कवि बिल्हण और चौरपंचाशिका

     महाकवि बिल्हण मेरे प्रिय कवि हैं। संस्कृत अध्ययन के आरम्भिक वर्षों में मुझे इनकी एक कृति विक्रमांकदेवचरितम् पढ़ने को मिली। इस ग्रन्थ का प्रभाव ऐसा पड़ा कि शेष कवि इतने रूचिकर नहीं लगे।
       मैं बिल्हण को पढ़ने को व्यग्र हो उठा। विक्रमांकदेवचरितम् के अतिरिक्त कर्णसुन्दरी नाटक, शिवस्तुति खोजते-खोजते, चौरपंचाशिका हाथ लगी। चौरपंचाशिका में 50 श्लोक हैं। अतः इसे पंचाशिका कहा गया। इसमें गुप्त प्रेम का वर्णन है। या यूं कहें छुप-छुप कर, चोरी-चोरी से प्रेम करने की कथा-व्यथा इस पुस्तक में बड़े ही मार्मिक भाव से वर्णित हैं। जो लोग संस्कृत पढ़े है वे अद्यापि से शुरू हो रहे इसके प्रत्येक श्लोक को पढ़कर इसमें आकंठ डूब जाते हैं। सौभाग्य से एकदिन मेरे एक अनुज, प्रताप मिश्र पुस्तकालय में आये। इस पुस्तक पर कई घंटो तक चर्चा होती रही। एक-एक श्लोक के निहितार्थ निकाले जाने लगे। श्रृंगार रस में रचित यह गीति काव्य मेघदूत से कहीं आगे जाते दिखा। प्रेमाकुल, विरही युवक युवतियों को तो इसे पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे उसके ही भिन्न-भिन्न मनोदशाओं का वर्णन यहाँ किया गया है। पुस्तक की विधा, रचनाकर के बारे में तो छपी पुस्तकें उपलब्ध है ही अतः मैं भाव, रस, सौन्दर्यबोध, नायिका भेद आदि का वर्णन यहां नहीं करना चाहता। बस इतना ही कहना चाहूँगा। आप यदि कामशास्त्रीय यथा किसी रूपसी (नव यौवन) का वर्णन, प्रेम सम्बन्ध के प्रायोगिक स्वरूप (सुरत व्यापार) आलिंगन (बांहो में भरने) कामभाव के मुक्त मनोहारी आनन्द का ज्ञान चाहते है तो जरूर पढ़े चौरपंचाशिका ।
     इस आलेख को पढ़ते समय एक दूसरे संस्कृत के महान् शास्त्रकार रुद्रट की सलाह को नहीं भूले-
        दूसरे की पत्नी की चाह न रखें, न ही उन्हें श्रृंगारिक उपदेश दें (वार्तालाप करें)
                   कवि बिल्हण गीति काव्य परम्परा के महान कवि है। इनका जन्म 11 वीं शताब्दी में हुआ। ये श्रृंगार रस प्रधान गीति काव्य के अमर गायक हैं। इनका जन्म कश्मीर में हुआ था। इनका कुछ समय मथुरा एवं वृन्दावन में व्यतीत हुआ। कन्नौज, प्रयाग एवं काशी की भी इन्होंने यात्रा की। हम इस पचड़े में भी नही पड़ते कि चौरपंचाशिका के लेखक कवि चौर थे या बिल्हण। मुझे तो बस उस राजपुत्री के प्रेम में पागल हुए अपने कवि की प्रणय व्यथा सुनानी है जो अपनी प्रियतमा के साथ बिताये सुख के दिन को याद कर रहा है।
  अद्यापि तां प्रथमतो वरसुन्दरीणां स्नेहैकपात्रघटिताम् अवनीशपुत्रीम् ।
  हंहोजना मम वियोगहुताशनो ऽयं सोढुं न शक्यतेति प्रतिचिन्तयामि ॥
  अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमने दुर्वारभीषणकरैर् यमदूतकल्पैः ।
  किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे वक्तुं न पार्यतेति व्यथते मनो मे ॥
हम इस पचड़े में नही पड़ते कि गुप्त प्रेम के इस रोचक ग्रन्थ का कश्मीर या दक्षिण भारत पाठ के अतिरिक्त और कितने पाठ हैं। कितनी टीका है। कवि को मृत्युदण्ड दिया गया या राजकुमार सुन्दर के मृत्युक्षण का उल्लेख इस पद्य में किया गया। वह प्रक्षिप्त है या नहीं। इसके बारे में विशद वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्रकाशित है। मुझे तो बस इसमें अधिक रुचि और आनन्द है कि एक राजकुमारी के साथ गुप्त प्रेम कितना सरस होता है। जब कवि अपने गुप्त मिलन के आनन्द को अंतिम बार स्मरण किया तो कैसे? कितना वह मार्मिक स्मरण था कि राजा भी प्रभावित हुए विना नहीं रहा। वह द्रवित हो उठा। राजकुमारी से विवाह की आज्ञा दे दी। मैं भी वसन्ततिलका में रचित कवि के इन पद्यों से प्रभावित होता हूँ-
                   अद्यपि तां रहसि दर्पणमोक्षमाणं
                                   वह अकेले में अपना दर्पण देख रही थी। मैं भी दर्पण के सम्मुख उसके पीछे खड़ा हो गया। जिससे मेरा प्रतिबिम्ब उस दर्पण में दिखने लगा। अचानक दर्पण में अपने पीछे खड़ा प्रतिबिम्ब को देखकर वह लोक लाज के भय से काँप उठी। शरमा गयी। एकान्त के कारण काम पीडि़त को मैं आज भी देखता हूँ।
          अद्यपि तां भुजलता
मेरे गले को अपनी भुजाओं से बाँध अपने दोनों स्तनों से मेरे छाती को ढ़ककर, मेरे मुख को उत्कण्ठा से (आगे की क्रिया की आशा) से एकटक देखती हुई उस भोले मुंह वाली प्रेमिका को आज की देखता हूँ।
 वक्त का मारा मेरा कवि एक दिन राज्यकन्या से प्रेम कर बैठा। इन कवियों को आश्रय दाता राजा होते थे। स्वभावतः इनका दिल राजकन्याओं पर आ जाता था। जगन्नाथ को ही देख लीजिये। ये कवि अन्य स्थान पर प्रेमिका ढूढ हीं नहीं पाते थे। करते भी तो क्या? ये कवि राजाओं के यहां राज सेवक थे। चहुंओर सुरक्षा के कारण एक दिन मेरा प्रिय कवि रंगे हाथ पकड़ा गया। राज सेवक कवि को उसके ही आवास पर आकर पकड़ लिया। चलो कारागार। मेरा कवि पांव आगे रखता है और याद करता है अपने प्रणय लीला को। अद्यपि......। आज वे दिन याद आ रहे हैं पूरे रास्ते भर 50 मार्मिक प्रसंगो को याद कर बोलता जाता है....बोलता जाता है। पूरे रास्ते राजा की ऐसी की तैसी कर दी। अतः हे सुकवियों अब कभी राजा नहीं बनाना। राजा बनाना तो राज घराने में निवास मत कराना। निवास करना तो किसी राजकुमारी से प्रेम नहीं करना। प्रेम करना तो गीति काव्य मत रचना क्योंकि उन्हें पढ़कर मेंरा दिल आज भी बैठ जाता है।

