पालि भाषा में स्थविरवादी (हीनयानी)
बौद्ध धर्म का समस्त साहित्य संगृहीत हैं तत्कालीन बौद्धग्रन्थों का प्रणयन, भारत वर्ष के अतिरिक्त लंका, वर्मा एवं एशिया महाद्वीप
के अन्य देशों में पालिभाषा में हुआ। बौद्धों के धार्मिक
साहित्य के अतिरिक्त अन्य साहित्य का प्रणयन या संग्रह पालि भाषा में अल्पमात्र ही
हुआ है।
इस तरह पालिसाहित्य ईसापूर्व
चौथी-पाँचवीं शताब्दी से आरम्भ होकर आज तक होता आ रहा है। इस समय साहित्य को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं 1. त्रिपिटक या 2. त्रिपिटकेतर
त्रिपिटकः
त्रिपिटकः
त्रिपिटक का शब्दिक अर्थ है-तीन
पिटारी। अर्थात तीन पिटकों में संग्रहकारों (संगीतिकारों) ने उस पालि साहित्य को
रखा है जो भगवान् बुद्ध द्वारा कहा गया है। इस साहित्य को प्रत्येक
बौद्धमतावलम्बी वही महत्त्व देता है जो हिन्दू वेदों को तथा ईसाई
बाइबिल को देते हैं।
भगवान बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण को प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध ने बोधिप्राप्ति (35 वर्ष की आयु) के बाद
महापरिनिर्वाण (45 वर्ष) तक निरन्तर जिज्ञासु जनता को जो भी धर्मोपदेश किया वह
सब इस त्रिपिटक में संगृहीत है। इसी में संघ शासन तथा भिक्षु-भिक्षुणियों
की जीवनचर्या से सम्बद्ध नियम भी संगृहीत हैं।
महासंगीति : भगवान बुद्ध ने
स्वयं किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की। अपितु, उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात्, उनके शिष्यों ने, बौद्ध विद्वानों के देखरेख में संकलित किया, जिसे उनकी भाषा में महासंगीति कहा
जाता है। आज तक समय-समय
पर ऐसी छह महासंगीतियों हो चुकी हैं। परन्तु प्रथम तीन संगीतियों में ही इन
उपदेशों का अन्तिम निर्धारण हो चुका था। इन संगीतियों में निर्धारित
बुद्धोपदेश-संग्रह को ‘त्रिपिटक‘ नाम दिया गया।
इनमें प्रथम संगीति बुद्ध के महापरिनिर्वाण के एक सौ
वर्ष के बाद वैशाली में तथा तृतीय संगीति, सम्राट अशोक के शासनकाल में हुई। इस
सम्मेलन में त्रिपिटक की इयत्ता के विषय में निर्णय हुआ, वही आज तक सभी बौद्धमतावलम्बियों
को मान्य है।
तीन पिटक : त्रिपिटक के अन्तगर्त
(समाहित तीन पिटकों के क्रमशः ये नाम हैं-
1. विनयपिटक, 2. सुत्तपिटक एवं, 3. अभिधम्मपिटक। यहाँ विनय से तात्पर्य है- (क) संघशासन के संचालन हेतु नियम एवं अनुशासनविधि तथा (ख) भिक्षु एवं भिक्षुणियों की जीवनचर्याविधि के नियम। इन्ही दोनों बातों का विनयपिटक में विस्तृत वर्णन मिलता है। सुत्त का तात्पर्य है- सिद्धान्त। इस पिटक में बौद्धानुत छोटे बडे सभी सिद्धान्तों का संवाद पद्धति में वर्णन है तथा अभिधम्मपिटक के अभिधम्म से तात्पर्य है- बौद्धानुमत धर्म की साधना। अतः इस पिटक में इसी पद्धति का विस्तृत वर्णन है।
1. विनयपिटक, 2. सुत्तपिटक एवं, 3. अभिधम्मपिटक। यहाँ विनय से तात्पर्य है- (क) संघशासन के संचालन हेतु नियम एवं अनुशासनविधि तथा (ख) भिक्षु एवं भिक्षुणियों की जीवनचर्याविधि के नियम। इन्ही दोनों बातों का विनयपिटक में विस्तृत वर्णन मिलता है। सुत्त का तात्पर्य है- सिद्धान्त। इस पिटक में बौद्धानुत छोटे बडे सभी सिद्धान्तों का संवाद पद्धति में वर्णन है तथा अभिधम्मपिटक के अभिधम्म से तात्पर्य है- बौद्धानुमत धर्म की साधना। अतः इस पिटक में इसी पद्धति का विस्तृत वर्णन है।
