संस्कृत: परंपरा से अर्थकरी विद्या की ओर एक यात्रा

 संस्कृत: परंपरा से अर्थकरी विद्या की ओर एक यात्रा

 परिचय

संस्कृत, जिसे देववाणी कहा जाता है, भारतीय संस्कृति और ज्ञान की आधारशिला है। ऋग्वेद से लेकर महाभारत तक, यह भाषा हजारों वर्षों से ज्ञान का माध्यम रही है। परंपरागत रूप से, संस्कृत की शिक्षा निःशुल्क रही हैअध्ययन और अध्यापन में शुल्क लेना विद्या को बेचने के समान माना जाता है। ऋषियों ने इसे दान के रूप में प्रदान किया, इसलिए लोग इसे बिना धन खर्च के प्राप्त करते हैं और दूसरों से भी शुल्क नहीं लेते। यह एक सुंदर परंपरा है, लेकिन आज के बाजार-उन्मुख समाज में यह चुनौती बन गई है। जहां कंप्यूटर कोडिंग, साइबर सिक्योरिटी या क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी विद्याएं शुल्क-आधारित हैं और रोजगार सृजन करती हैं, वहीं संस्कृत को 'अर्थहीन' माना जाने लगा है। परिणामस्वरूप, युवा पीढ़ी इसमें रुचि कम लेती है।

इस लेख में, हम संस्कृत शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर चर्चा करेंगे, समस्या की जड़ को समझेंगे और इसे 'अर्थकरी विद्या' (आर्थिक रूप से लाभदायक ज्ञान) बनाने के व्यावहारिक उपाय सुझाएंगे। हमारा उद्देश्य है कि संस्कृत की पवित्रता बनी रहे, लेकिन इसे आधुनिक अर्थव्यवस्था से जोड़ा जाए, ताकि इससे रोजगार के अवसर बढ़ें और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण हो।

 

 संस्कृत शिक्षा की पारंपरिक व्यवस्था और उसकी सीमाएं

संस्कृत की शिक्षा प्रणाली प्राचीन गुरुकुल परंपरा से प्रेरित है, जहां गुरु शिष्य से कोई शुल्क नहीं लेता। यह 'विद्या दान' की भावना पर आधारित है, जो नैतिक रूप से उच्च है। लेकिन आज के युग में, जहां शिक्षा एक निवेश है, यह मॉडल रोजगार सृजन में बाधा बन जाता है। आधुनिक विद्याओं में, जैसे सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग या डेटा साइंस, कंपनियां शोध पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं, इसलिए शिक्षा शुल्क-आधारित होती है। इससे बाजारवाद आता हैकोर्सेस, सर्टिफिकेट्स और स्किल्स जो सीधे जॉब्स से जुड़ते हैं।

संस्कृत में ऐसा नहीं है। पढ़ने वाले को धन लाभ कम मिलता है, इसलिए लोग इसे व्यावसायिक विकल्प नहीं मानते। उदाहरण के लिए, एक संस्कृत स्नातक को शिक्षक या पुजारी बनने के अलावा सीमित विकल्प मिलते हैं, जबकि आईटी क्षेत्र में लाखों रुपये की सैलरी संभव है। इससे संस्कृत की लोकप्रियता घट रही हैस्कूलों में छात्र कम हो रहे हैं, और विश्वविद्यालयों में कोर्सेस बंद हो रहे हैं। लेकिन क्या संस्कृत वाकई अर्थहीन है? नहीं! इसकी व्याकरणिक संरचना (जैसे पाणिनि की अष्टाध्यायी) इतनी सटीक है कि इसे कंप्यूटर विज्ञान में उपयोग किया जा सकता है। NASA जैसे संस्थान भी संस्कृत की भाषाई संरचना पर शोध कर चुके हैं, क्योंकि यह ambiguity (अस्पष्टता) कम करती है। फिर भी, कमी है तो मार्केटिंग और एप्लिकेशन की।

 

 समस्या की गहराई: आर्थिक असमानता और सांस्कृतिक ह्रास

आज की दुनिया में 'फ्री कुछ भी नहीं'—यह सत्य है। यहां तक कि मुफ्त ऑनलाइन कोर्सेस भी प्रीमियम कंटेंट के लिए शुल्क लेते हैं। संस्कृत की मुफ्त व्यवस्था से रोजगार नहीं सृजित होता, क्योंकि इसमें निवेश कम है। परिणाम: युवा अन्य क्षेत्रों की ओर जाते हैं। इससे सांस्कृतिक हानि हो रही हैसंस्कृत ग्रंथों का अनुवाद घट रहा है, और प्राचीन ज्ञान (जैसे आयुर्वेदा, योगा और दर्शन) की समझ कम हो रही है।

लेकिन समस्या केवल आर्थिक नहीं है। समाज में संस्कृत को 'पुरानी' या 'धार्मिक' माना जाता है, जबकि यह बहुआयामी है। उदाहरण के लिए, संस्कृत में वर्णित मैनेजमेंट सिद्धांत (जैसे चाणक्य नीति) आधुनिक बिजनेस में उपयोगी हैं। फिर भी, बिना आर्थिक प्रोत्साहन के, लोग इसे नहीं अपनाते।

 

 संस्कृत को अर्थकरी विद्या बनाने के व्यावहारिक उपाय

संस्कृत को आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिए 'हाइब्रिड मॉडल' अपनाना चाहिए: परंपरा को बनाए रखते हुए बाजारवाद को शामिल करें। नीचे कुछ विस्तृत सुझाव हैं:

1. आधुनिक तकनीकी क्षेत्रों में एकीकरण

   संस्कृत को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (NLP) और कंप्यूटर साइंस से जोड़ें। संस्कृत की व्याकरणिक नियम AI मॉडल्स के लिए आदर्श हैं, क्योंकि वे तर्कसंगत और ambiguity-मुक्त हैं। सॉफ्टवेयर कंपनियां संस्कृत विशेषज्ञों को हायर कर रही हैं ताकि भारतीय भाषाओं के ट्रांसलेशन और प्रोसेसिंग में सुधार हो। उदाहरण के लिए, संस्कृत-आधारित एल्गोरिदम से मशीन लर्निंग में सुधार संभव है। इससे हाई-पेइंग जॉब्स जैसे लिंग्विस्टिक एनालिस्ट, ट्रांसलेटर या टेक्निकल राइटर मिल सकते हैं। संस्थान जैसे IIT या IIIT में ऐसे कोर्सेस शुरू किए जा सकते हैं।

 

2. शिक्षा और अनुसंधान का व्यावसायीकरण

   बेसिक शिक्षा मुफ्त रखें, लेकिन एडवांस्ड कोर्सेस (जैसे स्पेशलाइज्ड डिप्लोमा या रिसर्च प्रोग्राम्स) के लिए मामूली शुल्क लें। संस्कृत विश्वविद्यालयों को सरकारी ग्रांट्स या प्राइवेट स्पॉन्सरशिप से जोड़ें। करियर ऑप्शंस में प्रोफेसरशिप, रिसर्चर, या आर्कियोलॉजी/म्यूजियम जॉब्स शामिल हैं। साथ ही, आयुर्वेदा, योगा और मैनेजमेंट कोर्सेस में संस्कृत को अनिवार्य बनाएं। इससे इंडस्ट्रीज जैसे पब्लिशिंग, फैशन (संस्कृत मोटिफ्स वाले डिजाइन), फूड (प्राचीन रेसिपी) और एंटरटेनमेंट (संस्कृत-आधारित फिल्म्स/वेब सीरीज) में अवसर खुलेंगे।

 

3. डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और मीडिया का उपयोग

   यूट्यूब, Coursera या Udemy जैसे प्लेटफॉर्म्स पर संस्कृत ट्यूटोरियल बनाएं। शिक्षकों को पे करें और मोनेटाइजेशन से कमाई करें। मीडिया में संस्कृत विशेषज्ञ जर्नलिस्ट, कंटेंट क्रिएटर या इंटरप्रेटर बन सकते हैं। कल्चरल टूरिज्म में लिंकेज बनाएंऐतिहासिक साइट्स पर संस्कृत गाइड्स या डिजिटल हेरिटेज ऐप्स विकसित करें। इससे पर्यटन इंडस्ट्री में जॉब्स बढ़ेंगे।

 

4. सरकारी और प्राइवेट पहलें

   सिविल सर्विसेस (IAS/IFS) में संस्कृत को वैकल्पिक विषय के रूप में प्रमोट करें। प्राइवेट सेक्टर में बिजनेस मॉडल्स बनाएं, जैसे मंत्र-आधारित वेलनेस प्रोग्राम्स या सस्टेनेबिलिटी कोर्सेस (संस्कृत में पर्यावरण सिद्धांत)। इससे संस्कृत से जुड़े प्रोडक्ट्स (बुक्स, ऐप्स, ऑनलाइन कोर्सेस) बेचे जा सकते हैं।

 

5. समाजीकरण और मार्केटिंग रणनीतियां

   स्कूलों में संस्कृत को वैकल्पिक लेकिन रिवार्डिंग विषय बनाएं, जहां अच्छा प्रदर्शन से छात्रवृत्ति या जॉब प्लेसमेंट मिले। युवाओं को बताएं कि संस्कृत से डी-स्ट्रेस, मैनेजमेंट स्किल्स और फाइनेंशियल ग्रोथ संभव है। सोशल मीडिया कैंपेन चलाएं, जहां संस्कृत को 'कूल' और 'प्रॉफिटेबल' दिखाया जाए।

 

