मगध क्षेत्र में संस्कृत की परम्परा 2

        मैंने अपने पूर्व आलेख में स्पष्ट कर दिया है कि मगध क्षेत्र का अतीत अत्यंत ही गौरव पूर्ण रहा है। मध्यकाल में यहाँ संस्कृत का उत्थान अधिक नहीं हो सका, परंतु उन्नीसवीं सदी आते-आते इस क्षेत्र में पुनः संस्कृत विद्या की स्थापना होने लगी। कारण यह कि 19 वीं तथा 20 वीं सदी में मगध के आसपास वाराणसी तथा कोलकाता ये दो संस्कृत विद्या के केंद्र स्थापित थे। लोग आरंभिक शिक्षा मगध में प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु कोलकाता या काशी की ओर जाते रहे। सबसे प्रशंसनीय बात यह थी कि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र में जाकर यहां के विद्वानों ने संस्कृत विद्या की अलख जगायी। इस क्षेत्र में वैष्णव संतो के आगमन के पूर्व भी अनेक संस्कृत विद्या के केंद्र स्थापित थे। टीकारी राज तथा गया के खुरखुरा में स्थित संस्कृत विद्यालय ने अनेक विद्वानों को पैदा किया। पटना जिले का राघवपुर नामक गांव संस्कृत शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जिसे छोटी काशी के नाम से जाना जाता था। परंतु खेद है कि इस क्षेत्र की एक भी विदुषी का नाम प्रकाश में नहीं आ सका है। मैंने पूर्व के लेख तथा इतनी यादें मत आया कर (हुलासगंज संस्मरण) में कुछ विद्वानों की चर्चा कर दी है अतः इस आलेख में उन विद्वानों के नाम सम्मिलित नहीं किये गये है।
 पंडित विष्णु दत्त शर्मा
औरंगाबाद मंडल के चंदा ग्राम में पंडित विष्णु दत्त शर्मा का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। आपने उच्च शिक्षा काशी में अध्ययन कर प्राप्त किया। आपने संस्कृत के लक्षण ग्रंथ विश्व विमर्श लिखकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है

राम आशीष पांडेय

आपका जन्म नवादा जिले के छोटिया गाँव में 7  जुलाई 1944 को हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित सिद्धेश्वर पांडे था।  गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर पटना विश्वविद्यालय से 1969 ईस्वी में आपने संस्कृत में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की। कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से आपने साहित्य, व्याकरण एवं वेद मैं आचार्य की उपाधि प्राप्त की। 1973 में आपको हिंदी से एम. ए. रांची विश्वविद्यालय तथा 1990 में विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त हुई। 1971 में पटना हथुआ राज ज्ञानोदय संस्कृत कॉलेज  मंदिरी में नियुक्त हुए। इसके बाद 1973 में रांची के मारवाड़ी कॉलेज में आप की नियुक्ति संस्कृत प्राध्यापक के पद पर हुई। आपको बिहार सरकार ने वैदिक साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया। डॉ. पांडे ने नाटक, गद्य, काव्य, एकांकी खंडकाव्य और सिद्धांत ग्रंथों का भी प्रणयन किया। इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों पर समालोचना तथा संपादकीय भी लिखा है। आपकी कृतियों में मुख्य है-
मयूर दूतम्-दूत काव्य की परंपरा में डॉ. पांडे ने एक मयूरदूतम् नामक खंडकाव्य का प्रणयन किया। अन्य दूत काव्यों की तरह ही मयूर दूतम् पर भी कवि कुलगुरु कालिदास का साक्षात प्रभाव देखने को मिलता है। मंदाक्रांता की छटा से शोभित इस काव्य की कथावस्तु राष्ट्रीय भावना को जागृत करती है। संभोग एवं विप्रलंभ का प्रत्येक स्थल मर्मस्पर्शी है। नायिका को दिलासा दिला कर नायक द्वारा इंग्लैंड जाने के कथानक को लेकर कवि ने पाटलिपुत्र से इंग्लैंड तक का मनोहरी चित्र उपस्थापित किया है
                          कश्चित् विद्याविभवसहितः शोधकार्याभिलाषी
                          शिक्षा क्षेत्रादधिगतधनाsसावुवासेंगनन्दे
                          तत्रत्यैका सुभणरमगी  शुभ्ररूपा सुरम्य
                           प्राप्याशां सा हृदयनिहिते तस्य रागे सुबुद्धा।।
सभ्यता एवं परंपरा का मेल इस काव्य में देखते ही बनता है।
 इस का प्रकाशन श्याम प्रकाशन, जैजपुर, नालंदा से 1974 ईस्वी में किया गया
इंदिरा शतक-1986 में प्रकाशित इन्दिराशतक कृति भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन वृत्त पर आधारित रचना है। इसमें 100 श्लोक हैं ।
आप संस्कृत सेवा संघ रांची के संयुक्त सचिव भी रह चुके हैं
पं. ब्रह्मदेव शास्त्री
गया जनपद के मगरा ग्राम में पंडित ब्रह्मदेव शास्त्री की आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने विभिन्न स्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की। आपकी अनुरक्ति संस्कृत के प्रति आरंभिक अवस्था से ही थी। आपने आधुनिक नाट्य परंपरा के हर पक्ष को समृद्ध करने का कार्य किया है। 1988 इस्वी में आपके नाटक की प्रतियोगिता में मंचन के फलस्वरूप भारत सरकार ने द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित किया था। आपकी नाटिका निम्नलिखित हैं-
सावित्री नाटिका पुरस्कृत तथा प्रकाशित। वेला नाटिका पंडित ब्रह्मदेव शास्त्री संस्कृत नाट्य मंचन में भी सिद्ध हस्त थे। आप दिल्ली के 25 मलका गंज रोड जवाहर नगर में निवास किये।
डॉशिव कुमार मिश्र
पटना जिले के कौड़ियां गांव के निवासी पंडित जगन्नाथ मिश्र एवं माता जय सुंदरी मिश्र के यहां आपका जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। आपके दादा पंडित ब्रह्मदत्त द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और उनकी छत्रछाया में रहकर आपने अनौपचारिक रूप से संस्कृत की विद्या पायी। उसके बाद आप आरा जनपद के कोइलवर उच्च विद्यालय में अध्ययन हेतु गए। वहां से अध्ययन कर आपने पटना विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यही से आपने हिंदी में m.a. की उपाधि प्राप्त की। साहित्याचार्य तथा विद्यावारिधि की उपाधि भी प्राप्त की । ऋक् तंत्र प्रातिशाख्य पर आपने शोध कार्य किया ।इस ग्रंथ पर s. c. बर्नेल ने कार्य किया था। बर्नेल ने केरल के किसी संग्रहालय से इस पुस्तक की मूल प्रति प्राप्त की थी। महाभाष्यकार पतंजलि जिस सामवेद के बारे में बताते हैं कि वह सहस्त्र वर्त्मा था, उसकी एक भी प्रति तब तक उपलब्ध नहीं था शाकटायन विरचित इस ग्रंथ को बर्नेल ने सर्वप्रथम उपलब्ध कराया। तत्पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पंडित सूर्यकांत शास्त्री ने इस पर विस्तृत नोट लिखते हुए इसे प्रकाशित कराया था। इतनी अल्प सामग्री के ऊपर शुद्ध कार्य करना आपके लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। आपने उसे पूरा कर दिखाया। आपके शोध निर्देशक डॉ. विधाता मिश्र थे।आपकी गुरु परंपरा में प्रोफैसर बेचन जा प्रोफेसर चंद्रकांत पांडे प्रोफैसर हरिपुर पन्न द्विवेदी प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद सिंह तथा काशी नाथ मिश्र प्रवृत्ति विद्वान पंडित हुए। आपने साहित्याचार्य की उपाधि भी प्राप्त की। अध्ययन के उपरांत आपने केंद्रीय विद्यालय रांची से सेवा कार्य प्रारंभ किया। इसके बाद भारत सरकार के विभिन्न उपक्रमों में सेवा देते हुए आप वर्षों तक गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद में नियुक्त हुए। यहां रहते हुए आपने दृक्  जैसी अनेक पत्रिकाओं का संपादन किया। दृक् पत्रिका में आधुनिक संस्कृत साहित्य की समीक्षा तथा विद्वानों के साक्षात्कार का प्रकाशित होते है। यह आधुनिक संस्कृत साहित्य को समर्पित एकमात्र पत्रिका है। आपने संस्कृत शब्दकोश को विस्तार देते हुए पंजाबी भाषा में अनुदित किया। इसका नाम है पंजाबी संस्कृत शब्दकोश। इसके आप मुख्य संपादक हैं। यह पुस्तक गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ प्रयाग से प्रकाशित है इसमें 800 पृष्ठ है 1988 में शंकर दयाल शर्मा ने इस का विमोचन किया। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा यह पुरस्कृत है। दूसरी पुस्तक है वैदिक व्याकरण कोश । इसमें समस्त पाणिनि शिक्षा के पारिभाषिक शब्दों का संकलन किया गया है। सभी परिभाषाएं संस्कृत इंग्लिश तथा हिंदी में दी गई है
बलराम पाठक