1. विनयपिटक- इस पिटक को संग्रहकारों
ने तीन भागों में विभक्त किया है, जैसे- (1) विभंग, (2) खन्धक एवं (3) परिवार।
(1) विभंग को ही ‘पातिमोक्ख‘ भी कहते हैं। इसमें भिक्षुओं तथा
भिक्षुणियों के जीवनचर्या को अनुशासित रखने हेतु छोटे बडे नियम वर्णित हैं, जिनकी संख्या विद्वानों ने 227 निधारित की है। प्रत्येक मास की
समावस्या अथवा पूर्णिमा को उपोसथ व्रत रखता है। इस अवसर पर संघ एकत्र होकर इस पातिमोक्ख का पाठ सुनता है तथा किसी भिक्षु से इन नियमों में
शिथिलता आयी हो तो वह सार्वजनिक रूप से क्षमायाच्ञा करता हुआ पश्चात्ताप करता है।
(2) खन्धक में दो ग्रन्थ हैं-1. महावग्ग एवं 2. चुल्लवग्ग
1. महावग्ग में ये दश खन्धक हैं- 1. महास्कन्धक, 2. उपोसथखन्धक, 3.वस्सूपनायिकाखन्धक, 4. पवारणाखन्धक, 5. चम्मक्खन्धक, 6.भेसज्जखन्धक, 7. कठिनक्खन्धक, 8.चीवरक्खन्धक, 9. चम्पेय्यक्खन्धक, 10.कोसब्किक्खन्धक।
2. चुल्लवग्ग-यह भी खन्धक ग्रन्थ ही
कहलाता है। इसके प्रथम नौ प्रकरणों संघानुशासन, प्रायश्चित्त, भिक्षुओं के कर्तव्य, तथा पातिमोक्ख से सम्बद्ध बाते हैं
दशम प्रकरण में भिक्षुणियों के लिये कर्तव्यपालनविधि बतायी गयी है। 11 तथा 12वें प्रकरण में राजगृह एवं वैशाली
की संगीतियों का वर्णन है।
(3) विनयपिटक के अन्तर्गत तृतीय पुस्तक
का नाम परिवार है। इसमें उन्नीस वर्ग है, जिनमें विनयपिब्क में संगृहीत
बातों का संक्षिप्त वर्णन है।
2 सुत्तपिटक : इस पिटक में पाँच
विशालकाय ग्रन्थों का संग्रह है इन्हें निकाय भी कहते हैं। वे हैं-1.दीघनिकाय, 2. मज्झिमनिकाय, 3. संयुत्तनिकाय, 4. अंगुत्तरनिकाय एवं 5. खुद्दकनिकाय। यह पाँचवाँ निकाय भी
अपने आप में पन्द्रह छोटे बडे ग्रन्थों का समूह है।
1.दीघनिकाय : यह ग्रन्थ वर्गो में
विभक्त है- 1. सीलक्खन्धवग्ग, 2. महावग्ग एवं 3. पाथिकवग्ग। प्रथम सीलक्खन्धवग्ग में 13 बड़े-बडे़ सुत्त हैं, जैसे-1. ब्रह्मजालसुत्त, 2. सामञ्ञफल0, 3. अम्बट्ठ0, 4. सोणदण्ड0 5.कूटदन्त0, 6. महालि0, 7. जालिय0, 8. कस्यपसीहनाद0, 9. पोट्ठपाद0, 10. सुभ0,
11. केवट्ट0, 12. लोहिच्च0, एवं 13. तेविज्जसुत्त। द्वितीय महावग्ग में
10 सूत्र हैं, जैसे- 1. महापदानसुत्त, 2. महानिदान0, 3. महापरिनिब्बान0, 4. महासुदस्सन0, 5. जनवसभ0, 6. महागोविन्द0, 7. महासमय0, 8. सक्कपञ्हव, 9. महासतिपदान0 एवं 10. पायासिसुत्त। तृतीय पाथिक वग्ग में 11 सूत्र है, जैसे- 1. पाथिकसुत्त, 2. उदुम्बरिकसीहनाद0, 3. चक्कवत्तिसीहनाद0, 4. अग्गञ्ञ0 5. सम्पसादनिय0, 6. पासादिक0, 7. लक्खण0, 8. सिंगालोवाद0, 9. आटानाटिय, 10. संगीति एवं 11. दसुत्तरधम्मसुत्त।
इस निकाय में 34 बडे़-बडे़ सूत्र है। इसी लिये
इसका नाम ‘दीघनिकाय‘ पड़ा है। इन सूत्रों में अनेक सूत्र बौद्धमत में महत्त्वपूर्ण माने गये हैं,
महापरिनिर्वाणसूत्र
इसमें भगवान् बुद्ध के अन्तिम जीवन, अन्तिम उपदेश तथा उनके महापरिनिर्वाण
का प्रामाणिक वर्णन है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मजालसुत्त, महानिदानसुत्त, महासतिपट्ठानसुत्तएवं आटानाटिय तथा
संगीतिसुत्त और दसुत्त्रसुत्त भी प्रमुख हैं। दीघनिकाय के सभी सूत्रों में किसी
प्रमुख बौद्धसिद्धान्त की विशद चर्चा है।
2. मज्झिमनिकाय : इस निकाय में बौद्ध से सम्बद्ध अनेक संवाद वर्णित हैं। इनमें