संस्कृत को अर्थकरी विद्या बनाने का अर्थ है इसे आधुनिकता से जोड़ना, बिना परंपरा को त्यागे। अगर हम उपर्युक्त उपाय अपनाएं, तो न केवल रोजगार बढ़ेगा बल्कि भारतीय संस्कृति का वैश्विक प्रसार होगा। सरकार, शिक्षण संस्थान और प्राइवेट सेक्टर को मिलकर काम करना चाहिए। अंत में, याद रखें: ज्ञान का मूल्य तब बढ़ता है जब वह उपयोगी और लाभदायक बने। यदि आप संस्कृत प्रेमी हैं, तो आज से ही इसके आर्थिक पक्ष पर विचार करें। क्या आप इस दिशा में कोई कदम उठा रहे हैं? टिप्पणियों में साझा करें!
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न्याय शास्त्र: एक व्यापक परिचय और विकास


न्याय शब्द का अर्थ

न्याय शब्द का मूल अर्थ है "नियम युक्त व्यवहार" - 'नियमेन नीयते इति न्यायः'। वात्स्यायन के अनुसार, "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात प्रमाणों के द्वारा अर्थ का परीक्षण ही न्याय है, जो दर्शनपरक परिभाषा है। इसके अतिरिक्त, जिसके द्वारा अपेक्षित अर्थ की सिद्धि हो, उसे भी न्याय कहा जाता है - 'नीयते प्राप्यते विवक्षित सिद्धिरनेन इति न्यायः'। महर्षि पाणिनि ने 'अभ्रेष' अर्थ में न्याय का प्रयोग किया है (परिन्योर्नीणोद्युताभ्रेषयोः - ३.३.३७)। 'काशिका' के अनुसार, "पदार्थानामनपचारो यथाप्राप्तकरणमभ्रेषः" अर्थात पदार्थों का अनतिक्रमण और यथास्थिति में ग्रहण ही अभ्रेष है। व्याकरण शास्त्र में न्याय का अर्थ पदार्थ के यथार्थ स्वरूप की विवेचना माना गया है।

न्यायशास्त्र के पदार्थ

न्यायशास्त्र में सोलह पदार्थ हैं: (1) प्रमाण, (2) प्रमेय, (3) संशय, (4) प्रयोजन, (5) दृष्टान्त, (6) सिद्धान्त, (7) अवयव, (8) तर्क, (9) निर्णय, (10) वाद, (11) जल्प, (12) वितण्डा, (13) हेत्वाभास, (14) छल, (15) जाति, (16) निग्रहस्थान। इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस मोक्ष की प्राप्ति होती है।

प्रमाण

यथार्थ अनुभव 'प्रमा' है, और उसका करण प्रमाण कहलाता है। प्रमाणों की संख्या पर विद्वानों में मतभेद है: चार्वाक एकमात्र प्रत्यक्ष को, वैशेषिक और बौद्ध प्रत्यक्ष-अनुमान को, सांख्य प्रत्यक्ष-अनुमान-शब्द को, और न्यायदर्शन प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान-शब्द-ार्थापत्ति को मानते हैं। मीमांसक अनुपलब्धि सहित छह प्रमाण स्वीकार करते हैं। आचार्य भासर्वज्ञ ने तीन, और अक्षपाद गौतम ने चार प्रमाण बताए, किंतु परवर्ती नैयायिकों ने प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान-शब्द को ही स्वीकारा।

न्याय शास्त्र के अन्य नाम

न्यायशास्त्र को 'हेतुशास्त्र', 'तर्क विद्या', और 'आन्वीक्षिकी' भी कहा गया है। वात्स्यायन ने 'न्यायभाष्य' में आन्वीक्षिकी शब्द का प्रयोग किया, जो प्रत्यक्ष-आगम से आत्मतत्त्व की युक्ति-पूर्वक खोज है। शब्दों के पञ्चावयव युक्त समूह को न्याय-वाक्य कहा गया, जो परार्थानुमान से अर्थ सिद्ध करता है। छान्दोग्य उपनिषद् में "वाकोवाक्य" और शंकराचार्य द्वारा "तर्कशास्त्र" के रूप में इसका उल्लेख है।

न्याय शास्त्र का महत्त्व और विकास

दर्शन में न्यायशास्त्र का महत्त्व बढ़ा, और बौद्ध-जैन न्याय का उल्लेख हुआ।

न्याय शास्त्र का प्रवर्तक

पद्मपुराण (उत्तर अ0 265), स्कन्दपुराण (कारिका ख. अ. 17), गान्धर्वतन्त्र, और नैषधमहाकाव्य में गौतम को न्यायशास्त्र का प्रवर्तक माना गया, जबकि न्यायभाष्य आदि में अक्षपाद नाम मिलता है। भास के 'प्रतिमानाटक' में मेधातिथेयशास्त्र से मेधातिथि को कर्ता माना गया। महाभारत (शान्तिपर्व) में गौतम, अक्षपाद, और मेधातिथि एक ही व्यक्ति के संकेत हैं, जिनका स्थान मिथिला और सौराष्ट्र का प्रभासपत्तन है।

न्याय शास्त्र और बौद्ध दार्शनिकों में मतभेद

वात्स्यायन के 'न्यायभाष्य' का खण्डन बौद्ध दिङ्नाग ने किया, जिसका उल्लेख कालिदास ने मेघदूतम् में किया। उद्योतकर ने 'न्यायवार्तिक' से इसका प्रतिकार किया। बौद्धों के पश्चात् वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका', और उदयनाचार्य ने 'न्यायपरिशुद्धि', 'आत्मतत्त्व विवेक', और 'न्यायकुसुमांजलि' से बौद्ध मत का खण्डन किया। ये पांच (अक्षपाद, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयनाचार्य) प्राचीन न्याय के आधार हैं, जिन्हें "चतुर्ग्रंथिका" और "पंचप्रस्थानसाक्षिक" कहा गया। ये मिथिला से सम्बन्धित थे। काश्मीर में जयन्तभट्ट ('न्यायमंजरी') और भासर्वज्ञ ('न्यायसार', 'न्यायभूषण') ने योगदान दिया।

नव्यन्याय

गंगेशोपाध्याय (12वीं शताब्दी, मिथिला) ने 'तत्त्वचिन्तामणि' लिखा, जो नव्यन्याय का आधार है, जिसमें चार प्रमाणों पर चार खण्ड हैं। पक्षधर मिश्र ने 'आलोक टीका' लिखी, जिनका खण्डनकर्ता अभिनव व्यासतीर्थ थे। 15वीं शताब्दी में वासुदेव सार्वभौम (नवद्वीप) और रघुनाथ शिरोमणि ('तर्कशिरोमणि', 'दीधित') ने इसे आगे बढ़ाया। मथुरानाथ, जगदीश, गदाधर, और विश्वनाथ जैसे विद्वानों ने नव्यन्याय को समृद्ध किया, जो विवाद और खण्डन के लिए प्रसिद्ध है।

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डिजिटल युग में संस्कृत की भूमिका

 लेखक: जगदानन्द झा

प्रकाशन तिथि: 25 सितंबर 2025

परिचय

संस्कृत, भारत की प्राचीन और समृद्ध भाषा, जिसने हजारों वर्षों तक ज्ञान, दर्शन, साहित्य, और विज्ञान का पोषण किया, आज डिजिटल युग में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। डिजिटल युग, जिसमें इंटरनेट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (NLP), और क्लाउड कंप्यूटिंग जैसी तकनीकें प्रमुख हैं, संस्कृत को न केवल संरक्षित करने का अवसर प्रदान करता है, बल्कि इसे आधुनिक समस्याओं के समाधान में उपयोगी बनाता है। यह निबंध डिजिटल युग में संस्कृत की भूमिका को रेखांकित करता है, जिसमें इसके संरक्षण, शिक्षा, और तकनीकी उपयोग पर विशेष ध्यान दिया गया है।

संस्कृत का डिजिटलीकरण और संरक्षण

डिजिटल युग ने संस्कृत ग्रंथों के संरक्षण में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है। प्राचीन पांडुलिपियाँ, जो समय और पर्यावरण के प्रभाव से नष्ट होने के खतरे में थीं, अब डिजिटल रूप में सुरक्षित की जा रही हैं। डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया, मुक्तबोध, आर्काइव, संस्कृत डाक्युमेंट जैसे प्लेटफॉर्म्स ने हजारों संस्कृत ग्रंथों को डिजिटाइज कर वैश्विक पाठकों के लिए सुलभ बनाया है। ये प्रयास न केवल मूल ग्रंथों को क्षति से बचाते हैं, बल्कि शोधकर्ताओं और उत्साही पाठकों को बिना भौगोलिक सीमाओं के अध्ययन की सुविधा प्रदान करते हैं।

इसके अतिरिक्त, हेरिटेज इंजन जैसे टूल्स संस्कृत वाक्यों का व्याकरणिक विश्लेषण और पार्सिंग करते हैं, जो प्राचीन ग्रंथों को समझने में सहायक हैं। ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन (OCR) तकनीक ने देवनागरी और अन्य जटिल लिपियों को डिजिटाइज करने की प्रक्रिया को सरल बनाया है। साथ ही, व्योमा संस्कृत ई-लर्निंग जैसे संगठन डिजिटल माध्यमों के जरिए संस्कृत की शिक्षा और प्रसार को बढ़ावा दे रहे हैं। इस प्रकार, डिजिटल युग ने संस्कृत के संरक्षण को न केवल संभव बनाया है, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने का मार्ग भी प्रशस्त किया है।

