ग्रह धातु से अच् प्रत्यय के योग से निष्पन्न
ग्रह शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है। गृह्णाति गति विशेषान् इति।
अथवा गृह्णाति फलदातृत्वेन जीवान् इति। अर्थात् जो जीवों को अर्थात् प्राणी समूह
को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करते हैं वे ग्रह हैं। इस व्याख्या के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु ये
नौ संख्या वाले ग्रह हैं। जैसा कि कहा भी गया है —
सूर्यश्चन्द्रो मङ्गलश्च बुधश्चापि बृहस्पति:।
शुक्र: शनैश्चरो राहु: केतुश्चेति नवग्रहा:।।
गृह्णाति गति विशेषान् व्युत्पत्ति से पांच
ग्रह मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि ही
ग्रह कहे जा सकते हैं। क्योंकि र्तािकक दृष्टि से सूर्य एवं चन्द्रमा ग्रह लक्षण
के अन्तर्गत नहीं आते हैं तथा राहु एवं केतु तमोग्रह (छाया ग्रह) अथवा पात विशेष
हैं। पृथ्वी का गमन पथ एवं चन्द्रमा के गमनमार्ग जहाँ आपस में एक दूसरे को काटते
हैं वही दोनों बिन्दु राहु केतु के नाम से जाने जाते हैं। वैदिक काल में पांच ग्रह
ही माने जाते थे। ये पांचों ग्रह मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि ही थे। ऋग्वेद के एक मन्त्र में उल्लेख मिलता है —
अमी ये पंचोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिव:।
देवत्रा नु प्रावच्यं सध्री चीनानि
वावृदुवित्तं मे अस्य रोदिसी।। (ऋग्वेद १।१०५।१०)
``अर्थात् ये जो महाप्रबल पांच
विस्तीर्ण द्युलोक के मध्य रहते हैं उनका स्तोत्र बना रहा हूँ। एक साथ आने वाले
होते हुए भी वे सब दिन में चले गये हैं।'' इस मन्त्र में
इन्हीं पांच ग्रहों का उल्लेख है। किन्तु स्मृतिकाल, जो
वैदिक काल के ठीक पश्चात् है, में स्पष्ट रूप से नौ ग्रहों
का उल्लेख होने लगा था। याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार —
सूर्य: सोमो महीपुत्र: सोमपुत्रो बृहस्पति:।
शुक्र: शनैश्चरो राहु: केतुश्चेति ग्रहा:
स्मृता:।।
(याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय, २९६)
इस प्रकार भारतीय ग्रन्थों में ग्रहों का वर्णन
अत्यन्त प्राचीन है।
भगवान के असंख्य अवतार हुए हैं जिसमें ग्रह रूप
जनार्दन नामक भी एक अवतार है। अर्थात् ग्रह भी भगवत् रूप हैं।
अवताराण्यनेकानि अजस्य परमात्मन:।
जीवानां कर्मफलदो ग्रहरूपी जनार्दन:।। (लोमशसंहिता
५।४१)
यह श्लोक बृहत्पाराशर होराशास्त्र २।३ में भी
आया है।
मर्हिष पराशर तथा लोमश ऋषि का कथन है कि भगवान
नारायण का अवतार ग्रहों द्वारा हुआ है यथा - सूर्य से राम का, चन्द्रमा से कृष्ण का, मंगल से नृिंसह का, बुध से बुध का, गुरु से वामन का, शुक्र से परशुराम का, शनि से कच्छप का, राहु से वराह का तथा केतु से मीन
का अवतार हुआ है। इनके अतिरिक्त भी अवतार ग्रहों से हुए हैं जिनमें परमात्मा का
अंश अधिक है वे खेचर कहलाते हैं। यथा—
रामावतार: सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायक:।
नृिंसहो भूमिपुत्रस्य बुद्ध: सोमसुतस्य च।।
वामनो बिबुधेज्यस्य भार्गवो भार्गवस्य च।
वूâर्मो भास्करपुत्रस्य सैंहिकेयस्य शूकर:।।
केतोर्मीनावतारश्च ये चान्ये तेऽपि खेटजा:।
परमात्मांशमधिकं येषु ते खेचराभिधा:।।
(बृहत्पाराशर होराशास्त्रम् २।५,६,७)
भारतीय शास्त्रों में कुछ ग्रहों को फल
कत्र्तृत्व वाला अर्थात् शुभाशुभ फल करने वाला मानते हैं तो अन्य को पूर्र्वािजत
कर्मफलों के सूचक मात्र मानते हैं। महाभारत में भी ग्रहों को सूचक ही कहा गया है।
यथा —
केवलं ग्रहनक्षत्रं न करोति शुभाशुभम् ।
सर्वमात्मकृतं कर्म लोकवादो ग्रहा इति।।
(महाभारत अनुशासनपर्वान्तर्गत
दानधर्मपर्व)
शाङ्र्गधरपद्धति में भी कहा गया है कि देवता
ग्रहों का स्वरूप बनाकर मनुष्यों के पूर्र्वािजत स्वकीय कर्मों (अपने ही किये हुए)
का शुभाशुभ फल देते हैं।
देवता ग्रहरूपेण मनुष्याणां शुभाशुभम् ।
फलं प्रार्गिजतं यच्च तद्ददाति स्वकीयकम् ।।
(बृहद्दैवज्ञरञ्जनम् ३३।१०)
बृहस्पति के अनुसार उत्त्पत्ति, पालन तथा विनाश भी ग्रहों के
पीछे चलते हैं। अत: फलदाता और सूचना देने वाले ग्रह होते हैं। यथा —
सृष्टिरक्षणसंहारा: सर्वे चापि ग्रहानुगा:।
कर्मणां फलदातार: सूचकाश्च ग्रहा: सदा।।
(बृहस्पतिसंहिता,
१।७)
शुभ ग्रह = गुरु, शुक्र, पूर्ण चन्द्रमा तथा बुध।
पाप ग्रह = शनि, राहु एवं केतु।
कुछ आचार्यों ने केतु को शुभग्रह माना है।
व्रूâर ग्रह = सूर्य एवं
मंगल। अधिकांश आचार्यों ने पाप एवं व्रूâर का एकत्व ही माना
है।
बुध ग्रह जिन ग्रहों के साथ रहता है वैसा ही
उसका स्वरूप हो जाता है। पापग्रहों के साथ पाप एवं शुभ ग्रहों के साथ शुभ हो जाता
है। व्रूâर ग्रह वक्री होने पर अत्यधिक
व्रूâर तथा शुभ ग्रह वक्री होने पर अत्यन्त शुभ हो जाते हैं।
पुरुषादिसंज्ञक ग्रह = सूर्य, मंगल
एवं गुरु पुरुष संज्ञक ग्रह हैं। चन्द्रमा एवं शुक्र स्त्रीसंज्ञक ग्रह हैं तथा
शेष शनि एवं बुध नपुंसक संज्ञक ग्रह कहे गये हैं।
ग्रहों की राशियां - किस-किस राशियों के कौन-कौन ग्रह स्वामी हैं।
इसे समस्त आचार्य एकमत से मानते हैं। िंसह राशि का स्वामी सूर्य तथा कर्वâ का चन्द्रमा एक-एक राशि के
स्वामी हैं जबकि शेष ग्रह दो-दो राशियों के स्वामी हैं। मंगल मेष एवं वृश्चिक,
बुध मिथुन एवं कन्या, गुरु धनु एवं मीन,
