तीसरा मानुषी विवाह से ४, ५ दिन पहले रविवार या शनिवार हस्त नक्षत्र या अन्य किसी शुभ
दिन में गाँव से पूर्व या उत्तर दिशा की ओर एकान्त स्थान में फूल,
पत्ती, फल से परिपूर्ण मदार के पेड़ के नीचे गोबर से लीपकर वहां
मण्डल बना कर सभी सामग्री एकत्रित कर मदार वृक्ष के पश्चिम की ओर आसन बिछा कर
बैठे। आचमन प्राणायाम करके गुरु के बनाये ग्रहमण्डल में स्वस्त्ययन गणेश गौरी पूजन
कर दीप जला कर संकल्प करे-
ॐ तत्सदद्येति श्रुति-स्मृतिपुराणोक्त फलप्राप्तिपूर्वक
करिष्यमाण-तृतीय-मानुषी- विवाहतजन्य- वैधव्यादि-दोषापनुत्यनन्तरवृद्धिहेतवे ऽर्क
विवाहमहं करिष्ये तन्निर्विघ्नतार्थं च गणपत्यादिदेवानहं पूजयिष्ये ।
इसके बाद गणेश गौरी, षोडश मातृका, नवग्रह प्रणव दिक्पाल-पूजन
यथाशक्ति करके सुवर्ण से नान्दी श्राद्ध करे।
यथा अद्येत्याद्युक्त्वा करिष्यमाण-तृतीय-मानुषी विवाहाङ्गत्वेन
कर्तव्याभ्युदयिक श्राद्धे इदमग्निदैवतकं हिरण्यं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय
दातुमहमुत्सृजे ।
फिर अर्क को कन्या देने हेतु वरण द्रव्य लेकर अधोलिखित संकल्प पढ़कर
आचार्य का वरण करे।
ॐ अद्येत्यादि मम तृतीय मानुषीविवाहजन्यदोषापनुत्यर्थं
अर्ककन्याप्रदानार्थं एभिर्वरणद्रव्यैरमुकगोत्रममुक शर्माणं
ब्राह्मणमाचार्यत्वेनाहं वृणे।
आचार्य -वृतोस्मि'
बोले। ।
इसके पश्चात् आचार्य वर की पूजा के लिए यह बोले- ॐ
साधुभवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तमिति ब्रूयात् ।
वर बोले- ॐ अर्चय ।
ऐसा कहने पर वर के बैठने के लिए शुद्ध आसन देकर विष्टर हाथ में लेकर ॐ
विष्टरो विष्टरो विष्टर यह किसी अन्य के कहने पर।
आचार्य बोले- ॐ विष्टरः प्रतिगृह्यताम् ।
वर बोले- ॐ विष्टरं प्रतिगृह्णामि।
ऐसा बोलकर वर विष्टर लेकर ॐ
वर्ष्माऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः । इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति ।। यह
मन्त्र पढ़कर उत्तराग्र कर विष्टर को आसन के नीचे रख कर बैठ जाय।
फिर आचार्य अञ्जलि में जल लेकर ॐ पाद्यं पाद्यं पाद्यम् यह किसी
दूसरे के कहने पर वर से आचार्य कहे - ॐ पाद्यं प्रतिगृह्यताम् ।
वर ॐ पाद्यं प्रतिगृह्णामि यह वाक्य बोल कर आचार्य की अंजलि से अपनी
अंजलि में जल लेकर –
ॐ विराजो दोहोसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः । यह मन्त्र पढ़कर
वर का दाहिना चरण धो दे। इसी तरह पूर्व के क्रम के अनुसार विष्टर लेकर पैर के नीचे
वर रखे। इसी तरह पूर्व के क्रम के अनुसार वायें पैर को धे दे ( यदि वर क्षत्रिय हो
तो वर का पैर कोई नौकर धो दे ) इसके बाद पहले की तरह वर विष्टर लेकर दोनों पैर के
आगे करे। फिर दूर्वा, अक्षत, फल,
पुष्प, चन्दन मिला अर्घपात्र लेकर आचार्य
अर्घौ अर्घो अर्घौ किसी के कहने पर ॐ अर्घः प्रतिगृह्यताम् यह वाक्य बोले।
फिर वर अर्घं प्रतिगृह्णामि यह वाक्य बोलकर अर्घपात्र आचार्य के हाथ
से लेकर ॐ आपः स्थ युष्माभिः सर्वान्कामानवाप्नुवानी
पढ़कर शिर पर अक्षत,
फूल छिड़ककर ॐ समुद्रं वः प्राहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छतः अरिष्टा
