी रौति त्रिमात्रं तु नकुलस्त्वर्धमात्रकम् ।।49।।
चाष (नीलकण्ठ) एक मात्रा
बोलता है। वायस (कौआ) दो मात्रा बोलता है। मयूर तीन मात्रा में (रौति) बोलता है और नेवला
आधा मात्रा में बोलता है ।49।
4. बल :
वर्णोच्चारण के स्थान और
प्रयत्न को बल कहते है। वर्णों के उच्चारण के समय वायु जिन स्थानों से टकराता हुआ
बाहर निकलता है, उसे स्थान कहते हैं। स्थान 8 होते हैं- कण्ठ, उरस्, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ, नासिका तथा
जिह्वामूल। वर्णों के उच्चारण में किए गए प्रयास को 'प्रयत्न' कहते हैं।
प्रयत्न दो प्रकार का होता है- आभ्यन्तर और बाह्य। वर्णों के उच्चारण के लिए मुख
के भीतर जो प्रयत्न किया जाता है, उसे आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर
प्रयत्न 4 प्रकार का होता है- स्पृष्ट, इषत्स्पृष्ट, विवृत तथा संवृत।
वर्णोच्चारण में मुख के बाहर जो प्रयत्न होता है, उसे बाह्यप्रयत्न
कहते हैं। बाह्यप्रयत्न को अनुप्रदान भी कहते हैं। बाह्यप्रयत्न 11 प्रकार का होता
है- विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त और
स्वरित ।
5. साम :
वर्णों के दोषरहित एवं शुद्ध माधुर्यादि गुणों से समन्वित उच्चारण को 'साम' कहते हैं। शिक्षाग्रन्थों में वर्णोच्चारण के गुण एवं दोषों का वैज्ञानिक विवेचन मिलता है। पाणिनीय शिक्षा में पाठक के छह गुण बतलाए गए हैं। वे हैं-
माधुर्यमक्षरव्यक्तिः
पदच्छेदस्तु सुस्वरः।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते
पाठका गुणाः॥
मधुरता, अक्षरव्यक्ति (वर्णों का स्पष्ट उच्चारण) पदच्छेद (पदों का अलग-अलग विभाजन), सुस्वर (स्वरों का एक समान उच्चारण), धैर्य (धीरतापूर्वक पढ़ना) और लयसमर्थ (सुन्दर लय से पढ़ना)।
इसके अतिरिक्त पाणिनीयशिक्षा में छह प्रकार के अधम पाठकों को भी निर्देश है, यथा-
गीती शीघ्री शिरःकम्पी
तथा लिखितपाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च
षडेते पाठकाधमाः ।।
गीती (गा-गाकर पढ़नेवाला), शीघ्री (जल्दी-जल्दी पढ़नेवाला), लिखितपाठक (स्वलिखित पुस्तक से पढ़नेवाला), अनर्थज्ञ (बिना अर्थ समझे पढ़नेवाला) और अल्पकण्ठ (अनभ्यस्त पाठ करनेवाला)। इनके अतिरिक्त पाठकों के कुछ और दोष बतलाए गए हैं। जैसे शङ्कित, भीत, (भययुक्त), उत्कृष्ट, अस्पष्ट, सानुनासिक, काकस्वर, (कठोर, परुष), शिरासिंग (शिर से उच्चारण करना), स्थानरहित उपांशु (मुख के भीतर ही बुदबुदाना), दंग्न (दाँतों को पीस कर उच्चारण करना), त्वरित (शीघ्रता), निरस्त (निधुर), विलम्बित (विलम्ब से उच्चारण करना), गद्द्वदित (स्वर विशेष से उच्चारित), प्रगीत, निष्पीड़ित, ग्रस्त पदाक्षर (अक्षरों को छोड़कर पढ़ना), और दीन (उत्साह-हीन होकर पढ़ना)- ये पाङ्ग त्याज्य बतलाए गए हैं।
6. सन्तानः
सन्तान का अर्थ है- 'संहिता'। पदों की अतिशय
सन्निधि को संहिता कहते हैं। प्रत्येक वेद के वर्णों का उच्चारण एक-सा न होकर
भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसका विस्तृत विवेचन शिक्षाग्रन्थों में प्राप्त
होता है। यही कारण है कि प्रत्येक वेद के अलग- अलग शिक्षाग्रन्थ हैं। इसी प्रकार
प्रत्येक वेद के मन्त्रपाठ में संहिता या सन्धिविच्छेद आवश्यक बतलाया गया है।
यास्क ने संहिता का अर्थ पदप्रकृति किया है (पदप्रकृतिः संहिता)। प्रातिशाख्यों
में कालव्यवधान किए बिना पदों के मेल (सन्निधान) को संहिता कहा गया है।
