राजगीर और बोध गया के बीच में हुलासगंज नामक एक छोटे से कस्बे में मेरी शिक्षा
दीक्षा चल रही थी। मुझे खूब याद है,हुलासगंज से इस्लामपुर होते बस राजगीर जाती थी। मैं
इस्लामपुर यदा कदा जाया करता था। मेरा मित्र स्कूल के छत से पूर्व की ओर दिखकर
कहता था,
वह जो पहाडी दिख रही है, वह राजगीर की है।
हुलासगंज से राजगीर की दूरी मात्र 35 कि. मी. थी। मैं स्कूल में नालन्दा और राजगीर
के बारे में पढा करता था। पंचमहला, लोदीपुर, खीजर सराय, सादीपुर, रामपुर, अलीपुर, मानपुर होते गया के रास्ते फल्गु नदी के किनारे-किनारे
बोधगया पहुँचने का मार्ग था। हुलासगंज से
गया की दूरी मात्र 40 कि. मी. और वहाँ से बोधगया की दूरी मात्र 10 कि. मी. थी। यह
बोधगया बौद्ध तीर्थो में सबसे प्रमुख है । यहीं एक बोधिवृक्ष के नीचे तपस्या के
बाद राजकुमार सिद्धार्थ को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। यहां एक महाबोधि मंदिर
है। पिरामिड आकार वाले 170 फुट ऊंचे इस मंदिर के
गर्भगृह में भगवान बुद्ध की पवित्र प्रतिमा है और बाहरी दीवारों पर अनेक
कलाकृतियां एवं मूर्तियां आदि बने हैं। यहां से कुछ ही दूर बोधिवृक्ष है जहां
सिद्धार्थ को बोध हुआ था। चक्रमण स्थल, रत्नगृह, रजत वृक्ष आदि यहां के अन्य दर्शनीय स्थल हैं। बौद्ध
तीर्थस्थलों की चर्चा हम अन्यत्र विस्तार से करेंगें।
शास्त्री की परीक्षा का
केन्द्र गया था। वहाँ से मैं बोधगया गया था। अपने प्रिय बुद्ध को जानने और समझने।
पालि भाषा और बुद्ध को लेकर अक्सर मेरा मित्रों से शास्त्रार्थ होता रहता था। मेरा मित्र कहता था,
पालि भाषा उस समुद्र के जल के समान है,जो विशाल होते हुए भी एकरस है।
बोधगया जाकर मुझे ज्ञात हुआ संघ में क्या शक्ति होती है?
यह वही संघ है जिसने बौद्ध धर्म को श्रीलंका,कम्बोडिया,लाओत्स,वर्मा,जापान,चीन तक लेकर गया। कला और साहित्य ने बुद्ध वचन के विस्तार
में अहम भूमिका निभाई । आज हम जिन विशालकाय विविध देशों के बौद्ध मठों (विहार) एवं
मन्दिरों को देख रहे हैं,
इसका नींव
मथुरा और गान्धार में पडा।
बुद्ध के प्रतीकों की खोज
बौद्ध मत की स्थापना और बुद्ध की मानवाकार प्रतिमा का
निर्माण के बीच लगभग छः सौ वर्षों का अन्तराल है। इस काल-खण्ड में
बौद्धों के मुख्य आराधना-केन्द्र बुद्ध तो रहे, पर निर्वाण-प्राप्त निराकार तथागत को पुनः साकार रूप में
गढ़ने की विचार शुरु हुए , क्योंकि केवल शून्य में निराकार बुद्ध
की कल्पना करके उनकी उपासना करना साधारण भावुक ह्दय के लिए कठिन था। फलतः बुद्ध के
प्रतीकों की खोज होनें लगी। एक और कारण था। अबतक व्रजक्षेत्र में भागवत-सम्प्रदाय की जड़े जम चुकी थीं। भक्ति-सिद्धान्त का प्रसार हो रहा था। महाक्षत्रप षोडाश के समय में कृष्ण, बलरामादि पंचवीरों की प्रतिमाएं तथा उनके मन्दिर अस्तित्व में आ चुके थे। विदिशा के विष्णु-मन्दिर में यूनानियों-जैसे विदेशी लोग भी भक्ति का राग अलापने लगे थे। यही नहीं, जैनमत में भी शनैःशनैः तीर्थकरों की प्रतिमाएं कला-जगत् के क्षितिज पर उदित होने जा रही थी। ऐसी स्थिति में बौद्वों के एक वर्ग को अपने आराध्य की प्रत्यक्ष प्रतिमा का अभाव चुभ रहा था। बुद्ध का प्रतिनिधित्व करने वाले इन प्रतीकों का उनसे
निकटतम होना आवश्यक था। बुद्ध के पांच भौतिक शरीर के अवशेष अथवा उन
अवशेषों को समाहित करने वाली वस्तु से निकटतम और क्या प्रतीक हो सकता था ?