संस्कृत सीखने के लिए डिजिटल टूल्स

डिजिटल युग ने संस्कृत सीखने को पहले से कहीं अधिक सरल और सुलभ बनाया है। learnsanskrit.org, vyomausa.org, और संस्कृत फ्रॉम होम जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स ने संस्कृत व्याकरण, श्लोक, और साहित्य के पाठ को डिजिटल रूप में उपलब्ध कराया है। ये प्लेटफॉर्म्स ऑडियो, वीडियो, और इंटरएक्टिव मॉड्यूल्स का उपयोग करते हैं, जो शुरुआती और उन्नत विद्यार्थियों दोनों के लिए उपयुक्त हैं। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ द्वारा संचालित ऑनलाइन संभाषण कक्षा (https://sanskritsambhashan.com) के माध्यम से अपनी सुविधा के अनुसार संस्कृत बोलना सीखा जा सकता है।

मोबाइल-अनुकूल ऐप्स और वेबसाइट्स ने युवा पीढ़ी को संस्कृत से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रो. मदनमोहन झा, सृजन झा, और मैंने सहित कई संस्कृतज्ञों ने मोबाइल ऐप बनाया है, जिससे संस्कृत सीखना आसान हुआ है। कोलोन डिजिटल संस्कृत डिक्शनरी जैसे संसाधन ऑनलाइन शब्दकोश प्रदान करते हैं, जो संस्कृत शब्दों की व्याख्या और अनुवाद में सहायता करते हैं। इसके अलावा, यूट्यूब चैनल्स और पॉडकास्ट्स जैसे Sanskrit Radio संस्कृत के गीतों और श्लोकों को लोकप्रिय बना रहे हैं। ये डिजिटल संसाधन संस्कृत को घर-घर तक पहुँचाने में सक्षम हैं, जिससे नई पीढ़ी इस प्राचीन भाषा के प्रति उत्साह दिखा रही है।

AI और NLP में संस्कृत की भूमिका

संस्कृत की व्याकरणिक संरचना, विशेष रूप से पाणिनी की अष्टाध्यायी, अपनी संरचित और तार्किक प्रकृति के कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (NLP) में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। संस्कृत के वाक्यांशों का निर्माण और शब्दों का विभाजन (धातु और प्रत्यय) कंप्यूटर प्रोग्रामिंग और एल्गोरिदमिक संरचनाओं के समान है। यह भाषाई अस्पष्टता को कम करने में सहायक है, जो आधुनिक NLP मॉडल्स के लिए आवश्यक है।

संस्कृत का फ्री वर्ड ऑर्डर (मुक्त शब्द क्रम) और इसकी व्याकरणिक नियमों की स्पष्टता AI मॉडल्स को सिमेंटिक समझ में सुधार करने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, संस्कृत के श्लोक और गीत AI ट्रेनिंग डेटासेट के रूप में उपयोग किए जा रहे हैं, क्योंकि इनकी जटिलता NLP एल्गोरिदम्स की सटीकता का परीक्षण करती है। हालांकि, संस्कृत के लिए डिजिटल डेटासेट की कमी एक चुनौती है, जिसे और अधिक डिजिटलीकरण से हल किया जा सकता है।

सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव

डिजिटल युग ने संस्कृत को सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी पुनर्जनन का अवसर दिया है। संस्कृतभाषी ब्लॉग जैसे मंच आधुनिक गीत, कथाएँ, और वैचारिक निबंधों को प्रकाशित कर रहे हैं, जो संस्कृत को समकालीन संदर्भों से जोड़ते हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे फेसबुक, ट्विटर, और इंस्टाग्राम पर संस्कृत श्लोक और सुभाषित साझा किए जा रहे हैं, जिससे युवा पीढ़ी इसके प्रति आकर्षित हो रही है।

इसके अलावा, संस्कृत के डिजिटल प्रसार ने वैश्विक स्तर पर इसके प्रति रुचि बढ़ाई है। विदेशी विश्वविद्यालय और शोधकर्ता अब संस्कृत के दर्शन और साहित्य का अध्ययन डिजिटल संसाधनों के माध्यम से कर रहे हैं। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है और भारतीय संस्कृति को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत करता है।

चुनौतियाँ और भविष्य की संभावनाएँ

हालांकि डिजिटल युग ने संस्कृत के लिए कई अवसर खोले हैं, कुछ चुनौतियाँ भी हैं। संस्कृत के डिजिटल डेटासेट की कमी, तकनीकी विशेषज्ञों का अभाव, और सामान्य जनता में जागरूकता की कमी प्रमुख बाधाएँ हैं। इनका समाधान अधिक डिजिटलीकरण, तकनीकी प्रशिक्षण, और शैक्षिक पहलों से संभव है।

भविष्य में, संस्कृत AI मॉडल्स को और उन्नत बनाने में सहायक हो सकती है। उदाहरण के लिए, पाणिनी के व्याकरण को आधार बनाकर भाषा मॉडल्स को और सटीक किया जा सकता है। साथ ही, ऑनलाइन शिक्षण और डिजिटल पुस्तकालयों के विस्तार से संस्कृत शिक्षा को और लोकप्रिय बनाया जा सकता है।

निष्कर्ष

डिजिटल युग में संस्कृत न केवल एक प्राचीन भाषा के रूप में संरक्षित हो रही है, बल्कि यह शिक्षा, तकनीक, और सांस्कृतिक प्रसार में सक्रिय भूमिका निभा रही है। डिजिटल टूल्स ने इसके संरक्षण और सीखने को सुलभ बनाया है, जबकि AI और NLP में इसकी संरचनात्मक विशेषताएँ इसे तकनीकी रूप से प्रासंगिक बनाती हैं। हमें संस्कृत के डिजिटलीकरण को और बढ़ावा देना चाहिए, ताकि यह वैश्विक स्तर पर ज्ञान और संस्कृति का स्रोत बने।

आपके विचार: क्या आप डिजिटल युग में संस्कृत के उपयोग को और कैसे बढ़ावा देना चाहेंगे? अपनी राय कमेंट्स में साझा करें!

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"संस्कृत का संकट: उदासीनता से नवाचार की ओर एक आह्वान"

संस्कृत भाषा के वर्तमान संकट के कारणों का विश्लेषण...

यह लेख संस्कृत भाषा के वर्तमान संकट के मूल कारणों का गहराई से विश्लेषण करता है। यह केवल बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं, बल्कि समुदाय की भीतरी उदासीनता का प्रतिबिंब है। शिक्षकों, प्रचारकों, और विद्वानों की भूमिका, साथ ही आधुनिक तकनीकों और रोजगार के अवसरों से संस्कृत को जोड़ने की आवश्यकता पर चर्चा की गई है।

संस्कृत का वर्तमान संकट: एक आत्म-विश्लेषण

यह एक अकाट्य सत्य है कि संस्कृत का वर्तमान संकट केवल बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं, बल्कि समुदाय की भीतरी उदासीनता का प्रतिबिंब है। संस्कृत शिक्षक, प्रचारक और विद्वान स्वयं उन भूमिकाओं को निभाने में विफल रहे हैं, जो इस भाषा के पुनरुत्थान के लिए अनिवार्य थीं। समस्या केवल नीतियों या अवसरों की कमी में नहीं, बल्कि मानसिकता और प्रयासों के अभाव में निहित है।

शिक्षकों की भूमिका

संस्कृत शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग अपने पद को केवल आजीविका का साधन मानता है, एक मिशन के रूप में नहीं। उनका दायित्व केवल पाठ्यक्रम पूरा करने तक सीमित हो गया है। प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने छात्रों में संस्कृत के प्रति जीवंत रुचि जगाने के लिए पाठ्यक्रम के अतिरिक्त क्या नवाचार किए? अधिकांश शिक्षण आज भी पारंपरिक और नीरस पद्धतियों पर आधारित है, जहाँ धातु-रूप और शब्द-रूप रटाने पर जोर दिया जाता है, जो आज की जिज्ञासु और तकनीक-प्रेमी पीढ़ी को आकर्षित करने में पूरी तरह विफल है।

भाषा को केवल व्याकरण और श्लोकों के नियमों तक सीमित कर दिया गया है, जबकि उसके वैज्ञानिक, दार्शनिक और साहित्यिक सौंदर्य को आधुनिक संदर्भों—जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) में पाणिनि के व्याकरण की प्रासंगिकता, पर्यावरण संरक्षण के वैदिक सूत्र या मानसिक स्वास्थ्य के लिए गीता के दर्शन—से जोड़कर प्रस्तुत नहीं किया जाता।

छात्र संख्या और शिक्षण की गुणवत्ता

छात्र संख्या सीधे तौर पर शिक्षकों के प्रयासों और उनकी कक्षा के आकर्षण से जुड़ी होती है। यदि शिक्षक कक्षा को रोचक, संवादात्मक और ज्ञानवर्धक बनाने में सफल होते, तो छात्र स्वाभाविक रूप से इस विषय की ओर आकर्षित होते। छात्र संख्या बढ़ने पर निश्चित रूप से नए पदों के सृजन का दबाव बनता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका क्योंकि नींव ही कमजोर रह गई।

प्रचारकों की भूमिका

"संस्कृत का झण्डा लिए फिरने" वाले अधिकांश लोग केवल भावनात्मक बातें करते हैं, ठोस धरातल पर कार्य नहीं करते। सामाजिक समारोहों या ऑनलाइन मंचों पर संस्कृत की महानता का बखान करना और अतीत का गौरवगान करना सरल है, किंतु अपने दैनिक जीवन में या अपने कार्यक्षेत्र से बाहर जाकर इसके लिए एक ठोस जनजागरण अभियान चलाना कठिन है।

