संस्कृत सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तर तथा श्लोकों का संग्रह

संस्कृत प्रतिभा खोज की प्रतियोगिता में एक प्रतियोगिता होती है - संस्कृत सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता। इस प्रतियोगिता में तीन तरह के प्रश्न आते हैं।

1. जनपद की प्रतियोगिता में संस्कृत भाषा दक्षता

2. मंडल की प्रतियोगिता में संस्कृत भाषा दक्षता के साथ संस्कृत सामान्य ज्ञान ।

3. राज्य स्तर पर संस्कृत भाषा दक्षता, संस्कृत सामान्य ज्ञान के साथ संस्कृत विषयों का सामान्य ज्ञान।

👉 संस्कृत भाषा दक्षता में वर्ण ज्ञान, शब्दकोश, पर्यायवाची, विलोम शब्दविशेष्य-विशेषण, शब्दरूप, धातु रूप, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियालकार परिवर्तनअव्यय तथा उपसर्ग के साथ संस्कृत में वाक्य निर्माण से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं।

👉 स्मरण रहे कि इन प्रश्नों को अनेक बोर्ड की पाठ्यपुस्तक के आधार पर बनाया गया है। सामान्य ज्ञान की प्रतियोगिता की तैयारी में बोर्ड की संस्कृत पुस्तकें सहायक सिद्ध होगी। इन प्रश्नों के द्वारा विद्यार्थियों में भाषा दक्षता और भाषा नियमों की समझ का मूल्यांकन किया जाता है।

👉 मंडल स्तर की प्रतियोगिता में दो खंडों में प्रश्न होते हैं। 

प्रथम खंड में संस्कृत से जुड़ी सामान्य जानकारी यथा- संस्कृत संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, पुस्तकालयों के परिचय तथा उनके कार्य, विभिन्न संस्थाओं का संस्कृत में ध्येय वाक्य, गीत और गीतकार, पुरस्कार, जयन्ती, चलचित्र, समाचार पत्र, संस्कार, आयोजन, व्रत पर्वों की तिथियाँ तथा संस्कृत ई-अध्ययन से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाते है।

द्वितीय खंड में संस्कृत भाषा दक्षता से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं। इसमें कारक द्वारा वाक्य निर्माण तथा अशुद्ध वाक्य को शुद्ध करना पूछा जाता है।

👉 राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में तीन खंडों में प्रश्न होते हैं- 

प्रथम खंड में व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष आदि विषयों से जुड़े प्रारंभिक स्तर के प्रश्न पूछे जाते हैं।

द्वितीय खंड में संस्कृत सामान्य के प्रश्न होते हैं।

तृतीय खंड में संस्कृत भाषा दक्षता से सम्बन्धित प्रश्न होते हैं। इसमें सुबन्त, कृदन्त तथा तद्धित प्रत्ययों का उपयोग करते हुए वाक्य निर्माण तथा अशुद्ध वाक्य को शुद्ध करना पूछा जाता है।


👉 प्रतियोगिता की तैयारी तथा नमूना प्रश्न पत्र अधोलिखित लिंक पर उपलब्ध हैं। रंगीन अक्षर में लिखे पंक्ति पर क्लिक कर प्रतियोगिता की तैयारी करें।

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जनपदस्तरीय प्रतियोगिता की तैयारी के लिए

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संस्कृत सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तर (खंड 1) भाषा दक्षता ज्ञान

https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/1.html


मंडलस्तरीय प्रतियोगिता की तैयारी के लिए

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संस्कृत सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तर (खण्ड 2) संस्कृत सामान्य ज्ञान

https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/2_1.html


राज्यस्तरीय प्रतियोगिता की तैयारी के लिए

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संस्कृत सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तर (खंड 3) विषय ज्ञान

https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/3_4.html


श्लोकान्त्याक्षरी प्रतियोगिता

श्लोकान्त्याक्षरी प्रतियोगिता की तैयारी के लिए श्लोकों के संग्रह को आपकी सुविधा के लिए 5 भागों में विभाजित किया गया है। जिसमें - स्वर वर्ण, कवर्ग तथा चवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, श ष स ह अक्षर से आरंभ होने वाले श्लोक हैं। 

👉 जहाँ लिंक पर क्लिक करें लिखा है, उसपर क्लिक करें। क्लिक करते ही मोबाइल में open with के साथ Drive तथा chrome में खोलने का दो विकल्प खुलकर सामने आएगा। 

👉 आप chrome विकल्प का चयन करें। 

👉 Drive विकल्प का चयन करने पर कुछ ही श्लोक पढ़ने को मिलेगा। इसके लिए आपको Google sheets डाउनलोड करना पड़ेगा।

श्लोकान्त्याक्षरी प्रतियोगिता की तैयारी करने हेतु लिंक पर क्लिक करें

https://docs.google.com/spreadsheets/d/1ezQyE5xqEuo4XlnaFwNZUTFFXlG1BdHfi8w-LvdfA-o/edit?usp=sharing


संस्कृत सामान्य ज्ञान राज्यस्तरीय प्रतियोगिता 2023 में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर

https://sanskritbhasi.blogspot.com/2023/10/2023.html


संस्कृत सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी सभी स्तर के लिए नमूना प्रश्न पत्र

https://sanskritbhasi.blogspot.com/2023/07/blog-post.html

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गदाधर त्रिपाठी कृत वाग्विलास काव्य की समीक्षा

 
नई शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में आधुनिक संस्कृत साहित्य को रखा गया है। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी के एम. ए. संस्कृत साहित्य, चतुर्थ सेमेस्टर में डॉ. गदाधर त्रिपाठी की पुस्तक "वाग्विलास" का 1 से 25 श्लोक पाठ्यक्रम में है। मुझे इस विश्वविद्यालय के पाठ्यचर्या को देखकर महान आश्चर्य हुआ कि पाठ्यचर्या के संयोजक ने बिना पुस्तक देखे ही पुस्तक के 1 से 25 श्लोक को पाठ्यक्रम में रखा दिया। तथ्य यह है कि वाग्विलास के किसी भी  विलास में 1 से 25 श्लोक नहीं मिलते हैं। इस संबंध में मैंने पुस्तक के लेखक डॉ. त्रिपाठी से भी बात किया। उन्होंने इस संबंध में अभिज्ञता प्रकट की है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यहां का पाठ्यक्रम बनाते समय पुस्तक के लेखक गदाधर त्रिपाठी अथवा मूल पुस्तक को क्यों नहीं देखा गया?