                                 चौरपंचाशिका

अद्यापि तां कनकचम्पकदामगौरीं फुल्लारविन्दवदनां तनुरोमराजीम् ।
सुप्तोत्थितां मदनविह्वललालसाङ्गीं विद्यां प्रमादगुणिताम् इव चिन्तयामि ॥ १ ॥
अद्यापि तां शशिमुखीं नवयौवनाढ्यां पीनस्तनीं पुनरहं यदि गौरकान्तिम् ।
पश्यामि मन्मथशरानलपीडिताङ्गीं गात्राणि संप्रति करोमि सुशीतलानि ॥ २ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः कमलायताक्षीं पश्यामि पीवरपयोधरभारखिन्नाम् ।
संपीड्य बाहुयुगलेन पिबामि वक्त्रमुन्मत्तवन्मधुकरः कमलं यथेष्टम् ॥ ३ ॥
अद्यापि तां निधुवनक्लमनिःसहाङ्गीमापाण्डुगण्डपतितालककुन्तलालिम् । ङ
प्रच्छन्नपापकृतमन्थरमावहन्तीं    कण्ठावसक्तबाहुलतां स्मरामि ॥ ४ ॥
अद्यापि तां सुरतजागरघूर्णमान तिर्यग्वलत्तरलतारकम् आयताक्षीम् ।
शृङ्गारसारकमलाकरराजहंसीं व्रीडाविनम्रवदनाम् उषसि स्मरामि ॥ ५ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः श्रवणायताक्षीं पश्यामि दीर्घविरहज्वरिताङ्गयष्टिम् ।
अङ्गैरहं समुपगुह्य ततो ऽतिगाढं नोन्मीलयामि नयने न च तां त्यजामि ॥ ६ ॥
अद्यापि तां सुरतताण्डवसूत्रधारीं पूर्णेन्दुसुन्दरमुखीं मदविह्वलाङ्गीम् ।
तन्वीं विशालजघनस्तनभारनम्रां व्यालोलकुन्तलकलापवतीं स्मरामि ॥ ७ ॥
अद्यापि तां मसृणचन्दनपङ्कमिश्र. कस्तूरिकापरिमलोत्थविसर्पिगन्धाम् ।
अन्योन्यचञ्चुपुटचुम्बनलग्नपक्ष्म युग्माभिरामनयनां शयने स्मरामि ॥ ८ ॥
अद्यापि तां निधुवने मधुपानरक्ताम् लीलाधरां कृशतनुं चपलायताक्षीम् ।
काश्मीरपङ्कमृगनाभिकृताङ्गरागां कर्पूरपूगपरिपूर्णमुखीं स्मरामि ॥ ९ ॥
अद्यापि तत् कनकगौरकृताङ्गरागं प्रस्वेदबिन्दुविततं वदनं प्रियायाः ।
अन्ते स्मरामि रतिखेदविलोलनेत्रं राहूपरागपरिमुक्तम् इवेन्दुबिम्बम् ॥ १० ॥
अद्यापि तन्मनसि संपरिवर्तते मे रात्रौ मयि क्षुतवति क्षितिपालपुत्र्या ।
जीवेति मङ्गलवचः परिहृत्य कोपात् कर्णे कृतं कनकपत्रम् अनालपन्त्या ॥ ११ ॥
अद्यापि तत् कनककुण्डलघृष्टगण्डम् आस्यं स्मरामि विपरीतरताभियोगे ।
आन्दोलनश्रमजलस्फुटसान्द्रबिन्दु मुक्ताफलप्रकरविच्छुरितं प्रियायाः ॥ १२ ॥
अद्यापि तत्प्रणयभङ्गगुरुदृष्टिपातं तस्याः स्मरामि रतिविभ्रमगात्रभङ्गम् ।
वस्त्राञ्चलस्खलतचारुपयोधरान्तं दन्तच्छदं दशनखण्डनमण्डनं च ॥ १३ ॥
अद्याप्य् अशोकनवपल्लवरक्तहस्तां मुक्ताफलप्रचयचुम्बितचूचुकाग्राम् ।
अन्तः स्मितोच्छ्वसितपाण्डुरगण्डभित्तिं तां वल्लभामलसहंसगतिं स्मरामि ॥ १४ ॥
अद्यापि तत् कनकरेणुघनोरुदेशे न्यस्तं स्मरामि नखरक्षतलक्ष्म तस्याः ।
आकृष्टहेमरुचिराम्बरम् उत्थिताया लज्जावशात् करघृतं च ततो व्रजन्त्याः ॥ १५ ॥
अद्यापि तां विधृतकज्जललोलनेत्रां पृथ्वीं प्रभूतकुसुमाकुलकेशपाशाम् ।
सिन्दूरसंलुलितमौक्तिकदन्तकान्तिम् आबद्धहेमकटकां रहसि स्मरामि ॥ १६ ॥
अद्यापि तां गलितबन्धनकेशपाशां स्रस्तस्रजं स्मिरसुधामधुराधरौष्ठीम् ।
पीनोन्नतस्तनयुगोपरिचारुचुम्बन् मुक्तावलीं रहसि लोलदृशम् स्मरामि ॥ १७ ॥
अद्यापि तां धवलवेश्मनि रत्नदीप मालामयूखपटलैर् दलितान्धकारे ।
प्राप्तोद्यमे रहसि संमुखदर्शनार्थं लज्जाभयार्थनयनाम् अनुचिन्तयामि ॥ १८ ॥
अद्यापि तां विरहवह्निनिपीडिताङ्गीं तन्वीं कुरङ्गनयनां सुरतैकपात्रीम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डनम् आवहन्तीं तां राजहंसगमनां सुदतीं स्मरामि ॥ १९ ॥
अद्यापि तां विहसितां कुचभारनम्रां मुक्ताकलापधवलीकृतकण्ठदेशाम् ।
तत् केलिमन्दरगिरौ कुसुमायुधस्य कान्तां स्मरामि रुचिरोज्ज्वलपुष्पकेतुम् ॥ २० ॥
अद्यापि तां चाटुशतदुर्ललितोचितार्थं तस्याः स्मरामि सुरतक्लमविह्वलायाः ।
अव्यक्तनिःस्वनितकातरकथ्यमान संकीर्णवर्णरुचिरं वचनं प्रियायाः ॥ २१ ॥
अद्यापि तां सुरतघूर्णनिमीलिताक्षीं स्रस्ताङ्गयष्टिगलितांशुककेशपाशाम् ।
शृङ्गारवारिरुहकाननराजहंसीं जन्मान्तरे ऽपि निधने ऽप्य् अनुचिन्तयामि ॥ २२ ॥
अद्यापि तां प्रणयिनीं मृगशावकाक्षीं पीयूषपुर्णकुचकुम्भयुगं वहन्तीम् ।
पश्याम्य् अहं यदि पुनर् दिवसावसाने स्वर्गापवर्गनरराजसुखं त्यजामि ॥ २३ ॥
अद्यापि तां क्षितितले वरकामिनीनां सर्वाङ्गसुन्दरतया प्रथमैकरेखाम् ।
शृङ्गारनाटकरसोत्तमपानपात्रीं कान्तां स्मरामि कुसुमायुधबाणखिन्नाम् ॥ २४ ॥
अद्यापि तां स्तिमितवस्त्रम् इवाङ्गलग्नां प्रौढप्रतापमदनानलतप्तदेहम् ।
बालाम् अनाथशरणाम् अनुकम्पनीयां प्राणाधिकां क्षणम् अहं न हि विस्मरामि ॥ २५ ॥
अद्यापि तां प्रथमतो वरसुन्दरीणां स्नेहैकपात्रघटिताम् अवनीशपुत्रीम् ।
हंहोजना मम वियोगहुताशनो ऽयं सोढुं न शक्यतेति प्रतिचिन्तयामि ॥ २६ ॥
अद्यापि विस्मयकरीं त्रिदशान् विहाय बुद्धिर् बलाच् चलति मे किम् अहं करोमि ।
जानन्न् अपि प्रतिमुहूर्तम् इहान्तकाले कान्तेति वल्लभतरेति ममेति धीरा ॥ २७ ॥
अद्यापि तां गमनम् इत्य् उदितं मदीयं श्रुत्वैव भीरुहरिणीम् इव चञ्चलाक्षीम् ।
वाचः स्खलद्विगलदाश्रुजलाकुलाक्षीं संचिन्तयामि गुरुशोकविनम्रवक्त्राम् ॥ २८ ॥
अद्यापि तां सुनिपुणं यतता मयापि दृष्टं न यत् सदृशतोवदनं कदाचित् ।
सौन्दर्यनिर्जितरति द्विजराजकान्ति कान्ताम् इहातिविमलत्वमहागुणेन ॥ २९ ॥
अद्यापि तां क्षणवियोगविषोपमेयां सङ्गे पुनर् बहुतराम् अमृताभिषेकाम् ।
तां जीवधारणकरीं मदनातपत्राम् उद्वत्तकेशनिवहां सुदतीं स्मरामि ॥ ३० ॥
अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमने दुर्वारभीषणकरैर् यमदूतकल्पैर् ।
किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे वक्तुं न पार्यतेति व्यथते मनो मे ॥ ३१ ॥
अद्यापि मे निशि दिवाट् हृदयं दुनोति पूर्णेन्दुसुन्दरमुखं मम वल्लभायाः ।
लावण्यनिर्जितरतिक्षतिकामदर्पं भूयः पुरः प्रतिपदं न विलोक्यते यत् ॥ ३२ ॥
अद्यापि ताम् अवहितां मनसाचलेन संचिन्तयामि युवतीं मम जीविताशाम् ।
नान्योपभुक्तनवयौवनभारसारां जन्मान्तरे ऽपि मम सैव गतिर् यथा स्यात् ॥ ३३ ॥
अद्यापि तद्वदनपङ्कजगन्धलुब्ध    भ्राम्यद्द्विरेफचयचुम्बितगण्डदेशाम् ।
लीलावधूतकरपल्लवकङ्कणानां क्वाणो विमूर्च्छति मनः सुतरां मदीयम् ॥ ३४ ॥
अद्यापि तां नखपदं स्तनमण्डले यद् दत्तं मयास्यमधुपानविमोहितेन ।
उद्भिन्नरोमपुलकैर् बहुभिर् समन्ताज् जागर्ति रक्षति विलोकयति स्मरामि ॥ ३५ ॥
अद्यापि कोपविमुखीकृतगन्तुकामा नोक्तं वचः प्रतिददाति यदैव वक्त्रम् ।
चुम्बामि रोदिति भृशं पतितो अस्मि पादे दासस् तव प्रियतमे भज मं स्मरामि ॥ ३६ ॥
अद्यापि धवति मनः किम् अहं करोमि सार्धं सखीभिर् अपि वासगृहं सुकान्ते ।
कान्ताङ्गसंगपरिहासविचित्रनृत्ये क्रीडाभिरामेति यातु मदीयकालः ॥ ३७ ॥
अद्यापि तां जगति वर्णयितुं न कश् चिच् शक्नोत्य् अदृष्टसदृशीं च परिग्रहं मे ।
दृष्टं तयोर् सदृशयोर् खलु येन रूपं शक्तो भवेद् यदि सैव नरो न चान्यः ॥ ३८ ॥
अद्यापि तां न खलु वेद्मि किम् ईशपत्नी शापं गता सुरपतेर् अथ कृष्णलक्ष्मी ।
धात्रैव किं नु जगतः परिमोहनाय सा निर्मिता युवतिरत्नदिदृक्षयाट् वा ॥ ३९ ॥
अद्यापि तन्नयनकज्जलम् उज्ज्वलास्यं विश्रान्तकर्णयुगलं परिहासहेतोर् ।
पश्ये तवात्मनि नवीनपयोधराभ्यां क्षीणां वपुर् यदि विनश्यति नो न दोषः ॥ ४० ॥
अद्यापि निर्मलशरच्शशिगौरकान्ति चेतो मुनेर् अपि हरेत् किम् उतास्मदीयम् ।
वक्त्रं सुधामयम् अहं यदि तत् प्रपद्ये चुम्बन् पिबाम्य् अविरतं व्यधते मनो मे ॥ ४१ ॥
अद्यापि तत् कमलरेणुसुगन्धगन्धि तत्प्रेमवारि मकरध्वजपातकारि ।
प्राप्नोम्य् अहं यदि पुनः सुरतैकतीर्थं प्राणांस् त्यजामी नियतं तदवाप्तिहेतोर् ॥ ४२ ॥
अद्याप्य् अहो जगति सुन्दरलक्षपूर्णे ऽन्यान्यम् उत्तमगुणाधिकसंप्रपन्ने ।
अन्याभिर् अप्य् उपमितुं न मया च शक्यं रूपं तदीयम् इति मे हृदये वितर्कः ॥ ४३ ॥
अद्यापि सा मम मनस्तटिनी सदास्ते रोमाञ्चवीचिविलसद्विपुलस्वभावा ।
कादम्बकेशररुचिः क्षतवीक्षणं मां गात्रक्लमं कथयती प्रियराजहंसी ॥४४ ॥
अद्यापि सा हि नवयौवनसुन्दराङ्गी रोमाञ्चवीचिविलसच्चपलाङ्गयष्टिः ।
मत्स्वान्तसारसचलद्विरहोच्चपंकात् किंचिद्गमं प्रथयति प्रियराजहंसी ॥ ४४ ॥
अद्यापि तां नृपती शेखरराजपुत्रीं संपूर्णयौवनमदालसघूर्णनेत्रीम् ।
गन्धर्वयक्षसुरकिंनरनागकन्यां स्वर्गाद् अहो निपतिताम् इव चिन्तयामि ॥ ४५ ॥
अद्यापि तां निजवपुः कृशवेदिमध्याम् उत्तुंगसंभृतसुधास्तनकुम्भयुग्माम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डमण्डिताङ्गी सुप्तोत्थितां निशि दिवा न हि विस्मरामि ॥ ४६ ॥
अद्यापि तां कनककान्तिमदालसाङ्गीं व्रीडोत्सुकां निपतिताम् इव चेष्टमानाम् ।
अगांगसंगपरिचुम्बनजातमोहां तां जीवनौषधिम् इव प्रमदां स्मरामि ॥ ४७ ॥
अद्यापि तत्सुरतकेलिनिरस्त्रयुद्धं बन्धोपबन्धपतनोत्थितशून्यहस्तम् ।
दन्तौष्ठपीडननखक्षतरक्तसिक्तं तस्या स्मरामि रतिबन्धुरनिष्ठुरत्वम् ॥ ४८ ॥
अद्याप्य् अहं वरवधूसुरतोपभोगं जीवामि नान्यविधिनाट् क्षणम् अन्तरेण ।
तद् भ्रातरो मरणम् एव हि दुःख शान्त्यै विज्ञापयामि भवतस् त्वरितं लुनीध्वम् ॥ ४९ ॥
अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं कूर्मो बिभर्ति धरणीं खलु पृष्टभागे ।
अम्भोनिधिर् वहति दुःसहवडवाग्निम् अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ॥ ५० ॥