पंडित बलराम पाठक का जन्म 26 जून 1921 में पंडित यज्ञ लाल पाठक एवं माता मोती देवी के यहां गया जिले के खीरी तिलैया ग्राम में हुआ था।आप शाकद्वीपीय ब्राह्मण थे। आपने अपने संबंधी के यहां रखकर आरंभिक शिक्षा ग्रहण की। उच्च शिक्षा आपने कोलकाता से प्राप्त किया। यहां से आपने 1924 ईस्वी में व्याकरण तीर्थ की उपाधि प्राप्त की। पुनः बिहार में आकर 1934 में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। अध्ययन के उपरांत आपने लाल ठाकुरबाड़ी रांची में एक संस्कृत पाठशाला आरंभ किया, परंतु कुछ ही बरसों बाद यह बंद हो गई। इसके बाद श्री पाठक श्री गोसनर उच्च विद्यालय में 1935 ईस्वी में संस्कृत अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। 1956 ईस्वी में आप का स्थानांतरण स्थानीय बालिका उच्च विद्यालय में हो गया। यहां से 1968 ईस्वी में सरकारी सेवा से मुक्त हुए। तब से 1978 तक मारवाड़ी सेवा संस्थान द्वारा संचालित शिवनारायण कन्या पाठशाला अपर बाजार रांची में कार्य किया। आप 1924 से 1954 तक बिहार संस्कृत समिति के सदस्य भी रहे। सन् 1986 में आप का देहावसान हो गया। आपने कर्मकांड एवम बाल उपयोगी पुस्तकों की रचना की। जिनमें मुख्य हैं-शारदीय दुर्गा पूजा पद्धति यह 52 पृष्ठों की है इसका प्रकाशन 1967 में हीरा लाल साहू, मूरत साहू भवननीची बाजार, रांची से हुआ था।
सर्वविध श्राद्ध पद्धति इस पुस्तक में पुराणों के नियमानुसार श्राद्ध कर्म की सांगोपांग  क्रमिक व्याख्या  की गई है। यह पुस्तक 90 पृष्ठों की है इसका प्रकाशन 1972 इसवी में हरि जी  कर्म सिंह भाई  द्वारा हुआ। 
जटाधारी मिश्र
गया जिले के पंचाननपुर गांव के निवासी पंडित सत्यनारायण मिश्र के यहां 15 दिसंबर 1930 को पंडित जटाधारी मिश्र का जन्म हुआ था। आपने आरंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त की। आपने साहित्य आचार्य की उपाधि बिहार संस्कृत समिति पटना से की। सन् 1964 ईसवी में आप अध्यापन से जुड़ गए। आपने वह गोस्नरसंत जान्स, rc मिशन आदि विद्यालयों में अध्यापन के दायित्व का निर्वाह किया। आपके द्वारा लिखित पुस्तक है- संस्कृत व्याकरण प्रभा यह बालोपयोगी पुस्तक का प्रकाशन विजयी भंडार, रांची से 1958 ईस्वी में हुआष इसमें 215 पृष्ठ हैं।
पंडित उमा शंकर शर्मा ऋषि
पंडित उमाशंकर शर्मा ऋषि का जन्म गया जिले के पुन्दील नामक ग्राम में एक शाकद्वीपीय ब्राम्हण कुल में हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने एम ए संस्कृत की उपाधि ग्रहण की । आपने पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग में आचार्य पद को भी सुशोभित किया है। संस्कृत के प्रति आपकी गहरी निष्ठा रही है। आप संस्कृत छात्रों को कोचिंग के माध्यम से आईएएस परीक्षा की तैयारी भी करवाते हैं।आपने प्रतियोगी परीक्षाओं की अनेक पुस्तकें लिखा, जो कि गूगल बुक्स पर भी उपलब्ध है। आप संस्कृत भाषा का सरलीकरण करते हुए छात्रों के उपयोगार्थ और सहज बोधगम्य शैली में अनेक पुस्तकों का प्रणयन, संपादन तथा टीका किया है। मुख्य पुस्तकों हैं- 1- निरुक्त संपादन प्रकाशित । 2- अशोक का स्तंभ शिलालेख प्रकाशित
धनुषधारी मिश्र
गया जिले के कुरका देव ग्रामवासी पंडित शिव पदारथ मिश्र के यहां अनंत चतुर्दशी सन् 1868 को आपका जन्म हुआ। गांव में आरंभिक शिक्षा प्राप्त कर मध्य विद्यालय देव में प्रवेश लिया। यहां से टाउन स्कूल गया पढ़ने चले आए और यहीं से आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद आर्थिक विपन्नता के कारण आप आगे नहीं पढ़ सके। गया से प्रकाशित मासिक पत्रिका साहित्य सरोवर के आप संपादक पद पर कार्य करने लगे। कुछ दिनों बाद यह पत्रिका बंद हो गई तब आप वाराणसी चले आये। यहां रहकर संस्कृत ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद करने में लीन हुए। आप द्वारा अनेक अनुदित पुस्तकें यहां से प्रकाशित भी हुई। इनमें से 1- देवर्षि पितृतर्पण 2- कार्तिक महात्म्य 3- गया पद्धति तथा दुर्गा पाठ मुख्य है। इसके अतिरिक्त संध्या वंदन मनुष्य का मातृत्व संबंध भी प्रकाशित है। मनुष्य का मातृत्व संबंध पुस्तक पर आपको वेणी पोएट्री प्राइस फंड से पुरस्कार भी मिला है 1917 ईस्वी में आप का देहावसान हो गया।
देव शरण शर्मा
जहानाबाद जिले के पंडित बालमुकुंद मिश्र के पुत्र पंडित देव शरण शर्मा का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी सोमवार सन 1890 ईसवी में हुआ। जहानाबाद के लक्ष्मी संस्कृत विद्यालय में  पंडित देवदत्त मिश्र से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर   उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु वाराणसी के क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां से आपने काव्य एवं पुराण विषय में तीर्थ की उपाधि प्राप्त की तथा पटना संस्कृत शिक्षा समिति से काव्यालंकार की उपाधि भी प्राप्त की। सन 1980 आपने लिखना शुरू किया। आपने हिंदी तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में समान रुप से लिखा है। उन दिनों मिथिला मिहिर, मर्यादा, मनोरंजन नामक मासिक पत्रों में आपके लेख कविता आदि प्रकाशित होते थे। आपने संस्कृत की पुस्तकों को हिंदी में अनुवाद किया है, जिसमें मुख्य हैं- 1- भगवद्गीता पद्यानुवाद 2- भागवत दशम स्कंध पद्यानुवाद इसके अतिरिक्त भी आपकी छिटपुट  संस्कृत रचनाएं भूदेव नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित होती थी।
डॉ. कृष्ण मोहन अग्रवाल
डॉ. कृष्ण मोहन अग्रवाल का जन्म 10 जून 1946 को हुआ। आपके पिता डॉक्टर राम मोहन दास मगध विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। आप की शिक्षा-दीक्षा आरा में हुई। यहां से आपने b.a. किया। आप संस्कृत में एम ए पीएचडी तथा डिलीट की उपाधि प्राप्त की। आपने hd जैन कॉलेज आरा से अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। 1969 में आप छपरा के राजेंद्र कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए तथा यहीं पर स्नात्कोत्तर संस्कृत विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आप द्वारा लिखित पीएचडी  शोध प्रबंध प्रकाशित है। आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन किया है। आप के निर्देशन में अनेक छात्रों ने शोध कार्य किया। आपकी अधोलिखित रचनाएं प्रकाशित हैं 1-श्रीमद्भागवत का काव्यशास्त्रीय परिशीलन 2- कौटिल्य ऑन क्राइम एंड पनिशमेंट
रामवृक्ष पांडेय
डॉक्टर रामबृक्ष पांडेय का जन्म 1 जनवरी 1934 को ग्राम नूरसराय (शेरपुर) जिला नालंदा, बिहार में पिता पंडित राम शरण पांडे एवं माता पार्वती देवी के यहां हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। इसके बाद आपने पटना सिटी के मुरारका संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन किया। मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा, नव नालंदा महाविहार नालंदा से भी आपने अध्ययन किया। आपकी गुरु परंपरा में पंडित ब्रह्मदत्त द्विवेदी, पंडित शीतांशु शेखर बागची तथा पंडित गुलाब चंद्र चौधरी प्रवृति विद्वान रहे। आप व्याकरण, वेदांत, साहित्य एवं पाली विषय का अध्ययन किया। आप सभी परीक्षाओं में स्वर्ण पदक प्राप्त किए ।आपने पटना सिटी के राम निरंजन दास मुरारका संस्कृत कॉलेज में 17 वर्षों तक पढ़ाया। उसके पश्चात हरिद्वार में 3 वर्ष अध्यापन कर श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ. नई दिल्ली में दर्शन संकायाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आपके लगभग एक दर्जन शोध प्रबंध प्रकाशित है। आपने दर्शन के अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। आप द्वारा संपादित मुख्य कृति है विशिष्टाद्वैत
कमलेश मिश्र 1844-1935