संहितापाठ में पदों का ज्ञान आवश्यक होता है तथा सन्धि-नियमों के द्वारा ही
संहिता-पाठ होता है। अतः सन्धिनियमों का ज्ञान संहिता पाठ में
आवश्यक है।
विभिन्न वेदों तथा वैदिक
शाखाओं के आधार पर शिक्षा-ग्रन्थों का वर्गीकरण-
विभिन्न वेदों के अनुसार
उच्चारण सम्बन्धी नियमों का निर्धारण जिस शास्त्र द्वारा किया जाता है, से शिक्षा
कहते हैं। प्रत्येक वेद की संहिता के आधार पर विभिन्न शिक्षाग्रन्थों की रचना हुई।
वे शिक्षाग्रन्थ निम्नलिखित हैं-
(क) ऋग्वेद से सम्बद्ध
पाँच शिक्षाग्रन्थ हैं, यथा-
(1) स्वराङ्कुशशिक्षा
(2) षोडशश्लोकी शिक्षा
(3) तैत्तिरीयशिक्षा
(4) स्वरव्यञ्जनशिक्षा
(5) शौनकीयशिक्षा।
वेदांगों में
शिक्षा वेदांग का स्थान महत्त्वपूर्ण है ।
(1.) प्रातिशाख्य, (2.) शिक्षा-ग्रन्थ
(1.) प्रातिशाख्य-ग्रन्थ :----
====================
ये सबसे प्राचीन ग्रन्थ
हैं । वेद की प्रत्येक संहिता का, शाखा का अपना प्रातिशाख्य-ग्रन्थ हैं ।
"प्रतिशाखा" से सम्बन्धित होने के कारण ही इन्हें प्रातिशाख्य कहा जाता
है । प्रत्येक शाखा में वेदमन्त्रों के उच्चारण के प्रकार भिन्न-भिन्न है ।
प्रातिशाख्य-ग्रन्थों के
विषय---
(1.) वर्ण समाम्नाय---स्वर और व्यञ्जन आदि वर्णों की गणना करना
और उनके उच्चारण के नियमों को स्पष्ट करना ।
(2.) सन्धि--दो वर्णों के मिलने पर होने वाले परिवर्तनों का
विवेचन ।
(3.) प्रगृह्य सञ्ज्ञा---पदों के विभाग के नियमों को स्पष्ट करना
तथा अपवाद नियमों को बतलाना ।
(4.) उदात्त-अनुदात्त शब्दों की गणना, स्वरित के भेद
बतलाना और आख्यात स्वर को स्पष्ट करना ।
(5.) संहितापाठ और पदपाठ में भेद दिखलाने वाले नियमों की
व्याख्या और सत्व, षत्व और दीर्घ का
विवरण ।
(6.) विभिन्न प्रातिशाख्य में विभिन्न पाठ ।
(7.) साम-प्रातिशाख्य में विभिन्न रीतियों का वर्णन, जैसे--प्रश्लेष, विश्लेष, कृष्ट, अकृष्ट संकृष्ट
आदि उच्चारण में होने वाले भेदों का वर्णन ।
उपलब्ध
प्रातिशाख्य-ग्रन्थः-
(क) ऋग्वेद---(1.) ऋक्प्रातिशाख्य,
(ख) शुक्लयजुर्वेदः--(2.) वाजसनेयिप्रातिशाख्य,
(ग) कृष्णयजुर्वेदः--(3.) तैत्तिरीय-प्रातिशाख्य,
(घ) सामवेद---(4.) पुष्पसूत्र प्रातिशाख्य, (5.) ऋक्तन्त्र प्रातिशाख्य,
(ङ) अथर्ववेद---(6.) अथर्ववेद-प्रातिशाख्य सूत्र, (7.) अथर्व प्रातिशाख्य, (8.) चतुरध्यायिका ।
संहितापाठ और पदपाठ के
द्वारा वैदिक संहिताओं के स्वरूप को सुरक्षित रखा गया है ।
प्रातिशाख्य की
विषय-सामग्री---(1.) मन्त्रों का
उच्चारण, (2.) मन्त्रों में
स्वर-विधान, (3.) सन्धि, (4.) आवश्यकतानुसार
छन्द के कारण ह्रस्व के स्थान में दीर्घ का विधान, (5.) संहितापाठ को पदपाठ में बदलने के नियम ।
प्रातिशाख्य व्याकरण के
आदि ग्रन्थ माने जाते हैं । यद्यपि प्रातिशाख्य स्वयं व्याकरण-ग्रन्थ नहीं है, तथापि इनमें
व्याकरण के मूलभूत सिद्धान्त स्थापित है ।
(2.) शिक्षा-ग्रन्थ :--
प्रातिशाख्य-ग्रन्थों के
आधार पर शिक्षा-ग्रन्थों की रचना हुई है । ये कारिकाओं में उपलब्ध है । इनकी
संख्या अनिश्चित है । सम्प्रति 11 शिक्षा-ग्रन्थ उपलब्ध हैं--
(1.) पाणिनीय शिक्षा, (2.) याज्ञवल्क्य-शिक्षा, (3.) वाशिष्ठी शिक्षा, (4.) कात्यायनी, (5.) पाराशरी, (6.) माण्डव्यी, (7.) अमोघानन्दिनी, (8.) माध्यन्दिनी, (9.) केशवी, (10.) नारदीया, (11.) माण्डूकी शिक्षा
।
शिक्षा-ग्रन्थों के
विषयः--
(1.) शुद्ध-उच्चारण का महत्त्व,
(2.) शुद्ध-उच्चारण के नियम,