शुक्र तुला एवं वृष तथा शनि मकर एवं कुम्भ के स्वामी हैं।
ग्रहों का मूल त्रिकोण
सूर्य - सिंह राशि में ० से २० अंश तक मूल
त्रिकोण शेष राशि स्वगृह हैं।
चन्द्र - वृष में ४ से ३० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष उच्च हैं।
मंगल - मेष में १ अंश से १२ अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
बुध - कन्या में १६ से २० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
गुरु - धनु में १ से १० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
शुक्र - तुला में १ से १५ अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
शनि - कुम्भ में १ से २० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष गृह हैं।
ग्रहों की उच्चनीचादि राशियां—
सूर्य - मेष राशि में १० अंश तक उच्च तथा तुला
में इतने अंशों तक नीच।
चन्द्रमा - वृष में ३ अंश तक उच्च तथा वृश्चिक
में ३ अंश तक नीच।
मंगल - मकर में २८ अंश तक उच्च तथा कर्वâ के २८ अंश तक नीच।
बुध - कन्या में १५ अंश तक उच्च तथा मीन में
इतने अंश तक नीच।
गुरु - कर्वâ में ५ अंश तक उच्च तथा मकर में ५ अंश तक
नीच।
शुक्र - मीन में २७ अंश तक उच्च तथा कन्या में
२७ अंश तक नीच।
शनि - तुला के २० अंश तक उच्च तथा मेष के २०
अंश तक नीच राशि में रहता है।
ग्रहों की नृपादि संज्ञा - सूर्य राजा, चन्द्रमा रानी, मंगल मण्डलेश्वर या सेनापति, बुध कुमार, गुरु मन्त्री, शुक्र नेता (कुछ के मत में शुक्र भी
मंत्री) तथा शनि की सेवक संज्ञा होती है। यथा —
रवी राजा शशी राज्ञी मङ्गलो मण्डलाधिप:।
ज्ञ: कुमारो गुरुर्मन्त्री सितो नेता परो
भृती।।
(बृहद्दैवज्ञरञ्जनम्, ३२।५६)
सूर्यजातक में स्वयं सूर्य का कथन भी द्रष्टव्य
है —
अहं राजा शशी राज्ञी नेता भूमिसुत: खग:।
सौम्य: कुमारो मन्त्री च गुरुस्तद्वल्लभा
भृगु:।
प्रेष्यस्तथैव सम्प्रोक्त: सर्वदा तनुजो मम।।
(होरारत्न, ६१।१२)
तथा वराहमिहिर ने बृहज्जातक में -
राजानौ रविशीतगू क्षितिसुतो नेता कुमारो बुध:।
सूरिर्दानवपूजितश्च सचिवौ प्रेष्य: सहस्रांशुज:।। (होरारत्न, २।१)
ग्रहों की अवस्था - सूर्य, मंगल एवं शनि की पृष्ठोदय
संज्ञा तथा राहु, गुरु, शुक्र एवं बुध
की शीर्षोदय संज्ञा होती है तथा ग्रहों की अवस्था में चन्द्रमा शिशु, मंगल बाल, बुध किशोर, शुक्र
युवा, गुरु मध्य, सूर्य वृद्ध तथा शनि
की अतिवृद्ध अवस्था होती है। कुछ आचार्यों के मत से बुध शिशु, मंगल युवा, शुक्र एवं चन्द्र मध्य अवस्था वाले तथा
शेष ग्रह वृद्ध अवस्था वाले होते हैं।
ग्रहों का समयबल विचार — प्रात:काल गुरु एवं बुध,
मध्याह्न काल में सूर्य एवं मंगल, अपराह्न में
चन्द्रमा एवं शुक्र तथा सन्ध्या समय में शनि एवं राहु बली होते हैं।
ग्रहों की कफादि संज्ञा - मंगल एवं सूर्य की
पित्त प्रकृति, चन्द्रमा एवं शुक्र की कफ प्रकृति, गुरु एवं बुध की
समधातु तथा शेष शनि एवं राहु वात प्रकृति के होते हैं।
ग्रहों का रस- मंगल सूर्य का कटु (कड़ुवा) रस, चन्द्र तथा शुक्र का नमकीन एवं
खट्टा, बुध का कसैला, गुरु का मीठा तथा
राहु एवं शनि की तिक्त रस संज्ञा होती है।
ग्रहों की द्विपदादि संज्ञा— गुरु एवं शुक्र की द्विपद
संज्ञा, मंगल सूर्य की चतुष्पद संज्ञा, बुध एवं शनि की पक्षी संज्ञा तथा चन्द्र एवं राहु की सरीसृप (सरक कर चलने
वाले जीव) संज्ञा मानी गयी है।
ग्रहों की वर्णादि संज्ञा- शुक्र तथा गुरु
ब्राह्मण संज्ञक,
मंगल और सूर्य क्षत्रिय संज्ञक, बुध एवं
चन्द्रमा वैश्य संज्ञक तथा राहु एवं शनि शूद्र संज्ञक होते हैं। कुछ आचार्यों ने
चन्द्रमा को वैश्य, बुध को शूद्र तथा शनि और राहु को म्लेच्छ
(अन्त्यज) संज्ञक माना है।
ग्रहों की दृष्टि विचार - मंगल तथा सूर्य की
उध्र्व दृष्टि, राहु और शनि की अधोदृष्टि, शुक्र और बुध की तिर्यव्â
दृष्टि तथा चन्द्रमा एवं गुरु की समदृष्टि होती है।
ग्रहों के तत्त्व विचार- सूर्य एवं मंगल
अग्नितत्त्व, चन्द्रमा एवं शुक्र जलतत्त्व, बुध भूमि तत्त्व,
गुरु आकाश तत्त्व तथा शनि एवं राहु वायु तत्त्व कारक हैं।
ग्रहों का वस्त्र - सूर्य का मोटा वस्त्र, चन्द्रमा का नूतन, मंगल का जला हुआ, बुध का भीगा हुआ, गुरु का सामान्य, शुक्र का दृढ़ तथा शनि एवं राहु का
जीर्णवस्त्र माना गया है।
ग्रहों की धातु - सूर्य का ताम्र, चन्द्रमा का मणि, मंगल का सोना, बुध का मिश्रित धातु, गुरु का सोना, शुक्र का मोती, या
चांदी तथा शनि एवं राहु का धातु लोहा माना गया है।
ऋतुओं के स्थायीग्रह - क्रमश: वर्षा ऋतु का
स्वामी चन्द्रमा,
शरद ऋतु का बुध, हेमन्त का गुरु, शिशिर का शनि एवं राहु, बसन्त का शुक्र तथा ग्रीष्म
ऋतु का स्वामी मंगल एवं सूर्य ग्रह हैं। इसी प्रकार सूर्य ६ महीने एक अयन, चन्द्रमा एक मुहूर्त, मंगल-दिन, बुध ऋतु अर्थात् दो मास, गुरु एक महीने का, शुक्र पक्ष यानी १५ दिन तथा शनि एवं राहु १ वर्ष अथवा उससे अधिक समय के
स्वामी होते हैं।
ग्रहों की स्थिरादि संज्ञा - सूर्य स्थिर, चन्द्रमा चर, मंगल उग्र, बुध मिश्रित, गुरु
मृदु, शुक्र लघु तथा शनि तीक्ष्ण संज्ञक ग्रह हैं। शुक्र एवं
चन्द्रमा सजल ग्रह, सूर्य, मंगल एवं
शनि शुष्क ग्रह तथा गुरु एवं बुध राश्यानुसार सजल एवं निर्जल दोनों होते हैं।
ग्रहों के नैर्सिगक मैत्री विचार — सूर्य के चन्द्रमा, मंगल तथा गुरु मित्र, बुध सम तथा शुक्र एवं शनि
