आपो देवता सूक्त 47,48 & 49

सूक्त 47
अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्।। 
पृञ्चतीर्मधुना पयः।।16।।
अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह।।
ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्।।17।।
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।।
सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः।।18।।
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।।
देवा भवत वाजिनः।।19।।
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।।20।।
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम।।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ।।21।।
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि।।
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम्।।22।।
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि।।
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा ।।23।। 
आपो यं वः प्रथमं देवयन्त
इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेळः।।
सूक्त 48
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम।।1।।
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा।।
यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य।।2।।
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः।।
ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत।।3।।
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।4।।
सूक्त 49
समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः।।
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।1।।
या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः।।
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।2।।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्।।
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।3।।
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति।।
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु।।4।।
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श्री सूक्त

ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे।।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां,तामिहोपह्वये श्रियम्।।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।
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वैदिक सूक्त


सायनाचार्य का दूसरा नाम विद्यारण्य है। इन्होंने ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद, अर्थवेद तथा सारे ब्राह्मण ग्रन्थों पर भाष्य लिखे। धर्म के तीन स्तम्भ होते है। 1. तत्व ज्ञान 2. सदाचार 3. कर्मकाण्ड। लौकिक छन्दों की तरह गण व्यवस्था वैदिक साहित्य में नहीं है। यहाँ चार-चार अक्षर के एक छन्द होते है तथा बढ़ते क्रम में यह अड़तालिस अक्षरों का छन्द वेद में प्राप्त होता है।
ऋग्वेद का प्राचीनतम विभाजन अष्टक के रूप में प्राप्त होता है। बाद में अनुवाक, अध्याय, सूक्त एवं मंत्र के रूप में विभाजित किया गया । सम्पूर्ण वेद दस संहिताओं में विभक्त किया गया। मण्डल और सूक्त के रूप में आज ज्यादा प्रचलित है, जबकि गुरू-शिष्य परम्परा में अष्टक क्रम ज्यादा प्रभावी है।
दार्शनिक एवं नैतिक आधारों का निर्माण ऋग्वेद में हुआ है। यज्ञ में पढ़े जाने वाले मंत्र समूह को शस्त्र कहा जाता है। होता शस्त्र पढ़ता है। वेद के यज्ञों में चमासाध्वर्यु शब्द अध्वर्यु के द्वारा प्रयुक्त होने वाले विभिन्न प्रकार के चमस को उपलब्ध कराता है। यहीं शब्द बाद में विकृत होकर चमचा के रूप में प्रतिष्ठित हो गया।
नासदीय सूक्तों में सृष्टि की परिकल्पना एवं वैचारिक आधार प्राप्त होता है। रक्त संबन्धों में विवाह का निषेध यम यमी संवाद में प्राप्त होता है। जिस देश में जुआ और लॉटरी का प्रचलन ज्यादा हो वहाँ अक्ष सूक्त को बार-बार पढ़ने की आवश्कता है। यह सूक्त इस प्रकार के कार्यो का निषेध करते हुए इसके परिणाम की ओर ध्यान आकर्षित करता है। संज्ञान सूक्त संगठन के सूक्त है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में बहुत अधिक सूक्त आये है। ऋग्वेद में भक्ति भी है परन्तु यह प्रेमा भक्ति नहीं है बल्कि पिता पुत्र की बीच सबन्ध रूपी भक्ति है। पिता-पुत्र के कल्याण हेतु सर्वदा सन्नद्ध रहता है। गतिशील समाज की निर्मिति का आकर्षक चित्र ऋग्वेद से प्राप्त होता है।

वेद के दो सम्प्रदाय प्राप्त होते है। 1. ब्राहमण सम्प्रदाय 2. आदित्य सम्प्रदाय। शिव संकल्प सूक्त में मनोविज्ञान का आधार प्राप्त होता है। रथ और सारथी रूपकों का उपमान शिवसंकल्प सूक्त में प्रथम बार प्राप्त होता है। मेधा सूक्त में विभिन्न प्रकार के उद्योगों एवं व्यवसायों का वर्णन प्राप्त होता है। यज्ञ वेदी के निर्माण में याज्ञवल्क्य का अनुपम योगदान है। इससे ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य कलात्मक अभिरूचि के व्यक्ति थे। स्मृतियों ने वेदों के धर्म को आगे बढ़ाया, वेदोखिलो धर्ममूलम्‌।
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Vedic Education