आर्यसत्यचतुष्टय, कर्मसिद्धान्त, तृष्णा की निस्सारता, निवाण, आर्य अष्टागिंक मार्ग, समाधि, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि का यथाप्रसंग वर्णन किया गया है। अनेकों गाथाओं एवं
उपमाओं के आधार से धार्मिक विषय का यथासम्भव स्पष्टीकरण किया गया है।
इस निकाय में मध्यम आकर वाले 152 सूत्र हैं, जो 1. मूलपण्णासक, 2. मज्झिमपण्णासक, 3. उपरिपण्णासक-इन तीन भागों में 50-50 की संख्या में विभक्त है।
इस निकाय का संग्रहकारों ने
वर्गभेद से भी विभाजन किया है, जैसे- 1. मूलपरियायवग्ग, 2. सीहनादवग्ग, 3. ओपम्मवग्ग, 4. महायमकवग्ग, 5. चूळयमकवग्ग, 6. गहपतिवग्ग, 7. भिक्खुवग्ग, 8. परिब्बाजकवग्ग, 9. राजवग्ग, 10. ब्राह्मणवग्ग, 11. इदेवदहवग्ग, 12. अनुपदवग्ग, 13. सुञ्ञतावग्ग, 14. विभंगवग्ग एवं 15. सळायतनवग्ग। इस प्रकार इसमें पंचदश
(15 भेद से वर्ग विभाजन है। उक्त सभी वर्गो में प्रायः दश दश सूत्रों का वर्णन है।
3. संयुत्तनिकाय : यह सुत्तपिटक का तीसरा ग्रन्थ है।
प्रथम ग्रन्थ दीघनिकाय ग्रन्थ में दीर्घ आकार वाले सूत्रों का द्वितीय ग्रन्थ
मज्झिमनिकाय में मध्यम आकार वाले सूत्रों का संग्रह करने के बाद अब इस ग्रन्थ में
भगवत्प्रोक्त अवशिष्ट छोटे बड़े सूत्रों का संग्रह किया गया हैं। इन सूत्रों का
यहाँ संख्याक्रम से 2945 के रूप में परिगणन है, इनका विभाजन यहाँ अनेक प्रकार से हुआ है।
प्रथम विभाजन : यह ग्रन्थ
सर्वप्रथम पाँच वर्गों की दृष्टि से विभाजित किया गया है। वे पाँच वर्ग ये है- 1. सगाथवर्ग, 2. निदानवर्ग, 3. स्कन्धवर्ग, 4. षडायतनवर्ग एवं 5. महावर्ग।
द्वितीय विभाजन : संग्रहकारों ने
ग्रन्थ के सरल विवेचन को ध्यान में रखते हुए इस ग्रन्थ का संयुक्त के रूप में भी
विभाजन किया है। यह ग्रन्थ देवातासंयुक्त आदि 56 संयुक्तों के माध्यम से भी
विभाजित किया गया। विस्तारभय से हम यहाँ सभी संयुक्तों को नामनिर्देशपूर्वक नहीं
लिख पा रहे हैं। इन संयुक्तों की विशेषता यह है कि जिस संयुक्त का वर्णन हो रहा हो
उसमें उसी से सम्बद्ध विषय की चर्चा मिलेगी। वहाँ अन्य विषयों की चर्चा करना
अप्रासंगिक समझा गया।
तृतीय विभाजन : इस ग्रन्थ का तृतीय
विभाजन सूत्रों की दृष्टि से किया गया है। यहाँ एक सूत्र में एक ही विषय का वर्णन
है, अनेक विषयों का एक एक साथ नहीं।
साथ ही प्रत्येक सूत्र के आरम्भ
में सामान्यतः संक्षेप में उस स्थान, काल, परिस्थिति एवं व्यक्ति विशेष का
नाम का भी निर्देश कर दिया है कि भगवान् ने कहाँ कब किन परिस्थितियों में
किसव्यक्ति को उस सूत्र का प्रवचन किया। इस पद्धति से जिज्ञासु पाठक एवं
अनुसन्धाता को उस सूत्र के कालनिर्धरण में बहुत सहायता मिलेगी।
फिर कोई जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा
गाथा (पद्य) के माध्यम से प्रकट करता है तो भगवान् भी उसका उत्तर गाथा में ही देते
हैं। इस पद्धति से संवाद में प्रांजलता आ जाती है।
इस पंचविध वर्गविभाजन को कुछ अधिक
स्पष्ट यों समझ लें-संयुक्तनिकाय में सूत्रों की संख्या 2945 है, जो पांच वर्गो में एवं छप्पन (56) संयुक्त में इस प्रकार विभक्त है-
1. सगाथ वर्ग 11 संयुक्त 271 सूत्र
2. निदान वर्ग 10 संयुक्त 269 सूत्र
3. स्कन्ध वर्ग 13 संयुक्त 716 सूत्र
4. षडायत वर्ग 10 संयुक्त 38 सूत्र
5. महा वर्ग 12 संयुक्त 1224 सूत्र
संकलन
वर्ग 56 संयुक्त 2945 सूत्र
यहाँ प्रथम सगाथवर्ग में उन्हीं
सूत्रों का सग्रह है जिनमे वहाँ आये विषयों का विवेचन गाथाओं में है।