शत्रु हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा सूर्य तथा बुध को मित्र, मंगल,
गुरु, शुक्र एवं शनि को सम तथा किसी भी ग्रह
को शत्रु नहीं मानता है। मंगल सूर्य चन्द्रमा तथा गुरु को मित्र बुध को शत्रु तथा
शेष ग्रहों को सम मानता है। बुध सूर्य तथा शुक्र को मित्र, चन्द्रमा
को शत्रु तथा शेष ग्रहों को सम मानता है। गुरु तथा सूर्य, चन्द्र
तथा मंगल को मित्र, शनि को सम तथा बुध, तथा शुक्र को शत्रु मानता है। शुक्र तथा ग्रह बुध तथा, शनि को मित्र, सूर्य तथा चन्द्र को शत्रु तथा मंगल
एवं गुरु को सम मानता है। शनि ग्रह बुध तथा शुक्र को मित्र, गुरु
को सम तथा शेष ग्रहों को सम मानता है।
आत्मादि ग्रहों का निरूपण करते हुए वराहमिहिर
ने कहा है —
कालात्मा दिन कृन्मनस्तु हिनगु: सत्त्वं
कुजोज्ञो वचो।
जीवो ज्ञानसुखे सितश्च मदनो दु:खं
दिनेशात्मज:।। (बृहज्जातकम् २।१)
अर्थात् काल पुरुष की आत्मा सूर्य, चन्द्रमा मन, मंगल पराक्रम, बुध वाणी, गुरु
ज्ञान एवं सुख, शुक्र काम तथा शनि दु:ख है। अर्थात् जन्म या
प्रश्न के समय जो ग्रह जिसके कारक बताये गये हैं उनसे सम्बन्धित तथ्यों की अधिकता
देखी जाती है।
सूर्यसिद्धान्त में ग्रहों की आठ प्रकार की
गतियों का वर्णन मिलता है। यथा — वक्रा, अनुवक्रा, कुटिला, मन्दा, मन्दतरा,
समा, शीघ्रतरा तथा शीघ्रा।
वक्रानुवक्रा कुटिला मन्दा मन्दतरा समा।
तथा शीघ्रतरा शीघ्रा ग्रहाणामष्टधा गति:।।
(स्पष्टाधिकार १२)
कुटिला एवं वक्रा पर्याय हैं अत: कुटिला के
स्थान पर विकला पाठ अधिक उचित है। कहीं वक्रानुवक्रा विकला यह पाठ मिलता है।
होरानुभवदर्पण में कहा गया है कि सूर्य के साथ ग्रह अस्त, पुन: अंशों से आगे निकलने पर
उदित गति, सूर्य से दूसरी राशि में ग्रह होने पर शीघ्रा,
तीसरी में समा, चौथी में मन्दा, पांचवी एवं छठीं में वक्रा, सातवीं तथा आठवीं में
अतिवक्रा, नवीं तथा दशवी में कुटिला (विकला) तथा ग्यारहवीं
तथा बारहवीं राशि में रहने पर अतिशीघ्रा गति होती है।
महानिबन्ध नामक ग्रन्थ में काल पुरुष के
शरीरावयवों में ग्रह न्यास बताते हुए कहा गया है कि कालपुरुष के मस्तक व मुख में
सूर्य, वक्षस्थल व गले में चन्द्रमा,
पीठ व पेट में मंगल, हाथ व पैर में बुध,
कमर व जांघ में गुरु, गुह्य स्थान में शुक्र
तथा घुटनों में शनि को स्थापित करके, गोचर वश अथवा जन्म
कुण्डली के अनुसार इन इन अंगों का शुभाशुभ फल जानना चाहिए।
किस कार्य में किस ग्रह के बल का विचार करना
चाहिए - विवाह तथा उत्सव में गुरु का, राजदर्शन में सूर्य का, युद्ध में मंगल का, विद्याभ्यास में बुध का, यात्रा में शुक्र का, दीक्षा (मन्त्र ग्रहण) में शनि
का तथा समस्त कार्यों में चन्द्रमा का बल देखना चाहिए —
उद्वाहे चोत्सवे जीव: सूर्यो भूपालदर्शने
संग्रामे धरणी पुत्रो विद्याभ्यासे बुधो बली।
यात्रायां भार्गव: प्रोक्त: दीक्षायां च
शनैश्चर:।
चन्द्रमा सर्वकार्येषु प्रशस्तो गृह्यते
बुधै:।।
(बृहद्दैवज्ञरञ्जनम् ३२।४४,४५)
वशिष्ठ और गर्ग ऋषि ने भी इन्हीं कार्यों में
उक्त ग्रहों का बली होना स्वीकार किया है। प्रत्येक ग्रह कितने समय में एक राशि का
भोग पूर्ण करता है। इन सन्दर्भ में कर्णप्रकाशकार का मत अवलोकनीय है। शनि एक राशि
२१/२ (ढाई) वर्ष में,
राहु ११/२ (डे़ढ़) वर्ष में, मंगल ११/२ (डेढ़)
मास में, सूर्य, बुध एवं शुक्र १ (एक)
मास में तथा चन्द्रमा २१/४ (सवा दो) दिन में एक राशि का भोग करता है। यथा —
सौरी सुन्दरि साद्र्धमब्दयुगलं वर्षं समासं
गुरु
राहुर्मास दशाष्टकं तु कथितं मासं सपक्षं कुज:।
सूर्य: शुक्रबुधास्त्रयोऽपि कथिता मासैकतुल्या
ग्रहा
श्चन्द्र: पादयुतं दिनद्वयमिति प्रोत्तेâति राशिस्थिति:।। (वही ३२।६०)
ग्रहों की दृष्टि - प्रत्येक ग्रह अपने स्थान
से सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। पूर्ण दृष्टि के अतिरिक्त तीन अन्य
प्रकार की भी दृष्टि होती है। तीन चौथाई, दो चौथाई (आधी) तथा एक चौथाई दृष्टि। ग्रह
अपने स्थान से ४, ८ स्थानों पर तीन चौथाई दृष्टि, ५, ९ स्थान पर आधी दृष्टि तथा ३, १० स्थानों पर एक चौथाई दृष्टि से देखते हैं। शनि, गुरु
तथा मंगल की विरोध दृष्टियाँ हैं। शनि सप्तम के अतिरिक्त ३, १०
स्थानों पर पूर्ण दृष्टि डालता है। गुरु सप्तम के अतिरिक्त ५, ९ स्थानों पर पूर्ण दृष्टि तथा मंगल सप्तम के अतिरिक्त ४, १० स्थानों पर पूर्ण दृष्टि डालता है। यथा —
पश्यन्ति सप्तमं सर्वे शनि जीव कुजा पुन:।
विशेषत: त्रिदश त्रिकोण चतुरष्टमम् ।।
इन दृष्टियों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर
ग्रहों की दृष्टि बिल्कुल नहीं होती।
ग्रहों की विफलता - सूर्य के साथ चन्द्रमा, पांचवें भाव में गुरु, चतुर्थ भाव में बुध, सप्तम भाव में शनि, छठें शुक्र तथा दूसरे मंगल यदि स्वगृही, उच्चादि या
मूल त्रिकोण के न हों तो फल देने में असमर्थ अर्थात् विफल हो जाते हैं। यथा —
सभानुरिन्दु शशिजश्चतुर्थे गुरु: सुते भूमिसुत:
कुटुम्बे।
भृगु: सपत्ने रविज: कलत्रे विलग्नतस्ते विफला
भवन्ति।।
(जातक पारिजात २।७२)
जो ग्रह जिस भाव का कारक है यदि अकेला उस भाव
में हो तो भाव को बिगाड़ता है - कारको भावनाशाय।
दीप्तादि अवस्था — ग्रहों की दीप्तादि दश
अवस्थायें होती हैं। १. दीप्त, २. मुदित, ३. स्वस्थ, ४. शान्त, ५. शक्त,
६. प्रपीड़ित, ७. दीन, ८.