ज्ञान की महीयसी राशि ऋषियों द्वारा देखे गये, जिनके नाम ऋग्वेदयजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद है। इनके चार श्रेणी है।    
1. मंत्र संहिता में मंत्रों को एक साथ रखा 2. ब्राह्मण ग्रन्थ इसे आपस्तम्ब वेद मानते है। परन्तु वहाँ केवल वेद की व्याख्या की गयी है। ब्राह्मण ग्रन्थों में समाजशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र का उद्‌भव एवं विकास  है। इन समाजशास्त्र एवं राजनीति शास्त्रों के महाकोश के रूप में यहां संरचना प्राप्त होती हैं। भारतीय समाजिक संस्थाओं का उद्‌भव ब्राह्मण ग्रन्थों से ही हुआ है। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग को अलग नहीं किया जा सकताअतः इसे कृष्ण यजुर्वेद कहा गया है। यहाँ विकृति पाठ की योजनाअनुक्रमणियाँ नहीं देखी जाती। आर्य समाज तथा अनेक पूर्ववर्ती भाष्यकार संहिता भाग के अन्तर्गत ब्राह्मण ग्रन्थों को नहीं मानते हैं। ब्राह्मण भाग के अन्तिम अंश उपनिषद् है। वेदों के संहिताकरण का प्रयोजन यज्ञानुष्ठान से है। यज्ञ में चार मुख्य कर्ता होते है। 1. ऋतिक 1. होता 2. उद्‌गाता 3. अध्वर्यु  4. ब्रह्मा ये यज्ञ के भाग है। होता का वेद ऋग्वेद है। वह होतृमेध में ऋग्वेद का मंत्र बोलता है। यज्ञ का संयोजन कर्ता अध्वर्यु है। अध्वर का अर्थ वेद से है। अध्वर्यु का वेद यजुर्वेद है। उद्‌गाता सामवेद के मंत्रों का गान करता है। सर्वकर्माभिज्ञ ब्रह्मा होता है। इसका सम्बन्ध इन्द्र से है। अग्नि से ऋग्वेदआदित्य से यजुर्वेद एवं वायु से सामवेद है।
संहिताकरण का आधार
पूर्व में सभी वेदों के मंत्र मिले हुए थे। देश के सबसे बड़े प्रज्ञापुरूष वेद व्यास को वेदों के वर्गीकरण का श्रेय जाता है। यद्यपि वेदों को त्रिपिटक ग्रन्थ के जैसे विभाजन अथवा सम्पादन सम्भव नहीं था। महाभारत के सम्पादन को भी विदेशियों ने असाध्य मानकर छोड़ दिया। बाद में बड़ौदा एवं पूना से इसके संशोधित संस्करण प्रकाशित हुए। वेदों का वर्गीकरण करके  अपने चार प्रिय शिष्यों पैलवैशम्पायनजैमिनी तथा सुमन्तु को क्रमशः प्रचार-प्रसार हेतु नियुक्त किया। ऋग्वेद का वर्गीकरण निम्नानुसार किया- 
1. दूसरे मण्डल से सातवें मण्डल तक वंश मण्डल नाम से बनाये गये। ये पारिवारिक मण्डल हैजिसमें गृत्समद्वशिष्ठविश्वामित्रअत्रिवामदेव भारद्वाज आदि ऋषियों अथवा इसके वंशजों द्वारा सात्क्षात्कार किये गये मंत्रो के संकलन प्राप्त होते है।  वेद व्यास नें इन मंत्रो को पृथक्-पृथक् कर सब तक पहुँचाया।
2. नवें और दसवें मण्डल का सम्पादन विषय की दृष्टि से किया गया। नवें मण्डल में सोम की प्रशंसा की गयी तथा दसवें मण्डल का सांस्कृतिक महत्व है। अमेरिकी शोधकर्ता कवक वंश को सोम वंश माना है, जिसे दाण्डेकर ने खण्डन कर दिया है।
यजुर्वेद में यज्ञ के अनुरूप मंत्र है। सामवेद गान प्रधान हैइसके दो भाग है।

1. आर्चिक - ऋचा भाग 2. गान भाग । कुछ गान आरण्य में गाये जाते थे। सामवेद में लगभग एक हजार ढंग से गान होते थे। अर्थवेद जीवन का वेद है। यह लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों रूप में उपयोगी है। ऋग्वेद की शाकल शाखा उपलब्ध है। शाखाओं से तात्पर्य मंत्रों के प्रचार-प्रसार से है। वेदों की सभी शाखाओं का एक ही संहिता मान्य है। शाखाओं में न्यूनाधिक्य या पौर्वापर्य भेद देश के आधार पर होता है। कुछ शाखाओं के मंत्रों में पाठ भेद भी मिलते है।
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संस्कृत साहित्य की सर्जना