जैसे-सगाथवर्ग के देवतासंयुक्त एवं देवपुत्रसंयुक्त में प्रत्येक विषय का विवेचन
गाथाओं के माध्यम से हुआ है, अतः वैसे सभी सूत्रों का संग्रह
सगाथवर्ग में ही हुआ हैं द्वितीय निदानवर्ग में सभी प्रकार के भवकरणबोधक
प्रतीत्यसमुत्पाद आदि सूत्रों का संग्रह किया गया है। तृतीय स्कन्धवर्ग में
परिगणित सभी सूत्रों में पाँचों-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान-इन स्कन्धों
का विस्तृत विवरण है। चतुर्थ षडासतनवर्ग में चक्षुरायतन, श्रोत्रायतन आदि छह आयतनों का
विस्तृत निरूपण है। तथा अन्तिम महावर्ग में आर्यसत्यचतुष्टय, आर्यअष्टांगिमार्ग, सात बोध्यंग, चार स्मृत्युपस्थान, इन्द्रिय, बल आदि बौद्ध दर्शन के
महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन है। इस प्रकार इस समग्र त्रिपिटक में
संयुक्तनिकाय ग्रन्थ का विशिष्ट स्थान है।
4.अंगुत्तरनिकाय : इस निकाय का विभाजन (व्याख्यान) सर्वथा संख्याबद्ध है।
इामें सर्वप्रथम वे सूत्र व्याख्यात हैं, जिनमं एक संख्या वाले धर्मों का
वर्णन है। इसे एककनिपात कहा गया है। फिर दो संख्या वाले धर्मों का व्याख्यान है, इसे दुकनिपात कहा गया है। इसी तरह
एकादसकनिपात तक समझना चाहिये। यों यह महान् ग्रन्थ ग्यारह (11) निपातों (समूहों) में वर्णित हुआ
है। इसका विभाजन इस प्रकार है-
1. एककनिपात
6. छक्कनिपात
2. दुकनिपात
7. सत्तकनिपात
3. तिकनिपात
8. अट्ठकनिपात
4. चतुक्कनिपात
9. नवकनिपात
5. पंचकनिपात 10. दसकनिपात
11. एकादसकनिपात
बौद्धधर्म में व्याख्यात विशिष्ट
पारिभाषिक शब्दों के यथातथ ज्ञानप्राप्तिहेतु इस ग्रन्थ का अघ्ययन प्रत्येक
बौद्धमतावलम्बी के लिये अत्यावश्यक है। सचाई यह है इधर उधर बौद्धग्रन्थों में
हजारों शब्दों का धर्मानुकूल अर्थ इस एक अंगुत्तरनिकाय से ही जाना जा सकता है। अतः
इसका पठन प्रत्येक बौद्धमतावलम्बी को आवष्यक है।
5. खुद्दकनिकाय : असमे सुत्तपिट के छोटे-बडे़
आकार के 15 ग्रन्थों का समूह संगृहीत है। इसमें ये ग्रन्थ परिगणित हैं-
1. खुद्दकपाठ : इसमें बौद्धधर्म के
आरम्भिक जिज्ञासुओं के लिये शिक्षा है।
2. धम्मपद : इसकी 423 गाथाओं में अधिकांश में नैतिक
शिक्षा वर्णित है।
3. उदान : इसमें भवान् बुद्ध द्वारा
प्रकट किये रूवाभाविक आध्यात्मिक हृदयोद्वार हैं।
4. इतिवुत्तक : इसमें भी भगवान बुद्ध
के ही कुछ उपदेया वर्णित हैं।
5. सुत्तनिपात : इसमें भगवान् बुद्ध
की शिक्षाएँ तथा उन के द्वारा शिष्यों को
दिये गये उत्तर निहित हैं।
6. विमानवत्थु : इसमें देवलोकवासी
बौद्धों के अध्यात्मिक उद्रार वर्णित है।
7. पेतवत्थु : इसमें प्रेतयोनियों के
प्राणियों का वर्णन हैं।
8. थेरगाथा : इसमें क्षीणाश्रव
भिक्षुओं द्वारा प्रोक्त आध्यात्मिक गाथाएँ वर्णित हैं।
9. थेरगाथा : इसमें भिक्षुणियों
द्वारा प्रोक्त आध्यात्मिक गाथाएँ उद्धृत हैं।
10. जातक : इसमें भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों
का वृत्तान्त गाथाओं में वर्णित है।
11. निद्देस : यह ग्र्रन्थ दो भागों
में है। प्रथम महानिद्देस में सुत्तनिपात के अट्ठकवग्ग की व्याख्या है। तथा
द्वितीय चुल्लनिद्देस में सुत्तनिपात के ही पारायणवग्ग की व्याख्या निहित है।
बौद्ध परम्परा में ये दोनों व्याख्याग्रन्थ सारिपुत्र रचित बताये जाते हैं।
12. पटिसम्भिदामग्ग : इसमें अर्हत् किस
प्रकार ज्ञान प्राप्त कर पाता है- इसका वर्णन हैं।