खल, ९. विकल तथा १०. भीत।
दीप्त: प्रमुदित: स्वस्थ: शान्त: शक्त:
प्रपीडित:।
दीन: खलस्तु विकलो भीतोऽवस्था दश क्रमात् ।।
(जातकपारिजात २।१६)
अपने उच्च अथवा मूल त्रिकोण में रहने वाला ग्रह
दीप्त कहलाता है। अपने गृह में स्थित स्वस्थ, मित्रगृह में मुदित, शुभग्रह
के वर्ग में स्थित ग्रह शान्त, स्पुâटरश्मि
जालों से अत्यन्त शुद्ध ग्रह शक्त, ग्रहों से पराजित
प्रपीड़ित, शत्रु की राशि में दीन, पापग्रह
की राशि में खल, अस्तग्रह विकल तथा नीच राशि में स्थित होने
पर भीत होता है।
ग्रहों का वास स्थान - सूर्य का देवालय, चन्द्रमा का जलाशय, मंगल का अग्नि स्थान (रसोई घर), बुध का क्रीड़ाभूमि,
गुरु का भण्डार स्थान, शुक्र का शयन स्थान,
शनि का ऊसर भूमि तथा राहु का गृह एवं केतु का कोण स्थान वास स्थल
कहे गये हैं।
सम्पूर्ण भारतवर्ष में ग्रहों का स्थान किस
प्रदेश में है इसका विभाग जातक पारिजात में इस प्रकार र्विणत है—
लज्र से कृष्णा नदी तक मंगल का प्रदेश, कृष्णानदी से गौतमी नदी
पर्यन्त शुक्र का, गौतमी से विन्ध्य पर्वत तक गुरु का,
विन्ध्य से गंगा नदी तक बुध का और गंगा से हिमालय पर्यन्त शनि का
प्रदेश है। सूर्य का स्थान देवभूमि मेरु पर्वत तथा चन्द्रमा का समुद्रतटीय प्रदेश
जानना चाहिए। यथा —
लंकादिकृष्णासरिदन्तमार: सितस्ततो गौतमिकान्त
भूमि:।
विन्ध्यान्तमार्य: सुरनिम्नगान्तं बुध: शनि:
स्यात्तुहिनाचलान्त:।।
(जातक पारिजात २।२५)
ग्रहों का गुण - सूर्य, गुरु एवं चन्द्रमा सत्त्वगुणी,
शुक्र एवं बुध रजोगुणी तथा मंगल, शनि एवं राहु
तमोगुणी ग्रह हैं।
ग्रहों का स्थान बल - अपने उच्च, मूल त्रिकोण, स्वगृह, मित्रगृह, द्रेष्काण,
नवांश, वर्गोत्तम तथा अष्टकवर्ग में अधिक
विन्दु युक्त ग्रह स्थान बली होते हैं।
ग्रहों का दिग्बल - लग्न में बुध और गुरु, चतुर्थ स्थान में शुक्र एवं
चन्द्र, सप्तम स्थान में शनि तथा दशम स्थान में मंगल एवं
सूर्य दिग्बली होते हैं।
ग्रहों का काल बल - चन्द्रमा, शनि और मंगल रात्रि में तथा
सूर्य, गुरु एवं शुक्र दिन में बली होते हैं। बुध दिन एवं
रात्रि दोनों में कालबली होता है। सभी ग्रह अपने काल होरा, अपने
वर्ष, मास एवं दिन में बली होते हैं। शुक्लपक्ष में शुभग्रह
तथा कृष्णपक्ष में पापग्रह शुभ होते हैं।
ग्रहों का चेष्टाबल - शुक्र, बुध, मंगल,
गुरु और शनि ये ग्रह यदि युद्ध में विजयी हों अथवा वक्री हों तथा
चन्द्रमा से युक्त हों तो उनके चेष्टाबल पूर्ण होते हैं। चन्द्रमा तथा सूर्य
उत्तरायण में अधिक चेष्टाबली होते हैं।
ग्रहों का नैर्सिगक बल - क्रमश: शनि, मंगल, बुध,
गुरु, शुक्र, चन्द्रमा
और सूर्य उत्तरोत्तर बली होते हैं। अर्थात् सूर्य का नैर्सिगक बल सभी ग्रहों की
अपेक्षा अधिक है। सूर्य से कम चन्द्रमा, चन्द्रमा से कम
शुक्र, उससे कम गुरु, उससे कम बुध तथा
उससे भी कम मंगल तथा सर्वाधिक कम नैर्सिगक बल वाला शनि ग्रह है।
किसी ग्रह से क्या विचार करना चाहिए —
सूर्य से - पिता, आत्मा, प्रताप,
आरोग्यता, आसक्ति और लक्ष्मी का विचार करें।
चन्द्रमा से - मन, बुद्धि, राजा
की प्रसन्नता, माता और धन का विचार करें।
मंगल से - पराक्रम, रोग, गुण,
भाई, भूमि, शत्रु और
जाति का विचार करें।
बुध से - विद्या, बन्धु, विवेक,
मामा, मित्र और वचन का विचार करें।
गुरु से - बुद्धि, शरीर पुष्टि, पुत्र और ज्ञान का विचार करें।
शुक्र से - स्त्री, वाहन, भूषण,
काम, व्यापार तथा सुख का विचार करें।
शनि से - आयु, जीवन, मृत्युकारण,
विपत्ति और सम्पत्ति का विचार करें।
राहु से - पितामह (पिता का पिता) तथा रोग का
विचार करें।
केतु से - मातामह (नाना) का तथा रोग का विचार
करें।
भाव कारक ग्रह — द्वादशभावों के कारक ग्रह इस प्रकार हैं।
सूर्य लग्न का, गुरु धन भाव का, मंगल
सहज का, चन्द्रमा सुख का, गुरु पुत्र
का, मंगल शत्रु का, शुक्र जाया का,
शनि मृत्यु का, गुरु धर्म का, शनि कर्म का तथा गुरु लाभ एवं बुध व्यय भाव का कारक है। कुछ आचार्य सूर्य
से नवम पिता का, चन्द्रमा से चतुर्थ माता का, मंगल से तृतीय भाई का, बुध से छठें मामा का, गुरु से पंचम पुत्र का, शुक्र से सप्तम पत्नी का तथा
शनि से अष्टम मृत्यु का विचार करते हैं।
ग्रहों का बलाधिक्य — दो ग्रहों का योग होने पर जैसे
सूर्य एवं शनि साथ होने पर शनि का बल बढ़ जाता है। शनि एवं मंगल साथ हों तो मंगल का
बल बढ़ जाता है। मंगल के साथ गुरु होने पर गुरु का बल बढ़ जाता है। गुरु एवं
चन्द्रमा का योग होने पर चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है। चन्द्र एवं शुक्र का योग होने
पर शुक्र का बल बढ़ जाता है। शुक्र एवं बुध का योग होने पर बुध का बल बढ़ जाता है।
इसी प्रकार बुध एवं चन्द्रमा की युति होने पर चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है। यथा —