हम में से कितने लोग आधुनिक माध्यमों जैसे यूट्यूब, ब्लॉग, पॉडकास्ट या सोशल मीडिया का उपयोग करके संस्कृत को सरल, आकर्षक और उपयोगी रूप में प्रस्तुत करने का नियमित प्रयास करते हैं? यह कार्य केवल कुछ गिने-चुने लोग व्यक्तिगत स्तर पर कर रहे हैं, जबकि इसे एक सामूहिक और संगठित आंदोलन बनाने की आवश्यकता थी।

रोजगार और संस्कृत

संस्कृत समुदाय इस भाषा को आधुनिक रोजगार के अवसरों से जोड़ने में बुरी तरह विफल रहा है। आज भी संस्कृत का अर्थ केवल शिक्षक या कर्मकांडी पंडित की नौकरी तक सीमित माना जाता है, जो प्रतिभाशाली युवा पीढ़ी को इससे विमुख कर देता है।

वास्तविकता यह है कि AI, कम्प्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स, आयुर्वेद, योग, पर्यटन, पांडुलिपि विज्ञान, अभिलेख शास्त्र (Epigraphy) और कंटेंट क्रिएशन जैसे क्षेत्रों में संस्कृत ज्ञान की अत्यधिक मांग उत्पन्न हो सकती है। इस दिशा में न तो कोई ठोस और अंतर्विषयक पाठ्यक्रम (Interdisciplinary Courses) विकसित किया गया और न ही छात्रों को इन संभावनाओं के प्रति जागरूक किया गया। विश्वविद्यालय आज भी दशकों पुराने पाठ्यक्रम पर चल रहे हैं।

मांग और आपूर्ति का दुष्चक्र

मांग और आपूर्ति (Demand & Supply) का एक ऐसा दुष्चक्र बन गया है जिसे तोड़ना लगभग असंभव प्रतीत होता है: छात्र नहीं, तो पद नहीं; पद नहीं, तो रोजगार नहीं; और रोजगार नहीं, तो छात्र क्यों आएंगे? इस चक्र को तोड़ने के लिए संस्कृत को उसकी आर्थिक उपयोगिता से जोड़ना अनिवार्य है। जब तक कोई छात्र यह विश्वास नहीं करेगा कि संस्कृत पढ़ने से उसका भविष्य सुरक्षित हो सकता है, तब तक वह इस विषय का चयन क्यों करेगा?

समाधान और भविष्य

जब हम स्वयं अपने स्तर पर प्रयास करने में विफल रहते हैं, तो अवसरों की कमी का रोना रोते हैं और यह हमारी अपनी सामूहिक निष्क्रियता और दूरदर्शिता की कमी का ही परिणाम है। हम सरकार और नीतियों को दोष देते हैं, जबकि हमने स्वयं उस नीतिगत बदलाव के लिए आवश्यक जमीनी कार्य नहीं किया। यदि संस्कृत पढ़ने वाले छात्रों की एक बड़ी, जागरूक और मुखर संख्या होती, तो कोई भी सरकार या संस्थान उनकी उपेक्षा करने का साहस नहीं कर पाता।

अंततः, संस्कृत का पुनरुत्थान केवल बाहरी सहायता या सरकारी नीतियों से संभव नहीं है। इसके लिए संस्कृत प्रेमियों, शिक्षकों और विद्वानों को गहरी आत्म-आलोचना करते हुए अपनी सुविधा के दायरे से बाहर निकलकर ठोस, रचनात्मक, परिणामोन्मुखी और सामूहिक प्रयास करने होंगे। हमें संरक्षणवादी मानसिकता से निकलकर एक नवाचारी और उपयोगी दृष्टिकोण अपनाना होगा।

लेखक- श्री लव शुक्ला, दिल्ली

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अमरकोशः प्रथमं काण्डम्

॥ अथ व्योमवर्गः ॥

 

द्योदिवौ द्वे स्त्रियामभ्रं व्योम पुष्करमम्बरम् ।

नभोऽन्तरिक्षं गगनमनन्तं सुरवर्त्म खम् ।। १ ।।

 

वियद् विष्णुपदं वा तु पुंस्याकाशविहायसी ।

विहासयोऽपि नाकोऽपि द्युरपि स्यात्तदव्ययम् ।

तारापथोऽन्तरिक्षं च मेघाध्वा च महाबिलम् ।।

॥ इति व्योमवर्गः ॥

॥ अथ दिग्वर्गः ॥

दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः ।

प्राच्यवाचीप्रतीच्यस्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमाः ॥ १ ॥

 

उत्तरादिगुदीची स्याद्दिश्यं तु त्रिषु दिग्भवे ।

 

अवाग्भवमवाचीनमुदीचीचीनमुदग्भवम् ।

प्रत्यग्भवं प्रतीचीनं प्राचीनं प्राग्भवं त्रिषु ॥

इन्द्रो वह्निः पितृपतिर्नैरृतो वरुणो मरुत् ॥ २ ॥

कुबेर ईशः पतयः पूर्वाऽऽदीनां दिशां क्रमात् ।

 

रविः शुक्रो महीसूनुः स्वर्भानुर्भानुजो विधुः ।

बुधो बृहस्पतिश्चेति दिशां चैव तथा ग्रहाः ॥

ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः ॥  

कुबेर ईशः पतयः पूर्वाऽऽदीनां दिशां क्रमात् ।

 

रविः शुक्रो महीसूनुः स्वर्भानुर्भानुजो विधुः ।

बुधो बृहस्पतिश्चेति दिशां चैव तथा ग्रहाः ॥

ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः ॥  

 

पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः ।

करिण्योऽभ्रमुकपिलापिङ्गलाऽनुपमाः क्रमात् ॥ ४ ॥

 

ताम्रकर्णी शुभ्रदन्ती चाऽङ्गना चाऽञ्जनावती ।

क्लीबाऽव्ययं त्वपदिशं दिशोर्मध्ये विदिक् स्त्रियाम् ॥ ५ ॥

 

अभ्यन्तरं त्वन्तरालं चक्रवालं तु मण्डलम् ।

अभ्रं मेघो वारिवाहः स्तनयित्नुर्बलाहकः ॥ ६ ॥

 

धाराधरो जलधरस्तडित्वान् वारिदोऽम्बुभृत् ।

घनजीमूतमुदिरजलमुग्धूमयोनयः ॥ ७ ॥

 

कादम्बिनी मेघमाला त्रिषु मेघभवेऽभ्रियम् ।

स्तनितं गर्जितं मेघनिर्घोषे रसिताऽदि च ॥ ८ ॥

 

शम्पा शतह्रदाह्रादिन्यैरावत्यः क्षणप्रभा ।

तडित्सौदामनी विद्युच्चञ्चला चपला अपि ॥ ९ ॥

 

स्फूर्जथुर्वज्रनिर्घोषो मेघज्योतिरिरंमदः ।

इन्द्रायुधं शक्रधनुस्तदेव ऋजुरोहितम् ॥ १० ॥

 

वृष्टिवर्षं तद्विघातेऽवग्राहाऽवग्रहौ समौ ।

धारासम्पात आसारः शीकरोम्बुकणाः स्मृताः ॥ ११ ॥

 

वर्षोपलस्तु करका मेघच्छन्नेऽह्नि दुर्दिनम् ।

अन्तर्धा व्यवधा पुंसि त्वन्तर्धिरपवारणम् ॥ १२ ॥

 

अपिधानतिरोधानपिधानाऽऽच्छादनानि च ।

हिमांशुश्चन्द्रमाश्चन्द्र इन्दुः कुमुदबान्धवः ॥ १३ ॥

 

विधुः सुधांशुः शुभ्रांशुरोषधीशो निशापतिः ।

अब्जो जैवातृकः सोमो ग्लौर्मृगाङ्कः कलानिधिः ॥ १४ ॥

 

द्विजराजः शशधरो नक्षत्रेशः क्षपाकरः ।

कला तु षोडशो भागो बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिषु ॥ १५ ॥

 

भित्तं शकलखण्डे वा पुंस्यर्धोऽर्धं समेंशके ।

चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना प्रसादस्तु प्रसन्नता ॥ १६ ॥

 

कलङ्काङ्कौ लाञ्छनं च चिह्नं लक्ष्म च लक्षणम् ।

सुषमा परमा शोभा शोभा कान्तिर्द्युतिश्छविः ॥ १७ ॥

 

अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् ।

प्रालेयं मिहिका चाऽथ हिमानी हिमसंहतिः ॥ १८ ॥

 

शीतं गुणे तद्वदर्थाः सुषीमः शिशिरो जडः ।

तुषारः शीतलः शीतो हिमः सप्ताऽन्यलिङ्गकाः ॥ १९ ॥

 

ध्रुव औत्तानपादिः स्यात् अगस्त्यः कुम्भसम्भवः ।

मैत्रावरुणिरस्यैव लोपामुद्रा सधर्मिणी ॥ २० ॥

 

नक्षत्रमृक्षं भं तारा तारकाऽप्युडु वा स्त्रियाम् ।

दाक्षायिण्योऽश्विनीत्यादितारा अश्वयुगश्विनी ॥ २१ ॥

 

राधाविशाखा पुष्ये तु सिध्यतिष्यौ श्रविष्ठया ।

समा धनिष्ठाः स्युः प्रोष्ठपदा भाद्रपदाः स्त्रियः ॥ २२ ॥

 

मृगशीर्षं मृगशिरस्तस्मिन्नेवाऽऽग्रहायणी ।

इल्वलास्तच्छिरोदेशे तारका निवसन्ति याः ॥ २३ ॥

 

बृहस्पतिः सुराचार्यो गीष्पतिर्धिषणो गुरुः ।

जीव आङ्गिरसो वाचस्पतिश्चित्रशिखण्डिजः ॥ २४ ॥

 