स्माकं वीरामापरासेचिमत्पयः । इस प्रकार मन्त्र पढ़ते हुए अर्घपात्र का जल ईशान के
तरफ विसर्जित करे।
पुनः किसी के आचमनीयम् आचमनीयम् आचमनीयम् पढ़ने पर आचमनीयं
प्रतिगृह्यताम् ऐसा आचार्य कहे। फिर वर आचमनीय लेकर बोले- ॐ आमागन् यशसा स सृज
वर्चसा तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम् । मन्त्र पढ़ते
हुए एक बार आचमन करे। पुनः दो बार मौन होकर आचमन करे।
उसके बाद आचार्य कांसे के पात्र में दही, मधु, घी
रखकर दूसरे कांसे के पात्र से उसे ढंककर ॐ मधुपर्क: मधुपर्कः मधुपर्कः किसी अन्य
के कहने पर आचार्य ॐ मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम् बोले।
फिर वर - ॐ गृह्णामि यह बोलकर आगे का मंत्र पढ़े- ॐ मित्रस्य चक्षुषा
त्वा प्रतीक्ष्ये मन्त्र पढ़कर वर आचार्य के हाथ में मधुपर्क देखकर -ॐ देवस्य त्वा
सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रतिगृह्णामि । इस मंत्र को
पढ़ने के बाद वर मधुपर्क वायें हाथ में लेकर ॐ नमः श्यावास्यायान्नशने यत्त
आविद्धं तत्ते निष्कृन्तामि। इससे अनामिका अंगुली से उसे तीन बार चलाकर अनामिका और
अंगूठा से भूमि पर छिड़के। पुनः उसी प्रकार से दो बार छिड़के।
तीन बार मधुपर्क प्राशन करें- ॐ यन्मधुनो मधव्यं परम
रूपमन्नाद्यं तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसानि
।
इसके बाद अर्क एकान्त स्थान पर रख दे। पुनः आचमन कर वर अर्क
के सामने खड़े होकर सूर्य की प्रार्थना करे- त्रैलोक्यव्यापिन् सप्ताश्व छायया सहितो रवे।
तृतीयोद्वाहजं दोषं निवारय सुखं कुरु । फिर मन्दार वृक्ष के नीचे विधिपूर्वक कलश
स्थापना करके सुवर्ण की बनी सूर्य की प्रतिमा कलश के ऊपर स्थापित कर आकृष्णेन रजसा
वर्तमानो निवेश्शयन्नमृतम्मर्त्यञ्च ।
हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ यह मन्त्र
पढ़कर उसमें सूर्य का आवाहन कर सफेद वस्त्र और सूत से मन्दार को लपेट दे। पाद्यादि
से पूजन कर ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवस्तान ऊर्जे दधातन महेरणाय चक्षसे ।। १ ।।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः उशतीरिव मातरः ।। २ ।।
तस्मा अरंगमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा च नः । तक
मन्त्र पढ़ते हुए अभिषेक करे।
फिर गुड़ ओदन का नैवेद्य देकर ताम्बूल और दक्षिणा प्रदान करे।
इसके बाद इस मंत्र को पढ़ते हुए वर अर्क- मदार की प्रदक्षिणा करे- मम प्रीतिकरा
चेयं मया सृष्टा पुरातनी। अर्कजा ब्रह्मणा सृष्टा अस्माकं परिरक्षतु पढ़े। यह
पढ़कर पुनः इस मंत्र को पढ़ते हुए प्रदक्षिणा तथा प्रार्थना करते हुए पढ़ता जाय- (प्रथमवारम्)
नमस्ते मङ्गले देवि नमः सवितुरात्मजे।।
त्राहि मां कृपया देवि पत्नी त्वं मद्गृहागता ।।
द्वितीय प्रदक्षिणा में यह मंत्र पढ़े- अर्क त्वं ब्रह्मणा सृष्टः सर्वप्राणि हिताय च।
वृक्षाणामादिभूतस्त्वं देवानां प्रीतिवर्द्धनः ।
तृतीय प्रदक्षिणा में यह मंत्र पढ़े- तृतीयोद्वाहजं दोषं
मृत्युञ्चाशु निवारय ।
पञ्चभूसंस्कारपूर्वक अग्नि की स्थापना करे। मदार के सम्मुख
पूर्व की ओर बैठे। फिर अन्तः पट करे। अर्क कन्या और वर को सुसज्जित करके/ नवीन