अर्केण मन्द: शनिना महीसुत:, कुजेन जीवो गुरुणा निशाकर:।
सोमेन शुक्रोऽसुरमन्त्रिणा बुधो बुधेन चन्द्र:
खलु वर्धते सदा।।
सूर्य और मंगल राशि के आदि में, शनि और चन्द्रमा मध्य में,
गुरु और शुक्र अन्त में तथा बुध सम्पूर्ण राशि में फल देता है।
आचार्यों का मानना है कि अपने उच्चांश या नवांश में ग्रह जागृत होते हैं, मित्र या शुभ ग्रह के नवांश में स्वप्नावस्था में तथा नीच तथा शत्रु के
नवांश में ग्रह सुप्त कहलाते हैं।
इस प्रकार ग्रहों का स्वरूप, उनकी अवस्था, आयु, वर्ष, बलाबल आदि का
विधिवत अध्ययन कर फलादेश करने से प्राय: फल सत्य घटित होते हैं।
ग्रहबल
यदि अशुभ ग्रह के ऊपर शुभग्रह की दृष्टि हो तो
शुभ फल देता है। जिस ग्रह पर पापग्रह अथवा शत्रुग्रह की दृष्टि हो वह निष्फल है।
यदि ग्रह नीच, अस्त अथवा शत्रुक्षेत्री हो तो सम्पूर्ण फल व्यर्थ है। उच्च अथवा
स्वक्षेत्री ग्रह यदि ६-८-१२ स्थानों में भी स्थित हो तब भी दुष्ट फल नहीं देते
हैं, यदि उच्च अथवा स्वक्षेत्री न हो तथा पूर्वोक्त स्थानों
में बैठें हों तो दोषकारी हैं। यदि बृहस्पति उच्च, स्वक्षेत्री,
मित्रक्षेत्री अथवा वर्गोत्तम नवांश का होकर ४-८-१२ स्थानों में भी
हो तो शुभ है, परन्तु नीच अथवा शत्रुक्षेत्री शुभ स्थानों में
भी बैठा हो तो शुभ नहीं है।
वक्री अथवा उच्च का ग्रह बड़ा बलवान होता है।
यदि पापग्रह वक्री हो तो बहुत अशुभ फल देता है, शुभग्रह वक्री हो तो बहुत शुभ फल देता है।
स्वक्षेत्री, उच्च, मूलत्रिकोण के ग्रह
अनिष्ट फल नहीं देते हैं। जिस ग्रह पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि हो वह अनिष्ट फल
नहीं देता है। पुरुष ग्रह पुरुष राशि में बलवान होते हैं। स्त्री ग्रह स्त्री राशि
में बलवान होते हैं। जो ग्रह उच्च, मित्रक्षेत्री, स्वक्षेत्री, अपने नवांश का अथवा सौम्य ग्रह से
दृष्ट हो वह ग्रह बलवान है। क्षीण चन्द्रमा, सूर्य, मङ्गल, शनि तथा इनसे युक्त बुध भी पापग्रह है। जो
ग्रह उदित स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री, मित्रवर्गी अथवा मित्रदृष्ट हो वह ग्रह बलवान होता है।
जो ग्रह अपने मूलत्रिकोण, उच्च, मित्रनवांश
आदि में हों, वे बलवान होते हैं। शुक्र एवं चन्द्रमा
स्त्रीराशि में, शेष ग्रह पुरुष राशि में, सब ग्रह केन्द्र में, चन्द्रमा, शनि एवं मंगल रात में, बुध रात-दिन दोनों में,
शेष ग्रह दिन में, पापग्रह कृष्णपक्ष में,
शुभग्रह शुक्ल पक्ष में, बुध, सूर्य तथा शनि दिन के तीन भागों में, चन्द्रमा,
शुक्र एवं मंगल रात्रि के तीन भागों में, बृहस्पति
रात-दिन दोनों में, बुध-बृहस्पति लग्न में, शुक्र-चन्द्रमा सुखस्थान में, शनि सप्तम स्थान में,
सूर्य- मंगल दशम स्थान में, वर्ष, मास, दिन तथा होरा के स्वामी, सूर्य
एवं चन्द्रमा उत्तरायण में, शेष ग्रह अच्छी किरण वाले वक्री
चाल से रहित, युद्ध में जय पाये हुए बलवान होते हैं। इस
प्रकार नाना प्रकार के बल से युक्त ग्रह बलवान होते हैं। इससे विपरीत निर्बल होते
हैं।
सूर्य, बुध तथा शुक्र प्राय: एक मास पर्यन्त एक
राशि में रहते हैं। मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति १३ महीना,
शनि ३० महीना, राहु-केतु १८ महीना, चन्द्रमा सवा दो दिन एक राशि में रहते हैं। वक्री अथवा शीघ्री होने से
कभी-कभी बुध आदि ग्रहों में अन्तर पड़ जाता है। सूर्य कभी एक राशि को २९ दिन में
पार कर लेता है, कभी उसे ३२ दिन भी लग जाते हैं। चन्द्रमा
कभी दो दिन में एक राशि को पार कर लेता है, कभी उसे ढाई दिन
भी लग जाता है। मंगल जब स्तम्भन में होता है तो इसे २००, २५०
दिन तक एक राशि में लग जाते हैं। परन्तु उसके अनन्तर अतिचार होता है उसमें ३० या
३५ दिन में एक राशि का भोग कर लेता है।
ग्रहों की बालादि अवस्था —
ग्रहों की बालक आदि अवस्थाएं इस प्रकार होती
हैं - विषम राशि में ६ अंश ग्रह बालक रहता है, फिर ६ अंश तक कुमार, फिर
६ अंश तक तरुण, फिर ६ अंश तक वृद्ध और फिर ६ अंश तक मृत रहता
है। सम राशि में इसके विपरीत होता है, अर्थात पहिले ६ अंश तक
मृत, फिर ६ अंश तक वृद्ध, फिर ६ अंश तक
युवा, फिर ६ अंश तक कुमार, फिर ६ अंश
तक बालक रहता है।
बालक ग्रह थोड़ा सा फल देता है, कुमार ग्रह आधा फल देता है,
तरुण ग्रह सम्पूर्ण फल देता है, वृद्ध ग्रह
दुष्ट फल देता है तथा मृत ग्रह का फल मृत्यु है।
ग्रहों की जाग्रतादि अवस्था —
ग्रहों की जाग्रत आदि अवस्थाएं इस प्रकार होती
हैं - एक राशि ३० अंशों की होती है। उसके तीन भाग दस-दस अंशों के करने चाहिये।
विषम राशि में पहिले १० अंश तक जाग्रत अवस्था, फिर १० अंश तक स्वप्न अवस्था, फिर १० अंश तक सुषुप्ति अवस्था होती है। समराशि में इसके विपरीत जानना
चाहिये। अर्थात १० अंश तक सुषुप्ति, १० अंश तक स्वप्न तथा १०
