सायण माधव (14 वीं शती ई.) रचित ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ के प्रारम्भ में ही चार्वाक दर्शन वर्णित है । उन्होंने
सम्पूर्ण चार्वाक दर्शन को क्रमबद्ध कर प्रस्तुत किया है-
http://www.sanskrit.nic.in/DigitalBook/S/Sarvadarsana.pdf
अथ कथं परमेश्वरस्य निःश्रेयसप्रदत्वभिधीयते । बृहस्पतिमतानुसारिणा
नास्तिकशिरोमणिना चार्वाकेण तस्य दूरोत्सारितत्वात् । दुरुच्छेदं हि चार्वाकस्य
चेष्टितम्। प्रायेण सर्वप्राणिनस्तावत्-
यावज्जीवं
सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
इति लोकगाथामनुरुन्धाना नीतिकामशास्त्रानुसारेणार्थकामावेव पुरुषार्थी
मन्यमानाः पारलौकिकमर्थपह्नुवानाश्चार्वाकमतमनुवर्तमाना एवानुभूयन्ते । अत एवास्य
चार्वाकमतस्य लोकायतमित्यन्वर्थमपरं नामधेयम् ।
यह केसे कहा जा सकता है कि परमेश्वर मोक्षप्रदाता है?
बृहस्पति-मतानुयायी नास्तिकशिरोमणि चार्वाक ने तो (परमेश्वर
की सत्ता को) दूर ही फेंक दिया है। चार्वाक का सिद्धान्त तो सर्वथा अकाट्य है ।
प्रायः सभी प्राणी-
‘जब तब जीना है, सुखमय जीवन व्यतीत करना चाहिये,
क्योंकि मृत्यु किसी को छोड़ेगी नहीं। मृत्यु के उपरान्त
शरीर के भस्मीभूत हो जाने पर पुनः संसार में कहाँ आना होता है।’
इस लोकोक्ति पर विðाास करते तथा नीति और कामशास्त्रों
के अनुसार अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ मानते हुए पारलौकिक
सुख को तिरस्कृत कर चार्वाकमत के ही (व्यवहारतः) अनुयायी ज्ञात होते हैं
। अतएव चार्वाकमत का दूसरा नाम लोकायत (= जगद् में
व्याप्त) है और वह यथार्थ ही है।
तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि। तेभ्य एव देहाकारपरिणतेभ्यः
किण्वादिभ्यो मदशक्तिवच्चैतन्यमुपजायते । तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति ।
तदाहुः-विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य
संज्ञाऽस्ति (बृ. उ. 2।4।12) इति। तच्चैतन्यविशिष्ट देह एवात्मा। देहातिरिक्त आत्मनि
प्रमाणाभावात्। प्रत्यक्षैकप्रमाणवादितयानुमानादेरनङ्गीकारेण प्रामाण्याभावात् ।
अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः। न चास्य दुःखसम्भिन्नतया
पुरुषार्थत्वमेव नास्तीति मन्तव्यम्। अवर्जनीयतया प्राप्तस्य दुःखस्य परिहारेण
सुखमात्रस्यैव भोक्तव्यत्वात्। तद्यथा मत्स्यार्थी
सशल्कान्सकण्टकान्मत्स्यानुपादत्ते स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते। यथा वा धान्यार्थी
सपलालानि धान्यान्याहरति स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते। तस्माद् दुःखभयान्नानुकूलवेदनीयं
सुखं त्यक्तुमुचितम्। न हि मृगाः सन्तीति शालयो नोप्यन्ते्र। न हि भिक्षुकाः
सन्तीति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते। यदि कश्चिद् भीरुदृष्टं सुखं त्यजेत्तर्हि स
पशुवन् मूर्खो भवेत्। तदुक्तम्-
उनके मत से पृथिवी आदि चार महाभूत ही तत्त्व हैं। देहरूप में परिणत हो जाने पर
इन्हीं (तत्त्वों) से चैतन्य उस प्रकार उत्पन्न हो जाता है,
जिस प्रकार मादक द्रव्यों से मादक शक्ति। इनके विनष्ट हो
जाने पर (चैतन्य) स्वयं विनष्ट हो जाता है
। यही वचन बृहदारण्यक में है-विज्ञान के रूप में ही इन तत्त्वों से निकल कर
(आत्मा) इन्हीं में विलीन हो जाता है, मरने पर कोई ज्ञान नहीं रहता।’
अतः चैतन्ययुक्त देह ही आत्मा है,
क्योंकि देह के अतिरिक्त अन्य आत्मा के अस्तित्व में कोई
प्रमाण नहीं । चार्वाक लोग केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं,
अनुमान आदि प्रमाणों की अमान्यता के कारण उनकी प्रमाणिकता
नहीं है । स्त्री आदि का आलिङ्गनादिजनित
सुख ही पुरुषार्थ है । ऐसा नहीं समझना चाहिये कि दुःख से सम्मिश्रित होने के कारण
(सुख) पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि सुख के साथ अनिवार्य रूप से सम्मिश्रित दुःख को
हटाकर केवल सुख का ही उपभोग करना चाहिये। जैसे मछलियों का इच्छुक व्यक्ति छिलकों
और काँटों के साथ ही मछलियों को पकड़ता है, उसे जितनी आवश्यकता होती है उतना (अंश) लेकर अलग हो जाता है,
और जिस प्रकार धान्यार्थी पुआल के साथ धान्यों को (खेत) में
से ले आता है, उसे जितनी आवश्यकता होती है उतना (अंश) लेकर अलग हो जाता है। अतएव दुःख के भय
से (इच्छा के) अनुकूल लगने वाले सुख को त्यागना उचित नहीं है। ऐसा तो (व्यवहार
में) नहीं देखा जाता कि मृग हैं, इस भय से धान नहीं रोपे जाते तथा भिक्षु हैं,
इस भय से पात्र (चूल्हे पर) नहीं चढ़ाये जाते। यदि कोई भीरु
दृष्ट सुख का त्याग कर देता है तो वह पशु के समान मूर्ख है । कामसूत्र में कहा भी
है-
त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां
दुःखोपसृष्टमिति
मूर्खविचारणैषा।
व्रीहीञ्जिहासति सितोत्तमतण्डुलाढ्यान्
को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी।। (2।48)
यह मूर्खों की धारणा है कि मनुष्यों को सुख का त्याग कर देना चाहिए,
क्योंकि उसकी उत्पत्ति विषयसङ्गम से होती है और वह दुःखों
से युक्त है। भला, आत्महितैषी कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो श्वेत और सवोंत्कृट
चावलों को भूसी के कणों से मिले होने के कारण त्यागना चाहेगा?
ननु पारलौकिकसुखाभावे बहुवित्तव्ययशरीरायाससाध्येऽग्निहोत्रादौ विद्यावृद्धाः
कथं प्रवर्तिष्यन्त इति चेत्तदपि न प्रमाणकोटिं प्रवेष्टुमीष्टे।
अनृतव्याघातपुनरुक्तदोषैर्दूषिततया वैदिकम्मन्यैरेव धूर्ववकेः परस्परं
कर्मकाण्डप्रामाण्यवादिभिज्र्ञानकाण्डस्य ज्ञानकाण्डप्रामाण्यवादिभिः कर्मकाण्डस्य
च प्रतिक्षिप्तवेन त्रय्या
धूर्तप्रलापमात्रत्वेनाग्निहोत्रादेर्जीविकामात्रप्रयोजनत्वात् । तथा चाभाणकः-
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।।
यदि (कोई पूछे कि)-पारलौकिक सुख (का अस्तित्व) नहीं हैं,
तो विद्वान् लोग अग्निहोत्रादि (यज्ञों) में क्यों प्रवृत्त
होते हैं,
जब कि उनमें अपार धन का व्यय और शारीरिक श्रम भी लगता है?-यह (तर्क) भी प्रामाणिक नहीं हो सकता,
क्योंकि अग्निहोत्रादि का प्रयोजन जीविका के लिये है,
तीनों (वेद) धूर्तों के प्रलापमात्र हैं,
क्योंकि अपने को वेदज्ञ समझने वाले धूर्तों ने परस्पर
में ही (वेद को) अनृत,
व्याघात और पुनरुक्त आदि दोषों से दूषित किया है। उदाहरण के
लिये यथा-कर्मकाण्ड के प्रामाण्य को मानने वालों ने ज्ञानकाण्ड को और ज्ञानकाण्ड
के प्रामाण्य को मानने वाले ने कर्मकाण्ड को दोषयुक्त बतलाया है। लोकोक्ति भी है-
बृहस्पति का कथन है कि-अग्निहोत्र, त्रिवेद, त्रिदण्ड धारण और भस्मलेप-ये सभी वस्तुयें बुद्धि और
पुरुषार्थ से हीन लोगों की जीविका है।
अत एव कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरकः। लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः । देहोच्छेदो
मोक्षः। देहात्मवादे च स्थूलोऽहं, कृशोऽहं, कृष्णोऽहमित्यादि सामानाधिकरण्योपपत्तिः। मम शरीरमिति
व्यवहारो राहोः शिर इत्यादि- वदौपचारिकः। तदेतत्सर्वं समग्राहि-
अत एव काँटे इत्यादि से उत्पन्न दुःख ही नरक है, संसार में सम्मानित राजा ही परमेश्वर है । देह का नाश ही
मोक्ष है । देह को ही आत्मा मानने पर ‘मैं मोटा हूँ, दुबला हूँ, काला हूँ,’ इत्यादि वाक्यों से दोनों का सामानाधिकरण्य होना भी सिद्ध
हो जाता है । ‘मेरा शरीर’ यह प्रयोग ‘राहु का शिर’ के समान आलङ्कारिक है । इनका संग्रह इस प्रकार हुआ है-
अङ्गनालिङ्गनाज्जन्यसुखमेव पुमर्थता ।
कण्टकादिव्यथाजन्यं दुःखं निरय
उच्यते ।।1।।
लोकसिद्धो
भवेद्राजा परेशो नापरः स्मृतः।
देहस्य नाशो मुक्तिस्तु न
ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ।।2।।
अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः ।
चतुभ्र्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते।। 3।।
किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत्।
अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः।। 4।।
देहः
स्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः।
मम
देहोऽयमित्युक्तिः सम्भवेदौपचारिकी।। 5।।
स्त्रियों के आलिङ्गन से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थ है । कण्टक से उत्पन्न दुःख
ही नरक है। संसार में सम्मानित राजा ही परमेश्वर है, कोई अन्य नहीं। देह का नाश ही मुक्ति है,
ज्ञान से मुक्ति नहीं होती । यहाँ भूमि,
जल, अग्नि और वायु-ये ही चार तत्त्व हैं