शुक्रो दैत्यगुरुः काव्य उशना भार्गवः कविः ।

अङ्गारकः कुजो भौमो लोहिताङ्गो महीसुतः ॥ २५ ॥

 

रौहिणेयो बुधः सौम्यः समौ सौरिशनैश्चरौ ।

तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः ॥ २६ ॥

सप्तर्षयो मरीच्यत्रिमुखाश्चित्रशिखण्डिनः ।

राशीनामुदयो लग्नं ते तु मेषवृषादयः ॥ २७ ॥

 

सूरसूर्यार्यमादित्यद्वादशात्मदिवाकराः ।

भास्कराहस्करब्रध्नप्रभाकरविभाकराः ॥ २८ ॥

 

भास्वद्विवस्वत्सप्ताश्वहरिदश्वोष्णरश्मयः ।

विकर्तनार्कमार्तण्डमिहिरारुणपूषणः ॥ २९ ॥

 

द्युमणिस्तरणिर्मित्रश्चित्रभानुर्विरोचनः ।

विभावसुर्ग्रहपतिस्त्विषांपतिरहर्पतिः ॥ ३० ॥

 

भानुर्हंसः सहस्रांशुस्तपनः सविता रविः ।

भानुर्हंसः सहस्रांशुस्तपनः सविता रविः ।

पद्माक्षस्तेजसांराशिश्छायानाथस्तमिस्रहा ।

कर्मसाक्षी जगच्चक्षुर्लोकबन्धुस्त्रयीतनुः ॥

 

प्रद्योतनो दिनमणिः खद्योतो लोकबान्धवः ।

इनो भगो धामनिधिश्चांऽशुमाल्यब्जिनीपतिः ॥

माठरः पिङ्गलो दण्डश्चण्डांशोः पारिपार्श्वकाः॥ ३१ ॥

सूरसूतोऽरुणोऽनूरुः काश्यपिर्गरुडाग्रजः ।

परिवेषस्तुपरिधिरुपसूर्यकमण्डले ॥ ३२ ॥

 

किरणोस्रमयूखांशुगभस्तिघृणिरश्मयः ।

भानुः करो मरीचिः स्त्रीपुंसयोर्दीधितिः स्त्रियाम् ॥ ३३ ॥

 

स्युः प्रभारुग्रुचिस्त्विड्भाभाश्छविद्युतिदीप्तयः ।

रोचिः शोचिरुभे क्लीबे प्रकाशो द्योत आतपः ॥ ३४ ॥

 

कोष्णं कवोष्णं मन्दोष्णं कदुष्णं त्रिषु तद्वति ।

तिग्मं तीक्ष्णं खरं तद्वन्मृगतृष्णा मरीचिका ॥ ३५ ॥

॥ इति दिग्वर्गः ॥

 

॥ अथ कालवर्गः ॥

कालो दिष्टोऽप्यनेहापि समयोऽप्यथ पक्षति ।

प्रतिपद् द्वे इमे स्त्रीत्वे तदाऽऽद्यास्तिथयो द्वयोः ॥ १ ॥

 

घस्रो दिनाऽहनी वा तु क्लीबे दिवसवासरौ ।

प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यमुषःप्रत्युषसी अपि ॥ २ ॥

व्युष्टं विभातं द्वे क्लीबे पुंसि गोसर्ग इष्यते ।

प्रभातं च दिनान्ते तु सायं संध्या पितृप्रसूः

प्राह्णाऽपराह्ण-मध्याह्नास्त्रिसंध्यमथ शर्वरी ॥ ३ ॥

निशा निशीथिनी रात्रिस्त्रियामा क्षणदा क्षपा ।

विभावरीतमस्विन्यौ रजनी यामिनी तमी ॥ ४ ॥

 

तमिस्रा तामसी रात्रिर्ज्यौत्स्नी चन्द्रिकयाऽन्विता ।

आगामिवर्तमानार्हयुक्तायां निशि पक्षिणी ॥ ५ ॥

 

गणरात्रं निशा बह्व्यः प्रदोषो रजनीमुखम् ।

अर्धरात्रनिशीथौ द्वौ द्वौ यामप्रहरौ समौ ॥ ६ ॥

 

स पर्वसंधिः प्रतिपत्पञ्चदश्योर्यदन्तरम् ।

पक्षान्तौ पञ्चदश्यौ द्वे पूर्णमासी तु पौर्णिमा ॥ ७ ॥

 

कलाहीने साऽनुमतिः पूर्णे राका निशाकरे ।

अमावास्या त्वमावस्या दर्शः सूर्येन्दुसंगमः ॥ ८ ॥

 

सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली सा नष्टेन्दुकला कुहूः ।

उपरागो ग्रहो राहुग्रस्ते त्विन्दौ च पूष्णि च ॥ ९ ॥

 

सोपप्लवोपरक्तौ द्वौ अग्न्युत्पात उपाहितः ।

एकयोक्त्या पुष्पवन्तौ दिवाकरनिशाकरौ ॥ १० ॥

 

अष्टादश निमेषास्तु काष्ठा त्रिंशत् तु ताः कला ।

तास्तु त्रिंशत् क्षणस्ते तु मुहूर्तो द्वादशाऽस्त्रियाम् ॥ ११ ॥

 

ते तु त्रिंशदहोरात्रः पक्षस्ते दशपञ्च च ।

पक्षौ पूर्वाऽपरौ शुक्लकृष्णौ मासस्तु तावुभौ ॥ १२ ॥

 

द्वौ द्वौ मार्गादिमासौ स्यादृतुस्तैरयनं त्रिभिः ।

अयने द्वे गतिरुदग्दक्षिणाऽर्कस्य वत्सरः ॥ १३ ॥

समरात्रिदिवे काले विषुवद्विषुवं च तत् ।

पुष्पयुक्ता पौर्णमासी पौषी मासे तु यत्र सा ।

नाम्ना स पौषो माघाऽऽद्याश्चैवमेकादशाऽपरे ॥

मार्गशीर्षे सहा मार्ग आग्रहायणिकश्च सः ॥ १४ ॥

 

पौषे तैषसहस्यौ द्वौ तपा माघेऽथ फाल्गुने ।

स्यात्तपस्यः फाल्गुनिकः स्याच्चैत्रे चैत्रिको मधुः ॥ १५ ॥

 

वैशाखे माधवो राधो ज्येष्ठे शुक्रः शुचिस्त्वयम् ।

आषाढे श्रावणे तु स्यान्नभाः श्रावणिकश्च सः ॥ १६ ॥

 

स्युर्नभस्यप्रौष्ठपदभाद्रभाद्रपदाः समाः ।

स्यादाश्विन इषोऽप्याश्वयुजोऽपि स्यात्तु कार्तिके ॥ १७ ॥

 

बाहुलोर्जौ कार्तिकिको हेमन्तः शिशिरोऽस्त्रियाम् ।

वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिर्ग्रीष्म ऊष्मकः ॥ १८ ॥

 

निदाघ उष्णोपगम उष्ण ऊष्मागमस्तपः ।

स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा अथ शरत्स्त्रियाम् ॥ १९ ॥

 

षडमी ऋतवः पुंसि मार्गादीनां युगैः क्रमात् ।

संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोऽस्त्री शरत्समाः ॥ २० ॥

 

मासेन स्यादहोरात्रः पैत्रो वर्षेण दैवतः ।

दैवे युगसहस्रे द्वे ब्राह्मः कल्पौ तु तौ नृणाम् ॥ २१ ॥

 

मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ।

संवर्तः प्रलयः कल्पः क्षयः कल्पान्त इत्यपि ॥ २२ ॥

 

अस्त्री पङ्कं पुमान्पाप्मा पापं किल्बिषकल्मषम् ।

कलुषं वृजिनैनोऽघमंहो दुरितदुष्कृतम् ॥ २३ ॥

 

स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः ।

मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदाऽऽमोदसम्मदाः ॥ २४ ॥

 

स्यादानन्दथुरानन्दः शर्मशातसुखानि च ।

श्वःश्रेयसं शिवं भद्रं कल्याणं मङ्गलं शुभम् ॥ २५ ॥

 

भावुकं भविकं भव्यं कुशलं क्षेममस्त्रियाम् ।

शस्तं चाऽथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं सुखादि च ॥ २६ ॥

 

मतल्लिका मचर्चिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ ।

प्रशस्तवाचकान्यमून्ययः शुभाऽऽवहो विधिः ॥ २७ ॥

 

दैवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं स्त्री नियतिर्विधिः ।

हेतुर्ना कारणं बीजं निदानं त्वादिकारणम् ॥ २८ ॥

 

क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः प्रधानं प्रकृतिः स्त्रियाम् ।

विशेषः कालिकोऽवस्था गुणाः सत्त्वं रजस्तमः ॥ २९ ॥

 

जनुर्जननजन्मानि जनिरुत्पत्तिरुद्भवः ।

प्राणी तु चेतनो जन्मी जन्तुजन्युशरीरिणः ॥ ३० ॥

 

जातिर्जातं च सामान्यं व्यक्तिस्तु पृथगात्मता ।

चित्तं तु चेतो हृदयं स्वान्तं हृन्मानसं मनः ॥ ३१ ॥

॥ इति कालवर्गः ॥

 

॥ अथ धीवर्गः ॥

बुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञा शेमुषी मतिः ।

प्रेक्षोपलब्धिश्चित्संवित्प्रतिपज्ज्ञप्तिचेतनाः ॥ १ ॥

 

धीर्धारणावती मेधा संकल्पः कर्म मानसम् ।

अवधानं समाधानं प्रणिधानं तथैव च ।

चित्ताभोगो मनस्कारश्चर्चा संख्या विचारणा ॥ २ ॥

 