अंश तक जाग्रत अवस्था क्रम से जाननी चाहिए। जाग्रत अवस्था कार्य साधन करने वाली
होती है तथा सुषुप्ति अवस्था निष्फल जाननी चाहिये।
ग्रहों की दीप्तावस्था —
जब ग्रह उच्च का होता है तो उसे दीप्त कहते हैं, इसमें उत्पन्न मनुष्य राजा
होता है। स्वगृही हो तो उसे स्वस्थ कहते हैं, इसमें उत्पन्न
मनुष्य को अभीष्ट की प्राप्ति तथा सुख मिलता है। मित्रक्षेत्री हो तो उसे हृष्ट
(प्रमुदित) कहते हैं, इसका फल प्रसन्नता है। यदि उदयी हो तो
उसे उदयभाव्â कहते हैं, उसका फल प्रिय
वस्तु की प्राप्ति है। यदि ग्रह अच्छे घर में हो तो उसे शान्त कहते हैं, उसका फल अत्यन्त शान्त स्वभाव है। यदि सूर्य के साथ अस्तंगत हो तो उसे
विकल कहते हैं, उसका फल यह है कि चित्त में चैन नहीं होता
है। नीच राशि में हो तो उसे दीन कहते हैं, उसमें मनुष्य
दु:खित होता है। पापग्रह सहित हो तो उसे खल कहते हैं, उसमें
मनुष्य सुखरहित होता है।
ग्रहों की दीप्त आदि अवस्थाएं और उनके फल - (१)
जब ग्रह अपने उच्च का होता है तो उसे दीप्त अवस्था वाला कहते हैं उसका फल यह है कि
उसमें कार्य की सिद्धि होती है। (२) जब ग्रह नीच का होता है तो उसे दीन कहते हैं
उसका फल दु:ख की प्राप्ति है। (३) जब ग्रह अपने मित्र के घर का हो तो उसे मुदित
कहते हैं और उसका फल यह है कि बड़ा आनन्द होता है। (४) जब ग्रह अपने घर का होता है
तो उसे स्वस्थ कहते हैं और उसका फल र्कीित तथा लक्ष्मीप्राप्ति है। (५) जब ग्रह
शत्रु के घर का हो तो उसे सुप्त कहते है और उसका फल यह है कि शत्रुभय तथा दु:ख
होते हैं। (६) जब किसी ग्रह को दूसरा ग्रह युद्ध में जीत लेवे तो उसे पीड़ित कहते
हैं और उसका फल धनहानि है। (७) जब ग्रह नीच होने को सन्मुख हो तो उसे हीन कहते हैं
और उसका फल धननाश है। (८) जब ग्रह अस्त हो जाय तो उसे मुषित कहते हैं और उसका फल
कार्यनाश है। (९) जब ग्रह उच्च होने को तत्पर हो तो उसे सुवीर्य कहते हैं और उसका
फल रत्न तथा सम्पत्ति प्राप्ति है। (१०) जब ग्रह अच्छी कान्ति वाला तथा शुभवर्ग
में हो तो उसे अधिवीर्य कहते हैं और उसका फल राज्यप्राप्ति है।
ग्रहों की लज्जितावस्था —
ग्रह इतने प्रकार के होते हैं - (१) लज्जित, (२) र्गिवत, (३) क्षुधित, (४) तृषित, (५)
मुदित तथा (६) क्षोभित। जब पञ्चम स्थान में राहु, केतु से
युक्त ग्रह हो अथवा सूर्य, शनि, मंगल
से युक्त ग्रह तो तो लज्जित कहलाता है। जब ग्रह उच्चस्थान का अथवा मूलत्रिकोण का
हो तो र्गिवत कहलाता है। जब ग्रह शत्रु के घर का हो अथवा शत्रु से युक्त अथवा
दृष्ट हो अथवा शनि के साथ बैठा हो या शनि से दृष्ट हो तो क्षुधित कहलाता है। जब
ग्रह जलराशि में स्थित हो तथा शत्रु से दृष्ट हो और शुभ ग्रह उसको न देखें तो
तृषित कहलाता है। जब ग्रह मित्र के घर में हो अथवा मित्र से युक्त या दृष्ट हो अथवा
बृहस्पतिसहित हो तो मुदित कहलाता है। जो ग्रह सूर्य के साथ हो, पापग्रह अथवा शत्रुग्रह से दृष्ट हो वह क्षोभित कहलाता है।
लज्जितादि अवस्थाओं का फल —
जिन-जिन भावों में क्षुधित अथवा क्षोभित ग्रह
हों वे मनुष्य को दु:ख देने वाले होते हैं। इसी प्रकार सब भावों में चल तथा अचल का
विचार करके फल का निर्णय करना चाहिए। जिस भाव में र्गिवत अथवा मुदित ग्रह हो उस
भाव की पुष्टि होती है तथा जिसमें क्षोभित अथवा क्षुधित ग्रह हों उसका नाश होता
है। यदि कर्म स्थान में क्षोभित, क्षुधित, तृषित तथा लज्जित ग्रह हों
तो दारिद्र्य अवश्य होता है। पुत्रस्थान में लज्जित ग्रह हो तो पुत्रनाश करता है।
सप्तम स्थान में क्षोभित तथा क्षुधित ग्रह हो तो स्त्री नहीं जीती है।
लज्जित ग्रह की दशा में स्त्री की मृत्यु होती
है, बुद्धि का नाश होता है,
पुत्र को रोग होता है, वृथा गमन होता है,
कलह में प्रीति होती है तथा शुभकार्य में रुचि नहीं होती है। जिस
मनुष्य के कर्मस्थान में लज्जित, तृषित, क्षुधित अथवा क्षोभित ग्रह हों वह मनुष्य सदा दु:खी रहता है। जिस मनुष्य
के पञ्चम स्थान में लज्जित ग्रह हो उसका पुत्रनाश होता है। जिस मनुष्य के सप्तम
स्थान में क्षोभित अथवा तृषित ग्रह हों उसकी स्त्री मर जाती है।
र्गिवत ग्रह के फल ये है - नया घर, बगीचा, सुख,
राज्य, कलाओं में चतुरता, धर्म, लाभ तथा व्यवहार की वृद्धि। मुदित ग्रह होने
से बड़ा भारी घर रहने को मिलता है, निर्मल वस्तु तथा आभूषण
मिलते हैं, भूमि तथा स्त्री से सुख मिलता है, अपने इष्ट मित्रों से प्रीति होती है, राजा से
मैत्री होती है, शत्रुओं का नाश होता है और बुद्धि तथा
विद्या का प्रकाश होता है। क्षोभित ग्रह होने से दारिद्र्य, दुर्बुद्धि,
कष्ट, धननाश, पैर की
बीमारी तथा राजा के कोप से धन का नाश होता है। क्षुधित ग्रह होने से शोक, मोह, ताप, आपसी आदमी से दु:ख,
भीति, कृशता, शत्रुओं से
झगड़ा, धन न होने का दु:ख, बल की हानि