और इन्हीं (तत्त्वों) से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है,
जिस प्रकार मादक द्रव्यां के मिलने से मादकता (स्वयं) आ
जाती है। ‘मैं स्थूल हूँ, दुर्बल हूँ’-इस प्रकार समानाधिकार होने के कारण तथा ‘स्थूलता’, ‘दुर्बलता’ आदि से सम्भोग होने के कारण देह ही आत्मा है,
कोई अन्य नहीं। ‘मेरा शरीर’ यह उक्ति तो केवल आलङ्कारिक है।
स्यादेतत् । स्यादेष मनोरथो यद्यनुमानादेः प्रामाण्यं न स्यात्। अस्ति च
प्रामाण्यम्। कथमन्यथा धूमोपलम्भानन्तरं धूमध्वजे
प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपद्येत । नद्यास्तीरे फलानि सन्तीति वचनश्रवणसमनन्तरं
फलार्थिनां नदीतीरे प्रवृत्तिरिति । तदेतन्मनोराज्यविजृम्भणम्।
व्याप्तिपक्षधर्मताशालि हि लिङ्गं गमकमभ्युपतमनुमानप्रामाण्यवादिभिः।
व्याप्तिश्चोभयविद्दोपाद्दिविधुरः सम्बन्धः। स च सत्तया चक्षुरादिवन्ना भावं भजते
। किं तु ज्ञाततया। कः खलु ज्ञानोपायो भवेत्। न तावत्प्रत्यक्षम्। तच्च बाह्यमान्तरं
वाऽभिमतम्। न प्रथमः। तस्य सम्प्रयुक्तविषयज्ञानजनकत्वेन भवति प्रसरसम्भवेऽपि
भूतभविष्यतोस्तदसम्भवेन सर्वोपसंहारवत्या व्याप्तेर्दुज्र्ञानत्वात्। न च
व्याप्तिज्ञानं सामान्यगोचरमिति मन्तव्यम् । व्यक्त्योरविनाभावाभावप्रसङ्गात् ।
नापि चरमः अन्तःकरणस्य बहिरिन्यतन्त्रत्वेन बाह्येऽथ स्वातन्त्र्येण
प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। तदुक्तम्-
अस्तु, यही सही । आपका यह मनोरथ तो तब पूर्ण होता, जब अनुमान आदि प्रमाण नहीं होते। यदि वे प्रमाण नहीं हैं
तो धूम देखकर बुद्धिमान् लोगों की अग्नि के प्रति केसे
प्रवृत्ति होती है? नदी के किनारे फल के होने की बात सुनकर ही फलार्थी नदी की
ओर केसे चल पड़ते हैं? उत्तर है कि यह केवल मनोराज्य की कल्पना मात्र है । अनुमान
को प्रमाणवादी सम्बन्ध बतलाने वाले लिङ्ग उसे मानते हैं,
जो व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त रहता है । व्याप्ति का
अर्थ है दोनों प्रकार की उपाधि (सन्दिग्ध और निश्चिय) से रहित सम्बन्ध। व्याप्ति
अपनी सत्ता से ही चक्षु आदि के समान (अनुमान का) अङ्ग नहीं बन सकता,
किन्तु (इसके) ज्ञान से ही (अनुमान सम्भव है)। व्याप्ति के
ज्ञान का कौन-सा उपाय है? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता। क्याकि यह या तो बाह्य
प्रत्यक्ष होगा या आन्तर प्रत्यक्ष। प्रथम (बाह्य प्रत्यक्ष) से (व्याप्तिज्ञान)
सम्भव नहीं क्योंकि वह स्वसम्बद्ध (बाह्य) विषयों का ही ज्ञान उत्पन्न कर सकता है,
अतएव वर्तमान काल के विषय में समर्थ होता हुआ भी वह भूत और
भविष्यत् के विषय में असम्भव हो जायेगा जिससे सभी वस्तुओं का निष्कर्ष निकालने
वाली व्याप्ति नहीं जानी जा सकती । यह कथन भी ठीक नहीं कि सामान्य प्रमार्थ को
देखकर व्याप्ति का ज्ञान होता है, क्योंकि तब दो व्यक्तियों के बीच अविनाभाव (व्याप्ति) का
सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता । आन्तर प्रत्यक्ष से भी (व्याप्ति) का
सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। आन्तर प्रत्यक्ष से भी (व्याप्ति ज्ञान)
नहीं हो सकता। अन्तःकरण बाह्य इन्द्रियों के अधीन है,
इसलिये बाह्य विषयों में स्वतन्त्रता से उसकी प्रवृत्ति
नहीं हो सकती। कहा भी है-
चक्षुराद्युक्तविषयं परतन्त्रं बहिर्मनः। (त.वि. 20)
इति । नाप्यनुमानं व्याप्तिज्ञानोपायः। तत्र
तत्राप्येवमित्यनवस्थादौःस्थ्यप्रसङ्गात्। नापि शब्दस्तदुपायः ।
काणादमतानुसारेणानुमान एवान्तर्भावात्। अनन्तर्भावे वा
वृद्धव्यवहाररूपलिङ्गावगतिसापेक्षतया प्रागुक्तदूषणलंघनाजंघालत्वात्। धूम धूमध्वजयोरविनाभावोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्विश्वासाभावाच्च।
अनुपदिष्टाविनाभावस्य पुरुषस्यार्थान्तरदर्शनेनार्थान्तरानुमित्यभावे
स्वार्थानुमान- कथायाः कथाशेषत्वप्रसङ्गाच्च केव कथा परार्थानुमानस्य । उपमानादिकं
तु दूरापास्तम्। तेषां
संज्ञासंज्ञिसम्बन्धादिबोधकत्वेनानौपाधिकसम्बन्धबोधकत्वा- सम्भवात्।
मन बाह्य इन्द्रियों के अधीन है, क्योंकि चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियों से ही उसे विषयों का
ज्ञान होता है। अनुमान भी व्याप्तिज्ञान का साधन नहीं बन सकता क्योंकि उसमें भी
दूसरी व्याप्ति का ज्ञान अपेक्षित है । इस प्रकार अनवस्था अर्थात् कभी समाप्त न
होने वाला दोष होगा। शब्द भी व्याप्तिज्ञान का उपाय नहीं,
क्योंकि कणाद के मत से वह अनुमान के ही अन्तर्गत है। और यदि
अन्तर्गत न हो तो भी उसमें वृद्ध पुरुष के व्यवहार रूप लिङ्ग¯
का ज्ञान तो चाहिए ही, अतएव फिर वही पूर्वकथित दोष (अनवस्था) आ जायेगा,
जिसका उल्लंघन कठिन कार्य है। यदि यह कहें कि धूम और अग्नि
में अविनाभाव सम्बन्द्द पूर्वकाल से है तो
इस बात पर वैसे ही विश्वस नहीं होगा जैसे मनु आदि ऋषियों के वचन पर। अविनाभाव
सम्बन्ध को न जानने वाला पुरुष एक विषय देखकर अन्य विषय का अनुमान नहीं कर सकता,
अतएव स्वार्थानुमान का प्रसङ्ग¯
केवल नाममात्र रह जाता है-परार्थानुमान की तो बात ही क्या?
उपमानादि तो (व्याप्तिज्ञान के विषय में) दूर से ही खिसक
गये,
क्योंकि वे संज्ञा और संज्ञी का सम्बन्ध इत्यादि बतलाते हैं।
अतएव उपाद्दि-रहित सम्बन्ध नहीं बतला सकते।
किञ्चउपाध्यभावोऽपि दुरवगमः। उपाधीनां प्रत्यक्षत्वनियमासम्भवेन
प्रत्यक्षाणामभावस्य प्रत्यक्षत्वेऽप्यप्रत्यक्षाणामभावस्याप्रत्यक्षतयानुमानाद्य-
पेक्षायामुक्तदूषणानतिवृत्तेः। अपि च सा नाव्यापकत्वे सति साड्ढयसमव्याप्तिरिति
तल्लक्षणं कक्षीकर्तव्यम् । तदुक्तम्-
उपाधि का अभाव (व्याप्ति है, उसे) भी जानना कठिन है । उपाधियों के प्रत्यक्ष होने का
नियम रखना असम्भव है । अतः प्रत्यक्ष वस्तुओं का अभाव दिखलाई पड़ने पर भी
अप्रत्यक्ष वस्तुओं का अभाव दिखलाई नहीं पड़ता और वह (अभाव) अनुमानादि पर निर्भर भी
है इसलिए पूर्वकथित दोष (अनवस्था) का विनाश नहीं होता। उपाधि का यही लक्षण मानना
चाहिये कि जो हेतु में व्याप्त न हो परन्तु साड्ढय के साथ जिसकी समान व्याप्ति हो।
कहा भी है-
अव्याप्तसा नो यः साध्यसमव्याप्तिरुच्यते स उपाधिः ।
शब्देऽनित्ये साध्ये सकर्तृकत्वं घटत्वमश्रवतां च।।
व्यावर्तयितुमुपात्तान्यत्र क्रमतो विशेषणानि त्रीणि।
तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचार्यैश्च।।
जो साधन को व्याप्त न करे, किन्तु साड्ढय के समान व्याप्तिमान् हो वही उपाधि है। जब शब्द को अनित्य सिद्ध किया जाता है,
तब इसे हटाने के लिये क्रमशः ये तीन विशेषण लगाये जाते हैं-कर्ता का होना, घट का होना और श्रवण योग्य न होना। अतएव यह लक्षण निर्दोष
है तथा आचार्यों ने समासमा के द्वारा इसे कहा भी है।
तत्र विड्ढयड्ढयवसायपूर्वकत्वान्निषेधाध्यवसायस्योपाधिज्ञाने जाते तद्भाव-
विशिष्टसम्बन्द्दरूपव्याप्तिज्ञानं व्याप्तिज्ञानाधीनं चोपाधिज्ञानमिति
परस्पराश्रय- वज्रप्रहारदोषो वज्रलेपायते । तस्मादविनाभावस्य दुर्बोधतया
नानुमानाद्यवकाशः । द्दूमादिज्ञानानन्तरमग्न्यादिज्ञाने प्रवृत्तिः
प्रत्यक्षमूलतया भ्रान्त्या वा युज्यते। क्वचित्फलप्रतिलम्भस्तु
मणिमन्त्रौषधादिवद्यादृच्छिकः। अतस्तत्साध्य- मदृष्टादिकमपि नास्ति। नन्वदृष्टानिष्टौ
जगद्वैचित्र्यमाकस्मिकं स्यादिति चेत्-न तद् भद्रम्। स्वभावादेव तदुपपत्तेः।
तदुक्तम्-
जब विधि का निश्चय होने पर निषेध का निश्चय होता है और उसके पश्चात्
उपाधि का ज्ञान होता है, तब व्याप्ति का ज्ञान भी (उपाधि ज्ञान के) अभाव से होने
वाले सम्बन्ध के द्वारा ही होता है। व्याप्ति का ज्ञान भी व्याप्तिज्ञान के अधीन
है। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष, जो वज्रप्रहार की तरह है, वज्रलेप सा दृढ़ हो जाता है। इसलिए अविनाभाव का ज्ञान न होने
के कारण अनुमानादि का यहाँ प्रवेश नहीं हो सकता । धूमादि के ज्ञान के पश्चात् जो
अग्नि आदि का ज्ञान होता है, उसके मूल में या तो प्रत्यक्ष है या भ्रान्ति। कभी-कभी जो
फल मिल जाता है, वह मणिस्पर्श, मन्त्र-प्रयोग, औषधि आदि के समान
आकस्मिक है। इसलिए अनुमानादि से सिद्ध होने वाला अदृष्ट आदि भी नहीं है। यदि कोई शङ्का करे कि अदृष्ट नहीं मानने पर संसार की
विचित्रता आकस्मिक हो जायगी तो यह बात नहीं, क्योंकि वह स्वभाव से ही वैसी है। कहा भी है-
अग्निरुष्णो
जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिलः।
केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तह्र्यवस्थितिः।।
अग्नि उष्ण जल शीतल तथा वायु समान स्पर्शवान् है-यह किसने रचा?
