अक्षय तृतीया

 वैशाख शुक्ल तृतीया की तिथि का नाम अक्षय तृतीया है। इस समय ग्रीष्म ऋतु के अनाज- जौ, गेहूँ आदि तैयार होकर घरों में आ जाते हैं । हमारे देश की प्राचीन प्रथाओं के अनुसार दान के बाद भोजन का नियम है । आज के दिन जौ के दान का बड़ा महत्त्व माना जाता है। 'यवोऽसि धान्यराजोऽसि' अर्थात् - 'तुम जौ हो, तुम धान्यों के राजा हो।' श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण ने उद्धव से कहा है कि – 'औषधीनामहं यवः' अर्थात् - औषधीय पौधों में 'यव' मेरा स्वरूप है । इससे यव के औषधीय गुण को समझा जा सकता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह अनुभूतियाँ कितने महत्त्व की हैं, इसकी व्याख्या अत्यन्त मधुर और राष्ट्रहित की दृष्टि से उपयोगी है। मान्यता है कि इसी तिथि से सतयुग का आरंभ हुआ था। इस दिन किए गए दान, जप आदि के फल का क्षय नहीं होता। इसी तिथि को नर-नारायण, परशुराम और हयग्रीव का अवतार हुआ। यह तिथि यदि सोमवार, कृतिका या रोहिणी नक्षत्र के साथ पड़ती है तो और भी उत्तम मानी जाती है। व्रत के रूप में अक्षय तृतीया का विशेष माहात्म्य है। प्रसिद्ध तीर्थ बदरीनाथ के कपाट इसी तिथि को खुलता है। इस दिन जल से पूर्ण पात्र, पंखा, जौ का सत्तू, गुड़, दही आदि वस्तुओं का दान दिया जाता है।

अक्षय तृतीया की कथा

बहुत प्राचीन काल में हैहय नरेश कार्तवीर्य अर्जुन ने परशुराम के पिता जमदाग्नि के पास कामधेनु गाय देखी जो मनुष्य की सभी अभि- लाषाओं को पूर्ण करती थी। कार्तवीर्य ने गाय उनसे माँगी और उनके मना करने पर उसने उन्हें मार डाला । संयोगवश उस समय परशु- राम वहाँ नहीं थे। वह जब कहीं से वापस लौटे तब उन्होंने अपनी माता से सारा हाल सुना। इससे उनका क्रोध भड़क उठा। उन्होंने महिष्मती नगर में पहुँचकर कार्तवीर्य को ललकारा और उसकी प्रसंख्य सेना सहित उसका संहार किया। उसके अन्य साथी परशुराम से बदला लेने के लिए दौड़ पड़े। इक्कीस बार उन्होंने इस धरती के बड़े-बड़े क्षत्रिय योद्धाओं का विनाश किया और उनके द्वारा किए जाने वाले उम्र कर्मों से अनेक पीड़ितों को बचाया।

जनकपुर के सीता स्वयंवर में श्री राम के द्वारा शिव का धनुर्भंग सुनकर परशुराम दौड़ पड़े परन्तु श्री राम के शील-सौजन्य से प्रसन्न होकर उन्होंने अपना धनुष और वाण श्री राम को समर्पण करके संन्यस्त जीवन व्यतीत करने का संकल्प ले लिया। आसाम राज्य की उत्तरी पूर्वी सीमा पर, जहाँ से ब्रह्मपुत्र नद भारत में प्रवेश करता है, वहाँ एक परशुराम कुंड है, वहीं उन्होंने अपने परशु का त्याग किया। यह भी अनुमान है कि इसी कुंड को खोदकर परशुराम ने ब्रह्मपुत्र को भारत भूमि में लाने का स्तुत्य प्रयत्न किया । जयन्ती मनाने का विधान भी संभवतः तभी से प्रचलित हुआ होगा। अक्षय तृतीया उन्हीं पराक्रमी परशुराम के शौर्य, सेवा और संयम की कथा सुनाती है ।

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