विमर्शो भावना चैव वासना च निगद्यते ।

अध्याहारस्तर्क ऊहो विचिकित्सा तु संशयः ।

संदेहद्वापरौ चाथ समौ निर्णयनिश्चयौ ॥ ३ ॥

 

मिथ्यादृष्टिर्नास्तिकता व्यापादो द्रोहचिन्तनम् ।

समौ सिद्धान्तराद्धान्तौ भ्रान्तिर्मिथ्यामतिर्भ्रमः ॥ ४ ॥

 

संविदागूः प्रतिज्ञानं नियमाश्रवसंश्रवाः ।

अङ्गीकाराभ्युपगमप्रतिश्रवसमाधयः ॥ ५ ॥

 

मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः ।

मुक्तिः कैवल्यनिर्वाणश्रेयोनिःश्रेयसामृतम् ॥ ६ ॥

 

मोक्षोऽपवर्गोऽथाज्ञानमविद्याऽहंमतिः स्त्रियाम् ।

रूपं शब्दो गन्धरसस्पर्शाश्च विषया अमी ॥ ७ ॥

 

गोचरा इन्द्रियार्थाश्च हृषीकं विषयीन्द्रियम् ।

कर्मेन्द्रियं तु पाय्वादि मनोनेत्रादि धीन्द्रियम् ॥ ८ ॥

 

तुवरस्तु कषायोऽस्त्री मधुरो लवणः कटुः ।

तिक्तोऽम्लश्च रसाः पुंसि तद्वत्सु षडमी त्रिषु ॥ ९ ॥

 

विमर्दोत्थे परिमलो गन्धे जनमनोहरे ।

आमोदः सोऽतिनिर्हारी वाच्यलिङ्गत्वमागुणात् ॥ १० ॥

 

समाकर्षी तु निर्हारी सुरभिर्घ्राणतर्पणः ।

इष्टगन्धः सुगन्धिः स्यादामोदी मुखवासनः ॥ ११ ॥

 

पूतिगन्धस्तु दुर्गन्धो विस्रं स्यादामगन्धि यत् ।

शुक्लशुभ्रशुचिश्वेतविशदश्येतपाण्डुराः ॥ १२ ॥

 

अवदातः सितो गौरोऽवलक्षो धवलोऽर्जुनः ।

हरिणः पाण्डुरः पाण्डुरीषत्पाण्डुस्तु धूसरः ॥ १३ ॥

 

कृष्णे नीलासितश्यामकालश्यामलमेचकाः ।

पीतो गौरो हरिद्राभः पलाशो हरितो हरित् ॥ १४ ॥

 

लोहितो रोहितो रक्तः शोणः कोकनदच्छविः ।

अव्यक्तरागस्त्वरुणः श्वेतरक्तस्तु पाटलः ॥ १५ ॥

 

श्यावः स्यात्कपिशो धूम्रधूमलौ कृष्णलोहिते ।

कडारः कपिलः पिङ्गपिशङ्गौ कद्रुपिङ्गलौ ॥ १६ ॥

 

चित्रं किर्मीरकल्माषशबलैताश्च कर्बुरे ।

गुणे शुक्लादयः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति ॥ १७ ॥

॥ इति धीवर्गः ॥

॥ अथ शब्दादिवर्गः ॥

 

ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती।

व्याहार उक्तिर्लपितं भाषितं वचनं वचः॥ 1 ॥

 

अपभ्रंशोऽपशब्दः स्याच्छास्त्रे शब्दस्तु वाचकः।

तिङ् सुबन्तचयो वाक्यं क्रिया वा कारकान्विता॥ 2 ॥

 

श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायस्त्रयी धर्मस्तु तद्विधिः।

स्त्रियामृक् सामयजुषी इति वेदास्त्रयस्त्रयी॥ 3 ॥

 

शिक्षेत्यादि श्रुतेरङ्गमोङ्कारप्रणवौ समौ।

इतिहासः पुरावृत्तमुदात्ताद्यास्त्रयः स्वराः॥ 4 ॥

 

आन्वीक्षिकी दण्डनीतिस्तर्कविद्याऽर्थशास्त्रयोः।

आख्यायिकोपलब्धार्था पुराणं पञ्चलक्षणम्॥ 5 ॥

 

प्रबन्धकल्पना कथा प्रवह्लिका प्रहेलिका।

स्मृतिस्तु धर्मसंहिता समाहृतिस्तु संग्रहः॥ 6 ॥

 

समस्या तु समासार्था किंवदन्ती जनश्रुतिः।

वार्ता प्रवृत्तिर्वृत्तान्त उदन्तः स्यादथाऽह्वयः॥ 7 ॥

 

आख्याह्वे अभिधानं च नामधेयं च नाम च।

हूतिराकारणाऽऽह्वानं संहूतिर्बहुभिः कृता॥ 8 ॥

 

विवादो व्यवहारः स्यादुपन्यासस्तु वाङ्मुखम्।

उपोद्धात उदाहारः शपनं शपथः पुमान्॥ 9 ॥

 

प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च प्रतिवाक्योत्तरे समे।

मिथ्याभियोगोऽभ्याख्यानमथ मिथ्याभिशंसनम्॥ 10 ॥

 

अभिशापः प्रणादस्तु शब्दः स्यादनुरागजः।

यशः कीर्तिः समज्ञा च स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नुतिः॥ 11 ॥

 

आम्रेडितं द्विस्त्रिरुक्तमुच्चैर्घुष्टं तु घोषणा।

काकुः स्त्रियां विकारो यः शोकभीत्यादिभिर्ध्वनेः॥ 12 ॥

 

अवर्णाऽक्षेपनिर्वादपरीवादापवादवत्।

उपक्रोशो जुगुप्सा च कुत्सा निन्दा च गर्हणे॥ 13 ॥

 

पारुष्यमतिवादः स्याद् भर्त्सनं त्वपकारगीः।

यः सनिन्द उपालम्भस्तत्र स्यात्परिभाषणम्॥ 14 ॥

 

तत्र त्वाक्षारणा यः स्यादाक्रोशो मैथुनं प्रति।

स्यादाभाषणमालापः प्रलापोऽनर्थकं वचः॥ 15 ॥

 

अनुलापो मुहुर्भाषा विलापः परिदेवनम्।

विप्रलापो विरोधोक्तिः संलापो भाषणं मिथः॥ 16 ॥

 

सुप्रलापः सुवचनमपलापस्तु निह्नवः।

चोद्यमाक्षेपाऽभियोगौ शापाऽक्रोशौ दुरेषणा।

अस्त्री चाटु चटु श्लाघा प्रेम्णा मिथ्याविकत्थनम्॥

संदेशवाग्वाचिकं स्याद्वाग्भेदास्तु त्रिषूत्तरे॥ 17 ॥

 

रुशती वागकल्याणी स्यात्कल्या तु शुभात्मिका।

अत्यर्थमधुरं सान्त्वं संगतं हृदयङ्गमम्॥ 18 ॥

 

निष्ठुरं परुषं ग्राम्यमश्लीलं सूनृतं प्रिये।

सत्येऽथ संकुलक्लिष्टे परस्परपराहते॥ 19 ॥

 

लुप्तवर्णपदं ग्रस्तं निरस्तं त्वरितोदितम्।

अम्बूकृतं सनिष्ठीवमबद्धं स्यादनर्थकम्॥ 20 ॥

 

अनक्षरमवाच्यं स्यादाहतं तु मृषार्थकम्।

सोल्लुण्ठनं तु सोत्प्रासं मणितं रतिकूजितम्।

श्राव्यं हृद्यं मनोहारि विस्पष्टं प्रकटोदितम्॥

 अथ म्लिष्टमविस्पष्टं वितथं त्वनृतं वचः॥ 21

 

सत्यं तथ्यमृतं सम्यगमूनि त्रिषु तद्वति।

शब्दे निनादनिनदध्वनिध्वानरवस्वनाः॥ 22 ॥

 

 

स्वाननिर्घोषनिर्ह्रादनादनिस्वाननिस्वनाः।

आरवाऽऽरावसंरावविरावा अथ मर्मरः॥ 23॥

 

स्वनिते वस्त्रपर्णानां भूषणानां तु शिञ्जितम्।

निक्वाणो निक्वणः क्वाणः क्वणः क्वणनमित्यपि॥ 24॥

 

वीणायाः क्वणिते प्रादेः प्रक्वाणप्रक्वणादयः।

कोलाहलः कलकलस्तिरश्चां वाशितं रुतम्॥ 25॥

स्त्री प्रतिश्रुत्प्रतिध्वाने गीतं गानमिमे समे।

 

॥ इति शब्दादि वर्गः ॥

 

॥ अथ नाट्यवर्गः ॥

 

निषादर्षभगान्धारषड्जमध्यमधैवताः।

पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः॥ १ ॥

 

काकली तु कले सूक्ष्मे ध्वनौ तु मधुराऽस्फुटे।

कलो मन्द्रस्तु गम्भीरे तारोऽत्युच्चैस्त्रयस्त्रिषु॥ २ ॥

 

नृणामुरसि मध्यस्थो द्वाविंशतिविधो ध्वनिः।

स मन्द्रः कण्ठमध्यस्थस्तारः शिरसि गीयते॥

 

समन्वितलयस्त्वेकतालो वीणा तु वल्लकी।

विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी॥ ३ ॥

 

ततं वीणाऽऽदिकं वाद्यमानद्धं मुरजाऽऽदिकम्।

वंशाऽऽदिकं तु सुषिरं कांस्यतालाऽऽदिकं घनम्॥ ४ ॥

 