बिहार के अरवल के निकट वेलखड़ा गांव में कमलेश मिश्र का जन्म एक प्रतिष्ठित शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में हुआ। कहा जाता है कि आप के पितामह निर्णय सिंधु के प्रणेता कमलाकर भट्ट के शिष्य थे। कमलेश मिश्र काशी आकर यहां के विद्वान् गंगाधर शास्त्री के पिता नृसिंहदत्त शास्त्री से साहित्य का अध्ययन किया था। आपके साथ भारतेंदु हरिश्चंद्र पढ़ा करते थे। इनके कई पत्र आपके बंशजों के पास सुरक्षित हैं। इन्होंने कमलेश विलास नामक एक गीतिकाव्य की रचना कीजिसका प्रकाशन 1955 ईस्वी में हुआ। कमलेश विलासः गीतिपरंपरा की एक उपलब्धि है। इसी समय अरविंदो  भी  गीतिकाव्य की रचना कर रहे थे। इस समय भारत में संस्कृत के विद्वानों ने  गीतिकाव्य की रचना आरंभ की थीजो कि गीत गोविंद के प्रणेता जयदेव की परंपरा से है। कमलेश विलास में भगवत् भक्ति से ओतप्रोत होकर सोहरदादरा ताल में भैरवी राग से गेयहरिगीतिकाग़ज़लदोहापृथ्वीदिक्पाल छंदरेख़्ताकव्वालीठुमरीहोलीचैताकजरीबिहागखेमटालावनीझूमरनहछू आदि का प्रयोग किया गया। इस में कुल 13 सर्ग हैंसंभवतः यह एक ऐसा प्रथम गीतिकाव्य हैजिसमें लोक गीत या लोकधुनशास्त्रीय राग तथा गज़लों का एक साथ प्रयोग किया गया है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भट्ट मथुरानाथ शास्त्री तथा संस्कृत में गजल प्रबंध लिखने वाले जगन्नाथ पाठकअभिराज राजेंद्र मिश्र आदि ने संस्कृत में गजल का प्रयोग किया। कवि को इस ग्रंथ के लेखन के साथ ही यह चिंता सताने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो कि पाठक इसके गीतों के स्वर ताल में ही डूबे रहे और भगवान के पावन पदों में मन नहीं लगा पावेंइसीलिए उन्होंने एक श्लोक के द्वारा पाठकों को आगाह किया है
               कमलेशगीतमिदं मुदा स्वरतालमञ्जिममञ्जुलम्।
               श्रृणु तस्य तत्र पदे मनोsपि समाविधेहि सुपावने।
कमलेश विलास में बरसात के लिए लिखे गए इस गीत की चित्रमयता देखें
        चमचम चमक  चमत्कृदाचंञ्यन्ती चपला मुहुरुदरे संभाति।
        प्रिय क्व हेति च चातकीपिकि कुहूरिति कौति
        नदति घने शिखिना समं शिखिनी नटति च नौति
        तद्दं दृक्श्रुतिपातमशेषं हृदि मे बहुशूलं प्रददाति।
कमलेश विलास के संपादक तथा कवि के वंशज श्री मोहन शरण मिश्र ने प्रस्तुत गीतिकाव्य की उत्तम भूमिका लिखी हैजिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र के दो संस्कृत गीतों को भी उद्धृत किया गया है। 
कमला प्रसाद मिश्र  1872-1936
पटना जनपद केपटना सिटी नगर के गायघाट मोहल्ले में पंडित कमला प्रसाद मिश्रा का जन्म हुआ। आपने आयुर्वेद शास्त्र के अध्ययन के पश्चात आयुर्वेदीय पद्धति से जन सेवा करना शुरू किया ।आयुर्वेद के आप निष्णात विद्वान थे ।आपने एक कोष ग्रंथ तैयार किया जो वैद्य कोष के नाम से विख्यात हुआ। आपने हिंदी में भी अनेको रचनाएं की सन 1936 ईस्वी में आप का निधन हो गया।
प्रियव्रत शर्मा 
पटना जिले में 1920 ईस्वी में प्रियव्रत शर्मा का जन्म हुआ आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई तथा तदुपरांत आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नामांकन कराए। सन 1956 ईस्वी में आपने पटना स्थित राजकीय आयुर्वेदिक कालेज से अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। यहां प्राचार्य पद को भी सुशोभित किया। बिहार प्रांत देशी चिकित्सा के अधीक्षक पद तथा संस्थान के अध्यक्ष निदेशक पद पर भी रहे। द्रव्यगुण विभाग अध्यक्ष पद से आप सेवानिवृत्त हुए। आप आयुर्वेद शास्त्र के मर्मज्ञ थे। आपने कुछ मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें मुख्य हैं- द्रव्य गुण विभागअभिनव शरीर क्रिया विज्ञानआयुर्वेद का इतिहास, वाग्भट्ट विवेचनचरक चिंतन। आपके द्वारा संपादित मुख्य ग्रंथों हैं - वोपदेव का ह्रदयदीपकवाहर का अष्टांग निघंटु,माधव का द्रव्यगुणकैयदेव निघंटु तथा चरक संहिता का अंग्रेजी अनुवाद।
डॉ ब्रजमोहन पांडे नलिन
पाटलिपुत्र के खेतवाहा गांव में डॉक्टर पांडे का जन्म 1940 में हुआ आरंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद आपने पटना विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। सन 1961 ईस्वी में आपने संस्कृत से एम ए किया। 1962 में पाली में m a सन 1964 में हिंदी में m.a. तथा 1970 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की । स्वर्गीय डॉक्टर छविनाथ मिश्र के निर्देशन में आपने डिलीट भी किया । 8 अगस्त 1963 को हर प्रसाद दास जैन कॉलेज आरा से आप संस्कृत व्याख्याता के रूप में विधिवत नियुक्त होकर अध्यापन आरंभ किया । वहां से आप का स्थानांतरण 1 अप्रैल 1965 ईसवीं को गया कॉलेज गया में हो गया । यहां आप 1976 इसवी तक रहे 1977 ईस्वी के जनवरी मास में आपको मगध विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्थानांतरित किया गया, जहां आप 1985 तक रहे। इस विश्वविद्यालय में पाली विभाग स्थापित होने पर आपको पाली विभागाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई । आप संस्कृत. हिंदी. पाली के विद्वान तो हैं ही भाषा विज्ञान पर भी आपका अधिकार है। आपने ग्रंथों का भी प्रणयन किया।
 रंभा मंजरी नाटिका अनुवादक तथा संपादक भारती प्रकाशन अशोक नगर पटनासौंदरानंद समीक्षा एवं दार्शनिक गवेषणा चौखंबा प्रकाशन 1972, मगही अर्थ विज्ञान विश्लेषणात्मक अध्ययन 1982, अभिनव भारती प्रकाशन इलाहाबादबौद्ध साधना और दर्शनभाषा विज्ञान
अवधेश प्रसाद शर्मा 1886 -1962
 पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र के यहां कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी सन् 1850 ईस्वी को आपका जन्म हुआ। आरंभिक शिक्षा अपनी मां से प्राप्त कर उच्च अध्ययन हेतु गया तथा काशी पधारे। आपने वाराणसी से काव्यतीर्थ, आयुर्वेदाचार्य, आयुर्वेद रत्न आदि उपाधियां प्राप्त की। अध्ययन के पश्चात अध्यापन तथा लेखन को अपना  कर्म मार्ग बनाया। सन 1928 से साहित्यसुधा नामक मासिक पत्रिका का संपादन आपने किया।  इसी पत्रिका में आपकी रचनाएं प्रकाशित हुई । आप अकेले इस पत्रिका का संचालन निरंतर नहीं कर सके और अधिक व्यय आने के कारण इसे 1931 में बंद करना पड़ा। संस्कृत साहित्य परिषद इस पत्रिका के विषय में लिखता है-
              साहित्यसुधा पाटलीपुत्रान्तर्गत राघवपुर प्रकाशमापन्ना।
              एकहायने वयसि वर्तमान पद्य मई पद्य मया देश भाषा संस्कृत पत्रिका
 इस समय आपके द्वारा प्रकाशित रचना उपलब्ध नहीं है आप दर्शन के विद्वान थे तथा कुमारसंभवम् का पद्यानुवाद किया था। आप का निधन सन 1967 ईस्वी में हुआ।
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मगध क्षेत्र की संस्कृत परम्परा 1

अंग देश से पश्चिम के भूभाग का प्राचीन नाम मगध जनपद था। यहाँ चन्द्रवंश के राजा राज्य करते थे।महाभारत के भीष्म पर्व में 240 जनपदों का नामोल्लेख किया गया है,जिसमे मगध भी एक है। विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत् आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में सर्वप्रथम मगध का नाम  आया है, जिसमें ब्रह्मा पुत्र कुश के चतुर्थ पुत्र बसु महात्मा द्वारा गिरी ब्रज नामक एक नगर के बसाने की चर्चा आई है, जो वसुमती नाम से प्रसिद्ध हुई। उस नगरी के चारों ओर पांच पर्वत प्रकाशित हो रहे थे। इसीलिए इस पर्वत का नाम गिरी ब्रज रखा गया। यहां पर सारथी नाम की एक रम्य नदी है,जो 500 पर्वतों के मध्य माता की तरह सुशोभित हो रही है। मगध पूरी शस्य श्यामला रमणीय क्षेत्र है। मगध में पाटलीपुत्र और नालंदा ये दोनों विद्या के केंद्र थे। पाटलिपुत्र पुराना केंद्र था। इसकी ख्याति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पटना की परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर ही संस्कृत विद्या के स्मातकों को आचार्य की पदवी प्राप्त होती थी। भट्ट सोमेश्वर एवं राजशेखर के काव्यमीमांसा के अनुसार उपवर्ष का अन्तेवासी पाणिनि पटना में रहकर उनसे विद्या अध्ययन किये थे। श्रूयते हि पाटलीपुत्रे शास्त्रकारपरीक्षा अत्रोपवर्षवर्षाविह पाणिनिपिंगलाविहव्याडिः। वररुचिपतंजली इह परीक्षिताः ख्यातिमुपग्मुः।
महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री द्वारा दिसम्बर 1920 में पटना विश्वविद्यालय में दिये व्याख्यान में कहते हैं- Magadha or a part of it from Chunar to Rajgir (Visva Kosa, from Sakti Sangama-Tantra). Many are disposed to think that the word Kikata in Rg-Veda means Magadha.