अनुभवों का आत्मीकरण करे। पुनः गोत्रोच्चारणपूर्वक मंगल पाठ करे।
तत्पश्चात् आचार्य संकल्प पढ़कर अर्क कन्या को वर के लिए
प्रदान करे – ॐ अद्यामुकमासेऽमुकतिथौ अमुकवासरादिसंयुतायां शुभवेलायां अमुक
गोत्रस्यामुक प्रवरस्यामुकशर्म्मणः पौत्राय अमुकगोत्रस्यामुक प्रवरस्यामुकशर्म्मणः
पुत्राय काश्यपगोत्रस्य त्रिप्रवरस्य अर्कस्य प्रपौत्री काश्यपगोत्रस्य
त्रिप्रवरस्य सवितुः पौत्री काश्यपगोत्रस्य त्रिप्रवरस्य आदित्यस्य पुत्री इस क्रम
से तीन बार पढ़ें । आचार्य के द्वारा इस अर्क कन्या को यह कहे जाने पर वर - ॐ
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा इत्यादि स्वस्ति सूक्त पढ़ते हुए कन्या को देखे। इसके
बाद आचार्य विप्रों के द्वारा वर के लिए आशीर्वाद दिलाकर अमुकगोत्राय अमुकशर्मणे
वराय तुभ्यमहं संप्रददे, यह बोले।
ॐ अर्ककन्यामिमां विप्र यथाशक्तिविभूषिताम् । गोत्राय शर्मणे
तुभ्यं दत्तां विप्र समाश्रय ।। इसके बाद ॐ अद्य कृतैतदर्ककन्यादानप्रतिष्ठार्थ
मिदं सुवर्णमग्निदैवतं अमुकगोत्राय अमुकशर्मणे वराय तुभ्यमहं संप्रददे ।। यह पढ़कर
दक्षिणा या सुवर्ण दे ।। फिर वर स्वस्ति बोलकर ॐ स्वस्तीति प्रतिगृह्य वरः – यज्ञो मे कामः
समृध्यताम्। धर्मो मे कामः समृध्यताम्। यशो मे कामः समृध्यताम् इस वाक्य को तीन
बार पढ़कर अर्क पर अक्षत छिड़के।
फिर सूत से आँचल में गाँठ बाँधकर कुमकुम से रंगे हुए के डोरे
से गायत्री मन्त्र पढ़कर पाँच बार लपेटे। पाँच सूत के मंत्र – ॐ परित्वा गिर्वणो
गिर इमा भवन्तु विश्वतः । वृद्धायुमनुवृद्धायो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः ॥ १ ॥
इन्द्रस्यूरसीन्द्रस्य ध्रुवोऽसि। ऐन्द्रमसि वैश्वदेवमसि ।। २ ।।
विभुरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः श्वात्रोऽसि
प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदाः ।। ३ ।।
उशिगसि कविरङ्घारिरसि बम्भारिरवस्युरसि दुवस्वान् शुन्ध्यूरसि
मार्जालीय: सम्राडसि कृशानुः परिषद्योऽसि पवमानो नभोऽसि प्रतक्वा मृष्टोऽसि
हव्यसूदन ऋतधामसि स्वर्ज्योतिः ।। ४ ।।
समुद्रोऽसि विश्वव्यचा अजोऽस्येकपादहिरसि बुध्यो
वागस्यैन्द्रमसि सदोऽस्यतस्य द्वारो मा मा संताप्तमध्वनामध्वपते
प्रमातिरस्वस्तिमेऽस्मिन्पथि देवयान भूयात् ।। ५ ।।
मित्रस्य मा चक्षुषेक्षध्वमग्नयः सगरा: सगराः स्थ सगरेण
नाम्ना रौद्रेणा नीकेन पात माग्नयः । पितृतमाग्नयो गोपायत मा नमो वोऽस्तु मामाहि ॐ
सिष्ठ ।। ६ ।।
ज्योतिरसि विश्वरूपं विश्वेषां देवानां समित् ।। त्वधं
सोमतनूकृद्धयो द्वेषेभ्योऽन्यकृतेभ्य उरुयन्तासि वरूथü स्वाहा जुषाणो
असुराज्यस्य वेतु स्वाहा ।। ७ ।।
अग्ने नय सुपथाराये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ।। ८ ।।
अयं नो अग्निर्वरिवस्कृणोत्वयं मृधः पुर एतु प्रभिन्दन् । अयं
वाजाजयतु वाजसाता वय शत्रूञ्जयतु जर्हषाणः स्वाहा ।। ९ ।।
अरु विष्णोः विक्रम स्वोरु क्षयात नस्कृधि । घृतं घृतयोने
दिवः प्रप्रयज्ञपतिं तिरः स्वाहा ।। १० ।।
उपर्युक्त मन्त्रों
को पढ़ते हुए मदार के वृक्ष पर लपेट कर उस सूत को पाँच गुणा करके अर्क (मदार) के