सब कुछ स्वभाव से ही व्यवस्थित है।
तदेतत्सर्वं बृहस्पतिनाप्युक्तम्-
न स्वर्गो नापवर्गो
वा
नैवात्मा पारलौकिकः।
नैव
वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।। 1।।
अग्निहोत्रं
त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मितां।।2।।
पशुश्चेन्निहतः
स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।
स्वपिता
यजमानेन तत्र कस्मान्न
हिंस्यते।। 3।।
यह सब बृहस्पति ने भी कहा है-
न कहीं स्वर्ग है और न कोई मोक्ष, न कोई विशिष्ट आत्मा है और न परलोक, न कोई वर्णाश्रम धर्म है और न कर्मकाण्ड या जप-योगादि
फलप्राप्ति के लिये ही है। प्रातः और सायङ्काल में हवन,
तीनों वेदों का आचार-पालन दण्डयुक्त संन्यास धारण और ललाट
में भस्म धारण-ये कर्म बुद्धि और पुरुषार्थ से हीन व्यक्तियों के जीविका-यापन के
लिए विधाता द्वारा बनाये गये हैं । यदि श्रौतनियम से ज्योतिष्टोम यज्ञ में हिंसित पशु भी
स्वर्ग चला जा सकता है तो यज्ञकर्ता यजमान स्वयं अपने पिता की हिंसा क्यों नहीं कर
देता,
क्योंकि ऐसा करने से अनायास ही पिता को स्वर्ग प्राप्त हो
जायेगा।
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं
चेत् तृप्तिकारणम्।
निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम्।। 4।।
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्।
गेहस्थेकृतश्राद्धेन पथि तृप्तिरवारिता।।5।।
स्वर्गस्थिता
यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।। 6।।
ऐहलौकिक श्राद्ध से यदि मृत प्राणियों की तृप्ति-पुष्टि होती (यद्यपि ऐसा नहीं होता) तो बुझे हुए प्रदीप की
प्रकाशशिखा को तेल बढ़ाता रहता, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । घर पर रहने वाले आत्मीय जनों
के द्वारा किए गए श्राद्ध से स्वर्गपथिक को यदि स्वर्गपथ में तृप्ति-पुष्टि होती तो घर से यात्रा करने वाले व्यक्तियों को पथ के लिए भोजन देना व्यर्थ हो
जाता। घर पर ही उनके नाम से किसी बुभुक्षु को भोजन करा दिया जाता और उसी से उन
यात्रियों को मार्ग में तृप्ति हो जाती । यदि इस लोक में दान करने से स्वर्गस्थित
प्राणियों को तृप्ति हो सकती तो अट्टालिका के उपरी भाग पर रहने वाले व्यक्तियों को
निम्न भाग में दिये गये भोजनादि से तृप्ति-पुष्टि होती, किन्तु लोक में ऐसा देखा नहीं जाता।
यावज्जीवेत्सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य
देहस्य पुनरागमनं कुतः।। 7।।
यदि
गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।
कस्माद् भूयो न
चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।। 8।।
ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।
मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।। 9।।
यथार्थ में देह के अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा नहीं है तथा देह का नाश भी
अवश्यम्भावी है तो तपश्चार्या आदि से देह को कष्ट देना भी निरर्थक ही है। पुण्य-पाप कर्मों के लिए सचमुच कोई फलविधान नहीं,
अतएव स्वेच्छाचारिता- पूर्वक सुखमय जीवन-यापन ही श्रेयस्कर
है। ऋण लेकर उत्तमोत्तम भोजन नहीं करना भी मूर्खता है। यदि ऋण नहीं भी चुकाया जाए
तो भी किसी प्रकार की हानि नहीं, क्योंकि मृत्यु के उपरान्त दग्ध होने वाला देह पुनः आने वाला नहीं,
तो फिर किये गए सुकर्म-कुकर्म का सुख-दुःखात्मक फलभोक्ता
कोई नहीं रह जाता है। आत्मा यदि देह से निकल कर (आस्तिकों के मत से) परलोक में चला
वेदविरोधी या नास्तिक जितने भी मत हैं वे सब के सब चार्वाक दर्शन की सीमा में परिगणित किये जाते हैं।
किन्तु भारतीय परम्परा ने बौद्ध जैन सांख्य आदि को अलग नाम देकर चार्वाक से भिन्न
माना है । इसका कारण यह है कि ये दर्शन परलोक का स्वीकार करते हैं
तथा किसी न किसी रूप में आत्मा को पञ्चमहाभूतों से भिन्न
मानते हैं। इस प्रकार विशुद्ध चार्वाक दर्शन के रूप में केवल देहात्मवाद
इन्द्रियात्मवाद प्राणात्मवाद मनश्चैतन्यवाद विज्ञानवाद स्वभाववाद सन्देहवाद
उच्छेदवाद और निरीश्वरवाद को देखा जाता है । उसमें भी विशेषता यह है कि उक्त सभी
वाद अपने-अपने विचारों की पुष्टि एवं प्रमाणिकता के लिये वेदों और उपनिषदों के वाक्यों को उद्धृत करते हैं
।
देहात्मवादी चार्वाक शरीर को ही आत्मा मानते हैं
। उनका विचार है कि भूतों से निर्मित यह शरीर ही आत्मा है ।
‘स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः’ (तै.उ. 2।1) वाक्य से देह के पुरुषत्व अर्थात् आत्मत्व की सिद्धि होती
है ।
इन्द्रियात्मवादी इन्द्रियों को आत्मा मानते हैं
। उनका तर्क है कि इन्द्रियों के क्षीण होने पर उनके द्वारा
सम्पाद्य ज्ञान का अभाव हो जाता है । चक्षु आदि के उपहत होने पर चाक्षुष आदि ज्ञान
का अभाव उनकी आत्मता में प्रमाण है ।
कुछ लोग प्राण को आत्मा मानते हैं । अन्योऽन्यतर आत्मा प्राणमयः (तै.उ. 2।2) ‘प्राणो हि भूतानामायुः’ इत्यादि वाक्य इसमें प्रमाण हैं
। मन को आत्मा मानने वाले चार्वाक ‘अन्योऽन्यतर आत्मा मनोमयः’ (तै.उ. 2।3) को मनश्चैतन्यवाद में प्रमाण मानते हैं
।
‘अन्योऽन्यतर आत्मा विज्ञानमयः’
वचन के आधार पर कुछ चार्वाक विज्ञान को आत्मा मानने की बात
करते हैं । चैतन्य या आत्मा विशिष्ट एवं निश्चित मात्रा में मिले हुए भूतों का स्वभाव है अन्य कुछ नहीं । विशिष्ट मात्रा के उच्छिन्न होने पर आत्मा का उच्छेद हो जाता है यह उच्छेदवादी
चार्वाकों का मन्तव्य है । इसी धराधाम पर
सन्देहवादी चार्वाक भी हैं जो नासदीय सूक्त के मन्त्र को प्रमाण रूप में उद्धृत करते हैं-
‘किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ।’
तथा-
कोऽद्धा वेद कुत आजता इयं विसृष्टिः ।
योऽस्याड्ढयक्षःपरमेव्योमन् सोऽङ्ग वेद यदि वा न वेद।।
(ऋ.वे. 10।129।6-7)
इसके अतिरिक्त वे कठोपनिषत् के वाक्य-
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके
।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहम्.................।
(क.उ. 1।1।20)
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुज्ञेयमणुरेष धर्मः ।
(क.उ. 1।1।21)
के आधार पर आत्मा के विषय में सन्देह करते हैं
कि यह मरने के बाद रहता है या नहीं। निरीðारवादी कहते हैं कि राजा को छोड़कर ईश्वर नाम की कोई अतिरिक्त वस्तु नहीं है
। इस प्रकार चार्वाकमत के अनेक आयाम शास्त्रों में दृष्ट होते हैं
।
चार्वाकदर्शन के मूल स्रोत-
(1) ऐतिहासिक ग्रन्थों में रामायण का नाम सबसे पहले आता है। उसमें ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग मिलता है-
‘क्वचिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे।’
यह राम के द्वारा भरत से पूछा गया प्रश्न है। रामायण के अनन्तर महाभारत इस
ग्रन्थ का प्राचीन उत्स है। दुर्योधन का मित्र छद्म वेषधारी चार्वाक दुर्योधन की मृत्यु के पश्चात् युधिष्ठिर की सभा में जाकर
ब्राह्मणों के समक्ष नास्तिक मत का प्रतिपादन करता हुआ निम्नलिखित श्लोक पढ़ता है-
निःशब्दे च
स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः ।
राजानं ब्राह्मणच्छद्मा चार्वाको राक्षसोऽब्रवीत् ।।
तत्र दुर्योधनसखा
भिक्षुरूपेण संवृतः ।
साक्षः शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः।।
वृतः सर्वैस्तथा
विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः।
परंसहस्रै राजेन्द्र तपोनियमसंस्थितैः ।।
स दुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम्।
अनामन्त्र्यैव
तान् विप्रांस्तमुवाच महीपतिम्।।
इमे
प्राहुद्र्विजाः सर्वे समारोप्य
वचो मयि।
धिग् भवन्तं कुनृपतिं
ज्ञातिघातिनमस्तु वै।।
किं तेन स्याद्धि कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसङ्क्षयम्।
घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो
न जीवितम्।
ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे
हुङ्कारैः क्रोधमूर्च्छिताः ।
निर्भर्त्सयन्तः
शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम्।
पुरा कृतयुगे राजंश्चार्वाको नाम राक्षसः।
ततस्तेपे महाबाहो बदर्यां
बहुवार्षिकम्।।
वरेणच्छन्द्यमानश्च ब्रह्मणा च
पुनः पुनः।
अभयं
सर्वभूतेभ्यो वरयामास भारत।।
द्विजावमानादन्यत्र प्रादाद्वरमनुत्तमम्।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददौ
तस्मै जगत्पतिः।।
(म.भा.शा.प. 38।22-27, 35, 39।3-5)
https://sanskritdocuments.org/mirrors/mahabharata/unic/mbh12_sa.html
(2) कामसूत्र के प्रणेता आचार्य वात्स्यायन के निम्नलिखित
सूत्रों में चार्वाक दर्शन के बीज मिलते है-
1. न धर्मांश्चरेत्। धर्माचरण कदापि नहीं
करना चाहिये
2. एष्यत्फलत्वात्। क्योंकि धर्माचरण का फल भविष्य में होता है।
3. सांशयिकत्वाच्च। इसमें संशय है कि भविष्य में भी फल मिले।
4. को ह्यबालिशो हस्तगतं परहस्तगतं कुर्यात्। कौन बुद्धिमान् पुरुष अपना हस्तगत
धन दूसरे को देगा?