तथा बुद्धिनाश होता है। तृषित ग्रह होने से व्यभिचार, दुष्ट
कार्य का अधिकार, निजजन अथवा अपने परिवार के द्वारा
द्रव्यनाश, शरीर में कृशता, खलजन के
द्वारा चित्त में सन्ताप तथा मानहानि होती है।
ग्रहों की स्नानादि अवस्था -
ग्रहों की स्नान आदि २७ अवस्थाएँ होती हैं, उनके नाम तथा फल नीचे लिखें
हैं। उन अवस्थाओं को जानने की रीति यह है कि जन्म कुण्डली में लग्न की राशि संख्या
में उस राशि की संख्या को जोड़ो जिसमें ग्रह बैठा है और जिस ग्रह की अवस्था को
निकालना है, उस योग को दूना करो, ग्रह
की दशा वर्षों से गुणन करो, २७ का भाग दो, जो शेष रहे वही अवस्था जानो। जैसे तुला लग्न है, मेष
में शुक्र बैठा है, शुक्र की अवस्था निकालनी है तो ७ ±
१ = ८, र्८ े २ =
१६, १र्६ े २० = ३६०,
३६० ¸ २७, शेष २३ इसलिये
मिष्टपान अवस्था हुई। (ग्रहों के दशावर्ष ये है - सू. ६। च. १०। मं. ७। बु. १७।
वृ. १६। शु. २०। श. १९। रा. १८ के. ७)।
(१) स्नान अवस्था में कार्य में
सफलता होती है, भृत्य बहुत होते हैं, सन्तति,
सम्पत्ति तथा आदर का लाभ होता है। (२) वस्त्रधारण अवस्था में वस्त्र,
रत्न, प्रभाव, स्थान तथा
सम्पत्ति का लाभ होता है। (३) आमोद अवस्था में परदेश लाभ होता है, यश तथा आदर मिलता है। (४) पूजारम्भ में भूमिलाभ, सम्मान
तथा सवारी मिलती है। (५) प्रार्थना में राजकष्ट, लाञ्छन,
हानि तथा कृषि से प्रेम होता है। (६) पूजन में आदर, सम्पत्ति तथा निष्ठुरों के साथ प्रीति होती है। (७) यज्ञारम्भ में
पित्तरोग, कष्ट तथा विद्यालाभ होता है। (८) प्रभु के ध्यान
में धन, शत्रुनाश तथा भूमि से लाभ होता है। (९) उपवेश में
वाहन, कपट तथा मधुर वाणी प्राप्त होती हैं। (१०) प्रदक्षिणा
में लान्छन, कलेजे की बीमारी तथा अतिसार रोग होते हैं। (११)
भावना में सफलता, परिवार का सुख तथा नीति होती है। (१२)
अतिथिसत्कार में अभिमान, अभिचार तथा गुप्त धन की प्राप्ति
होती है।
(१३) भोजन में ज्ञातिच्युति,
कपट, रोग तथा अधर्म होते हैं। (१४) जलसेवन में
कुत्सित आचरण होता है तथा कुत्सित भोजन मिलता है। (१५) क्रोध में लोकनिन्दा तथा
आत्माभिमान होता है। (१६) ताम्बूलचर्वण में गाढ़ विद्या, ऐश्वर्य,
र्कीित तथा अच्छा पद मिलता है। (१७) सभावसति में यथाक्रम कार्य,
धर्म में प्रीति, आदर तथा निर्दोषता की
प्राप्ति होती है। (१८) मुकुटधारण में विद्या, युद्ध में
पराक्रम, जय तथा धन मिलता है। (१९) मन्त्र में आलस्य तथा
असावधानता होती है। (२१) शयन में घर में व्रूâरता, शिथिलता तथा रोग होते हैं। (२२) मद्यपान में प्रमाद, नाश की इच्छा, मित्रद्रोह तथा तिरस्कार होते हैं।
(२३) मिष्टपान में अच्छी सन्तति, रूपवती तथा प्रिय स्त्री,
स्वस्थ शरीर, अच्छा भोजन तथा मित्रसम्मान
प्राप्त होते हैं। (२४) धनागमन में नम्रता तथा व्यापार से लाभ होता है। (२५)
मुकुटत्याग में आपसी लोगों से अनादर, दु:ख तथा धन का नाश
होता है। (२६) सुषुप्ति में दीर्घ रोग, मद्यपान तथा राजभय
होता है। (२७) या ० (शून्य) रति में कुलटा स्त्रियों में प्रीति, उद्वेग, पापविचार, अविश्वास,
दुर्मति तथा वैर साधन होते हैं।
युद्ध में पराजित ग्रह -
यदि बृहस्पति, शुक्र, बुध अथवा शनि,
मंगल के साथ जन्मकुण्डली में एक स्थान पर बैठे हों तो वे ग्रहयुद्ध
में पराजित कहलाते हैं।
ग्रहसमागम —
संयोग दो प्रकार का होता है — दृष्टि अथवा योग। पापग्रह की
दृष्टि फलदायक है। शुभग्रहों का संयोग शुभफलदायक है। राहु तथा केतु को छोड़ कर शेष
ग्रह यदि सूर्य के साथ हों तो अच्छा समागम कहलाता है और वे बलवान हो जाते हैं।
निम्नलिखित समागम उत्तम कहलाते हैं १- मंगल को छोड़ कर किसी और ग्रह के साथ
बृहस्पति, २- सूर्य, चन्द्रमा अथवा बुध
के साथ शुक्र, ३- चन्द्रमा के साथ सूर्य, ४- सूर्य अथवा चन्द्रमा के साथ बुध। शेष समागम प्राय: शुभ नहीं होते हैं।
यदि कोई ग्रह उच्च अथवा स्वक्षेत्री आदि हो तो अशुभ समागम का फल कुछ अच्छा हो जाता
है। मान लीजिए तुला में सूर्य, शनि बैठे हैं तो एक उच्च का
एक नीच का ग्रह है, अत: शुभ-अशुभ फल मिश्रित होगा।
अस्तलक्षण—
जब ग्रह सूर्य के साथ हो तो उसका अस्त हो जाता
है, अर्थात वह नहीं दिखलाई देता
है। जब ग्रह सूर्य से पृथक राशि में हो तो उदित हो जाता है। सूर्य के साथ एक राशि
में १२ अंश भीतर ग्रह अस्त हो जाता है। १२ अंश से आगे बढ़ने पर उसका उदय हो जाता
है। यदि कोई ग्रह सूर्य से ५ अंश के भीतर हो तो वह पूरा अस्त है, यदि वह, १० अंश के भीतर हो तो उतना अशुभ फल नहीं
होता है, यदि १५ अंशों से अधिक दूरी पर हो तो अधिक हानिकारक
नहीं है।
वक्री आदि ग्रहज्ञान -
राहु तथा केतु सदा वक्री होते हैं अर्थात उलटी
चाल चलते हैं, सूर्य तथा चन्द्रमा शीघ्र चलने वाले हैं। ग्रह जब सूर्य से पृथक हो जाते
हैं तो उनका उदय हो जाता है, सूर्य से दूसरे स्थान में