बिल्हण कवि कृत चौरपंचाशिका (औत्तराह पाठ)

प्रेमादरात्तरलितेन विलोचनेन

वक्त्रेण चारुहसितेन सुधाधरेण ।

ईषविजृम्भितकुचद्वितयेन बाला

 विद्वांसमाशु वशिनं च वशीचकार ॥ २४ ॥

उस कन्या ने प्रेम और आदर से चञ्चल नेत्रों वाले अपने मुख से मनोहर युक्त अपने अमृतपूर्ण अधरों से तथा ईषद्विजृम्भित अपने स्तनद्वय से उस विद्वान् कवि को शीघ्र ही अपने वश में कर लिया ॥ २४ ॥

 श्रीपद्मपत्रनयनां वरपद्महस्तां

पद्मप्रकृष्टचरणां शुचिपद्मगन्धाम् ।

 तां पद्मिनीमिव सुपद्मनिकेतनां वा

मेने कविः शशिकलामिव कामवल्लीम् ॥२५।।

श्रेष्ठ कमल पत्र रूपी नयनों, श्रेष्ठ कर कमलों, श्रेष्ठ चरण कमलों के कारण तथा पवित्र कमल-गन्ध के कारण कवि ने शशिकला को सुन्दर पद्य समूह वाली कमलिनी समझा या फिर उसे कामलता माना ॥ २५ ॥