(3.) पाठक के गुण,
(4.) पाठक के दोष ।
चारों वेद में परस्पर
उच्चारणभेद है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद, इनमें से
प्रत्येक के उच्चारण-वैशिष्ट्य के आधार पर पृथक् पृथक् शिक्षाग्रन्थों की रचना की
गई है। प्रत्येक वेद के पृथक् पृथक् ध्वन्यात्मक नियमों का निर्धारण तत्तत्
वेदसम्बद्ध प्रातिशाख्य ग्रन्थों में भी किया गया है। दो शिक्षाग्रन्थ ऐसे हैं
जिनमें सभी वेदों से सम्बद्ध सामान्य ध्वनिनियमों का प्रतिपादन किया गया है। अतः
ये सामान्य शिक्षाएँ कहलाती हैं। इस तरह शिक्षाग्रन्थों का विभाजन पञ्चधा किया गया
है, यथा- (अ)
सामान्य शिक्षाएँ,
(आ) ऋग्वेदीय शिक्षाएँ, (इ) यजुर्वेदीय शिक्षाएँ, (ई) सामवेदीय
शिक्षाएँ तथा (उ) अथर्ववेदीय शिक्षाएँ।
(अ) सामान्य शिक्षाएँ :
सामान्य शिक्षाएँ दो हैं-
(क) पाणिनीय शिक्षा तथा (ख) आपिशलि शिक्षा।
(क) पाणिनीय शिक्षा के दो
पाठ उपलब्ध हैं- सूत्रपाठ तथा श्लोकपाठ। इन दोनों पाठों के भी दो-दो रूप
मिलते हैं-लघु तथा बृहत्। सूत्रात्मक लघुपाठ का सम्पादन सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द
सरस्वती ने "वर्णोच्चारण शिक्षा" नाम से संवत्
पाणिनीय शिक्षा में ध्वनि
की उत्पत्ति-प्रक्रिया वैज्ञानिक ढंग से बतलाई गई है। ध्वनि की उत्पत्ति में आत्मा, बुद्धि, इच्छा तथा मन, इन चारों का
पारस्परिक सहयोग अपेक्षित होता है। उसके बाद कायाग्नि तथा प्राणवायु का सहयोग भी
अपेक्षित होता है। सर्वप्रथम आत्मा वासनारूप में अभीष्ट पदार्थों का बौद्धिक संकलन
कर उच्चारणेच्छा से मन को प्रेरित करता है। वह प्रेरित मन शरीरस्थित गर्मी
(जठराग्नि) को आहत करता है। उसके बाद वह जठराग्नि प्राणवायु को प्रेरित करती है।
तब वह प्रेरित प्राणवायु हृदय-प्रदेश में संचरण करता हुआ मन्द्र अर्थात् गम्भीर
स्वर (ध्वनि) को उत्पन्न करता है। उसी मन्द स्वर में गायत्रीच्छन्दोबद्ध मन्त्रों
का पाठ प्रातः सवन कर्म में विहित माना गया है। जठराग्निप्रेरित वही प्राणवायु
कण्ठस्थान में परिभ्रमण करता हुआ मध्य स्वर को उत्पन्न करता है जिसमें त्रिष्टुप्
छन्दोबद्ध मन्त्रों का पाठ माध्यन्दिन सवनकर्म में विहित माना गया है। वही
प्राणवायु शिरःप्रदेश में पहुँचकर तारस्वर को उत्पन्न करता है जिस स्वर में
जगतीच्छन्दोबद्ध मन्त्रों का उच्चारण सायं सवनकर्म में विहित माना गया है। वही
प्राणवायु जब उन्मुख होकर मूर्धा से टकराता हुआ लौटता है तब वह मुखस्थ कण्ठ, तालु आदि स्थानों
को प्राप्त करता है। उसके बाद ही वह प्राणवायु विभिन्न स्थानानुसार अकारादि
ध्वनियों को उत्पन्न करता है। एवम्प्रकारेण उच्चरित इन्हीं वर्णों का उदात्तादि
स्वर, उच्चारणकाल, उच्चारणस्थान, आभ्यन्तरप्रयत्न
और ब्राह्यप्रयत्न के आधार पर पाँच वर्गों में विभाजन किया गया है।
आत्मा बुद्ध्या
समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया।
मनः कायाग्निमाहन्ति स
प्रेरयति मारुतम् ॥
मारुतस्तूरसि चरन्
मन्द्रं जनयति स्वरम् ।
प्रातः सवनयोग्यं तं
छन्दोगायत्रमाश्रितम् ॥
कण्ठे माध्यन्दिनयुगं
मध्यमं त्रैष्टुभानुगम् ।
तारं तात्तर्तीयसवनं
शीर्षण्यं जागतानुगम् ॥
सोदीर्णो मूर्ध्यभिहिता
वक्त्रमापद्य मारुतः ।
वर्णाञ् जनयते तेषां
विभागः पञ्चधा स्मृतः ॥
स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्नानुप्रदानतः
।
इति वर्णविदः प्राहुर्निपुणं
तन्निबोधत ॥ -पाणिनीय शिक्षा-
6-10