13. अपदान : इसमें बौद्ध अर्हत्
भिक्षुओं द्वारा कृत महान कार्यां का वर्णन है।
14. बुद्धवंस : भगवान बुद्ध द्वारा
अभ्यस्त दश पारमिताओं का वर्णन।
15. चरियापिटक : असमें भगवान बुद्ध की
जीवनचर्याओं का वणन हैं।
इस तरह खुद्दकनिकाय के इन पन्द्रह
ग्रन्थों का सामान्य परिचय दे दिया गया, विस्तृत वर्णन उन उन ग्रन्थों को
देखने से ही ज्ञात हो पायगा।
3. अभिधम्मपिटक : यह पिटक पालिसाहित्य का तृतीय
मुख्य भाग है। अभिधर्म का अर्थ है उच्चतर या विशिष्ट धर्म । वस्तुतः यह उच्चता या
विशिष्टता धर्म की नहीं है क्योंकि धर्म तो सर्वत्र एकरस ही है, किन्तु तीनों पिटकों में, उनके नाना वर्गीकरणओं के करण, यह नाना रूप हो गया है। जो धम्म
विनयपिटक में संयम रूप है, वहीं यहाँ अभिधम्म में तत्त्वरूप
है। इसका कारण अधिकारियों का तारतम्य ही है। प्रस्थान से इस धर्म के स्वरूप में भी
भेद हो गया है। किन्तु यह भेद केवल वर्णनशैली में है।, आदेशना विधि में नही। सुत्तपिटक
सबके लिये सुगम है, क्योंकि वहाँबंद्धवचन अपने यथार्थ रूप में है। अभिधम्मपिटक में उन्ही
बुद्धमन्तव्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण किया गया है, तात्त्विक और मनोवैज्ञानिक
दृष्टियों से उन्हें गणनाबद्ध किया गया है। अतः जहाँ सुत्त्पिटक का निरूपण
जनसाधारण के लिये उपयोगी है, वहाँ अभिधम्मपिटक की सूचियों एवं
परिभाषाओं में वही साधक रूचि ले सकते हैं, जिन्हें बौद्धतत्त्वदर्शन को अपने
अण्यायन का विशेष विषय बनया है। अभिधम्मपिटक धम्म की अधिक गम्भीता में उतरता है
तथा अधिक साधनसम्पन्न जिज्ञासुओं के लिऐ ही उसका प्रणयन हुआ है- ऐसा बौद्ध परम्परा
आरम्भ से ही मानती आ रही है।
इस अभिधम्मपिटक में अभिधम्म के
प्रतिपादक सात ग्रन्थ हैं- 1. धम्मसंगणि, 2. विभंग, 3. धातुकथा, 4. पुग्गलपंञत्ति, 5. यमक,
6. पट्ठान एवं 7. कथावत्थु।
इसमें 1. प्रथम धम्मयंबणि सम्पूर्ण
अभिधम्मपिटक का आधरभूत ग्रन्थ है। तथा 2. विभंग विषयवस्तु की दृष्टि से उसी
(धम्मसंगणि) पर आधृत ग्रन्थ है। अतः यों कहा जा सकता है कि विभंग धम्मसंग्णि का
पूरक ग्रन्थ है।
तथा स्वयं (विभंग) 3. धातुकथा का आधारग्रन्थ है। इस
प्रकार विभंग धातुकथा एवं धम्मसंगणि के साथ मध्यस्थतर करता है।
4. पुग्गलपञ्ञत्ति (पुदग्प्रज्ञप्ति) इस समस्त शब्द का अर्थ है-
पुअग्लों (व्यक्तियों) से सम्बद्ध ज्ञान या उनकी पहचान। इस ग्रन्थ में पुदग्ल के
नाना भेद बताये गये हैं। विष्यशैली या वर्णनप्रणाली दृष्टि से इस ग्रन्थ का अधिर्म
की अपेक्षा सुत्तपिटक में परिगणन अधिक उपयुक्त होता, क्योकि यह व्यक्ति का निर्देश, धर्मों के साथ उनके सम्बन्ध की
दृष्टि से नही किया गया है, अपितु अंगुत्तरनिकाय की शैली पर बुद्धवचनों का आश्रय लेते हुए, या उनको अधिक स्पष्ट से, या उनकी व्याख्या के कारण, या उनके गुण कर्म विभाग के अनुसार
व्यक्तियों के नाना स्वरूपों को वर्गबद्ध किया है, जो मूल बुद्धधर्म के नैतिक
दृष्टिकोण को समझने के लिये अतिमहत्त्वपूर्ण हैं। इस समस्त ग्रन्थ में दश अध्याय
हैं। समग्र वर्णन प्रश्नोत्तर शैली में है।
5. कथावत्थु : सम्राट् अशोक के समय तक बौद्ध
धर्म में संग्भेद के कारण 18 निकाय हो चुके थे। मोग्गलिपुत्ततिस्स ने स्थविरवाद के अतिरिक्त 17 निकायों के मत का खण्डन करते हुए
यह ग्रन्थ (कथावत्थुप्पकरण) लिखा तथा सम्राट् अशोक के समय हुई तृतीय महासंगीति ने