सा प्राह तं कविमवेक्ष्य मनोनुरागं

स्वामिन्द्वयं भवति सर्वजनोपशान्त्यै ।

तत्त्वं शिवस्य शिवदायि च कामतत्त्वं

त्वं संप्रति स्मरुगुरुः स्मर योग्यमत्र ॥ २६ ॥

कवि के मनोऽनुराग को समझकर वह बाला उससे बोली स्वामिन् ! सारे लोगों को शान्ति प्रदान करने के लिए दो ही तत्त्व इस संसार में होते हैं, एक तो कल्याण प्रदान करने वाला शिव तत्त्व और दूसरा कामतत्व। अब आप विचारें कि यहाँ इन दोनों में से कौन उचित होगा" ॥ २६ ॥

निरर्थकं जन्म गतं नलिया यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् ।

उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलंब रटा प्रहृष्टा नलिनी न येन ॥ ३२ ॥

उस मलिनी का जन्म व्यर्थ गया जिसने चन्द्रविम्ब का दर्शन किया और उसका भी गया जिसने खिली हुई कमलिनी का दर्शन न किया ||३२||  

पूर्णेन्दु बिम्बसदृशं च नृपात्मजास्यमानम्य विद्रुमलतामिव चुम्बनाय ।

कामप्रियव्रत निविष्टतयाऽतिगाढमालिङ्गन सपुलकं प्रथमं चकार ॥ ३३ ॥

उस राजकुमारी के के पूर्णचन्द्र सदृश मुख को कवि ने चुन्द नार्थ उठाया । कामदेव के व्रत में दीक्षित होने के कारण उसने सबसे पहले प्रति प्रालिङ्गन किया जिससे उसे रोमा हो गया ॥ ३३ ॥

नीवी निबन्धन विधानविमोचनाय नाभिप्रदेशनिहितः कविना प्रकोष्ठः ।

कन्दर्पमन्दिरपिधानहरः करोऽस्य रुद्धः स तस्कर इव क्षितिराजपुत्र्या ॥ ३४ ॥

नीची ग्रन्थि के विमोचतार्थ कवि अपना हाथ राजकुमारी के नाभि प्रदेश पर ले गया। जब उसका हाथ तस्कर के समान उसके मदनमन्दिर के वस्त्र का हरण कर रहा था तभी राजपुत्री ने उसे रोक दिया || ३४ ।।

बालिष्य गाढवलालुपतीय मारोप्य वक्षसि रन निपीड्य चोष्ठम् ।

लवेय्यकेन चरणाचनवेत वस्त्रमाकृष्य चाकुलतया सुरतं चकार ।। ३५ ।।

वह गाड़ आलिङ्गन करके राजकुमारी को शय्या पर ले गया। वक्षस्थल पर क्षत किया, अधरों पर दस्तक्षत किया और फिर सवेश्यक ( एक रतिबन्ध ) द्वारा चरणों के अग्रभाग से वस्त्र को खोचकर मुरत-कोड़ा करने लग गया ।। ३५ ।।

चन्द्रानना सुरतकेलिगुडीतवत्रा नेत्रे नि च करद्वितयेन तस्य ।

बायोप्य संक्षु जयने पुरुषायमाणा सा नन्दयत्यति रामलितर्जनेन ।। ३६ ।।

सुरत केलि में हटाये गये वस्त्रों वाली वह चन्द्रमुखी दोनों हाथों से उसके नेत्रों को बन्दकर तुरन्त विपरीतरति करती हुई हाथों की उंगलियों के द्वारा मानों डराठी धमकाती सी अत्यधिक आनन्द प्रदान करने लगी ।। ३६ ।।

सुकोमला चन्द्रमुखी च वाला प्रियं वदन्ती मधुराक्ष राणि ।

कुमोदरी गौरवशालनेत्रा ददातु मे शंकर जन्मजन्मनि ।। ३७ ।।

विशाल नेत्रों वाली, कुशोदरी, सुकोमला तथा चन्द्रमुखी, वह वाला मधुर अक्ष रो को बोलती हुई कहने लगी 'हे शंकर! मुझे प्रत्येक जन्म में यही प्रेमी प्रदान कीजिए' || ३७ ।।

ना कितबालकुरङ्गनेवा मत्तेमकुम्भयुगलस्तन भारतम्रा ।

काश्मीरकण किल संपुटिताभिषेन बोभुज्यते स्मररणे नरराजपुत्री ।। ३८ ।।

उस स्मर-युद्ध में कश्मीरी कवि ने कमलानना चकित बालमृगनयना तथा सवाले करिम्नान स्तन भार से झुकी हुई राजपुत्री का 'संपुरित' नाम वाले रतिबन्ध के द्वारा बारम्बार मोग किया ॥ ३८  ॥

चिरारुणदत्तवासा दन्तप्रमाविजितही रकदम्बशोभा ।

संतोष्यते तदनु पीडितकेन नाम्ना कान्तेन कान्तिकरणेन नरेन्द्रपुत्री ॥३६॥

इसके बाद चंचल, मुंगे के समान सुन्दर, लाल होठों वाली तथा दाँतों की आभा से हीरों के समूहों को शोमा को भी जीत लेने वाली उस राजपुत्रों को छानन्द प्रदान करने वाले प्रेमी ने 'पीडितक' नाम वाले प्रासन से सुख पहुंचाया ॥ ३९ ॥