5. वरमद्य कपोतः श्वोमयूरात्। कल मोर की प्राप्ति होगी इस आशा में न रहकर आज
कबूतर ले लेने में ही बुद्धिमानी है
6. वरं सांशयिकान्निष्कादसांशयिकः कार्षापण इति लौकायतिकाः। आज सद्यः मिलने वाली
चाँदी की मुद्रा त्यागकर कल स्वर्ण मुद्रा मिलेगी । इस आशा में रहना मूर्खता है।
भविष्य पर भरोसा क्या?
लौकायतिकों का मत है कि जिसकी प्राप्ति में सन्देह है,
ऐसी अशर्फी की अपेक्षा सन्देहरहित चाँदी का रूपया ले लेना
ही श्रेयस्कर है।
(3) चार्वाक दर्शन का प्रशस्त स्वरूप बृहस्पति सूत्रों में
मिलता है।
यहाँ से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
https://openlibrary.org/books/OL13997225M/Brihaspati_sutra_or_The_science_of_politics_according_to_the_school_of_Brihaspati
अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः ।। 1।।
इसके पश्चात् अब हम प्रकृत तत्त्व की व्याख्या की ओर प्रवृत्त होते हैं।
पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तत्त्वानि
।
तत्समुदाये
शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा।। 2।।
पृथिवी, जल तेजस् अर्थात् अग्नि और वायु-ये चार ही तत्त्व हैं
। इन चार जड़तत्वों अर्थात् पृथिवी,
जल, अग्नि और वायु का यथोचित मात्रा में संयोग होने पर इनकी
शरीर,
इन्द्रिय और विषय संज्ञा होती है ।
तेभ्यश्चैतन्यम् ।। 3।।
उन पृथिव्यादि चार भूततत्त्वों के संघात से अपने आप चैतन्य की उत्पत्ति हो
जाती है। चैतन्योत्पत्ति में किसी अतीन्द्रिय कर्ता की अपेक्षा नहीं होती।
किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत्।। 4।।
जिस प्रकार मादकता के उत्पादक अन्न या वनस्पत्यादि के रसादि के योग से निर्मित
मदिरा में मादकता स्वयं आ जाती है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के आनुपातिक मात्रा में
संघात होते ही चैतन्य भी स्वयं उत्पन्न हो जाता है।
काम एवैकः पुरुषार्थः ।। 5।।
आस्तिकवादी सम्प्रदाय में धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं,
परन्तु नास्तिकवादी सम्प्रदाय में एकमात्र काम अर्थात्
विषयासक्ति ही पुरुषार्थ है।
अनुमानमप्रमाणम् ।। 6।।
इस सम्प्रदाय में अनुमान आदि प्रमाणों की मान्यता नहीं है।
चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः ।। 7 ।।
चेतनाशक्ति से सम्पन्न यह चातुभौतिक स्थूलदेह ही आत्मा है। इन्द्रियातीत किसी
आत्मा आदि का अस्तित्व नहीं है।
मरणमेवापवर्गः ।। 8 ।।
मृत्यु अर्थात् इस जड़तत्त्वविनिर्मित देह का नाश ही मोक्ष है,
क्योंकि निर्विकल्परूप समाधि अर्थात् उच्चतम मोक्ष की
उपलब्धि होने पर सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। अतः निर्बीज समाधि एवं मुक्ति में
कोई अन्तर नहीं लगता । पृथिवी गन्धवती है, परन्तु उसे स्वयं गन्ध की, जल को रस की, अग्नि को उष्णता की, वायु को स्पर्श की और आकाश को शून्यता की अनुभूति कहाँ
सम्भव है । इसी प्रकार जब आत्मा सम्पूर्ण रूप से परमात्मा में एकाकारता को प्राप्त
कर लेता है तब उसको आत्मतत्त्वानुभूति कहाँ रह जाती है । इसी प्रकार मरण हो जाने
पर जीवात्मा नामक कोई तत्त्व अवशिष्ट नहीं रहता, उच्छेद हो जाता है। तब किस बात की अनुभूति किसको होगी?
न धर्मांश्चरेत्।। 9।।
धर्मों का आचरण निष्फल है,
क्योंकि प्रत्यक्ष में धर्माचरण के सद्यः फलों की प्राप्ति कभी भी
दृष्टिगोचर नहीं होती । अतः धर्माचरण नहीं
करना चाहिये ।
एष्यत्फलत्वात् ।। 10।।
इस सूत्र का सम्बन्ध पूर्व सूत्र से है । अतः धर्माचरण के निषेध के पुष्टीकरण में नास्तिक सम्प्रदाय का यह प्रतिपादन
है कि विहित ज्योतिष्टोमादि यज्ञों के स्वर्गसुखादि फल इस लोक में उपलब्ध नहीं
होते । अनुमितिगम्य अप्रत्यक्ष भविष्यत् के ऊपर फलप्राप्ति की निर्भरता है । इस
कारण से धर्माचरण निष्प्रयोजन सिद्ध होता है।
सांशयिकत्वाच्च ।। 11।।
और सम्पादित यज्ञादि कर्मों के अलौकिक होने के कारण स्वर्गादिसुख रूप फल संशय
से रहित नहीं है । इस कारण से भी धर्माचरण निष्प्रयोजन सिद्ध होता है ।
कोह्यबालिशो हस्तगतं परगतं कुर्यात् ।। 12।।
कौन प्रेक्षावान् पुरुष अपने हस्तगत मूल्यवान् पदार्थों या द्रव्यों को अन्य
पुरुष को देना चाहेगा? किसी नीतिकार ने ऐसा ही कहा है । अर्थात् जो व्यक्ति
निश्चित वस्तुओं को त्यागकर अनिश्चित की प्रतीक्षा करता है उसे निश्चित वस्तुओं से
तो वञ्चित हो ही जाना है और अनिश्चित वस्तुओं की प्राप्ति भी असम्भावित ही रहती
है-
(यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि
निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य
नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव
हि।।)
वरमद्य कपोतः श्वो मयूरात् ।। 13।।
कल अर्थात् सन्दिग्ध भविष्यत्काल में
सुन्दर मयूर की प्राप्ति की प्रतीक्षा में रहने की अपेक्षा आज अर्थात् असन्दिग्ध वर्तमान काल में उपलब्ध अल्प सुन्दर कपोत का ग्रहण कर लेना अधिक श्रेयस्कर है ।
वरं सांशयिकान्निष्कादसांशयिकः कार्षापणः ।।14।।
संशययुक्त स्वर्णमुद्रा की अपेक्षा संशयरहित रजतमुद्रा अधिक श्रेष्ठ है,
अर्थात् सुवर्ण मिलने में कुछ सन्देह है परन्तु रजत मुद्रा
तुरन्त मिल रही है तो इस अवस्था में बहुमूल्य किन्तु सन्दिग्ध सोने की अपेक्षा
अल्पमूल्य किन्तु असन्दिग्ध रजत को ले लेने में अधिक चतुराई है।
शरीरेन्द्रियसंघात एव चेतनः क्षेत्रज्ञः ।। 15।।
चातुर्भौतिक देह तथा चक्षुरादि इन्द्रियों के समुदाय ही चेतन आत्मा है वही
क्षेत्रज्ञ भी है।
काम एव प्राणिनां कारणम् ।। 16।।
एकमात्र कामक्रीड़ा के अतिरिक्त अन्य कोई भी ब्रह्मा या परमेश्वर आदि प्राणियों
की उत्पत्ति का कारण नहीं है।
परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः ।।17।।
ऐसा कोई भी प्रत्यक्षवादी व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं,
जो स्वयं अपनी पारलौकिक या स्वर्गीय अनुभूति का संवाद
सुनावे। अतएव परलोकी व्यक्ति के अभाव के कारण परलोक का भी अभाव स्वयं सिद्ध हो
जाता है अर्थात् परलोक नामक किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है।
इहलोकपरलोकशरीरयोर्भिन्नत्वात्।।
तद्गतयोरपि चित्तयोन३कः सन्तानः।। 18।।
ऐहलौकिक और पारलौकिक-दोनों शरीरों में विभिन्नता होने तथा तद्गत दो चित्तों
में भी सादृश्याभाव के कारण और पारस्परिक सम्बन्धाभाव से आत्मा का अस्तित्व
अप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है।
एतावानेव पुरुषो यावदिन्द्रियगोचरः ।।19।।
चक्षुरादि इन्द्रियों से जितना दृष्टिगोचर है उतना ही आत्मा है अर्थात् इस जड़ शरीर