इस ग्रन्थ को अभिधम्म का ग्रन्थ घोषित कर दिया।
इस ग्रन्थ में सब मिलाकर विरोधी
निकायों के 216 सिद्धान्तों का खण्डन है। यह ग्रन्थ 23 प्रकरणों में विभक्त है।
6. यमक : यमक का अर्थ है- युगल (जुडवाँ या
जोडा) इस यमक प्रकरण में सभी प्रश्न युगल रूप् में रखे गये हैं। प्रश्नों के
अनुकूल या विपरीत स्वरूपों का यह युग्म बनाना इस ग्रन्थ में आदि से अन्त तक है, अतः इसका ‘यमक‘ नाम उचित ही है। इस ग्रन्थ का
मुख्य उद्देश्य है-अभिधम्म में प्रयुक्त शब्दावली की निश्चत व्याख्या। अतः इस
ग्रन्थ का अभिधर्मदर्शन के लिये वही उपयोग एवं निश्चित पारिभाषिक शब्दकोष का किसी
पुर्ण दर्शनप्रणाली के लिये होता है।
यह ग्रन्थ दश अध्यायों में विभक्त
है। जिनमें निर्दिष्ट विषयों के साथ धर्मों के सम्बन्ध दिखना ही इसका लक्ष्य है।
अध्यायें के विषय उनके नामों से ही स्पष्ट हो जाते है, जैसे- मूल यमक, खन्धयमक, आयतनयमक इत्यादि ǁ
7. पट्ठान : प्रतत्यसमुत्पाद सिद्धन्त का
विस्तार के साथ समग्र विवेचन ही सम्पूर्ण पट्ठान में किया गया है। किन्तु
सुत्तपिटक की अपेक्षा पट्ठान की विवकचनपद्धति में एक चिशेषता है। जैसा कि
प्रतीत्समुत्पाद के वर्णन से स्पष्ट है। प्रतीत्यसमुत्पाद की कारण-कार्य परम्परा
में 12 कड़ियाँ है, जो एक से दूसरे प्रत्ययों के आधार पर जुड़ी हुई हैं। सुत्तपिटक में इन कड़ियों
की व्याख्या मिलती है, परन्तु पट्ठान में इन कड़ियों की व्याख्या पर अधिक बल न देकर उन प्रत्ययों पर
बल दिया गया है जिनके आश्रय से वे एत्पन्न होती हैं या निरूद्ध होती हैं।
पट्ठान में इस प्रकार के 24 प्रत्ययों का विवेचन किया गया है।
यही उनकी एकमात्र विषयवस्तु है। जैसा कि इसके नाम (पच्चयपट्ठान) से स्पष्ट है।
पट्ठान प्रत्ययों का स्थान ही है।
आकर एवं महत्त्व की दृष्टि से
पट्ठान अभिधम्मपिटक का एक महान् ग्रन्थ है। विषयगत महत्त्व में उसका स्थान
धम्मसंगणि के समनन्तर ही है।
ग्रन्थ को अधोलिखित चार भागों में
बाँटकर विवकचन किया गया है-
1. अनुलोम पट्ठान : धर्मों के
पारस्परिक प्रत्ययसम्बन्धों का विधानात्मक अध्ययन।
2. पंचनिय पट्ठान : धर्मों के
पारस्परिक प्रत्ययसम्बन्धों का विधानात्मक अध्ययन।
3. अनुलोम-पच्चनिय पट्ठान : धर्मों के
पारस्परिक प्रत्ययसम्बन्धों का विधानात्मक अध्ययन।
4. पच्चनिय-अनुलोम पट्ठान : धर्मों के
पारस्परिक प्रत्ययसम्बन्धों का विधानात्मक अध्ययन।
उपर्युक्त चार भागों में विधनात्मक
आदि अध्ययनक्रम से 24 प्रक्ययों का सम्बन्ध धर्मों के साथ दिखाया है। प्रम्येक भाग में यह अध्ययन
क्रम छह प्रकार से प्रयुक्त हुआ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यह अध्ययपक्रम
उपर्युक्त चार भागों से प्रत्येक छह छह उपविभागों में और भी बँटा हुआ है। जैसे-
1. तिकपट्ठान, 2. दुकपट्ठान, 3. दुक-तिक पट्ठान, 4. तिक-दुकपट्ठान, 5. तिक-तिकपट्ठान, एवं 6. दुक-दुकपट्ठान।
इस प्रकार यह सम्पूर्ण ग्रन्थ
चौबीस भागों में बँटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक ‘पट्ठान‘ कहलाता है। अर्थात इस पट्ठान
महाप्रकरण में सग मिलकर चौबीस प्रत्ययस्थान हैं। इसमें इन्हीं चौबीस प्रत्ययों का
वर्णन है ǁ
इस तरह त्रिपिटक के समस्त ग्रन्थों
का साधार परिचय लिया गया।
(ख) त्रिपिटकेतर (अनुपिटक) साहित्य
पालि तिपिटक एवं अट्ठकथा साहित्य