गयापाटलीपुत्रनालंदा तथा राजगृह ( गिरी ब्रज ) प्राचीनतम शहर थे। गया से सटे बोधगया बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के कारण, गया तीर्थ के लिएपाटलीपुत्र शिक्षा तथा अनेक शासकों की राजधानी के कारणनालंदा शिक्षा के लिए तथा राजगृह बुद्ध के वर्षावास तथा जरासंध आदि राजाओं की राजधानी के लिए ख्यात हुआ।  मगध के ख्यातनाम आचार्यों ने अनेकों शास्त्रों की रचना की । अर्थशास्त्र के उद्भट विद्वान् कौटिल्य तथा ज्योतिष के आर्यभट्ट  का जन्म मगध क्षेत्र में ही हुआ था।  'धर्मकीर्तिके लेखक बुद्धघोष का जन्म 413 ईस्वी में  बिहार के अंतर्गत गया में बोधिवृक्ष के समीप हुआ था। देवकुण्ड के समीप जन्मे ऋषि च्यवन की धरा होने के कारण यहाँ आयुर्वेद के अनेकों आचार्यों का भी जन्म हुआ। हर्षचरित में  च्यवनाश्रम का उल्लेख किया गया है। भगवान बुद्ध के समय आजीविक कौमारभृत्य अजातशत्रु के राजवैद्य थे। आयुर्वेद के प्रकाण्ड ज्ञाता "मग'' (शाकद्वीपीय) तथा विषविद्या के ज्ञाता माहुरी जाति के लोगों का यह कर्मभूमि हैं।
 मगध क्षेत्र में दो विश्वविद्यालयपटना विश्वविद्यालयपटना तथा मगध विश्वविद्यालयबोधगया में संस्कृत विषय से B.a. m.a. तदनंतर शोध किए जा सकते हैं। संस्कृत के सर्वांगीण विकास एवं संरक्षण हेतु कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जनवरी 1961 को की गईजिससे मगध क्षेत्र में अनेकों संस्कृत महाविद्यालय सम्बद्ध हैं । श्री स्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालय पूर्व में इसी विश्वविद्यालय से संबद्ध था। आज इसकी संबद्धता संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से है। बिहार संस्कृत अकादमी पटनाबिहार रिसर्च सोसाइटी पटनाबिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड पटना तथा नव नालंदा महाविहार संस्कृत के लिए कार्य करने वाली शीर्षस्थ संस्थायों इसी क्षेत्र में स्थापित हैं । एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय गया में भी है। मगध क्षेत्र में बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड से संबद्ध अनेकों संस्कृत माध्यमिक विद्यालय हैं। इस प्रकार वैदिक काल से लेकर आज तक मगध क्षेत्र में संस्कृत के प्रचार प्रसार को गति दी जा रही है। 
श्री स्वामी परांकुशाचार्य
श्रीस्वामी परांकुशाचार्य की जीवनी इस लिंक पर उपलब्ध है। इनके कृतित्व पर भी एक लेख इस ब्लाग पर उपलब्ध है। इनके द्वारा संस्कृत के विकास के  लिए अधोलिखित संंस्थाओं की स्थापना की गयी।
http://sanskritbhasi.blogspot.in/2017/01/blog-post_28.html
(१) श्रीराम संस्कृत महाविद्यालयसरौतीरामपुर चौरम अरवल (बिहार)।
(२) श्री वेंकटेश परांकुश संस्कृत महाविद्यालयअस्सीवाराणसी (उत्तर प्रदेश)।
(३) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालयहुलासगंजगया (बिहार)।
(४) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य संस्कृत उच्च विद्यालयहुलासगंजगया (बिहार)।
 विशेषतः मगध  क्षेत्र के छात्रों की उच्च शिक्षा के लिए वाराणसी में श्री वेंकटेश परांकुश संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना  की गयी थी। आजकल यह  सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री
जानकीवल्लभ शास्त्री का जन्म गया जिले के मैगरा नामक ग्राम में 5 फरवरी1916 ई में हुआ था। इनके पिता का नाम रामानुग्रह शर्मा थाजो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। आपने 1927 में प्रथमा 1929 में मध्यमा 1931 में शास्त्री तथा 1932 में साहित्याचार्य की परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।  आपकी गुरु परंपरा में आपके पिता पंडित बद्री नाथ मिश्रा पंडित दामोदर मिश्र एवं पंडित पुरुषोत्तम मिश्र का नाम उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त आपने अंग्रेजी माध्यम से 1935 में मैट्रिक की परीक्षा 1938 में इंटर की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए 1932 में आपने अपने ससुर पंडित लक्षण मिश्र के साथ काशी आकर पंडित मालवीय जी से मिले और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाई। इसके अलावा 1929 में वेदांत शास्त्रीय तथा 1941 में वेदांताचार्य हुए। इलाहाबाद से संगीत प्रभाकर की परीक्षा भी आपने उत्तीर्ण की। बिहार उड़ीसा संस्कृत परिषद परीक्षा में पूर्व के सभी कीर्तिमानों को तोड़ते हुए आपने साहित्य रत्न की परीक्षा में 94 प्रतिशत अंक प्राप्त किया आपकी संस्कृत में गहरी अभिरुचि थी 1929 इसवी से ही आपने संस्कृत में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया। बीसवीं शताब्दी के संस्कृत काव्यों में फारसी या उर्दू काव्य परंपरा का शुरुआत भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने किया। इसके अनंतर पंडित जानकीवल्लभ शास्त्री ने भी संस्कृत में गजल लिखा।1930 से 1932 के बीच काशीवास के समय आपकी अनेक कविताएं सूर्योदयसुप्रभातम् तथा संस्कृतम् में प्रकाशित हुई। इस तरह 1930 से 1941 ईस्वी के मध्य संस्कृत में आपकी रचना मिलती है। काकली नामक काव्य का 1935 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ। काकली को पढ़कर महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आपसे मिलने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावास में आए। संस्कृत में जानकी वल्लभ शास्त्री विदेश श्रीनिधि तथा ललित ललाम के नाम से लिखा करते थे। काकली के अतिरिक्त बंदीजीवनम् इनका स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित खंडकाव्य है। कवि जानकीवल्लभ ने आधुनिक संस्कृत काव्य में नए युग का सूत्रपात किया। आपने प्राचीन काव्यधारा को आज के साहित्य की नई भावचेतना से जोड़ा। इनके गीतों में अनुप्रास का निर्वाहपदावली की कोमलतारागात्मकता एवं वैयक्तिक करूण कूट-कूट कर भरी है। वे संस्कृत कविता में रोमांटिक प्रवृत्ति के पुरोधा कहे जाते हैं। आज की संस्कृत कविता को उन्होंने प्रयोगशीलता के द्वारा नए आयाम दिए। गीतगोविंद जैसी मधुर कोमलकांत पदावली में आज की सम्वेदनाओं को स्पंदित किया है। भारतीवसंतगीतिः में अपनी कविता को नवावतार घोषित करते हुए कहते हैं- 
निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ।
मृदुं गाय गीतिं ललित नीति लीनाम् ॥

मधुर - मञ्जरी- पिञ्जरीभूत- माला:
वसन्ते लसन्तीह सरसा रसाला:
कलापा कलित-कोकिला-काकलीनाम्
निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ॥

वहति मन्द-मन्दं समीरे सनीरे
कलिन्दात्मजाया: सवानीर-तीरे
नतां पंक्तिमालोक्य मधुमाधवीनाम्
निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ॥

चलितपल्‍लवे पादपे पुष्‍पपुंजे,
 मलयमारुतोच्‍चुम्बिते मञ्जुकुंजे
स्‍वनन्‍तीन्‍ततिम्‍प्रेक्ष्‍य मलिनामलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

लतानां नितान्‍तं सुमं शान्तिशीलम्,
 चलेदुच्‍छलेत्‍कान्‍तसलिलं सलीलम्-
तवाकर्ण्‍य वाणीमदीनां नदीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि  वीणाम्।। 

भ्रमरगानम् शीर्षक गीत उपालंभ और प्रतीक विधान का अच्छा उदाहरण है- 
सरसि निवेश्य मुखं सुखं चुचुम्थम्बिथ नवरसं चषन् सन्,
सन्मुखसाम्प्रतमपि कृतवानन्वरविन्दम्
विन्दन्नानन्दं परात् परं किमपि नवीनममन्दम्।
इन्दिन्दिरनिन्दसि मकरन्दम्?