के अतिरिक्त अन्य किसी विशिष्ट या इन्द्रियातीत आत्मा का अस्तित्व नहीं है।
प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् ।। 20।।
नास्तिक मत में केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण की ही मान्यता है,
प्रत्यक्षेतर अनुमानादि प्रमाण सर्वथा अमान्य हैं।
प्रमाणस्यागौणत्वात् तदर्थनिश्चयो दुर्लभः ।।21।।
यदि अनुमान प्रमाण का अनिवार्य रूप से स्वीकार कर लिया जाय तो त्रिकालव्यापी
विश्व के समस्त पदार्थों के अर्थ का निश्चय करना दुर्लभ हो जायेगा । अतः अनुमान
प्रमाण की सिद्धि नहीं हो सकती और अनुमान के असिद्ध हो जाने से शब्दोपमानादि समस्त
प्रमाण स्वयं असिद्ध हो जाते हैं ।
कायादेव ततो ज्ञानं प्राणापानाद्यधिष्ठिताद् युक्तं जायते
।।22।।
प्राण, अपान आदि पाँच वायुओं के द्वारा अधिष्ठित इस शरीर से ही ज्ञान की उत्पत्ति
होती है। अतएव ज्ञान का आधार यह शरीर ही है।
सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः ।।23।।
बृहस्पति के सूत्र स्वयं सर्वथा अखण्ड किन्तु परमत खण्डक होते हैं।
लोकायतमेव शास्त्रोंम् ।। 24।।
एकमात्र लोकायतविद्या ही शास्त्रों है अर्थात् नास्तिक वाङ्मय के अतिरिक्त अन्य किसी भी
साहित्य का शास्त्रोंत्व प्रमाणित नहीं है।
प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् ।।25।।
केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अन्य किसी प्रमाण की प्रामाणिकता नहीं है।
पृथिव्यप्तेजोवायवस्तत्त्वानि ।।26।।
नास्तिक परम्परा में पृथिवी, जल, अग्नि और वायु-ये चार जड़ पदार्थ ही तत्त्व के रूप में
स्वीकृत किये गये हैं ।
अर्थकामौ पुरुषार्थौ।। 27।।
अर्थ अर्थात् धनोपार्जन और कामाचरण-ये
दो ही पुरुषार्थ के रूप में स्वीकृत किये गये हैं
। यहाँ र्म और
मोक्ष की मान्यता नहीं । भौतिकवादी परम्परा में धन की तो सर्वदा, सर्वथा तथा सर्वत्र उपयोगिता रहती है,
क्योंकि सुखमय जीवनयापन के लिए अर्थ की ही प्रयोजनीयता है।
अर्थ के अभाव में सुखमय जीवन बिताना नितान्त असम्भव है। इसी प्रकार कामाचरण में भी
अर्थ की ही अपेक्षा रहती है-अर्थ के बिना सन्तोषजनक कामाचरण असम्भव ही रहता है,
क्योंकि रमणियों की प्राप्ति अर्थाभाव में असम्भव ही है।
इसी प्रकार भोजन पान और शृङ्गार सज्जा आदि क्रिया व्यापारों में मुख्य साधन अर्थ
ही है।
भूतान्येव चेतयन्ति ।।28।।
पृथिवी आदि चार जड़ जत्त्व ही चैतन्य को उत्पन्न करते हैं।
नास्ति परलोकः ।।29।।
इस चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा अनुभूयमान लोक के अतिरिक्त अन्य किसी परलोक की
सत्ता नहीं है।
मृत्युरेवापवर्गः ।।30।।
मर जाना ही मोक्ष है। मृत्यु से भिन्न मोक्ष की कल्पना कथञ्िचत् विधेय नहीं हो
सकती है । द्रष्टव्य-सूत्र 8 की व्याख्या ।
दण्डनीतिरेव विद्या ।। 31।।
बृहस्पति तथा कौटिल्य आदि प्रणीत अर्थशास्त्रों
से भिन्न अन्य कोई भी अध्यात्म या वेदान्त आदि शास्त्रों
विद्यापदवाच्य नहीं हो सकता ।
अत्रैव वान्तर्भवति ।। 32 ।।
वार्ता अर्थात् कृषि, वाणिज्य और गोरक्षा आदि व्यापार भी इसी अर्थशास्त्रों
के अन्तर्गत हो जाते हैं।
धूर्तप्रलापायी ।। 33।।
ऋक्,
सामन् और यजुष्-ये तीनों वेद धूर्तों के प्रलापमात्र हैं,
क्योंकि वेदों में साधार के साथ-साथ निराधार वचनों का भी
अभाव नहीं है । जर्फरी-तूर्फरी आदि अनेक निरर्थक वचन वेदों में मिलते हैं। ऐसे भी
वचन प्रचुर मात्रा में देखे जाते हैं, जिनके द्वारा पुरोहितवर्ग सीधे-सादे परन्तु धनिक यजमानों से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। इससे
प्रतीत होता है कि वेद स्वार्थी तथा धू र्त ब्राह्मणांे पुरोहितों की मनगढन्त रचना
है।
स्वर्गोत्पादकत्वेन विशेषाभावात् ।। 34।।
धूत्तों के प्रलाप होने के कारण
वेदत्रयी यज्ञानुष्ठान के हेतु से यज्ञकर्ता यजमान को स्वर्ग प्राप्त कराने में
समर्थ नहीं है । अतएव वेद की सत्ता अपौरुषेयता और नित्यता सिद्ध नहीं हो सकती।
लोकप्रसिद्धमनुमानं चार्वाकेरपीष्यत एव,
यत्तु केश्चिाल्लौकिकं मार्गमतिक्रम्यानुमानमुच्यते तत् निषिध्यते ।।35।।
लोकसिद्ध अनुमान चार्वाकों को भी मान्य है, किन्तु जिस अनुमान के द्वारा लौकिक मार्ग का अतिक्रमण कर
इन्द्रियातीत परलोक का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, चार्वाक उसी (अनुमान) का खण्डन करते हैं
।
पश्यामि शृणोमीत्यादि प्रतीत्या मरणपर्यन्तं
यावन्तीन्द्रियाणि तिष्ठन्ति तान्येवात्मा ।। 36।।
मैं देखता हूँ, सुनता हूँ इत्यादि प्रतीति के द्वारा मृत्युपर्यन्त सहायता
देने वाली इन्द्रियाँ ही आत्मा है। मृत्युपर्यन्त सहायक इन्द्रियजात के अतिरिक्त
अन्य कोई आत्मा नहीं है। मृत्यु के बाद किसी रूप में आत्मा का अस्तित्व नहीं रहता।
इतरेन्द्रियाद्यभावेऽसत्त्वात् मन एवात्मा ।।37।।
अन्य इन्द्रियादि के अभाव में भी मन का अस्तित्व रहता है। अतएव मन ही आत्मा के
रूप में मान्य होता है।
प्राण एव आत्मा ।।38।।
सूक्ष्मतम दृष्टिसम्पन्न लोकायतिक सम्प्रदाय क्रमशः देह,
इन्दिय और मन से ऊपर उठकर प्राण को आत्मा मानता है। अतः
प्राण ही आत्मा के रूप में सिद्ध होता है।
न स्वर्गों नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिकः।
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः ।।39।।
न कहीं स्वर्ग है, न कोई मोक्ष है और न कोई परलोकगामी आत्मा ही है।
ब्राह्मणादि चार वर्णों और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों के धर्मपालन का भी कोई
फल-विधान नहीं है। स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा परलोक पुनर्जन्म आदि तत्त्व काल्पनिक मात्र है। इन
तत्त्वों को प्रत्यक्षतः देखने वाला कोई व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं होता। ये सब
अदृष्ट तत्त्व भावुक मस्तिष्क की उपज हैं। कोई भी प्रेक्षावान् व्यक्ति इनके
अस्तित्व में विश्वास नहीं कर सकता; जो विश्वास करता है, वह भावुक हृदयता के ही कारण।
अग्निहोत्रं त्रयोवेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका धातृनिर्मिता।। 40।।
प्रातः और सायङ्काल में हवन, ऋक्, सामन् और यजुष् तीनों वेदों का आचार-पालन,
दण्डयुक्त संन्यास और ललाट में भस्म धारण-ये बुद्धि और
पुरुषार्थ से हीन पुरुषों की आजीविका के लिये विधाता ने बनाया है।
पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति ।
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हन्यते ।।41।।
श्रौतविधि से ज्योतिष्टोम यज्ञ में हिंसित पशु यदि स्वर्ग चला जा सकता है,
तो यज्ञकर्ता यजमान स्वयं अपने पिता की हिंसा क्यों नहीं कर
देता?