वैदिक साहित्य सर्जन में  हजार साल व्यतीत हुए होंगे! इतने दीर्घ समय के दौरान वैदिक भाषा में अप्रतिम वैविध्य, भेद या परिवर्तन हो जाना सहज था । इसीलिए महामुनि पाणिनी ने वैदिक व्याकरण व भाषा नियमों को सुसंबद्ध किया । इनका काल करीब ई.पू. 350 का माना जाता है, जो कि सूत्रोंके सर्जना का काल भी था । प्रचलित संस्कृत की जननी पाणिनीय व्याकरण को माना जाता है और यहीं से मध्यकालीन संस्कृत साहित्य सर्जना यात्रा आरंभ हुई दिखती है ।
संस्कृत नाट्यशास्त्रों के मूल ऋग्वेद के उन मंत्रों में हैं, जो संवादात्मक हैं । इनमें आनेवाली कहानियाँ, प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है । नाट्यों की शुरुआत प्रार्थना से होती है और उसके तुरंत बाद रंगमंच प्रस्थापक और किसी अभिनेता के बीच संवाद द्वारा, नाट्य के रचयिता और नाट्य विषय की जानकारी प्रस्तुत की जाती है । कालिदास, भास, हर्ष, भवभूति, दण्डी इत्यादि संस्कृत के विद्वान नाट्यकार हैं । इनकी अनेक रचनाओं में से कालिदास का शाकुंतलआज भी लोगों को स्मरण है ।
वाल्मीकि रचित रामायण और व्यास रचित महाभारत संस्कृत के दो महान महाकाव्य है। इन दो महाकाव्यों ने अनेकों वर्षों तक भारतीय जीवन के हर पहलु को प्रभावित किया और भारतीयों को उन्नत जीवन जीने के लिए प्रेरित किया । इन महाकाव्यों ने शासन व्यवस्था, अर्थप्रणाली, समाज व्यवस्था, मानवशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षणप्रणाली इत्यादि विषयों का गहन परिशीलन दिया । इन इतिहास ग्रंथों के अलावा संस्कृत में अनेक पुराण ग्रंथों की भी सर्जना हुई, जिनमें देवी-देवताओं के विषय में कथाओं द्वारा सामान्य जनमानस को बोध कराने का प्रयत्न किया गया ।
संस्कृत साहित्य सर्जन को अधिक उत्तेजना तब मिला जब नाट्यकार भरत ई.पू. 200 ने नाट्यशास्त्ररचा । प्रारम्भिक काल के नाट्यों में भास का योगदान महत्त्वपूर्ण था, पर कालिदास के शाकुंतलकी रचना होते ही वे विस्मृत होते गये । शाकुंतल सदियों तक नाट्यरचना का नमूना बना रहा । शाकुंतल शृंगार और वीर रस का वाचक था, तो शुद्रक का मृच्छकटिकम्सामाजिक नाटक था । उनके पश्चात् भवभूति (ई. 700) हुए, जिनके मालती-माधवऔर उत्तर रामचरितनाट्य प्रसिद्ध हुए ।
मध्यकालीन युग में पंच महाकाव्यों की भी रचना हुई;
1.कालिदास के रघुवंशऔर कुमारसंभव 3.भारवि का किरातार्जुनीय” (ई. 550) 4.माघ का शिशुपालवध”; और 5. श्रीहर्ष का नैषधीय चरित
   इन पाँचों महाकाव्यों का प्रेरणास्रोत ग्रंथ महाभारतथा, जो आज भी अनेक लेखकों का मार्गदर्शक है । महाकाव्यों के अलावा प्रेम, नीति, अनासक्ति ऐसे अनेक विषयों पर व्यावहारिक भाषा में लघुकाव्यों की रचना भी इस काल में हुई । ऐसी पद्यरचना जिसे मुक्तककहा जाता है, उनके रचयिता भर्तृहरि और अमरुक हुए । भर्तृहरि रचित नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्य शतक आज भी प्रसिद्ध है ।
दुर्भाग्य से संस्कृत की गद्यरचनाएँ इतनी प्रसिद्ध नहीं हुई और वे कालप्रवाह में नष्ट हुई । जो कुछ बची, उनमें से सुबंधु की वासवदत्ता”, बाण की कादंबरीएवं हर्षचरित”, और दंडी की दशकुमारचरितप्रचलित हैं ।

 संस्कृत के सभी साहित्य प्रकार में नीतिपरकत्व विदित होता है, पर परीकथाओं और दंतकथाओं (ई. 400 – 1100) में वह अत्यधिक उभर आया है । पंचतंत्रऔर हितोपदेशबुद्धिचातुर्य और नीतिमूल्य विषयक कथाओं के संग्रह हैं, जो पशु-पक्षियों के चरित्रों, कहावतों, और सूक्तियों द्वारा व्यवहारचातुर्य समझाते हैं । वैसे भिन्न दिखनेवाली अनेक उपकथाओं को, एक ही कथा या रचना के भीतर समाविष्ट कर लिया जाता है। मूल कथा का प्रधान चरित्र इतनी उप-कथाएँ बताते जाता है कि मूल रचना अनेक स्तरों में लिखी हुई प्रस्तुत होती है । इस पद्धति का उपयोग पंचतंत्र में विशेष तौर पर किया गया है ।

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