इस दृष्टि से बुद्ध का सर्वोत्तम प्रतीक ‘स्तूप’ को चुना गया । बुद्ध की मृत्यु से स्तूप का संबंध होता है। बोधिवृक्ष, गन्धकुटि, वज्रासन, भिक्षापात्र आदि बौद्ध-प्रतीकों को महत्वपूर्ण घटनाओं का स्मरण दिलाने वाली तथा सुखकर प्रतीक के रूप में चुना गया। प्रतीक-निर्धारण होते ही बुद्ध-कथाओं का चित्रांकन भी सरल हो गया। भरहुत और
साँची के स्तूपों पर अंकित बुद्ध-कथाओं में आश्यकतानुसार बुद्ध के स्थान पर उनके
किसी न किसी प्रतीक को ही अंकित किया गया है। प्रतीकांकन की यह पद्धति प्रत्यक्ष
बुद्ध-मूर्ति के सामने आने तक सर्वत्र हो गई थी।
अबतक प्रत्यक्ष प्रतिमा के निर्माण की बात सर्वमान्य नहीं थी। सुधारवादी बौद्धों अर्थात् महासांघिकों को कुषाण-काल में राजा द्वारा पृष्ठपोषण होने लगा । इस वंश के शासक कनिष्क ने अपने सिक्कों पर अन्य प्रभावशाली देवताओं
के समान ही बुद्ध की प्रतिमा को भी स्थान देने का निर्णय किया। कुषाण-साम्राज्य के उत्तर दक्षिण दोनों भागों के अर्थात् गान्धार और मथुरा के
कलाकार महासांघिक बौद्धों से प्रेरणा लेकर आगे बढ़े और कनिष्क के शासनकाल में
गन्धार और मथुरा-कला में भगवान् बुद्ध की प्रतिमा चमकने लगीं। कनिष्क के
राज्यभिषेक के तीसरे वर्ष ‘बोधिसत्व’ नाम से अभयमुद्रा में खड़े बुद्ध की प्रतिमा
प्रतिष्ठिापित कराई थी। प्रारम्भिक बुद्ध-मूर्तियों को बोधिसत्व के नाम से पुकारकर
सुधारवादी बौद्धों ने एक साथ दो उद्देश्य पूरे किये। एक तो प्राचीन मत के अनुसार
निर्वाण-प्राप्त बुद्ध को पुनः साकार रूप न देकर भक्तों की आंखो के सामने पूजनादि
के लिए बुद्ध की संबोधि-प्राप्ति के पूर्व रूप अर्थात् बोधिसत्व को खड़ा कर दिया।
इस प्रकार प्राचीन मत का आंशिक समर्थन भी हो गया और उपासना के लिए प्रतिमा भी मिल
गई।
बुद्ध-प्रतिमाओं में मुद्राएं-
अलंकार, मुद्रा तथा पारमिता समानार्थी है। ये मुद्रा या प्रतीक षट्वांग पवित्र
सूत्र के रूप में स्थित हैं। इनमें जब एक अनुपस्थित रहता है तब पंच मुद्रा तथा दो
की अनुपस्थिति में चर्तुमुद्रा कहा जाता है। सरस्वती कंठाभरण एवं कुवलयानन्द में
मुद्रा शब्द का प्रयोग अलंकार के अर्थ में किया गया है, पर तांत्रिक मान्यताओं के
अनुसार मुद्रा शब्द का मुख्य अर्थ अंगुलि रचना विशेष से है। क्योकि अंगुलियों में
चैतन्य होता है।
1. ध्यानमुद्रा पैरों
की पलथी,
दोनों हाथ नाभी के पास, हथेलियां एक
दूसरे पर रखी होती हैं।
2. धर्मचक्र-प्रवत्र्तन-मुद्रा पलथी, दोनों हाथ विशिष्ट प्रकार से छाती के पास मिले
हुए। यहां हाथों की अंगुलियों की
स्थिति ध्यान देने योग्य है।
3. भूमिस्पर्शमुद्रा पलथी,
बायां हाथ पलथी पर, दाहिने हाथ की हथेली
खुली हुई,
अंगुलियों से भूमिस्पर्श।
4 वरदाभय खड़े
या बैठी स्थिति में दाहिने हाथ अभयमुद्रा में तथा बायें
हाथ का वरदमुद्रा में रहना। ये दोनों मुद्रायें एक
ही साथ दिखालाई
पड़ती हों, ऐसी बात नहीं। दाहिना हाथ अभय मुद्रा
में
तथा बायें में वस्त्रन्त या भिक्षापात्र भी दिखलाते हैं।
5. महापरिनिर्वाण-मुद्रा दो
शालवृक्षों के बीच में लगी शय्या पर दाहिना हाथ
सिरहाने लेकर उसी करवट लेटे हुए
बुद्ध। इसी मुद्रा में उन्होंने
महानिर्वाण
प्राप्त किया था।
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