ग्रहों की चाल शीघ्र हो जाती है, तीसरे घर में सम रहते हैं,
चौथे स्थान में उनकी गति मन्द हो जाती है, पांचवें
तथा छठे स्थानों में वक्री हो जाते हैं, सातवें तथा आठवें घर
में अतिवक्री हो जाते हैं, नवें तथा दसवें स्थानों में
मार्गी हो जाते हैं, ग्यारहवें तथा बारहवें स्थानों में शीघ्र
हो जाते हैं। इस प्रकार ग्रह सौम्य, अतिसौम्य, उग्र, अतिपाप, शीघ्र और
स्वाभाविक कहलाते हैं।
उदयास्तज्ञान —
(१) जो ग्रह सूर्य से अल्पगति हो
तथा सूर्य से अंशों में भी कम हो उसका पूर्व में उदय होता है। (२) जो ग्रह सूर्य
से अधिक हो तथा सूर्य से अंशों में भी अधिक हो, उसका पश्चिम
में उदय होता है। (३) जो ग्रह सूर्य से अंशों में अधिक हो परन्तु सूर्य से लघुगति
हो, उसका पश्चिम में अस्त होता है। (४) जो ग्रह सूर्य से
अधिक गति हो परन्तु सूर्य से अंशों में कम हो, उसका पूर्व
में अस्त होता है।
वक्रादिज्ञान —
पूर्व में अस्त होने के पश्चात पश्चिम में बुध
का उदय होता है, फिर वह वक्री होता है, फिर अस्त होता है, फिर पूर्व में उदय होता है, फिर पूर्व में अस्त होने
के पहिले मार्गी हो जाता है। उसके दिन इस प्रकार से हैं - ३२, ३२, ४, १६, ४, ३२।
शुक्र के दिन इस प्रकार है - ७५, २४०, २३,
९, २३, २४०। मंगल अस्त
होने के उपरान्त उदयी होता है, फिर वक्री होता है, फिर मार्गी होता है,
तब अस्त होता है। इसी क्रम से मास इस प्रकार हैं - ४, १०, २, १०। बृहस्पति के मास इस
प्रकार हैं - १, ४, ४, ३। शनि के मास इस प्रकार हैं - १, ३, ४, ३।
वक्र ग्रहफल —
व्रूâर ग्रह जब वक्री होते हैं तो उनका फल बड़ा
व्रूâर होता है, परन्तु सौम्य ग्रह
वक्री हों तो अतिशुभ फल देने वाले होते हैं।
ग्रहों का दोष परिहार —
राहु के दोष को बुध मार देता है, राहु और बुध दोनों के दोषों को
शनि मार देता है, राहु, बुध और शनि इन
तीनों के दोषों को मङ्गल दबा देता है, चारों के दोषों को
शुक्र हर लेता है, पांचों के दोषों को बृहस्पति दूर कर देता
है, छ: ग्रहों के दोषों को चन्द्रमा नाश कर देता है, पूर्वोक्त सातों ग्रहों के दोषों को सूर्य नष्ट कर देता है, विशेषत: उत्तरायण में।
ग्रहों की दृष्टि —
ग्रह ३, १० स्थानों को एकपाद दृष्टि से, ५।९ स्थानों को द्विपाद दृष्टि से, ४।८ स्थानों को
त्रिपाद दृष्टि से और सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। दशम तथा तृतीय
स्थानों में एकपाद दृष्टि होती है, नवम तथा पंचम स्थानों में
द्विपाद दृष्टि होती है, चतुर्थ तथा अष्टम स्थानों में
त्रिपाद दृष्टि होती है एवं एकत्र अर्थात् समराशि में तथा सप्तम स्थान में पूर्ण
दृष्टि होती है। शनि ३, १० स्थानों को, बृहस्पति त्रिकोण को, मंगल चतुरस्र को और सूर्य तथा
चन्द्रमा सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। शनि तीसरे और दसवें स्थान को,
मंगल ४,८ स्थानों को, बृहस्पति
५, ९ स्थानों को तथा सब ग्रह सप्तम स्थान को पूर्णदृष्टि से,
चरणवृद्धि से देखते हैं।
होरारत्न नामक ग्रन्थ में लिखा है कि ‘मंगल आदि ग्रहों की सप्तम स्थान
में पूर्ण दृष्टि नहीं होती है’ ऐसा जो लोग कहते हैं उनकी
भूल है। इस पर विचार करना चाहिए। अन्यथा मुनिलोगों के वचनों के साथ विरोध पड़ेगा।
सप्तम स्थान में सभी ग्रहों की पूर्ण दृष्टि होती है। विशेष यह है कि बृहस्पति की
५।९ स्थानों में, मंगल की ४।८ स्थानों में और शनि की ३।१०
स्थानों में भी पूर्ण दृष्टि होती है। १, २, ६, ११, १२ स्थानों में ग्रहों
की दृष्टि जातक में नहीं होती है। सूर्य, बुध, चन्द्रमा तथा शुक्र त्रिदश, त्रिकोण, चतुरष्टम तथा सप्तम स्थान को चरण वृद्धि से देखते हैं। बृहस्पति चतुरष्टम,
सप्तम, त्रिदश तथा त्रिकोण को चरण वृद्धि से
देखता है। शनि त्रिकोण, चतुरष्टम, सप्तम
तथा त्रिदश को चरण वृद्धि से देखता है। मंगल सप्तम, त्रिदश,
त्रिकोण तथा चतुरस्र को चरण वृद्धि से देखता है।
राहु एवं केतु की दृष्टि —
राहु-केतु की दृष्टि— पंचम तथा सप्तम स्थानों में
राहु की पूर्ण दृष्टि होती है। तीसरे और छठे स्थान में एकचरण दृष्टि होती है।
द्वितीय और दशम स्थान में आधी दृष्टि होती है। अपने घर में त्रिपाद दृष्टि होती
है। ऐसी ही केतु की दृष्टि जाननी चाहिये। कोई आचार्य कहते हैं कि ५, ७, ९, १२ स्थानों में राहु की
पूर्ण दृष्टि होती है, २।१० स्थानों में त्रिपाद दृष्टि होती
है। ३।६।४।८ स्थानों में अर्धदृष्टि होती है। जिस स्थान में स्थित हो उसमें तथा
११वें स्थान में राहु की दृष्टि नहीं होती है। किन्हीं आचार्यो का मत है कि ५।९।१२
स्थानों में राहु की दृष्टि होती है। केतु दृष्टिहीन अर्थात अन्धा है। किन्हीं के
मत से राहु के समान केतु की भी दृष्टि है। कोई आचार्य कहते हैं कि केतु जिस स्थान
में स्थित हो उसी स्थान को देखता है।