पाणिनीय शिक्षा में 64
वर्ण परिगणित हैं यथा-स्वर-21, स्पर्श-25. यकारादि-8, यमवर्ण-4, अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीय, उपध्मानीय, दुःस्पृष्ट तथा प्लुत लकार-6 कुल 64 वर्ण। अकार, इकार, उकार तथा ऋकार के
ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत
रूप 4X3=12 तथा हस्व
तृकार, कुल 13 स्वर हैं।
एकार, ओकार, ऐकार तथा औकार के
दीर्घ एवं प्लुत 4X2=8 । इस तरह
स्वरों की कुलसंख्या पाणिनीय शिक्षा में इक्कीस बताई गई है। कवर्ग से पवर्ग तक
पाँच वर्गों के पांच- पाँच स्पर्श वर्ण 5X5=25 है। यकारादि अर्थात् अन्तःस्थ 4 तथा उष्मवर्ण 4 कुल 8
होते हैं। प्रत्येक व्यञ्जन वर्ग के प्रथम व्यञ्जनों में से किसी एक के आगे यदि
व्यञ्जन वर्ग का पंचम व्यञ्जन आ जाता है तो पूर्ववत्तों एवं परवर्ती व्यञ्जनों के
मध्य में पूर्ववर्ती व्यञ्जन के सदृश एक अतिरिक्त अनुनासिक व्यञ्जन उच्चरित होने
लगता है। उसी मध्यगत अनुनासिक व्यञ्जन को यम कहा जाता है। व्यञ्जनवर्ग पाँच हैं और
प्रत्येक व्यञ्जनवर्ग के प्रथम चार व्यञ्जनों के सम्पर्क से यम ध्वनियों की
उत्पत्ति होती है। इस तरह यमवर्णों की संख्या 5X4= 20 है। किन्तु पाणिनीय शिक्षा में
ध्वनिवर्गीकरण में सभी व्यञ्जनवर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ व्यञ्जनों को एक मानकर यम ध्वनियों की
संख्या चार बतलाई गई है। वेदाङ्ग शिक्षाग्रन्थों में यमध्वनियों की गणना वर्णमाला
के अन्दर की गई है, जब कि ऋग्वेद
प्रातिशाख्य में यमवर्णों को आगमवर्ण माना गया है। ककार और खकार से पूर्व उच्चरित
अर्धविसर्गसदृश ध्वनि जिह्वामूलीय नाम से अभिहित है जिसका उच्चारणस्थान जिह्वामूल
है। पूर्ण हकार 'ऊष्म' का उच्चारणस्थान
कण्ठ माना जाता है जब कि पूर्ण विसर्ग अथवा अर्धविसर्ग का उच्चारणस्थान जिह्वामूल
माना जाता है। पकार तथा फकार के पूर्व उच्चरित अर्धविसर्गसदृश ध्वनि उपध्मानीय नाम
सेजाना जाता है, जिसका
उच्चारणस्थान ओष्ठ माना जाता है। परवर्ती वर्ण के भेद के आधार पर एक ही
अर्धविसर्गसदृश ध्वनि जिह्वा के मूल से तथा ओष्ठ से उच्चरित होने का विधान
वेदाङ्गशिक्षाओं तथा प्रातिशाख्यों में किया गया है। दो स्वरों के मध्य में
प्रयुक्त डकार तथा ढकार के उच्चारणक्रम में वैदिककाल में ळ तथा व्ळ्ह ध्वनियों का
उच्चारण होता है। इस विशिष्ट ध्वनि को पाणिनीय शिक्षा में दुःस्पृष्ट कहा गया है।
पाणिनीय शिक्षा में एकार में एकमात्रिक अथवा अर्धमात्रिक अवर्ण तथा एकमात्रिक अथवा
अर्धमात्रिक इवर्ग का संयोग माना गया है। पाणिनीय शिक्षा में
वर्णोत्पत्तिप्रक्रिया के बाद वर्णोच्चारण के स्थान एवं प्रयत्न, मात्रा, स्वर, रङ्गस्वर आदि का
विवेचन किया है।
(ख) आपिशलि
शिक्षा- पाणिनीय शिक्षा की तरह यह आपिशलिशिक्षा भी सामान्य
ध्वनि-नियमों का प्रतिपादन करती है जो नियम सभी वेदों में सामान्यतः प्रयुक्त होते
हैं। इस शिक्षा का हस्तलेख सर्वप्रथम डॉ० रघुवीर को आधार लाइब्रेरी, मद्रास में
उपलब्ध हुआ था। आपिशलि शिक्षा की उस पाण्डुलिपि में आरम्भ में उन्नीस कारिकाएँ
थीं। उन कारिकाओं के बाद आपिशलि शिक्षा के नाम से कारिकाएँ प्रारम्भ हुई थीं।
डॉ० रघुवीर द्वारा सम्पादित वह शिक्षा 1931 में कलकत्ता में प्रकाशित हुई थी।
इस शिक्षा का प्रथम प्रकाशन स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1879 ई. में वाराणसी
में कराया था। इस शिक्षा के भी दो रूप हैं-सूत्रात्मक तथा कारिकात्मक।