रे भ्रमर! तूमने सरोवर में प्रवेश करके मुख का सुखपूर्वक चुंबन लिया। नवरस को चूसा। अरविंद को तूने अनुपयुक्त बना डाला। कुछ अधिक नवीन आनंद लेता हुआ तुमने उसके मधु की निंदा कर रहा है।
उस समय काशी के पंडित मंडली में श्रेष्ठ महादेव शास्त्री ने 1935 ईस्वी में ही जानकीवल्लभ के काव्य वैशिष्ट्य की प्रशंसा करते हुए पद्य लिखा था।
गोविन्दो गोनविन्दः कविरकविरसौ नीलकण्ठोपकण्ठः  ----काकलीकोकिलेस्मिन् 
द्राक्षामधुर्यदीक्षाक्षममपि गणये पण्डितम्षण्डमेव
 सत्काव्य के उल्लास की लीला से कलरव करने वाले का काकली के इस कोकिल के प्रसातुत हो जाने के कारण गोविन्द वाणी से रहित अकवि बन गए। नीलकंठ भी नीरज कंठ वाले हो गए। क्षेम का भी कल्याण नहीं रहा और मदभार उनका उतर गया। सुबन्धु भी वही हल्के पर गएयहां तक कि द्राक्षा के माधुरी की दीक्षा में समर्थ पंडित पंडित को भी संड (नपुंसक) ही मांगता हूं।
कवि जानकी बल्लभ शास्त्री ने राधा को लेकर हिंदी और संस्कृत दोनों भाषाओं में विपुल काव्य सर्जन की है जिसमें माधुरी का अपूर्व परिपाठ है आधुनिक भावबोध के साथ-साथ प्राचीन परंपरा के समावेश की दृष्टि से उनकी उपलब्धियां संस्कृत काव्य रचना में सर्वथा स्पृहणीय है।
1936 ईस्वी में dav कॉलेज लाहौर में आपने 4 माह तक अध्यापन किया। उसके बाद 1937 से 38 में आप रायगढ मध्य प्रदेश महाराजा के राज्य कवि बन गए। उस समय साक्षात्कार के क्रम में महाराजा ने एक प्रश्न पूछा। जब जरा गर्दन झुकाई देख ली इसका संस्कृत अनुवाद क्या होगा शास्त्री जी ने कहा प्रतिग्रीवाभंगं नयनसुखसंगं जनयति। इसके आगे राजा ने प्रश्न किया बांके नैना रसीले ने जादू किया शास्त्री जी ने उत्तर दिया बंग नए नैन में मान सम्मोहितंराजा।  ऐसे प्रतिभा संपन्न आशु कवि को पाकर प्रसन्न हुए परंतु वहां भी शास्त्री जी और अधिक दिनों तक नहीं रुक सके। वह मुजफ्फरपुर को अपनी कर्मस्थली बनाई।  यहां वर्ष 1944 से 1952 ईसवी तक आपने धर्म समाज संस्कृत कॉलेज में साहित्य प्राध्यापक पुनः अध्यक्ष पद को अलंकृत किया। 1953 से 1978 ईस्वी तक आप राम दयालु सिंह महाविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक बनकर चले आए। यहीं से उन्होंने 1978 में अवकाश ग्रहण किया।
       मूर्धन्य साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित आचार्य 1935 से 1945 के बीच 55 कहानियां लिखीं। साथ ही उन्होंने कई पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
आचार्य की मुख्य रचनाओं में ‘रूप-अरूप’, बरगद के साये में, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘मेघगीत’, ‘अवंतिका’, ‘धूप दुपहर की’ (गजल संग्रह) के अलावा ‘दो तिनकों का घोंसला’ और ‘एक किरण : सौ झाइयां’ काफी प्रसिद्ध रहीं। उन्होंने नाटकगीत-नाट्यललित निबंधसंस्मरण और आत्मकथा भी साहित्य संसार को दी। शास्त्री जी की अनमोल कृति ‘राधा’ सात खंडों में विभक्त है। उनकी जितनी रचनाएं प्रकाशित हुई हैंउससे ज्यादा उनकी कृतियां अप्रकाशित हैं। इनमें नाट्य संग्रहगीतगजल भी शामिल हैं।
जानकीवल्लभ शास्त्री को साहित्य में उनके अहम योगदान के लिए दयावती पुरस्कारराजेंद्र शिखर सम्मानभारत भारती सम्मानसाधना सम्मान और शिवपूजन सहाय सम्मान से सम्मानित किया गयालेकिन वर्ष 2010 में पद्मश्री लेने से उन्होंने मना कर दिया था।
 आचार्य को मृत्यु का भान पहले हो गया था। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी छाया देवी से कहा था, “मेरे पास आकर बैठिएअब मैं चल रहा हूं।” आप 7 अप्रैल2011 की रात साहित्य के क्षेत्र में एक बड़ी शून्यता छोड़ विदा हो गए।
 संस्कृत में आपकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती है
1.  काकली        काव्य                                     1935 ईस्वी में प्रकाशित
2.  लीलापदम्     300 मुक्तकों का संकलन             1935 
3.  बंदी मंदिरम्   115 श्लोक मंदाक्रांता में प्रकाशित राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत ग्रंथ 1936 ईस्वी
4.  प्रोषितपतिका स्वयं सिद्धा कथा साहित्य              प्रकाशित
5.  प्राच्यसाहित्यम्  आलोचना                             प्रकाशित
6.  श्रव्यकाव्यस्य क्रमिको विकासः                         प्रकाशित
पंडित अंबिकादत्त मिश्र 1890 से 1986
बिहार राज्य के औरंगाबाद जनपद में दधया नामक ग्राम में पंडित सदानंद मिश्र के ही कुल में पंडित अंबिकादत्त मिश्र का जन्म 1890 में रांची नगर में हुआ।  आप वाराणसी से शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त रांची के नगर पालिका द्वारा संचालित संस्कृत विद्यालय में आप आचार्य बने। आपकी शिष्य परंपरा में डॉक्टर सत्य नारायण शर्मा, (मिस्तर विश्वविद्यालय जर्मनी के प्राध्यापक) गंगा बुधिया, संस्कृत सेवक तथा व्यापारी, कर्नल विजय सिंह एवं डॉ. जाकिर हुसैन भूतपूर्व राष्ट्रपति जैसे यशस्वी, योग्य और कर्मठ शिष्य हुए। जब डॉक्टर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे तो उन्होंने  आपको कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय में 6 वर्षों के लिए सीनेट तथा सिंडिकेट का सदस्य नामित किया।संस्कृतकुसुमावली साहित्यिक कृति से आपकी पहचान जन जन तक पहुँची।  यह छोटी सी पुस्तक प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में थे, जिसमें कई लघु कथाएं और श्लोक थे। इसके अतिरिक्त पंडित मिश्र की कोई भी रचना पुस्तक आकार में उपलब्ध नहीं होती है। पत्र-पत्रिकाओं में आपकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई थी। शिखरिणी संस्कृत पत्रिका में आपके ललित पद्य देखने को मिलते हैं। आपकी रचना आकाशवाणी, रांची से भी प्रसारित होती रहती थी।इस प्रकार पंडित मिश्र जीवनभर संस्कृत की सेवा में सतत संलग्न रहे। 1986 के आसपास आप का देहावसान हो गया।
कामता नाथ शर्मा मदनेश
गया जिले के दधपी नामक गांव में पंडित रघुनंदन शर्मा के यहां 1893 कार्तिक अमावस्या को आपका जन्म हुआ था। आपने 7 वर्ष की अवस्था में अक्षरारंभ शुरू किया। संस्कृत में आपने 1927 से रचना का आरंभ किया। आपके द्वारा रचित काव्य हैं- 1. वसंत सुकुमारकम् 2. श्रृंगारसर्वस्वम् 3. स्वातंत्र्यकौशलम् 4. दरिद्रशतकम् 5. कारुण्यपञ्चाशिका 6. संतापमालिका  मनःशिक्षाशतकम् इसके अतिरिक्त भी आपने धर्मशास्त्र, पुराण आदि शास्त्रों से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना की है। जिनके विवरण इस प्रकार हैं- 1.पतिव्रताधर्म 2.रामनाममाहात्म्यम् 3. धर्मप्रावल्यम् 4. ब्राह्मणमाहात्म्यम् हरिवंशभावप्रकाशिका आदि।
छत्रानंद मिश्र 1868-1905