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संस्कृत और समाज

      संस्कृत भाषा में निबद्ध साहित्य में एकता के सूत्र प्राप्त होते हैं- सहनाववतु सह नौ भुनक्तु। यही सूत्र सामाजिक एकता एवं समरसता का मूलाधार है। देश में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैै। इन भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। संस्कृत ही सभी भाषाओं को बांधकर रखी है। यह समाज को जोड़ने वाली भाषा है। सूत्र ग्रन्थों और स्मृतियों ने समाजवाद की अवधारणा को जन्म दिया। सामाजिक व्यवस्थाओं के सफल संचालन हेतु अनेक संस्थाओं का विशद वर्णन संस्कृत वाड्मय में उपलब्ध है। विवाह, परिवार आदि संस्थाएॅ उनके उत्तरदायित्व एवं मर्यादाओं की स्थापना संस्कृत भाषा में जिस विपुलता से उल्लखित हैं वह अत्यन्त दुर्लभ है। आज पूरा विश्व संस्कृत वाड्मय के उदात्त सन्देशों का ग्रहण कर स्वयं को आभारी मानता है।
                   स्मृतिकारों ने सूत्र साहित्य में वर्णित विषयों का विस्तार पूर्वक समयानुकूल श्लोकबद्ध विवेचन किया है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक आचार व्यवहार का वर्णन गृह्य सूत्रों एवं धर्मसूत्रों में किया गया है। गृह्सूत्र और धर्मसूत्र मानव के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में घटित होने वाली समस्त घटनाओं का विस्तृत वर्णन करते हैं। संस्कृत वाड्मय में जिन सामाजिक आदर्शो, नियमों का निदर्शन प्राप्त होता है, वे ऋषियों द्वारा शताब्दियों के चिन्तन मनन तथा अध्ययन का परिणाम है।चतुर्विध पुरूषार्थ की अवधारणा संस्कृत में ही प्राप्त होती है। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना एवं विस्तार संस्कृत भाषा की देन है। आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना एवं विस्तार संस्कृत भाषा की देन है। आश्रम व्यवस्था के प्रयोजन, कर्तव्य एवं महत्व को यदि हम जान समझ ले तो जीवन के तमाम आसुविधाओं से आज भी बचा जा सकता है। मानव समाज को परिस्कृत एवं सुसंस्कृत बनाने हेतु गर्भकाल से लेकर मृत्यु पर्यन्त सोलह प्रकार के संस्कारों मे से कुछ महत्वपूर्ण संस्कारों का चलन आज भी हिन्दु समाज में हैं। इसमें विवाह करने की आयु, एक पत्नी विवाह, विधवा विवाह, सम्बन्ध विच्छेद आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
                   संस्कृत भाषा में संबंधी जनों के लिए जितने अधिक शब्द प्राप्त होते हैं उतना किसी अन्य भाषा में नहीं। संस्कार विधि में मातृपक्ष एवं पितृपक्ष के सात पूर्वजों का उल्लेख करने का विधान प्राप्त होता है, जो आज भी प्रचलन में है।
                   संस्कृत भाषा में सम्बन्धवाची शब्दों की बहुलता परिवार नामक संस्था के द्योतक हैं। इस भाषा के ग्रन्थों में वर्णित कथानकों, पुराण ग्रन्थों में संयुक्त परिवार में प्रत्येक सदस्यों के अधिकार एवं कर्तव्य सुनिश्चित करते है। संयुक्त परिवार के सम्पत्ति विभाजन का वर्णन स्मृतियों में विशेषकर याज्ञवल्क्य स्मृति में दाय भाग के रुप में प्राप्त होता है।
                   संस्कृत ग्रन्थों में स्त्रियों को उच्चतम स्थान दिया गया। स्त्री परिवार एवं समाज की वह धुरी है जिसके रहने पर ही समाज की परिकल्पना सम्भव है।
                   व्यक्ति के मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए अक्षरारम्भ संस्कार शिक्षा प्राप्ति का प्रथम सोपान के रूप में स्थापित किया गया। शिक्षित व्यक्ति या समुदाय सामाजिक एवं सार्वजनिक नियमों का पालन करता हुआ सम्पूर्ण समाज को समुन्नत एवं सुखी रख सकता है। शिक्षा प्राप्ति हेतु छात्र एवं शिक्षक के कर्तव्यों के जिन अवधारणाओं को स्थापित किया गया वे आज भी मार्गदर्शक की भूमिका में है।
          आज जब भी वैयक्तिक, सामाजिक आचरण एवं चरित्र की चर्चा होती हमलोगांे का ध्यान संस्कृत की ओर जाता है। समाज में आज भी यह आम धारणा है कि संस्कृत पढ़े-लिखे लोग अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक आचरण से पवित्र और चरित्र में उन्नत हैं। समाज को सही चारित्रिक दिशा देने के लिए आवश्यक है कि उन्हें संस्कृत की न्यूनतम शिक्षा जरूर मुहैया करायी जाय। संस्कृत ग्रन्थों में अध्यापक या शिक्षक के लिए तीन शब्द उपलब्ध होते है।
1-गुरू 2-उपाध्याय 3-आचार्य
          विष्णु स्मृति के अनुसार माता, पिता तथा आचार्य तीन गुरू हैं। मनु के अनुसार जो थोड़ा या अधिक ज्ञान देता है वह गुरू है। वेद या वेदाड्ग का कोई एक अंश शुल्क लेकर पढ़ाने वाले को उपाध्याय कहा गया। आचरण की शिक्षा देने वाले को आचार्य कहा गया क्योंकि वह छात्रों से शुल्क नहीं लेता था।
          पाठ्यसामग्री को सुगम बनाने हेतु पद्यबद्ध ग्रन्थों की रचना की गयी। शास्त्रीय ग्रन्थों को वार्तालाप या प्रश्नोत्तर माध्यम से रचे गये।
          इस प्रकार संस्कृत वाड्मय समाज का सदियों से मार्गदर्शन एवं पथप्रदर्शन कर देश को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में जगदगुरू का पद दिला दिया।
          जिस भाषा में रचित वाड्मय के माध्यम से हम सदियों तक मार्गदर्शन प्राप्त कर आज इस स्थिति तक पहुचे हैं कि विश्व की अनेक संस्कृतियां एवं भाषा इससे उर्जा प्राप्त करती है।
     भारतीय समाज में संस्कृत की स्वीकार्यता तो है परन्तु उसे सीखने की ललक नहीं। उधार की शिक्षा और ज्ञान के बलबूते संस्कृत समाज में जीवित है। प्रत्येक गांव में जहां हिन्दुओं की बहुलता है वहाँ पण्डित या पुरोहित पदवी धारी व्यक्ति मौजूद है। ये दसेक श्लोक या मंत्र याद किये मिल जायेंगें। इनके पास एक पंचांग होता है, उसमें संस्कृत भाषा के कुछ श्लोक होते है। बस इतना ही संस्कृत समाज में अवशिष्ट है। यही सामाजिक आवश्यकता हैं क्योंकि यह प्राचीन भारतीय  परम्परा हैजिसे लोग ढो रहे हैं।
        समाज के वे लोग भी अंग हैजो संस्कृत के परम्परागत विद्यालयोंविश्वविद्यालयोंगुरूकुलों में अध्ययन कर चुकें हैं या कर रहे हैं। परन्तु इनका संस्कृत ज्ञान न तो समाज को स्पर्श करता है नही ये आज के समाज के लिए आवश्यक हैं। हाँ संस्कृत संस्थाओं से डिग्री प्राप्त किये व्यक्ति अर्थलाभ के लिए विभिन्न पदों पर विराजित तो हो जाते हैं, किन्तु इन्हें बतौर संस्कृतज्ञ कोई नहीं जान पाता। किन्हीं गांव में ब्राह्मण कुल न हो तो वहाँ उधार के पण्डित मिलते हैं । इन्हें कर्मकाण्ड ने जीवित रखा है, अतः ये कर्मकाण्ड अपनाये हैं। इस प्रकार संस्कृत उधार परम्परा में जीवित है।
              शिक्षा प्राप्ति का माध्यम भाषाएँ होती है। देश में अनेक भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषाएँहिन्दी या अंग्रेजी है। इस प्रकार के विद्यालय जो प्रायः हर गांव में मिल जायेंगें वहाँ बच्चे संस्कृत भी कमोवेश पढ़ते है। परन्तु ये संस्कृत क्यों पढ़ते है।  इसका उत्तर आपको न तो कोई बच्चा दे पाएगा न ही अध्यापक। स्थानीय विद्यालय, स्थानीय बच्चों में संस्कृत के प्रति आग्रह नहीं है। दूसरे प्रकार के माध्यमिक विद्यालय  संस्कृत विद्यालय कहे जाते हैं। संस्कृत विद्यालयों में स्थानीय बच्चे अध्ययन नहीं करते। ये विद्यालय उधार के बच्चे और उधार की भाषा पर जीवित हैं।
              आखिर ऐसा क्यों ? संस्कृत के प्रति सामाजिक अस्वीकार्यता क्यों है ? आइये इस पर चर्चा कर लें। आज के समाज को जो शिक्षा चाहिए वह संस्कृत माध्यम द्वारा दिया जाना सम्भव नहीं हो रहा है इसके अनेक कारण हैं-
1.      अध्यापक-संस्कृत विद्यालय के अध्यापकों को प्रशिक्षण दिये जाने की कोई भी व्यवस्था             नहीं है। दसेक शास्त्रीय पुस्तक ज्ञान के अलावा इनके पास कुछ भी ज्ञान नहीं हो पाता।                   संस्कृत माध्यम से नहीं पढे होने के कारण स्वंय संस्कृत में नहीं पढ़ा पाते।
2.      पाठ्यक्रम- संस्कृत शिक्षण का माध्यम होना चाहिए। इनके समस्त ग्रन्थ संस्कृत भाषा में                  लिखित हो। संस्कृत विद्यालयों ठीक वैसे हो जैसे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय। शिक्षा                    प्राप्ति के लिए सिर्फ माध्यम में परिवर्तन हो न कि ज्ञान में।
3.      संसाधन-शिक्षा प्रदान करने हेतु इन विद्यालयों में आधुनिक संसाधन उपलब्ध करायें                     जायें। संस्कृत शिक्षण पद्धति के आधुनिकीकरण हेतु नित नये प्रयोग और खोज को                         बढ़ावा दिया जाय।

आज का समाज अपने बच्चों को संस्कृत क्यों नहीं पढ़ाना चाहता ?