यह पाठ्यक्रम बनाने वाले की त्रुटि है । आशा है विश्वविद्यालय इस त्रुटि को सुधार करेगा।



अग्निः

सृष्टेरादिशब्दस्त्वग्निरेव हि स्वीकृतः।

तेनैव ऋग्वेदे चाग्निमीडे पुरोहितम् ।।1।।

अग्निरेव च ऊर्जाया आदिस्रोतश्च स्वीकृतः ।

व्याप्तोऽयं सर्वक्षेत्रेषु प्रकाशकोऽपि च सर्वदा।।2।।

अर्थ- अग्नि ही ऊर्जा का मूल स्रोत माना जाता है। वह सभी क्षेत्रों में व्याप्त है और सदैव वस्तु को प्रकाश में लाता है।

टिप्पणी- लेखक ने प्रस्तुत श्लोक में अग्नि को ऊर्जा का मूल स्रोत कहा है। वस्तुतः अग्नि को ही ऊर्जा कहा जाता है। पार्थिव तत्व, जल से जिस तरह ऊर्जा उत्पन्न किया जाता है, वैसे अग्नि से ऊर्जा उत्पन्न नहीं होता। अग्नि से ऊर्जा को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। पञ्च महाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) में अग्नि (तेज) एक महाभूत है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार ऊर्जा का दो रूप है। 1. नित्य 2. अनित्य । नित्य ऊर्जा परमाणु रूप है। विषय रूप में स्थित  अनित्य ऊर्जा (अग्नि) के 4 भेद अथवा स्रोत हैं। भौम, दिव्य, उदर्य तथा आकरज । भौम अर्थात् भूमि तत्व से उत्पन्न अग्नि। भौम को ही भौतिक विज्ञान में जीवाश्म इंधन कहा जाता है। वायोमास भी भौम इंधन है। जलीय इंधन को दिव्य कहा है। दिव आकाश का नाम है। वैशेषिक दर्शन में बादलों के टकराने से उत्पन्न ऊर्जा को दिव्य तेज कहा गया। जल विद्युत भी दिव्य तेज के अन्तर्गत आता है। भोजन को पचाने वाली आग उदर्य है। स्वर्ण आदि धातुओं में विद्यमान चमक आकरज है। लकड़ी, कोयला, पेट्रोल की तरह स्वर्ण को जलाने या तपाने पर यह नष्ट नहीं होता।  भौतिक विज्ञान में ऊर्जा के स्रोत में रसायनिक, चुम्बकीय, जीवाश्म इंधन, तापीय विद्युत, जल विद्युत, पवन, सूर्य, ज्वार भाटा, नाभकीय, भूतापीय आदि ऊर्जा है।

इस तरह हमने जाना कि ऊर्जा का स्रोत जीवाश्म, सूर्य, जल, परमाणु आदि है । जिस स्रोत का उपभोग कर ऊर्जा उत्पन्न होती है, उस स्रोत का पुनः उपभोग नहीं किया जा सकता अतः अग्नि ऊर्जा का स्रोत नहीं है। इस तरह लेखक द्वारा स्थापित सिद्धान्त पोषणीय नहीं है।

सृष्टौ पञ्चभूता येऽग्निस्तेष्वपि समन्वितः।

अग्निना पच्यते सर्वं सृष्टिश्चलति सर्वदा।।3।।

अर्थ- सृष्टि में जो पांच तत्व हैं, उनमें अग्नि भी जुड़ी हुई है। आग से हर चीज़ पकती है और सृष्टि हमेशा गतिशील रहती है।

सर्वेभ्यश्च देवेभ्यः कार्यमेकं सुनिश्चितम्

अग्निदेवस्त्वेको हि प्रकाशकः पाचकस्तथा ।।4 ।।

अर्थ- और सभी देवताओं के लिए एक कार्य निश्चित है। एकमात्र अग्नि देवता हैं जो प्रकाश देते हैं और भोजन पकाते हैं।

बडवानलो हि व्याप्तोऽस्ति सागरे नु वै चोर्मिषु।

जठरानलश्च य उदरे पाचकः स्वास्थ्यवर्धकः ।।5।।

यज्ञाद्भवन्ति पर्जन्यः पर्जन्यादन्न सम्भवः।

अग्निं विना न यज्ञस्य हि कल्पना भवति कदाचन ।।6 ।।

हुतं प्राप्नुवन्ति देवा वै अग्निर्वहति सर्वदा।

सुरक्षितमस्ति देवानां देवत्वं सर्वथा हि वै।।7।।

प्रकाशकैश्च किरणैश्चोर्ध्वं गच्छति सर्वथा।

तेजस्विनाञ्च गमनं ह्योर्ध्वं भवति निश्चितम् ।।8।।

शास्त्रेषु त्रिविधोऽग्निर्वर्णितः विद्वद्भिस्तदा ।

गृहेषु स्थापनीयो हि कल्याणप्राप्तये सदा।। 9 ।।

स्वाहाग्नेः पत्नी खलु भारतनाम्ना प्रतिष्ठितः ।

त्रयो पुत्रा अभवन् वै प्रचलिताग्नेः परम्परा ।।10।।

यज्ञाद्भवन्ति पर्जन्यः पर्जन्यादन्न सम्भवः।

अग्निं विना न यज्ञस्य हि कल्पना भवति कदाचन ।।11।।
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मंत्ररामायण

     यदि आपसे यह कहा जाय कि राम कथा का बीज वेद में दिखाई देता है । वेद ग्रन्थों में विशेषकर ऋग्वेद के मंत्रों से राम कथा निकली है । रामायण में उन्हें कहानी का रूप दिया गया तो सहज विश्वास नहीं होगा। नीलकण्ठ नामक विद्वान् ने ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों में से १५५ ऐसे मन्त्रों को पहचाना, जो कि रामकथापरक अर्थ को व्यक्त करते हैं। इन मंत्रों को 'मन्त्ररामायण'  नाम दिया। वाल्मीकि ने इन्हीं मंत्रों को एक कथानक के रूप में विस्तार देकर रामायण नामक ग्रन्थ की रचना की। रामकथा से सम्बन्धी उपलब्ध समस्त साहित्य का उपजीव्य आदिकवि महर्षि वाल्मीकि प्रणीत 'रामायण' को माना जाता  है। सूक्ष्म रूप से देखें तो रामकथा का उपजीव्य वाल्मीकिकृत रामायण न होकर वेद हैं। वाल्मीकि ने कथानक के रूप में उनका विस्तार मात्र किया है। कुछ विद्वान् रामायण को रामकथा का वर्णन करने वाला धार्मिक ग्रन्थ न मानकर 'महाकाव्य' मानते हैं। इसमे चौबीस हजार श्लोक हैं। यह प्राणिमात्र के जीवन के विविध पक्षों को उपकृत करती है। इस लेख में आपको मंत्ररामायण, रामायण, रामकथा तथा नीलकण्ठ के बारे में जानकारी दिया गया है।