सूत्रात्मक आपिशलि शिक्षा आपिशलि की अपनी रचना मानी जाती है, जब कि कारिकात्मक
आपिशलि शिक्षा का रचयिता दूसरे व्यक्ति को माना जाता है, क्योंकि उसकी
भाषा तथा वर्णन-क्रम में स्पष्ट अन्तर देखा जाता है। शिक्षाकार आपिशलि की
प्रामाणिकता प्रायः सभी शिक्षाकारों को मान्य है। पतञ्जलि, काशिकाकार, भर्तृहरि, भट्टोजिदीक्षित, चन्द्रगोमी, बोपदेव आदि
विभिन्न आचार्यों ने उनके स्थान, करण, प्रयत्न आदि
विषयक सूत्रों का अपनी-अपनी रचनाओं में उद्धृत किया है।
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य (23/2) के गार्ग्य गोपाल यज्वाकृत वैदिकाभरण भाष्य में भी आपिशलि की
चर्चा की गई है।
आपिशलि शिक्षा में आठ
खण्ड हैं। प्रथम खण्ड के 27 सूत्रों में वर्णों के उच्चारणस्थान का विवेचन किया
गया है। द्वितीय खण्ड के दश सूत्रों में वर्णोच्चारणमूलक करणों का विवेचन किया गया
है। तृतीय तथा चतुर्थ खण्डों में क्रमशः अन्तःप्रयत्नों तथा बाह्यप्रयत्नों का
विश्लेषण किया गया है। पञ्चम खण्डमें स्पर्श, यम,
अन्तःस्थ तथा
ऊष्म वर्णों के उच्चारणस्थानों की वायु द्वारा क्रमशः अयःपिण्डवत्, दारुपिण्डवत् तथा
उर्णापिण्डवत् पीडनक्रिया का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। षष्ठ खण्ड में स्वर
वर्णों के मात्राभेद पर विचार किया गया है। सप्तम खण्ड में उच्चारणमूलक स्थान, करण तथा प्रयत्न
का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। अष्टम खण्ड में ध्वन्युत्पत्ति-प्रक्रिया तथा
वर्णों की विवृतता एवं संवृतता का विवेचन किया गया है।
अनुस्वार का उच्चारण
स्थान-
वा० प्रा० में
वर्ण-समाम्नाय के अन्तर्गत 'अयोगवाह' व्यञ्जन वर्णों में
अनुस्वार की गणना की गई है। ऋ० प्रा० ११५ में विधान किया गया है कि अनुस्वार या तो
व्यञ्जन है या स्वर है। वा० प्रा० के वर्ण समाम्नाय में व्यञ्जनों के अन्तर्गत
अनुस्वार का परिगणन होने पर भो कतिपय अन्य सूत्र विधानों के अध्ययन से यह ज्ञात
होता है कि अनुस्वार स्वरधर्मी है । यथा-४।१४८-१४९ में उपधासहित अनुस्वार का
उच्चारण काल बतलाते हुए कहा गया है-- ह्रस्वस्वर पूर्ववर्ती अनुस्वार डेढ़मात्रा
काल वाला होता है तथा पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर वर्ण आधी मात्रा काल वाला होता
है।" तात्पर्य यह है कि ह्रस्व स्वर के बाद वाला अनुस्वार डेढ़मात्रा काल में
उच्चरित होता है और हस्व स्वर आधी मात्रा काल में उच्चरित होता है।
दीर्घ स्वर
पूर्ववर्ती अनुस्वार आधी मात्रा काल वाला होता है तथा पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर वर्ण
डेढ़मात्रा काल वाला होता है। तात्पर्य यह है कि दीर्घ स्वर से बाद वाला अनुस्वार
आधी मात्राकाल में उच्चरित होता है और दीर्घ स्वर डेढ़ मात्रा काल में उच्चरित होता
है।
उपर्युक्त दो
सूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अनुस्वार तथा पूर्ववर्ती स्वर. वर्ण (चाहे
वह ह्रस्व हो या दीर्घ) के उच्चारण में दो मात्राओ का समय लगता है। अर्धमात्रा काल
से अधिक समय का विधान अनुस्वार के 'स्वरत्व' की ओर संकेत करता है क्योंकि व्यञ्जन
अर्धमात्रिक ही रहता है स्वर-वर्ण में ही एक या दो या अधिक मात्रा काल का नियमन
होता है।
इन तथ्यों के
रहते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि-अनुस्वार स्वर-वर्ण हो है। क्योंकि अनुस्वार