के संकलन के बीच बौद्धों के तीन महत्त्वशाली ग्रन्थ अन्य भी हैं, जिनके नाम हैं- 1. नेकत्तप्पकरण, 2. पेटकोपदेस एवं 3. मिलिन्दपंह।
1. नेत्तिप्पकरण : इस ग्रन्थ को नेति
या नेत्तिगन्थ भी कहते हैं यह ग्रन्थ सद्धम्म को समझने के लिये मार्गदर्शन का
कार्य करता है। नेत्ति (=नेत्री) का अर्थ है-मार्गदर्शिका। वस्तुतः बुद्धवचन इतने
सरल और हृदयस्पर्शी हैं कि उनको समझने के लिये किसी मार्गदर्शन की विशेष आवश्यकता
नहीं। एकान्तचिन्तन एवं बुद्धोपेश-इन दोनों के बीच किसी मध्यस्थ की आवश्यक ही नहीं
थी, परन्तु दार्शनिकों का पण्डितवाद (प्रज्ञावाद) बुद्ध-धर्म में भी आ गया। यहाँ
भी सरल बुद्धोपदेशों का वर्गीकरण हो गया। उसका नियमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने के
लिये शास्त्रीय नियम बना दिये गये। उसके मन्तव्यों को समझने के लिये उसे सूचीबद्ध
किया गया। अभिधम्मपिटक में अस प्रवत्ति के प्रथम लक्षण दिखयी देते हैं। उसी का
प्रत्यावर्तन हमें नेत्तिप्पकरण एवं पेटकोपदेस जैसे ग्रन्थों में मिलता है।
नेत्तिप्पकरण का तिपिटक के
बुद्धवचनों से वही सम्बन्ध है जो यास्ककृत निरूक्त का वेदों के साथ है। परन्तु
वैदिक भाषा के प्रति प्राचीन हो जाने के कारण, निरूक्त की सार्थकता हो सकती है, किन्तु बुद्धवचनों के अतिसरल होने
के कारण उन पर निरूक्तिपरक ग्रन्थ पालिसाहित्य में अपनी जड़ नहीं जमा पाये। आज केवल
नत्तिप्पकरण एवं पेटक़ोपदेश-ये दो ही निरूक्तिपरक ग्रन्थ मिलते है, परन्तु इनसे भी बुद्धवचनों को
समझने में अधिक सरल आ गयी हो-ऐसा नहीं कहा जा सकता। इनमें भी केवल त्रिपिटक के पाठ
तथा उसके तात्पर्यनिर्णयसम्बन्धी नियमों या युक्तियाँ का शास्त्री विवकचन ही किया
है।
नेत्तिप्पकरण का विषय- 16 हार (गुँके हुए विषयों की बड़ो
मालाएँ), 5 नय (तात्पर्यनिर्णय के लिये युक्तियाँ), तथा 18 मूलपदों (मुख्य नैतिक विषयों) की
व्याख्या करना ही है।
विषय की दृष्टि से बुद्धोपदेशों को
कितने भागों में बाटाँ जा सकता है-इसका भी निरूपण इस बगन्थ में है।
रचना काल : इस नेत्तिप्पकरण की
ईस्वी सन् के आरम्भकाल में किसी कच्चान नामक भिक्षु ने रचना की थी-ऐसी इतिहासकारों
का मानना है। ईसा की पाँचवी शताब्दी से आचार्य धर्मपाल ने इस ग्रन्थ पर अट्ठकथा भी
लिखी थी।
2. पेटकोपदेस : यह ग्रन्थ भी
नेत्तिप्पकरण के समान ही विषयवस्तु वाला है। जो बातें नेत्तिप्पकरण में दुरूह यह
गयी है उनको इसमें स्पष्ट से समझा दिया गया है। पेटकोपदेश की मुक्ष्य विशेषता यही
है कि यहाँ विष्यविन्यास आर्यसत्यचतुष्टय की दृष्टि से किया गया है, जो बुद्धशासन का उपादान है।
इस ग्रन्थ के रचयिता भी कोई कच्चान
नामक भिक्षु ही माने जाते हैं। इसका रचनाकाल भी वही जो नेत्तिप्पकरण का है।
3. मिलिन्दपंह : यह ग्रन्थ अनुपिटक
पालिसाहित्य का शिरोमणिभूत है। इसके रचयिता भदन्त नागसेन स्थविर माने गये हैं। यह
ईस्वी द्वितीय या प्रथम शताब्दी पूर्व की रचना है-ऐसा प्रायः सभी इतिहासकार मानते
हैं। इस ग्रन्थ में सम्राट् मिलिन्द (मिनान्ड्र) एवं भदन्त नागसेन का बौद्ध मत के
सम्बन्ध में विस्तृत संवाद है।
(यह ग्रन्थ इस बौद्धभारती
ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुका है। अतः इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में सभी कुछ
ज्ञातव्य इस ग्रन्थ की भूमिका में देखें।)
8. पालिसाहित्य के अन्य वर्गीकरण