      रामायण-महाभारत-पुराणादि का प्रमाण प्रस्तुत करने के पीछे उनकी वेदमूलकता ही कारण है। यह परम्परा इन सभी को वेदार्थविस्तारक के रूप में मान्यता प्रदान करती है अर्थात् ये सब वेदत्तत्त्व का व्याख्यान करते हैं- 'इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।' भारतीय मनीषा वेदों को अनादि और ईश्वर के निःश्वास के रूप में मानती हैं।' आधुनिक विद्वान् भी वेद को विश्व का प्राचीनतम वाड्मय मानते हैं। वेद केवल धर्म के ही मूल' नहीं अपितु समस्त भारतीय वाड्मय के मूल हैं। अतः रामकथा का बीज वेद में है । वेद को रामकथा का (मूल) उत्स माना जाता है ।

      आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं ही रामायण को वेदमूलक स्वीकार किया है। वे इसे वेदतत्त्व का उपबृंहण मानते हुए कहते हैं कि यह रामायण महाकाव्य समस्त वेदानुकूल है। यह सम्पूर्ण पापों का प्रशमन तथा दुष्टग्रहों का निवारण करने वाला है-

रामायणं महाकाव्यं सर्ववेदेषु सम्मतम् ।

सर्वपापप्रशमनं दुष्टग्रहनिवारणम् ।।

रामकथा की वेदमूलकता का उद्घोष करते हुए रामायण में ही स्पष्टतः कहा गया है-

कुशीलवौ तु धर्मज्ञौ राजपुत्रौ यशस्विनौ।

भ्रातरौ स्वरसम्पन्नौ ददर्शाश्रमवासिनौ ।।

स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ।

वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः ।।

काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत् ।

पौलस्त्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः ।।

अर्थात्, यशस्वी, धर्मज्ञ, मधुरस्वर वाले और आश्रम में निवास करने वाले दोनों भाइयों-राजकुमार कुश और लव को मेघावी तथा वेदनिष्ठ जानकर महर्षि वाल्मीकि ने वेद का अर्थ-विस्तार करने के लिए सीता के महान् चरित्र से युक्त रावण वध नामक महाकाव्य का समग्रतया अध्ययन दोनों भाइयों को कराया।

      उपर्युक्त कथन से प्रमाणित होता है कि वाल्मीकि ने रामायण की रचना वेद का उपबृंहण (अर्थ-विस्तार) करने के लिए ही की है। 'मन्त्ररामायण' के प्रथम श्लोक (मङ्गलाचरण) की स्वोपज्ञ व्याख्या में भी नीलकण्ठ ने उपर्युक्त (वाल्मीकिरामायण के) श्लोकों को उद्धृत करते हुए रामकथा की वेदमूलकता सिद्ध की है। इसी प्रसङ्ग में उन्होंने अगस्त्यसंहिता के अधोलिखित वचन को भी उद्धृत किया है-

 वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।

वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद्रामायणात्मना।

तस्माद् रामायणं देवि वेद एव न संशयः ।।

 अर्थात्, वेदैकगोचर परमात्मा, जब दशरथ के पुत्र राम के मानव रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए तब प्रचेतापुत्र वाल्मीकि के मुख से रामायण के रूप में साक्षात् वेद भी प्रकट हुए। अतः, हे देवि ! रामायण वेद ही है-इनमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

      रामकथा के कुछ पात्रों के नाम वैदिक वाड्मय (संहिता, ब्राह्मण एवम् उपनिषद्) में यत्र तत्र पाये जाते हैं किन्तु न तो वहाँ उनका वह रूप है जो रामकथा में प्रसिद्ध है और न ही कोई क्रमबद्ध रामकथा ही है। यह सर्वविदित है कि राम का अवतार (जन्म) प्रसिद्ध इक्ष्वाकुवंश में हुआ था। इक्ष्वाकु का उल्लेख ऋग्वेद के दशम मण्डल में हुआ है- 'यस्येक्ष्वाकुरूपव्रते रेवान् भराय्येधते' इक्ष्वाकु का नामोल्लेख अथर्ववेद में भी एक बार हुआ 'त्वा वेद पूर्वं इक्ष्वाको यम्। दशरथ का उल्लेख ऋग्वेद में एक बार प्राप्त होता है-'चत्वारिंशद् दशरथस्य शोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति। अश्वपति केकय का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण और छान्दोग्योपनिषद् में हुआ है और दोनों स्थलों पर प्रसङ्ग समान है।

      जनक का उल्लेख वैदिक वाङ्मय में ब्रह्मवादी राजर्षि के रूप में हुआ है तथा वे ब्रह्मोद्य सभाओं में महर्षि याज्ञवल्क्य के साथ उल्लिखित हैं। शतपथ ब्राह्मण के चार स्थलों पर तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में एक स्थल पर जनक का उल्लेख हुआ है । बृहदारण्यक उपनिषद् में भी जनक का उल्लेख है।

      रामायण को 'गायत्रीबीज' कहकर नीलकण्ठ ने रामायण की वेदमूलकता प्रतिष्ठित की है। तत्पश्चात् 'रामरक्षास्तोत्र' की योजना करके उसकी व्याख्या के माध्यम से भी रामकथा के वेदमूलकत्व को स्थापित किया है। 'मन्त्ररामायण' का मूल कलेवर १५७ मन्त्रों द्वारा निर्मित है। मुख्य रूप से ऋग्वेद के विभिन्न सूक्तों से स्वाभीष्ट अर्थ को व्यक्त करने वाले १५५ मन्त्रों को सङ्कलित किया गया है। एक मन्त्र (क्रम सं. ६५) वाजसनेयि संहिता से उद्धृत है और एक मन्त्र (क्रम सं. १५६) किसी अन्य संहिता से ग्रहण किया गया है।