अन्य व्यञ्जन वर्गों की भाँति स्वर की सहायता के बिना उच्चारित नहीं किया जा सकता।
दूसरे - अनुस्वार की गणना अयोगवाह वणों में की गई है और अयोगवाह व्यञ्जन वर्ण हैं
स्वर-वर्ण नही । अतः यह कहना अधिक उपयुक्त है कि अनुस्वार स्वर के कतिपय गुणों को
धारण करता है और व्यञ्जन के भो कतिपय गुणों को धारण करता है। जिस प्रकार अन्तस्था
वर्णों में सानुनासिकता वाचनिक धर्म होता है स्वाभाविक धर्म नहीं उसी प्रकार आधी
मात्रा से अधिक काल में उच्चरित होना अनुस्वार का वाचनिक धर्म है स्वाभाविक धर्म
नहीं। अतएव १११४८ में भाष्यकार उवट का कथन है कि-संयोग से परवर्ती अनुस्वार
अर्धमात्रिक हो होता है।' इस प्रकार
अनुस्वार स्वर-व्यञ्जनात्मक एक 'मित्रवर्णं' है। यजुर्वेद में अनुस्वार का उच्चारण गकार
व्यञ्जन सहित सानुनासिक रूप का (अर्थात् गु) होता है।
अनुनासिक का
स्वरूप -
सामान्यतया 'अनुनासिक' शब्द का प्रयोग स्पर्श वगों के अन्तिम
वर्ण-ङ, ञ, ण, न, म के लिए किया जाता है। वास्तव में अनुनासिक
का अर्थ है- मुख और नासिका से उच्चारित होने वाला वर्ण । ११७५ में विधान भी किया
गया है-
अनुनासिक का
उच्चारण मुख बऔर नासिका दोनों से होता है। अनुनासिकता' एक प्रकार का धर्म है जो स्वर बोर परिगणित
व्यंजनों में प्रविष्ट होकर उनके उच्चारण में वैशिष्ट्य उत्पन्न कर देता है।
स्पर्श वगों के अन्तिम वर्ण वा० प्रा० ११८९ के अनुसार नियमित रूप से अनुनासिक धर्म
से सम्बन्धित हैं। अतः वे 'अनुनासिक' कहलाते है। भाष्यकार उवट का कथन है कि
अनुनासिकता स्वर-वों का वैकल्पिक धर्म है तथा रेफ को छोड़कर अन्य अन्तस्या वणों का
यह वाचनिक धम है। तात्पर्य यह है कि स्वर-वणों का उच्चारण जब मुत्र और नासिका
दोनों से अं, आं इत्यादि के
रूप में होता है तब ये 'अनुनासिक स्वर' कहलाते हैं। इसी प्रकार अन्तःस्था वर्षों का
उच्चारण जब मुख और नासिका दोनों से यँ, बँ के रूप में
होता है तब ये वर्ण 'अनुनासिक
अन्तःस्था' कहलाते हैं।
अनुस्वार और
अनुनासिक में भेद-पूर्व में यह कहा गया है कि अनुस्वार- स्वर-व्यञ्जनात्मक एक
मित्र वर्ण है अर्थात् धर्मी है, जबकि अनुनासिक
स्वर और व्यञ्जन में अनुगत होने वाला धर्म है। अनुनासिक के लिए व्यञ्जन की भाँति
अर्धमात्रा या स्वर के समान एकाधिकमात्रा का विधान नहीं है, अतः उसका उच्चारण उसके आश्रयी (स्वर और
व्यञ्जन) के काल में ही समाविष्ट हो जाता है। अनुनासिक का अङ्ग विचार में भी कोई
स्थान किसी प्रातिशाख्य में नहीं दिया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि अनुनासिक की
वर्ण समाम्नाय में स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वैदिक ग्रंथों एवं लौकिक संस्कृत
ग्रन्थों में अनुस्वार के लिए वर्णं के ऊपर विन्दु (ं) का चिह्न प्रयुक्त होता है
तथा अनुनासिक के लिए वर्ण के ऊपर अर्धचन्द्रयुक्त (ँ) विन्दु का प्रयोग किया जाता
है।
दुःस्पृष्ट क्या है- ऋक्प्रातिशाख्य के 13वें पटल में- "दुःस्पृष्टं तु प्राग्धकाराच्चतुर्णाम्" सूत्र प्राप्त होता है. जिसका अर्थ है हकार से पूर्व चार वर्णों अर्थात् य,र,ल एवं व वर्णों (अन्तःस्थ) को नाम दुःस्पृष्ट कहा जाता है। उक्त प्रातिशाख्य के उवट भाष्य में दुःस्पृष्ट का पर्याय है- ईषत्स्पृष्ट अर्थात् य र ल व स्पर्श व्यञ्जन स्पृष्ट होते हैं तथा स्वर वर्ण विवृत होते हैं। इन दोनों के मध्य अर्थात् स्वर एवं व्यञ्जन के मध्य अन्तःस्थ वर्णों का स्थान है क्योंकि ये अन्तःस्थ वर्ण ईषत्स्पृष्ट हैं- "स्वरव्यञ्जनयोरत्नः तिष्ठति इत्यन्तःस्थः"। ऋक्प्रातिशाख्य के भाष्य में उवट का कहना है कि स्पर्श और ऊष्मवर्णों के बीच में रहने के कारण य र ल व अन्तःस्थ हैं। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के वैदिकाभरण भाष्य में अन्तःस्थ वर्णों के उच्चारण के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिह्वामध्य आदि करणों के किनारों से उच्चरित होने के कारण यरलव अन्तःस्थ कहलाते हैं।" इनके उच्चारण में स्थान एवं करण के स्पर्श में बहुत कठिनाई होती है इसीलिए ये अन्तःस्थ वर्ण दुःस्पृष्ट कहलाते हैं। किन्तु पाणिनीय शिक्षा के वर्णसंख्यापरिगणन के सन्दर्भ में दुःस्पृष्ट शब्द से ळ तथ व्ळ्ह ध्वनियों का बोध कराया गया है।
अवग्रह का उच्चारण काल
स्वरसन्धि (पूर्वरूप एकादेश) वाले स्थलों पर हमें अवग्रह चिह्न का प्रयोग देखने को मिलता है। ऐसे स्थलों पर जिज्ञासा होती है कि क्या यण्, गुण, दीर्घ आदि सन्धि के उपरान्त जिस तरह वर्णविकार युक्त शब्द का पूर्वरूप सन्धि में होगा या कुछ अन्य। यदि पूर्व शब्द के समान वर्णोच्चारण किया जाय तो पुनः अवग्रह प्रदर्शन का औचित्य क्या है? इस जिज्ञासा का समाधान हमें ऋक्प्रतिशाख्य तथा याज्ञवल्क्य शिक्षा से हो जाता है।
अवग्रहे तु कालः स्यादर्धमात्रात्मको हि सः ।
पदयोरन्तरे काल एकमात्रा विधीयते ॥ 13 ॥
यहाँ अवग्रह का अर्धमात्रात्मक काल कहा गया है। जहाँ पूर्वरूप एकादेश होता है, वह उच्चारण की दृष्टि से पूर्वपद से सर्वथा असम्पृक्त रहता है। पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्र 'एङः पदान्तादति (6/ 1 /109) के अनुसार पदान्त एकार तथा ओकार के आगे हुस्व अकार के रहने पर पूर्वापर एकार अथवा ओकार तथा अकार मिलकर पूर्वरूप एकादेश एकार अथवा ओकार हो जाते हैं, यथा हरे+अव, विष्णो+अव उक्त पूर्वरूप एकादेश होने पर हरेऽव, विष्णोऽव हो जाते हैं। यहाँ पूर्वरूप एकादेश हो जाने पर अकार पूर्वस्थित एकार अथवा ओकार में अन्तर्भूत हो जाता है। अतः ऐसे स्थल पर अकार का अस्तित्व नहीं रहता है। किन्तु सन्धि नियम से अस्तित्व नहीं रहने पर भी उक्त अकार का अर्धमात्रिक उच्चारण होता ही है। वही अर्धमात्रिक उच्चारण अवग्रह-ध्वनि के नाम से अभिहित है जिसका चिह्न है "S"। इसलिए "हरेव" के स्थान में "हरेऽव" तथा 'विष्णोव" के स्थान में "विष्णोऽव" के रूप में अवग्रह चिह्न का प्रयोग किया जाता है। अवग्रह का उच्चारण अष्टाध्यायी के अनुसार पदान्त एकार तथा ओकार के बाद ही होता है तथा नित्य रूप से ह्रस्व अकार के पूर्व ही होता है। पदान्त ओकारान्त गो शब्द के आगे अकारादि शब्द रहने पर विकल्प से प्रकृतिभावहोता है। प्रकृतिभाव नहीं होने पर 'एङ पदान्तादति (6) 109) "सूत्र से ओकार तथा अकार का पूर्वरूप एकादेश हो जाता है। तदनुसार गऽग्रम् प्रयोग बनता है जिसका उच्चारण होता है गोऽग्रम्। इस तरह अवग्रह चिह्न (ऽ) साधारणतः अकारबोधक मान लिया गया है। इसीलिए दीर्घ सन्धि के प्रयोग में भी पूर्वप्रयुक्त अकार तथा आकार का बोध कराने के लिए क्रमशः ऽ तथा ऽऽ अवग्रह चिह्नों क प्रयोग होते हैं। अवग्रह का उच्चारण पूर्णत ध्वनिवैज्ञानिक आधार पर होता है। इस अवग्रह चिह्न (ऽ) का प्रयोग याज्ञवल्क्यशिक्षा (13) में मात्रा काल के अन्तर्गत किया गया है। दो स्वरों के बीच में सन्धि नहीं होने की स्थिति में अर्धमात्रिक विवृति (ऽ) का चिह्न दिया जाता है।