क्योंकि आज के जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में इसके ज्ञान सहायक नहीं रह गये।
क्योंकि यह सुनिश्चित करना शेष रह गया है कि मानव जीवन के कौन-कौन से आवश्यक सुविधा एवं            संसाधन पर्याप्त एवं उचित होंगे।
क्योंकि संस्कृत ज्ञान मानव समाज को प्रभावित करते नहीं दिखता। संस्कृत माध्यम द्वारा शिक्षा प्रदान करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इस भाषा के पास अपना नूतन शोध एवं ज्ञान राशि नहीं है। यदि दूसरी भाषा में हो रहे शोध को अनुदित कर इसे पल्लवित करने की कोशिश की गयी तो उधार का ज्ञान लम्बे समय तक जीवित नहीं रख सकता। आवश्यकता है कि आज की तकनीकि का ज्ञान पूर्णतः संस्कृत में हो पुनः इन क्षेत्र के लोग आधुनिक तकनीकि पर आगे कार्य करें। संस्कृत भाषा को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में पहल करें।
नोट- मेरे द्वारा लिखित अन्य वैचारिक निबन्ध पढ़ने के लिए लेवल में जाकर वैचारिक निबन्ध पर चटका लगायें।
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संस्कृत का वैश्वीकरण एवं व्यावसायिकता

