वैदिक साहित्य सर्जन में
हजार साल व्यतीत हुए होंगे! इतने दीर्घ समय के दौरान वैदिक भाषा में
अप्रतिम वैविध्य, भेद या परिवर्तन हो जाना सहज था । इसीलिए महामुनि पाणिनी ने
वैदिक व्याकरण व भाषा नियमों को सुसंबद्ध किया । इनका काल करीब ई.पू. 350 का माना जाता है, जो कि “सूत्रों” के सर्जना का काल भी था । प्रचलित संस्कृत की जननी पाणिनीय
व्याकरण को माना जाता है और यहीं से मध्यकालीन संस्कृत साहित्य सर्जना यात्रा
आरंभ हुई दिखती है ।
संस्कृत नाट्यशास्त्रों के मूल ऋग्वेद के उन मंत्रों में
हैं,
जो संवादात्मक हैं । इनमें आनेवाली कहानियाँ,
प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है । नाट्यों की शुरुआत
प्रार्थना से होती है और उसके तुरंत बाद रंगमंच प्रस्थापक और किसी अभिनेता के बीच
संवाद द्वारा, नाट्य के रचयिता और नाट्य विषय की जानकारी प्रस्तुत की जाती है । कालिदास,
भास, हर्ष, भवभूति, दण्डी इत्यादि संस्कृत के विद्वान नाट्यकार हैं । इनकी अनेक
रचनाओं में से कालिदास का “शाकुंतल” आज भी लोगों को स्मरण है ।
वाल्मीकि रचित रामायण और व्यास रचित महाभारत संस्कृत के दो
महान महाकाव्य है। इन दो महाकाव्यों ने अनेकों वर्षों तक भारतीय जीवन के हर पहलु
को प्रभावित किया और भारतीयों को उन्नत जीवन जीने के लिए प्रेरित किया । इन
महाकाव्यों ने शासन व्यवस्था, अर्थप्रणाली, समाज व्यवस्था, मानवशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षणप्रणाली इत्यादि विषयों का गहन परिशीलन दिया । इन
इतिहास ग्रंथों के अलावा संस्कृत में अनेक पुराण ग्रंथों की भी सर्जना हुई,
जिनमें देवी-देवताओं के विषय में कथाओं द्वारा सामान्य
जनमानस को बोध कराने का प्रयत्न किया गया ।
संस्कृत साहित्य सर्जन को अधिक उत्तेजना तब मिला जब
नाट्यकार भरत ई.पू. 200 ने “नाट्यशास्त्र” रचा । प्रारम्भिक काल के नाट्यों में भास का योगदान
महत्त्वपूर्ण था, पर कालिदास के “शाकुंतल” की रचना होते ही वे विस्मृत होते गये । शाकुंतल सदियों तक
नाट्यरचना का नमूना बना रहा । शाकुंतल शृंगार और वीर रस का वाचक था,
तो शुद्रक का “मृच्छकटिकम्” सामाजिक नाटक था । उनके पश्चात् भवभूति (ई. 700)
हुए, जिनके “मालती-माधव” और “उत्तर रामचरित” नाट्य प्रसिद्ध हुए ।
मध्यकालीन युग में पंच महाकाव्यों की भी रचना हुई;
1.कालिदास के “रघुवंश” और “कुमारसंभव” 3.भारवि का “किरातार्जुनीय” (ई. 550) 4.माघ का “शिशुपालवध”; और 5. श्रीहर्ष का “नैषधीय चरित”
इन पाँचों महाकाव्यों का
प्रेरणास्रोत ग्रंथ “महाभारत” था, जो आज भी अनेक लेखकों का मार्गदर्शक है । महाकाव्यों के
अलावा प्रेम, नीति,
अनासक्ति ऐसे अनेक विषयों पर व्यावहारिक भाषा में लघुकाव्यों
की रचना भी इस काल में हुई । ऐसी पद्यरचना जिसे “मुक्तक” कहा जाता है, उनके रचयिता भर्तृहरि और अमरुक हुए । भर्तृहरि रचित नीतिशतक,
शृंगारशतक और वैराग्य शतक आज भी प्रसिद्ध है ।
दुर्भाग्य से संस्कृत की गद्यरचनाएँ इतनी प्रसिद्ध नहीं हुई
और वे कालप्रवाह में नष्ट हुई । जो कुछ बची,
उनमें से सुबंधु की “वासवदत्ता”, बाण की “कादंबरी” एवं “हर्षचरित”, और दंडी की “दशकुमारचरित” प्रचलित हैं ।
संस्कृत के सभी साहित्य प्रकार में नीतिपरकत्व विदित होता है,
पर परीकथाओं और दंतकथाओं (ई. 400
– 1100) में वह
अत्यधिक उभर आया है । “पंचतंत्र” और “हितोपदेश” बुद्धिचातुर्य और नीतिमूल्य विषयक कथाओं के संग्रह हैं,
जो पशु-पक्षियों के चरित्रों, कहावतों, और सूक्तियों द्वारा व्यवहारचातुर्य समझाते हैं । वैसे
भिन्न दिखनेवाली अनेक उपकथाओं को, एक ही कथा या रचना के भीतर समाविष्ट कर लिया जाता है। मूल कथा
का प्रधान चरित्र इतनी उप-कथाएँ बताते जाता है कि मूल रचना अनेक स्तरों में लिखी
हुई प्रस्तुत होती है । इस पद्धति का उपयोग पंचतंत्र में विशेष तौर पर किया गया है
।
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