ऐसा करने से यजमान का पिता अनायास ही स्वर्ग चला जायेगा।
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धञ्चेत् तृप्तिकारणम् ।
निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ।।42।।
ऐहलौकिक श्राद्ध क्रिया से यदि मृत प्राणियों की तृप्ति और पुष्टि होती तो तेल ही बुझे हुए प्रदीप की शिखा को बढ़ाता रहता,
किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं देखा जाता कि श्राद्धान्न से
प्राणी की तृप्ति होती है ।
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम् ।
गेहस्थकृतश्राद्धेन पथि तृप्तिरवारिता ।।43।।
घर पर रहने वाले आत्मीय जनों के द्वारा किये गये श्राद्धकर्म से परलोकगामी या
स्वर्ग-यात्री पथिक को यदि स्वर्गपथ में तृप्ति होती तो घर से यात्रा पर जाने वाले
व्यक्तियों को पथ के लिये भोजन देना व्यर्थ है। घर पर ही उनके नाम से किसी
बुभुक्षु को भोजन करा दिया जाता और उसी से उन यात्रियों को मार्ग में तृप्ति होती
जाती तथा यात्री भोजन वहन के भार से मुक्त रहता।
स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः ।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते ।।44।।
यदि इस लोक में दान करने से स्वर्गस्थित प्राणियों की तृप्ति हो सकती तो
अट्टालिका के ऊपरी भाग पर रहने वाले व्यक्तियों को निम्न भाग से दिये गये
भोजनादिकों से तृप्ति हो जाती, किन्तु लोकव्यवहार में ऐसा नहीं देखा जाता।
यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य
देहस्य पुनरागमनं कुतः।। 45।।
यथार्थ में देह के अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा नहीं है तथा देह का नाश भी
अवश्यम्भावी है इस परिस्थिति में तपश्चर्या आदि से देह को कष्ट देना भी व्यर्थ है। पुण्य-पाप कमार् िके यथार्थतः कोई फल विधान नहीं,
अतएव स्वेच्छाचारितापूर्वक सुखमय जीवनयापन ही श्रेयस्कर है।
ऋण लेकर उत्तमोत्तम भोजनादि से अपने को तृप्त करने में ही चतुरता है। लिये गये ऋण
को चुकाना भी निष्प्रयोजन ही है, क्योंकि मृत्यु के उपरान्त दग्ध हो जाने वाला शरीर पुनः आने
वाला नहीं।
यदि गच्छेत् परं लोकं देहादेष विनिर्गतः ।
कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः ।।46।।
आत्मा यदि देह से निकल कर परलोक में चला जाता है और यदि उसका वहाँ जाना सिद्ध
है तो वह बन्धु-बान्धवों के स्नेह से आकृ होकर वहाँ (परलोक) से फिर लौट कर क्यों नहीं आता यदि ऐसा
होता (परलोक होता) तो कभी-कभी वह अवश्य आ जाता ।
ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।
मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित् ।।47।।
मृत प्राणियों के उद्देश्य से जो श्राद्ध आदि क्रियायें की जाती हैं,
वे निरर्थक हैं-यह ब्राह्मणों ने अपने जीवन यापन का उपाय बना लिया है ।
त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः ।
जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः
स्मृतम् ।।48।।
भण्डधू र्त और निशाचर-ये ही तीन वेद के रचयिता थे। जर्फरी-तुर्फरी आदि निरर्थक
तथा अस्प शब्दों के प्रयोग से उन धूतों ने लोकवञ्चना की है।
अश्वस्यात्र हि
शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम् ।
मांसानां
खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्।।49।।
श्रुति प्रतिपादन है कि अश्व में यज्ञ में यज्ञकर्ता यजमान की पत्नी अश्व का
शिश्न (लिङ्ग¯) स्वयं अपनी योनि में स्थापित करे। यह भण्डों की उक्ति प्रतीत होता है। यज्ञ
में मांसभक्षण का जो विधान है वह भी मांसभोजन प्रेमियों का ही प्रतिपादन अवगत होता
है और वे मांसभक्षण प्रेमी निशाचर ही थे। ‘अश्वमेध यज्ञ में
यज्ञकर्ता यजमान की पत्नी बलिपशु-अश्व-घोड़े का लिङ्ग¯अपने योनि में धारण करे’ यह विधिवाक्य कितना अश्लील प्रतीत होता है । कथमपि यह
क्रियाकलाप सम्भव नहीं तथा अप्राकृतिक है। ऐसे व्यापार में लग जाने पर क्या यजमान
पत्नी जीवित रह सकती है? स्पष्तः इस विधिवाक्य में भण्डता है। किसी प्रकार यह वचन
व्यावहारिक नहीं हो सकता। ऐसे वचन उपेक्षणीय ही नहीं बहिष्कार्य भी हैं।
न कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणाञ्च।
माधुर्यमिक्षोः कटुताञ्च निम्बे स्वभावतः सर्वमिदं
प्रवृत्तम् ।।50।।
कोई काँटों में तीक्ष्णता, मृग पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुर्य, नीम में तिक्तता नहीं पैदा करता ये गुण स्वभाव से ही
निर्मित होते हैं।
नग्न श्रमणक दुर्बुद्धे कायक्लेशपरायणः ।
जीविकाथ विचारस्ते केन
त्वमसि शिक्षितः ।।51।।
हे दुर्बुद्धि! नग्नरूप वाले आर्हत्! हे बौद्धभिक्षु! तुम अपनी मन्दबुद्धि के
कारण ही अपने शरीर को क्लेशित करते हो। किसने तुम्हे जीवन यापन का यह उपाय सिखलाया
है?
प्रत्यक्षादिप्रमासिद्धविरुद्धार्थाभिधायिनः ।
वेदान्ता यदि शास्त्रोंाणि बौद्धैः किमपराध्यते।। 52।।
प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा सिद्ध लोकसत्ता को मिथ्या प्रतिपादित करने
वाले वेदान्त को यदि शास्त्रों कहा जाय तो फिर बौद्धों ने क्या अपरा किया कि उनके त्रिपिटक
आदि का षट् शास्त्रों में परिगणित नहीं किया गया?
लौकिको मार्गोऽनुसर्तव्यः ।।53।।
लोकायत व्यवहार का ही अनुसरण करना कल्याणकर है, अर्थात् पारलौकिक चिन्तन को निरर्थक समझने में ही दक्षता
है।
लोकव्यवहारं प्रति सदृशौ बालपण्डितौ ।।54।।
लोकव्यवहार में मूर्ख और पण्डित अथवा बालक और वृद्ध मंे कोई अन्तर नहीं
अर्थात् दोनों समान ही है।
(4)
इसके अतिरिक्त बार्हपत्य अर्थशास्त्रों भी इसी कोटि का सूत्रसंग्रह है-
न भस्मधारणम् ।।1।।
ललाट में या शरीर में भस्म लगाना मिथ्या तथा दम्भमात्र है।
नाग्निहोत्रवेदपाठादीनि च ।।2।।
श्रौतग्रन्थों में जो प्रातःकाल एवं सायं काल में अग्नि में हवन का विधान है
उसके खण्डन में चार्वाकों का कथन है कि अग्निहोत्र और वेदपाठ आदि कार्य भी
निष्प्रयोजन होने के कारण अविधेय है।
न तीर्थयात्रा ।।3।।
पारलौकिक सुखोपलब्धि की आनुमानिक भावना से तीर्थयात्रा करना भी निष्फल और
अविधेय है।
सर्वोऽर्थार्थं करोत्यग्निहोत्रसन्ड्ढयाजपादीन् ।।4।।
समस्त लोक धन की प्राप्ति के उद्देश्य से ही अग्नि में त्रिकाल हवन,
सन्ध्या-पूजा तथा जप आदि दाम्भिक कृत्य करते हैं।
स्वदोषं गूहितुं कामाता
वेदं पठति ।।5।।
अपने दोष को छिपाने के लिये ही कामी पुरुष वेदादि का पाठ करता है।
अग्निहोत्रादीन् करोति ।।6।।
अपने दोष को छिपाने के लिये त्रिकाल हवन आदि कृत्य करता है ।
सुरापानं महिलामेहनार्थं करोति ।।7।।
सुरा अर्थात् मदिरा का पान और महिलाओं के संगम करने के उद्देश्य से कामी पुरुष
वेद पाठ और अग्निहोत्र आदि कर्म करता है।
विष्ण्वादयः सुरापायिनः ।।8।।
विष्णु आदि प्रसिद्ध देव भी मद्यपान करते थे।
शिवादयः ।।9।।
शिव आदि देवगण भी सुरापायी हैं।
शृङ्गारवेशं कुर्यात् ।।10।।
विवि शृङ्गार रचनाओं से चतुर व्यक्ति
को अपने को आभूषित तथा आकर्षक बनाना चाहिये।
अक्षैर्दीव्यात् ।।11।।
द्यूतक्रीडा अर्थात् पासों का खेलना पुरुषार्थ है।
नैव दिव्याच्च ।।12 ।।
व्यर्थ स्वर्ग की कामना कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि स्वर्ग नामक पदार्थ का कहीं भी अस्तित्व नहीं है।
आम्रवनानि सेवयेत् ।।13।।
आम्र आदि सुन्दर उद्यानों में आनन्द विहार करना चाहिये। उसी में ही जीवनसाफल्य
है।
मांसानि च ।।14।।
और मांसादि पुष्टिकर भोजन करने में संकोच नहीं करना चाहिये,
क्योंकि इससे शारीरिक पुष्टि के साथ-साथ काम-शक्ति की भी वृद्धि होती है ।
मत्तकामिन्यः सेव्याः ।।15।।
मदोन्मत्त तथा कामिनी सुन्दरियों का संगम करने में संकोच नहीं करना चाहिये,
क्योंकि इसमें सद्यः तथा प्रत्यक्ष आनन्दानुभूति होती है।
दिव्यप्रमदादर्शनञ्च ।।16।।
और सुन्दरी तथा मदमस्त कामिनियों का दर्शन करना चाहिये,
क्योंकि इससे प्रत्यक्ष मानसिक प्रसन्नता प्राप्त होती है।
नेत्राञ्जनञ्च ।।17।।
नेत्रों में अञ्जनादि सुगन्धित तथा प्रसादक वस्तुओं को लगाना चाहिये,
क्योंकि शरीरिक सौन्दर्य से सार्वत्रिक प्रसन्नता होती है।
आदर्शदर्शनञ्च ।।18।।
दर्पण भी नियमित रूप से देखना चाहिये, क्योंकि रूपसौन्दर्य से मानसिक तृप्ति होती है।
ताम्बूलचर्वणं च ।।19।।
ताम्बूल आदि सुगन्धित पदार्थ को चबाकर मुख को सुवासित रखना चाहिये,
ऐसा करने से काम-वृद्धि होती है।
कर्पूरचन्दनागुरुधूपं च ।।20।।
और शरीर में कर्पूर, श्वेतचन्दन, अगुरु आदि सुगन्धित द्रव्यों का अनुलेपन और धूप की गन्ध लगाकर
मन को परितृप्त करना चाहिये। इससे शारीरिक सौन्दर्य-वृद्धि के साथ मानसिक उत्साह
का भी संचार होता है।
वेद के खण्डन में वृहस्पति प्रणीत निम्नलिखित पाँच सूत्र उपलब्ध होते हैं-
वृथाधर्मं वदत्यर्थसाधनं लोकायतिकः
पिण्डादायश्चैर इति च ।।21।।
लोकायतिकों का प्रतिपादन है कि धर्म केवल नोपार्जन का साधन मात्र और निरर्थक है और
पिण्डादाय अर्थात् श्राद्धभोजी पुरोहित चोर होता है।
सोऽप्यशनार्थं धर्मं वदति ।।22 ।।
पुरोहित ब्राह्मण भी भोजन प्राप्ति के उद्देश्य से धर्मोपदेश करता फिरता है ।
परापवादार्थं वेदधर्मशास्त्रोंादीन् पठति ।।23।।
पर अर्थात् अन्य यजमान आदि की निन्दा के लिये और अर्थ प्राप्ति के हेतु
प्रायश्चित्त आदि विधान में वेद धर्मशास्त्रों
आदि पढ़ता है।
सर्वान्निन्दति ।।24।।
पुरोहित ब्राह्मण किसी न किसी रूप में सबकी निन्दा ही करता है ।
महेश्वरविष्ण्वादीनपि ।।25।।
(वह) शिव और विष्णु आदि सम्पूर्ण देवताओं की भी निन्दा करता
है ।
ईश्वर के खण्डन में बृहस्पति प्रणीत एक सूत्र का विधान है
आत्मवान् राजा ।।26।।
लौकिक राजा के अतिरिक्त अन्य किसी भी इन्द्रियातीत ईश्वर या परमेश्वर का
अस्तित्व नहीं है।
लोकायतिक विद्या के ही एक मात्र शास्त्रोंत्व विधान में बृहस्पति के दो सूत्र
मिलते हैं-
सर्वथा लोकायतिकमेव शास्त्रोंम् ।।27।।
लोकायतिक विद्या ही एकमात्र शास्त्रों है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई शास्त्रों
नहीं है।
इत्याहाचाया बृहस्पतिः ।।28।।
इस प्रकार आचार्य बृहस्पति ने लोककल्याण की भावना से सिद्धान्त प्रतिपादन किया
है।
(5) निरीश्वरवादी कपिल, वेद की प्रामाणिकता को गौण मानने वाले गौतम के सूत्रों मे
भी अवैदिक अर्थात् चार्वाक दर्शन के विचार उपलब्ध होते हैं।