           आज विश्व के समक्ष वैश्वीकरण का सूत्रपात हो चुका है। ऐसी दशा में हमें संस्कृत को एक नये रूप में प्रस्तुत करना होगा। हमें आधुनिक दृष्टि से वैदिक  विज्ञानों के अनेक पहलुओं को सर्वाधिक परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करना होगा। हम विभिन्न कालों में संस्कृत भाषा में निहित ज्ञानविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान को अपने अध्ययन, शोधों में पूर्णरूप से स्थापित कर चुके है। सूचना विज्ञान, भौतिक विज्ञान, वनस्पति, संगणक, यांत्रिकीय, भौगोलिक, भूगर्भीय,गणितीय, अन्तरिक्ष आदि विधाओं एवं विज्ञानों में हमने विश्व के समक्ष अपनी मेधा को परिमार्जित रूप में प्रकट किया है।
         आज वैश्वीकरण और निजीकरण के चलते संस्कृत भाषा और उसका समाज अपने को दयनीय स्थिति में पाता है। अनेकों संस्थानों, ,विद्यापीठों, विभागों, संगठनों, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, गुरूकुलों के रहते भी आज का विद्यार्थी संस्कृत पढ़कर स्वयं को सिर्फ शिक्षक बनने तक केन्द्रित करता है। हमें अपने शास्त्रीय ज्ञान को नवीन विज्ञान से तराशना होगा।
       इसमें कोई संदेह नहीं कि हमने पिछली शताब्दियों में वेदो, पुराणों, रामायण, दर्शन आदि पर वैज्ञानिक अनुशीलन से अपनी भाषा की गरिमा को पुनः प्रतिष्ठापित किया है, परंतु आज की आवश्यकता इसके व्यावसायिकता की स्थापना की है, जो हमें अपने समाज व पीढ़ी को आत्मनिर्भर बना सके। आज की युवा पीढ़ी रोजगारोन्मुखी पाठ्य की ओर तेजी से बढ़ रही है। हमें संस्कृत वाडमय में विभिन्न अध्ययनों, पूर्व शोधों से रोजगार, व्यवसाय जैसे पहलुओं पर मन्थन करना होगा। जिससे हमारी पीढ़ी इसके वर्तमान को पहचाने। साथ ही साथ इसके आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के पहलुओं का भी समन्वय करना होगा। संस्कृत केवल भाषा नहीं, अपितु यह विशाल वाङ्मय जो दुनिया की प्राचीनता एवं विज्ञान को अपने आप में समेटे है। इस भाषा में रोजगार और व्यवसाय के अनेकों आयाम विद्यमान हैं।
      आज का वैज्ञानिक चिन्तक, समाज सुधारक, अपने द्वारा प्रतिपादित नई विद्या के समर्थन हेतु पूर्व शोध एवं प्रमाणों का आधार लेता है। जो कुछ भी नया है वह सब कुछ संस्कृत में पूर्व से विद्यमान है। आज के जगत में सर्वकारीय तंत्र हो या स्वैच्छिक संगठन, प्रबंध तंत्र हो या सूचना तंत्र सभी का अविर्भाव हम अपने वाड्मय में देख सकते है। आज शासकीय सेवा में संस्कृत के विद्यार्थियों को सभी दिशाओं में रोजगार के अवसर विद्यमान है। पारम्परिक उपाधियों के साथ नवीन रोजगार मूलक पाठ्यक्रम भी कतिपय विश्वविद्यालयों द्वारा चलाये जा रहे है। सङ्गणकीय संस्कृत पाठ्यक्रम पाण्डुलिपि विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान, पौरोहित्य कर्मकाण्ड, नाट्यशस्त्रीय पाठ्यक्रम इनमें अध्ययन कर विद्यार्थी आर्थिक दृष्टि से सक्षम व आत्मनिर्भर हो सकता है। आज की विद्या विमुक्तये नहीं रह गयी है वह नियुक्तये हो गयी है। इन पाठ्यक्रमों में अर्थप्राप्ति के अनेकों अवसर विद्यमान है। इसके साथ-साथ नाट्यकला, साहित्य शिक्षकीय वैद्य, कवि, भविष्यवक्ता, सामुद्रिकशास्त्री आदि, शिल्पकला, वास्तु आदि का श्रेष्ठ ज्ञाता बनकर अर्थोपार्जन की असीम सम्भावनाएँ जुटाने में समर्थ हो सकता है। पारम्परिक उपाधियों में शेाध के लिए किसी एक विद्या का चयन कर वह उसमें प्रवीणता प्राप्त करता है। उस विषय का श्रेष्ठ ज्ञाता बन कर अर्थोपार्जन कर सकता है। नवीन व्यावसायिक आयामों में, वैदिक कृषि, महाभारतीय नीति, रामायण कालीन मानवीय मूल्यों, कालिदास जैसी काव्यकला भर्तृहरी जैसी दार्शनिकता इत्यादि विषयों के द्वारा लोक को पूर्ण दृष्टि दे सकता है। आज विश्व के अनेको पाठ्यक्रमों से संस्कृत को जोड़कर एक समन्वयात्मक पाठ्यक्रम तैयार कर हम अपनी व्यवसायिकता स्थापित कर सकते है। संस्कृत में ऐसी समस्त बीज मौजूद हैं जो भावी पद्धति को समन्वय की सीख दे सकते हैं। भारतीय दृष्टिकोण हमेशा से परिपूर्णता के सिद्धांत को अपनाता आ रहा है। आध्यात्मिक आधिदैविक आधि भौतिकताओं का समावेश हमारी शिक्षा की विशेषता प्रारंभ से चली आ रही है। हमें आगामी शताब्दियों में व्यवसायिकता से निपटने के लिए संस्कृत का प्राच्य/नव्य दृष्टिकोण प्रत्येक विधा के साथ समाविष्ट कर एक नये रूप में प्रस्तुत करना होगा। उंची-उंची कल्पनाएँ और स्वप्न देखना भी आवश्यक होता है। भवभूति के समान कालोऽह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी कोई तो इसे स्वीकारेगा।
महाकवि कालिदास का संदेशकाव्य सूचना प्रौद्योगिकी के आज के तर्क को साकार करता सा दिखता है। सूचनातन्त्र के रहते न रहते भी कल्पना का बेजोड़ नमूना महाकवि के यश को अक्षुण्ण बना रहा है। भारतीय आधुनिक मनीषी जिन्होनें सोलहवी शताब्दी के गैलालियों की इस मान्यता को साकार किया है कि कोई भी प्राचीन वचन प्रमाण न मानकर स्वंय के निरीक्षण और परीक्षण को प्रमाण माना जाये।
  यही आधुनिक विज्ञान की आधारशिला है। इस अवधारणा के फलस्वरूप संस्कृत मनीषियों में उन्नीसवी बीसबीं शती के आधुनिक संस्कृत मनीषियों ने संस्कृत के सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान को तराशा है। उनकी प्रेरणा को हमें अपने व्यावसायिक स्वरूप में बनाने में सार्थकशील होगा।
         वर्तमान सूचना प्रौद्योगिकी के समय में परिवर्तन में अब वह समय नहीं लग रहा है जो इसके अभाव में लगता था। आज का युवा वर्ग तेजी से बदल रहा है। संस्कृत और सांस्कृतिक समाज अपनी पुरानी परम्पराओं रीति-रिवाजों को जानता हुआ भी उसके प्रयोग को अपनी पीढ़ी को देेने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। हम अपने को देखे हमारे पूर्वज जैसे थे वैसे हम है क्या या हमारी पीढ़ी यदि हम जैसी रहेगी क्या आदि-आदि स्थिति को देखने से भूमण्डलीय दौर के इस युग में यदि हम संस्कृत अपने नीति उपदेश, धर्म, दर्शन, साहित्य और पुरूषार्थ का आज के संदर्भ में नवीन उद्भावनाओं के साथ युवावर्ग के व्यावहारिक जीवन में इसकी संश्लिष्टि नही कर पाये तो हम आने वाले समय में अपने विचारकों को उत्तर देने में भी असमर्थ सिद्ध हो सकते है। संस्कृत वाणी के अपार वैभव को यद्यपि व्यावसायिक स्वरूप नहीं दिया जा सकता यह सही है। परंतु बिना इसके भी हम आधुनिक दौर में शामिल नही रह सकते यह भी सच है। हमने अपने पुरातन समृद्धशाली विज्ञान को पर हस्तगत कर दिया है। अंग्रेज शासक उसका यथोचित दोहन कर उसके वास्तविक लाभ को भोग रहे हैं। आज हम अपने साहित्य को दुनिया के तमाम साहित्यों से समृद्धशाली पाते तो हैं, पर इसमें अप्रतिम उद्भावनाओं, नाट्यशास्त्रीय प्रयोगों को शाश्वत् धारा से जोड़कर प्रायोगिक जीवन में उतार नहीं पाते। इसके शाश्वत् पहलुओं को समझकर वास्तविक चिन्तन की धारा को सरलतम केन्द्रीकृत रूप में प्रस्तुत करना होगा। आज मानव जीवन के  शाश्वत मूल्यों वाली शिक्षा ही विकास की शाश्वत धारा स्थापित करने में समर्थ हो सकती है। परंतु यह भी सत्य ही है कि हमारी प्रतिभाएँ हमारे ही यहाँ उचित वृत्ति के अभाव में पलायित हो जाती है। हमारी नीति भी जीविका एवं धनोपार्जन श्रम और उद्योग की उदात्तभावना की व्यापकता का बखान करती आ रही है।
                             यस्मिन देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च वान्धवः।
                             न च विद्यागमः कश्चित्तं देशं परिवर्जयेत् ।।
आने वाले समय में हमने अपने पूर्वजों से प्रेरणा नहीं ली, चतुराई और त्यागशीलता की प्रवृत्ति विकसित नहीं की तो हम वृत्ति अर्जन करने में भी समर्थ नही हो सकते लोकजीवन को मंगलमय बनाने हेतु चारों पुरूषार्थों का संगम नितान्त अपेक्षित है। आधुनिक वृत्तिवाद की प्रवृत्ति हमारे अन्य तीनों पुरूषार्थों को कमजोर कर रही है। ऐसी अवस्था में हमारा ऋषिचिन्तन ही हमें इस उदासीनता से मुक्ति दिला सकता है। यह बात सही है कि जहाँ भोग यात्रा संभव न हो वहाँ निवास भी श्रेयस्कर नहीं है। सम्भवतः इसी कारण भारतीय उच्च प्रतिभा विदेशों की ओर आकृष्ट हो रही है।
                              लोकयात्राऽभयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता
                                          पञ्च यत्र न विद्यन्ते कुर्यात्तत्र न संस्थितम्।।
                             धनवान् बलवान् लोके सर्वः सर्वत्र सर्वदा
                                           प्रभुत्वं धनमूलं हि राज्ञामप्युपजायते।।
यह प्रवृत्ति भी हमें शुरू से ही प्राप्त हुयी है। अर्थसम्पन्न राष्ट्र ही भौतिक प्रगति करता है। उसका जीवनदर्शन एक जैसा ही होता है। दुःख दर्द रोग, भौतिक विपदायें उसे अर्थसम्भव होने से निजात नहीं दिलाती, अर्थ लोलुपता की निवृत्ति भी शास्त्र ही हमें सिखाता है। इस तरह शास्त्रा प्रवृत्ति और निवृत्ति की अभिव्यक्ति का विकास मनुष्य को सदैव बोधित कराता आया है।