चतुर्विधमिदं वाद्यं वादित्राऽऽतोद्यनामकम्।

मृदङ्गा मुरजा भेदास्त्वङ्क्याऽऽलिङ्ग्योर्ध्वकास्त्रयः॥ ५ ॥

 

स्याद्यशःपटहो ढक्का भेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमान्।

आनकः पटहोऽस्त्री स्यात् कोणो वीणाऽऽदिवादनम्॥ ६ ॥

 

वीणादण्डः प्रवालः स्यात्ककुभस्तु प्रसेवकः।

कोलम्बकस्तु कायोऽस्या उपनाहो निबन्धनम्॥ ७ ॥

 

वाद्यप्रभेदा डमरुमड्डुडिण्डिमझर्झराः।

मर्दलः पणवोऽन्ये च नर्तकीलासिके समे॥ ८ ॥

 

विलम्बितं द्रुतं मध्यं तत्त्वमोघो घनं क्रमात्।

तालः कालक्रियामानं लयः साम्यमथाऽस्त्रियाम्॥ ९ ॥

 

ताण्डवं नटनं नाट्यं लास्यं नृत्यं च नर्तने।

तौर्यत्रिकं नृत्यगीतवाद्यं नाट्यमिदं त्रयम्॥ १० ॥

 

भ्रकुंसश्च भ्रुकुंसश्च भ्रूकुंसश्चेति नर्तकः।

स्त्रीवेषधारी पुरुषो नाट्योक्तौ गणिकाज्जुका॥ ११ ॥

 

भगिनीपतिरावुत्तो भावो विद्वानथाऽऽवुकः।

जनको युवराजस्तु कुमारो भर्तृदारकः॥ १२ ॥

 

राजा भट्टारको देवस्तत्सुता भर्तृदारिका।

देवी कृताभिषेकायामितरासु तु भट्टिनी॥ १३ ॥

 

अब्रह्मण्यमवध्योक्तौ राजश्यालस्तु राष्ट्रियः।

अम्बा माताऽथ बाला स्याद्वासूरार्यस्तु मारिषः॥ १४ ॥

 

अत्तिका भगिनी ज्येष्ठा निष्ठानिर्वहणे समे।

हण्डे हञ्जे हलाऽऽह्वाने नीचां चेटीं सखीं प्रति॥ १५ ॥

 

अङ्गहारोऽङ्गविक्षेपो व्यञ्जकाऽभिनयौ समौ।

निर्वृत्ते त्वङ्गसत्त्वाभ्यां द्वे त्रिष्वाङ्गिकसात्त्विके॥ १६ ॥

 

शृङ्गारवीरकरुणाऽद्भुतहास्यभयानकाः।

बीभत्सरौद्रौ च रसाः शृङ्गारः शुचिरुज्ज्वलः॥ १७ ॥

 

उत्साहवर्धनो वीरः कारुण्यं करुणा घृणा।

कृपा दयाऽनुकम्पा स्यादनुक्रोशोऽप्यथो हसः॥ १८ ॥

 

हासो हास्यं च बीभत्सं विकृतं त्रिष्विदं द्वयम्।

विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्यं चित्रमप्यथ भैरवम्॥ १९ ॥

 

दारुणं भीषणं भीष्मं घोरं भीमं भयानकम्।

भयङ्करं प्रतिभयं रौद्रं तूग्रममी त्रिषु॥ २० ॥

 

चतुर्दश दरस्त्रासो भीतिर्भीः साध्वसं भयम्।

विकारो मानसो भावोऽनुभावो भावबोधकः॥ २१ ॥

 

गर्वोऽभिमानोऽहङ्कारो मानश्चित्तसमुन्नतिः।

दर्पोऽवलोकोऽवष्टम्भश्चित्तोद्रेकः स्मयो मदः

अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया॥ २२ ॥

 

रीढाऽवमाननाऽवज्ञाऽवहेलनमसूर्क्षणम्।

मन्दाक्षं ह्रीस्त्रपा व्रीडा लज्जा साऽपत्रपाऽन्यतः॥ २३ ॥

 

क्षान्तिस्तितिक्षाऽभिध्या तु परस्य विषये स्पृहा।

अक्षान्तिरीर्ष्याऽसूया तु दोषाऽऽरोपो गुणेष्वपि॥ २४ ॥

 

वैरं विरोधो विद्वेषो मन्युशोकौ तु शुक् स्त्रियाम्।

पश्चात्तापोऽनुतापश्च विप्रतीसार इत्यपि॥ २५ ॥

 

कोपक्रोधाऽमर्षरोषप्रतिघा रुट्क्रुधौ स्त्रियौ।

शुचौ तु चरिते शीलमुन्मादश्चित्तविभ्रमः॥ २६ ॥

 

प्रेमा ना प्रियता हार्दं प्रेम स्नेहोऽथ दोहदम्।

इच्छा काङ्क्षा स्पृहेहा तृड् वाञ्छा लिप्सा मनोरथः॥ २७ ॥

 

कामोऽभिलाषस्तर्षश्च सोऽत्यर्थं लालसा द्वयोः।

उपाधिर्ना धर्मचिन्ता पुंस्याधिर्मानसी व्यथा॥ २८ ॥

 

स्याच्चिन्ता स्मृतिराध्यानमुत्कण्ठोत्कलिके समे।

उत्साहोऽध्यवसायः स्यात् स वीर्यमतिशक्तिभाक्॥ २९ ॥

 

कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे।

कुसृतिर्निकृतिः शाठ्यं प्रमादोऽनवधानता॥ ३० ॥

 

कौतूहलं कौतुकं च कुतुकं च कुतूहलम्।

स्त्रीणां विलासबिब्बोकविभ्रमा ललितं तथा॥ ३१ ॥

 

हेला लीलेत्यमी हावाः क्रियाः श‍ृङ्गारभावजाः।

द्रवकेलिपरीहासाः क्रीडा लीला च नर्म च॥ ३२ ॥

 

व्याजोऽपदेशो लक्ष्यं च क्रीडा खेला च कूर्दनम्।

घर्मो निदाघः स्वेदः स्यात्प्रलयो नष्टचेष्टता॥ ३३ ॥

 

अवहित्थाकारगुप्तिः समौ संवेगसंभ्रमौ।

स्यादाच्छुरितकं हासः सोत्प्रासः स मनाक् स्मितम्॥ ३४ ॥

 

मध्यमः स्याद्विहसितं रोमाञ्चो रोमहर्षणम्

क्रन्दितं रुदितं क्रुष्टं जृम्भस्तु त्रिषु जृम्भणम्॥ ३५ ॥

 

विप्रलम्भो विसंवादो रिङ्गणं स्खलनं समे

स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नः संवेश इत्यपि॥ ३६ ॥

 

तन्द्री प्रमीला भ्रकुटिर्भ्रुकुटिर्भ्रूकुटिः स्त्रियाम्

अदृष्टिः स्यादसौम्येऽक्ष्णि संसिद्धिप्रकृती त्विमे॥ ३७ ॥

 

स्वरूपं च स्वभावश्च निसर्गश्चाथ वेपथुः

कम्पोऽथ क्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सवः॥ ३८ ॥

 

॥ इति नाट्यवर्गः ॥

 

॥ अथ पातालभोगिवर्गः ॥

 

अधोभुवनपातालं बलिसद्म रसातलम्

नागलोकोऽथ कुहरं सुषिरं विवरं बिलम्॥ १ ॥

 

छिद्रं निर्व्यथनं रोकं रन्ध्रं श्वभ्रं वपा सुषिः

गर्ताऽवटौ भुवि श्वभ्रे सरन्ध्रे सुषिरं त्रिषु॥ २ ॥

 

अन्धकारोऽस्त्रियां ध्वान्तं तमिस्रं तिमिरं तमः

ध्वान्ते गाढेऽन्धतमसं क्षीणेऽवतमसं तमः॥ ३ ॥

 

विष्वक्संतमसं नागाः काद्रवेयास्तदीश्वरः

शेषोऽनन्तो वासुकिस्तु सर्पराजोऽथ गोनसे॥ ४ ॥

 

तिलित्सः स्यादजगरे शयुर्वाहस इत्युभौ

अलगर्दो जलव्यालः समौ राजिलडुण्डुभौ॥ ५ ॥

 

मालुधानो मातुलाहिर्निर्मुक्तो मुक्तकञ्चुकः

सर्पः पृदाकुर्भुजगो भुजङ्गोऽहिर्भुजङ्गमः॥ ६ ॥

 

आशीविषो विषधरश्चक्री व्यालः सरीसृपः

कुण्डली गूढपाच्चक्षुःश्रवाः काकोदरः फणी॥ ७ ॥

 

दर्वीकरो दीर्घपृष्ठो दन्दशूको बिलेशयः

उरगः पन्नगो भोगी जिह्मगः पवनाशनः॥ ८ ॥

 

लेलिहानो द्विरसनो गोकर्णः कञ्चुकी तथा ।

कुम्भीनसः फणधरो हरिर्भोगधरस्तथा ॥

अहेः शरीरं भोगः स्यादाशीरप्यहिदंष्ट्रिका ।

 

त्रिष्वाहेयं विषाऽस्थ्यादि स्फटायां तु फणा द्वयोः ।

समौ कञ्चुकनिर्मोकौ क्ष्वेडस्तु गरलं विषम्॥ ९ ॥

 

पुंसि क्लीबे च काकोलकालकूटहलाहलाः

सौराष्ट्रिकः शौक्लिकेयो ब्रह्मपुत्रः प्रदीपनः॥ १० ॥

 

दारदो वत्सनाभश्च विषभेदा अमी नव

विषवैद्यो जाङ्गुलिको व्यालग्राह्यहितुण्डिकः॥ ११ ॥

 