      'मन्त्ररामायण' की रचना वस्तुतः नीलकण्ठ की वेद के प्रति अगाध श्रद्धा और रामकथा के प्रति उनकी असीम भक्ति का प्रतिफल है। ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों में से ऐसे १५५ मन्त्रों का चयन करना, जो रामकथापरक अर्थ को व्यक्त करने वाले हों, कोई साधारण कार्य नहीं है। इसके लिए नीलकण्ठ को अपूर्व श्रम करना पड़ा होगा; किन्तु जब सामने महान लक्ष्य हो तो मनस्वी पुरुष श्रम-श्रान्ति की परवाह किये बिना उसमें लग जाता है और सच बात तो यह है कि जब मन रम जाता है तो श्रम की अनुभूति होती ही नहीं। फिर मन नीलकण्ठ का रमा कहाँ? राम में और वेद में। जब दोनों हाथ में लड्डू हों तो व्यक्ति की प्रसन्नता कितनी होगी- यह सहज ही अनुमेय है। निश्चय ही, इस कर्तृत्व के द्वारा नीलकण्ठ का श्रेय और प्रेय दोनों सिद्ध हुआ। मन्त्ररामायण, नीलकण्ठ की असाधारण प्रतिभा, उत्कृष्ट धारणा शक्ति, असीम धैर्य, उदात्त भक्ति, अप्रतिम कर्मनिष्ठा और दृढ़ सङ्कल्प का परिचायक है। विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति में लिखे गये पृथक् पृथक् मन्त्रों को रामकथा के प्रसङ्गोचित क्रम में सुयोजित कर उससे रामकथा के बीजरूप वैदिक स्वरूप का आकार प्रदान करना, स्वयं में एक अद्भुत सारस्वत अनुष्ठान है। रामकथा की वेदमूलकता सिद्ध करने के लिए समर्पण भाव से किए गए इस महनीय कर्तृत्व की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम ही है।

      यदि नीलकण्ठ ने मन्त्ररामायण के रूप में इन मन्त्रों को सङ्कलित करने मात्र से ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली होती, तो सम्भवतः उनका उद्देश्य और मन्त्ररामायण का प्रयोजन पूरा न होता। क्योंकि सङ्कलित मन्त्र तो भिन्न वैदिक अर्थ वाले हैं। अतः उन मन्त्रों मे निहित रामकथा के तत्तत् प्रसङ्गों को उद्घाटित करने के लिए उन्होंने मौलिक मेधा के बल से 'मन्त्ररहस्यप्रकाशिका' नामक स्वोपज्ञ व्याख्या लिखकर रामकथाभक्त जिज्ञासु अध्येताओं का अपूर्व उपकार किया है। यदि मन्त्ररामायण की यह नीलकण्ठी टीका न होती तो रामकथापरक गूढ़ मन्त्रार्थ को समझना अत्यन्त दुष्कर होता। यद्यपि (मेरी निष्पक्ष) धारणा है कि नीलकण्ठ द्वारा किए गए मन्त्रार्थ शब्दशक्तियों के साथ संघर्ष करके ही प्राप्त किए गए हैं और उन्हें सहज तथा प्रसन्न अर्थ नहीं कहा जा सकता तथापि श्रीरामप्रभु का प्रसाद मानकर उन्हें शिरोधार्य करना ही समीचीन है। अनुमान है कि नीलकण्ठ ने मन्त्ररामायण की रचना उन प्रतिपक्षियों का मुंह बन्द करने के लिए की होगी, जो रामकथा को वेदमूलक नहीं मानते होंगे। मन्त्ररहस्यप्रकाशिका के उपोद्घात में अपने उद्देश्यगत विषय को स्पष्ट करने का पूर्णतः प्रयास करते हुए उन्होंने स्पष्टतः कहा है - "नैष स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यतीति न्यायेन त्वयि वेदार्थानभिज्ञे सति न रामायणमपराद्धयति ।।" यही कारण है कि आग्रह विशेष (हठ) पूर्वक उन्होंने सायास मन्त्रों के अर्थ रामकथा परक किए हैं। मन्त्ररहस्यप्रकाशिका में अर्थ सम्बन्धी जटिलतायें स्पष्टतः देखी जा सकती हैं। नीलकण्ठ द्वारा की गयी शब्द-व्युत्पत्तियाँ भी अपूर्व ही हैं। अन्ततः हम कह सकते हैं कि मन्त्ररामायण अपनी तरह की अद्वितीय रचना है।

नीलकण्ठ चतुर्धर

'मन्त्ररामायण' के कर्ता का नाम नीलकण्ठ चतुर्धर है। इसके कर्तृत्व का प्रकाशन उन्होंने स्वयं मन्त्ररामायण के अन्त में स्वोपज्ञ टीका की समाप्ति में लिखी गयी पुष्पिका में किया है-

'इतिश्रीमत्पदवाक्यप्रमाणमर्यादाघुरन्धरचतुर्धरवंशावतंसगोविन्दसूरिसूनोः श्रीनीलकण्ठस्य कृतिः स्वोद्धृतमन्त्ररामायणव्याख्या मन्त्ररहस्यप्रकाशिकाख्या समाप्तिमगमत् ।।'

      इस उल्लेख के अनुसार इनके पिता श्री गोविन्दसूरि चतुर्धर (चौधरी) ब्राह्मणवंश के शिरोमणि थे। वे व्याकरण मीमांसा और न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान् थे। उनके नाम के आगे लगी 'सूरि' की उपाधि भी इनकी प्रकृष्ट विद्वत्ता का बोधक है। श्री नीलकण्ठ की माता का नाम फुल्लाम्बिका था और इनका परिवार गोदावरी तट पर स्थित कूर्पर ग्राम में निवास करता था। सम्प्रति यह स्थान महाराष्ट्र प्रान्त के अहमदनगर जनपद में 'कोपारगांव' नाम से जाना जाता है। कालान्तर में इनका कुटुम्ब कूर्पर ग्राम से आकर काशी में बस गया। विद्वानों ने श्री नीलकण्ठ की कृतियों के रचनाकाल के आधार पर इनका स्थितिकाल १६५० से १७०० ई. माना है। इनके पुत्र-पौत्रों का भी उल्लेख वंशमर्यादानुरूप अच्छे विद्वान् लेखकों के रूप में प्राप्त होता है।