                           वृत्यर्थं नातिचेष्टेत् सा हि  धात्रैव निर्मिता।
                                         गर्भादुत्पातते मातुः प्रस्रवतः स्तनौ।।
                          येन शुक्ली कृताः हंसा शुकाश्च हरितीकृताः।
                                   मयूराश्च चित्रिता येन स ते वृत्तिं विधास्यति।।
इस दर्शन का ज्ञान जीवन को जीने की कला संतोष कार्यवाहिका आदि की विश्वव्यापी ज्ञान की पूर्ण प्रणाली का सिमेटे हमारा संस्कृत ज्ञान दुनिया के ज्ञानों से परिपूर्ण है।
स्वातन्त्रयोत्तर संस्कृति साहित्य के क्षेत्रा में एक अभूतपूर्व क्रान्ति हमनें विकसित की है अपने देश के साथ-साथ विदेशों में भी कतिपय संस्थाएँ इस दिशा में प्रयासरत है। भारत में संस्कृत के पारम्परिक रोजगार के अनेको  अवसर हमारे लिए सुलभ है। तमाम वर्तमान प्रशासनिक सेवाओं के साथ-साथ हम इस विषय को लेकर देश को एक कुशल राजनेता कुशल प्रशासक, कुशल शिक्षक एवं कुशल विद्यार्थी देने में पूर्णतः सक्षम है। राजनीति हो या प्रबंध शास्त्रा शिक्षा हो या संगठन हमने अपने भाषा की अन्तव्र्याप्ति सर्वत्र सिद्ध की है। देश में वर्तमान में संस्कृतवाङ्मय के क्षेत्र में स्थापित संस्थान/विश्वविद्यालय है जिनमें हमारे लिए तमाम सेवाओं के विविध अवसर विद्यमान हैं। इनमें प्रमुख है, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, जिसके संपूर्ण भारत वर्ष में अनेकों परिसर स्थापित है। इसमें नवीन विषयों जैसे विज्ञान, अग्रेंजी, गणित के साथ, संस्कृत की प्राच्यविधाओं वेद, पुराणों, दर्शन साहित्य व्याकरण की उच्चस्तरीय शिक्षा की व्यवस्था है। इन संस्थानो में विशेषकर एक पूर्ण एवं सक्षम शिल्पी बनाने का प्रभावशाली अध्यापन कराया जाता है। ये सभी संस्थान एक स्वायत्तशासी निकाय द्वारा संचालित है। इनमें व्याख्याता, प्रोफेसर, कुलसचिव प्राचार्य जैसे महत्वपूर्ण पद हैं। जिनमें सेवा का अवसर प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान में सेवा के प्रत्येक क्षेत्रा में संस्कृत का विद्यार्थी चयनित हो सकता है। स्वातन्त्रयोत्तर शैक्षिक संस्थानों का विकास एवं विश्व विद्यालयों में स्थापनाकाल से स्थापित संस्कृत विभागों, महाविद्यालयों का कार्य शोध एवं इस दिशा में की गयी प्रसंशास्पद उन्नति से संस्कृत का विश्वव्यापी दृष्टिकोण पुनः आज चरितार्थता की ओर है।
              संस्कृत साहित्य अपने आप में सभी ज्ञान-विज्ञानों का समन्वयात्मक स्रोत है। नाट्यकलाओं के बढ़ते रुझान पर एक बार फिर भारत पर दुनिया की  दृष्टि आकृष्ट हुयी है। वर्तमान में इसकी समसामयिकता को नवीन आयाम देने वाले हमारे पुरोधा आचार्यो के अतिरिक्त आचार्य आर. व्ही. त्रिपाठी, आचार्य राजेन्द्र मिश्र, आचार्य हरिदत्त शर्मा, भट्ट श्री मथुरानाथ  आदि विद्धानों की विस्तृत त है। नये रूप में कुछ नवीन आयाम इस दिशा में तेजी से उभर रहे हैं। यथा पाण्डुलिपि विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान, नाट्यशास्त्रादि।
          पाण्डुलिपि विज्ञान- राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन द्वारा तैयार कराये गये डाटावेसेज के अनुसार भारत के अनेक प्रान्तों में हस्तलिखित ग्रंथो की तादाद आज भी बहुत अधिक है। सागर वि. वि. के पाण्डुलिपि संसाधन केन्द्र में ही लगभग 15 हजार ग्रंथों का संचय एवं उपलब्धता की जानकारी विद्यमान है। इस क्षेत्र में लिपियों के ज्ञान के बल से हम अनेक ग्रन्थों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर सकते है। यह कार्य अनेकों दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं आर्थप्राप्ति परक भी हो सकता है। इसमें ऐसे अन्य भी है जिनका भाषाई अनुवाद अभी तक अप्राप्त है। इस दिशा में नई सदी में इस विषय का एक व्यावसायिक डिग्री पाठ्यक्रम प्रारंभ किया जा सकता है। इसके जरिये एक तो हमें लिपियों का ज्ञान प्राप्त हो सकेगा दूसरा अनुवाद परक कार्य से हम आर्थिक दृष्टि से भी सक्षम हो सकेगें। डिप्लोमा इन संस्कृत लैंग्वेज विथ मैन्युस्क्रिप्टोलोजी कम से एक समन्वयात्मक पाठ्यक्रम बनाया जाकर विद्यार्थियों को इसके फायदों से परिचित कराया जा सकता है।
            ज्योतिर्विज्ञान - इस क्षेत्र में सूर्यसिद्धांत जैसे ग्रंन्थों एवं पाश्चात्य में हुये यन्त्रविषयक दूरवीक्षण ग्रंथों के सहारे हम एवं मिलाजुला पाठ्यक्रम तैयार कर एक नवीन एवं न्यायसंगत परक दृष्टि विश्व को दे सकते है। ज्योतिर्विज्ञान का भारतीय प्रारंभिक गहन चिन्तन साहित्य हमें प्राप्त है। इसके क्षेत्र में संस्कृत विश्वविद्यालयों के ज्योतिर्विज्ञान विभागों में हुये शोध एवं पन्द्रहवी शताब्दी के इटली के गैलीलियों द्वारा बनाये गये दूरबीक्षण यन्त्रों के माध्यम से हम अपने ज्योतिषीय विज्ञान को एक विश्व दृष्टि परक नवीन दिशा के साथ प्रस्तुत  कर सकते है। पाश्चात्य देशों के अनेको विश्वविद्यालय है जहाँ ज्योतिर्विज्ञान की पढ़ाई आज भी विद्यमान है इसके तीनों पक्ष फलित गणित एवं सिद्धांतों के समन्वयात्मक ज्ञान से हम समाज के आवश्यक जीवन के रहस्यों एवं पूर्व-पूर्व जन्मों के संयोग का खगोलीय अध्ययन कर उसके जीवन को एक नई दिशा देते है। इसके वास्तविक अध्ययन के गणितीय विश्लेषण से हम ठीक-ठीक फलादेश कर अर्थापार्जन कर सकते है। सम्पन्न देशों का रूझान इस ओर अधिक है। परंतु इसके ठीक जानकारों का अभाव है। नई सदी में पुनः एक बार इस विज्ञान को व्यापक बनाकर समाज के लोगों को अर्थोपार्जन में स्वावलंबी बनाया जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में केवल एक ही तत्व अधिभौतिक शेष रह गया है। यह प्रणाली भारतीय ज्ञान पर आधारित नही कही जा सकती। भारतीय मायने में हमारी शिक्षा की स्थिति आध्यात्मिक आधिदैविक और अधिभौतिक विविध समन्वित शिक्षा में ही निर्भर करती है। इसका ही यह परिणाम है कि विद्यार्थीयों का जीवन जहाॅ विकासशील, आनंदमय, समस्याविहीन स्वावलम्बी होना चाहिये वहाॅ वह अशान्ति भारवान् अनुशासन हीनता तनाव और अपराधी भावना से युक्त होता जा रहा है। यदि शिक्षा की वर्तमान धारा में अध्यात्म और अधिदैव को स्थान नहीं दिया गया तो यह केवल पत्तों को जल देने जैसे स्थिति होगी जिससे तना मूल से उच्छिन्न होकर शाखा और पत्तों की स्थिति को भी न प्राप्त कर पायेगा। ‘‘छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।’’ आधुनिक विज्ञान का एकाकीपन ही वास्तविक परिपूर्णता को खो बैठता है। स्रोत और आधुनिक का समन्वयात्मक स्वरूप ही पूर्णता को प्रदान कर सकता है। समन्वय के सिद्धांत की लोकप्रियता उसकी शाश्वतिक उचाईयों को हम कालिदास के इस पद्य से गृहीत कर लेते है।
                          पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
                          सन्तः परीक्ष्यान्यरत् भजन्ते मूढ़ः परप्रत्ययेन बुद्धिः।
       सहस्राब्दी में सुरक्षित रहा हमारा साहित्य हमें जीवन के तमाम पक्षों को जीने की कला सिखाता है। संस्कृत के विश्वव्यापी साहित्य की कोई भी विधा सिर्फ परम्परा और समन्वय के चलते ही आज तक अक्षुण्ण बनी हुयी है। विश्व में तमाम भाषाओं में हुये इनके अनुवादों से यह निर्विवाद सत्य है। कि स्वतंत्रता पश्चात् संस्कृत में अभूतपूर्व प्रगति हुयी है। जहाँ एक ओर इसके स्वरूप की अजस्र धारा पल्लवित हो रही है वहीं इस पर आधुनिक सर्जनाएँ और नये द्वार भी विकसित हो रहे है। कतिपय आधुनिक मनीषियों ने इस पर आधुनिक दृष्टि से चिन्तन मनन कर इस दिशा में युवावर्ग पर अपनी एक पैनी दृष्टि डाली है। इसके क्लिष्ट पदावली को सहज स्वरूप में प्रस्तुत किया है। इसके गर्भ के तिरोहित उन तमाम अन्वेषणों को अभिव्यक्ति दी है। जिसकी जरूरत आगामी पीढ़ी को हैं। कला विषयक चिन्तन हो या वैज्ञानिक अवधारणाएँ सभी का उन्मेष हमें वेद में प्राप्त होता है। कृषि एवं तकनीकी के पर्याप्त आधार वेदों में निहित है। तथ्य है कि संस्कृत भाषा ने हमें जो अभिव्यक्ति प्रदान की है, जीवन के सर्वागीण सिद्धांत बताये है उन्हीं के द्वारा हम अपने राष्ट्र को परमोन्नत एवं पूर्णविकसित राष्ट्र के आदर्श के रूप में देख सकते हैं। नई सहस्राब्दी में हमारा समन्वित प्रयास होना चाहिये कि हम अपने सांस्कृतिक धरातल को और अधिक परिमार्जित करते हुये कला के साथ-साथ विज्ञान के आयामों पर विशेष ध्यान दे और ऐसे समन्वयवादी दृष्टिकोण को विकसित करें जिससे हम पूर्ण भारतीय ज्ञान विज्ञान को दुनिया के समक्ष अनुकरणीय तरीके से प्रस्तुत कर पायें।  रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रम द्वारा आज की युवा पीढ़ी को   तेजी से रोजगार दे सकें।
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