प्रातिशाख्यानि
शिक्षाश्च
शाखां शाखां प्रति
प्रतिशाखं प्रतिशाखं भवं प्रातिशाख्यमिति समाख्यया पुराकाले वेदानां यावत्यः शाखा
आसन्, तासां सर्वांसां
शाखानां प्रातिशाख्यग्रन्या आसत्रिति गम्यते। लभ्यते च यस्याः शाखायाः
यत्प्रातिशाख्यं तत्र तस्यां शाखायां विद्यमानानां वर्णधर्माणां विवेचनम्। परन्तु
तत्तच्छाखामात्रविषयकता तत्तत्प्रातिशाख्ये न दृश्यते। यथा प्रकृत्या कखयोः
पफयोश्च (वा०प्रा० ३.११) इति सूत्रेण विष्णोः क्रमः (मा०सं० १२.५) ततः खनेम
(मा०सं० ११.२२) देवसवितः प्रसुव (मा०सं० ९.१) याः फलिनीः (मा०सं० १२.८९) इत्यादौ
माध्यन्दिनीयानां विसर्गस्य प्रकृतिभावे सिद्धेऽपि विष्णो क्रमः (काण्व सं० १३.६)
तत खनेम (काण्वसं० १२.२२) देवसवित प्रसुव (काण्वसं० ९.१) इत्यादौ काण्वोदाहरणे
जिह्वामूलीयोपध्मानीयसिध्यर्थं पुनर्वचनम् "जिह्वामूलीयोपध्मानीयौ शाकटायनः
(वा०प्रा०३.१२) इति न च वाच्यं जिह्वामूलीयादिकं माध्यन्दिनस्यापि विकल्पेन भविष्यतीति"
तस्मिन् व्ळ्ळ्हजिह्वामूलीयोपध्मानीयनासिक्या न सन्ति माध्यन्दिनानाम्"
इति (वा०प्रा० ८.३१) सूत्रकारेण निषिद्धत्वादिति (वा०प्रा० १.१) सूत्रभाष्यारम्भे
अनन्तभट्टः । एवमन्यानि अपि उदाहरणानि दर्शितानि आचार्येणानेन । एतदाचार्यमते
काण्वादिपञ्चदशशाखासु एकमेव शुक्लयजुर्वेदप्रातिशाख्यम्। अनेकशाखानां
सामूहिकरूपमपि प्रातिशाख्यं भवतीति तैत्तिरीयप्रातिशाख्यस्य
वैदिकाभरणाख्यव्याख्याकृतापि कथितमस्ति- (तै० प्रा० ४.११) द्वित्रिशाखाविषयत्वेऽपि
तदसाधारणतया उपपत्तेः। तथा बवृचानां शाकलवाष्कलात्मकशाखाद्वयविषयं प्रातिशाख्यं
प्रसिद्धम्। इदानीं निम्नलिखितानि प्रातिशाख्यानि प्रसिद्धानि सन्ति । ऋग्वेदीयम्
ऋक्प्रातिशाख्यम्। शुक्लयजुर्वेदीयम् वाजसनेयिप्रातिशाख्यम्। कृष्णयजुर्वेदीयम्
तैत्तिरीयप्रातिशाख्यम्। सामवेदीयम् अथर्वप्रातिशाख्यं, शौनकचतुरध्यायी
च।
शिक्षाः
वर्णः स्वरः, मात्रा, साम, सन्तान इत्युक्तः
शीक्षाध्यायः (तै०उ० ७.२) इति श्रुतिवाक्यमवलम्ब्यशिक्षाग्रन्थाः प्रवृत्ताः।
वर्णः अकारदिः, स्वरः उदात्तादिः, मात्रा-हस्वादिः
बलम् स्थानप्रयत्नौ, साम-
अतिद्रुतत्व-मतिविलम्बितत्वं परिहृत्य यथोपदेशमुच्चारणं साम (साम्यम्) सन्तानः-
पूर्वस्य पदस्योत्तरेण सन्धानं सन्तानः (संहिता)। इत्थं येषु ग्रन्थेषु वर्णाः, वर्णानां
स्थानानि, वर्णानां
प्रयत्नस्वरकालाः सन्धिः,
उच्चारणगुणदोषाश्च
इत्येतेषां विषयाणां विवेचनं भवति ते शिक्षाग्रन्थाः कथ्यन्ते। वेदानां बह्यः
शाखाः। प्रतिशाखं च विभिन्ना उच्चारणप्रकाराः। अतः शिक्षाग्रन्था अपि बहवः सन्ति ।
वेदचतुष्टयस्यानेकशाखीयशिक्षासङ्ग्रहपुस्तके निम्नलिखिताः शिक्षा:
सङ्कलिताः सन्ति - १ याज्ञवल्क्यशिक्षा २ वासिष्ठशिक्षा ३ सटीका कात्यायनीशिक्षा ४
पाराशरीशिक्षा ५ माण्डव्यशिक्षा ६ अमोघानन्दिनी शिक्षा ७ लघ्वमोघानन्दिनी शिक्षा ८
माध्यन्दिनीयशिक्षा ९ लघुमाध्यन्दिनीयशिक्षा १० वर्णरत्नप्रदीपिकाशिक्षा ११ सटीका
केशवीशिक्षा १२ तत्कृता पद्यात्मिका शिक्षा १३ मल्लशर्मशिक्षा १४ स्वराङ्कुशशिक्षा
१५ षोडशश्लोकीशिक्षा १६ अवसाननिर्णयशिक्षा १७ स्वरभक्तिलक्षणशिक्षा १८
क्रमसन्धानशिक्षा १९ गलदृशिक्षा २० मनः स्वारशिक्षा २१ प्रातिशाख्यप्रदीपशिक्षा २२
यजुर्विधानशिक्षा २३
स्वराष्टकशिक्षा २४. क्रमकारिका शिक्षा
२५ पाणिनीयशिक्षा २६
पाणिनीयशिक्षाप्रकाशटीका २७ सटीकानारदीशिक्षा २८ गौतमीशिक्षा (सामवेदीया) २९
लोमशीशिक्षा (सामवेदीया)