       संस्कृत साहित्य में नीलकण्ठ एक उत्कृष्ट टीकाकार के रूप में विख्यात हैं। महाभारत पर 'भारतभावप्रदीप' नामक इनकी टीका अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती है, यह 'नीलकण्ठी' नाम से भी प्रसिद्ध है। नीलकण्ठ ने इस टीका को लिखने से पूर्व, महाभारत पर प्राप्त अपने पूर्ववर्ती टीकाकारों की प्रायः सभी टीकाओं को यत्नपूर्वक प्राप्त कर उनका गहन अध्ययन किया था तथा महाभारत के मूलरूप को प्रकाशित करने के उद्देश्य से अपनी टीका में सर्वोपयुक्त पाठों का निर्धारण किया था-

'बहून् समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् 

कोशान् विनिश्चत्य च पाठमग्र्यम् ।

प्राचां गुरुणामनुसृत्य वाचमारभ्यते भारतभावदीपः ।।'

      इन्होंने अपने 'भारतभावप्रदीप' में महाभारत के पूर्ववर्ती प्रमुख टीकाकारों - देवबोध, विमलबोध, अर्जुनमिश्र, रत्नगर्भ, सर्वज्ञनारायण आदि का उल्लेख करते हुए उनके द्वारा स्वीकृत पाठों को उद्धृत किया है।' महाभारत के अतिरिक्त 'गणेश गीता' तथा 'शिवताण्डव' पर भी इन्होंने टीकायें लिखी है।

      नीलकण्ठ ने मन्त्ररामायण की पद्धति में 'मन्त्रभागवत' नामक ग्रन्थ की भी रचना की है। मन्त्रभागवत में भी ऋग्वेद से मन्त्रों का संकलन करके इस प्रकार उन्हें प्रस्तुत किया है कि उन मन्त्रों से सम्पूर्ण भागवत की क्रमबद्ध संक्षिप्त कथा व्यक्त हो जाती है। ऋग्वेद के उन मन्त्रों का भागवतकथापरक अर्थ करने के लिए नीलकण्ठ ने 'मन्त्रभागवत' पर भी स्वोपज व्याख्या लिखी है।

       'भारतभावप्रदीप' के जो हस्तलेख उपलब्ध होते हैं, उनका प्रतिलिपि काल १६८७ ई. से १६६५ ई. तक है। नीलकण्ठ कृत शिवताण्डव टीका का रचनाकाल १६८० ई. तथा गणेशगीता की टीका का रचनाकाल १६६३ ई. है। अनुमान किया जाता है कि महाभारत की टीका का समय १६८० ई. से पूर्व ही रहा होगा। मन्त्ररामायण और मन्त्रभागवत का रचनाकाल उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः उनकी रचना नीलकण्ठ ने महाभारतादि की टीकाओं के बाद की होगी।

      श्री नीलकण्ठ चतुर्धर के पुत्र का नाम भी गोविन्द था। इस गोविन्द के पुत्र अर्थात् नीलकण्ठ के पौत्र शिव ने पैठण में निवास करते हुए सन् १७४६ ई. में 'धर्मतत्वप्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।

यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।

तावद् रामायणी कथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।।

       भारतीय समाज, साहित्य और संस्कृति को युगों-युगों से अनुप्राणित करने वाली रामकथा की अलौकिक महिमा को शब्द सीमा में बाँधना नितान्त असम्भव है। सभी वर्णों और सभी आश्रमों के लिए पुरुषार्थचतुष्टय की साधिका और मानव मात्र के लिए सञ्जीविनी रामनामामृतरसायन-परमपावन भक्तिसुधारसस्रोतस्विनी रामकथा अनिर्वचनीय परमपद प्राप्त कराने वाली है। रामकथा में निबद्ध आदर्श चरित्र और अनुकरणीय महनीय चरित केवल भारत के लिए ही नहीं अपितु समस्त विश्व के लिए समान रूप से मङ्गलप्रद और कल्याणकारी हैं। मानवीय संवेदना के उत्स से आविर्भूत रामकथा समस्त मानवीय गुणों के उदात्तानुदात्त पक्षों से संवलित होकर मानव व्यवहार का दर्पण बनती है-'रामादिवद्वर्तितव्यं न रावणादिवत्।'

      रामकथा में जिन चरित्रों का उपनिबन्धन हुआ है, वे चरित्र केवल अतीत की वस्तु नहीं है; अपितु आज भी हमारे समाज में अनुभूत तथा काम्य हैं। श्रीराम का आदर्शोज्ज्वल चरित्र मारे समाज में मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में अवतरित हुआ है। इस चरित्र की आज भी इतनी प्रतिष्ठा है कि राम नाम के श्रवण-सङ्कीर्तन मात्र से जन्म-जन्मान्तर के पापपुञ्ज विगलित हो जाते हैं। सीता तो पतिव्रता स्त्रियों की आदर्शभूता हैं। यह रामकथा महर्षि आदिकवि के ही शब्दों में सीता का महनीय चरित ही है- 'सीतायाश्चरितं महत्।' रामायाण में चित्रित भक्ति, भ्रातृप्रेम, वात्सल्य आदि ऐसे अमूल्य तत्त्व हैं, जिनका लवमात्र प्राप्त कर जीवन की कृतार्थता सिद्ध हो जाती है। यही कारण है कि सनातन धर्मों परिवारों में जीवन का कोई ऐसा क्षण नहीं है जो राममय न हो।

      शाश्वत मूल्यों की सहज प्रतिष्ठा और उदात्त गुण-गौरव-ख्याति के कारण ही रामकथा देश और काल के बन्धन से निर्मुक्त होकर विश्वसाहित्य में छा गयी है। जब हम भारत समेत दक्षिण पूर्व एशिया तथा संसार के अन्य देशों की विभिन्न भाषाओं में विरचित और प्रचलित रामकथा को देखते हैं, तो गोस्वामी तुलसीदास की मान्यता-'रामायन सत कोटि अपारा' में कहीं भी अतिशयोक्ति की प्रतीति नहीं होती। इस विषय पर अनेक विद्वानों और अनुसन्धाताओं ने व्यापक गवेषणापूर्ण मौलिक कार्य करके विपुल रामायण-साहित्य का उद्घाटन किया है।

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कवि बिल्हण और उनका विक्रमाङ्कदेवचरितम्

संस्कृत साहित्य में कवि बिल्हण ही एक ऐसे कवि हैं, जिनका जीवनचरित और काल प्रकाशित है। बिल्हण संस्कृत साहित्य के उन चुने हुए महाकवियों में हैं, जिन्होंने अपने समकालीन वातावरण और देशकाल का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करके अपने जीवन की घटनाओं और अपनी वंश-परम्परा का भी विवरण प्रस्तुत किया है।