कन्धे में बाँधकर ॐ
बृहत्सामक्षत्रभृद् वृद्धवृष्ण्यं त्रिष्टुमोजः शुभितमुग्रवीरम्। इन्द्रस्तोमेन
पंचदशेन मध्यमिदं वातेन सगरेण रक्ष।मन्त्र पढ़कर रक्षा करे।
इसके बाद मदार के पूर्व आदि आठो दिशाओं में आठ कलश स्थापित
करे। फिर हल्दी, चन्दन मिले शीतल जल से कलशों को भरकर वस्त्र और तीन बार लपेटे गये सूत्रों
से प्रत्येक कलश के कंठ को लपेटे। इन
कलशों में हल्दी छोड़कर कलश में विष्णु का
आवाहन करे- ॐ इदं विष्णु विचक्रमे त्रेधा निदधे पदं समूढमस्य पाधं सुरे स्वाहा ।
इससे आवाहन करने के बाद- पाद्यादीनि समर्पयामि विष्णवे नमः इससे पूजन कर प्रार्थना
करे - विश्वव्यापिन् नमस्तेऽस्तु भक्तप्रिय जनार्दन । तुरीयस्य विवाहस्य अधिकारं
प्रयच्छ मे।।
फिर ब्रह्मा से अनुमति लेकर घी की आहुति प्रदान करे।
तत्पश्चात् प्रजापति,
इन्द्र, अग्नि, सोम,
बृहस्पति, अग्नि, वायु,
सूर्य, प्रजापति को क्रमशः उनके चतुर्थ्यन्त
नाम के बाद स्वाहा बोलते हुए ॐ प्रजापतये से प्रजापतये तक तत्तन्मन्त्र पढ़ते हुए
घी की आहुति प्रदान करे।
इसके बाद अर्क वृक्ष के उत्तर दिशा में स्थण्डिल का निर्माण
कर पंचभूसंस्कार पूर्वक ब्रह्मा का उपवेशनादि पर्युक्षण पर्यन्त "एतन्ते
देवसवित" वरद नामक अग्नि की प्रतिष्ठा कर पाद्यादि से पूजा करे। देवता का
ध्यान करे। फिर यह मंत्र पढ़कर संकल्प छोड़े। अद्येह अर्कविवाहकर्मणाहं यक्ष्ये
तत्र प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं बृहस्पतिं अग्निं वायुं सूर्य प्रजापतिं
चाज्येनाहं यक्ष्ये ।। इति ।।
इसके पश्चात् इन मंत्रों से नव आहुति हवन करे- ॐ प्रजापतये
स्वाहा इदं प्रजापतये। ( मन ही मन) ॐ इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय (दोनों आधार पर)।
ॐ अग्नये स्वाहा इदमग्नये ॐ सोमाय स्वाहा इदं सोमाय (घी के पात्र में)। ॐ
सङ्गोभिराङ्गिरसो नक्षमाणो भग इवेदर्यमणं निनाय। जने मित्रो न दम्पती
अनक्तिबृहस्पते वाजयाशूंरिवाजौ स्वाहा। इदं बृहस्पतये ।। ॐ यस्मै त्वा कामकामाय वयं
सम्राड्यजामहे । तमस्मभ्यं कामं दत्वाथेदं त्वं घृतं पिब स्वाहा। इदमग्नये ।। ॐ
भूः स्वाहा इदमग्नये । ॐ भुवः स्वाहा इदं वायवे । ॐ स्वः स्वाहा इदं सूर्याय। ॐ
भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं प्रजापतये ।
इसके बाद भूः आदि प्राजापत्य होम, स्विष्टकृत होम, पूर्ण
पात्र दान तक पूरा कर शेष कर्म को भी पूरा करे। मदार की प्रदक्षिणा कर यह मंत्र पढ़कर
प्रार्थना करे- -मया कृतमिदं कर्म
स्थावरेषु जरायणा । अर्कापत्यानि मे देहितत्सर्वं क्षन्तुर्महसि ।। इस प्रकार
प्रार्थना करके शान्ति सूक्त पढ़े। अर्क में प्रतिष्ठित सूर्य का विसर्जन करके
आचार्य के लिए हो गाय के बराबर दक्षिणा दे। अन्य ब्राह्मण को भी दक्षिणा देकर पूजोपकरण
तथा अलंकरण आचार्य को देकर दत्त्वा चार दिनों तक मदार और कलशों की रक्षा करें। पांचवें दिन पहिले की भांति पूजा करके तिलक कर
विप्र से आशीर्वाद ले। अग्नि का विसर्जन कर सूर्य को अर्घ देवे। तत्पश्चात् कंगन
खोले। इसके बाद मानुषी कन्या के साथ विवाह करे।
इत्यर्कविवाहविधिः ।