॥ इति पातालभोगिवर्गः ॥

 

 अथ नरकवर्गः 

स्यान्नारकस्तु नरको निरयो दुर्गतिः स्त्रियाम्।

तद्भेदास्तपनाऽवीचिमहारौरवरौरवाः ॥ 1 ॥

 

संघातः कालसूत्रं चेत्याद्याः सत्त्वास्तु नारकाः।

प्रेता वैतरणी सिन्धुः स्यादलक्ष्मीस्तु निरृतिः ॥ 2 ॥

 

विष्टिराजूः कारणा तु यातना तीव्रवेदना।

पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजम् ॥ 3 ॥

 

स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलं त्रिष्वेषां भेद्यगामि यत्।

 

॥ इति नरकवर्गः ॥

 

॥ अथ वारिवर्गः 

समुद्रोऽब्धिरकूपारः पारावारः सरित्पतिः ।

उदन्वानुदधिः सिन्धुः सरस्वान्सागरोऽर्णवः ॥ 1 ॥

 

रत्नाकरो जलनिधिर्यादःपतिरपाम्पतिः ।

तस्य प्रभेदाः क्षीरोदो लवणोदस्तथाऽपरे ॥ 2 ॥

 

आपः स्त्री भूम्नि वार्वारि सलिलं कमलं जलम् ।

पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम् ॥ 3 ॥

 

कबन्धमुदकं पाथः पुष्करं सर्वतोमुखम् ।

अम्भोऽर्णस्तोयपानीयनीरक्षीराम्बुशम्बरम् ॥ 4 ॥

 

मेघपुष्पं घनरसस्त्रिषु द्वे आप्यमम्मयम् ।

भङ्गस्तरङ्ग ऊर्मिर्वा स्त्रियां वीचिरथोर्मिषु ॥ 5 ॥

 

महत्सूल्लोलकल्लोलौ स्यादावर्तोऽम्भसां भ्रमः ।

पृषन्तिबिन्दुपृषताः पुमांसो विप्रुषः स्त्रियाम् ॥ 6 ॥

 

चक्राणि पुटभेदाः स्युर्भ्रमाश्च जलनिर्गमाः ।

कूलं रोधश्च तीरं च प्रतीरं च तटं त्रिषु ॥ 7 ॥

 

पारावारे परार्वाची तीरे पात्रं तदन्तरम् ।

द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीपं यदन्तर्वारिणस्तटम् ॥ 8 ॥

 

तयोत्थितं तत्पुलिनं सैकतं सिकतामयम् ।

निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽस्त्री शादकर्दमौ ॥ 9 ॥

 

जलोच्छ्वासाः परीवाहाः कूपकास्तु विदारकाः ।

नाव्यं त्रिलिङ्गं नौतार्ये स्त्रियां नौस्तरणिस्तरिः ॥ 10 ॥

 

उडुपं तु प्लवः कोलः स्रोतोऽम्बुसरणं स्वतः ।

आतरस्तरपण्यं स्याद् द्रोणी काष्ठाम्बुवाहिनी ॥ 11 ॥

 

सांयात्रिकः पोतवणिक् कर्णधारस्तु नाविकः ।

नियामकाः पोतवाहाः कूपको गुणवृक्षकः ॥ 12 ॥

 

नौकादण्डः क्षेपणी स्यादरित्रं केनिपातकः ।

अभ्रिः स्त्री काष्ठकुद्दालः सेकपात्रं तु सेचनम् ॥ 13 ॥

 

क्लीबेऽर्धनावं नावोऽर्धेऽतीतनौकेऽतिनु त्रिषु ।

त्रिष्वागाधात्प्रसन्नोऽच्छः कलुषोऽनच्छ आविलः ॥ 14 ॥

 

निम्नं गभीरं गम्भीरमुत्तानं तद्विपर्यये ।

अगाधमतलस्पर्शे कैवर्ते दाशधीवरौ ॥ 15 ॥

 

आनायः पुंसि जालं स्याच्छणसूत्रं पवित्रकम् ।

मत्स्याधानी कुवेणी स्याद् बडिशं मत्स्यवेधनम् ॥ 16 ॥

 

पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः ।

विसारः शकुली चाथ गडकः शकुलार्भकः ॥ 17 ॥

 

सहस्रदंष्ट्रः पाठीन उलूपी शिशुकः समौ ।

नलमीनश्चिलिचिमः प्रोष्ठी तु शफरी द्वयोः ॥ 18 ॥

 

क्षुद्राण्डमत्स्यसंघातः पोताधानमथो झषाः ।

रोहितो मद्गुरः शालो राजीवः शकुलस्तिमिः ॥ 19 ॥

 

तिमिङ्गिलादयश्चाथ यादांसि जलजन्तवः ।

तद्भेदाः शिशुमारोद्रशङ्कवो मकरादयः ॥ 20 ॥

 

स्यात्कुलीरः कर्कटकः कूर्मे कमठकच्छपौ ।

ग्राहोऽवहारो नक्रस्तु कुम्भीरोऽथ महीलता ॥ 21 ॥

 

गण्डूपदः किञ्चुलको निहाका गोधिका समे ।

रक्तपा तु जलौकायां स्त्रियां भूम्नि जलौकसः ॥ 22 ॥

 

मुक्तास्फोटः स्त्रियां शुक्तिः शङ्खः स्यात्कम्बुरस्त्रियौ ।

क्षुद्रशङ्खाः शङ्खनखाः शम्बूका जलशुक्तयः ॥ 23 ॥

 

भेके मण्डूकवर्षाभूशालूरप्लवदर्दुराः ।

शिली गण्डूपदी भेकी वर्षाभ्वी कमठी डुलिः ॥ 24 ॥

 

मद्गुरस्य प्रिया शृङ्गी दुर्नामा दीर्घकोशिका ।

जलाशया जलाधारास्तत्रागाधजलो ह्रदः ॥ 25 ॥

 

आहावस्तु निपानं स्यादुपकूपजलाशये ।

पुंस्येवाऽन्धुः प्रहिः कूप उदपानं तु पुंसि वा ॥ 26 ॥

 

नेमिस्त्रिकास्य वीनाहो मुखबन्धनमस्य यत् ।

पुष्करिण्यां तु खातं स्यादखातं देवखातकम् ॥ 27 ॥

 

पद्माकरस्तडागोऽस्त्री कासारः सरसी सरः ।

वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरो वापी तु दीर्घिका ॥ 28 ॥

 

खेयं तु परिखाधारस्त्वम्भसां यत्र धारणम् ।

स्यादालवालमावालमावापोऽथ नदी सरित् ॥ 29 ॥

 

तरङ्गिणी शैवलिनी तटिनी ह्रादिनी धुनी ।

स्रोतस्विनी द्वीपवती स्रवन्ती निम्नगाऽपगा ॥ 30 ॥

 

कूलङ्कषा निर्झरिणी रोधोवक्रा सरस्वती ।

 

गङ्गा विष्णुपदी जह्नुतनया सुरनिम्नगा ।

भागीरथी त्रिपथगा त्रिस्रोता भीष्मसूरपि ॥ 31 ॥

 

कालिन्दी सूर्यतनया यमुना शमनस्वसा ।

रेवा तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यका ॥ 32 ॥

 

करतोया सदानीरा बाहुदा सैतवाहिनी।

शतद्रुस्तु शुतुद्रिः स्याद्विपाशा तु विपाट् स्त्रियाम्॥ 33 ॥

 

शोणो हिरण्यवाहः स्यात्कुल्याऽल्पा कृत्रिमा सरित्।

शरावती वेत्रवती चन्द्रभागा सरस्वती॥ 34 ॥

 

कावेरी सरितोऽन्याश्च सम्भेदः सिन्धुसङ्गमः।

द्वयोः प्रणाली पयसः पदव्यां त्रिषु तूत्तरौ॥ 35 ॥

 

देविकायां सरय्वां च भवे दाविकसारवौ ।

सौगन्धिकं तु कह्लारं हल्लकं रक्तसंध्यकम्॥ 36 ॥

 

स्यादुत्पलं कुवलयमथ नीलाम्बुजन्म च ।

इन्दीवरं च नीलेऽस्मिन्सिते कुमुदकैरवे॥ 37 ॥

 

शालूकमेषां कन्दः स्याद्वारिपर्णी तु कुम्भिका ।

जलनीली तु शैवालं शैवलोऽथ कुमुद्वती॥ 38 ॥

 

कुमुदिन्यां नलिन्यां तु बिसिनीपद्मिनीमुखाः ।

वा पुंसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलम्॥ 39 ॥

 

सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेशयम् ।

पङ्केरुहं तामरसं सारसं सरसीरुहम्॥ 40 ॥

 

बिसप्रसूनराजीवपुष्कराऽम्भोरुहाणि च ।

पुण्डरीकं सिताम्भोजमथ रक्तसरोरुहे॥ 41 ॥

 

रक्तोत्पलं कोकनदं नालो नालमथाऽस्त्रियाम् ।

मृणालं बिसमब्जादिकदम्बे खण्डमस्त्रियाम्॥ 42 ॥

 

करहाटः शिफाकन्दः किञ्जल्कः केसरोऽस्त्रियाम् ।

संवर्तिका नवदलं बीजकोशो वराटकः॥ 43 ॥

  ॥ इति वारिवर्गः 

उक्तं स्वर्व्योमदिक्कालधीशब्दादि सनाट्यकम् ।

पातालभोगिनरकं वारि चैषां च सङ्गतम्॥ 1 ॥

 

इत्यमरसिंहकृतौ नामलिङ्गानुशासने ।

स्वरादिकाण्डः प्रथमः साङ्ग एव समर्थितः॥ 2 ॥

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