1. पाँच निकाय : सम्पूर्ण बुद्धवचन
पाँच निकायों में भी विभाजित किया गया है। इनमें चार निकाय तो पूर्वोक्त सुत्तपिटक
के समान ही हैं, परन्तु पाँचवे खुद्दकनिकाय में उक्त खुद्दकपाठ आदि 15 ग्रन्थें के साथ-साथ विनयपिटक एवं
अभिधम्मपिटक समस्त ग्रन्थें को भी संगृहीत कर दिया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि
यह विभाजन प्रथम (पूर्वोक्त) विभाजन के समान स्वाभाविक नहीं लगता।
2. नौ अंग : सम्पूर्ण बुद्धवचन का नौ
(9) अंगों के रूप में भी एक वर्गीकरण उपलब्ध है। उन अंगों के नाम ये हैं-1. सुत्त, 2. गेय्य, 3. वेय्याकरण, 4. गाथा, 5. उदान, 6. इतिवुत्तक, 7. जातक, 8. अब्भुतधम्म एवं 9. वेदल्ल। इनका क्रमशः स्पष्टीकरण
यों समझिये-
1. सुत्त (सूत्र) = सामान्यतः
बुद्धोपदेश। दीघनिकाय, सुत्तनिपात आदि ग्रन्थों में गद्य में कहे गये भगवान् के सभी उपदेश ‘सुत्त‘ कहलाते हैं।
2. गेय्य (गेय) = वही गद्य पद्य
मिश्रित अंश गेय्य (गाने योग्य) कहलाते हैं।
3. वेय्याकरण (व्याकरण) = विवरण या
विवेचन। जैसे अभिधम्मपिटक का समस्त अंश।
4. गाथा (श्लोक) = छन्दोबद्ध (श्लोकों
में) कहे गये भगवान् के उपदेश। जैसे-धम्मपद।
5. उदान = भगवान् बुद्ध के श्रीमुख से
अकस्मात् (सहसा) निकले भावमय हर्षोद्वार।
6. इतिवुत्तक (इत्युक्तक) =‘ऐसा तथागत ने कहा‘,‘ऐसा कहा गया‘ शीर्षक से लिखे गये भगवान् के
धर्मोंपदेश।
7. जातक = भगवान् बुद्ध के
पूर्वजन्मों से सम्बद्ध कथाएँ।
8. अब्भुतधम्म (अद्भुतधर्म) = इस अंग
में उन सूत्रों का परिगणन है जिनमें भगवान् के आश्चर्यमय चरित्र या योगसम्बन्धी
विभुतियों का वर्णन है।
9. वेदल्ल = वेदनिश्रित या ज्ञान पर
आधृत। वेदल्ल भगवान् के वे उपदेश कहलाते हैं जो प्रश्नोत्तर-शैली में लिखे गये
हैं। जैसे- मज्झिमनिकाय के चूळवेदल्लसुत्त। इनमें परिपश्रात्मक शैली में उपदेश
किया गया है। सम्भवतः यही देखकर कोशकारों ने ‘वेदल्ल‘ शब्द का अर्थ परिप्रश्रात्मक शैली
किया है।
यह नौ अंगों में विभाजन की बात
मिलिन्दपंह, बुद्धघोष की अट्ठकथा आदि ग्रन्थों से प्रमाणित है।
3. चौरासी हजार धर्मस्कन्ध : प्रिद्ध
इतिहास-ग्रन्थ महावंस के पंचम परिच्छेद (पृ0 77-80) में उल्लिखित सम्राट् अशोक एवे
मोग्गलिपुत्त तिस्सत्थेर के संवाद को प्रमाण मानते हुए बौद्धपरम्परा समग्र
बुद्ध-उपदेशों को 84000 धर्मस्कन्धों के रूप में भी विभक्त मानती थी। इन्हीं धर्मस्कन्धों पर अपनी
अतिशायिनी श्रद्धा प्रकट करने हेतु सम्राट् अशोक ने भी बौद्धों के लिये 96 करोड़ धन खर्च कर 84000 विहार बनवाये थे ǁ
इस प्रकार पिटकसाहित्य का साधारण
परिचय पूर्ण हुआ।
9. अट्टकथा साहित्य
इसके
बाद चतुर्थ ईसा शताब्दी से 11वीं शताब्दी तक बुद्धघोषयुग कहलाया, जिसमें आचार्य बुद्धघोष आदि
बौद्धविद्वन्मण्डली द्वारा समग्र त्रिपिटक पर अर्थकथाएँ (अट्टकथाएँ) लिखी गयीं।
जिनमें आचाये बुद्धघोष द्वारा धम्मपद पर लिखी अट्टकथा भी महत्त्वपूर्ण है। इनमें
आचार्य ने प्रत्येक गाथा के अवतरणक्रम में उस गाथा का स्थान, उपदेश्य पुद्भल उससे सम्बद्ध
अवतरणकथा-सभी कुछ विस्तार से दिया है। इससे गाथाओं की प्रामाणिकता स्पष्ट द्योतित
हो गयी है। यह धम्मपदट्टकथा आज हिन्दी अनुवाद के साथ ‘बौद्ध आकर ग्रन्थमाला, महात्मा गान्धी काशी विद्यापीठ, वाराणसी‘ से प्रकाशित हो रही है। जिज्ञासुजन
इसे पढकर अपने आध्यात्मिक ज्ञान में अवश्य वृद्धि करें।