गया जनपद के उतरेन टिकारी ग्राम निवासी पंडित रामेश्वर मिश्र के यहां 1870 ईस्वी में वैशाख शुक्ल षष्ठी को आपका जन्म हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में हुई। तदनन्तर मकसूदपुर निवासी पंडित शिवप्रसाद मिश्र के सान्निध्य में भी आपने शिक्षा ग्रहण किया 20 वर्ष की आयु में काव्य एवं स्मृति विषयों में तीर्थ की उपाधि प्राप्त कर आपने गया के हरिदास सेमिनरी (टाउन स्कूल) में अध्यापक पद पर नियुक्त हुए। उसके बाद टिकारी राज के उच्च विद्यालय में भी आपने अपना योगदान दिया। आप अध्यापन के साथ-साथ लेखन भी करते रहे, जिसके कारण आप की साहित्यिक प्रतिभा निकलकर सामने आई। आप संस्कृत एवं हिंदी के सिद्धहस्त साहित्यकार माने जाते हैं। संस्कृत में आपकी काकदूतम् तथा प्रेमोद्गार रचनाएं प्रकाशित हुई।
तपेश्वर सिंह तपस्वी 1892
आपका जन्म गया जिले के कुडवा नामक ग्राम में आश्विन कृष्ण चतुर्थी रविवार सन् 1892 को हुआ। आपके पिता का नाम बाबू द्वारका सिंह था। आपकी आरंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। उसके बाद मैट्रिक से बी.ए. तक की शिक्षा अपने गांव के जनपद गया में तथा कोलकाता विश्वविद्यालय में प्राप्त की । कोलकाता से शिक्षा पाकर आप मुजफ्फरपुर स्थित बी0वी0 कॉलेजिएट स्कूल में नियुक्त हुए। जहां आप प्रधानाध्यापक के रूप में 1914 में सेवा आरंभ किया। इन्हीं दिनों भारत में स्वतंत्रता आंदोलन आरंभ हुआ और राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत होने के कारण 1921 में आपने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। इस कारण आपने विद्यालय छोड़ दिया। आप 1925 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर गया न्यायालय में वकालत करने लगे। वकालत करते हुए भी आपमें साहित्यिक अनुराग कूट कूट कर भरा रहा। 1918 में आपने लेखन कार्य आरंभ किया। आपकी अनेक  फुट रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई।
पंडित देव नारायण मिश्र  1910
गया जनपद में स्थित पंचानन पुर नाम गांव में पंडित शंकराचार्य मिश्र एवं माता तारा देवी के यहां 1910 ईस्वी में पंडित मिश्र का जन्म हुआ। आपने अपनी आरंभिक शिक्षा पूर्ण कर साहित्य, आयुर्वेद, दर्शन में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। उसके पश्चात् रांची संस्कृत कॉलेज में आयुर्वेद के प्राध्यापक के रूप में 1941 से 1954 तक अध्यापन किया। आप साहित्य में भी गहरी अभी रुचि रखते थे। आपकी अप्रकाशित कृतियां  हैं 1. नवभारतम् तथा 2. राष्ट्रमंगलम्।  नवभारतम् की भाषा सरल, सुगम और सहज बोधगम्य है। इसमें 500 श्लोक हैं। राष्ट्रमंगलम एकांकी गद्य-पद्य मिश्रित है। इसमें गीतों के द्वारा राष्ट्रीय मंगलगान किया गया है। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी रांची से भी आपके काव्यपाठ प्रसारित होते रहे हैं ।
देव नारायण त्रिपाठी 1866 से 1941 
गया जनपद के पुनपुन नदी के पवित्र तट पर पंडित देव नारायण त्रिपाठी का जन्म  1866 में हुआ इनके पिता का नाम राम चरण त्रिपाठी था। आपने टिकारी के पंडित विश्वेश्वर दत्त से व्याकरण शास्त्र की शिक्षा ली। इसके पश्चात् आप अध्ययन हेतु काशी चले गए। वहां पर आपने महामहोपाध्याय शिव कुमार शास्त्री एवं पंडित दामोदर शास्त्री के सानिध्य में रहकर व्याकरण का अध्ययन किया।अध्ययन के उपरांत आप श्रीचंद्र पाठशाला काशी में अध्यापन करने लगे। इसके पश्चात् मालवीय जी के आग्रह पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 1919 से व्याकरण प्राध्यापक पद पर नियुक्त होकर अध्यापन आरंभ किया। छह मास बाद ही सर गंगानाथ झा ने आपको अपने संस्कृत कॉलेज में व्याकरण पद पर बुला लिया। यहां पर आप 1920 से 1938 तक रहे। 1941 में आपका देहावसान हुआ। इनके द्वारा रचित ग्रंथ संप्रति उपलब्ध नहीं है।
पंडित भागवत प्रसाद मिश्र राघव 1892
पटना जिले के राघवपुर नामक गांव में पंडित भाई तेरा आज पंडित रघुनाथ मिश्र जी के यहां फाल्गुन कृष्ण शास्त्री बुद्ध हुआ है सन 1892 में आपका जन्म हुआ आपकी अपने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से ही प्राप्त की उसके बाद आपने अनेक विषयों की योग्य विद्वानों से आयुर्वेद तथा ज्योतिष का गहन अध्ययन किया 12 वर्ष की अवस्था में आपने काव्य रचना आरंभ कर दी । संस्कृत और हिंदी की काव्य रचना समान रूप से करते थे, जिसके कारण टिकारी महाराज ने आपको कविंद्र उपाधि से अलंकृत किया गया। पटना तथा आसपास के जिलों में आप की गणना एक अच्छे कवि के रूप में होने लगी।  आपका गया से रागात्मक संबंध हो गया था जिसके कारण आप गया के बहुआरा चौरा नामक मोहल्ले में स्थाई रूप से रहने लगे। आपने चार ग्रंथों की रचना की उद्धव चंपू आचार आदर्श सूक्ति विकास रस मंजूसा इसके अलावा आपके ड्रिंक च खंड में भी चर्चित है।
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र 1868-1905
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र का जन्म पटना मंडल के अंतर्गत राघवपुर में सन् 1868 में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी बुधवार को हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित वैद्यनाथ मिश्र था। संस्कृत माध्यम से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत आप उच्च अध्ययन हेतु वाराणसी चले गए। वाराणसी में आपने दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया। आपकी सर्जनात्मक प्रतिभा छात्र जीवन से ही थी। आपकी संस्कृत रचनाएं सरल और श्रृंगार पूर्ण हैं। आचर्याचारादर्शरस मंजूषा तथा सुभाषितभूषणम् यह तीन ग्रंथ आपके प्रकाशित हैं। उद्धव चंपू नामक चंपू काव्य का सम्पादन कर आपने चंपू काव्य साहित्य को समृद्ध किया है। इसके अतिरिक्त हिंदी तथा ब्रज भाषा में भी आपने विविध रचनाएं की। आपका देहांत 1905 ईस्वी में भाद्र शुक्ल नवमी को हुआ ।
पंडित रघुनंदन त्रिपाठी
जहानाबाद जनपद के कल्याणपुर नामक गांव में पुनपुन नदी के पावन तट पर पंडित रामफल त्रिपाठी के वात्सल्य भाजन में आपका जन्म हुआ। आपने व्याकरण एवं साहित्य में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। सेठ निरंजन दास मुरारका संस्कृत कॉलेज. पटना सिटी में आपकी नियुक्ति प्राध्यापक पद पर हुई। यहीं पर रहते हुए आपने महामहोपाध्याय पंडित हरिहर कृपालु द्विवेदी के जीवनी पर आधारित हरिहरचरितम् नामक  एक पुस्तक लिखी। पद्यमय इस काव्य में हरिहर द्विवेदी की जीवनी के साथ साथ मुरारका परिवार के वंश तथा उनकी उदारता की चर्चा भी की गयी है।
रामावतार मिश्र