कपिल और अवैदिकवाद- http://www.peterffreund.com/Vedic_Literature/samkhya.htm
ईश्वरासिद्धेः (1।92)
मानसिक प्रत्यक्ष के न मानने से ईश्वर की सिद्धि न होगी,
क्योंकि रूप आदि इन्द्रियविषय न होने से ईश्वर की
प्रत्यक्षानुभूति नहीं हो सकती। जब ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ तो अनुमान
भी न होगा, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष व्याप्तिपूर्वक होता है। अतएव ईश्वर का अस्तित्व
सिद्ध नहीं हो सकता ।
मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः (1।93)
संसार में कोई भी चेतन मुक्तावस्था और बद्धावस्था से भिन्न नहीं। यदि ईश्वर को
बद्ध मान लिया जाय तो उसमें सृष्टि करने की शक्ति नहीं रह जाती और यदि मुक्त मान लिया जाय तो
इच्छा के अभाव से वह सृष्टि नहीं कर सकता, क्योंकि कत्र्ता की इच्छा के बिना सृष्टि कार्य असम्भव है।
नेश्वराष्ठिते फलनिष्पत्तिः कर्मणा तत्सिद्धेः (5।2)
ईश्वर के नामोच्चारण मात्र से फलप्राप्ति नहीं हो सकती,
क्योंकि उसका हेतु कर्म है, जिसके सम्पादन से फल मिलता है। अतः ईश्वर की सत्ता सिद्ध
नहीं होती।
स्वोपकारादधिष्ठानं लोकवत् (5।3)
लौकिक प्राणियों के समान ही ईश्वर की भी आत्मकल्याण के साधन में ही प्रवृत्ति
होती है और हमारे एवं ईश्वर में कोई अन्तर नहीं है। इस कारण भी ईश्वर की सिद्धि
नहीं हो सकती।
लौकिकेश्वरवदितरथा (5।4)
यदि ईश्वर को समस्त कर्म के फलदाता के रूप में मान लिया जाए तो लौकिक ईश्वर
अर्थात् राजाओं के समान भिन्न-भिन्न कर्म फलदाता भिन्न-भिन्न ईश्वर मानने पड़ेंगे।
अतः ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती।
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः (5।10)
ईश्वर के संसार के कारण होने में कोई प्रमाण नहीं,
अतएव ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती।
न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः (5।45)
वेद नित्य नहीं है, क्योंकि ‘तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे’
श्रुतियों से ज्ञात होता है कि उस यज्ञरूप परमात्मा से
ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए। जब वेदों की उत्पत्ति सिद्ध है,
तब यह निश्चय है कि जिसकी उत्पत्ति होती है,
उसका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतएव कार्यरूप होने के कारण
वेद नित्य नहीं हो सकते।
न शब्दनित्यत्वं कार्यताप्रतीतेः (5।48)
शब्द नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि उच्चारण से उत्पन्न शब्द मुहू र्त भर में न हो जाता है और उत्पन्न होने वाला पदार्थ नश्वरता के कारण अनित्य है। अतः वेद
भी अनित्य ही है।
गौतम और अवैदिकवाद- http://sarit.indology.info/nyayavarttikatatparyatika.xml?
अत्यन्तप्रायैकदेशसाधर्म्यादुपमानासिद्धिः (2।1।44)
अत्यन्त तथा एकदेशीय समानधर्मता के कारण उपमान का प्रमाण्य स्वीकार नहीं हो
सकता,
क्योंकि अत्यन्त सधर्मता के कारण ‘गौ के समान गौ’-इस वाक्य में उपमान की सिद्धि नहीं और एकदेशीय समानधर्मता
के कारण ‘वृषभ के समान महिष’-इस वाक्य में भी उपमान में प्रमाण की सिद्धि नहीं होती ।
उपर्युक्त दोनों वाक्य निरर्थक प्रतीत होते हैं।
शब्दोऽनुमानमर्थस्यानुपलब्धेरनुमेयत्वात् (2।1।49)
शब्द का अस्तित्व अनुमान से पृथक् नहीं है, क्योंकि शब्दगत अर्थ का ही अनुमान होता है। अर्थ का
प्रत्यक्ष भाव नहीं होता। अतएव शब्द के अनुमान के ही अन्तर्गत सन्निकट हो जाने के
कारण उस (शब्द) का स्वतन्त्र प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में
शब्द की असिद्धि होने से शब्दमय वेद की भी स्वतः असिद्धि हो जाती है।
तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः (2।1।57)
अनृत अर्थात् असत्य, व्याघात परस्पर विरुद्धार्थप्रतिपादन और पुनरुक्त अर्थात्
एक ही विषय की पुनरावृत्ति-इस दोषत्रय के कारण शब्दमय वेद की प्रामाणिकता सिद्ध
नहीं हो सकती है।
(6) कुछ अंश में जैमिनि भी चार्वाक मत की पुष्टि करते हुए
प्रतीत होते हैं। यह तब जब वे ‘अस्थानात् करोति शब्दात्’ आदि के द्वारा वेद की अनित्यता का वर्णन करते हैं।
अस्थानात् (1।1।7)
मुहूर्त मात्र भी उच्चारित शब्द स्थिर नहीं रहता-तत्क्षण में ही विन हो जाता है । अतएव शब्द अर्थात् शब्दमय वेद की अनित्यता
सिद्ध हो जाती है।
करोतिशब्दात् (1।1।8)
शब्द में क्रियमाणता होती है, जैसे देवदत्त ने यज्ञदत्त से कहा-‘शब्द करो’-‘यज्ञदत्त ने शब्द किया’-इस लोक व्यवहार से शब्द परतः प्रमाण की कोटि में आता है।
अतएव शब्द की नित्यता प्रमाणित नहीं होती ।
सत्त्वान्तरे यौगपद्यात् (1।1।9)
इस देश और अन्य देशों में एक ही समय में और एक ही साथ एक ही शब्द के उपलब्ध होने
के कारण भी शब्द की अनित्यता सिद्ध होती है ।
प्रकृतिविकृत्योश्च (1।1।10)
प्रकृति और विकृति के कारण भी शब्द अनित्य प्रमाणित होता है। जैसे ‘दड्ढयत्र’ इस पद में ‘इ’ कार प्रकृति है और ‘य’ कार विकृति। जिसमें विकार होता है वह अनित्य है और ‘य’ का इकार के साथ सादृश्य है। अतः शब्द अनित्य है ।
वृद्धिश्च कर्तृभूम्नाऽस्य (1।1।11)
जब बहुत लोग मिलकर एक साथ शब्दोच्चारण करते हैं, तब वह शब्द महान् प्रतीत होता है और वही शब्द एक पुरुष के
द्वारा उच्चारित होने पर लघु प्रतीत होता है, इससे भी शब्द अनित्य सिद्ध होता है ।
नित्यदर्शनाच्च (1।1।28)
वेद में ‘प्रावाहणि’ अर्थात् प्रवाहण के पुत्र ‘बबर’ और ‘औद्दालकि’ अर्थात् उद्दालक के पुत्र कुसुरविन्द आदि जनन-मरणशील
मनुष्यों का उल्लेख पाया जाता है। इस प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि वेद के उन
भागों की रचना, जहाँ ‘प्रावाहणि’ और ‘औद्दालकि’ प्रभृति मनुष्यों का उल्लेख है,
उन (प्रावाहणि और औद्दालकि) मनुष्यों के पीछे हुई। इस कारण
वेद की अनादिता और प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती।
शास्त्रोदृष्टविरोधाच्च (1।2।2)
शास्त्रों के पारस्परिक और सैद्धान्तिक विरोधी होने के कारण भी वेद की
प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रों
परस्पर विरुद्धार्थप्रतिपादक हैं।
तथाफलाभावात् (1।2।3)
सुकृत और दुष्कृत कर्म के सुख और दुःख रूप फलों के प्रत्यक्ष अभाव के कारण वेद
की नित्यता सिद्ध नहीं होती।
अन्यानर्थक्यात् (1।2।5)
‘यज्ञीय पूर्णाहुति होते ही कामनाएँ सिद्ध होती हैं,
अश्वमेध यज्ञकत्र्ता यजमान मृत्यु को पार कर जाता है,
ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है’
इत्यादि निरर्थक वादों के कारण वेद की प्रामाणिकता सिद्ध
नहीं होती, क्योंकि यज्ञीय पूर्णाहुति होते ही मनोरथों को पूर्ण होते नहीं देखा जाता।
अभागिप्रतिषेधाच्च (1।2।4)
अयुक्त प्रतिषेध किये जाने के कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती ।
वेद में कहीं-कहीं अभागिप्रतिषेधक वाक्य मिलते हैं। जैसे-‘न पृथ्वी में अग्नि-चयन करना चाहिए,
न अन्तरिक्ष में और न स्वर्ग में,
यहाँ अयुक्त प्रतिषेध किया गया है,
क्योंकि यह तो सर्वविदित है कि अन्तरिक्ष-आकाशादि में
अग्नि-चयन नहीं होता, फिर भी पृथ्वी के साथ आकाश में भी अग्नि-चयन का प्रतिषेध किया
गया है,
इत्यादि अयुक्तप्रतिषेधता के कारण वेद अप्रामाणिक सिद्ध
होता है।
अनित्यसंयोगात् (1।2।6)
अनित्य संयोग होने के कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। अनित्य
संयोग का अर्थ होता है-सामान्यश्रुति, अर्थात् केवल शब्दश्रवण। जैसे किसी व्यक्ति का अभिधान-नाम
है ‘बृहस्पति’ परन्तु वह ‘बृहस्पति’ नामक व्यक्ति ‘महामूर्ख’ है । अतएव वह बृहस्पति नामक व्यक्ति अर्थतः बृहस्पति नहीं
होकर केवल श्रुतितः ‘बृहस्पति’ है। इसी प्रकार, किसी दुराचारी पुरुष का नाम ‘साधु’ है और किसी व्याध का नाम ‘दीनदयालु’। परन्तु वह साधु नामक पुरुष व्यवहारतः चोर है और दीनदयालु
नामक पुरुष व्यवहारतः व्याध-अर्थात् हिंसक है इत्यादि ।
अपरा कर्तुश्च पुत्रदर्शनम् (1।2।13)
यदाकदाचित् पुंश्चली पत्नी के अपरा , अर्थात् दुराचरण से भी यज्ञकर्ता पति को पुत्र का दर्शन
होता है-यहाँ पुत्र के दर्शन में वैदिक यज्ञानुष्ठान की कारणता नहीं है,
इस लौकिक प्रमाण के उदाहरण से भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध
नहीं होती ।
विधिश्चानर्थकः क्वचित् तस्मात् स्तुतिः प्रतीयते,
तत्सामान्यादितरेषु तथात्वम् (1।2।23)
कभी-कभी और कहीं-कहीं विधि-वाक्य अनर्थकारी सिद्ध होता है। उस (विधिवाक्य) से
शाब्दिक स्तुति का बोध होता है और इसी प्रकार अन्यत्र भी स्तुति-बोधक मात्र ही रह
जाता है,
इस कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती ।
तदर्थशास्त्रोक्तात् (1।2।31)
वेद के मन्त्र शब्दप्रधान न होकर अर्थप्रधान होते हैं। यदि शब्द की प्रधानता
होती,
तब तो मन्त्रोच्चारण मात्र से कल्याण होता,
किन्तु कल्याण तो अर्थप्रकाश में ही अन्तर्निहित रहता है,
इस कारण वेद अप्रामाणिक सिद्ध होता है ।
वाक्यनियमात् (1।2।32)
मन्त्रों में पद क्रम नियमित होता है। यदि पद-क्रम अनियमित कर दिया जाए,
तो मन्त्र अर्थहीन हो जाते हैं
। जैसे-‘अग्निमीले पुरोहितम्’ (ऋग्वेद 1।1।1) का विपर्यय कर देने से रूप होगा-‘मत्हिरोपु लेमीग्निअ’। अतएव मन्त्रों के पद-क्रम में बाधक होने के कारण भी वेद
प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता ।
बुद्धशास्त्रोत् (1।2।33)
वेद ही एकमात्र ज्ञानप्रद शास्त्रों है, अतएव वेद का स्वाड्ढयाय अर्थावबो के साथ होना चाहिए । ऐसा
नहीं होने से वेद निरर्थक और अप्रामाणिक सिद्ध होता है ।
अविद्यमानवचनात् (1।2।34)
शब्दों के अनुसार अर्थ न रहने के कारण और अर्थ के अनुसार शब्द न रहने के कारण
अर्थसहित स्वाध्याय भी असम्भव है, इस कारण भी वेद की उपयोगिता अथवा प्रामाणिकता सिद्ध नहीं
होती ।
अचेतनेऽर्थबन्धात् (1।2।35)
‘हे औषधि! तुम इस रोगी का रोगहरण कर रक्षा करो’-इस प्रकार जड़ पदार्थ से अभियाचना करने से वेद पठन-पाठन के
योग्य नहीं अपितु सर्वथा अयोग्य सिद्ध होता है।
अर्थविप्रतिषेधत् (1।2।36)
परस्पर विरोधी अर्थ के प्रतिपादक अथवा तदर्थक वाक्यों की ही पुनरावृत्ति के
कारण वेद का पठन-पाठन अयोग्य सिद्ध होता है ।
स्वाध्यायवदवचनात् (1।2।37)
जिन वाक्यों में वेद के पठन-पाठन का विधान है, उन वाक्यों में अर्थसहित पठन-पाठन का विधान नहीं मिलता।