विक्रमाङ्कदेवचरितम् महाकाव्य के १८ वें सर्ग में कवि (७० से १०४ श्लोक तक) ने अपना जीवन चरित लिखा है। श्रीनगर (प्रवरपुर) से ढाई कोस पर खोनमुष (आजकल खुन् मोह) गाँव में इनका जन्म हुआ। इनके पिता का नाम ज्येष्ठकलश तथा माता का नाम नागादेवी था। इनके पिता व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनके बड़े भाई का नाम इष्टराम और छोटे भाई का नाम आनन्द था। काश्मीर में रह कर इन्होंने वेदों और शास्त्रों का यथावत् अध्ययन किया। ईस्वीय सन् १०६२ से १०६५ के बीच में ये काश्मीर से बाहर यात्रा के लिए निकल पड़े ।

यमुना के किनारे-किनारे ये पहले मथुरा गए और वहां के पण्डितों को शास्त्रार्थ में हरा कर वृन्दावन में कुछ दिन बिताए। वहां से कन्नौज और प्रयाग होते हुए ये काशी आए। काशी में उस समय डालदेश के अधिपति हैहयवंशीय महाराज कर्ण की छोटी राजधानी थी। यहां पर कविराज का परिचय राजा से हुआ और यहीं पर इन्होंने प्रसिद्ध कवि गङ्गाधर को शास्त्रार्थ में हराया। यहां से वे अयोध्या गए । सम्भवतः अयोध्या में रह कर इन्होंने भगवान् राम की स्तुति में किसी काव्य की रचना भी की, जो उपलब्ध नहीं है।

कर्णराज के बाद बिल्हण भोजराज की राजधानी धारा भी गए। परन्तु इनके वहां जाने के पहले ही १०५५ ई० में भोजराज परलोक सिधार गए थे। वहां से कवि ने गुर्जरदेश की यात्रा की। परन्तु वहां पर उनका मन नहीं लगा और वे सोमनाथ का दर्शन करते हुए दक्षिण भारत का भ्रमण करने के लिए निकल पड़े।

रामेश्वरम् तक जाकर वे पुनः कल्याण नगर लौट आए और अपना शेष जीवन चालुक्य राजा विक्रमादित्य के दरबार में बिताया। इसी दरबार में इन्हें विद्यापति की पदवी प्रदान की गई। डा० बुहलर के अनुसार इन्होंने अपनी वृद्धावस्था में १०८५ ई० के आसपास विक्रमाङ्कदेवचरित महाकाव्य की रचना की होगी। इन्होंने कर्णसुन्दरी नाटक और चौरपञ्चाशिका नामक दो अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है।

ये स्वभाव से अभिमानी मालूम पड़ते हैं। इनको काश्मीर के ऊपर इतना गर्व है कि इनके अनुसार काश्मीर के बाहर कविता होती ही नहीं। इनका अभिमानी स्वभाव विक्रम के दरबार में भी छिपा न रह सका। महाराज विक्रम से इनका अनबन हो गया। इसीलिए कुछ लोग यह कहते हैं कि विक्रमाङ्देवचरित काव्य में महाराज विक्रम के सम्पूर्ण जीवन का वर्णन नहीं लिखा गया। लेकिन यह मत राजतरंगिणी की उस युक्ति से विरूद्ध है, जिसके अनुसार हर्ष की आश्रयदानिता को सुनकर भी विद्यापति बिल्हण अत्यन्त सन्तुष्ट होने के कारण उसके पास नहीं गए। अतः अनुमान यह निकलता है कि विक्रम के साथ मनमुटाव हो जाने पर राजा ने इन्हें मना लिया होगा।

महाराज विक्रम

चालुक्य वंश की चार प्रसिद्ध शाखाएं हो चुकी हैं। महाराज विक्रम का सम्बन्ध कल्याण नगर की शाखा से है। इसी शाखा में ९७३ ई० में तैलप नामक बलशाली राजा हुए। उसके बाद सत्याश्रय और जयसिंह ने १०४२ ई० तक राज्य किया। जयसिंह के स्वर्गगत हो जाने पर उसके पुत्र आहवमल्लदेव ने १०४२ ई० से १०६८ ई० तक राज्य किया। इसने चोल, मालवा और डाहल देशों की विजय की और कल्याण नगरी को अपनी राजधानी बनाया ।

आहवमल्लदेव के तीन पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र का नाम सोमेश्वर और कनिष्ठ का नाम जयसिंह था। इन्हीं के द्वितीय पुत्र विक्रमदेव हुए। अपने पिता के जीवन काल में ही विक्रम ने कई लड़ाइयां लड़ीं और वीरता की धाक जमा दी। चोल के राजाधिराज प्रथम के १०४६ ई० के शिलालेख से मालूम होता है कि विक्रम ने युद्ध में अपने पिता का हाथ बटाया था। इसका यह अर्थ हुआ कि १०४६ ई० के पूर्व हुए युद्ध में विक्रम युवा हो चला था अतः उस समय उसकी बीस वर्ष की भी अवस्था यदि मान ली जाय तो विक्रम का जन्म १०२६ के आसपास सिद्ध होता है।