पं. रामावतार मिश्र का जन्म पौष कृष्ण नवमी शुक्रवार विक्रम संवत् 1955 तदनुसार 13 जनवरी 1899 में इनके ननिहाल मखपा गाँव में हुआ था। आपका पैतृक गाँव गया मंडल के टिकारी नगर के निकट बेनीपुर है। ये शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। पिता पं0 वंशीधर मिश्र तथा 19 वर्षीय माता का प्लेग की चपेट में आने से देहान्त हो गया। मखपा में इनके नाना भगवानी मिश्र ने इनका देखभाल किया। 12 वर्ष के बाल्यकाल के बाद इन्होंने गया में शिक्षा ग्रहण किया। पुरानी गोदाम के लब्ध प्रतिष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण पं. ज्वाला प्रसाद द्विवेदी के संरक्षण में रहकर पं. देवताचरण के शिष्य बने। 1914 में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्वान्  1923 ईस्वी में आपने आचार्य के समकक्ष साहित्योपाध्याय की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् व्याकरणआयुर्वेद एवं ज्योतिष का गहन अध्ययन किया। पंडित रामावतार मिश्र ने लिखा है कि इनके गुरु कोई साधारण व्यक्ति नहींअपितु सरस्वती के अवतार थे और वह सभी शास्त्रोंसभी विषयोंसभी कलाओं के कोविद तथा रूपगुणशीलआचार-विचार लोकप्रियता आदि में लोकोत्तर थे। गुणग्राही मिश्र ने अपने गुरु के सारे गुणों को ग्रहण किया। महाकवि मिश्र अपने गुरु के परम भक्त थे। उनका विश्वास था कि इन्होंने जीवन में जो कुछ भी पाया है अथवा किया हैवह अपने परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से। इसी असीम भक्ति का फल महाकवि ने पाया भी है।
          1928 ईस्वी में आपने कान्यकुब्ज पाठशालागया में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। गया से प्रकाशित होने वाली रसिक विनोदिनी पत्रिका का आपने सफलतापूर्वक संपादन भी किया। जीवन के अंतिम समय में आप गुरूकुल महाविद्यालयगया में प्राचार्य के रूप में कार्य करते रहे। 24 जून 1984 में आपका देहावसान हो गया। आपने साहित्य सेवा करते हुए अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। 1982 तक आपके द्वारा रचित अनेक पांडुलिपियां अप्रकाशित रही। बाद में डॉ. शिवशंकर पंडित ने आपके समस्त कृतियों का संपादन कर प्रकाशित करवाया। आपके द्वारा रचित ग्रंथों के विवरण निम्नानुसार हैं-
1- श्रीदेवीचरित महाकाव्यम्
2- रुक्मिणी मंगलम्
3- कथाकाव्यसंग्रहः
 श्रीदेवीचरित महाकाव्यम् ग्रंथ 19 सर्गो में है। बीसवीं शताब्दी की यह अनुपम निधि है। इस महाकाव्य में भगवती महिषासुरमर्दिनी के चरित्र का गायन किया गया है। यह पुस्तक 1983 में रुक्मिणी प्रकाशनरांची से प्रकाशित हुआ।
रुक्मिणीमंगलम् एक महाकाव्य है। इसका प्रकाशन 1989 ईस्वी में रुक्मिणी प्रकाशनरांची से हुआ। इसके संपादक डॉ. शिवशंकर पंडित हैं। इसमें 14 सर्ग हैं। महाकाव्य की नायिका विष्णु पुत्री रुक्मिणी है। रुक्मिणी और कृष्ण के प्रेम का इसमें वर्णन किया गया है। रुक्मिणी प्रकाशन से इनकी अन्य पुस्तकें  भारतवर्षेतितिहासः कथाकाव्यसंग्रह (कथा काव्य संग्रह में छंदोबद्ध कृतियां संगृहीत की गई है) रसचंद्रिकाव्यंजनावृत्तिविचार,(व्यंजनोद्धारः) मधुश्रवा माहात्म्यसुरभारतीश्रीगुरुवंशवर्णनम्बन्धकाव्य भी प्रकाशित हुई है। 
कथाकाव्यसग्रहः में ग्यारह काव्यकृतियाँ हैं।-1. गणेशजन्म, 2. शिव-विवाहः, 3. दक्षयज्ञविध्वंशः, 4. श्मशानवासी हरिश्चन्द्रः, 5. कीचकवधः, 6. अशोकवर्तिनी सीता, 7. कृष्णाभिसारिका, 8.रूक्मिणीपरिणायः, 9. मानिनी राधिका 10. श्रीसीताप्रादुर्भावम्और 11. श्रीराधाचरितम्। इनमें प्रथम नौ काव्यों का रचना काल 1937 है और अन्तिम दो का 1982 0 सुविधा को ध्यान में रखकर इन कथाकाव्यों का प्रकाशन अलग-अलग नहीं करके एक साथ किया गया। औैर इस पुस्तक का नाम रखा गया कथाकाव्यसंग्रह।
          कथाकाव्य से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से हैजिसमें कवि पुराण अथवा इतिहास से किसी कथानक को लेकर अपनी कल्पना का पुट देते हुए काव्य की रचना करता हैजो मौलिक कृति बन जाती है। मिश्र जी के सारे कथाकाव्य बेजोड़ है और ऐसी आशा की जाती है कि संस्कृत साहित्य के इतिहास में ये अद्वितीय स्थान रखेगें।
          श्रीगणेश जन्म में पार्वती ने शिव से पुत्र प्राप्त करने की प्रबल इच्छा प्रकट की है। फलस्वरूप शिव ने उन्हें पुण्यक नामक व्रत करने की राय दी जिसमें अत्यन्त पवित्र श्रीकृष्ण की आराधना की जाती है। यज्ञ में अनेक विघ्न आयेकिन्तु श्रीकृष्ण की कृपा से यज्ञ की समाप्ति हुई और श्रीगणेश का जन्म हुआ। इस कथा का प्रधान रस श्रृंगार है। यह उपेन्द्रवज्रा छन्द में लिखा गया है। शिवविवाहः का प्रधान रस हास्य है। इसमें कवि ने दिखाया है कि किस तरह कन्या के माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित रहते हैं। बारात का स्वागत तन-मन-धन लगाकर करने पर भी कन्या पक्षवाले वर पक्षवालों को पूर्ण सन्तुष्ट नही कर पाते। जगदम्बा पार्वती के विवाह में कौन-कौन सी कमी थी ? नाना  प्रकार के उत्तमस्वादिष्ट एवं मधुर खाद्य वस्तुएँ हिमालय के द्वारा भेजी गयींकिन्तु शिवगण असन्तुष्ट ही रहे। उनलोगों ने शिकायत करते हुए कहा -
          न ही विजया न तमालदलानि न हि कनकस्य च मूलफलानि।
          इह न हि धूमजटा अहिफेनो गृहमिदमस्ति महाकृपणस्य।।55।।

          दक्षयज्ञविध्वंशः में दक्षपुत्री सती अपनेे पति की बात नहीं मान कर हठवश अपने पिता के घर यज्ञ देखने जाती हैं। हठ का परिणाम तो बुरा होना ही था। उन्हें पिता ने अपमानित किया और और उनके पति के सम्बन्ध में भी उन्होनें अभद्र बातें कहीं। सती से नहीं सहा जा सका और उन्होनें अपनें प्राण त्याग दिये। इसके पश्चात शिव एवं उनके गणों के द्वारा यज्ञ का विध्वंश होना ही था। इस कथा काव्य में पति की अवज्ञा कर मैके जाने का दुष्परिणाम दर्शाया गया है। यह प्रमाणिका छन्द में लिखा गया है। श्मशानवासी हरिश्चन्द्रः वितृष्णापूर्ण वीभत्स रस का सुन्दर उदाहरण हैै। इसमें सत्यनिष्ठ हरिशचन्द्र की अन्तिम परीक्षा की कथा है। श्मशान का जीता-जागता चित्र कवि ने प्रस्तुत किया है। अन्त में सत्य की जीत होती है। इस कथा का छन्द है शार्दूलविकीडित। कीचकवधः का प्रधान रस है भयानक। विराट के घर में अज्ञातवास के समय पतिव्रता द्रौपदी पर कीचक के अनुरक्त होने तथा भीम द्वारा उसके वध की कथा इस कथाकाव्य में है। इसमें स्त्रियों के गहन एवं दुर्बोध चरित्र का भी वर्णन है। यह काव्य उपेेद्रवज्रा छन्द में लिखा गया है। अशोकवर्तिंनी सीता का प्रधान रस है करूण और छन्द है वियोगिनी। इसमें अशोकवाटिका में निशाचरियों द्वारा सीता की प्रताड़ना दिखाई गयी है। जीवन से ऊब कर भगवान् राम का नाम लेती हुई सीता अपने लम्बे केशों से फाॅंसी लगाने को उद्यत होती हैंकिन्तु इसी बीच हनुमान जी ने आ कर उनकी रक्षा की। उपजाति छन्द में रचित कृष्णाभिसारिका किसी कृष्णाभिसारिका नायिका की कथा है। कामविह्वाला नायिका भयानक अंधेरी रात में निर्भीक अपने प्रियतम से मिलने जाती है और मिल कर अत्यन्त प्रसन्न होती है। इस कथाकाव्य का प्रधान रस है श्रृगांर । वसन्ततिलक छन्द में रचित रूक्मिणीपरिणयः रूक्मिणी एवं कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेम की कथा है। रसिकशिरोमणि कृष्ण ने रूक्मिणी के अगाध प्रेम को देख कर उनका हरण कर लिया और बेचारा रूक्मी अपमानित हो कर घर वापस लौट आया। इस कथाकाव्य में श्रृगांर एवं वीर रसों का समन्वय दिखलाया गया हैमानिनी राधिका का प्रधान रस है श्रृगांर और यह उपेन्द्रव्रज्रा छन्द में लिखा गया है। ‘ललिता‘ शब्द सुनते ही राधा क्रोध से लाल हो जाती है और अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को फटकार देती है। श्रीकृष्ण के चले जाने पर राधा बेहाल हो जाती है। मालिन का वेश धारण कर श्रीकृष्ण राधा से एकान्त निकुंज में मिलते हैं। राधा का मान तो भंग हो ही चुका था। रामांचित एवं स्वदेशयुक्त तन्वंगी राधा को श्रीकृष्ण ने आलिंगित किया है। श्री सीताप्रादुर्भावम् में सीता के रुप में पराशक्ति के प्रादुर्भाव की कथा है। महाविष्णु के अवतार राम की पत्नी बनकर सीता ने भारत की रक्षा करने में तथा रावण के विनाश में उनकी सहायता की। लव और कुश नामक दो पुत्रों को जन्म देकर वह पृथ्वी के गर्भ द्वार के बाहर से अपने धाम चली गई। यह काव्य उपजाति छंद में विरचित है। वियोगिनी छंद में रचित श्रीराधाचरितम् श्री कृष्ण एवं राधा में प्रेम एवं भक्ति की अपूर्व कथा है। पृथ्वी पर कपटपरपीडनहत्याचोरीलूटआपसी कलहवाक्कटुता आदि का व्यवहार देख आदिशक्ति समस्त विश्व के कल्याण के लिए राधा नाम से अवतरित हुई। इन्होंने श्रीकृष्ण का साथ दिया और दोनों मिलकर मानवीय लीला करते रहे। दुष्टों का विनाश कर राधा ने संसार में शांति स्थापित की। अंत में तो महाकवि ने यह रहस्य खोल ही दिया है कि श्री कृष्ण एवं राधा जी हरि के ही दो रूप है।
          कवि रामावतार मिश्र का काव्य  सरस्वती का श्रृंगार है। इनकी सारी रचनाएं सरलताप्रसाद गुणअर्थसौष्ठव एवं अलंकारों के मंजुल प्रयोग से भरी है।  पंडित मिश्र का अनुभव बड़ा व्यापक हैसाथ ही उनमें जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता भी। श्री मिश्र  मर्मस्पर्शी शब्दों के चयन में प्रवीण तो है ही इनमें अपूर्व भावुकता भी है।
       पंडित मिश्र की लेखन प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार तथा श्रीदेवीचरित महाकाव्यम् पर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी सम्प्रति संस्थान के द्वारा वर्ष 1983 के कालिदास पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
पंडित राजेश्वर प्रसाद मिश्र 1906
औरंगाबाद जिले के चैनपुर नामक ग्राम में पंडित भूदेव मिश्र के यहां 10.10. 1906 को पंडित राजेश्वर प्रसाद मिश्र का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके उपरांत आप पढ़ने के लिए गया एवं कोलकाता गए। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद पंडित मिश्र 1931 से 1935 तक अपने गांव के बच्चों को संस्कृत पाठशाला में शिक्षा देते रहे। 1935 ईस्वी में आपने संस्कृत महाविद्यालय, रांची में प्राचार्य पद पर पदभार ग्रहण किया। राजकीय संस्कृत उच्च विद्यालय में 1966 तक प्रधानाचार्य के रूप में आप कार्यरत रहे। आपने छोटा नागपुर के पठारी भूभाग में हजारों लोगों को संस्कृत विद्या सिखाई। कवि प्रतिभासंपन्न पंडित मिश्र जी की लेखनी कभी नहीं चल पाई। पत्र-पत्रिकाओं में आपके स्फुट पद्य देखने को मिलता है। विजयोपहार नामक एक पद्यमाला पंडित दिनेश प्रसाद पांडे के अभिनंदन में शिखरिणी नामक पत्रिका में इस प्रकार प्रकाशित हुई-
सारण्यं शुभमंडलं बुधवरैर्युक्तं बिहारे भवेत्
सीमान्तं च लवीनमदुत्तमं जातं तदन्तर्गतम्।--
पंडित रुद्रनाथ पाठक
औरंगाबाद जिले के देव ग्राम निवासी पंडित वैद्यनाथ पाठक के यहां आपका जन्म हुआ। आपने आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में प्राप्त की, उसके बाद आपने उच्च शिक्षा प्राप्त किया। आपने अपनी मेधा का परिचय भारतीयरत्नचरितम् नामक ग्रंथ को लिखकर दिया है। यह ग्रन्थ प्रकाशित है
डॉ. शिव शंकर पंडित 1933
गया जिले के सेनारी गांव में 20.8 1935 को डॉ.पंडित का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव में हुई। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण आपने मैट्रिक से लेकर एम.ए अंग्रेजी तक की परीक्षा स्वतंत्र छात्र के रूप में दी। आपने मगध विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। डॉक्टर पंडित 16 वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में पढ़ाते रहे उसके बाद 1970 में संत जेवियर्स कॉलेज रांची में अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक बने। आंग्लभाषाविद् होते हुए भी आपमें संस्कृत के प्रति अत्यंत ही अनुराग था। आपने महाकवि रामावतार मिश्र की सभी पांडुलिपियों का सफल संपादन कर रुक्मणी प्रकाशन से प्रकाशित कराया तथा उसकी टीका भी आपने लिखा। आप रुक्मणी प्रकाशन के संस्थापक हैं। 
पं. शिव प्रसाद पांडे सुमति 1876-1938
शिव प्रसाद पांडे सुमति का जन्म फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी,रविवारसन् 1876 में पटना के रानीघाट मुहल्ले में हुआ था। आपके पिता का नाम पं. संजीवन पाण्डेय था। आपने अपने अग्रज तथा अम्बिकादत्त व्यास से शिक्षा ग्रहण किया। आप काव्य विधा में भी सफल लेखक कवि प्रतिभा संपन्न संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। पटना कॉलेज पटना के प्राध्यापक पंडित कन्हैया लाल त्रिपाठी से आपने काव्य पुराण एवं उपनिषद की शिक्षा पाकर  इन विषयों में कोलकाता से उपाधि ग्रहण की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् आपने कई उच्च विद्यालयों में संस्कृत के अध्यापक पद पर कार्य किया। सन् 1920 ईस्वी में आपने पाटलिपुत्र नामक साप्ताहिक पत्र में सहायक संपादक का कार्य किया। सन् 1921 ईस्वी में खड्ग विलास प्रेस, पटना में प्रधान पंडित के रूप में कार्य किया। ऋतुसंहार का गद्य पद्यात्मक अनुवाद  के साथ संस्कृत साहित्य में आपकी निम्नलिखित रचनाएं हैं-
 शिवमहिम्नस्तोत्र टीका सहित
 गौतमाश्रमोपाख्यान काव्य
 नित्य तर्पण पद्धति
 आपका निधन  31 अक्टूबर 1938 को हुआ। 
आचार्य सत्यव्रत शर्मा सुजन 1912-1986
आचार्य सत्यव्रत शर्मा सुजन का जन्म पटना जिले के खगौल मुस्तफापुर ग्राम में हुआ था। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की ही पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने एम.ए संस्कृत से उच्च शिक्षा प्राप्त की। आप टी0एन0बी0 कॉलेज, भागलपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आपने 1942 से 1949 तक भागलपुर में रहते हुए        1. युगशतदलम् 2. महाभाष्य मंथनी ग्रंथों की रचना की। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी पटना से आपके अनेक संस्कृत निबंध प्रसारित हुए।
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