अतएव सार्थक पठन-पाठन उपयुक्त नहीं है । इस परिस्थिति में वेद की प्रामाणिकता
सिद्ध नहीं होती है ।
अविज्ञेयात् (1।2।38)
कुछ मन्त्रों की अज्ञेयार्थकता के कारण वेद का पठन-पाठन अनुपयुक्त है। वेद में
कुछ ऐसे मन्त्र हैं, जिनका अर्थ अविज्ञेय है या वे मन्त्र अर्थहीन अतएव निरर्थक
है ।
अनित्यसंयोगान्मन्त्रानर्थक्यम् (1।2।39)
अनित्य पदार्थ यथा-जन्म, मरण, यौवन, जरा आदि का सम्बन्ध होने से मन्त्रों का पठन-पाठन निरर्थक
है। वेद में ‘कीकट’
नामक जनपद, ‘नैचाशाख’ नामक नगर और ‘प्रमद’ नामक राजा के विषय में चर्चा है । ये सभी जन्म-मृत्यु तथा
यौवन-जरा से युक्त थे और इसलिए अनित्य भी। इससे भी प्रतीत होता है कि इस अनित्यों के
पीछे ही वेद की रचना हुई।
हेतुदर्शनाच्च (1।3।4)
ऋषियों के द्वारा प्रोक्त होने के साथ-साथ व्याख्या रूप होने के कारण भी वेदों
का परतः प्रामाण्य है। अतएव वेद का प्रामाण्य असिद्ध ही रह जाता है ।
यहाँ तक कि भगवान् बादरायण (500 ई.) के ‘तर्काप्रतिष्ठानात्’ (2।1।11) सूत्र से भी चार्वाकमत ध्वनित होता है। इस प्रकार चार्वाक
दर्शन के बीज संस्कृतवाङ्मय में बिखरे पड़े हैं।
चार्वाक दर्शन की तत्त्व मीमांसा-
चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथिवी जल तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के
मूल कारण हैं । जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश
नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है । अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था
में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत्, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाणव्यवस्था
कारण है। जिस प्रकार हम
गन्ध रस रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष
अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत् इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं
आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः उनके मत में
आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व
अकस्मात् भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों
का संग्रह या संघट्ट मात्र है।
आत्मा-चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य
पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं
अतः चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात् यह शरीर ही आत्मा है।
इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है-तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्रों।
तर्क-से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं
कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर
चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात् आत्मा
सिद्ध होता है।
अनुभव-‘मैं स्थूल हूँ’, ‘मैं दुर्बल हूँ’, ‘मैं गोरा हूँ’, ‘मैं निष्क्रिय हूँ’ इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता
इत्यादि शरीर के धर्म हैं और ‘मैं’ भी वही है। अतः शरीर ही आत्मा है।
आयुर्वेद-जिस प्रकार गुड जौ महुआ आदि को मिला देने से कालक्रम के अनुसार उस
मिश्रण में मदशक्ति उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें
बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान कत्था सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी
उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के
विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त
कुछ नहीं है।
ईश्वर-न्याय आदि शास्त्रों में ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती
है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अतः उसके मत
में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर है। वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली
प्रजा का नियन्ता होता है। अतः उसे ही ईश्वर मानना चाहिये ।
ज्ञान मीमांसा-
प्रमेय अर्थात् विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात् प्रमा के लिये प्रमाण की
आवश्यकता होती है । चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा
इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । हमारी
इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है । इसके
अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत् है । आँख कान नाक जिह्ना और त्वचा के द्वारा रूप शब्द
गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती
उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती । बौद्ध जैन नामक अवैदिक
दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं।
उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध
नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा
सकती है। निधयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता है । दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को
देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की
सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती
है। अतः सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता
है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की
सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति स्वभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूम के साथ अग्नि
का,
पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है । सुख और धर्म का दुःख
और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है । जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे
के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये।
जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है।
आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता
है। यह प्रत्यक्ष ही है । जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृ और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं।
साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिङ्गग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं
मांस भक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा-
सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्करीका ।
उदन्यजेव जेमना मदेरु
ता मे जराटवजरं मरायु ।।
मन्त्र में जर्भरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी
अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।
आचार मीमांसा-
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष
दृश्यमान देह और जगत् के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ का स्वीकार नहीं करते। धर्म
अर्थ काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थचतु य को वे लोग पुरुष अर्थात् मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी दृष्टि
में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है
क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को
स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूत्र्तों के द्वारा कपोलकल्पित
स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने
वाली पशुहिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्तद् वस्तुओं का
दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है। इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें
इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की
तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को
आनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं
उनको दूर करना, न
करना, मार देना धर्म है । शरीरिक मानसिक कष्ट सहना,
विषयानन्द से मन और शरीर को बलात् विरत करना अधर्म है।
तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में,
पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का
साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बा क होते हैं
तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।
मोक्ष
चार्वाकों की मोक्ष की कल्पना भी उनके तत्त्व मीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा के
प्रभाव से पूर्ण प्रभावित है । जब तक शरीर है तब तक मनुष्य नाना प्रकार से
सहता है । यही नरक है । इस समूह से मुक्ति तब मिलती है जब
देह चैतन्यरहित हो जाता है अर्थात् मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत
शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता। यद्यपि अन्य दर्शनों में आत्मा के
अस्तित्व का स्वीकार करते हुए उसी के मुक्त होने की चर्चा की गयी है और मोक्ष का
स्वरूप भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, तथापि चार्वाक उनकी मान्यता को प्रश्रय नहीं देते। वे न तो
मोक्ष को नित्य मानते हुए सन्मात्र मानते हैं, न नित्य मानते हुए सत् और चित् स्वरूप मानते हैं
न ही वे सच्चिदानन्द स्वरूप में उसकी स्थिति को ही मोक्ष
स्वीकार करते हैं।
मानवीय मूल्यों की अवधारणा
चार्वाक के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य अर्थ और काम है। अर्थसंग्रह करते हुए
उसके द्वारा कामसुख को प्राप्त करना ही जीवन की सार्थकता है। इसीलिये-
यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य
देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।
इस लोकायत मत की उपेक्षा करना उदयनाचार्य जैसे तार्किक शिरोमणि में लिए कठिन
प्रतीत हुआ होगा। । यही कारण है कि चार्वाकों का युक्ति युक्त खण्डन करने के
उपरान्त भी एक प्रकार से पराजित एवं विवशता के स्वर में न्यायकुसुमांजलिकारिका की
रचना करने वाले उदयनाचार्य ने नास्तिक चार्वाक के लिए इस प्रकार अपने पवित्र भाव
एवं सहज हृदयोद्गार व्यक्त किया-
इत्येवं श्रुतिनीतिसम्प्लवजलैर्भूयोभिराक्षालिते।
येषां
नास्पदमादधासि हृदये ते
शैलसाराशयाः।।
किन्तु प्रस्तुतविप्रतीपविधयोप्युच्चैर्भवच्चिन्तकाः।
काले कारुणिक!
त्वयैव कृपया ते तारणीया नराः।।
चार्वाक दर्शन एक विचारधारा है। यह देश देशान्तर में जीवन का हिस्सा बनता आया
है। यह वैदिक काल में भी था,
आज भी है और कल भी रहेगा।