विक्रम के पिता ने इनकी वीरता और योग्यता से प्रभावित हो कर इन्हीं को युवराज बनाना चाहा परन्तु इन्होंने अपने बड़े भाई के रहते युवराज बनना स्वीकार नहीं किया। इसलिए सोमेश्वर हो युवराज हुए। परन्तु वस्तुतः राज्य का सारा काम काज विकम ही देखा करते थे। अपने पिता के जीवन काल में ही इन्होंने चोल देश की राजधानी काञ्ची को जोता, मालवा की विजय की और कामरूप तथा बंगाल तक धावा बोला। केरल देश पर भी इन्होंने अपनों विजय पताका फहराई । जब ये चोल देश के गाङ्गकुण्ड और चक्रकोट नगर की विजय करके लौट रहे थे तब रास्ते में इनके पिता की मृत्यु का समाचार मिला। ये बिचारे दुखित होकर अपनी राजधानी गए। वहां पर अपने बड़े भाई सोमेश्वर के साथ कुछ दिन व्यतीत किए । परन्तु स्वभाव से सोमेश्वर उग्र और दुर्विनीत निकल गया जिससे सर्वदा उसका याद करने वाले विक्रम की भी नहीं पट सकी और वह अपने छोटे भाई तथा अन्य साथियों को लेकर कल्याण से चल पड़ा। इसके भाई ने इसके पीछे सेना भेजी परन्तु इसने भाई की सेना का विध्वंस कर डाला। इसने तुङ्गभद्रा नदी के किनारे डेरा डाला और यहां से ही अन्य राजाओं की विजय प्रारम्भ की और उनसे कर लेने लगा। चोल के राजा ने विक्रम से सन्धि करली और अपनी कन्या का विवाह विक्रम से कर दिया। विवाह के बाद इसके श्वशुर को मृत्यु हो गई और उसकी राजधानी काञ्ची में विप्लव हो गया। विक्रम ने सारे उपद्रव को दबा कर अपने साले को राजा बनाया । परन्तु उसका साला राज्य पर बैठते ही मर गया और काथो में दवा विद्रोह पुनः भड़क उठा । राजिग नामक बेंगिदेश के राजा ने चोलराज्य पर अधिकार कर लिया। इस समाचार को सुन कर विक्रम ने राजिग पर चढ़ाई के लिए प्रस्थान किया। इसी समय भाई से बदला लेने का अच्छा अवसर समझ कर सोमेश्वर ने विक्रम पर पीछे से आक्रमण कर दिया। भाई के साथ युद्ध करने को वह बुरा मानता था और दूत भेज कर उसने उसे समझाया भी, परन्तु कुछ फल न निकला। अन्त में इसे युद्ध करना ही पड़ा। विजय विक्रम को हुई। राजिग तो भाग कर लुप्त हो गया परन्तु सोमेश्वर पकड़ लिया गया और बन्दी बना लिया गया। अब विक्रम ही कल्याण नगरी में शासन करने लगा। विक्रम ने अपने भाई से २५ दिसम्बर १०७५ से ३० जून १०७६ के बीच में राज्य जीता। कुछ लोगों के अनुसार विक्रम ने कराड़ देश की राजकुमारी चन्द्रलेखा को स्वयंवर में जीता और उसे अपनी पटरानी बनाया। अन्य लोगों के मत से उसने स्वयंवर न करके विवाह किया था और यह विवाह वस्तुतः विक्रम के राज्यारोहण के पहले ही सम्पन्न हो चुका था।

राज्यारोहण के कुछ समय बाद विक्रम के छोटे भाई जयसिंह ने जो वनवास मण्डल का शासन करता था, लम्बी सेना इकट्ठी करके विक्रम पर चढ़ाई कर दो। विक्रम ने उसे समझाया बुझाया परन्तु फल न निकला। अन्त में युद्ध हुआ और जयसिंह पकड़ कर राजा के सामने लाया गया। विक्रम ने उसे कड़ी डांट फटकार सुनाई। इसके शासन काल में चोल लोगों ने एक बार पुनः अपना सिर उठाया परन्तु अबकी बार विक्रम ने चोल का अच्छी प्रकार दमन कर दिया और उनकी राजधानी काञ्ची को अपने कब्जे में कर लिया। इसने ११२७ ई० तक राज्य किया। इसके दो पुत्र (जयकर्ण, सोमेश्वर) और एक कन्या (मैललमहादेवी) हुई ।

विक्रम वस्तुतः प्रतापी राजा था। उसने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो दक्षिण में तुङ्गभद्रा नदी से लेकर उत्तर में नर्मदा तक फैला था। उसने लोक कल्याण के लिए अनेक सराह‌नीय कार्य किए। कवियों और विद्वानों का वह बड़ा भारी आश्रयदाता था क्योंकि काश्मीर जैसे दूर देश से आ कर बिल्हण उसके दरबार में आदर पा रहे थे। इसने शक संवत् के स्थान पर सन् १०७७ में चालुक्य संवत् की स्थापना की परन्तु वह सम्वत् अधिक दिनों तक चल न सका ।

विक्रमाङ्कदेवचरितम् महाकाव्यम्

महाकवि बिल्हण ने अपने आश्रयदाता विक्रम के यश का वर्णन करने के लिए विक्रमाङ्कदेवचरित नामक महाकाव्य की रचना की। संस्कृत साहित्य में चरित काव्यों की भी एक सुन्दर परम्परा रही है। आदिकवि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम रामायण में रामचरित्र का पावन वर्णन किया। महाकवि कालिदास ने भी 'रघुवंश' के राजाओं का चरित्र वर्णन अपने काव्य में किया। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो कथा के भेद से चरित काव्यों के दो विभाग हो सकते हैं। पहले प्रकार के चरित काव्यों में नायक पौराणिक कथाओं से लिया जाता है और पुराण की परम्परा में आए हुए उसके कार्यों का कवि अपने काव्य में गुम्फन करता है। दूसरे प्रकार की परम्परा में वे चरित काव्य आते हैं जिनका चरितनायक पुराण प्रसिद्ध पुरुष या वंश न होकर कविकालिक या उससे पूर्व का इतिहास प्रसिद्ध पुरुष या वंश होता है। विक्रमाङ्कदेवचरित महाकाव्य दूसरे प्रकार के काव्यों का प्रतिनिधित्व करता है।

यह काव्य सरस वैदर्भी रीति में लिखा गया है। कवि ने अपने काव्य में स्वयं वैदर्भी रीति की प्रशंसा की है (१.९०) । वैदर्भी रीति सरस कोमल कान्त पदावली के लिए प्रसिद्ध है। इस रीति के काव्य दुरूह न होकर सरल किन्तु रस सिद्ध और ध्वनि मर्म से भरे होते हैं। छोटे पदों में बड़े भाव भरे जाते हैं। महाकवि बिल्हण ने इस तत्त्व को अपने काव्य में बड़ी कुशलता के साथ सजाया है। अनुप्रास की छटा और सरस सरल श्लेष की माधुरी से काव्य भरा है। अन्य अलङ्कार भी उचित मात्रा में उचित स्थान पर जड़े गए हैं।

कवि दूर की सूझ वाला है। इसके वर्णन मनोहारी होते हैं। ऋतुवर्णन में तो यह अपनी सानी नहीं रखता। एक उदाहरण देखिये-

कृतक्षणं क्षुद्रनदीसमागमे तरङ्गिणीनाथमवेक्ष्य संप्रति ।

विलङ्घ्य मार्गं सहसा महापगाः पतन्ति नीचेषु नदान्तरेष्वपि ।। (१३.४१.)

 

वर्षा का समय है। छोटी-छोटी नदियां भी उमड़ कर उतावली हो समुद्र से मिलने के लिए दौड़ पड़ी हैं। समुद्र भी उन क्षुद्र नदियों के साथ क्रीडा करता हुआ आनन्द ले रहा हैं। महानदियां समुद्र के इस व्यवहार को न सह सकीं और उसकी प्रतिस्पर्धा करती हुए वे भी नीच नद में जाकर मिल रहीं हैं। समुद्र जब नीच नदियों के साथ आनन्द करने में न सकुचाता हुआ मर्यादाहीन हो रहा है तो फिर नदियां क्यों न अपनी मर्यादा छोड़ कर नीच नदों के साथ क्रीड़ा करें? वर्षा में नदियों की अमर्यादिता का इससे सुन्दर आलंकारिक वर्णन क्या हो सकता है।

कवि ने अपना महाकाव्य बिलकुल शास्त्रीयपरम्परा में लिखा है। दण्डी आदि आचार्यों ने महाकाव्य के जो लक्षण बतलाए है, यह महाकाव्य उन सभी गुणों को ग्रहण करता है। इसी लिए इस महाकाव्य का इतिहासत्व दब गया है और काव्यपक्ष ही प्रधान रह सका है। अपने नायक को मानवसुलभ कमजोरियों और दुर्गुणों से दूर करके कवि ने उदात्त गुणों को भूमि पर ला बिठाया है।

यही कारण है कि बहुत कुछ काल्पनिक बातें कवि को लानी पड़ी हैं। अपने बड़े भाई के साथ राज्य की लालसा से युद्ध करने में कवि ने भगवान शंकर के आदेश को कारण बताया। इसी प्रकार इतिहास सिद्ध बात यह है कि विक्रम अपने बड़े भाई सोमेश्वर के राज्य पा लेने पर भीतर भीतर राज्य को उलट देने का कुचक करने लगा था और यह बात खुल जाने पर उसके भाई ने उसे राज्य से निकाल दिया था। कवि ने इस तथ्य को छिपा कर विक्रम का स्वतः ही राज्य छोड़ कर चला जाना लिखा है। इसी तरह स्थान स्थान पर कवि ने विक्रम के द्वारा चोलों पर विजय दिखलाई है परन्तु चोल लोग सर्वदा काञ्ची पर शासन करते ही रहे। काञ्ची कभी भी विक्रम के वश में पूर्णतः नहीं आई। राजिग ने जब विक्रम के साले को मार कर चोलसिंहासन पर अपना अधिकार जमा लिया तब विक्रम ने उससे युद्ध किया और कवि कहता है कि राजिग न जाने कहां भाग गया। वस्तुतः इतिहास से तो यह सिद्ध होता है कि राजिग और कोई नहीं बल्कि इतिहास प्रसिद्ध राजेन्द्र चोल ही था और युद्ध में वह भागा नहीं अपितु सर्वदा काञ्ची पर राज्य करता रहा। इसी प्रकार अन्य कई स्थल ऐसे मिलते हैं जो इतिहास के विरोध में रखे जा सकते हैं। परन्तु कवि इतिहास को ही प्रधान न मान कर अपनी कल्पना की उड़ान भरता हुआ नैसगिक काव्य प्रस्तुत कर रहा या न कि इतिहास । काव्य में इतिहास आ जाय तो यह शोभा देता है लेकिन कवि कभी भी इतिहास में काव्य नहीं ढूंढ़ता ।

इस काव्य की एक विशेषता और ध्यान देने योग्य है। यह काव्य एक बड़ी भूमिका के साथ प्रारम्भ होता है। इस भूमिका में पहले तो काव्यमय भाषा में देवताओं और देवियों की स्तुति की गई है। बाद में कवि कर्म की प्रशंसा, खलों और दुष्टों की निन्दा तथा काव्यचोरों का उपहास किया गया है। काव्य की शैली का निर्देश, अपनी विद्वत्ता तथा अपने मुंह अपनी कृति की बड़ाई भी मिलती है। अन्य काव्यों में इस प्रकार की भूमिका का प्रायः अभाव ही है। यह कवि की अपनी विशेषता है।

साहित्यपाथोनिधिमन्थनोत्थं

कर्णामृतं रक्षत हे कवीन्द्राः ! ।

यदस्य दैत्या इव लुण्ठनाय

काव्यार्थचौराः प्रगुणीभवन्ति ॥ ११ ॥

हे कवीन्द्रजन ! साहित्यरूपी समुद्र के मन्थन से निकले हुए कानों को अमृत लगने वाले काव्य की आप लोग रक्षा करें। क्योंकि दैत्यों के समान इस अमृत को चुराने के लिए भी शब्द और अर्थ के चोर आजकल बहुत बलवान् हो रहे हैं ।॥ ११ ॥

गृह्णन्तु सर्वे यदि वा यथेष्टं

नास्ति क्षतिः कापि कवीश्वराणाम् ।

रत्नेषु लुप्तेषु बहुष्वमत्यै-

रद्यापि रत्नाकर एव सिन्धुः ॥ १२ ॥

अथवा अपनी इच्छा भर सभी लोग काव्यामृत का ग्रहण करें । इसमें कवीन्द्रों की कोई क्षति नहीं है, क्योंकि देवताओं ने अनेक रत्न समुद्र से निकाल लिए फिर भी समुद्र तो रत्नाकर ही कहा जाता है ॥ १२ ॥

सहस्रशः सन्तु विशारदानां

वैदर्भलीलानिधयः प्रबन्धाः ।

तथापि वैचित्र्यरहस्यलुब्धाः

श्रद्धां विधास्यन्ति सचेतसोऽत्र ।।१३।।

विद्वानों द्वारा विरचित वैदर्भीरीति से गुम्फित काव्य हजारों हों फिर भी जो सहृदय- जन वैचित्र्य के रहस्य से मुग्ध हो जाते हैं वे तो इस काव्य में श्रद्धा रखेंगे ही ॥ १३ ॥ 

इस महाकाव्य के प्रथम सर्ग में उपजाति छन्द का प्रयोग किया गया है। जिस छन्द के पूर्वार्ध में उपेन्द्रवज्रा छन्द तथा उत्तरार्द्ध में इन्द्रवज्रा छन्द हो उसे उपजाति छन्द कहा जाता है ।

उपेन्द्रवज्रा का लक्षण- 'उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ'

इन्द्रवज्रा का लक्षण- 'स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ ज गौ गः'

उपजाति का लक्षण- 'अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।'

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